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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

सम्पर्क दिसम्बर २००९: आज उसकी आवाज़

एक बच्चों की कहानी है जो बड़ों को भी बहुत कुछ समझा जाती है। एक राजा का मंत्री था, उसमें एक बात बड़ी अजीब थी: हर बात में एक बात हर बार कहता था, "सब बातें मिलकर भलाई को पैदा करती हैं।" राजा इस इमानदार और सच्चे मंत्री की इस बात को बेवकूफी समझकर हमेशा उसपर हंसता था।

एक दिन राजा अपने सैनिक के साथ तलवार चलाने का अभ्यास कर रहा था, अभ्यास के समय सैनिक की चूक के कारण तलवार राजा के हाथ पर लगी और उसकी उंगली कटकर अलग हो गयी। वहाँ खड़े मंत्री ने हमेशा की तरह कहा, "सब बातें मिलकर भलाई को पैदा करती हैं।" झुँझुलाए हुए राजा ने गुस्से में आदेश दिया, "इस नालायक को बन्दीगृह में डाल दो; अपनी भलाई यह वहीं भोगता रहेगा।" कुछ महीनों उपरान्त राजा शिकार पर निकला और घने जंगलों में अपने साथियों से कहीं अलग भटक गया और एक आदिवासी कबीले में जा फंसा। आदिवासी काफी समय से अपने कुलदेवता को नरबलि चढ़ाने की चाह में थे और अब स्वयं ही उनके हाथ एक बलि योग्य आदमी पड़ गया। उन्होंने देर नहीं की, तुरन्त राजा को नरबलि करने की तैयारी करने लगे। बलि देने के लिये राजा को वेदी पर लाया गया और उसकी बलि चढ़ने ही वाली थी कि एक आदिवासी की नज़र राजा के हाथ और कटी उंगली पर पड़ी। वह तुरन्त चिल्लाया, "रुको, यह संपूर्ण बलि नहीं है, इसका अंग कटा है, कुलदेवता क्रोधित हो जाएंगे।" राजा को उसकी कटी उंगली के कारण छोड़ दिया गया, और वह अपने राज्य की ओर चल पड़ा।

राज्य में वापस पहुँचकर उसने अपने मंत्री को बंदीगृह से बाहर बुलवाया और बोला, "मंत्रीजी, अब मैं मान गया कि सचमुच में सब बातें मिलकर भलाई को उत्पन्न करती हैं। अगर यह उंगली न कटी होती तो गर्दन ही कट गयी होती। पर तुम्हारे बारे में एक बात समझ नहीं आई, इतने दिन तुम बंदीगृह में रहे, उससे तुम्हारा क्या भला हुआ?" मंत्री बोला, "महाराज, प्रभु जो करता है भला ही करता है, क्योंकि वह भला परमेश्वर है। अगर मैं बंदीगृह में न होता तो आपके साथ शिकार पर होता और उन आदिवासियों के हाथों से आप तो बच गये लेकिन मैं अवश्य बलि चढ़ाया जाता! इसलिये सब बातें मिलकर भलाई ही पैदा करतीं हैं।"

शायद आज के बुरे हालात में मुझे कोई भलाई नज़र नहीं आती, लेकिन मैं कल देखूँगा कि हर बात को मेरे प्रभु ने भलाई में बदल डाला।

जॉन बनियन बारह साल इंग्लैंड की जेल में रहा। वह बारह साल जेल से अपने छुटकारे के लिये प्रार्थना करता रहा, पर उन बारह सालों तक उसकी प्रार्थना नहीं सुनी गई। पर परमेश्वर ने जेल को भी उसके लिये भलाई में बदल दिया। उन्हीं बारह सालों में परमेश्वर ने उससे एक किताब लिखवाई - "Pilgrim's Progress" (मसीही मुसाफिर) जिसको बाइबल के बाद सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली किताब कहा जाता है।

यहाँ नहीं वहाँ

कुछ किताबें हैं जो बताती हैं कि इस जीवन में सबसे अच्छा जीवन कैसे मिलेगा; पैसा कैसे मिलेगा; अच्छा पद कैसे मिलेगा; सुखी परिवार कैसे मिलेगा आदि। यदि आप एक मसीही विश्वासी नहीं हैं तो ऐसी कोई किताब किसी बुक स्टॉल से खरीदकर पढ़ लें, शायद कोई तुक्का बैठ जाये।

हम अपने जीवन के बारे में बहुत से सपने संजोकर रखते हैं, पर जैसा हम चाहते हैं वैसा सब कुछ मिलता नहीं। प्रभु यीशु मसीह ऐसा कोई दावा नहीं करता कि इस जीवन में आपको पैसा, पद और सफलता ही मिलेगी। पर वह एक आने वाले सबसे उत्तम जीवन का दावा करता है। एक ऐसा जीवन जिसके बारे में अपके दिमाग़ ने कभी सोचा नहीं, आपकी आँखों ने कभी देखा नहीं और कानों ने जिसके बारे में सुना नहीं, ऐसा भविष्य उसने आपके लिये सजाकर रखा है (१ कुरिन्थियों २:९-१०)।

अंधेरा कमरा और काली बिल्ली

हमें सब कुछ जानने की ज़रूरत नहीं है, पर ज़रूरत है उसे जानने की जो सब कुछ जानता है; और उसे उसके वचन से ही जाना जा सकता है। अगर हम परमेश्वर की खोज अपने ज्ञान से करने की कोशिश करते हैं तो यह ऐसे होगा जैसे,"एक अन्धेरी रात में एक अंधा अन्धेरे कमरे में एक काली बिल्ली को ढूँढ रहा है।" जो अन्धकार में जी रहा है उसे नहीं मालूम कि उसका जीवन कहाँ जा रहा है। वह पैसे में, पद में, परिवार में, मौज-मस्ती में खोया हुआ है। अन्त: जब उसकी आँखें खुलेंगी तो वह अपने आप को वहाँ पाएगा जहाँ वह कभी जाना नहीं चाहता था, पर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और लौटने के सारे रास्ते बन्द हो गए होंगे।

संसार का ईश्वर हमें अन्धा कर देता है और संसार के प्रकश की चमक भी अन्धा कर देती है; जैसे पैसे की चमक, पद की चमक, सैक्स की चमक, सम्पत्ति की चमक। पर परमेश्वर का वचन हमारी आँखों को ज्योर्तिमय करता है, ताकि हम अपने आप को साफ-साफ देख सकें। एक दिन यह आकाश पर चमकता सूरज भी काला हो जायेगा और इस संसार का उजाला हमें धोखा दे जाएगा, फिर बहुतों के लिये हमेशा का अन्धकार ही बचेगा।

शब्द शब्द नहीं सामर्थ हैं

प्रभु ने अपने शब्दों में अनूठा प्यार पिरोया है। जब कोई आदमी कहता है, "मत डर यार, मैं हूँ" तो उसके शब्दों से कुछ नहीं होता। पर जब मेरे सामने बाइबल के शब्द आते हैं, "मत डर, मैं हूँ", तो मुझे एक नई सामर्थ मिल जाती है। यह आवाज़ मेरी रूह को छूती है और मुझे मेरी असलियत का एहसास दिलाती है। परमेश्वर के वचन ने हमेशा मुझे हौंसला दिया है। उसने मेरी हर हार को भी जीत में बदल डाला है। मैं गिर कर भी संभल जाता हूँ क्योंकि एक हाथ मेरे साथ है - परमेश्वर का हाथ; और मुझे मालूम है कि मौत भी उसके हाथ से मेरा हाथ नहीं छुड़ा पायेगी।

