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शुक्रवार, 5 जून 2009

सम्पर्क नवम्बर २००२: एक खोया सा जीवन जब फूट फूट कर रोया

मेरा नाम बी. सी. गोयल है। मेरा जन्म आगरा के एक व्यवसायिक हिन्दू परिवार में हुआ। आठवीं से दसवीं कक्षा तक मेरी पढ़ाई आगरा के बैपटिस्ट सकूल में हुई। मुझे वहां एक अच्छी बात यह लगी कि सकूल लगने से पहले, हैडमास्टार साहब बाईबल में से कुछ आयतें पढ़ते और प्रार्थना करते थे। मुझे यह सब कुछ समझ में तो नहीं आता था परन्तु सुनने में अच्छा लगता था। एक दिन हैडमास्टर साहब ने मत्ती ७:७ - ‘माँगो तो तुम्हें दिया जाएगा’ पढ़ा; इस आयत से मुझे लगा कि मैं जो माँगूंगा मुझे अवश्य मिलेगा। अब यह आयत मेरे दिमाग़ में घूमने लगी। स्कूल के पश्चात मुझे कॉलिज में दाखिला मिल गया, लेकिन मैं बी०एस०सी० पास नहीं कर सका जब कि मेरे दोस्तों को इंजीनियरिंग में दाखिला मिल चुका था। अब मैं उदास रहने लगा। लेकिन कुछ समय बाद मेरे एक दोस्त ने मुझे जर्मनी पढने के लिए बुला लिया और मेरा वहाँ दाखिला हो गया। फैकट्री के पास ही मैंने एक कमरा किराए पर ले लिया। मेरे मकान मालिक ८० वर्ष के एक नामधारी इसाई दम्पति थे। एक दिन उनके यहाँ आयोजित एक संगति सभा में उन्होंने मुझे भी बुलाया। उस सभा में यद्यपि मुझे ज़्यादा कुछ समझ में तो नहीं आया पर अच्छा लगा। अब मेरा उनके साथ संगति में आना जाना शुरू हो गया। मेरी ट्रेनिंग पूरी होने के बाद मुझे यह घर छोड़ना पढ़ा और मेरा संगति में जाना भी बंद हो गया। एक दिन मेरे एक दोस्त ने, जो लंदन में था, बताया कि वहाँ एक रबड़ इंजिनीयरिंग का कॉलेज है और उसमें दाखिले का तरीका बिल्कुल भारतीय पद्धति पर ही है। अतः मैंने लंदन जाकर कॉलेज के प्रिंसिपल से वहाँ दाखिले की बात की। उन्होंने बताया कि यदि मेरी अर्ज़ी भारतीय दूतावास के द्वारा भेजी जाए तभी उसपर विचार हो सकता है। जब इस प्रयोजन से मैं भारतीय दूतावास गया तो वहां इसके लिए मुझ से रिश्वत माँगी गयी, इसलिए मैं निराश होकर जर्मनी लौट आया। वहाँ पढने में मेरा मन नहीं लगता था, मैं लंदन के उस कॉलेज में जाना चाहता था।

