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शनिवार, 29 जून 2019

गैर-मसीही वैवाहिक रीति-रिवाजों, अनुष्ठानों एवं परम्पराओं का पालन करना।



क्या गैर-मसीही लोगों को प्रभु में आने के बाद पहले की गैर-मसीही वैवाहिक परंपराओं का निर्वाह करते रहना चाहिए या फिर छोड़ देना चाहिए? क्या हमें इंतिजार करना चाहिए कि प्रभु उन्हें बदलेंगे?
                  
उत्तर:
        परमेश्वर के वचन बाइबल में विवाह और वैवाहिक संबंधों के विषय तो बहुत कुछ सिखाया और बताया गया है, किन्तु विवाह की रीति, अनुष्ठानों और वैवाहिक प्रथाओं या परंपराओं के विषय कोई विशिष्ट निर्देश नहीं दिए गए हैं – न पुराने नियम में मूसा द्वारा दी गई व्यवस्था में, और न ही नए नियम में प्रभु यीशु की शिक्षाओं या पवित्र-आत्मा की प्रेरणा से लिखी गई पत्रियों में। एक बार को यह कुछ अटपटा और अस्वीकार्य सा प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में यह परमेश्वर की बुद्धिमता और दूरदर्शिता का प्रमाण है। यदि बाइबल में कहीं भी यह लिख दिया जाता कि विवाह और वैवाहिक संबंधों के रीति-रिवाज़ तथा अनुष्ठान क्या होने चाहिएँ, तो फिर उन अनुष्ठानों के निर्वाह के अतिरिक्त किए गए अन्य सभी विवाह बाइबल के अनुसार अनुचित और अवैध हो जाते। ऐसे में अन्यजातियों द्वारा सुसमाचार स्वीकार करके प्रभु में आने पर उनके सभी वैवाहिक संबंध (उन अनुष्ठानों और रीतियों के अनुसार न होने के कारण) अनुचित तथा अवैध हो जाते, परिवार बिखर जाते, जिससे फिर सामाजिक अव्यवस्था व्याप्त हो जाती, तथा प्रभु में आना लोगों के लिए फिर और भी अधिक कठिन तथा अस्वीकार्य हो जाता। किन्तु वर्तमान स्थिति के अन्तर्गत, सुसमाचार स्वीकार करने और प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता ग्रहण करने पर भी वैवाहिक संबंधों में विच्छेद की कोई आवश्यकता नहीं है (1 कुरिन्थियों 7:10-14)।

        आज हम जो विवाह से संबंधित रीति-रिवाज़ और अनुष्ठान आदि के निर्वाह को देखते हैं, वे बाइबल में दी गई प्रथाएँ नहीं परन्तु यूरोपीय देशों से आए हुए लोगों की प्रथाएँ और रिवाज़ हैं। वे लोग सँसार में जहाँ कहीं भी गए और प्रभु यीशु का सुसमाचार जहाँ कहीं भी उनके द्वारा पहुंचाया गया, साथ ही उन्होंने अपने रीति-रिवाज़ और अनुष्ठान भी पहुँचाए; और प्रभु में आने वाले स्थानीय लोग भी उनके द्वारा बताई गई “ईसाई” रीतियों और अनुष्ठानों को मानने लगे। किन्तु साथ ही में, उन “ईसाई” रीतियों में, स्थानीय रीति-रिवाजों का मिश्रण भी कुछ सीमा तक होता रहा। बाइबल में इस प्रक्रिया को कहीं अनुचित नहीं ठहराया गया है। बाइबल बस इतना कहती है कि जब वैवाहिक संबंध में बंधो तो उसे वफादारी से वैसे ही निभाओ, जैसे कि प्रभु यीशु मसीह अपनी दुलहन – विश्व-व्यापी कलीसिया के साथ निभाता है, और जैसा कलीसिया का प्रभु के प्रति निर्वाह करने का दायित्व है (इफिसियों 5:22-32)। इसलिए बाइबल के आधार पर मसीही विश्वासियों में वैवाहिक संबंध के लिए, इस बात के अतिरिक्त और कोई अनिवार्य रीति या अनुष्ठान नहीं है। सामान्यतः समाज और सँसार के लोग जिन्हें “ईसाई रिवाज़ या प्रथाएँ” कहते हैं, वे बाइबल से नहीं वरन उन यूरोपीय लोगों द्वारा आई हैं जिनके द्वारा प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करने के द्वारा उद्धार का सुसमाचार और मसीही विश्वास आया और फैलाया गया।

        विवाह संबंधित विभिन्न प्रथाएँ – सिंदूर, मंगल सूत्र, कंगन, आदि, भी क्षेत्र या स्थान की स्थानीय प्रथाएँ हैं। किन्तु उन सभी के साथ कुछ धार्मिक अभिप्राय भी जुड़े हुए हैं। जब उन बातों का पालन किया जाता है, तो साथ ही समाज के सभी लोगों के सामने यह अभिप्राय भी जाता है कि उन प्रथाओं से संबंधित धार्मिक अभिप्रायों को भी मान्यता दी जा रही है, उन धार्मिक अभिप्रायों का भी आदर तथा निर्वाह किया जा रहा है – चाहे मसीही विश्वासी व्यक्ति का यह अभिप्राय कदापि न हो, किन्तु उन चिन्हों की उपस्थिति एवँ निर्वाह स्वतः ही देखने वालों के मन यह भावना पहुँचा देते है।

        क्योंकि मसीही विश्वासी के जीवन का उद्देश्य प्रभु यीशु मसीह को आदर एवँ महिमा देना, और उसके उद्धार के जीवन का प्रचार और प्रसार करना है, इसलिए इन चिन्हों की उपस्थिति अनकहे रूप और अनजाने में मसीही विश्वासी के जीवन के इस अति-महत्वपूर्ण और प्राथमिक उद्देश्य को नकार देती है, उसकी मसीही गवाही के विपरीत हो जाती है। साथ ही कोई गैर-मसीही यह प्रश्न भी उठा सकता है कि जब आप इन वैवाहिक रीतियों के धार्मिक अभिप्राय को स्वीकार कर सकते हैं तो अन्य धार्मिक अनुष्ठानों और रीतियों को क्यों स्वीकार नहीं कर सकते हैं? ऐसे में मसीही विश्वासी का यह कहना कि वह उन्हें केवल विवाह के चिन्ह मानता है, किन्तु उनके धार्मिक संदर्भ को नहीं मानता है, उस दूसरे व्यक्ति के लिए ठेस का कारण हो सकता है, उसे प्रतिकूल प्रतिक्रया देने के लिए उकसा सकता है, उसकी समझ में यह उसके धर्म का अपमान हो सकता है, जिसके अनेकों प्रकार के दुष्परिणाम हो सकते हैं। इसलिए बेहतर यही है कि समाज और सँसार जिन्हें “ईसाई वैवाहिक रीतियाँ” मानता और स्वीकार करता है, उन्हीं के अनुसार रहा और चला जाए; और प्रभु में आने के पश्चात अन्य सभी बातों को छोड़ कर केवल मसीही बातों का निर्वाह किया जाए (1 कुरिन्थियों 10:31; 2 कुरिन्थियों 5:15)।