गज़ब किया

मेरा प्रभु गज़ब का परमेश्वर है। उसकी हर बात गज़ब है। प्यार है तो गज़ब, काम है तो गज़ब, जन्म है तो गज़ब, जीवन है तो गज़ब, और मौत है तो वह भी गज़ब और उसके मौत के बाद की बात भी गज़ब है। उसकी क्षमा को बयान करने के लिये हमारे सारे शब्द भी बहुत कम हैं।

शब्दों के वार पत्थर के टुकड़ो से कहीं ज़्यादा लम्बे समय तक दर्द देते हैं। बहुत से लोग अक्सर ऐसे शब्दों के पत्थर बिना सोचे समझे दूसरों पर फेंकते हैं जिनका दर्द दूसरे लोग ज़िन्दगी भर सहते हैं।

यूहन्ना ८ में फरीसी लोग एक स्त्री के लिये पत्थर लाए थे। इसी अध्याय के अन्त में उन्होंने प्रभु के लिए पत्थर उठाये। लेकिन जिनके हाथ में प्रभु के लिए पत्थर थे, प्रभु के पास उनके लिए भी प्यार था और क्षमा थी। आज भी जिनके हाथ में उसके लिए पत्थर हैं, प्रभु के पास उनके लिए भी क्षमा और प्यार है।

जो आपसे नहीं हो सकता, वह सब परमेश्वर आपके लिए कर सकता है। वह आपकी हर हार को जीत में बदल सकता है। बस उसके वायदों और वचन पर विश्वास कीजिए। अगर कहीं शंका है तो उसे परख कर देखिये (भजन ३४:८)।

अजब रहा सिल्सिला,
ज़िन्दगी का,
गज़ब रहा सिल्सिला,
ज़िन्दगी का,
कहाँ कहाँ पर गिराया मैंने,
कहाँ कहाँ पर उठाया उसने,
सिल्सिला मेरी ज़िन्दगी का।


अजब किया

पिछले ४००० वर्षों से परमेशवर के वचन को मिटाने की पूरी कोशिश की गयी, पर फिर भी दुनिया में यह इकलौती किताब है जो सैंकड़ों सालों से सब से ज़्यादा पढ़ी जाती रही है।

शैतान इस किताब से नफरत करता है। इसलिये जितने हमले इस किताब पर किये गये, उतने संसार की किसी भी और किताब पर नहीं किये गये। कितने ही लोगों ने इसे मिटाने की भरपूर कोशिश की, यहाँ तक कि पोप ने १६वीं सदी तक इसे छिपाये रखा, लेकिन इसे नष्ट करना तो दूर, दबा कर भी नहीं रखा जा सका। शैतान आज भी कितने लोगों को उभारता है कि इसमें मिलावट करके इसकी पवित्रता को बिगाड़ दे। कितने ही लोग तो इसके वचनों का ग़लत अर्थ निकालकर लोगों को सिखाते हैं कि इसकी शिक्षाओं का प्रभाव उलट या ग़लत हो, लेकिन तौभी इस जीवित वचन के द्वारा आज भी प्रतिदिन अनेकों जीवन बदले जाते हैं।

परमेश्वर का वचन एक ग़ैरमज़हबी किताब है, क्योंकि यह किसी मज़हब के बारे में नहीं बताती। इस ज़िन्दा किताब में परमेश्वर चलता, फिरता और बोलता हुआ दिखाई देता है। इस किताब में परमेश्वर ने प्यार ही प्यार पिरोया है; अगर इस किताब में से प्यार निकाल दो तो इस किताब की जान ही चली जायेगी।

अधिकतर विश्वासियों को यह शक सताता है कि हमारा उद्धार हुआ है या नहीं, खास कर नये विश्वासियों को। सालों तक मेरे अन्दर भी यह शक बन रहा। शैतान शक से डराता है कि तेरे पाप क्षमा नहीं हुए। यह इसलिये होता है कि हम परमेश्वर के वचन को समझ नहीं पाते।

पाप की माफी के लिये उसका क्रूस पर दिया गया बलिदान ही काफी है। हमें वह ऐसा बना देता जैसा हम अपने बारे में सोच भी नहीं सकते। परमेश्वर के प्रेम को ठुकराकर हम परमेश्वर का कोई नुकसान नहीं करते, इससे जो भी नुकसान होता है वह हमारा ही होता है।

"यदि आज उसके शब्द सुनो तो अपने मन को कठोर न करो" (इब्रानियों ४:७)।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

सम्पर्क दिसम्बर २००९: कहाँ से कहाँ तक

मेरा जन्म सहारनपुर (यू.पी.) में एक इसाई परिवार में हुआ। मेरे दादा के पास काफी ज़मीन जायदाद थी, उनके पांच बेटों में सबसे बड़े मेरे पिताजी थे। दादाजी के मरणोप्रांत मेरे चारों चाचाओं ने जायदाद के बंटवारे की मांग की। मेरे पिताजी इस बंटवारे के पक्ष में नहीं थे, लेकिन उन्हें इस मांग के आगे झुकना पड़ा और जायदाद को भाइयों में बांटना पड़ा। इस कारण हमारा बड़ा घर एक छोटी जगह में सिमट गया। भाईयों के अलग होने से दुखी होकर मेरे पिताजी बहुत शराब पीने लगे, जिसके चलते उन्होंने घर, ज़मीन के काम, खेतीबाड़ी और यहाँ तक तक कि हमें भी नज़रांदाज़ करना शुरू कर दिया। परिणमस्वरूप जिन लोगों को हमारी ज़मीन पर काम के लिये लगाया गया था, उन्होंने धोखे से हमारी सारी ज़मीन हड़प ली। इससे हमारी माली हालत भी बहुत सकते में आ गई, जो बचत का कुछ पैसा था वह सब पिताजी की नशे की आदत के कारण खत्म हो गया।

इन सब परिस्थितियों के बावजूद भी हम लगातार चर्च जाते थे और मैं चर्च की गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी। मैं रोज़ बाइबल पढ़ती और सन्डे स्कूल क्लास में जाती थी। अगर कोई मुझसे किसी धार्मिक काम करने के विष्य में कहता तो मैं उसे बड़े उत्साह से करती थी।

अगर कहीं कोई विशेष सभा होती थी तो मैं वहाँ भी अपनी माँ के साथ जाती थी। पर यह सब करके भी मेरे अन्दर कोई खुशी या परमेश्वर के उद्धार का आनन्द नहीं था। इन सब बातों को मैं एक धर्म के रीति-रिवाज़ की तरह ही पूरा करती थी, जिसने मुझे एक तरह के बन्धन में बाँध दिया था। मेरा जीवन इसी तरह चल रहा था।