एक शाम जब मैं बहुत उदास था, मैंने सोचा कि चलो प्रार्थना करके देखें। मैंने प्रार्थना करी और फिर लंदन कॉलेज फोन किया, तो प्रिंसिपल भारतीय दूतावास से अर्ज़ी की मंज़ूरी के बिना ही मुझे दाखिला देने को तैयार हो गया। इस बात से मेरे अन्दर एक छोटा सा विश्वास यीशु मसीह के प्रति जागा। मैं लंदन जाने की तैयारी करने लगा, मेरी मकान मालकिन ने मुझे लंदन स्थित विश्वासी परिवरों के दो-तीन पते दिये जिससे मैं वहाँ संगति कर सकूँ। लंदन आने पर मैं प्रभु यीशु की संगति में जाने लगा। अब मुझे पाप की सज़ा मृत्यु तथा पाप से पश्चाताप और क्षमा व अनन्त जीवन जो प्रभु यीशु के द्वारा मिलता है, के बारे में पता चला। तब मैंने अपने पापों से पश्चताप किया और मुझे अपने साथ प्रभु की उपस्थिति का एहसास होने लगा। इस तरह मुझ में परिवर्तन आने लगा। प्रभु की दया से मैं पढ़ने में बहुत अच्छा हो गया था। अच्छे नंबरों से पास होता देख प्रोफैसर मेरी पीठ थपथपाते थे। ऐसा होते देख मेरा विश्वास प्रभु में और भी बढ़ गया। अब मुझे संगति में और भी आनंद आने लगा। सन १९९६ में मुझे डॉ० बिली ग्राहम की सभा में जाने का अवसर मिला। उनके द्वारा दिए गए एक प्रवचन और वहाँ गाए गए भजन “यीशु कैसा मित्र प्यारा” ने मुझे बिलकुल बदल दिया। मैं फूट फूट कर रोने लगा तथा पापों की माफी मांगी और तब मुझे नए जीवन का अनुभव हुआ। मुझे लगा कि एक बहुत बड़ा बोझ मेरे सिर पर से हट गया। अब कॉलेज के बाद मेरा ज़्यादा समय प्रार्थना व संगति में बीतने लगा। प्रभु की दया से मुझे रबड़ इंजीनियरिंग की डिग्री मिल गयी और मेरे जीवन में प्रभु का वचन “माँगो तो तुम्हें दिया जाएगा” पूरा हुआ। सन १९६७ में अपनी पढ़ाई पूरी करके मैं भारत वापस अपने शहर आगरा आ गया। यहाँ मेरी मुलाकात प्रभु के एक सेवक, भाई रामेश्वर लाल, से हुई। वे मेरे घर संगति के लिए भी आने लगे, लेकिन प्रभु की दया से मेरे घर वालों ने कभी उनका विरोध नहीं किया। इसके बाद मेरा विवाह भी हो गया। मैं अपनी पत्नी को भी संगति में ले जाता था। धीरे धीरे मेरी पत्नी भी प्रभु में आ गयी। मुझे कई जगह विदेशों में भी नौकरी करने का मौका मिला। मेरा बपतिस्मा इथोपिया के एडिसबाबा शहर में हुआ। यहाँ भी प्रभु की दया से मुझे अच्छी संगति मिली।

सन १९८५ में मैं फिर से वापस भारत आ गया क्योंकि मुझे हरिद्वार में फक्ट्री डालने का अवसर मिला। यहाँ मेरा एक दोस्त, जिसे मैं बहुत मानता था, अपनी फैक्ट्री चल रहा था, उसी ने मुझे बुलाया। अब मुसीबतों का दौर शुरू हो गया और मेरे दोस्त ने भी मुझे धोखा दे दिया जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। मेरी फैक्ट्री भी बन्द हो गयी। मुझे बड़ा झटका लगा और मैं सड़क पर आ गया। बच्चे की फीस जमा करने के लिए भी नहीं होती थी। यह दोस्त चाहता था कि हम उसके आगे हाथ फैलाएं, लेकिन प्रभु जो कभी नहीं छोड़ता, उसने मेरी पत्नी को देहरादून में नौकरी दिलवाकर इस तथा अन्य समस्याओं को हल कर दिया। सन १९८० में प्रभु ने ही हमारे एक अन्य रिशतेदार को हमारी मदद के लिए भेजा। फिर प्रभु ने मेरे सोचने समझने से बढ़कर मुझे लौटा दिया। लेकिन मुझे प्रभु में जितना बढ़ जाना चाहिए था, नहीं बढ़ सका। हालांकि प्रभु के दासों का आना जाना व संगति करना लगा ही रहता था। सन १९९० में मैं बिमार पड़ा और मेरी हालत बहुत गंभीर हो गयी। मैं प्रभु से अपनी चँगाई की प्रार्थना करने लगा और प्रभु ने मुझे चँगा कर दिया। जून १९९८ में मेरी हालत ऐसे ही कभी ठीक कभी ख़राब चलती रही। लेकिन प्रभु के लोगों की संगति व प्रार्थना से मुझे बहुत हियाव मिलता था, जिसके कारण मैं आज भी प्रभु में बना हूँ। जुलाई १९९८ में मुझे ब्रेन ट्यूमर, यानि दिमाग़ की रसौली हो गयी। मुझे इलाज के लिए दिल्ली के एक अस्पताल में दाखिल किया गया। मेरे अपने रिशतेदार मुझे देखने नहीं आए. लेकिन प्रभु के दासों से मेरा कमरा भरा रहता था। प्रभु ने फिर एक और आश्चर्यकर्म किया, अपने दासों की प्रार्थनओं के उत्तर में मुझे पूरी चँगाई दी तथा निर्गमन ३४:१० मेरे लिए पूरा किया। प्रभु की दया से अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ।