        प्रभु ने लोगों तक अपनी शिक्षाओं को पहुँचाने और लोगों को उन्हें मानना सिखाने का दायित्व हम मसीही विश्वासियों को दिया है (मत्ती 28:19-20)। इसलिए उन लोगों तक इन बातों के अभिप्राय और सत्य को पहुँचाने की जिम्मेदारी भी हमारी है। हम किसी को बलपूर्वक किसी बात को मानने या स्वीकार करने के लिए बाध्य, या उन्हें परिवर्तित नहीं कर सकते हैं – यह काम परमेश्वर का है। परन्तु उस परिवर्तन के लिए परमेश्वर की शिक्षाओं का आधार लोगों तक पहुँचाना हमारा काम है। इसलिए प्रार्थना-पूर्वक परिस्थिति और उसके अभिप्रायों को समझाएं, और हमारे द्वारा डाले गए वचन के बीज को प्रभु अपने समय में अपनी रीति से फलवन्त करेगा (1 कुरिन्थियों 3:6-7)।

शनिवार, 15 जून 2019

बाइबिल के अनुसार मोक्ष क्या है तथा मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकते हैं?


मनुष्य की आत्मिक दशा, उसके निवारण तथा समाधान के विषय परमेश्वर के वचन बाइबल के कुछ पद देखिए, जो पौलुस प्रेरित द्वारा रोम के मसीही विश्वासियों को लिखी गए पत्र में से लिए गए हैं:

रोमियों 2:20-30 :-

Romans 3:20 क्योंकि व्यवस्था के कामों से कोई प्राणी उसके साम्हने धर्मी नहीं ठहरेगा, इसलिये कि व्यवस्था के द्वारा पाप की पहिचान होती है।
Romans 3:21 पर अब बिना व्यवस्था परमेश्वर की वह धामिर्कता प्रगट हुई है, जिस की गवाही व्यवस्था और भविष्यद्वक्ता देते हैं।
Romans 3:22 अर्थात परमेश्वर की वह धामिर्कता, जो यीशु मसीह पर विश्वास करने से सब विश्वास करने वालों के लिये है; क्योंकि कुछ भेद नहीं।
Romans 3:23 इसलिये कि सब ने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं।
Romans 3:24 परन्तु उसके अनुग्रह से उस छुटकारे के द्वारा जो मसीह यीशु में है, सेंत मेंत धर्मी ठहराए जाते हैं।
Romans 3:25 उसे परमेश्वर ने उसके लोहू के कारण एक ऐसा प्रायश्चित्त ठहराया, जो विश्वास करने से कार्यकारी होता है, कि जो पाप पहिले किए गए, और जिन की परमेश्वर ने अपनी सहनशीलता से आनाकानी की; उन के विषय में वह अपनी धामिर्कता प्रगट करे।
Romans 3:26 वरन इसी समय उस की धामिर्कता प्रगट हो; कि जिस से वह आप ही धर्मी ठहरे, और जो यीशु पर विश्वास करे, उसका भी धर्मी ठहराने वाला हो।
Romans 3:27 तो घमण्ड करना कहां रहा उस की तो जगह ही नहीं: कौन सी व्यवस्था के कारण से? क्या कर्मों की व्यवस्था से? नहीं, वरन विश्वास की व्यवस्था के कारण।
Romans 3:28 इसलिये हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं, कि मनुष्य व्यवस्था के कामों के बिना विश्वास के द्वारा धर्मी ठहरता है।
Romans 3:29 क्या परमेश्वर केवल यहूदियों ही का है? क्या अन्यजातियों का नहीं? हां, अन्यजातियों का भी है।
Romans 3:30 क्योंकि एक ही परमेश्वर है, जो खतना वालों को विश्वास से और खतना रहितों को भी विश्वास के द्वारा धर्मी ठहराएगा।

बाइबल के अनुसार मनुष्य स्वभाव से ही पापी है और अपने अन्दर विद्यमान पाप करने के स्वभाव के कारण पाप करता है, न कि पाप करने के द्वारा पापी होता है। अर्थात पाप करने की प्रवृत्ति के आधीन है, जिस कारण वह परमेश्वर की संगति और जीवन से दूर है – क्योंकि पाप मनुष्य को परमेश्वर से दूर करता है: “परन्तु तुम्हारे अधर्म के कामों ने तुम को तुम्हारे परमेश्वर से अलग कर दिया है, और तुम्हारे पापों के कारण उस का मुँह तुम से ऐसा छिपा है कि वह नहीं सुनता” (यशायाह 59:2)। परमेश्वर से यह दूरी ही मृत्यु, अर्थात नरक में परमेश्वर से अनन्तकाल की दूरी की दशा है। जिस प्रकार पानी में डूबता हुआ मनुष्य अपने ही सिर या बालों को पकड़ कर अपने आप को पानी से बाहर नहीं खींच सकता है, उसे किसी अन्य की सहायता की आवश्यकता होती है; उसी प्रकार पाप में पड़ा हुआ मनुष्य अपने कर्मों से न तो अपने पापों के दुष्परिणामों से बच सकता है और न ही परमेश्वर की धार्मिकता तथा पवित्रता के स्तर तक पहुँच सकता है। मनुष्य की सारी धार्मिकता परमेश्वर की दृष्टि में मैले चिथड़ों के समान है “हम तो सब के सब अशुद्ध मनुष्य के से हैं, और हमारे धर्म के काम सब के सब मैले चिथड़ों के समान हैं। हम सब के सब पत्ते की नाईं मुर्झा जाते हैं, और हमारे अधर्म के कामों ने हमें वायु की नाईं उड़ा दिया है” (यशायाह 64:6), और अपनी आत्मिक अशुद्धता की दशा के कारण कोई भी स्वयँ से कुछ भी शुद्ध उत्पन्न करने में असमर्थ है “अशुद्ध वस्तु से शुद्ध वस्तु को कौन निकाल सकता है? कोई नहीं” (अय्यूब 14:4); “कौन कह सकता है कि मैं ने अपने हृदय को पवित्र किया; अथवा मैं पाप से शुद्ध हुआ हूं?” (नीतिवचन 20:9)। इसलिए, “फिर मनुष्य ईश्वर की दृष्टि में धमीं क्योंकर ठहर सकता है? और जो स्त्री से उत्पन्न हुआ है वह क्योंकर निर्मल हो सकता है?” (अय्यूब 25:4)।

