सूचना: ई-मेल के द्वारा ब्लोग्स के लेख प्राप्त करने की सुविधा ब्लोगर द्वारा जुलाई महीने से समाप्त कर दी जाएगी. इसलिए यदि आप ने इस ब्लॉग के लेखों को स्वचालित रीति से ई-मेल द्वारा प्राप्त करने की सुविधा में अपना ई-मेल पता डाला हुआ है, तो आप इन लेखों अब सीधे इस वेब-साईट के द्वारा ही देखने और पढ़ने पाएँगे.

सोमवार, 31 अगस्त 2009

सम्पर्क मई २००१: परमेश्वर के वचन से सम्पर्क

उसमें जीवन था और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति थी, और ज्योति अन्धकार में चमकती है, और अन्धकार ने उसे ग्रहण न किया (यूहन्ना १:४,५)।

किसी आदमी ने एक घड़ी बनाई और उसके डायल में एक राजनेता की तस्वीर लगाई। घड़ी की खासियत यह थी कि हर सैकिंड के बाद राजनेता की आँखें बदल जाती थीं। यह व्यंग्य तो तीखा था, पर वास्तविकता में हम सबकी हालत भी ऐसी ही है। हम अपने आप में बहुत नाटकबाज़ हैं।हर २४ घटों में हमारी भी दशा, दिशा, विचार, व्यवहार तेज़ी से बदलते रहते हैं। हम जहाँ काम करते हैं वहाँ कुछ और, घर में कुछ और, मण्डली में कुछ और होते हैं। दोस्तों, दुशमनों, परिवार जनों और विश्वासी जनों के सामने हमारा स्वभाव बदलता रहता है। वास्तव में पर्दे के पीछे हम कुछ और ही होते हैं। अक्सर हम अपने अधिकारियों और नेताओं को लालची बताकर उन्हें बहुत कोसते हैं, पर ज़रा ईमानदारी से अपने आप से सवाल करें, क्या मन में हम खुद बहुत लालची नहीं हैं? “खाने” के बारे हम दूसरों को बहुत उपदेश दे सकते हैं पर जैसे ही मुफ्त का बढ़िया खाना हमारे सामने आता है तो हमारी हालत बस देखते ही बनती है। वास्तविकता यही है।

यूहन्ना अक्सर ‘सच’ शब्द को दो बार एक साथ रखकर प्रयोग करता है - “मैं तुम से सच-सच कहता हूँ...।” मूल युनानी भाषा में जिसमें यूहन्ना का सुसमाचार लिखा गया था, इस तरह ‘सच-सच’ का प्रयोग करने क एक अर्थ है “वास्तविकता में” या इसे यूँ कहिये कि बस यही वास्तविकता है, यानि यही इकलौता सच है, इसके अलावा और दूसरा कोई सच है ही नहीं। यूहन्ना इस तरह सत्य से हमारी मुलाकात करवाता है - “उसमें जीवन था” (यूहन्ना १:४)। यही जीवित परमेश्वर है और यही सत्य है।

प्रभु की मृत्यु के बाद तीसरे दिन कुछ स्त्रियां जीवित प्रभु को कब्रिस्तान में ढूंढ रहीं थीं, तब स्वर्गदूत ने उन्हें समझाया “तुम जीवते को मरे हुओं में क्यों ढूंढती हो? (लूका २४:५)।” सच यही है कि मौत प्रभु को मार कर अपने वश में नहीं रख सकती थी। मात्र वही जीवित प्रभु है जो मौत पर विजयी हुआ भी और विजय पने की सामर्थ भी रखता है। यही इकलौता सत्य है।

एक व्यक्ति था जिसने मसीही विश्वास को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए अपनी पूरी सामर्थ झोंक दी, लेकिन सालों के कठोर परिश्रम के बावजूद अपनी बात साबित नहीं कर सका और न अपना एक भी कोई अनुयायी पैदा कर पाया। बन्दा हठीला था, इसलिए हिम्मत नहीं हारा। वह एक मशहूर विद्वान के पास गया और उससे अपनी सारी कहानी कह सुनाई और उससे पूछा अब मैं क्या करूँ? विद्वान ने सहज शब्दों में उसे सलाह दी “जनाब आप पहला काम यह करो कि अपने आप को क्रूस पर ठुकवा लो। फिर ऐसा करना कि मरने के बाद तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठना, बस अपकी सारी समस्या का हल हो जाएगा।” वास्तविकता यही है कि वही एक प्रभु है जो मौत पर विजयी होने की सामर्थ रखता है, उसी में जीवन अपितु अन्नत जीवन है और वही जीवित परमेश्वर है।

एक शारीरिक जीवन है और एक आत्मिक जीवन है। एक सीमित है और दूसरा असीम। शारीरिक जीव जैसे ही जन्म लेता है, उसी पल से उसकी मौत के लिए उलटी गिनती शुरू हो जाती है; और वह इस शारीरिक जीवन का हर पल मौत के भय में जीता है। यही मौत का डर उसे डराता भी है और बेचैन भी रखता है। ऐसे शारीरिक लोगों से प्रभु कहता है “तू जीवता तो कहलाता है पर है मरा हुआ (प्रकाशितवाक्य २:१)।” पाप के कारण मनुष्य मरी हुई दशा में जीता है (इफिसियों २:१)।

एक विश्वासी जन ने किसी व्यक्ति से सवाल किया “आप मौत के बाद कहाँ जाओगे?” आदमी ज़रा ज़्यादा ही चतुर था, लापरवाही से बोला “साहब मरने के बाद शमशान जाउँगा।” विश्वासी ने कहा “जनाब बुरा न मानें, वास्तविकता तो यह है कि मरने के बाद आप हमेशा की मौत में जाएंगे।” एक मौत ऐसी है जो हमेशा की है और एक जीवन भी है जो हमेशा का है।

प्रिय पाठक, आईये ज़रा धीरज धर कर प्रभु यिशु के कहे कुछ शब्दों में से होकर आगे बढ़ें जहाँ प्रभु ने कहा “... मैं ही जीवन हूँ... (यूहन्ना १४:६)।” “मैं इसलिए आया कि तुम जीवन पाओ और बहुतायत क जीवन पाओ (यूहन्ना १०:१०)।” “फिर भी तुम जीवन पाने के लिए मेरे पास आना नहीं चाहते (यूहन्ना ५:४०)।” “जिसके पास पुत्र (प्रभु यीशु) नहीं उसके पास जीवन नहीं है (१ यूहन्ना ५:११)।” एक प्रोफैसर सहब ने अपने विद्यार्थियों से एक प्रश्न पूछा “देखने के लिए किस वस्तु की ज़रूरत होती है?” ज़्यादतर विद्यार्थियों ने तपाक से जवाब दिया “सर आँख की।” उनमें से एक विद्यार्थी भाँप गया कि प्रश्न इतना सीधा नहीं है जितना लगता है, उसने ज़रा दिमाग़ पर ज़ोर दिया फिर बोला “सर आँख की और एक ऐसे दिमाग़ की जो देखी हुई वस्तुओं को समझने की सामर्थ रखता है।” तब प्रोफैसर उन सब विद्यार्थियों को एक बन्द अन्धेरे कमरे में ले गए और बोले “तुम सब के पास देखने वाली आँखें और समझने वाला दिमाग भी है, क्या तुम्हें इस अन्धकार में कुछ दिखाई दे रहा है?” अब उनकी समझ में आया कि अन्धकार ने उन्हें ‘अन्धा’ कर दिया है और देखने के लिए पहले प्रकाश फिर अन्य चीज़ों की ज़रूरत होती है।

अन्धकार सब कुछ छिपा देता है पर ज्योति सब कुछ प्रकट कर देती है। “परमेश्वर ज्योति है और उसमें कुछ भी अन्धकार नहीं (१ युहन्ना १:५)।” “तेरा वचन मेरे पाँव के लिए दीपक और पथ के लिए उजियाला है (भजन ११९:१०५)।” ‘ज्योति’ में ही हम अपने आप को अपने वास्तविक स्वरूप में देख पाते हैं, अपनी गन्दगी देख पाते हैं, देख पाते हैं कि हम कहाँ खड़े हैं, और हमें अगला कदम कहाँ रखना है। जो ज्योति में जीता है वह ठोकर खाने से बच निकलता है (युहन्ना ११:९)। अन्त के पार वह अपने अनन्त को देख पाता है। शैतान ने अनेक लोगों की बुद्धी को अन्धा कर डाला है (२ कुरिन्थियों ४:४) ताकि सच्ची ज्योति का तेजोमय सुसमाचार उन पर न चमके। शैतान चहता है कि लोग ऐसे ही अन्धकार में जिएं और फिर अनन्त अन्धकार में चले जाएं। आत्मिक अन्धकार में पड़े व्यक्ति की भूख और अतृप्ती उसे भटकाती है। वह तृप्ती पाने के लिए कुछ भी करना चाहता है और करता भी है, लेकिन आत्मिक अन्धकार उसे अपने इन प्रयासों की असार्थक्ता और विफलता पहचानने नहीं देता। सच्ची ज्योति से दूर वह अपने ही प्रयासों और कर्मों से बन्धा रहता है, इस भ्रम में कि उसके प्रयासों ने उसे सही राह दिखा दी है, जबकि सही राह तो केवल सच्ची ज्योति ही दिखा सकती है।

ज्योति तो अन्धकार में चमकती है (युहन्ना १:५)। जो जीवन की ज्योति में जीता है, उसका जीवन अलग ही चमकता है। “पर यदि जैसा वह ज्योति में है, वैसे ही हम ज्योति में चलें, तो एक दूसरे से सहभागिता रखते हैं... (१ युहन्ना १:७)।” अनेक प्रभु के अभिषिक्त लोगों को शैतान अपने लिए उप्योग करता है और इसका एक अच्छा उदहरण शमशौन का है (न्यायियों १६:२१) जिसे अन्धा करके, उसके और उसके समाज के शत्रुओं ने, अपने काम के लिए उपयोग किया। इस तरह कई प्रभु के उपयोगी पात्रों का उपयोग शैतान करता है क्योंकि उनके अन्धकार के काम अर्थात उनके छिपे पाप, जैसे व्यभिचार या व्यभिचार के विचार, लालच, अहंकार, बदला लेने की भावना आदि उन्हें अन्धा कर डालते हैं। जो जीवन कभी ज्योति देते थे वे अब एक धुआं देती बाति बन गए हैं, ऐसा धुआं जो लोगों को प्रभु के समीप नहीं आने देता, प्रभु के भवन पर कालिख चढ़ाता है। ऐसे विश्वासी प्रभु के घर के आत्मिक वातवरण को दूषित कर देते हैं।

एक जन कह रहा था “वह तो सिर पर ही चढ़ा जा रहा था। बस ऐसा जवाब दिया कि उसके होश ठिकाने आ गए और मुँह बन्द हो गया।” जब-जब कोई अपशब्द कह कर हमारे अहम पर चोट करता है तब हम भी बदले में ऐसे ही शब्दों का प्रयोग करके उसके अहम को भी वैसी ही चोट देना चाहते हैं। हम बुराई को बुराई से जीतना चाहते हैं, लेकिन प्रभु कहता है कि बुराई को भलाई से जीत लो (रोमियों १२:२१)। एक विश्वासी अपने शत्रुओं के बारे में भी बुरा नहीं सोच सकता, अपने भाईयों को भला-बुरा कहना तो दूर की बात है। अन्धकार के खेल मण्डलियों में गहराते जा रहे हैं। हम दूसरों को अपमानित करने के लिए कटाक्ष या व्यंग्य का प्रयोग करते हैं और फिर उसे हंसी में या ‘मज़ाक’ कह कर टालना चाहते हैं। अधूरे सच पर बातें गढ़ना या अफवाह फैलना फिर उसे ‘शायद’ या ‘हो सकता है’ जैसे शब्दों में ढाँपना भी काफी प्रचलित है। ऐसा अहंकार, बदले की भावना, बैर-भाव कहीं हमारे ही मन में तो नहीं भरा? हे मेरे प्रीय भाई, हे मेरी प्रीय बहन, ज़रा अपने मन में झाँक कर देख तो लें।

प्रभु का आपसे वायदा है कि “वह धुआँ देती बाति को नहीं बुझाएगा (मत्ती १२:२०)।” बस इतना हो कि मन लें और कहें “हे प्रभु तेरा यह जन यहाँ तक गिर चुका है। दया करके क्षमा कर और फिर उठा ताकि मैं फिर से जलता हुआ जीवन जी सकूँ।” “ज्योति अन्धकार में चमकती है (यूहन्ना १:५)।”