ये सब कैसे हुआ

एक दिन परमेश्वर के घर से आते समय मेरी एक विश्वासी मित्र मुझे मिली और उसने मुझसे एक सवाल पूछा, "क्या तुम मानती हो कि तुम एक पापी हो?" उसके इस सवाल से मैं बड़ी हैरान हुई और मैंने बड़े घमंड से उत्तर दिया, "नहीं, मैं पापी नहीं हूँ; मैं कैसे पापी हो सकती हूँ जबकि मैं बराबर चर्च जाती और बाइबल पढ़ती हूँ और मैंने कभी कोई गलत काम नहीं किया है? मैं विश्वास करती हूँ कि मैं एक अच्छी लड़की हूँ और स्वर्ग में मेरा एक स्थाई घर है।" तब मेरी मित्र ने मुझे बाइबल में से एक आयत दिखाई - रोमियों ३:२३, जहाँ लिखा था "सबने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं।" फिर उसने मुझे परमेश्वर के वचन में से १५-२० आयतें और भी दिखाईं। मैं बाइबल को बहुत लम्बे समय से पढ़ती आ रही थी, लेकिन उस दिन वह सारे वचन मेरे पास एक नई रीति से आये। मैंने हर एक वचन को बड़े ध्यान से सुना और परमेश्वर के आत्मा ने मेरे दिल से बातें कीं। तब मेरे मित्र ने मुझसे पूछा, "क्या तुम प्रभु यीशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता करके ग्रहण करना चाहती हो? यदि हाँ तो मेरे पीछे-पीछे प्रार्थना को दोहरा सकती हो।" मैंने कहा "हाँ मैं तैयार हूँ।" जब मैं अपने पापों से पश्चाताप की प्रार्थना कर रही थी तो मैंने अपने आप को बहुत हल्का महसूस कर रही थी। जैसे ही मैंने प्रार्थना को अन्त किया तो मैंने एहसास किया कि एक बड़ा बोझ मेरे हृदय से हट गया है और बयान से बाहर एक अदभुत खुशी ने मुझे घेर लिया है; तब मुझे वास्तविक उद्धार का निश्चय हुआ। उस दिन मैं बहुत खुशी से भरी और बदली हुई अपने घर पहुँची। उस दिन के बाद से मैं प्रभु में बढ़ती गई। अब परमेश्वर के वचन को पढ़ने के मायने मेरे लिये बिल्कुल अलग हो गये।

लेकिन यह सब मेरे परिवार को, विशेषकर मेरे पिताजी को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। जब मैंने परमेश्वर के घर में विश्वासियों की मण्डली में जाना शुरू किया तो मेरे पिताजी इसका विरोध करने लगे। वे कहते थे कि हम तो पुराने इसाई हैं तो फिर तुम्हें यह सब करने की क्या ज़रूरत है? फिर मेरे निर्णय को बदलने के लिये सबसे छोटे चाचा को फरीदाबाद से बुलवाया गया। लेकिन प्रभु की दया से मैं अपने निर्णय पर दृढ़ रही। जब वे मुझे समझाने में असफल रहे तो वे ज़बरदस्ती मुझे रोकने की कोशिश करने लगे। इस मुशकिल स्थिती पर विजय पाने के लिये मैं प्रार्थना-उपवास करती थी। जैसे ही प्रार्थना और अराधना सभा का समय नज़दीक आता था, मैं अपने पिताजी से रो रो कर गिड़गिड़ाती थी कि मुझे जाने दीजिये। मेरे आँसुओं को देखकर वह मान जाते, परन्तु यह कहकर कि बस! यह आखिरी बार है। मण्डली की बहिनें हमेशा मेरी इन मुशकिलों में मेरे साथ खड़ी रहीं। वे कई बार हमारे घर आतीं और मेरे पिताजी को मनवाकर मुझे अपने साथ परमेश्वर के घर लेकर जाती थीं।

१९९० में मुझे बोर्ड की परिक्षाओं में बैठना था लेकिन परिक्षाओं की तारीखें देहरादून में आयोजित होने वाली एक विशेष सभा के दिन के साथ अड़चन डाल रहीं थीं। लेकिन प्रभु की दया से मैंने प्रभु और उसकी आज्ञाओं को पहला स्थान दिया, देहरादून जाकर मैंने सभा में भाग भी लिया और अगले दिन अपनी परिक्षा भी दी। प्रभु उनको कभी निराश नहीं करता जो उसपर भरोसा रखते और उससे प्रेम रखते हैं। प्रभु ने मुझे मेरी परिक्षाओं में बहुत अच्छे अंक दिये। इस तरह मेरा जीवन प्रभु यीशु के प्रेम में और अधिक बढ़ता गया।

मुझे उसने क्या दिया

मेरे विश्वास की वास्तविक परख मण्डली की एक विश्वासी बहन के विवाह के बाद हुई क्योंकि उसके विवाह के बाद मण्डली के ज़िम्मेदार भाई और बहन मेरे विवाह के लिये भी बात करने लगे। लेकिन मुझे इस विष्य में कोई ज़्यादा रुचि नहीं थी क्योंकि मैं अपने घर की हालत जानती थी। मैं नहीं चाहती थी कि कोई भी मेरे लिये इस तरह का खतरा मोल लेकर मेरी चिन्ता करे। इसके विपरीत मैं यह सोचती थी कि मेरे घर की हालत देखकर मुझसे विवाह कौन करेगा? पर मुझे मालूम पड़ गया था कि मण्डली के ज़िम्मेदार भाई और अन्य बड़ी बहिनें मेरे विवाह की बात सोच रहे हैं। इसीलिये मुझे एक दिन घर से बुलाया गया, मुझे मालूम था कि मुझे क्यों बुलाया है। सो मैंने पहले से ही तय कर लिया था कि जब वो मुझसे पूछेंगे तो मेरा जवाब ’ना’ ही होगा। परन्तु प्रभु ने मुझसे इफिसियों ६:५ से बात की, "अपने प्रचीनों के आधीन रहो।" इस तरह से मैंने अश्विनी से विवाह करने के बारे में अपनी सहमति दे दी और मुझे इस विष्य में प्रार्थना करने को कहा गया।

मैं प्रार्थना करने को तो राज़ी थी पर यह सोचकर डर रही थी कि अगर मेरे माँ-बाप को इसका पता चलेगा तो क्या होगा? इस विष्य पर प्रार्थना करने के दौरान, प्रभु ने मुझे यर्मियाह ३१:२१ और भजन ४५ से प्रतिज्ञा दी और इससे मुझे यह स्पष्ट हो गया कि यह परमेश्वर की ओर से है। तब मैंने विवाह के इस प्रस्ताव को बिना किसी शक के ग्रहण कर लिया। मैंने देखा कि प्रभु अपने बच्चों को कभी भी किसी उलझन में नहीं रखता। इसलिये उसने पहले मेरी होने वाली सास को फिर मेरे होने वाले पति को भी इस विवाह के लिये अपने वचन से शान्ति दी। प्रभु का धन्यवाद हो कि जनवरी ६, १९९४ को अश्वनी से मेरा विवाह हो गया।