अपने पापों के निवारण का जो कार्य मनुष्य अपने लिए नहीं कर सकता है, परमेश्वर ने मानवजाति के लिए कर के दे दिया। परमेश्वर ने मानव स्वरूप में जन्म लिया - प्रभु यीशु मसीह। प्रभु यीशु मसीह ने सँसार में मानव स्वरूप और परिस्थितियों में रहते हुए भी निष्पाप तथा निष्कलंक जीवन बिताया “क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहीं, जो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दुखी न हो सके; वरन वह सब बातों में हमारी नाईं परखा तो गया, तौभी निष्‍पाप निकला” (इब्रानियों 4:15)। प्रभु ने सँसार के सभी मनुष्यों के सभी पापों को अपने ऊपर ले लिया, और वह जो पाप से अनजान था अब सँसार के सभी मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर लेकर उनके लिए पाप बन गया “जो पाप से अज्ञात था, उसी को उसने हमारे लिये पाप ठहराया, कि हम उस में हो कर परमेश्वर की धामिर्कता बन जाएं” (2 कुरिन्थियों 5:21), “मसीह ने जो हमारे लिये श्रापित बना, हमें मोल ले कर व्यवस्था के श्राप से छुड़ाया क्योंकि लिखा है, जो कोई काठ पर लटकाया जाता है वह श्रापित है” (गलातियों 3:13), “वह आप ही हमारे पापों को अपनी देह पर लिये हुए क्रूस पर चढ़ गया जिस से हम पापों के लिये मर कर के धामिर्कता के लिये जीवन बिताएं: उसी के मार खाने से तुम चंगे हुए” (1 पतरस 2:24)। और तब उस पाप की दशा में वह मृत्यु जो मनुष्यों को सहनी थी, प्रभु ने उनके स्थान पर सह ली – अर्थात संसार के सभी मनुष्यों के सभी पापों का दण्ड सह लिया या अपने ऊपर ले लिया। प्रभु ने अपना बलिदान दिया और वह क्रूस पर मारा गया, गाड़ा गया, और अपने परमेश्वरत्व तथा मृत्यु पर विजयी होने को प्रमाणित करने के लिए, सदेह तीसरे दिन फिर जी भी उठा – “इसी कारण मैं ने सब से पहिले तुम्हें वही बात पहुंचा दी, जो मुझे पहुंची थी, कि पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया। और गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा” (1 कुरिन्थियों 15:3-4)। प्रभु यीशु मसीह का जीवन, मृत्यु और मृतकों में से पुनरुत्थान महज़ धारणाएँ अथवा किंवदंतियां नहीं हैं, वरन अकाट्य और स्थापित ऐतिहासिक तथ्य हैं जिन्हें आज तक अनेकों प्रयासों के बावजूद भी कभी कोई गलत प्रामाणित नहीं कर सका है, और इनके पर्याप्त प्रमाण परमेश्वर के वचन बाइबल के बाहर भी उस समय के लेखों में उपलब्ध हैं।

क्योंकि प्रभु यीशु ने सँसार के प्रत्येक मनुष्य के लिए, वह चाहे किसी भी समय, स्थान, धर्म, जाति आदि का क्यों न हो, उसके पापों का दण्ड चुका दिया है, इसलिए अब किसी भी मनुष्य को अपने किसी भी प्रयास द्वारा अपने पापों के निवारण को खोजने की आवश्यकता नहीं है। अब जो कोई प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास कर के, उन से अपने पापों की क्षमा माँगता है, और प्रभु के क्रूस पर मारे जाने, गाड़े जाने और तीसरे दिन जी उठने को स्वेच्छा तथा सच्चे मन से स्वीकार करता है, अपना जीवन प्रभु यीशु मसीह को समर्पित करता है, उसे प्रभु द्वारा पापों के क्षमा मिलती है, परमेश्वर के साथ उनका मेल-मिलाप हो जाता है “सो जब हम विश्वास से धर्मी ठहरे, तो अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर के साथ मेल रखें। जिस के द्वारा विश्वास के कारण उस अनुग्रह तक, जिस में हम बने हैं, हमारी पहुंच भी हुई, और परमेश्वर की महिमा की आशा पर घमण्ड करें” (रोमियों 5:1-2); और ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की सन्तान, उसके घराने का सदस्य हो जाता है – “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लोहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना 1:12-13)।

यही मोक्ष या उद्धार या नया जन्म पाना है – नश्वर सांसारिक दशा और अनन्त काल के नर्क की ‘मृत्यु’ से छूटकर, परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास के द्वारा परमेश्वर की सन्तान होने और अनन्तकाल की आशीष तथा परमेश्वर की संगति एवं सुरक्षा का जीवन प्राप्त कर लेना – मृत्यु की दशा से निकलकर चिरस्थाई जीवन और आशीष की दशा में आ जाना; किन्ही कर्मों से नहीं वरन परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा, प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने से।

इफिसियों 2:1-9 :-
Ephesians 2:1 और उसने तुम्हें भी जिलाया, जो अपने अपराधों और पापों के कारण मरे हुए थे।
Ephesians 2:2 जिन में तुम पहिले इस संसार की रीति पर, और आकाश के अधिकार के हाकिम अर्थात उस आत्मा के अनुसार चलते थे, जो अब भी आज्ञा न मानने वालों में कार्य करता है।
Ephesians 2:3 इन में हम भी सब के सब पहिले अपने शरीर की लालसाओं में दिन बिताते थे, और शरीर, और मन की मनसाएं पूरी करते थे, और और लोगों के समान स्‍वभाव ही से क्रोध की सन्तान थे।
Ephesians 2:4 परन्तु परमेश्वर ने जो दया का धनी है; अपने उस बड़े प्रेम के कारण, जिस से उसने हम से प्रेम किया।
Ephesians 2:5 जब हम अपराधों के कारण मरे हुए थे, तो हमें मसीह के साथ जिलाया; (अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है।)
Ephesians 2:6 और मसीह यीशु में उसके साथ उठाया, और स्‍वर्गीय स्थानों में उसके साथ बैठाया।
Ephesians 2:7 कि वह अपनी उस कृपा से जो मसीह यीशु में हम पर है, आने वाले समयों में अपने अनुग्रह का असीम धन दिखाए।
Ephesians 2:8 क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है।
Ephesians 2:9 और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्‍ड करे। 

रविवार, 28 अप्रैल 2019

चतुर भण्डारी (लूका 16:1-13)



यह दृष्टांत प्रभु यीशु द्वारा दिए गए दृष्टांतों और शिक्षाओं में से, समझने और समझाने में, सबसे कठिन में से एक है। कठिनाई मुख्यतः इस कारण है क्योंकि जो हम पढ़ते और देखते हैं उससे यह स्पष्ट है कि उस भण्डारी ने गलत किया है, वह बेईमान रहा है, परन्तु फिर भी ऐसा लगता है मानो प्रभु उसकी सराहना कर रहे हैं, और उसे अनुसरण के योग्य उदाहरण के समान प्रस्तुत कर रहे हैं। यह कुछ सीमा तक सत्य भी है, परन्तु पूर्णतया नहीं।