“तुम्हारा उजियाला मनुष्यों के सामने चमके कि वह तुम्हारे भले कामों को देखकर तुम्हारे पिता की जो स्वर्ग में है, बड़ाई करें (मत्ती ५:१६)।”

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

सम्पर्क मई २००१: संपादकीय

प्रभु यीशु के क्रूस पर किए काम और उसके महान नाम की जय-जयकार हो जिसने “सम्पर्क” के माध्यम हमारी सीमाओं को एक नया विस्तार दिया है। सम्पूर्ण सम्पर्क परिवार आपकी प्यार भरी प्रार्थनाओं के लिए ऋणी है।

इस बार तो हम हिम्मत हार ही गये थे, पर यह अंक आप तक लाने के लिए हमें आपके पत्रों और प्रार्थनाओं ने फिर से कुछ करने का हियाव दिया। मैं परमेश्वर के वचन का सबसे प्यार भरा कोमल स्पर्ष तब महसूस करता हूँ जब प्रभु अपने वचन से मुझ से कहता है, “ मैं तुझ को प्यार करता हूँ और मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूँगा।” यह सोच ही मुझे आनन्द और आराधना से भर डालती है कि प्रभु मुझ जैसे व्यक्ति से भी प्यार करता है।

एक बार ट्रेन में सफर करते समय मैंने देखा कि एक महिला एक बच्चे को सीने से चिपकाए बैठी थी। वह बच्चा बहुत ही सूखा सा था, उसकी बेहद मुचड़ी सी खाल उसकी हड्डियों से चिपकी पड़ी थी और उसका रंग तपे ताँबे की तरह था। उसकी दयनीय दशा देखकर मन विचिलित होता था पर माँ ने उसे एक बेशकीमती चीज़ की तरह संभाल्कर सीने से लगा रखा था। इस पर एक और अजीब बात यह थी कि माँ ने उस बच्चे के माथे पर एक काला टीका भी लगा रखा था कि कहीं उसे किसी की कोई बुरी नज़र न लग जाए। किसी और की नज़र में वह बच्चा चाहे जैसा भी हो, माँ की नज़र में वह बहुत ही कीमती और सुँदर था, जान से ज़्यादा प्यारा था। शैतान इस प्र्यास में जुटा रहता है कि आप को यह यकीन दिलाए कि परमेश्वर आप जैसे आदमी से कैसे प्यार कर सकता है? एक माँ एक ऐसे बदसूरत, बीमार और देखने वालों का मन विचिलित कर देने वाले बच्चे से कैसे ऐसा प्यार कर सकती है? यह तथ्य हमारी समझ में आये या न आये, पर यह सच झुठलाया नहीं जा सकता कि बस वह अपने उस बच्चे से ऐसा प्यार करती है, उस पर जान छिड़कती है। माँ और परमेश्वर में ज़मीन आसमान का फर्क है, परमेश्वर का प्रेम माँ के प्रेम से भी कहीं आगे, बहुत-बहुत आगे बढ़कर है। माँ अपने इकलौते बेटे की जान अपने किसी बदकार दुश्मन के लिए नहीं दे पाएगी, पर परमेश्वर ने अपने दुश्मनों के लिए अपने इकलौते बेटे की जान बलिदान कर दी। वह अपने शत्रुओं से भी नफरत नहीं करता, वह तो बस यही चाहता है कि उसके दुश्मन भी किसी तरह उद्धार पाकर उसके साथ रहें, और हमेशा के लिए हमेशा के आनन्द में आ जाएं (१ तिमुथियुस २:४)।

शैतान बाईबल की इस सच्चाई को मिटा डालना चाहता है कि परमेश्वर उन्हें भी दिल से प्यार करता है जो कतई प्यार करने के लायक ही नहीं हैं। हमारा दो कौड़ी का दिमाग़ परमेश्वर के असीम प्रेम को समझ नहीं सकता। क्या आपको मालूम है कि वह आपको किस हद तक प्यार करता है? बाईबल का अद्भुत पद “जैसे तूने मुझ से प्रेम रखा है वैसे ही उनसे प्रेम रखा है (युहन्ना १७:२३)” बिल्कुल सच है। परमेश्वर मुझ जैसे और आप जैसे इन्सान से प्रभु यीशु की तरह प्यार करता है; पर कुछ ही लोग उसके प्यार का एहसास कर पाते हैं। जो महसूस करते हैं उन्हें परमेश्वर का प्यार विवश करता है। वे उसके प्यार के कारण अपने मन से मजबूर हो जाते हैं कि अपने प्यारे प्रभु के लिए कुछ करें। परमेश्वर के वास्तविक बच्चे परमेश्वेर के प्यार के स्पर्ष को साफ पहिचान लेते हैं।

मैं भाई डी. एल. मूडी की एक कहानी आपके साथ अपने शब्दों में बांटना चाहुँगा। एक माँ को खबर मिली कि उसका बेटा किसि दूसरे शहर में एक बुरी दुर्घटना का शिकार होकर शहर के अस्पताल में भर्ती है। माँ ने पहली गाड़ी पकड़ी और बताए हुए पते पर पहुँची। वह अपने बच्चे से मिलने के लिए बहुत आतुर थी, किसी ज़रिए उस तक पहुँचना चाहती थी। पर डॉकटर ने उसे यह कह कर रोका कि काफी समय बाद वह लड़का मुशकिल से सो पाया है, अतः वह उससे अभी न मिले। माँ ने रोते-रोते कहा “डॉकटर साहब, मुझे मेरे बच्चे को एक बार देखने दो, हो सकता है कि फिर मैं उसे ज़िन्दा कभी न देख पाऊं। मैं आपसे वायदा करती हूँ कि मैं उससे कुछ भी नहीं कहूँगी, बस उसके पास चुपचाप बैठकर उसे देखती रहूँगी।” डॉकटर उसकी इस बात पर राज़ी हो गया और वह एक स्टूल पर अपने बेटे के पास बड़ी खामोशी के साथ बैठ गयी। बेटे के सिर और आँखों पर पट्टियाँ बंधीं थीं। माँ आँसुओं के साथ खामोशी से अपने बेटे को देखती रही। वह कभी उसके हाथ देखती और कभी उसके पैर, उसकी आँखें बस अपने बेटे पर ही लगीं थीं। थोड़ी देर बाद वह अपने आप को रोक ना पाई और बड़े धीरे से उसने अपने हाथ को बेटे के सिर पर रख दिया। बेटे ने तुरन्त धीमी आवाज़ में कहा “माँ तू आ गई।” उस बेटे ने सालों बाद माँ के हातों के स्पर्ष को पाया था लेकिन उसे उस प्यार भरे हाथ को पहिचानने में ज़रा भी देर नहीं लगी। क्या आपका दिल आपके प्रभु के प्यार का एहसास करता है?

जब मेरा प्रभु क्रूस पर अपनी पीड़ा के चरम सीमाओं को सह रहा था, तब एक तीखा पर सच्चा ताना उस पर कसा गया “इसने औरों को बचाया पर अपने आप को न बचा सका (मरकुस १५:३१)।” प्यारे प्रभु को दो में से एक बात को चुनना था - वह औरों को बचाए या अपने आप को; उसने फैसला किया कि वह औरों को बचाएगा। उसका यह फैसला सिर्फ उस प्यार के कारण था जो वह आपसे और मुझ्से करता है। हम स्वर्ग इसलिए नहीं जाना चहते हैं कि वहाँ सोने की सीढ़ीयाँ हैं, पर हम इसलिए जाना चहते हैं क्योंकि वहाँ हमारा प्यारा प्रभु है और हम उसके प्यरे छिदे कदमों को चूम पाएंगे।

प्रभु के वचन में लिखी कहानियाँ कोई कागज़ी कहानियाँ नहीं पर वास्तविकता हैं। पवित्र आत्मा ने अपने अनुग्रह से हमारे लिए इन छोटी कहानियों में बड़े आत्मिक भेद सजा कर रखे हैं। ये प्रभु के वे शब्द चित्र हैं जो सीधे हमारे दिलों पर असर करते हैं। प्रभु यीशु के पवित्र होठों से कहे गए दृष्टांतों में से ३८ नये नियम में लिखे गए हैं। आईये थोड़ी देर के लिए इन दृष्टांतों में से एक पर थोड़ा विचार करते हैं। यह दृष्टांत लूका के १५वें अध्याय में मिलता है। यहूदी समाज में बाप की जायदाद का बंटवारा बाप की मौत के बाद होता था लेकिन छोटे बेटे ने बाप के जीवित रहते ही बंटवारे की माँग की। एक तरह से उस बेटे ने, धन संपत्ति के लालच में, यह कह दिया कि बाप उसके लिए मर चुका है। बाप ने भी उसकी मान ली और वह बेटा अपने हिस्से की संपत्ति लेकर बाप का घर छोड़कर अपनी मर्ज़ी और मौज करने निकल पड़ा। उसने एक बार भी नहीं सोचा कि बाप के दिल पर क्या गुज़र रही होगी। वह बेटा अपने बाप के घर से तो निकल गया पर बाप के दिल से नहीं निकल पाया। वह एक बड़े शहर में चला गया और कुछ समय में सब कुछ गवाँ बैठा और बरबाद हो गया। जब वह किसी लयक नहीं रहा और खाने के भी लाले पड़ने लगे तो उसे याद आया इतना सब कुछ करने के बाद भी उसका पिता है और वह उसे माफ भी कर सकता है। इस एहसास के होते ही वह अपने बाप से मिलने चल पड़ा, एक समय का राजपुत्र अब भिखारियों की तरह अपने बाप के घर की ओर लौटा। दूर से ही उसे आता देखकर वह बाप अपने बेटे से मिलने दौड़ पड़ा और उसकी उसी बदहाल दशा में, जिसमें वह आया था, उसके एक भी शब्द बोलने से पहले ही बाप ने उसे अपने सीने से चिपटा लिया, उसे चूमा और उसे ऐसा प्यार और आदर दिया जैसे उसने कभी बाप के विरोध में कुछ किया ही न हो। प्रभु का यह दृष्टाँत परमेश्वर पिता के प्रेम और क्षमाशीलता को दरशाता है।

जैसे ही कोई पापी पश्चाताप के साथ परमेश्वर की ओर मुड़ता है, परमेश्वर उसे वैसे ही ग्रहण कर लेता है जैसे उस बाप ने अपने बेटे को कर लिया। ऐसा ही प्यार प्रभु ने मुझ जैसे से किया और आप से भी करता है। मन की सादगी से ही इस प्यार का एहसास हो पाता है। सादगी का अर्थ यह कदापि नहीं है कि संत लोग लंगोटी पहन कर बैरागी हो कर जीयें। संतों के स्वभाव में सादगी होनी चाहिए। लेकिन अक्सर वे अपनी मक्कारी और बनावटीपन से इस आत्मिक सादगी को खो बैठते हैं। प्रभु हमें ऐसा मन दे जो उसके प्यार का एहसास कर सके और उसको दिल से प्यार कर सके। यही प्रेम हमें विवश करेगा कि हम उसके लिए कुछ कर पाएं।
हमें “सम्पर्क” के लिए आपकी विशेष प्रार्थनों की आवश्यकता है। हम अलग-अलग स्थानों में “सम्पर्क” सभाएं आयोजित करने की इच्छा रखते हैं। यदि आप चहते हैं कि आप के गाँव या शहर में इनका आयोजन हो तो आप प्रार्थना करके हमें शीघ्र ही सूचित करें। हम इन “सम्पर्क” सभाओं में किसी भी मिशन या सम्प्रदाय की शिक्षाओं का प्रचार कतई नहीं कर पाएंगे, हम केवल पापों से क्षमा का प्रभु का संदेश ही दे पाएंगे। इन सभाओं के लिए “सम्पर्क” परिवार केवल प्रचारकों के आने-जाने का व्यय ही उठाएगा, सभाओं से संबंधित शेष सभी व्यय आयोजकों को ही उठाना पड़ेगा। यदि प्रभु आपको इन सभाओं की आज़ादी देता है तो शीघ्र पत्र व्यवहार करें।