मेरी सास मेरे लिये बहुत ही हिम्मत का कारण थी। जब भी मुझे पढ़ाई में अच्छे अंक मिलते थे तो मुझ से ज़्यादा वह खुश होती थी, और वह मुझे और अधिक उत्साहित करती थी। उसने मुझे बहुत सी आत्मिक बातें सिखाईं। वह एक बहुत अच्छी प्रभु की भक्त थीं और लगातार, अन्त तक प्रभु की सेवा में बिना किसी समझौते के लगीं रहीं। अपने आखिरी दिनों में, मैं उनके साथ डॉक्टर के पास गयी थी, तो उन्होंने मुझसे कहा, "बेटी प्रभु ने जैसे हम से प्रेम किया है वैसे ही तुम उससे पूरे हृदय से प्रेम करना।" यह बात सीधे मेरे दिल में उतर गई। इसके दो दिन बाद एक सड़क दुर्घटना के कारण वे प्रभु के पास चली गईं। अब मैं प्रभु की उस सेवकाई में लगी हूँ जो मेरी सास करती थीं। यह एक बड़ा आनन्द है जो प्रभु की सेवा से मिलता है।

मैं आपको प्रभु की महिमा के लिये बताना चाहती हूँ कि मेरा वैवाहिक जीवन बहुत अद्‍भुत है। पिछले १५ सालों में हमारे परिवार में प्रभु की दया से किसी एक समय भी कोई झगड़ा नहीं हुआ। यदि कोई समस्या होती भी है तो हम उसे खाने की मेज़ पर सुलझाकर एक दूसरे की तरफ देखकर हंसते हुए खुशी से खाने का आनन्द लेते हैं। मेरे पति एक आदर्श पति, पिता और पुत्र हैं। सरकार में एक बड़े पद पर काम करने के बावजूद, प्रभु की दया से उनमें दीनता है। वह प्रभु की सेवा भी करते हैं और हमारे साथ समय भी बिताते हैं, और हमारे तीनों बेटों को प्रभु के भय में बढ़ना सिखाते हैं।

मैं परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ कि उसने मुझे परमेश्वर का भय मानने वाला परिवार दिया है। मैं प्रभु के उन सब लोगों का धन्यवाद करती हूँ जो मुझे और मेरे परिवार को अपनी प्रार्थनाओं में याद करते हैं। परमेश्वर मेरे जीवन की छोटी-बड़ी सब बातों में विश्वासयोग्य रहा है और आगे भी अन्त तक रहेगा। परमेश्वर उनके लिये भला है जो उसपर भरोसा रखते हैं। प्रभु की स्तुति हो!

- विनीता ए. मसीह, नजफगढ़, नई दिल्ली

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

सम्पर्क दिसम्बर २००९: जीना ज़रूरी नहीं, मजबूरी है

दार्शनिक नीत्शे कहता था "परमेश्वर मर चुका है।" नीत्शे के पिता, भाई और परिवारजन धर्मगुरू थे। वह उन्हीं के साथ पला बढ़ा था। वह कहता था, "इन धर्मगुरूओं के साथ रहकर तो देखो, धर्म पर से तुम्हारा विश्वास ही हट जायेगा। हमने उस हत्यारे परमेश्वर की हत्या कर दी है जिसके नाम पर इतनी हत्याएं कर दी जाती हैं।"

सच तो यह है कि जिसके लिये परमेश्वर मर गया, वही आदमी आज जीते हुए भी मरे जैसा है। जिस आदमी के दिल में परमेश्वर का डर न हो, उस आदमी पर एक पागलपन सवार हो जाता है। नास्तिकता भी ऐसा ही पागलपन पैदा करती है। ज्ञान के घमंड ने नास्तिक नीत्शे को पागल कर दिया और वह पागलपन में ही मरा।

जो आदमी नास्तिकता में जीता है, वह एक दुविधा में जीता है। उसे बहुत सारे सवाल सताते हैं - कैसे हुआ? पृथ्वी कैसे बनी? इससे आगे क्या होगा? वह एक बेचैनी में जीता है और यही सिद्ध करने में लगा रहता है कि परमेश्वर है ही नहीं। नास्तिक की आस्था बे सिर-पैर के सवालों पर खड़ी रहती है। वे कहते हैं कि जैसे परमेश्वर किसी के बिना बनाये बना है तो क्या पृथ्वी भी बिना किसी के बनाये नहीं बन सकती? वे भूल जाते हैं कि परमेश्वर और पृथ्वी की एक-दूसरे से तुलना करना मूर्खतापूर्ण है क्योंकि परमेश्वर बना नहीं था, वह है! पृथ्वी नश्‍वर है, और रोज़ उसकी चीज़ें जन्म भी लेती हैं और मरती भी हैं।

कुछ लोग यह तो विश्वास करते हैं कि परमेश्वर है, लेकिन उनकी मानसिकता परमेश्वर से नहीं धर्म से बंधी होती है। ज़्यादतर हमारा समाज ऐसे ही धर्म को मानने वाला समाज है। वह धर्म के लिये सब कुछ कर सकता है। वह अपने धर्म के लिये दूसरे धर्म के मानने वालों की हत्या कर सकता है, उनके घर उजाड़ सकता है, उनके बच्चों को ज़िन्दा जला सकता है। ऐसे-ऐसे काम धर्म ही करवा सकता है, परमेश्वर नहीं। जो परमेश्वर से प्यार करते हैं वे इन्सान और इन्सानियत से भी प्यार करते हैं। जो धर्म से प्यार करते हैं उनके लिये इन्सान और इन्सानियत का कोई महत्व नहीं है।

हमारे समाज की हालत भी देखिएगा; आदमी साँप से भी ज़्यादा डरावना हो गया है। सुनसान जगह पर साँप का नहीं आदमी का डर ज़्यादा सताता है। आज लोग ज़हीरेले जानवरों से बचने के उतने प्रयास नहीं करते जितने वे दूसरे आदमियों से बचने के करते हैं। साँप तो कभी-कभार एक आदमी को काटकर मारता है, पर आदमी का ज़हर तो रोज़ ही आदमी को मार रहा है।


हमारे अधर्म एक से हैं

हमारे धर्म अलग-अलग हैं पर हमारे अधर्म एक से ही हैं। चाहे धर्म कोई भी हो, हमारे कर्म भी एक से हैं और एक सी ही हमारे जीवन और परिवार की हालत है। एक छत के नीचे एक बिखरा हुआ परिवार मिलता है। बाप, पिता होने की अकड़ में जीता है, तो पत्नि पति पर एहसान जताती रहती है-क्या किया, क्या दिया बस यही ताने सुनते रहो, अगर बोले तो बवाल मच जाएगा। कल जो जन-ए-मन थी आज जान-ए-बवाल है। बच्चे अपने में मस्त हैं। रिश्तेदारों में खींचतान है। मिलते तो रहते हैं पर उनके दिल मिले नहीं होते। अपने लहु का सगा भी कब धोखा दे जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता। आखिर विश्वास करें तो किस पर करें और किस पर नहीं? आमने-सामने मूँह मुस्कुराता है पर मन कोसता है। हम जानते भी नहीं कि हर मुस्कुराहाट के पीछे कितने झूठ छिपे हैं।

बात तो मज़ाक की है पर हमारे घरों के हालात समझने में सहायता करेगी। एक पति-पत्नि में लड़ाई हुई, पति ने गुस्से में बाज़ार से ज़हर लिया और खाकर लेट गया। मरा तो नहीं पर बीमार ज़रूर पड़ गया। पत्नि, पति से चिल्लाकर बोली, "मैं हमेशा यही बात तो कहती हूँ कि सामान देख-भाल कर खरीदा करो। अब देखो पैसे भी गये और काम भी नहीं हुआ।"