इस दृष्टांत में प्रभु के अभिप्राय को समझने के लिए हमें उस भण्डारी द्वारा प्रयुक्त बातों पर ध्यान देना होगायोजना बनना, चतुराई, बुद्धिमत्ता, उद्देश्य या लक्ष्य साधना, और उचित कार्यविधि अपनाना, जिससे वह अपनी परिस्थिति का सर्वोत्तम उपयोग कर सके। अन्त के पदों से, अर्थात 10 से 13 पदों से, यह बिलकुल स्पष्ट है कि प्रभु बेईमानी के विरुद्ध तथा गलत तरीकों से कमाए गए धन के विरुद्ध है; अतः इसमें कोई संदेह नहीं है कि, यहाँ प्रभु अपने शिष्यों से न तो यह कह रहे थे और न ही अभिप्राय दे रहे थे कि उस भण्डारी की बेईमानी अनुसरणीय है। किन्तु, निःसंदेह भण्डारी ने जो किया प्रभु ने उसमें कुछ योग्य भी पाया, और इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों से उससे कुछ सीखने और उन शिक्षाप्रद बातों को अपने जीवनों में लागू करने के लिए कहा। जो प्रशंसनीय बातें प्रभु को उस भण्डारी में दिखाई दीं वे थीं, जोखिम भरे समय में भी अपनी बुद्धिमता को बनाए रखना, चतुर और बुद्धिमान होना, और योजनाबद्ध तरीके से अपने लक्ष्य को पूरा करना (लूका 16:3-4).

वह भण्डारी समझ गया था कि उसके हिसाब देने का समय आ गया है (लूका 16:2); और वह अपने आते अन्त से भी अवगत था। किन्तु उसने न तो हिम्मत हारी और न ही हार मानी; वरन जो भी समय और संसाधन उसे उपलब्ध थे उसने उनका प्रयोग किया, और जो कुछ भी वह कर सकता था उसने किया, यह सुनिश्चित करने के लिए कि उसका भविष्य अंधकारमय न रहे, परन्तु अच्छा हो जाए (लूका 16:5-7)। प्रभु अपने शिष्यों को यही बात सिखा रहे थे (लूका 16:8), कि जैसे सँसार के लोग चतुर होते हैं शिष्यों को भी चतुर होना चाहिए, और जो कुछ भी उनके पास है उसका, अपने संसाधनों का उपयोग, उचित रीति से भली-भांति करना चाहिए। प्रभु ने हमें मूर्ख या सरलता से धोखा खा जाने वाले होने के लिए नहीं बुलाया है, वरन चतुर और समझदार होने के लिए बुलाया है (मत्ती 10:16) ऐसा नहीं है कि प्रभु हमें कुटिल या चालाक (बुरे अभिप्राय में) बनाना चाहता है, परन्तु वह चाहता है कि हम अपनी परिस्थितियों का आंकलन करना सीखें, और फिर उसके अनुसार बुद्धिमत्ता से व्यवहार करें (लूका 12:56-58; लूका 14:25-33; मत्ती 10:23).

यह केवल प्रभु यीशु ही की, या केवल नए नियम की शिक्षा नहीं है। पुराने नियम में, नीतिवचन की पुस्तक चतुर, बुद्धिमान, और समझदार होने की शिक्षा के साथ आरंभ होती है (नीतिवचन 1:1-7); और तुरंत ही चतुर, बुद्धिमान, और समझदार नहीं होने के दुष्परिणामों के विषय सचेत करती है (नीतिवचन 1:20-33)। दाऊद, जो परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति था, ने अपने दायित्वों के निर्वाह और अपने प्राणों की रक्षा के लिए बुद्धिमानी से कार्य किया (1 शमूएल 18:5, 14, 30)। भजन 119:98-100 हमें दिखाता है कि कैसे परमेश्वर अपने अनुयायियों को सँसार के लोगों से अधिक चतुर और सूझ-बूझ वाला बनाता है, और अपने वचनों के द्वारा अपने लोगों को चतुराई और बुद्धिमत्ता सिखाता है जिससे, वे इन सदगुणों का उपयोग अपने दैनिक जीवनों में, सँसार के लोगों और परिस्थितियों का सामना करते समय करें, जिससे प्रभु के लिए जीने और उसके गवाह होने के अपने उद्देश्यों को पूरा कर सकें।

प्रभु के शिष्यों का सदैव यही प्रयास रहना चाहिए कि वे परमेश्वर के राज्य में अपना अनन्तकाल बिताने के लिए आदर के साथ प्रवेश करें; अर्थात, दूसरे शब्दों में, भले प्रतिफलों के साथ प्रवेश करें, जिन्हें वे अनन्तकाल में उपयोग करेंगे। अपने पृथ्वी के समय में, अन्हें अच्छी योजनाएं बनाकर, चतुराई और बुद्धिमता के साथ प्रभु के लिए जीवन जीने और गवाही देने के उद्देश्य की पूर्ति करते रहना चाहिए, तथा इस कार्य के लिए जो अवसर परमेश्वर उन्हें प्रदान करता है उनका भली-भांति उपयोग करना चाहिए। प्रभु यीशु के समान ही, प्रभु के शिष्यों को भी परमेश्वर की ओर से उन्हें सौंपे गए उद्देश्यों को पूरा करने में दृढ़ बने रहना चाहिए (लूका 9:51-52); और पौलुस के समान, सभी शिष्यों को अपने कार्यों को योजनाबद्ध तरीके से करना चाहिए (2 कुरिन्थियों 1:17) तथा किसी न किसी प्रकार से प्रभु के लिए उपयोगी होने के लिए प्रयासरत तथा सक्रीय रहना चाहिए, बजाए इसके कि निष्क्रीय रहकर बातों के होने की प्रतीक्षा करें (प्रेरितों 16:6-10).

स्वर्ग में प्रवेश, अर्थात हमारा उद्धार, प्रभु में विश्वास लाने तथा अपने पापों से पश्चाताप करने और प्रभु से उनकी क्षमा प्राप्त करने के द्वारा, केवल परमेश्वर के अनुग्रह ही से है। परन्तु हमारे अनन्तकाल के लिए प्रतिफल हमें परमेश्वर द्वारा हमारे कर्मों के आधार पर प्रदान किए जाते हैं; मसीही विश्वासियों, अर्थात नया जन्म पाए हुए परमेश्वर की संतानों का न्याय, उनके उद्धार पाने के लिए नहीं वरन उन्हें प्रतिफल प्रदान करने के लिए है, और कुछ ऐसे भी होंगे जो अनन्तकाल के लिए स्वर्ग में छूछे हाथ प्रवेश करेंगे (1 कुरिन्थियों 3:12-15).