फिर से हम आपके लिए कुछ प्रार्थनों के विषय छोड़ना चाहते हैं और हमें आशा है कि आप अपनी प्रार्थनाओं से हमारी मद्द अवश्य करेंगे। ये विषय हैं:
१. हम इन बुरे दिनों में प्रभु के लिए एक अच्छा जीवन जी सकें।
संदेश पहुँचा सकें।
३. यदि प्रभु की इच्छा में हो तो हम सम्पर्क को और भी भाषाओं
२. जिन इलाकों तक अभी सुसमाचार नहीं पहुँचा है वहाँ जीवन का य
हमें प्रकशित कर सकें।
४. सम्पर्क पत्रिका और भी अधिक लोगों तक पहुँच सके।

आपके पत्रों की प्रतीक्षा में,

प्रभु में आपका - सम्पर्क परिवार


शनिवार, 22 अगस्त 2009

सम्पर्क अगस्त २००१: परमेश्वर के वचन से सम्पर्क

यह गवाही देने आया, कि ज्योति की गवाही दे, ताकि सब उसके द्वारा विश्वास लाऐं - यूहन्ना १:७

एक नामधारी “विश्वासी” साहब थे। कहीं किसी दुकानदार ने चालकी से कुछ अच्छे नोटों के बीच एक फटा नोट उन्हें भेड़ दिया। जब उन्हें पता चला तो बहुत झल्लाए, काफी देर तक काफी कुछ सुनाते रहे, जैसे “कैसे नालायक लोग हैं, कैसा ज़माना आ गया है”, वगैरह वगैरह। सच तो यह है कि उन्हें झुंझलाहट ज़माने के हालात से या लोगों के व्यवहार से नहीं थी, असली परेशानी थी कि नोट बड़ा ग़लत फंस गया था। थोड़ी देर झुंझलाने के बाद ज़रा दिमाग़ लड़ाया और शाम के झुटपुटे में एक भीड़ भरी दुकान में गए, अच्छे नोटों में दबाकर फटा नोट व्यस्त दुकानदार को भेड़ दिया, फिर एक सुकून की लम्बी साँस ली और मुस्कुराते हुए बाहर आ गए, जैसे अब सारा ज़माना ही सुधर गया हो। ऐसे ‘तीन-तेरह’ करने वालों के लिए २ तिमुथियुस ३:१३ में ही लिखा है “... धोखा देते हुए और धोखा खाते हुए बिगड़ते चले जाऐंगे।”

हमारी जीवन शैली ही हमारे जीवन की गवाही है। युहन्ना रचित सुसमाचार गवाही का सुसमाचार कहा जा सकता है। ‘गवाही’ शब्द का उपयोग इस सुसमाचार में २२ बार किया गया है। वह - युहन्ना बपतिस्मा देने वाला, गवाही देने आया कि “ज्योति कि गवाही दे ताकि सब मनुष्य विश्वास लाऐं” - युहन्ना १:७। इस पद में तीन बातें मुख्य हैं:-

१. ज्योति २. गवाही ३. ताकि सब विश्वास लाऐं।

१. ज्योति: पुराने नियम और नए नियम के बीच ४०० वर्ष अंधकार का समय था। इस समय में न तो कोई भविष्यद्वक्ता और न ही आतमिक दर्शन प्रकट हुए। इस लम्बे अंधकार के समय के अन्त में यूहन्ना बपतिसमा देने वाला प्रकट हुआ। वह एक जलता हुआ दीपक था (युहन्ना ५:३५) जो भी ज्योति में जीवन जीता है उसका अंधकार से क्या लेना देना? ज्योति हमें जताती है कि हम कहाँ हैं; हम वास्तव में क्या हैं। ज्योति कई छिपी परतों को हटाकर हमारी असलियत हमें दिखाती है। हम कितनी बार काम चलाऊ झूठ बोलते हैं। सच को कहने की और उसके परिणाम सहने की हममें सामर्थ ही नहीं होती। जैसे - हम अक्सर कह देते हैं “आपसे मिलकर बड़ी खुशी हुई” जो वास्तव में सच नहीं होता, असल सच जो मन में होता है कि “यह मनहूस क्यों आ टपका” - हम आदतन झूठ बोलते हैं।

वचन को दर्पण भी कहा गया है (याकूब १:२२)। दर्पण को इससे क्या लेना देना कि उसके आगे कौन खड़ा है। वह किसी का पक्षपात नहीं करता; जो जैसा है, उसे वैसा ही दिखा देता है। यदि मन में कचरा भरा हो तो फिर खुशबू कहाँ से महकेगी, अंधकार के काम घिरे हों तो ज्योति कहाँ से चमकेगी। वचन जीवित ज्योति है, उसमें जीवन है “यदि हम कहें कि उसके साथ हमारी सहभागिता है और फिर अंधकार में चलें तो हम झूठे हैं और सत्य पर नहीं चलते (युहन्ना १:६)।” शत्रु-शैतान कितनों को अन्धेपन का ज़हर पिला रहा है। उन्हें पता ही नहीं चलता कि शैतान उनका उपयोग कर रहा है। परमेश्वर के शब्द हमें कई बार छू लेते हैं और हम तिलमिला जाते हैं, उन्हें सह लेना सहज नहीं होता। हम वचन को जानते हैं पर मानते नहीं। जानना बहुत ही सस्ता सौदा है पर वचन को मानना महंगा पड़ता, कीमत चुकानी पड़ती है। बाईबल को बहुत जानने से फर्क नहीं पड़ता, पर वास्तव में मानने से जीवन में फर्क पड़ता है। प्रभु कहता है कि “जब तुम मेरा कहना नहीं मानते तो मुझे हे प्रभु, हे प्रभु क्यों कहते हो? (लूका ६:४६)” ज़्यादतर विश्वासियों को सस्ते सौदे ही सुहाते हैं। मन कहता है कि ऐसे रास्ते सिखाओ कि “हल्दी लगे न फिटकरी बस रंग चोखा जम जाए।” एक-दूसरे पर रंग जमाने के लिए कई बार प्रार्थना सभाओं में प्रार्थनाएं प्रभु को सुनाने के लिए नहीं पर साथियों को सुनाने के लिए ही होती हैं।

संकरा रास्ता सस्ता रास्ता नहीं है। ऐसे कितने नामधारी विश्वासी हैं जिनके मन में परमेश्वर के वचन के लिए दो कौड़ी की भी श्रद्धा नहीं है। उनके लिए बाईबल अद्धयन की सभाओं का कोई महत्व नहीं होता, क्योंकि बाईबल अद्धयन में जाने के लिए धन और समय दोनो की कीमत चुकानी पड़ती है। ऐसों को शत्रु शैतान बड़ी सहजता से अपना शिकार बना लेता है। ये लोग अपने आवेग पर काबू पाने की क्षमता खोते जाते हैं। इस कारण मण्डलियों में बदला लेने वाले, उग्र, झगड़ालू और दूसरों को अपमानित करने वाले ‘विश्वासियों’ का उदय होता है। ये ही लोग सारी मण्डली में एक सूनापन उत्पन्न करते हैं और प्रभु के लोगों में भी आपस में फूट डालकर मण्डली को तो़ड़ते हैं। वास्तविकता तो यह है कि प्रभु के लोगों की सही सेवा तोड़ने की नहीं पर जोड़ने की होती है - प्रभु यीशु ने कहा है “धन्य हैं वे जो मेल करवाने वाले हैं क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलाएंगे (मत्ती ५:८)”।

वचन की ज्योति का अभाव जीवन में भटकाव पैदा करता है। प्रकाश के अभाव में रस्सी का टुकड़ा भी साँप सा दिखने लगता है। आत्मिक धुंधलेपन में ऐसे विश्वासियों को सच्चे भाई भी दुश्मन से लगने लगते हैं और उनके जीवन का उद्देश्य ही खो जाता है। “बिना मेल मिलाप और पवित्रता के परमेश्वर को कोई कदापि न देखेगा - इब्रानियों १२:१४”। ऐसे में क्या आप के दिल में प्रार्थना है कि हे प्रभु मुझे अपने आश्रय में बनाए रख, कहीं अन्धकार में खो न जाऊँ; आमीन।

२. गवाही: इस पद का दूसरा भाग है “गवाही देने आया”। जिसके पास पुत्र (प्रभु यीशु) है उसके पास गवाही है - १ युहन्ना ५:१०। प्रभु कहता है कि तुम मेरे गवाह हो। जो गवाह गवाही न दे वो किस काम का? यदि विश्वासी सुसमाचार न दे तो वह निश्चित रूप से हारा हुआ जीवन जीएगा। एक जयवन्त जीवन जीने के लिए हर दिन सुसमाचार सुनाना ज़रूरी है - “प्रतिदिन उसके उद्धार का सुसमाचार सुनाते रहो (१ इतिहास १६:३०)”। गवाही मात्र दूसरों को बचाने के लिए ही नहीं, पर अपने आप को बचाए रखने के लिए भी ज़रूरी है - “वे मेमने के लहु और अपनी गवाही के वचन के कारण उस पर जयवन्त हुए (प्रकाशित वाक्य १२:११)”।

कई बार जब हम सुसमाचार देते हैं तो ऐसा बुझा सा जवाब मिलता है कि दिल ही बुझ जाता है। एक बार मैं दिल्ली से बस के द्वारा घर वापस आ रहा था, मेरे बगल की सीट पर एक जनाब बैठे थे। ज़रा तुनक मिज़ाज़ के से लग रहे थे, फिर भी मैंने हिम्मत बाँध कर प्रभु की गवाही देने के लिए , शायद, कुछ इस तरह बात शुरू की - “जनाब आप कहाँ जा रहे हैं, कहाँ काम करते हैं?” पता चला जनाब ऋषिकेश के किसी बैंक में काम करते हैं। मैंने बात आगे बढ़ाने के लिए कहा “क्या आप परमेश्वर पर विश्वास करते हैं?” मेरा परमेश्वर का नाम लेना था कि उनके जवाब ने मेरे सवाल का गला घोंटकर सारे सवाल की जान ही निकाल दी। बड़ी कुतर बुद्धी थे, सारी बात को कुतर डाला। तुनक कर बोले “जनाब कुछ लोग कुत्ता पालते हैं, कुछ बिल्ली, कुछ गधा। आपने परमेश्वर को पाल रखा है तो आप पाले रखें, मेरे गले उसे क्यों मढ़ रहे हैं?” मैं जवाब सुनते ही बगलें झांकने लगा क्योंकि आगे कुछ कहने को रहा ही नहीं। ऐसे ही एक बार बस में एक व्यक्ति को सुसमाचार का पर्चा दिया; उसने पढ़ना शुरू किया, लेकिन यीशु मसीह का नाम पढ़ते ही झल्ला गया। पर्चा फाड़ा और मेरे मूँह पर फेंक कर मारा।

यह हमेशा ध्यान रखें कि अन्धों की दुनिया में आँखों वलों को सम्मान नहीं मिलता और झूठों की दुनिया में सच्चों को अपमान ही मिलता है। यहाँ ईमान्दार को बेवकूफ कहते हैं और ईमान्दारी को बेवकूफी।
बात १९८५ की है, प्रभु के बहुत ही प्यारे दास सी. ई. दासन पहली और आखिरी बार रूड़की में सेवकाई के लिए आए थे। उनके जीवन की आखिरी सेवकाई के बाद उनकी हालत काफी नाज़ुक होती गई। शाम को जब मैं भाई के कमरे से लौटने लगा तो वे मुझ जैसे व्यक्ति से कहने लगे कि “भाई क्या तुम मेरे लिए प्रार्थना करके नहीं जाओगे?” मैं टूट गया यह सोच कर कि इनके सामने मैं क्या हूँ? क्या मैं इस दास के लिए प्रार्थना करने के लायक हूँ? २३ अक्तूबर १९८५ को उनकी मौत से कुछ घंटे पहले नर्सिंग होम में मैं उनके साथ था। भाई की हालत नाज़ुक होने के कारण उन्हें दिल्ली ले जाने की तैयारी की जा रही थी। तभी अचानक दो लड़कियाँ मना करने के बाद भी उनसे मिलने उनके कमरे में आ पहुँचीं। भाई दासन ने सबसे पहली बात उनसे यह पूछी “क्या तुम्हें पापों की क्षमा मिल गई?” और फिर उसी हालत में वे उन्हें सुसमाचार देने लगे। मैं बीच-बीच में बार बार उन्हें टोकता रहा कि भाई आप मेहरबानी से ज़्यादा न बोलियेगा पर वे रुके नहीं। जब वे लड़कियाँ चली गईं तब उन्होंने मुझसे कहा “भाई अपनी बाईबल से अभी प्रेरितों के काम ४:२० पढ़ो।” मैंने वह पद पढ़ा, वहाँ लिखा था “क्योंकि यह तो हमसे हो नहीं सकता कि जो हमने देखा और सुना है वह न कहें।” मैं इस प्रभु के दास की तरफ देखता रहा और मेरे पास कहने को कोई शब्द थे ही नहीं। वे अब अपनी अंतिम यात्रा के लिए प्रस्तुत थे। वह इस महान दास के द्वारा कहा गया आखिरी पद और दी गयी आखिरी गवाही थी। कुछ ही घंटों बाद वह अपने प्रभु के पास चले गए। प्रभु की गवाही देने में वे मृत्यु तक विश्वास योग्य रहे।