शायद आपके घर में ऐसा न हुआ हो, पर बहुत से परिवारों में पति-पत्नि के संबन्धों में खटास आ चुकी है। उनमें मतभेद नहीं पर मनभेद हो चुके हैं। बहुत से साथ जीते तो हैं पर मन में उनका तलाक हो चुका है। साथ जीना उनके लिये एक मजबूरी बन गया है। अक्सर जब पति-पत्नि के संबन्ध टूटते हैं तो लोग कहते हैं कि "वे एक दूसरे को समझ नहीं पाए।" पर वास्तविक रूप में एक दूसरे की असलियत तो शादी के बाद ही समझ में आनी शुरू होती है, चाहे शादी से पहले भी एक दुसरे को जानते हों।


दर्द और दरवाज़े

भले ही हम दूसरे के दर्द समझ न पाएं, पर दर्द तो हर दरवाज़े की कहानी है। जैसे, किसी बेचारे गंजे की परेशानी को आप सही तौर से समझ नहीं पायेंगे। पहला तो यह कि वह मूँह कहाँ तक धोये? दूसरा यह कि नाई के पास जाते हुए बड़ी शर्म आती है कि वहाँ बैठे लोग क्या कहेंगे? खैर कहते तो कुछ नहीं पर उनका कनखियों से देखना और फिर हल्का सा मुस्कुराना बहुत तीखा चुभता है। नाई भी बेचारा परेशान कि कहाँ से काटूँ और कहाँ से छोड़ूँ? पैसे लेते वक्त भी उसे परेशानी होती है कि पैसे बाल काटने के लूँ या ढूंढने के? हम दूसरों की परेशानी को सही तरह समझ नहीं पाते; पर इतना ज़रूर है कि मैं और आप कहीं न कहीं परेशानियों से निकल रहे हैं।

एक विदेशी पर्यटक को देख कुछ भिखारी हाथ फैला कर उससे भीख माँगने लगे। उस विदेशी पर्यटक ने पहले अपना कैमरा तैयार किया, फिर एक अजीब बात की, पैसे निकाल कर उनके हाथों में देने की जगह, ज़मीन पर बिखेर दिये। सारे भिखारी तेज़ी से ज़मीन पर गिरे सिक्कों को उठाने लगे और उनमें सिक्के उठाने की होड़ लग गई। पर्यटक भी उनकी इन हरकतों को अपने कैमरे में फुर्ती से कैद करने लगा। एक आदमी जो यह देख रहा था, उसे बड़ा बुरा लगा। उस विदेशी के जाने के बाद उसने उन लोगों से कहा, "वह अपने देश में लेजा कर इन तस्वीरों को पत्रिकाओं में छापेगा। तब हमारे देश के लिये कितनी शर्मनाक बात होगी और उन लोगों के दिमाग़ में हमारी क्या तस्वीर बनेगी? क्या तुमने कभी यह सोचा?" एक भिखारी ने जवाब दिया, "साहब, हम तो यह जानते हैं, पर भूखा पेट नहीं जानता; और आप सिर्फ बडी-बड़ी बातें मत कीजिये, कुछ करना ही है तो हमारी इस हालत को सुधारने के लिये कुछ कीजिये।" समस्याओं पर उपदेश तो हमारे पास बहुत हैं, पर समस्या का समाधान नहीं है।


जब ज़िन्दगी बोझ लगने लगती है

"टैन्शन" एक ऐसा शब्द है जिसे आप जीवन के हर पहलू में देख सकते हैं: शादी हो गई तो टैन्शन, नहीं हुई तो टैन्शन। बच्चे नहीं हुये तो टैन्शन, हो गये तो टैन्शन। नौकरी नहीं है तो टैन्शन, मिल गयी तो टैन्शन। आदमी पतला है तो टैन्शन, मोटा है तो टैन्शन। कितनी ही बीमारियाँ हममें टैन्शन बनाये रखती हैं। परेशानियों से सारी उम्मीदें टूटने लगती हैं, आदमी का मन हारने लगता है और कितने डर उसे सताते हैं - क्या होगा? कैसे होगा? आदमी को ज़िन्दगी बोझ लगने लगती है।

कितनी ही अच्छी शिक्षा, अच्छी नौकरी, अच्छा घर और अच्छा सामान हो, किंतु उसमें प्यार, खुशी और चैन न हो तो सब व्यर्थ है। दुनिया की सब चीज़ें पाकर भी अगर परेशान हैं तो सब पाने का क्या अर्थ है? परेशानियाँ होने का कारण धन-दौलत या दुन्याबी चीज़ों की कमी नहीं है; परेशानियाँ हैं क्योकि हममें अहंकार है, बदले लेने की भावना भरी है, दूसरों को नीचा दिखाना चाहते हैं। कितने ही गलत संबंध पाल रखे हैं, बुरी लतों से लदे हैं, खुद का और परिवार का जीना हराम कर रखा है। और फिर रौब ऐसा रखते हैं कि पता नहीं क्या हैं और क्या कर देंगें?

पाषाण युग से कम्पयूटर युग तक आदमी ने बहुत कुछ बदल डाला, पर आदमी अपने स्वभाव को नहीं बदल पाया। हममें से अधिकाँश लोग चाहते हैं कि हमारे राजनेताओं का चरित्र बदले, पुलिस व्यवस्था बदले, सरकारी कामकाज का तरीका बदले, अधिकारियों का व्यवहार बदले। हम दिल से बदलाव चाहते हैं। पर कितने हैं जो चाहते हैं कि स्वयं हम बदलें, हमारा स्वभाव बदले, हमारा चरित्र बदले, हमारा परिवार बदले; और ऐसे बदलाव के किये प्रयत्न करते हैं? अब तो संसार की यह स्थिती है कि न हम और न हमारा संसार संभल सकता है। कल परेशनी में था, आज की परेशानियों भी कम नहीं हैं और आने वाला कल और भी भयानक परेशानियां लिये तैयार खड़ा है।

अगर कहीं चुपके से मौत हमें हमारे पापों के साथ ही ले गई, तो वो हमें हमेशा की परेशानी में पहुँचा देगी। आप माने या न माने, ’पाप’ ही हर परेशानी की जड़ है। पाप तो हम सबने किया है, उसके प्रकार या घिनौनापन अलग अलग हो सकता है। पहले दर्जे का पापी हो या दूसरे दर्जे का, मन्ज़िल सबकी एक ही है। मेरे प्यारे पाठक, केवल प्रभु यीशु ही आपको आपके पाप से छुटकारा दे सकता है, वह इस संसार में आया ही इसी लिये था। जब हम यीशु को इसाई धर्म से जोड़ते हैं तो एक तरह से यह उसे अपमानित करना है, क्योंकि वह किसी धर्म या जाति के लिये नहीं सारे संसार के लिये आया। वह सबका है और सबको प्यार करता है। उसने सारे जगत से ऐसा प्यार किया कि अपने आप को सबके पापों के लिये क्रूस पर बलिदान कर दिया, ताकि मैं और आप अनन्त आनन्द और अद्‍भुत शांति पाएं।