जब कभी मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मुझे एहसास होता है कि प्रभु कितना महान है। उसका प्रेम अद्भुत है, वह मुझे हर समय संभाले रहता है। मेरी इच्छा है कि मैं ज़्यादा से ज़्यादा समय प्रभु के चरणों में बिताऊँ।

मुझे आप सब की प्रार्थनों की बहुत ज़रूरत है।

गुरुवार, 4 जून 2009

सम्पर्क नवम्बर २००२: आराधना का आधार

रात तो काफी गहरा चुकी थी। बाहर बड़े आंगन में काफी गहमा-गहमी थी। मौसम काफी ठंडा ज़रूर था, पर माहौल बहुत गरमाया हुआ था। कुछ लोग आंगन में आग के चारों ओर बैठे थे। शायद, जैसे ही किसी ने दबी आग पर कुछ लकड़ियाँ लगा कर आग दहकाई, तैसे ही आग के चारों ओर बैठे लोगों के चेहरे साफ दिखने लगे। महायाजक की लौंडियों में से एक वहाँ आई और पतरस को आग तापते देख कर कहा कि तू भी तो यीशु नासरी के साथ था। पतरस तुरन्त मुकर गया (मरकुस १४:६८)। प्रभु यीशु के साथ जीने-मरने की कसम खाने वाला वह चेला, उस एक रात में, मुर्गे के बांग देने के पहले, तीन बार कसम खाकर अपने प्रभु का साफ इंकार कर गया। दूसरी तरफ पतरस का प्रभु, सारी रात अपमानित और प्रताड़ित होता रहा। इस अपमान और ताड़ना के समय में एक पल ऐसा आया जब इन्कार करते हुए पतरस का सामना प्रभु से हुआ। प्रभु ने पतरस को देखा और अपनी आँखों से ही उससे कुछ कहा, शायद ये कि, “हाँ पतरस, मैं तुझे अब भी प्यार करता हूँ, मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूंगा, कभी नहीं त्यागुंगा” (लूका २२:६०-६२)। कैसा अद्भुत प्रेम, कैसी अद्भुत वफादारी, अपनी असहनीय पीड़ा में भी अपने इन्कार करने वाले कमज़ोर चेले को हियाव देना, उसे फिर से उठा कर खड़ा करना। इस प्रेम, इस अपनेपन का कोई सानी नहीं। ऐसा प्रेमी परमेश्वर ही आराधना का सच्चा हकदार है, उसका यह क्षमा करने वाला प्रेम ही हमारी आराधना का आधार है।

मैं आपसे, मनुष्य रूप में आए इस प्रभु परमेश्वर की कहानी कहना चाहता हूँ। आप इस कहानी को उसके प्यार के प्रकाश में देखिएगा। इसी का नाम मेरे सीने में बसता है। वही मेरी आराधना का आधार है।