चतुर भण्डारी के दृष्टांत के द्वारा प्रभु अपने शिष्यों को सिखा रहे हैं कि वे परिस्थितयों से कभी न घबराएं, चतुर और बुद्धिमान बनें, अपने उद्देश्य पर दृष्टि गड़ाए रखें और उस उद्देश्य को पूरा करने में प्रयासरत रहें। परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी कठिन या निराशाजनक क्यों न हों, शिष्यों को चतुराई और बुद्धिमता के साथ उपयुक्त कार्यविधि को अपनाना चाहिए, जैसा कि उस भण्डारी ने किया, और विकट परिस्तिथियों को भी अपने पक्ष में मोड़ लिया। प्रभु के शिष्यों को अपनी सांसारिक धन-संपदा का उपयोग ऐसी रीति से करना चाहिए कि 'जब वह जाता रहे,’ या चला जाए, अर्थात पृथ्वी के उनके समय के पूरे होने पर, वे लोग जिन्हें शिष्यों के धन और संसाधनों के द्वारा पृथ्वी पर लाभ पहुँचा, वे उन शिष्यों के आदर के साथ अनन्तकाल में प्रवेश का कारण बन जाएँ (लूका 16:9)

इस दृष्टांत के द्वारा प्रभु हमें बेईमान होना नहीं सिखा रहा है, वरन बिना निराश हुए, बिना हार माने, चतुर और बुद्धिमान होना, अपने उद्देश्य की पूर्ति की कार्यविधि पर अपना ध्यान केंद्रित रखना, और बुद्धिमता के साथ अपनी परिस्थितियों का प्रयोग करना सिखा रहा है, जिससे हम अपने अनन्तकाल के लिए प्रतिफल बनाए रखें और उन्हें अधिक बढ़ा सकें।


बुधवार, 17 अप्रैल 2019

अनापेक्षित फंदा


न्यायियो 8:27 – "उनका गिदोन ने एक एपोद बनवाकर अपने ओप्रा नाम नगर में रखा; और सब इस्राएल वहां व्यभिचारिणी के समान उसके पीछे हो लिया, और वह गिदोन और उसके घराने के लिये फन्दा ठहरा।" परमेश्वर ने इस्राएलियों को उनके सताने वालों पर गिदोन के नेतृत्व में एक अद्भुत और अप्रत्याशित विजय दिलवाई थी। इस अद्भुत विजय के स्मारक के रूप में गिदोन ने वह एपोद 'अपने नगर' ओपरा में स्थापित किया। परन्तु परमेश्वर का वचन यह भी बताता है कि वह एपोद गिदोन और उसके घराने के लिए फंदा बन गया।

इस पद से ऊपर के पदों (पद 22-26) से हम देखते हैं कि गिदोन का इस्राएलियों पर प्रभुत्व अथवा नेतृत्व का कोई इरादा नहीं था। वह इस अद्भुत विजय के लिए सारा आदर और महिमा परमेश्वर यहोवा ही को देना चाहता था। उस विजय से मिली लूट में से लेकर उसने स्मारक बनवाना चाहा, वह भी लोगों द्वारा स्वेच्छा से दिए गए लूट के भाग के प्रयोग के द्वारा। गिदोन ने कोई मूर्ति या अन्यजातियों के किसी देवी-देवताओं की मूर्ति अथवा चिन्ह के द्वारा नहीं, वरन एक एपोद के द्वारा यह करना चाहा। एपोद परमेश्वर के तम्बू में सेवकाई करते समय याजकों द्वारा पहने जाने वाले विशेष वस्त्र का एक भाग होता था (निर्गमन 28:4-8), और इसे परमेश्वर की इच्छा जानने के लिए भी प्रयोग किया जाता था (1 शमूएल 30:7-8)। अतः हम देखते हैं कि किसी भी प्रकार से परमेश्वर के विमुख जाने का गिदोन का कोई इरादा नहीं था। उसकी गलती बस इतनी थी कि उसने यह कार्य, चाहे परमेश्वर को आदर और महिमा देने ही के लिए, किन्तु परमेश्वर से पूछे बिना या परमेश्वर से निर्देश पाए बिना, अपनी बुद्धि और समझ के आधार पर, जैसा उसे सही और अच्छा लगा, उसने कर दिया।

फिर हम नीचे, पद 33, 34 में देखते हैं कि कुछ समय पश्चात, गिदोन के देहांत के बाद, इस्राएलियों ने परमेश्वर को छोड़ कर अन्य देवी-देवताओं के पीछे चलना आरंभ कर दिया। पद 27 का अभिप्राय संकेत करता है कि इस्राएलियों की इस मूर्तिपूजा और परमेश्वर के स्थान पर अन्य देवी-देवताओं के पीछे हो लेने के समय में उन्होंने गिदोन के जीवित रहते हुए भी, गिदोन द्वारा बनवाए गए उस स्मारक को भी देवता समान उपासना के लिए प्रयोग करना आरंभ कर दिया, जिससे "वह गिदोन और उसके घराने के लिये फन्दा ठहरा।"

यह उदाहरण दिखता है कि शैतान, हमारे द्वारा बात को जाने-पहचाने बिना, हमारे अच्छे और परमेश्वर को आदर देने के अभिप्राय से रखे गए उद्देश्यों को भी लोगों को बहकाने और परमेश्वर के विमुख कर देने के लिए प्रयोग कर सकता है, जो फिर हमारे तथा औरों लिए आशीष का नहीं वरन ठोकर का और पाप में गिरने कारण बन सकता है। परमेश्वर की आराधना, उपासना और आदर के लिए जो कुछ आवश्यक है, परमेश्वर ने वह अपने वचन में पहले से, उससे संबंधित विवरण तथा निर्देशों के साथ लिखवा रखा है। परमेश्वर द्वारा उस लिखवाए गए के अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह परमेश्वर से नहीं है; परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं है, और उसे चाहे जितनी श्रद्धा से माना या मनाया जाए वह, स्वयं प्रभु यीशु के शब्दों में, “व्यर्थ उपासना” (मत्ती 15:9), अर्थात निरुद्देश्य एवँ निष्फल उपासना है, या “कुकर्म” है (मत्ती 7:21-23)। इसीलिए, मसीही विश्वासियों के लिए यह अनिवार्य है कि किसी भी बात में अपनी बुद्धि और समझ का सहारा कभी न लें, विशेषकर आराधना तथा उपासना से संबंधित बातों में तो कतई नहीं, परंतु हर बात के लिए परमेश्वर की इच्छा जानकर उसके अनुसार ही कार्य करें (1 थिस्सलुनीकियों 5:21); कहीं आज की हमारी कोई बात, कल हमारी ही संतानों के लिए परेशानियाँ न खड़ी कर दे। परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए हमें केवल परमेश्वर के वचन को सीखकर उसका पालन करना है (1 शमूएल 15:22), न कि परमेश्वर को आदर और आराधना के लिए अपने ही मनगढ़ंत तरीके बना कर उन्हें मानना या मनवाना है, जो फिर हमारे अपने तथा औरों के लिए फंदा बन जाएँ जैसा गिदोन के एपोद के द्वारा हुआ।

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

यीशु के 12 से 30 साल तक के जीवन के विषय में क्या बाईबल शान्त है?