आपकी एक प्रार्थना सब बदल डालेगी। आपको धर्म बदलने की कतई ज़रूरत नहीं है। एक प्रार्थना "हे यीशु मुझ पापी पर दया करके मेरे पापों को क्षमा करें।" सिर्फ १२ शब्दों कि यह क्षमा प्रार्थना, पापों की सारी सज़ा से हमेशा-हमेशा कि लिये छुटकारा दे डालेगी।


जो भी सीने में छिपा है

मुझे वो सब लिखना पड़ता है जो आप अपने सीने में छुपाये हैं। शायद शर्मनाक काम जो कभी अन्धेरों में किये और अब सीने में छुपाये हैं। मेरे और आपके ये काम, ये पाप कब तक और कहाँ तक छिपेंगे? एक न एक दिन तो खुलेंगे ही, यहाँ नहीं तो वहाँ, अब नहीं तो तब; क्योंकि पाप ने हमें हमारी मज़्दूरी तो देनी ही है। हमारे पाप हमें खींच ले जायेंगे उस अनन्त परेशानी में जहाँ से फिर निकल पाना संभव नहीं है।

प्रभु की आवाज़ एक ऐसी आवाज़ है जो बड़े प्यार से सीधे दिल पर वार करती है। कितना भी छिपना चाहें, यह आवाज़ आपके अन्दर के चेहरे को आपके सामने ला खड़ा कर देगी। सीने में छिपे कितने ही काले कारनामों को ऐसे उजागर करती है कि सब कुछ साफ-साफ सामने आ जाता है, अपनी हकीकत अपनी नज़रों के सामने देखकर आदमी सहम सा जाता है। लेकिन वही प्रभु सब बदल भी देता है, अगर उससे कहें तो। सब बदल जायेगा, आप एक कदम तो उठाइये। द्वार तो खोलिये, प्रकाश तो द्वार पर तैयार खड़ा है जीवन के अन्धकार को दूर करने के लिये, देरी और दूरी तो आपकी तरफ से ही है।

यह समय इतने बुरे समय में बदलने जा रहा है कि पश्चाताप करना भी चाहेंगे तो नहीं कर पायेंगे। इसलिये अब जाग उठने का समय आ गया है। प्रकाश को पाना ही अन्धकार को खोना है। सत्य को पाना ही असत्य को खोना है।
अब मैंने यह शब्द इस काग़ज़ के हवाले कर दिये हैं, ताकि परमेश्वर के दिल की आवाज़ आपके दिल तक पहुँच जाये। वह नहीं चाहता कि आप नाश हों। पर एक प्रार्थना सब कुछ बदलने की सामर्थ रखती है - "हे यीशु मुझ पापी पर दया कर।"

मैं आपको चेता सकता हूँ, पर फैसला तो आपको ही करना है। आप एक प्रार्थना करके अभी प्रभु की शक्ति और उसकी आशीश को परख सकते हैं, "हे यीशु मुझ पापी पर दया करके मेरी प्रार्थना की लाज रखें।"

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

सम्पर्क दिसम्बर २००९: अपने में झाँकता आदमी

एक लड़का, ४ या ५ साल का रहा होगा, अपने एक पड़ौसी के लड़के को पीट रहा था। उसके बाप ने देखा तो डाँटते हुए उसे घर में बुलाया और पूछा "क्यों मार रहा था उसे?" लड़के ने जवाब दिया "वो माँ की गाली दे रहा था।" बाप बोला "दो और मारता" और अपने काम में व्यस्त हो गया। थोड़ी देर में एक अधेड़ औरत गुस्से में चीखती हुई आई "तुम्हारे लड़के ने मोहल्ले में जीना मुश्किल कर दिया है, इसकी हिम्मत तो देखो, यह दोबारा हमारे घर घुस कर मेरे लड़के को दो चाँटे मारकार यहाँ दौड़ा आया है।" बाप ने गुस्से में लड़के से पूछा "अबे तू फिर क्यों मारकार आया?" लड़के ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया "आपने ही तो अभी कहा था कि उसे दो और मारता।" अब बाप की हालत देखते ही बनती थी।

वह लड़का मैं था और ऐसे माहौल में पला बड़ा हुआ था जहाँ पर बहुत घमंड करना, मारना-पीटना और गाली देना एक आम बात थी। हमारे घर में मौत का भयानक साया था। मेरे ५ भाई बहन और थे जिनमें से कोई भी नहीं बचा था, जवानी में मैंने कदम रखा ही था कि मेरे पिताजी भी चल बसे।

मुझे खुद भी मालूम नहीं था कि मैं क्यों जी रहा था? किसके लिये जी रहा था? अपनों से मैंने बहुत परायापन पाया था इसलिये मुझे अपने भी अपने नहीं लगते थे। कोई अपना नहीं था और जो एक दो थे वो भी मुझे अपने से नहीं लगते थे। रिशते तो सिर्फ नाम के थे, उन रिश्तों में कोई पहचान नहीं थी और उनमें बड़ा खारापन था। मुझे खुद अपने आप से नफरत होती थी और इसलिये मैं बार-बार मरने की कोशिश करता था। ज़िन्दगी का सफर मुझे ज़्यादा भाता नहीं था। कल की आस में आज के पन्नों को पलटकर और बेबसी की चादर ऒढ़कर कुछ नये सपनों के साथ सो जाता था।

मेरे थके हारे जीवन को,
अब एक नया जीवन चाहिये था
एक नयी ताज़गी चाहिये थी,
एक नयी खुशी चाहिये थी।
धर्म के लेबल लगे इस इन्सान को,
छुटकारा चाहिये था,
हालातों से, लतों से और,
अपनी आदतों से हारे हुए,
इस इन्सान क्मो अब आज़ादी चाहिये थी,
अपने पुराने पन से उक्ताए हुए,
इस इन्सान को अब कुछ नया चाहिये था।

अच्छा बनने की इच्छा तो थी पर बात बन नहीं पाती थी (रोमियों ७:१८)। मैं अपने बारे में यही सोचता था कि मैं सही हूँ और पाप और श्राप को मैं कुछ नहीं समझता था। पर कहीं, किसी की कही एक बात से, बात बन गई - ’पाप’, हाँ तेरे पाप ही सारी बेचैनी का श्राप हैं। पाप का यह श्राप पाप की क्षमा से साफ हो जायेगा, जो क्षमा सिर्फ यीशु ही दे पायेगा। बस इस एक प्रार्थना से बात बन गयी - "हे यीशु, मुझ पापी पर दया कर।" मेरा धर्म तो नहीं बदला, पर सच मानो ज़िन्दगी बदल गयी। वह खुशी मिला जैसी कभी सोची भी नहीं थी।

यूँ तो मेरा बीता कल मेरे काले कारनामों से भरा है। अब भी जब कभी मुझ से पाप हो जाता है तो मैं खुद की नज़रों में बहुत छोटा हो जाता हूँ और मुझे अपने आप से नफरत होने लगती है। जाने क्यों मैं पाप कर जाता हूँ। जानता हूँ कि नहीं करना है, पर पता नहीं फिर भी क्यों कर जाता हूँ। चाहता हूँ नहीं करना, पर यह मेरी बेबसी है। मेरा मन मुझे संभलने नहीं देता। सच तो यह है कि बहुत बार मैंने प्रभु से वायदे किये, पर फिर वही कर बैठता हूँ जो नहीं करना चाहिये। पर आज भी यीशु का लहू मुझे सब पापों से शुद्ध करता है।