ज़रा झुकें और ईमान्दारी से अपने अन्दर झाँकें और जाँचें कि किस उद्देश्य के लिए जी रहे हैं? “जिसने मुझे भेजा है, हमें उसके काम दिन ही दिन में करना अवश्य है; वह रात आने वाली है जिसमें कोई कुछ नहीं कर सकता (युहन्ना ९:४)।” आइये इस बहुमूल्य समय का सम्मान करें।

३. सब विश्वास लाऐं: इस पद का तीसरा और अंतिम भाग है “ताकि सब उसके द्वारा विश्वास लाऐं”। ज़्यादतर इसाईयों के पास बड़ा छोटा सा मसीह है जिसे वे इसाई धर्म के दायरे में ही रखते हैं। वह मसीह जो स्वर्गों में भी नहीं समा सकता, उस परमेश्वर को कितनो ने तो इतना छोटा बना डाला है कि वे उसे सिर्फ अपने मिशन और ग्रुप में ही लपेट कर रख सकें। मसीह ने अपने बारे में कहा “मैं जगत की ज्योति हूँ (यूहन्ना ८:१२)।” जगत की ज्योति को किसी धर्म, मिशन या ग्रुप के ढक्कन के नीचे कभी नहीं रखा जा सकता। लूका लिखता है “मैं तुम्हें बड़े आनन्द का सुसमाचार सुनाता हूँ जो सब लोगों के लिए है (लूका १:१०)।” मत्ती कहता है “वह (यीशु) लोगों को उनके पापों से उद्धार देगा (मत्ती १:२१)।” प्रभु इन दो पदों में दो बातों पर ज़ोर देता है, पहली बात “सब लोगों के लिए” दूसरी, पाप के लिए नहीं पर पापों के लिए, अर्थात सब पापों के लिए। पाप करने वाला कोई क्यों न हो, कितने भी और कैसे भी पाप क्यों न किये हों “उसका लहु हमें सब पापों से शुद्ध करता है (१ युहन्ना १:७)”।

सारे धर्म यही सिखाते हैं कि अच्छे काम करने के द्वारा परमेश्वर तक पहुँचा जा सकता है। परमेश्वर का वचन हमें बताता है कि हमारे कोई भी और कितने भी अच्छे काम इतने अच्छे कतई नहीं हैं कि हम उनके द्वारा परमेश्वर तक पहुँच सकें (यशायह ६४:६, तीतुस ३:५)। केवल एक ही अच्छा काम है जो परमेश्वर को ग्रहण योग्य है और जिसके आधार पर हम परमेश्वर के पास आ सकते हैं, वह अच्छा काम प्रभु यीशु ने कलवरी के क्रूस पर अपनी जान देकर किया और उसके द्वारा समस्त मानव जाति के लिए उद्धार का मार्ग खोल दिया। बस जो कोई, जैसा भी, जहाँ भी हो, यदि उस पर विश्वास करेगा, वह नाश न होगा पर अनन्त जीवन पाएगा।

अब हम संसार की समप्ति के समीप खड़े हैं जहाँ पर इस संसार की और सहने की सीमाएं समाप्त हो चुकी हैं। परमेश्वर नहीं चाहता कि उसका वचन सिर्फ आपके घर की दीवारों पर ही ठुक रहे, वह चाहता है कि उसका जीवन्दायी वचन किसी तरह आपके दिल में भी ठुक जाए। जल की तस्वीर को दीवार पर लगा लेने से प्यास तो नहीं बुझ सकती। आप जल के बारे में बहुत सुनते, बहुत जानते, बहुत प्रचार भी करते हैं पर सच्चाई तो सिर्फ यही है कि जब तक जीवन के जल को आप ग्रहण नहीं करते, तब तक तृप्ती पा नहीं सकते। यह भी सम्भव नहीं कि जल मेरे माँ-बाप ग्रहण करें और प्यास मेरी बुझ जाए। जो भी जीवन के जल को ग्रहण करते हैं, उन्हें फिर किसी धर्म को ग्रहण करने की ज़रूरत ही नहीं बचती। उनके जीवन में एक नया परिवर्तन प्रकट होता है। ऐसा बदला हुआ जीवन स्वयं गवाही देता है।











सोमवार, 17 अगस्त 2009

सम्पर्क अगस्त २००१: एक प्यासा जीवन के जल के पास

मेरा नाम प्रभजोत सिंह चानी है। मेरा जन्म १९६७ में दिल्ली के एक सिख परिवार में हुआ। मैं अभी रूड़की विश्वविद्यालय में एक अध्यापक हूँ। मेरे माता पिता ने बचपन से ही मुझ पर कोई धार्मिक दबाव नहीं डाला। जबकि मुझे अपने धर्म का कुछ भी ज्ञान नहीं था, लेकिन फिर भी मुझे सिख होने का घमण्ड था। मैं बहुत छोटी उम्र से ही एक दोगला जीवन बिताने लगा-एक जीवन घर में दूसरा घर के बाहर। बचपन से ही मैंने अपने माँ बाप के बीच में छोटी बड़ी बातों पर लड़ाई झगड़ा होते देखा; उनकी गालियों और चीखने चिल्लाने से मैं बहुत सहम जाता। घर के अन्दर मैं एक सहमा दबा हुआ जीवन जीता और घर के बाहर अपने दोस्तों के साथ गन्दे घिनौने पापों में मज़ा लेकर मन बहलाता।

मेरे पिता लगातार अपनी नौकरी में तरक्की करते गए। घर में सच्ची खुशी और शान्ती के सिवाए किसी चीज़ की कमी नहीं थी। दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ स्कूल में पढ़ने से मुझे लगने लगा कि जीवन का वास्त्विक आनन्द पैसे और अधिकार से ही मिलता है। फिर भी मेरे मन में अजीब सी बेचैनी और अकेलापन रहता था। मैं कभी अपने माँ बाप से खुलकर बात नहीं कर पाता था और अपने हम-उम्र दोस्तों में खुशी खोजता था पर यह खुशी थोड़े समय की ही होती थी। ११वीं कक्षा ताक आते-आते मैं पापों में धंस चुका था। सिग्रेट-शराब पीना, भद्दी पार्टियों में जाना, गन्दी किताबें और फिल्में मेरे जीवन का हिस्सा बन चुकी थीं। मेरे माँ बाप के आपसी सम्बन्ध भी बहुत नीचे आ गये थे जिसे मैं चुप होकर देखता रहता। मेरा दिल अपने पिता के प्रति घृणा से भर चुका था। इन सब के बीच मेरी पढ़ाई को चोट लगी परन्तु फिर भी मेरा दाखिला रूड़की विश्वविद्यालय में हो गया। जो विष्य मैं लेना चाहता था वह मुझे नहीं मिल जिससे मेरी निराशा और बढ़ गई। अन्दर ही अन्दर मैं जानता था कि अपनी इस हालत का दोषी मैं खुद हूँ, पर सुधरने के विपरीत कॉलेज और होस्टल के आज़ाद वातवरण में मैं और भी बिगड़ता गया। अपने पिता का पैसा पानी की तरह बहाना और उन्हें झूठा हिसाब देना मेरे लिये हर बार की बात थी। साथ ही साथ मेरी अशान्ति और बढ़ने लगी। मेरे निजी सम्बन्धों में मुझे कुछ और करारे झटके लगे जिससे मैं अपने माँ बाप से और दूर होता चला गया।

१९८७ के आखिर में आते-आते तक मैं अपने आप को खोया हुआ महसूस करने लगा, सब कुछ होते हुए भी मैं कंगाल खड़ा था। ऐसा लगता था कि अब आगे चलने की ताकत नहीं रही। मैं हार चुका था अपने स्वभाव से, अपने पापों से अपनी परिस्थितियों से। एक शाम मैं अपने डिपार्टमेंट से अपने हॉस्टल लौट रहा था, जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, मेरी आँखों में आँसू थे। एक मोड़ मुड़ते हि मैंने अपने सामने एक लड़के को खड़ा देखा जिसके बारे में मैंने उन दिनों सुना था कि वह कहता था कि रूड़की में मेरा नया जन्म हुआ है। उसके इस अजीब वाक्य ने मुझे उसकी ओर खींचा। मैं सड़क पर चलते-चलते उससे बात करने लगा, लेकिन वह मुझसे पापों के प्रायश्चित के बारे में बातें कर रहा था। उसकी यह बातें मेरी कुछ खास समझ नहीं आईं पर उसने रात अपने कमरे पर आने का निमंत्रण दिया जो मैंने स्वीकार कर लिया। मुझे नए विचार सुनना अच्छा लगता था इसलिए उस रात मैं उस छात्र के कमरे पर गया। उसने मुझे बाईबल से खोल कर दिखाया और जो पद मेरे सामने थे, उन्में लिखा था “जो कोई यह जल पीएगा वह फिर प्यासा होगा, परन्तु जो जल मैं उसे दूँगा वह फिर प्यासा न होगा...” (यूहन्ना४:१३)। मुझे ऐसा लगा कि मानो कोई मुझ से बात कर रहा हो। यह मेरे जीवन की हालत थी। मेरे पास सब कुछ था, पर फिर भी मैं प्यासा था; और यह यीशु मेरी प्यास हमेशा के लिए बुझाने का आश्वासन दे रहा था। मैं अपने कमरे पर वापस लौट आया। इस बातचीत ने मुझे बहुत प्रभावित किया, परन्तु मैं यीशु और परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं कर सका क्योंकि जवान होते-होते मैं नास्त्क प्रवर्ति का बन चुका था। कुछ दिन बाद वही छात्र मेरे कमरे पर आया और मुझे एक प्रार्थना करने के लिए कहा। मैंने उसकी बात रखने के लिए और थोड़ी जिज्ञासा के साथ उसके पीछे-पीछे एक प्रार्थना की पंक्तियाँ दोहरा दीं। मुझे शब्द तो याद नहीं पर वह पापों की माफी और प्रभु यीशु पर विश्वास करने की प्रार्थना थी।

इस प्रार्थना से कोई बाहरी बदलाव तो नहीं आया लेकिन अगले ही दिन मुझे एहसास होने लगा कि मैं अन्दर से बदलने लगा हूँ। इसकी शुरुआत ऐसे हुई कि मेरे मूँह से गन्दी गालियाँ, जिन्हें मैं बकना छोड़ नहीं सकता था, अपने आप निकलनी बन्द हो गईं। मैं हैरान था कि क्या यह कोई मनोवैज्ञानिक बात है या वासत्व में कोई जीवित परमेश्वर है? इस सवाल के उत्तर के लिए मैं एक भूखे आदमी की तरह बाईबल पढ़ने लगा। प्रभु यीशु की अदभुत बातें और उसका प्रेम मेरे मन को छू गया। कई बार वचन पढ़ते पढ़ते मैं रो पड़ता था। मेरा जीवन, मेरा स्वभाव बदलता जा रहा था।

मैं प्रभु के लोगों के साथ संगति करने लगा और उनकी संगति और प्रार्थना और वचन पढ़ने से मेरा विश्वास स्थिर होता गया। मुझे विश्वास हो गया कि मुझे पापों और उसकी भयानक सज़ा से छुटकारा देने के लिये ही प्रभु यीशु ने क्रूस पर अपने प्राण दिये और वह मर कर फिर तीसरे दिन जी उठे। जब मैंने यह बातें अपने परिवार में बताईं तो अचानक बहुत विरोध उठ खड़ा हुआ। कुछ कट्टरवादी लोग भी धमकियाँ देने लगे। कई बार लगा कि मेरे पिता मुझे घर से निकाल देंगे। लेकिन अजीब बात यह थी कि अब मेरे अन्दर पहले सा डर नहीं था। प्रभु ने मुझे हिम्मत से भर दिया कि मैं विश्वास में खड़ा रह सकूँ। मेरे मन में मेरे माता पिता के प्रति सच्चा प्रेम और आदर आने लगा।