* दो हज़ार साल पहले एक बहुत ही ग़रीब और मामूली परिवार में उसका जन्म हुआ, ऐसा परिवार जिसके पास न धन था, न संपत्ति और न कोई प्रभाव। बहुत ही ग़रीबी की हालत में पला-बड़ा हुआ और गुज़र किया । आज उसका प्रभाव सारे संसार में है, उसके वचन को आधार बनाकर कई देशों ने अपने संविधान बनाए हैं; समाज सुधरकों ने समाज के उत्थान की प्रेरणा और मार्ग दर्शन पाया है; रंग भेद, जाति भेद, लिंग भेद आदि से ऊपर उठ कर सभी इन्सानों के समान स्तर होने को समझा और समझाया है। समाज के हर वर्ग के लोग उसके अनुयायी हैं, धनवान भी, आलिम और दानिश्मंद भी, वैज्ञानिक भी, साधारण भी।

* एक देश के छोटे से दायरे में ही सम्पूर्ण जीवन जिया। उसके जीवन में केवल एक बार, उसके शिशुकाल में, उसकी जान बचाने को, उसके माँ-बाप थोड़े समय के लिए उसे देश की सीमाओं से बाहर ले गए। लेकिन आज संसार का कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ उसका नाम और उसके अनुयायी नहीं हैं।

* आम आदमी की तरह उसे भूख, प्यास लगती थी; कभी-कभी झील पर तैरती नाव में ही सो जाता था।

* उसने कभी डॉकटरी नहीं सीखी पर बिना दवाईयों के ही बिमारों को चंगा कर देता था और कोई फीस भी नहीं लेता था, हर टूटे दिल को जोडने की सामर्थ रखता है।

* उसने खुद कभी कोई किताब नहीं लिखी; पर आज संसार में कोई ऐसी लाईब्रेरी नहीं है जहाँ उससे संबंधित कोई किताब न हो। मानव इतिहास में आदमी की कलम से कभी किसी एक आदमी के बारे में इतनी किताबें नहीं लिखीं गयीं जितनी इसके बारे में लिखी गयीं।

* उसने कभी कोई गीत नहीं लिखा; लेकिन इसके बारे में, सारे संसार में, न केवल इतने गीत लिखे गए जितने किसी और के बारे में कभी नहीं लिखे गए; और इतने लोग उन गीतों को आज भी गाते हैं जितने किसी और के लिए नहीं गाते।

* वह कभी कोई सैनिक अधिकारी नहीं रहा, न कभी कोई हथियार चलाया न किसी को कभी मारा या सताया; लेकिन इसके प्रेम और कुर्बानी को संसार में पहुँचाने और बयान करने के लिए सबसे अधिक लोगों ने अपनी जान जोखिम में डाली, सबसे अधिक लोगों ने अपनी जान कुर्बान भी की और आज भी उस प्रेम और कुर्बानी के सुसमाचार का बयान करने के लिए सबसे अधिक लोग ऐसा करने को तैयार हैं।

* जो देश कभी इसके विरोधी थे, आज वही उसके अराधक हैं। सारे संसार में, हर सात दिन के चक्र के समाप्त होते ही, लाखों लोग इसकी आराधना के लिए इकठ्ठे होते हैं।

* उसके जन्म के दो हज़ार साल बाद भी, उसके अनुयायियों की संख्या, सारे विश्व में, समाज के हर वर्ग में से, बढ़ती ही जा रही है, कभी घटी नहीं है।

* इस देने वाले ने इतना दिया कि अपने आप को ही दे डाला। लगभग दो हज़ार साल पहले उसे नाश करने के लिए उसके समाज के हाकिमों ने षड़यंत्र रचकर उसे पकड़ा और झूठे मुकद्दमे के द्वारा क्रूस पर चढ़ा कर मार डाला। कब्र उसे रख न सकी और वह तीसरे दिन जीवित होकर, बंद कब्र से बाहर आ गया, चालीस दिन तक उन्हीं लोगों के बीच में रहा और उनके देखते हुए स्वर्ग पर चला गया। वह आज भी जीवित है और लोगों के जीवन बदल रहा है।

* उन बदले हुए जीवन वाले लाखों मनों की ऊंचाई पर विराजमान होकर आज उनका परमेश्वर कहलाता है। स्वर्गदूत इस बात को स्वीकारते हैं, सन्त सराहते हैं और शैतान उसके नाम से ही सहमता है।