परमेश्वर के वचन बाइबल में हमारे लिए परमेश्वर, उसके राज्य, उसके साथ हमारे संबंध, उसके कार्य, गुण, कार्यविधि, नियम, आज्ञाओं इत्यादि के विषय बहुत कुछ दिया गया है, किन्तु परमेश्वर और उसके बारे में सब कुछ नहीं दिया गया है; क्योंकि परमेश्वर ने अपने वचन में हमारे लिए वही सब लिखवाया है जो वह चाहता है कि हम जानें और मानें और जिससे हम उसकी निकटता में आएँ, उद्धार पाएँ और उसके परिवार का भाग बन जाएँ।

यद्यपि बाइबल में प्रभु यीशु के लड़कपन, 12 वर्ष से लेकर उनके सेवकाई आरंभ करने,30 वर्ष की आयु तक का विवरण नहीं दिया गया है, किन्तु बाइबल इसके विषय में बिलकुल शान्त भी नहीं है। यह परमेश्वर और प्रभु यीशु के विरोधियों द्वारा फैलाया गया भ्रम है कि बाइबल उनके 12 से 30 वर्ष की आयु के बारे में कुछ नहीं बताती है; और अपने द्वारा फैलाए गए इस भ्रम के आधार पर वे यह एक और झूठ फैलाते हैं कि प्रभु यीशु भारत आए थे यहाँ से सीख कर वापस इस्राएल आए और उन शिक्षाओं के अनुसार प्रचार किया। सच तो यह है कि बाइबल स्पष्ट बताती है कि प्रभु यीशु वहीं इस्राएल में अपने परिवार के साथ ही रहे थे। इस संदर्भ में बाइबल में, सुसमाचारों में, दिए गए कुछ पदों को देखिए:

मत्ती 13:54 “और अपने देश में आकर उन की सभा में उन्हें ऐसा उपदेश देने लगा; कि वे चकित हो कर कहने लगे; कि इस को यह ज्ञान और सामर्थ के काम कहां से मिले?

मरकुस 6:2-3 “सब्त के दिन वह आराधनालय में उपदेश करने लगा; और बहुत लोग सुनकर चकित हुए और कहने लगे, इस को ये बातें कहां से आ गईं? और यह कौन सा ज्ञान है जो उसको दिया गया है? और कैसे सामर्थ के काम इसके हाथों से प्रगट होते हैं? क्या यह वही बढ़ई नहीं, जो मरियम का पुत्र, और याकूब और योसेस और यहूदा और शमौन का भाई है? और क्या उस की बहिनें यहां हमारे बीच में नहीं रहतीं? इसलिये उन्होंने उसके विषय में ठोकर खाई।”

लूका 2:39-40 “और जब वे प्रभु की व्यवस्था के अनुसार सब कुछ निपटा चुके तो गलील में अपने नगर नासरत को फिर चले गए। और बालक बढ़ता, और बलवन्‍त होता, और बुद्धि से परिपूर्ण होता गया; और परमेश्वर का अनुग्रह उस पर था।”

लूका 2:51-52 “तब वह उन के साथ गया, और नासरत में आया, और उन के वश में रहा; और उस की माता ने ये सब बातें अपने मन में रखीं। और यीशु बुद्धि और डील-डौल में और परमेश्वर और मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ता गया।”

लूका 4:16 “और वह नासरत में आया; जहां पाला पोसा गया था; और अपनी रीति के अनुसार सब्त के दिन आराधनालय में जा कर पढ़ने के लिये खड़ा हुआ।”

यूहन्ना 7:15 “तब यहूदियों ने अचम्भा कर के कहा, कि इसे बिन पढ़े विद्या कैसे आ गई?

ध्यान कीजिए, मत्ती, मरकुस और यूहन्ना के हवाले यह स्पष्ट दिखा रहे हैं कि प्रभु यीशु की शिक्षाओं को सुनकर सब को अचम्भा होता था कि उन्होंने ‘बिना पढ़े’ वह सब कैसे जान लिया जो वे प्रचार करते थे। अर्थात, वे लोग जानते थे कि प्रभु यीशु कभी कहीं शिक्षा पाने नहीं गए थे, उन्हीं के मध्य रहे थे, परन्तु फिर भी इतना कुछ सीख गए थे, अद्भुत प्रचार कर सकते थे। यदि प्रभु यीशु कहीं गए होते, तो लोग फिर यह कहते कि “उन्होंने समझ लिया कि वह यह सब उस परदेश से सीख कर आया था जहाँ वह गया हुआ था” – किन्तु किसी ने भी कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा। दूसरी बात, प्रभु यीशु ने जो भी प्रचार किया वह परमेश्वर के वचन के उस भाग, जिसे हम आज बाइबल के पुराने नियम के नाम से जानते है, से था। यदि प्रभु कहीं बाहर से कुछ सीखकर आए होते तो पुराने नियम से नहीं सिखाते वरन उस “ज्ञान” के अनुसार सिखाते जिसे वे सीख कर आए थे – किन्तु ऐसा कदापि नहीं था। उनकी सारी शिक्षाएँ परमेश्वर के वचन के पुराने नियम पर आधारित थीं।

लूका के हवालों पर ध्यान कीजिए – ये तीनों हवाले स्पष्ट दिखाते हैं कि प्रभु यीशु की परवरिश वहीं गलील के नासरत में, जो उनका निवास-स्थान था, हुई थी।

इसलिए चाहे बाइबल में उनकी 12 से 30 वर्ष की आयु के बारे में कोई विवरण नहीं है, किन्तु इतना अवश्य प्रगट है कि प्रभु वहीं नासरत में अपने परिवार के साथ ही रहे थे और लोगों ने उन्हें बड़े होते हुए देखा और जाना था।

मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

याकूब 5:16 में हमें " एक दूसरे के साम्हने अपने अपने पापों को मान" लेने की सलाह क्यों दी गई है?



इसे ठीक से समझने के लिए, याकूब 5:16 को उसके संदर्भ में देखा जाना चाहिए याकूब 5:13-18 के एक भाग के समान। जब हम ऐसा करते हैं, तो यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि इन पदों में दो प्रक्रियाओं के विषय में कहा गया है शारीरिक चंगाई तथा पाप। जबकि याकूब 5:16 में कही गई शारीरिक चंगाई 5:14-15aमें दी गई चंगाई के विचार के साथ संबंधित है; याकूब 5:16 में कही गई पापों को मान लेने की बात उन पापों के क्षमा से संबंधित या क्षमा के लिए नहीं है क्योंकि, उसके लिए तो पहले ही 5:15 में ही कह दिया गया है कि वे क्षमा हो चुके हैं, 5:16 में एक दूसरे के सामने उन्हें मान लेने के लिए कहने से भी से पूर्व। यहाँ पर हिन्दी में “मान लेने” अनुवाद किए गए के लिए जो मूल यूनानी भाषा में शब्द आया है वह है, ‘exomologeo (एक्सो-मोलो-जियो)’, जिसका अर्थ होता है स्वीकार कर लेना या (स्वीकृति के अभिप्राय से) पूर्णतः सहमत होना, (Strong’s Bible Dictionary).