मैं प्रभु के लोगों के साथ संगति करने लगा और उनकी संगति और प्रार्थना और वचन पढ़ने से मेरा विश्वास स्थिर होता गया। मुझे विश्वास हो गया कि मुझे पापों और उसकी भयानक सज़ा से छुटकारा देने के लिये ही प्रभु यीशु ने क्रूस पर अपने प्राण दिये और वह मर कर फिर तीसरे दिन जी उठे। जब मैंने यह बातें अपने परिवार में बताईं तो अचानक बहुत विरोध उठ खड़ा हुआ। कुछ कट्टरवादी लोग भी धमकियाँ देने लगे। कई बार लगा कि मेरे पिता मुझे घर से निकाल देंगे। लेकिन अजीब बात यह थी कि अब मेरे अन्दर पहले सा डर नहीं था। प्रभु ने मुझे हिम्मत से भर दिया कि मैं विश्वास में खड़ा रह सकूँ। मेरे मन में मेरे माता पिता के प्रति सच्चा प्रेम और आदर आने लगा।

कई साल मैं अपने परिवार को समझाता रहा कि मैंने कोई धर्म परिवर्तन नहीं किया है बल्कि मेरा जीवन बदल गया है। १९९१ में प्रभु ने मुझे स्पष्ट रीति से रू़ड़की में रहने के लिये कहा। मेरे घर में फिर विरोध हुआ, लेकिन प्रभु मेरे लिए रास्ते निकलता चला गया और मैं उच्च शिक्षा रूड़की विश्वविद्यालय में ज़ारी रख सका।

१९९५ में एक सड़क दुर्घटना में मेरी दाईं टाँग खराब हो गई। कई बहुत काबिल डाकटरों की कोशिशों के बावजूद भी वो उसे ठीक नहीं कर सके। दो साल अस्पताल के अन्दर बाहर और कई अपरेशनों के बीच मैं बहुत अकेलेपन और घोर निराशा से निकला। इस दौरान मैंने अपने आत्मिक जीवन में पहली बार प्रभु को इतना करीब से देखा। धीरे-धीरे मैं सीखने लगा कि मेरे जीवन की डोर उसी के हाथ में है और प्रभु मेरा बुरा नहीं होने देगा। इस हादसे ने मेरे माता पिता पर भी प्रभाव डाला, क्योंकि वे प्रभु के लोगों का मेरे प्रति प्रेम और मेरे जीवन में प्रभु की शांति को देखते थे। मेरे माता पिता चिंतित थे कि हमारा बेटा लंगड़ाता है, सो कौन इससे विवाह करेगा? लेकिन प्रभु ने १९९७ में मुझे अपने अदभुत प्रेम में एक ऐसी पत्नी दी जो प्रभु की दया से सच में मेरे लिए एक उपयुक्त जीवन साथी है। मैंने अपने इस छोटे से परिवार में वह खुशी और आनन्द पाया है जिसकी मैं लालसा करता था। १९९९ में प्रभु ने हमें एक बेटी का दान भी दिया।

जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो मेरा दिल खुशी और धन्यवाद से भर जाता है। यह आज भी मेरे लिये हैरानी की बात है कि मेरा उद्धार कैसे हो गया? प्रभु में आने के बाद मैंने बहुत बार एक हारा हुआ सा जीवन बिताया, लेकिन प्रभु ने न तो मुझे छोड़ा न त्यागा। मेरा आपसे नम्र निवेदन है कि अप मेरी सेवकाई और परिवार को अपनी बहुमूल्य प्रार्थनों में याद रखियेगा।

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

सम्पर्क अगस्त २००१: एहसास एक बदले जीवन का

मेरा नाम मेघा चानी है। मैं एक डॉक्टर हूँ और धमतरी हस्पताल, छत्तीसगढ़ में काम करती हूँ। मेरा जन्म १९६६ में एक विश्वासी परिवार में हुआ। मेरे माता-पिता दोनो सच्चे विश्वासी थे इसलिए बचपन से ही हमारे परिवार में नित्य पारिवारिक प्रार्थनाएं होती थीं। मुझे छोटी उम्र से ही सिखाया गया था कि मैं अपनी हर ज़रूरत को प्रभु के पास प्रार्थना के द्वारा ले जाऊँ। मेरे माता-पिता का जीवन भी मेरे लिए एक बहुत बड़ा उदाहरण था। उनके पास बहुत पैसा तो नहीं था, इस्लिए हमें अक्सर कमी-घटियों का सामना करना पड़ता था। परन्तु इसके बावजूद हमारे घर में परमेश्वर की सच्ची शाँति और आनन्द था।

ऐसे माहौल में पलते हुए मैं दूसरों की नज़रों में एक अच्छी लड़की थी। मैं पढ़ाई में मेहनती थी और शिक्षकों का आदर भी करती थी। फिर भी मुझे अपने अन्दर पाप का एहसास होता था। मुझे ऐसा लगता था कि मेरे जीवन में किसी चीज़ की कमी है।

जब मैं सातवीं कक्षा में थी तो धमतरी हस्पताल में कुछ विशेष आत्मिक सभाएं आयोजित की गयीं। उन सभाओं में मैं आत्मिक गीत गाने वाली टोली में थी। वहाँ मैंने प्रचारकों के द्वारा सुना कि हम सब पापी हैं और हमें पापों की माफी के लिए प्रभु यीशु मसीह और उसके लहु के द्वारा शुद्ध होने की ज़रूरत है। मुझे एहसास हुआ कि चाहे मैं बाहर से अच्छी हूँ और अच्छे काम करती हूँ, फिर भी मैं एक पापी हूँ। मैं उस सभा में आगे जाकर प्रभु यीशु को ग्रहण करने से झिझक रही थी, यह सोच कर कि लोग क्या कहेंगे। परन्तु जैसे सभाएं चलती रहीं तो वैसे मेरी बेचैनी भी बढ़ती गई। एक रात मैंने अपनी माँ को यह बात बताई और अगले दिन आगे जाकर प्रभु यीशु को अपना प्रभु और उद्धारकर्ता ग्रहण कर लिया। तब मुझे लगा कि मेरे जीवन में यही खालीपन था जो केवल प्रभु यीशु ही भर सकते थे। शायद बाहर से लोगों को कोई परिवर्तन न दिखाई दिया हो, लेकिन मैं अपने अन्दर एक बदले हुए जीवन का एहसास करने लगी। मेरे अन्दर वचन के लिए बहुत भूख जाग उठी और तब मैं स्वेच्छा से वचन पढ़ने और प्रार्थना करने लगी।

प्रभु के अनुग्रह से १९८५ में मेरा दखिला एक मैडिकल कालिज में हो गया जहाँ से मैंने अपनी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी की। अप्रैल १९९१ में मेरे पिता अचानक प्रभु के पास चले गये। इस हादसे से हमें एक गहरा आघात लगा। आर्थिक रूप से भी हम बड़ी मुशकिलों में पड़ गये। ऐसी परिस्थिती में मेरे मन में कई प्रश्न उठते और मेरा मन भी कठोर होने लगा। लेकिन प्रभु ने ना तो हमें छोड़ा न त्यागा। धीरे-धीरे प्रभु ने हमारी सब ज़रूरतों को पूरा कर दिया और मेरी उच्च शिक्षा के सारे प्रयोजन भी पूरे कर डाले।

मैं लगभग २९ वर्ष की हो चुकी थी और मेरे साथ के मित्रों में से बहुतों के विवाह भी हो चुके थे। पर मैं एक विश्वासी से विवाह करना चाहती थी। बहुत सालों तक मैं प्रार्थना में इन्तज़ार करती रही। अन्त में मुझे लगा कि शायद प्रभु मुझे अविवाहित ही रखना चाहता है। यह विचार मुझे निराश करते थे। परन्तु मैंने अपने जीवन में प्रभु के प्रेम और विश्वासयोग्यता का एहसास किया था। सन १९९६ में प्रभु मेरे सामने एक विश्वासी का रिश्ता लाया। और करीब आठ महीने प्रार्थना के बाद हम दोनो इस विवाह के लिए सहमत हुए। मई १९९७ में मेरा विवाह प्रभजोत सिंह चानी के साथ हो गया।

मेरे पति की गवाही पढ़ने से आपको यह एहसास होगा कि हम दोनो कितने अलग पारिवारिक और व्यक्तिगत परिस्थितयों से गुज़रे हैं। हम दोनो के स्वभाव भी अलग-अलग हैं। लेकिन प्रभु ने अपनी अदभुत दया से हमें अपने परिवार में सच्ची खुशी और शान्ति दी है और हमें निश्चय है कि प्रभु ने नमें जोड़ा है “यह प्रभु की करनी है और हमारी दृष्टि में अदभुत है” (भजन ११८:२३)। मेरी पढ़ाई और धमतरी हस्पताल में कुछ अनिवार्य सेवा के कारण हम दोनो को अलग रहना पड़ रहा है, परन्तु हमने अपने परिवार में परमेश्वर की दया से सच्चा प्रेम और आनन्द पाया है। आपसे निवेदन है कि हमारे इस छोटे परिवार को अपनी प्रर्थनाओं से सहारा देते रहें।

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

सम्पर्क अगस्त २००१: आप की तलाश में

सच मानियेगा, कोई आपको पा लेने की तलाश में है, तभि तो आप इस पत्रिका को पढ़ पा रहे हैं। वह कौन है? एक वक्त था जब मैं मानता नहीं था कि ‘वो’ है।

बात तब की है जब मैं बड़ा गुरुघंटाल आदमी था; माफ कीजिए, तब मैं आदमी नहीं एक जवान लड़का ही था, जो परमेश्वर को नहीं मानता था। बाइबल को झूठी किताब कहता था। मैं अपने बेबुनियाद, बेजोड़ और बेतुके तर्कों से बहुतों का मूँह बन्द कर देता था। मेरे अहंकार का आखिरी फैसला होता, “मैं श्रेष्ट हूँ और मेरी मान्यताओं का कोई सानी नहीं है।” उन दिनों में एक बहिन जो उम्र में मुझ से काफी बड़ी और काफी पढ़ी लिखी भी थी, मुझे काफी समझाने की कोशिश करती रही कि परमेश्वर है और बाईबल सच्ची है। मैं कितने ही सवाल उससे करता रहा, जैसे: “यह कैसे हो सकता है, सृष्टी कैसे बनी?” वह बड़े धीरज से मुझे समझाती रही कि परमेश्वर के लिए सब कुछ सम्भव है। मैंने इस मौके का रंग ताड़कर तपाक से कहा, “यदि परमेश्वर के लिए सब कुछ सम्भव है तो उसके लिए यह भी सम्भव होगा कि वह अपने लिए कुछ न कुछ असम्भव कर ले।” बेचारी ठगी सी रह गई और कहने लगी कि “यह तू सिर्फ शब्दों के हेर-फेर का खेल खेल रहा है।” मेरे लिए यह बात महत्व्पूर्ण नहीं थी कि परमेश्वर है कि नहीं। मुझे तो अपने से ज्ञानवान को हराना था, बस हरा दिया।

हम अपने शब्दों और तर्कों से जीत तो सकते हैं पर अपने मन की छिपी बेचैनी पर जीत नहीं पाते। हम अपने आप से, अपने हालात से, अपने स्वभाव से हारे हुए व्यक्ति हैं। खूब खा लिया, खूब पहन लिया, खूब जी लिया, फिर भी अन्दर एक खालीपन खटकता है। हम एक दिमाग़ी बोझ के साथ जीते हैं। फिर भी हमारी दिमाग़ी अकड़ हमें इतना अकड़ा कर रखती है कि हम अपने विचारों के खिलाफ कुछ भी सुनना पसंद नहीं करते।