* इस जीवित, सर्वसामर्थी, सर्वव्यापी, सर्वज्ञानी, शाश्वत, परमसत्य का नाम प्रभु यीशु है; वो मेरा उद्धारकर्ता है, मेरा प्रभु है, मेरा स्वामी है।

जो जन हमारे लिए सब कुछ होता है, हम उसके लिए सब कुछ कर गुज़रते हैं। क्या आपको मालूम है कि आप प्रभु यीशु के लिए सब कुछ हैं? इसीलिए वह आपके लिए सब कुछ कर गुज़रा। आप ही उसकी खुशी हैं, जैसे ही कोई मन फिराकर प्रभु में आता है, स्वर्ग में खुशी और जश्न मनता है। वह आपको अपनी जान से ज़्यादा प्यार करता है, इसलिए उसने अपनी जान आपके लिए दे दी।

मैंने प्रभु की एक बात पकड़ी है; एक बात है जिसके करने के लिए हमें मना करता है, लेकिन खुद करता है। देखिए वह क्या कहता है, “प्रभु को उस पर तरस आया और कहा मत रो” (लूका ७:१३); “तू क्यों रोती है?” (यूहन्ना २०:१५); “वह नगर के निकट आया तो नगर को देखकर रोया” (लूका १९:४१); “यीशु के आंसू बहने लगे” (यूहन्ना ११:३५); “वह आंसू बहा-बहा कर प्रार्थना करता था” (इब्रानियों ५:७)।
क्या बात इस प्यार की जो हमें रोता हुआ तो देख नहीं पाता और खुद हमारे लिए रोता है।



बुधवार, 3 जून 2009

सम्पर्क नवम्बर २००२: सम्पादकीय

प्रभु यीशु के प्यारे नाम से सम्पर्क आपके सम्मुख है। क्षमा चाहते हैं कि यह अंक काफी देर से आपके हाथों में पहुँचा पा रहे हैं। आपकी प्रार्थनाएं और पत्र हमें हमेशा हियाव देते हैं। हमारी अभिलाशा है कि स्याही से छपी इस छोटी काग़ज़ी किताब से आप परमेश्वर की आवाज़ को सुन सकें। यह बात आप पर है कि आप उसकी बात को स्वीकारें या ठुकराएं। आप कह सकते हैं कि ये लोग पुरानी कहानी, बासी शब्दों के साथ फिर हमारे सामने परोसने में लगे हैं। सम्पर्क आपके हाथ में है, आप सम्पर्क के हाथ में नहीं। आप जब चाहें इसे खोल कर पढ़ सकते हैं, जब मन ऊबे तो बंद कर सकते हैं, यदि झुंझला जाएं तो फेंक सकते हैं और फाड़कर जला भी सकते हैं। यह बात आपके हाथ में है। पर प्रभु की दया से सत्य को साफ कह देना सम्पर्क का कर्तव्य है। प्रभु करे कि जो लिखा है, उसके वास्तविक अर्थ को आप समझ सकें।

पवित्रशास्त्र कोई मुर्दा लाश नहीं है, परन्तु परमेश्वर की जीवित सामर्थ है। परमेश्वर का वचन बीज है और उसमें जीवन है जो बढ़ने और फलने को मचलता है। बस उसे एक अच्छी भूमि की ज़रूरत है, जिससे तीस गुणा, साठ गुणा, सौ गुणा फल सके। पवित्रआत्मा तो तैयार है पर बहुतों का मन पवित्रआत्मा की बात मानने को तैयार नहीं है; वे आत्मा को बुझा देते हैं, उसको शोकित कर उसकी आवाज़ को दबा डालते हैं। वे सारी सम्भावनाओं को खुद ही समाप्त कर डालते हैं।

ऐसे विश्वासी धीरे-धीरे स्वभाविकता को उतार कर मक्कारी को पहन लेते हैं। वे हमेशा दूसरों पर दोष लगाते मिलेंगे और अपनी मजबूरियाँ गिनाते रहेंगे। वे मौका और मौसम देख कर चलते हैं। वे प्रार्थना सभा, बाईबल अद्ध्यन की सभाओं से अलग होकर, धीरे-धीरे आराधना सभा के दिन भी गोल होने लगते हैं। इनके जीवन में प्रभु की मेज़ का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह जाता। कितनों ने खुद अपनी गवाही की ही हत्या कर डाली है; बस विरोध से भरे रहते हैं। कहीं यह आपके व्यवहार का चित्रण तो नहीं है?