इसे और बेहतर समझने के लिए, हमें इस विचार से संबंधित दो अन्य हवालों को ध्यान में रखना चाहिए। इन दो हवालों में पहला है, 1 यूहन्ना 1:8-10, जहाँ प्रेरित यूहन्ना, ‘हम’, तथा वर्तमान काल के ‘है’ (‘था’ की बजाए) के प्रयोग के द्वारा कह रहा है कि सभी – स्वयँ उसके सहित, पाप करते हैं, अब भी; और दूसरा हवाला है, गलातियों 6:1-2, जहाँ पौलुस प्रेरित अन्य मसीही विश्वासियों को उभार रहा है कि वे उन अन्य मसीही विश्वासियों को उठाने और बहाल करने में सहायक बनें जो किसी प्रकार से किसी ‘अपराध’ या परीक्षा’ में गिर गए हैं, अर्थात जिन्होंने कुछ गलत कर दिया है; और साथ ही सहायता करने वालों को स्वयँ भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे भी किसी भी समय ऐसी ही किसी परिक्षा में गिर सकते हैं। ये हवाले हमें इस तथ्य को सीखने और समझने में सहायता करते हैं कि बाइबिल के अनुसार, परिपक्व और स्थापित मसीही विश्वासियों की भी पाप में गिर जाने की संभावना बनी रहती है, वे अपराध कर सकते हैं, तथा उनसे अपेक्षित नैतिकता के स्तरों से गिर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, कोई भी ऐसा नहीं है जो सिद्ध हो या ठोकर खाने से ऊपर हो, प्रत्येक को सदा ही परमेश्वर के अनुग्रह की आवश्यकता बनी रहती है, प्रभु के प्रति सत्यनिष्ठ और खरा बने रहने के लिए प्रभु से क्षमा और सामर्थ्य की आवश्यकता रहती है, और ऐसे भी समय हो सकते हैं जब उन्हें प्रभु द्वारा किसी गलत बात से निकाले जाने की आवश्यकता पड़ जाए।

उपरोक्त को ध्यान में रखते हुए, हम वापस याकूब 5:16 पर आते हैं, और अब हम यह तात्पर्य समझ सकते हैं कि यह पद सिखा रहा है कि “अपनी दृष्टि में बहुत धर्मी मत बनो, और न ही ढोंगी बनो; अपने आप को ‘औरों से अधिक धर्मी’ मत समझो, यह धारणा मत रखो कि तुम अपने आस-पास के और सभी लोगों से बढ़कर या उत्तम हो। वरन, नम्र रहो तथा यही मानने या स्वीकार करने का रवैया रखो कि तुम भी ठोकर खा सकते हो, गिर सकते हो, इसलिए ‘आपस में एक दूसरे के साम्हने अपने अपने पापों को मान लो ’ अर्थात औरों के सामने यह मानने और स्वीकार करने का रवैया रखो कि तुम भी औरों के समान ही गलती करने तथा पाप में पड़ने की प्रवृत्ति रखते हो, और जब भी तुम ऐसे गिर जाओ तो अपनी बहाली के लिए तुम्हें भी औरों की सहायता तथा प्रार्थनाओं की आवश्यकता होगी।”

यह पद यह नहीं सिखा रहा है कि हम जब भी पाप में पड़ें तो अपने आस-पास के लोगों के सामने जाकर उन पापों का वर्णन करें, और हमारे ऐसा करने से उन पापों की क्षमा में सहायता होगी। वरन, इस पद का अभिप्राय है कि घमण्डी या हठधर्मी होने के स्थान पर, हमें नम्र तथा औरों द्वारा सुधारे जाने के प्रति खुले रहना चाहिए; जब भी कोई अन्य हम में कोई कमी या अनुचित बात देखे और उसे हमारे सामने लाए। जब भी हमारे पाप या अपराध हमारे सामने लाए जाते हैं, हमें दीन और नम्र होकर उन्हें स्वीकार (‘मान’) कर लेना वाला होना चाहिए। हमें अन्य मसीही विश्वासियों की प्रार्थनाओं की सहायता लेनी चाहिए कि हम ऐसे नम्र बने रहें, या यदि गलत परिस्थिति में आ गए हैं तो उससे निकाले जाएँ, क्योंकि परमेश्वर के लोगों की प्रार्थनाएं किसी भी परिस्थिति में बचाव और छुटकारे के लिए एक बहुत प्रभावी और कारगार उपाय हैं।



रविवार, 24 मार्च 2019

बाइबल शिक्षा कैसे पाएँ


प्रश्न:
 क्योंकि मैं नौकरी करता हूँ, इसलिए किसी सेमिनरी में जाने में समर्थ हूँ। क्या किसी रीति से में घर से ही बाइबल अध्ययन सीख सकता हूँ, जिससे मैं प्रभु के विषय और जानकारी प्राप्त कर सकूँ?

 उत्तर:
परमेश्वर के वचन के प्रति हमारा प्रेम, बाइबल को जो स्थान हम अपने जीवनों में प्रदान करते हैं, वही परमेश्वर के प्रति हमारे प्रेम का माप और सूचक है (यूहन्ना 14:21, 23)। परमेश्वर के वचन को हम जितना अधिक जानेंगे, उसे अपने दैनिक जीवन में जितना अधिक महत्व देंगे, वह हमारी दैनिक गतिविधियों और आवश्यकताओं के लिए उतना ही अधिक उपयोगी तथा लाभदायक होगा (भजन 119:97-105)।