कई बार हमारे लिए धर्म, राजनीति और पैसा बड़ी परेशानी पैदा करते हैं। हमारे धर्म हमें सुधारने में तो सहयोगी साबित नहीं हो पाए पर उन्होंने हमें आपस में बाँटने में बड़ा सहयोग दिया है। हम बंटकर भी रुके नहीं, वरन जाति, उपजाति, वर्ग आदि के आधार पर और भी छोटे छोटे टुकड़ों में बंटते चले गये। इस सोच ने हमें बहुत बौना बना डाला है। हम बड़ी शान के साथ अपने नाम के पीछे एक दुमछल्ला ज़रूर लिख लेते हैं जो हमारे धर्म और जाति का परिचायक होता है, भले ही हमारे काम नीचता की सारी सीमाओं को क्यों न छू गये हों। ऊँची पढ़ाई के बावजूद, इतनी नीची बातें हमारे दिमाग में जमीं रहती हैं, जैसे: “हम लोग ऐसे नहीं होते”, “उस जाति के लोग ऐसे होते हैं।” हमारा दुर्भाग्य है कि कई बार कई जातियों के नाम का उपयोग हम गाली की तरह करते हैं; हमारे समाज के दिमाग में ऐसा कूड़ा कूट-कूट कर भर दिया गया है। इसके बावजूद हम अपने आप को श्रेष्ठ समझने का अहंकार अपने सीने में सजा कर रखते हैं, दूसरे के धर्म और जाति पर हमेशा चोट करने के लिए तैयार रहते हैं। एक चोर-डाकू, रिशवतखोर, व्यभिचारी और शराबी का क्या धर्म है? वह ऊँची जाति का हो या नीची जाति का, इससे क्या फर्क पड़ता है? और इसमें भी कोई फर्क नहीं कि वह पढ़ा लिखा है या अनपढ़, आस्तिक है या नास्तिक, बड़ी चोरी करता है या छोटी, ऑफिस से सामान की चोरी करता या घर में बिजली की या अस्पताल में दवाईयों की या फिर रिशवत ले देकर काम करता है। प्यारे दोस्तों ज़रा सोचो तो सही, हम सब इन्सान हैं और हम सबने पाप किए हैं। सच सुनिएगा - “कोई फर्क नहीं, क्योंकि सबने पाप किया है (रोमियों ३:२३)”।

ज़रा ठण्डे दिमाग से यह भी सोचिए, धर्म कोई क्यों न हो, सब अपने अपने धर्म की रक्षा करने में जुटे हैं। जिस धर्म की रक्षा हमें खुद करनी पड़े, वह धर्म हमारी रक्षा कैसे कर पाएगा? एक अन्य सोच, है तो बड़ी छोटी पर है बहुत खतरनाक - धर्म परिवर्तन की सोच। सच मानिए, धर्म बदल्ने की तो कतई कोई ज़रूरत नहीं है और न ही कोई फायदा है। बात तो तब है जब जीवन और स्वभाव ही बदल जाए।

हमारे पास बहुत सारे धर्म और बहुत सारे धर्मगुरू हैं, पर इन सब से हमारे जीवन पर क्या फर्क पड़ता है? हमारा स्वभाव तो जैसा का तैसा ही है। ऐसे व्यर्थ उलझाव में मत उलझें, हम आपको किसी नए धर्म की दलदल में नहीं फंसाना चाहते। असीम परमेश्वर को किसी धर्म के दायरे में खोजना कतई बुद्धिमता की बात नहीं है। सच मानिएगा, धर्म बदलने से या सरकारें बदलने से कुछ होने वाला नहीं है। आने वाले दिन और भी बुरे होते जाएंगे। आप पूछेंगे क्यों? हमारा जवाब है क्योंकि परमेश्वर का वचन कहता है, “पर यह जान रख कि अन्तिम दिनों में कठिन समय आएंगे...(२ तिमुथियुस ३:१)”।

आज सादे से सफेद कपड़े पहिने कोई यह घोषणा करे कि यह आदमी खतरनाक है तो उसकी बात पर बहुत से विश्वास कर लेते हैं, क्यों? क्योंकि वह नेता है, हमारे समाज को चाटने, चबाने और पचाने वाले नेता। हर गली मुहल्ले में दो चार तो ज़रूर मिल ही जाएंगे। इन्होंने हमारे देश की बुनियाद, हमारी एकता को अन्दर ही अन्दर कुतर कर कमज़ोर कर डाला है। हमारा हर नेता हमें शान्ति और सुरक्षा देने का वयदा करता है; क्या खुद उनके पास शान्ति है? सुरक्षा गार्डों में घिरे नेता खुद सुरक्षित नहीं हैं तो वे हमें क्या सुरक्षा दे पाएंगे।

संसार का समस्त ऐश्वर्य प्राप्त हो भी जाए तो क्या आदमी चैन से जी पाएगा? क्या पैसा आदमी को सन्तुष्ट कर सकता है? क्या धनी लोग सन्तुष्ट हैं? कितने ही आदमी पैसा बनाने की मशीन बनते जा रहे हैं। आदमी और ज़्यादा बेचैनी में धंसता जा रहा है, फिर भी हराम की कमाई में उसे बड़ा रस आता है। ईमान्दारी तो सिर्फ बेवकूफी लगती है। सोचो तो सही, सच्चाई इस कदर सिकुड़ गई है। एक बोला “मैंने बड़ी ही अजीब चीज़ देखी”, दूसरे ने तपाक से पूछा “क्या देखा?” पहले ने कहा “सुनेगा तो सुनकर सन्न रह जाएगा। मैंने एक रिशवत ना लेने वाले सिपाही को देखा।” लुटेरों के समाज में हर तरफ हर कोई लूटने को तैयार खड़ा है। हर विभाग में, हर बाज़ार में यही हाल है। किसी बड़ी दुर्घटना के बाद सहायता करने वालों में कई ऐसे भी होते हैं जो बचाने के बहाने घायलों और लाशों की जेब और सामान टटोलते फिरते हैं। इन्सान इतना गिर चुका है, अब और कहाँ तक गिरेगा? अन्दर पाप बसा है तो पाप ही करेंगे, पर ध्यान रहे, शीग्र ही पाप का परिणाम भी बरसेगा।

कितने लोग अन्धे मुँह वाले हैं, हाँ अन्धे मुँह वाले। उन्हें नहीं मालूम कि वो क्या बोल रहे हैं, कहाँ बोल रहे हैं। वह तो अपनी बहू-बेटी-बाहिनों के सामने भी माँ-बहिन की छिछोली बाज़ारू गालियाँ बकते हैं। उन्होंने अपने विवेक को जलते लोहे से दाग़ लिया है (१ तिमुथियुस ४:२)। कितने तो इतने अन्धे हैं कि जब कभी साईकिल की चेन बार बार उतरने लगे तो साईकिल को ही गाली देने लग जाते हैं, और ज़्यादा गुस्सा आए तो साईकिल को लात भी मार देते हैं। उन्हें कोई एहसास नहीं कि चोट साईकिल को नहीं उन्हें लगती है, साईकिल का नुकसान भी तो खुद उनका ही है, किसी और का नहीं। इसी तरह हमारा हर पाप भी आखिरकर हमें ही नुक्सान पहुँचाता है। पाप हमेशा परेशानी छोड़ जाता है। मौत के बाद भी यह पाप पीछा नहीं छोड़ता। वह हमें हमेशा की परेशानी में धकेल जाता है। आपके शर्मनाक छिपे पापों के लिए क्या आपका विवेक आपको कभी कोसता है? क्या आपने कभी अपने आप को ही धिक्कारा है - “अरे मैं क्या आदमी हूँ? मैंने यह क्या कर डाला? मैं अब भी क्या कर रहा हूँ?” क्या ऐसे सवाल आपको कभी बेचैन करते हैं? विवेक की वेदना असहाय होती है। जब विवेक कचोटता है तब लगता है कि अब कुछ शेष नहीं रहा, कोई समाधान नहीं सूझ पड़ता और मन इस वेदना से निकलने के लिए आत्महत्या करने की सोचने लगता है।

परमेश्वर के पास वो आँखें हैं जो सब कुछ देख सकती हैं, आपकी बेचैनी और परेशानी को भी। लेकिन उसके पास वो दिल्भी है जो सब कुछ माफ कर सकता है, चाहे कोई क्यों न हो, कैसे भी पाप क्यों न किए हों। सृष्टि का सामर्थी सम्राट गिरे से गिरे व्यक्ति को भी प्यार से क्षमा देने की सामर्थ रखता है और उसका नम प्रभु यीशु है। वह कतई नहीं चाहता कि आप इसाई बन जाएं, पर वह चाहता है कि आपपने पापों की क्षमा पाकर आनन्द्मय जीवन पाएं। आप अपना सब कुछ त्याग भी दें तो भी जीवन का वास्तविक आनन्द नहीं पा सकते। मुक्ति पाने के लिए मुक्तिदाता से बस इतना कहना है, “हे प्रभु यीशु मुझ पापी पर दया करो, मेरे पाप क्षमा करो।”

सारी सृष्टि का सम्राट आपको पा लेने के लिए, गुलामों की कीमत में बिक गया। सृष्टि के सबसे महत्वपूर्ण सप्ताह की समप्ति के समीप, यीशु ने आपके पापों की भयानक सज़ा अपनी देह पर सही। अजीब बात यह थी कि उस शुक्रवार की शाम को वह जो मर गया था, रविवार की सुबह जीवित प्रकट हुआ। वह परमेश्वर है जो अनन्त मौत से मुक्ति देकर, मौत को हमेशा के लिए मात दे गया। उसी शुक्रवार की सुबह, धर्मगुरूओं ने राजनेताओं के सहयोग से दो डाकुओं के बीच में उसे कीलों से क्रूस पर ठोक दिया था। उस समय दोनो डाकू भी प्रभु को कोस रहे थे (मत्ती २७:४४)। इतनी पीड़ा में पड़े प्रभु ने अपने प्यार भरे शब्दों से न जाने कितनों का दिल ही बदल डाला और आज भी बदल रहा है। भयानक पीड़ा के समय वह अपने शत्रुओं के लिए कहता है “हे पिता इन्हें क्षमा कर क्योंकि ये नहीं जानते कि यह क्या कर रहे हैं।” बताओ तो सही, प्यारा प्रभु आपको क्षमा करने के लिए और क्या करे। यह किसी मनुष्य का प्रेम नहीं था। उन दोनों डाकुओं में से एक पहचान गया कि यह परमेश्वर है, यह किसी से नफरत नहीं रखता, यह खुद में खुदा है और खुदा प्यार है।

इस डाकू ने पूरी तरह अपना जीवन बरबाद कर डाला था। मौत से कुछ पल पहले ही इसने मान लिया कि वह इस सज़ा के लायक है। उसने यह भी पहचाना कि जो सज़ा वह भुगत रहा है वह तो मौत के साथ खत्म हो ही जाएगी, पर जो सज़ा मौत के बाद बचेगी, उस हमेशा की भयानक्ता से सिर्फ यही यीशु है जो उसे बचा सकता है। उसने मान लिया कि वह क्षमा के लायक भी नहीं है। फिर भी एक पश्चातापी हृदय से उसने कहा “हे यीशु जब तू अपने राज्य में आए तो मेरी सुधि लेना” (लूका २३:४२)। प्रभु ने उसे फौरन प्यार भरा आश्वासन दिया “तू आज ही मेरे साथ स्वर्ग लोक में होगा” (लूका २३:४३)। एक सवाल आपके मन में खटकता होगा - ऐसे बड़े पापी को प्रभु ने इतना बड़ा आदर और प्यार क्यों दिया? प्रभु ने कहा है “जो कोई मेरे पास आएगा उसे मैं कभी नहीं निकलूँगा” (यूहन्ना ६:३७)। यह घटना दर्शाती है कि अभी इतनी देर नहीं हुई कि आप प्रभु के पास न लौट सकें। प्रभु ने डाकू का धर्म नहीं बदला, बल्कि उसका जीवन बदल दिया। वह ऐसे ही आपका भी जीवन बदल सकता है, बस आप अपनी बुनियादी बेईमनी से निकल कर ईमानदारी से अपने पापों को प्रभु के सामने मान लें।

दिन पर दिन आते हैं और हर दिन हमें हमारे आखिरी दिन के करीब ला रहा है। आखिरी दिन कब होगा? जब आप सोचते भी नहीं होंगे। एक दिन अचानक ही आपको हैरान करेगा और आपकी मौत को आपके सामने खड़ा कर देगा। शायद तब आपकी बेबस आँखें आखिरी बार इस सँसार और अपने करीबी साथियों को देखती हुई याचना कर रही होंगी “कुछ तो करो” पर सब असहाय से खड़े रह जाएंगे और आप हमेशा के लिए इस सँसार से चले जाएंगे। ज़िन्दगी आपके हाथों से ऐसे फिसल जाएगी और आप कुछ नहीं कर पाएंगे। बस फिर अनन्त भयानक्ता को भोगना ही बकी रह जाएगा।

अब अभी आपके पास ऐसा शुभ अवसर है जहाँ जीवन का सारा अभिशाप एक प्रार्थना से हमेशा के लिए मिट सकता है। बस एक सच्ची पुकार की ज़रूरत है “हे प्रभु यीशु मुझ पापी पर दया करो, मेरे पाप क्षमा करो।” प्यारा प्रभु आपकी तलाश में है, कि आप नाश न हों पर बच जाएं और एक अनन्त आनन्द से भरा जीवन पाएं।

शनिवार, 8 अगस्त 2009

सम्पर्क अक्टूबर २००१: ...इसी तरह नाश हो जाओगे

शायद मेरी बेटी ४ य ५ साल की रही होगी, बार बार ज़िद कर रही थी कि डैडी मुझे पैसे दे दो। मैंने बड़े प्यार से बोला बेटा मेरे पास टूटे पैसे नहीं हैं। वह झुंझलाकर बोली ‘नहीं नहीं मुझे टूटे हुए पैसे नहीं चाहिए मुझे बिलकुल साबुत पैसे ही चाहिएं।’ मेरे शब्दों का सही अर्थ वह नहीं समझ पा रही थी। हमारी नासमझी की वजह से हम परमेश्वर को और उसके प्यार को नहीं समझ पाते हैं। परमेश्वर तो एक ही है, फिर आपका परमेश्वर, मेरा परमेश्वर, उसका परमेश्वर इन सबका का क्या अर्थ है?