आज मेरी देह की हालत खस्ता है और मेरा जिस्म अब खुद मेरी उम्र बयान करता है। अब मेरी सारी डिग्रियाँ अर्थहीन हो गईं हैं और मुझे याद भी नहीं रहता कि मैंने क्या क्या पढ़ा और क्या क्या पाया। बस याद रहता है कि अब यहाँ से चलना है। अब इसी इंतिज़ार में जीता हूँ, की जाने कब दिल का रिश्ता धड़क्न से टूटेगा, जाने कब सब का सब यहीं छूटेगा और मेरे दोस्त एक सफेद चादर में लपेट कर मुझे यहाँ से विदाई दे आएंगे। मुझे मालूम है कि धीरे धीरे मुझे मेरे अपने भी भूल जाएंगे। ऐसे ही यादों में मैं भी कहीं रह जाऊंगा।
एक भीड़ साथ चली थी। आज चलते चलते देखता हूँ कितने ही जो साथ चले थे वे अब नहीं रहे। कुछ थे जो राह से भटक गये, कुछ बदल गये, पर मेरा परमेश्वर नहीं बदला, न ही उसने मुझे कभी छोड़ा। कुछ हैं जो मेरे लिये हाथ उठाकर अपनी प्रार्थनाओं में मुझे फिर से उठा लेते हैं; सिर्फ उन्हीं की संगति में आकर मैं सम्भल जाता हूँ।

ये मसीह के मासूम लहू से लिखा,
फरमान मेरे लिये था,
देख! मैं सब कुछ नया कर देता हूँ।

जिस आसमान से आग बरसे
अब मुहे वो आसमान नहीं चाहिये,
एक नया आकाश और पृथ्वी चाहिये,
जहाँ प्यार बरसे और जहाँ प्यार बरसे।

मेरे धर्म ने मुझे परमेश्वर से मिलने नहीं दिया,
मुझे ऐसा धर्म नहीं चाहिये,
नहीं चाहियें वे धर्म के लोग,
जो हैवानों की तरह इन्सानों को काटते-कटवाते हैं।

मेरे धर्म ने मेरे लिये कभी खून नहीं बहाया,
हर धर्म ने दूसरों का ही खून बहाया है,
मुझे एक ऐसा परमेश्वर चाहिये,
जिसने मेरे लिये अपना खून बहाया।

इंसान एक मज़ार है,
जिसमें मरी हुई इन्सानियत दफन है,
मरी हुई इन्सानियत को ढोता इन्सान,
अपने कर्म से हैवानियत को भी मात दे गया,
मुझे ऐसा इन्सान नहीं चहिये,
अब मुझे एक नया इन्सान चाहिये।

हर जगह आदमी ही आदमी हैं,
फिर भी आदमी अकेला है,
मन में उसके सन्नाटा चीखता है,
परेशानियाँ खाती हैं और डर सताता है,
इसलिये अब एक नया मन चाहिये।


हर दिन अपने स्वभाव से लड़ना पड़ता है। सालों से इस हार जीत के खेल में हार ज़्यादा और जीत कम हैं। पर एक आशा आज भी सीने में ज़िन्दा है: मेरा प्रभु मुझे ना ही छोड़ेगा और ना ही त्यागेगा। उम्र और वक्त के साथ काफी परेशानियाँ बदलती और बढ़ती रहती हैं। अनेकों चिंताएं भी साथ पलती और पनपती हैं। उम्मीदें लहराती हैं, सोचते हैं अच्छा ही होगा। पर सब कुछ हमारे सोचने जैसा नहीं होता। पर प्रभु का वचन आश्वस्त करता है: "सब बातें मिलकर भलाई ही पैदा करती हैं।" हार में भी भलाई छिपी रहती है। मेरी हार मुझे हमेशा याद दिलाती है कि तू अपनी सामर्थ से एक दिन भी सही से नहीं निकाल सकता। इसलिये प्रभु के सामने हाथ फैलाए रहता हूँ। "जब मैं निर्बल होता हूँ तभी बलवन्त होता हूँ।" प्रभु के वचन से मिल यही एक विश्वास आज भी मेरे जीवन में जीवित है।

मुझे परमेश्वर से कोई गिला शिकवा नहीं, जो भी है वो अपने आप से है। अगर मैं परेशान हूँ तो सिर्फ अपने आप से और अपने स्वभाव से। इसलिये मुझे इन्सान ही समझिएगा, इससे कुछ ज़्यादा समझाने से नुक्सान ही होगा। जो मुझे इससे ज़्यादा समझेगा वह धोखा ही खायेगा। मैं जो करना चाहता हूँ वह आज तक कर नहीं पाया। जैसा जीवन मैं जीना चाहता था वैसा जी नहीं पाया। मुझे परमेश्वर ने बहुत कुछ दिया - आदर दिया, प्यार दिया और आशीषें दीं पर मैं ने उसमें से बहुत ज़्यादा व्यर्थ गवाँ दीं। मुझे अपने ऊपर शर्म आती है और अफसोस सताता है कि हाय! मैं ने ऐसा क्यों किया। मेरे पास अब बस यही दुआ बची है कि प्रभु! मेरे पास जो जीवन बचा है उसे मैं व्यर्थ न गवाँ दूँ।

सारी उम्र पाने की आदत मन में पालता रहा पर अब जाते जाते कुछ देकर जाना चाहता हूँ। चाहता हूँ कि कुछ ऐसा तो देकर जाऊं जो लोगों के दिलों और ज़िन्दगियों में खुशी भर जाये।


मैं अपनी औकात जनता हूँ, जानता हूँ कि आज बिना प्रभु के मेरी कोई कीमत है ही नहीं। बस एक प्रार्थना बची है।

गिरने की गहराइयों को,
नापा है मैंने,
गिरने से डरता हूँ,
इसलिये निवेदन यह करता हूँ,
तब तक थामे रहना,
जब छूटेगा प्राणों से यह तन,
तक लागा रहे,
तुमसे मेरा यह मन।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

सम्पर्क दिसम्बर २००९: सम्पादकीय

"हर बात का एक अवसर और प्रत्येक काम का जो आकाश के नीचे होता है, एक समय है। जन्म का समय और मरने का भी समय; बोने का समय और बोये हुए को उखाड़ने का भी समय है" (सभोपदेशक ३:१,२)।

हर दिन को २४ घंटे जीने के लिये दिये गये हैं और हर साल को १२ महीने। अब इस साल ने अपना समय पूरा कर लिया है और फिर इस साल को हर साल की तरह हमेशा-हमेशा के लिये इतिहास के कब्रिस्तान में दफना दिया जायेगा। ऐसे ही स्वयं इस पृथ्वी का भी एक निश्चित समय है। जैसे ही समय पूरा होगा, पृथ्वी भी नहीं रहेगी। जब यीशु इस पृथ्वी पर था, तो उसे भी एक निश्चित समय दिया गया था। आपके जन्म का भी एक निश्चित समय था और मृत्यु का भी एक निश्चित समय है। मैं और आप भी समय की सीमा में बंधे हैं। अब सवाल यह है कि हम इस समय का कैसे उपयोग करते हैं? क्योंकि समय बहुमूल्य है और कोई इतना अमीर नहीं जो इसे वापस खरीद सके।