परमेश्वर के वचन को सीखने का सबसे उत्तम, सरल, और कारगर तरीका है स्वयँ उसे पढ़ना, उस पर नियमित मनन तथा विचार करना, और प्रतिदिन उसे अपने व्यवाहरिक जीवन में लागू करना। यदि आप पापों से पश्चाताप करने तथा प्रभु यीशु को जीवन समर्पण के द्वारा नया जन्म पाए हुए मसीही विशवासी हैं, तो परमेश्वर का पवित्र आत्मा आपके अन्दर निवास करता है (1 कुरिन्थियों 6:19; इफिसियों 1:13), और पवित्र आत्मा स्वयँ हम मसीही विशावासियों – प्रभु यीशु के शिष्यों, को न केवल उसकी बातें सिखाता है, परन्तु उन्हें समझाता है तथा उन्हें उपयोग में लाना बताता है (यूहन्ना 14:26; 16:13-15)। बुनियादी और अपरिवर्तनीय वास्तविकता तो यह है कि बिना पवित्र-आत्मा की सहायता एवँ मार्गदर्शन के कोई परमेश्वर और उसके निर्देशों के बारे में सीख ही नहीं सकता है (1 कुरिन्थियों 2:11-14), कहीं से भी नहीं, किसी से भी नहीं। इसलिए बाइबल को जानने और समझने का बुनयादी आधार है नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी होना, जिससे परमेश्वर पवित्र-आत्मा आपकी सहायता कर सके और आपको परमेश्वर का वचन सिखा सके। अकसर लोगों में एक बेबुनियाद संकोच होता है कि वे परमेश्वर के वचन के सीख सकने योग्य भले नहीं हैं, वे परमेश्वर की धार्मिकता के मापदण्ड पर वचन सीखने के योग्य नहीं है। ये भय निराधार हैं और शैतान के द्वारा हैं; भजन 25:8-14 से देखिए कि परमेश्वर किन लोगों को सिखाता है; और आप पाएँगे कि परमेश्वर हमारी किसी भी कमज़ोरी या अयोग्यता के कारण अपना वचन हमें सिखाने से पीछे नहीं हटता है – वह तो तैयार है और प्रतीक्षा कर रहा है, यदि आप नया जन्म पाने की उस बुनियादी आवश्यकता को पूरा करके विश्वास के साथ उसके पास आने और उससे सीखने के लिए तैयार हैं।

मैं भी आपके समान नौकरी करने वाला व्यक्ति हूँ, और कभी किसी बाइबल स्कूल या ट्रेनिंग के लिए नहीं गया। बस परमेश्वर पर विश्वास करके उससे ही उसका वचन माँगता हूँ और जो वह देता है, उसे बाँट देता हूँ, तथा अपने जीवन में लागू करते रहने में प्रयासरत रहता हूँ। मैं नियमित योजनाबद्ध विधि से बाइबल पढ़ता हूँ, और परमेश्वर के अनुग्रह तथा मार्गदर्शन से प्रति वर्ष में एक बार बाइबल को आरंभ से अन्त तक पढ़ लेता हूँ, और यह लगभग पिछले तीस वर्ष से होता आया है, अर्थात जब से मैंने नया जन्म पाया; यद्यपि मैं जन्म और परवरिश से एक ईसाई परिवार से हूँ, और पारंपरिक ईसाई रीति-रिवाजों के पालन के साथ मेरी परवरिश हुई थी। प्रश्नों का उत्तर देने या वचन की सेवकाई के लिए जो तैयारी करनी होती है वह इस दैनिक बाइबल के पढ़ने के अतिरिक्त होती है। जो परमेश्वर मुझे सिखाता है उसे औरों तक पहुँचाने की लालसा के फलस्वरूप परमेश्वर ने मुझे उसके वचन को सिखाने और बाँटने की इस सेवा का अवसर प्रदान किया है – स्वयं-सेवी होकर, किसी पारिश्रमिक, या धन, अथवा किसी चर्च या संस्था में किसी स्तर, पदवी आदि के लिए नहीं, बस इसलिए कि प्रभु के बारे में लोगों को सिखा सकूँ और समझा सकूँ, जिससे मैं स्वयँ भी और अधिक सीख सकूँ। मैंने देखा है कि जितना अधिक मैं इस वचन को औरों के साथ बाँटता हूँ, उतना अधिक यह मेरे जीवन में विभिन्न रीतियों से लाभप्रद होता है।

मेरे अपने जीवन के अनुभव के आधार पर मेरी यही सलाह है कि आप नियमित और क्रमवार बाइबल पढ़ना आरंभ करें – चाहे समझ में आए या न आए। मैंने बाइबल को पूरा पहली बार, अपमानित होने के बाद ज़िद में होकर पढ़ा था, कि कम से कम एक बार तो बाइबल को पूरा पढूंगा ही, क्योंकि मेरे एक हिंदू मित्र ने मुझे ताना मारा था कि तूने अपने ही धर्म-ग्रन्थ को न तो पूरा पढ़ा है और न ही उसे जानता है फिर भी मुझे उसके बारे में बताना चाहता है – और तब से इस वचन का चस्का ही लग गया। बस प्रार्थना के साथ, एक सच्चे, खोजी और समर्पित मन के साथ पढ़िए; परमेश्वर से मांगिए कि वह आपको सिखाए और बताए (याकूब 1:5); और फिर जो भी वह आपको सिखाता या बताता है, उसे अपने जीवन में लागू करें तथा उसे किसी और के साथ बाँट दें, और आप पाएँगे कि ऐसा करने से आपके जीवन में परिवर्तन आ रहा है, आपके अन्दर वचन की समझ उत्पन्न हो रही है, और जैसे जैसे आप परमेश्वर द्वारा आपको सिखाए गए वचन को सही रीति से उपयोग करेंगे, वह आपको अपने वचन में से और अधिक सिखाता चला जाएगा।

इतना ध्यान रखें कि मनुष्य का भय खाकर परमेश्वर अपने वचन की जो भी शिक्षा आपको देता है उसके निर्वाह में संकोच या समझौता न करें – ऐसा करना हानिकारक होगा (नीतिवचन 29:25; यिर्मयाह 1:9-10, 17-19; गलातियों 1:10)। आरंभ में थोड़ा समय लगेगा, परमेश्वर अपने तरीके से आपको आरंभिक बातों के सिखाने के साथ आरंभ करेगा, जैसे एक आत्मिक बच्चे से (1 पतरस 2:1-2)। उसके ऐसा करने के समय हो सकता है कि आपको मनुष्यों द्वारा सिखाई गई कई बातों को छोड़ना या भूलना भी पड़े, जिससे आप परमेश्वर से सीख सकें। वह आपको आपके जीवन में जिन बातों की आवश्यकता है उनके बारे में, और जो सेवकाई वह आप से लेना चाहता है उसके अनुसार ही सिखाना आरंभ करेगा तथा सिखाता जाएगा। जब आप उसके प्रति समर्पित और विश्वासयोग्य बने रहेंगे, उसके वचन का सही उपयोग करते रहेंगे (2 कुरिन्थियों 4:1-2; 2 तिमुथियुस 2:15-16; 2 तिमुथियुस 3:14-16), तो धीरे-धीरे वह आपको और गूढ़ बातें भी सिखाने लगेगा। इसलिए थोड़ा धैर्य रखें और प्रभु तथा उसके वचन के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने के प्रयास में कभी ढीले नहीं हों, कोई कमी नहीं आने दें। उसके मार्गों में दृढ़ता से डटे रहें और जीवन में आपको इसके लिए कभी पछतावा नहीं होगा  (यशायाह 40:31)।

घर बैठे बाइबल सीखने का इससे उत्तम और सहज तरीका और कोई नहीं है।