ज़रा सोचें तो सही, परमेश्वर के लिए धर्म महत्त्वपूर्ण है या आदमी? दुनिया पर धर्म का बड़ा ज़हरीला असर बड़ी तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। हमारे पास जीने के लिए यही इकलौती दुनिया है। इसे भी हमने बेचैनी से, बरबादी से और नफरत से भर दिया है। आज दुनिया समाजवाद या पूँजीवाद के आधार पर नहीं पर धर्म के आधार पर बंटती जा रही है। इतना ज्ञान पा लेने के बाद भी आज धर्म फिर अपने भयानक रूप में लौट रहा है। हम आज इन्सान को इन्सान नहीं मानते पर उसे इस तरह मानते हैं कि यह इसाई, यह मुसलमान, यह सिख और यह हिन्दू है। हाँ सहब आदमी निहायत खौफनाक आदमी बन गया है। इन्सान की शक्ल ही हज़रत आदम से मिलती जुलती सी रह गयी है पर वह अपने कामों से तो हैवान बन ही चुका है। धर्म के दायरे में बंध कर हमारा दिमाग़ भी ज़ंग खा चुका है। हमारे धर्मों की महामारी हर रोज़ हज़ारों मासूमों को मौत के घाट उतार डालती है। क्या आज के इन हालत में यह सवाल और भी महत्त्वपूर्ण नहीं है कि आदमी महत्त्वपूर्ण है या धर्म?
बचपन से हमारे दिमाग़ों में धर्म भर दिया जाता है। इसे हम एक उदाहरण से समझने की कोशिश करेंगे। दो व्यक्ती हैं, यदि उनके सामने बढ़िया मीट बनाकर रखा जाए तो एक के मूँह में पानी आने लगता है और दूसरे को उलटी; ऐसा क्यों? क्योंकि उनके दिमाग़ में अलग अलग धारणा बचपन से ही भर दी गई है, और उस धारणा के कारण वही चीज़ एक को बढ़िया भोजन दिखती है तो दूसरे को वही चीज़ बेचैन कर देती है। ऐसे ही धर्म को लेकर बचपन से ही हमारे मनों में धारणाएं भर दी जाती हैं, जिस कारण दूसरे के धर्म को देखकर और उसके बारे में सुनकर आदमी झल्ला उठता है। जो विरोध बचपन से ही हमारे मनों में भरा गया है, यह उसी की प्रतिक्रीया है।

हमारे धर्म नेता हों या राजनेता, श्वेत वस्त्रधारी साफ सुथरे, धुले-पुछे चिकने चुपड़े दिखने वाले ये लोग पूरे घाग हैं, कोई कच्ची गोटी नहीं खेले हैं। अधकचरी उम्र से ही लोगों के मनों में जलन, विरोध, बदले की भावना, को भर देते हैं और फिर इनके हुक्म समाज में कानून की तरह चलते हैं। ये धर्म की राजनीति, लाशों की राजनीति, आतंकवाद की राजनीति, जहाँ जैसा भी मौका लगे लगा देते हैं। विरोधियों का पलड़ा यदि भारी दिखाई दे तो फौरन कहते हैं “कैसे भी हो, डंडी मारो, बस किसी भी तरह विरोधियों को कम तौल कर दिखाओ।” राजनीति का मूल मंत्र है बेपैंदी के लोटे का सिद्धाँत - जिधर भी भार बढ़े उधर झुक जाओ; या फिर दो घोड़ों की सवारी का सिद्धाँत - एक अटक जाए तो दूसरे पर सवार हो जाओ। ना तो पार्टी क महत्त्व है ना सिद्धाँतों का, महत्त्व है तो बस मंत्री पद का। हमारा समाज भी नए सिद्धाँतों से सजता जा रहा है। आज के समाज का भी एक मूल मंत्र है “ज़रूरत पड़े तो गधे को बाप बनाकर पेट में घुस जाओ और जब काम निकल जाए तो गले में फंसी हड्डी मत बनो, फौरन टाटा कर जाओ।”

भ्रष्टाचार का सोता हमारे समाज में ऊपर से नीचे की तरफ लगतार बहता रहता है। जी हाँ ऊपर से नीचे तक, मंत्री से संत्री तक, अधिकारी से कर्मचारी तक यह सोता सब को तृप्त करता जाता है। भले ही सरकार बदले या सरकार के सिद्धाँत, पर यह बदलने वाला नहीं है। हमारी ही सरकारें, हमारे ही सिर पर सवार होकर, हमारा ही शोषण करती हैं। किसी सरकारी विभाग में सालों से आपका काम रुका हो तो कुछ मुद्रा दिखाइये, वही सालों से रुका हुआ काम एक्सप्रेस गति से दौड़ने लगेगा। हर दुविधा सुविधा में बदल जाएगी बस सुविधा शुल्क साथ लगा दें। हमारी नयी सड़कों का निर्माण कार्य पूरा हो भी नहीं पाता कि उन्हीं सड़कों की मरम्मत के टेंडर अखबारों में निकलना शुरू हो जाते हैं। क्या अदभुत प्रगति पर हैं हम! हम तो बस हम ही हैं, हमारा क्या जवाब है? देश की डगमगाती नाव में लोग पतवार की जगह हथौड़ी और छैनी लेकर इस इरादे से बैठे हैं कि डूबती नव के कुछ फट्टे ही हाथ लग जाएं। हमारे यहाँ कई नसल के चोर होते हैं, जैसे - खुले चोर, छिपे चोर, और कुछ गिरे चोर। चोरों की एक नसल और भी है जिन्हें हम कामचोर कहते हैं। इन नमूनों के चोरों की हमारे सरकारी विभागों में बड़ी भरमार है। हमारे बाज़ारों में नकली माल की भरमार है - नकली सामान, नकली नोट, नकली दवाई, नकली नेता और नकली धर्मगुरू। अर्थशास्त्र का नियम है कि असली से पहले नकली चलता है। मान लें कि आपकी जेब में एक असली नोट है और एक नकली, आप पहले किसे चलता करेंगे? इस तरह नकली नोट तेज़ी से बाज़ार में भर जाते हैं।

हमारी प्रगति की एक और तसवीर यह भी है कि जहाँ कभी शहर के कूड़े-कचरे के बदबूदार ढेरों पर सूअर के बच्चे अपना पेट पालने के लिए गन्दगी कुरेदते फिरते थे, आज वहीं आदमी के बच्चे अपना पेट पालने के लिए प्लास्टिक, काँच, लोहे के टुकड़े और गत्तों के फट्टे ढूंढते फिरते हैं। आदमी इस कीमत का रह गया है। जिसने गरीबी नहीं देखी हो वह इस गरीबी के दर्द को क्या समझेगा। हमारे जनसंख्या नियंत्रण या परिवार नियोजन विभाग को आतंकवाद ने, भयानक बीमारियों ने, अकालों ने अच्छा सहयोग दिया है। अब तो काफी लोग गरीबी से परेशान होकर आत्म हत्याएं भी परिवार सहित करने लगे हैं।

हमारे इस बेपरवाह और दिखावटी समाज में कितने तो इतने अहंकारी हैं कि कहीं छोटे न दिख जाएं, इसलिए अपने को खूब बढ़ा-चढ़ा कर दिखते हैं। पूरे फेंकूलाल हैं, दुसरों पर रौब डालने के लिए ऐसी-ऐसी फेंकते हैं कि हम इस खानदान के हैं, हमारा भाई ये है, हमारा चाचा वो था और मामा ये है, इत्यादि। चाहे ये रिशतेदार उसे घास भी न डालते हों फिर भी बे सिर पैर की फेंकने से नहीं रुकते। एक अन्य प्रवृति के भी लोग इसी समाज का हिस्सा हैं, जो हर जगह एक-दूसरे की चुगली लगाने से, एक को दूसरे भिड़ाने से नहीं चूकते। वो ऐसा है, उसने ये कहा, फलां ऐसा कह रहा था - जहाँ आग न भी लगी हो, वहाँ जलन और द्वेश का धुआं तो ये उठा ही देते हैं।

एक दिन एक बहुत परेशान, हारा हुआ सा व्यक्ति मुरझाया चेहरा लिए अपने मित्र के घर पहुँचा। मित्र ने बैठाकर दिलासा देते हुए पूछा “अच्छा बताओ क्या खाओगे?” उसका उदास और खिसिया हुआ जवाब था “यार जूते छोड़ कुछ भी खिला दो क्योंकि वह तो पहले ही घर से काफी खाकर आ रहा हूँ।” परिवारिक संबंधों की हालत बिगड़ती जा रही है। कितने पति-पत्नी दावतों में, बाज़ारों में मुस्कुराते हुए एक दूसरे के साथ साथ तो दिखते हैं पर उनकी असली हालत घर में देखते ही बनती है। जो मियां बीवी छोटी छोटी बातों पर अपने अहंकार के कारण अक्सर एक दूसरे से लड़ते रहते हैं, वे अपने बच्चों को प्रेम से एक दूसरे के साथ रहने का पाठ पढ़ाते हैं। मक्कारी और बेशर्मी की हद है कि जो एक दूसरे के साथ मेल-मिलाप से नहीं रह सकते, वह बच्चों को मेल-मिलाप से रहने और भाई-बहिन का फर्ज़ निभाने की बातें सिखाते हैं। सास को परेशानी है क्योंकि उनहें लगता है कि बेटा अब उनके हाथ से निकल कर बीवी के हाथों में चला गया है, और मौका लगते ही, अपनी मनोभावना को किसी तीखे कड़ुवे अन्दाज़ में व्यक्त करने से वो नहीं चूकतीं। पति की बुरी लतों के कारण परिवार का चैन खो गया है, बच्चे बिगड़ गये हैं। कुछ का घर पति-पत्नी के एक दुसरे पर शक करने के कारण बर्बाद है, तो कहीं वास्तव में एक दूसरे की पीठ पीछे दुराचार होता है। कुछ अपनी बीमारियों से परेशान हैं तो कुछ अपनी नौकरियों से और कुछ नौकरी के लिये परेशान हैं।

कितने तो झूठ बड़ी स्वाभविक रीति से बोल जाते हैं, उनहें सोचना भी नहीं पड़ता, बात और मौके के मुताबिक झूठ तैयार होता है मूँह से बाहर आने के लिए। एक महाशय छुट्टी के दिन, घर के बरामदे में बैठे अखबार पढ़ रहे थे। सड़क चलते एक भिखारी ने उनकी ओर गुहार लगाई, “महराज एक आध रुपया मिलेगा”, वह बिना मूँह उठाए बोले, “पैसे नहीं हैं”। भिखारी ने फिर गुहार लगाई “तो महाराज कोई बची-कुची रोटी सब्ज़ी ही दे दो”, महाशय कुछ झल्लाकर बोले “रोटी सब्ज़ी भी नहीं है”। भिखारी ने फिर प्रयास किया “महाराज काफी ठंड है, कोई पुराना कपड़ा-चादर ही दे दो”। महराज खिसियाकर बोले, ‘क्यों सवरे-सवरे दिमाग़ चाट रहे हो, कह दिया न नहीं है”। भिखारी बोला जब तुम्हारे पास न पैसा है, न रोटी, न कपड़ा तो फिर बेकार बैठे समय क्यों बरबाद कर रहे हो, एक कटोरा लेकर मेरे साथ चलो, मिलकर धंधा करेंगे।” झूठ बोलने की तो लोगों को आदत हो गई है, घर में पति-पत्नी एक दूसरे से झूठ बोलते हैं, बच्चों से झूठ बोलते हैं और बच्चे अपने माँ-बाप से झूठ बोलते हैं। बाप ऑफिस से पैन, पैंसिल, कागज़, रबड़ आदि हाथ साफ कर लाता है तो पत्नी और बच्चे बाप की जेब पर हाथ साफ कर लेते हैं। जिसको जैसा मौका मिलता है वो बस झूठ, बेईमानी, धोखे से अपना उल्लू सीधा करने में लगा है; उचित-अनुचित, अपने-पराये या घर-बाहर का कोई मतलब नहीं रह गया है। मेरे प्रीय पाठक आपकी और आपके परिवार कि क्या दशा है? क्या आपके घर की कोई शर्मनाक कहानी अभी बाहर आने को तो नहीं है?