कितने ही अपनों को एक सफेद चादर में लपेटकर अंतिम विदाई दे चुके हैं। अभी और हैं जो लाईन में लगे हैं जिनका समय इस साल में पूरा होने वाला है। आते समय में, जैसे होता आया है, संसार भी सुधरेगा नहीं. बदलेगा नहीं पर बिगड़ेगा ज़रूर, चाहे कितना ही नये साल की शुभकामनाएं लेते और देते रहियेगा। सच मानियेगा, अगर हम नहीं बदले तो हमारे हालात भी नहीं बदलेंगे।

ज़्यादतर लोग परमेश्वर को एक बदला लेने वाले परमेश्वर के रूप में मानते हैं जो दुष्टों का नाश करे। पर परमेश्वर तो दया दिखाने वाला परमेश्वर है। अगर परमेश्वर मेरे पापों का हिसाब लेता तो मैं आज यह सब लिखने के लिये यहाँ बचा न होता। बदले का भाव हमें गुस्से से भरता है। जब गुस्सा बढ़ता है तो दिमाग़ पटरी से उतर जाता है और फिर आदमी तर्क और विवेक को उतार कर एक तरफ रख देता है, तथा उसकी असली सूरत सामने आकर खड़ी हो जाती है।

एक सिपाही गली से गुज़र रहा था कि एक नये बनते मकान से एक ईंट उसके ऊपर गिरी। बस यूँ समझिये कि वह बाल-बाल ही बचा। गुस्से में तमतमाया वह लपककर मकान में घुसा, यह ठानकर कि जिसने ईंट गिराई है, उसी के सिर पर दे मारूंगा। तेज़ी से वह सीढ़ी से ऊपर पहुंचा ही था कि तभी चारपाई पर लेटे दारोग़ा ने आवाज़ दी, "अबे यह कौन ऊत का पूत है जो बिना पूछे ही ऊपर चढ़ा आ रहा है?" दारोग़ा को देखते ही सिपाही का सारा गुस्सा हवा हो गया, चेहरे पर दीनता आ गई और घबरा कर बोला, "सर कुछ नहीं, आपकी यह ईंट नीचे गिर गई थी, ऊपर देने आया हूँ।" ऐसे ही हम भी मन से तो दीन नहीं होते, पर जो दीनता दिखाते हैं वह एक मजबूरी होती है।

हमारे स्वभाव में बदले का भाव भरा होता है। बात बात पर मन कहता है कि "एक बार तो उसे सिखा ही दे।" पर भय के कारण क्रोध कमज़ोर पड़ जाता है। हमें ग़लत करने से अगर कोई चीज़ रोकती है तो वह परमेश्वर का डर नहीं बल्कि पुलिस, कानून, सज़ा और समाज का डर है।

ज़रा मेरे साथ लूका ९:५४-५६ देखियेगा। इस वार्तालाप को मैं अपने शब्दों में कह रहा हूँ: चेलों ने कहा, "प्रभु अगर आप कहें तो आग बरसा कर इन सामरियों को सिखा दें?" लेकिन प्रभु कहता है, "तुम नहीं जानते कि तुम कैसी आत्मा के हो। क्या परमेश्वर का आत्मा किसी का भी नाश करना चाहता है? किसी से भी बदला लेना चाहता है?" शायद हम एक बदला लेने वाले परमेश्वर को मानते हैं, न कि दया दिखाने वाले और क्षमा देने वाले परमेश्वर को। किसी को माफ करना आसान नहीं है। सिर्फ शब्दों की माफी तो काफी नहीं है। माफी तब तक माफी नहीं जब तक दिल से माफ न करें।

क्या आपके मन में किसी के प्रति विरोध भरा है, और आपका मन चाहता है कि ऐसे इन्सान को प्रभु सिखा दे? लेकिन ध्यान कीजिये प्रभु क्या कहता है, उनके लिये जो क्षमा के लायक भी नहीं थे - "हे पिता, इन्हें क्षमा कर, क्योंकि यह नहीं जानते कि यह क्या कर रहे हैं" (लूका २३:३४)। प्रभु ने यह उन शत्रुओं के लिये कहा जो उससे माफी माँग भी नहीं रहे थे, तौभी वह क्रूस पर से उनके लिये परमेश्वर से दया माँग रहा था। यह परमेश्वर के आत्मा का काम है।

इब्रानियों १२:२४ में वह कहता है, "...जो हाबिल के लहू से उत्तम बातें कहता है।" हाबिल का लहू क्या कहता है? उत्पत्ति ४:१० में कहता है, "तेरे भाई का लहू भूमि से मेरी ओर चिल्लाकर मेरी दोहाई दे रहा है।" हाबिल का लहू परमेश्वर से दोहाई दे रहा था कि हे प्रभु मेरा पलटा ले। पर सिर्फ यीशु का लहू ही है जो आज भी अपने शत्रुओं के लिये यही पुकरता है "हे पिता इन्हें माफ कर।" वह सज़ा नहीं क्षमा देना चाहता है।

यदि यीशु का आत्मा मुझ में है तो यीशु का स्वभाव मुझमें क्यों नहीं है? अगर बद्ला लेने का स्वभाव नहीं बदला तो मेरा जीना ही व्यर्थ है। कहीं किसी के प्रति कड़वाहट से भरे हैं तो प्रभु को पुकार कर उससे कहें, "हे प्रभु मुझे इससे निकाल।" अगर आप इस कड़वाहट और क्रोध से निकल गये तो वास्तव में यह नया साल ऐसा साल होगा जो आपके लिये सब कुछ नया कर जायेगा।

परमेश्वर ही से नहीं पर आपको उससे भी माफी माँगनी है जिसके लिये आपके मन में कड़वाहट भरी है। पत्नि हो या पति हो, चाहे मण्डली का कोई भाई य बहन हो। बड़ी बात तो तब है जब आप पहल कर के माफी माँग लें। अगर दूसरे ने पहले होकर माफी माँग ली और फिर आप एक औपचारिकता के रूप में ही कहते रह गये कि "चलो मुझे भी माफ कर दो" तो यकीन मनियेगा के बाज़ी तो वही मार ले गया। समय किसी का इन्तिज़ार नहीं करता, आप्भी ’समय’ का इन्तिज़ार न करें, कहीं सोचने में ही समय और साल हाथ से फिसल जायें।

परमेश्वर ने अपको आज़ादी दी है और वह आपकी आज़ादी का आदर भी करता है। इसलिये आज वह हमारे सामने दो बातें रखता है - आशीश और श्राप, और फिर एक प्यार भरी सलाह भी देता है कि तू आशीश को ही चुन ले (व्यवस्थाविवरण ३०:१९)।...पहले जाकर अपने भाई से मेल मिलाप कर (मत्ती ५:२४)। आप आज क्या करने जा रहे हैं? कहीं परमेश्वर की आवाज़ को टालने तो नहीं जा रहे?

आपके प्यार और प्रार्थानाओं से सम्पर्क का यह अंक आप तक लाया जा सका, आशा है कि आगे भी आपका सहयोग हमें मिलता रहेगा ताकि सम्पर्क के माध्यम से हमारा सम्पर्क आपसे बन रहे। सम्पर्क परिवार की ओर से आपको नववर्ष की शुभकमनाएं।
सम्पादक