सब कुछ करके, सब कुछ पा के, अक्ल के सारे घोड़े दौड़ा कर भी आदमी बेचैन और परेशान है क्योंकि मन का पाप मन में शाँति होने नहीं देता। बहर से शाँत और प्रसन्न दिखने वालों में से बहुतों की आंतरिक दशा उलट ही है। जीवन ऐसा बन गया है कि न तो जीते बनता है और न मरते। कितने ही जीवन से उक्ता गये हैं और उनहें जीवन जीने लायक ही नहीं लगता है। संसार के लोगों और समाज कि इस दशा का एक ही कारण है - पाप। आपका हर पाप आपका पीछा करता ही रहेगा; आप चाहे उससे इन्कार करें, वह आपका कभी इन्कार नहीं करेगा। आप जितना भी चाहें और जहाँ भी चाहे भाग लें, हर जगह आप उसे साथ ही खड़ा पाएंगे - मौत के बाद भी। यह पाप ही है जिसने सारे संसार को एक दहशत के माहौल में जीने पर मजबूर कर रखा है। कौन कब और कैसे किसकी बेचैनी का शिकार हो जाए, कोई नहीं जानता। किस मोड़ पर कौन सा हादसा किसका इंतिज़ार कर रहा है, कोई नहीं जानता। प्रभु यीशु ने कहा “यदि मन न फिराओगे तो इसी तरह नाश हो जाओगे (लूका १३:५)।” नाश का अर्थ मौत ही नहीं परन्तु मौत के बाद हमेशा के भयानक विनाश में जा पड़ोगे। २००० साल का इतिहास छान डालो, ढूंढ कर देख लो,प्रभु यीशु की कही एक बात भी गलत साबित नहीं हुई है। ध्यान दीजीए प्रभु ने क्या कहा - यदि मन न फिराओगे तो इसी तरह नाश हो जाओगे; उसने धर्म बदलने को कतई नहीं कहा, मन फिराने को कहा है। सच मानियेगा मन बदलते ही आपके हालात और आप बदल जाएंगे, क्योंकि मन से पाप, पाप की बेचैनी और उससे उत्पन्न होने वाली दहशत समाप्त हो जाएंगे।

यह सवाल मन में अटकता है कि मन फिराने का अर्थ क्या है? ध्यान कीजिए, मनुष्य द्वारा की गई हर बुराई मन ही से शुरू होती है - पहले मन में विचार आता है, फिर योजना बनती है और सही मौका देखकर कार्य किया जाता है। यदि मन से बुराई ही उत्पन्न न हो तो शरीर से बुराई होगी भी नहीं। लेकिन मन से बुराइ को हटा पाना मनुष्य के लिए असंभव है। हो सकता है कि आप कुछ समय तक मन को काबू में रख सकें पर उसकी प्रवृति नहीं बदल सकते, जब और जहाँ ज़रा भी मौका मिलेगा, मन बेकाबू होकर बुरा ही सोचेगा और करवाएगा। शेर को पिंजरे में बन्द रखने से वो शाकाहारी नहीं हो जाता और न ही हमला करने का उसका स्वभाव जाता है। मन की यह दशा उसमें बसे पाप के कारण है। जब तक मन से पाप का प्रभुत्त्व नहीं जाता, मन का स्वभाव नहीं बदलता। आप अपने मन में झांक कर अपनी असली हालत देखिए, उन गन्दे और बुरे विचारों पर ध्यान दीजिए जो आपके मन में उत्पन्न होते हैं, पलते हैं, बसते हैं। उन ज़लील और घिनौने कामों पर गौर कीजिए जिन्हें आप छिप कर करते हैं, कर चुके हैं या करने के इरादे रखते हैं लेकिन उनका भेद खुलने से डरते हैं। अपने अन्दर बसे सारे झूठ, व्यभिचार, घमण्ड, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेश आदि का हिसाब कीजिए; आप सव्यं मान लेंगे कि आप पापी हैं, बेचैन हैं। आप अपना कोई भी यत्न क्यूं न कर लें, लेकिन मन पर पाप के इस प्रभुत्त्व को हटा नहीं सकते। इस प्रभुत्त्व को केवल वो ही हटा सकता है जो पाप पर जयवंत हो, सदैव से ही निषपाप और निषकलंक हो। संसार के इतिहास में केवल एक ही ऐसा है, केवल एक ही का जीवन है जिसे न जाने कितनी ही बार जांचा-परखा गया और वह हर बार पवित्र, निषपाप और निषकलंक ही निकला, जिसपर आज तक कभी कोई दोष नहीं रखा जा सका, वह है प्रभु यीशु। प्रभु यीशु पापों की क्षमा देने इस संसार में आया ताकि कोई नाश न हो पर हर एक अनन्त जीवन और अनन्त चैन पा सके। उसके पास धर्म परिवर्तन की कोई बात है ही नहीं, बात तो सारी मन परिवर्तन की है। उसने समस्त जगत के पाप क्षमा और सब के उद्धार के लिए अपनी जान क्रूस पर दी और तीसरे दिन जी उठा। जैसे ही आप सच्चे मन से उसके पास आते हैं और उससे कहते हैं कि हे प्रभु मुझ पापी पर दया कर, मेरे पाप क्षमा कर और अपना मन उसे सौंप देते हैं; वह आपके पाप क्षमा करके उनकी प्रभुता आपके मन पर से हमेशा के लिए हटा देता है और पाप पर जयवंत अपनी सामर्थ आपको दे देता है। यही मन परिवर्तन है अर्थात मन पाप के दासत्व से परिवर्तित होकर परमेश्वर के आधीन हो जाता है अब मन बुराई के अनुसार नहीं पर परमेश्वर के अनुसार सोचता और करता है।

प्रभु यीशु जीवित परमेश्वर है। केवल वह ही पापों की क्षमा और अनन्त जीवन देने वाला परमेश्वर है। आप कोई क्यों न हों, कैसे भी क्यों न हों वह आप से प्रेम करता है, आप को अनन्त विनाश से बचाना चहता है, आप के पश्चाताप का इंतिज़ार करता है। एक-एक करके छोटे-छोटे पाप बेहिसाब हो जाते हैं और उनका बेहिसाब प्रतिफल भी आप ही को भुगतना पड़ेगा। पाप में जीना अपने आप से दुशमनी करना है, स्वयं अपने लिए विनाश की कटनी बोना है। पाप के ज़हर का प्रभाव आप में और आप के परिवार में तेज़ी से फैलता है जो मुसीबतें, बेचैनियां, आपसी मनमुटाव या बैर आदि के रूप में प्रकट होता है। आपने जो कुछ भी किया है, छिपकर या खुलकर, उस सबसे बचकर आप न छुप पाएंगे न कहीं भाग पाएंगे। आपका पाप आपको नहीं छोड़ेगा, इस संसार में बेचैन रखेगा और आते संसार में एक न्याय और फिर विनाश में ले जाएगा। परमेश्वर का वचन कहता है “…क्या यह समझता है कि तू परमेश्वर के दण्ड की आज्ञा से बच जाएगा (रोमियों २:१३)” वह हर एक को उसके कामों के अनुसार बदला देगा। यह निश्चित है क्योंकि परमेश्वर ने अपने सत्य वचन में ऐसा लिखा है। लेकिन दिल से निकली एक दुहाई, एक सच्चे पश्चाताप की प्रार्थना से सब बदल जाएगा। जब पाप क्षमा हो जाएंगे और हटा दिये जाएंगे तो दण्ड का कोई कारण ही नहीं बचेगा “इसलिए अब जो मसीह यीशु में हैं उनपर दण्ड की आज्ञा नहीं है... (रोमियों ८:१)।”

हो सकता है कि आप कहें कि मैं इतना बुरा तो नहीं हूँ। लेकिन आप ईमान्दारी से देखें अपने अश्लील विचारों को, अपनी अभिलाषाओं को, अपने बीते जीवन को। आप ऊपर से कुछ भी दिखते हों, परमेश्वर तो आपके मन को, आपके विचारों को और आपकी अभिलाषाओं को देख लेता है। बाहर से भले होने का दिखावा तो मक्कारी है, असल में आप में जो अपने भले होने का विचार है, वह अपने आप को धोखा देना ही है और आपको एक दिन इस धोखे के परिणाम को भुगतना ही पड़ेगा। सालों पहले की बात है, मैं एक ऐसी जगह खड़ा था जहाँ मौत का सन्नाटा सता रहा था। दिल दहला देने वाला माहौल था, तीन खून से लिथड़ी लाशें वहाँ पड़ी थीं, खून से सने मूँह पर मक्खियाँ भिनभिना रहीं थीं। तीनों पैसे से, शरीर से, रुतबे से बहुत सामर्थी दिखते थे, पर अब अपने मूँह से मक्खी तक नहीं हटा सकते थे। एक हादसे ने एक ही लपटे में इन तीनों को लपेट लिया। एक लाश के हाथ में बन्धी घड़ी अब भी चल रही थी, सैकिंड की सूईं अभी भी चक्कार लगा रही थी पर इन तीनों क वक्त समाप्त हो चुक था। किसीने नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी इनका वक्त पूरा हो जाएगा। इनके पास सब कुछ था पर काल के जाल से बच नहीं पाए। वक्त इनके लिए नहीं रुका पर इन्होंने वक्त को नहीं पहिचाना। प्रभु यीशु कहता है “यदि मन न फिराओगे तो इसी तरह नाश हो जाओगे।” “तुम दण्ड के दिन और उस आपत्ति के दिन क्या करोगे? सहयता के लिए किस के पास भाग कर जाओगे। (यशायह १०:३,४)” प्रभु कहता है, “... चाहे तू उकाब की नाई ऊँचा उड़ता हो, वरन तारागण के बीच अपना घोंसला बनाए तो भी मैं तुझे वहाँ से नीचे गिराऊंगा। (ओबादियाह १:४)”

हमारे संसार का सबसे सुरक्षित देश अमेरिका भी असल में कितना असुरक्षित है यह ११ सितंबर की दिल दहला देने वाली घटना ने सारे संसार को दिखा दिया। अभी तो ऐसी ही कितनी ही अन्होनी होनी बाकी हैं। खतरे और खौफ अपनी हद तक पहुँच चुके हैं, बस अब एक झटके की देरी है। ऐसे ही न्याय का दिन भी अचानक ही सब पर आ पड़ेगा और लोग भौंचक्के देखते रह जाएंगे। बीता कल तो एक यादगार बन कर रह गया है, आज भी तेज़ी से बीते कल में बदल रह है। आज और अब ही आने वाले कल के काल से बच निकलने का वक्त है। मित्र मेरे, आने वाले कल से बचकर भाग नहीं पाओगे, उस आते कल का जो बीते कल से ज़्यादा भयानक होगा, सामना तो करना ही पड़ेगा। मित्र मेरे प्यारा प्रभु यीशु आपको प्यार करता है और चाहता है कि आप नाश न हों। बस आपके माफी माँगने की ही देर है, उसकी क्षमा में देरी नहीं है। बस एक प्रार्थना, एक सच्चे दिल की पुकार “हे प्रभु यीशु मेरे पाप क्षमा कर, मुझ पापी पर दया कर” विनाश को अनन्त आनन्द में बदल देगी, क्या आप यह प्रार्थना करेंगे?