आपको लगभग हर मंडली में कुछ बड़े मंझे हुए झूठे विश्वासी मिल जाएंगे। तोते के रटने के समान, बाईबल के पदों को दिमाग़ से रट कर तो रखते हैं पर उसे दिल में ज़रा जगह नहीं देते, निज जीवन में कतई लागू नहीं करते; उस वचन से उनमें बूंद भर भी परिवर्तन नहीं होता। इन्होंने मंडलियों में बड़ा अनर्थ कर डाला है। वे पवित्रशास्त्र का उपयोग अर्थशास्त्र की तरह करते हैं। इनका प्रचार पैसा बनाने का साधन मात्र है। शैतान ने इन्हीं झूठे लोगों पर प्रभु का काम बिगाड़ाने का दयित्व सौंपा हुआ है। यह जितनों को जितना भरमा सकते हैं उतना भरमा देते हैं। ऐसे तिकड़मी लोग मंडलियों में दोष लगाते और विरोध उपजाते हैं और प्रभु का पैसा भी मार लेते हैं। शैतान इनकी जी तोड़ सहायता करता है। वे परमेश्वर की सहनशीलता को तुच्छ जानते हैं। वे दूसरों के लिए भारी और ऊंचे सिद्धांतों को स्थापित करते हैं पर मसीही जीवन के मूलभूत सिद्धांत-प्रेम, दया और क्षमा को हमेशा दबा देते हैं। जीवित वचन कहता है “वे एक ऐसे भारी बोझ को, जिसको उठाना कठिन है, बांधकर उन्हें मनुष्यों के कंधों पर रखते तो हैं; परन्तु आप उन्हें अपनी उंगली से भी सरकाना नहीं चाहते” (मत्ती २३:४,५)। ये सब काम वो लोगों को दिखाने के लिए करते हैं। सच तो यह है कि इन्होंने अपनी बरबादी की कब्र खुद ही खोद ली है।

बच्चों की कहानी बड़ों को सुनाने का अवसर मिला है, कहानी जानी पहिचानी है, सबने कभी न कभी तो सुनी होगी। आस-पास की दुकान, मकान के सभी चूहों ने एक एमरजैन्सी मीटिंग बुलाई। मामला था कि लाला की बिल्ली ने बड़ा आतंक मचा रखा था। चूहों कि पूरी कौम खतरे में थी, अस्तितव का सवाल था। बिल्ली के करीब आने की खबर कैसे लगे, कि समय रहते जान बचाकर भागा जा सके, इसी समस्या का हल ढूंढना था। बहुत विचार-विमर्श हुआ, अलग-अलग तरिके सुझाए गए, पर कोई भी तरीका जमा नहीं। काफी देर बाद एक बूढ़े चूहे ने सिर खुजाते हुए सुझाव दिया ‘अरे मूर्खों, सरल सी बात है, बिल्ली के गले में घंटी बांध दो।’ सुझाव सुनते ही चूहों ने ज़ोरदार तालियां पीटीं, बड़ी वाह-वाही हुई। एक छोटा चूहा डोरी के साथ एक छोटी घंटी ले भी आया। अब सवाल उठा कि घंटी कौन बांधेगा? सब एक दुसरे का मूँह देखते रहे पर कोई आगे नहीं आया। अन्त में उसी बूढ़े चूहे से पूछा गया कि अब आप ही कोई राह बताईए। बूढ़े चूहे ने जवाब दिया, ‘देखो भाई, हम तो सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं, यानि थ्योरी बताते हैं; प्रैकटिकल तो खुद ही करो।’ चूहों की सभा बिना किसी नतीजे पर पहुँचे बर्ख़ास्त हो गयी। लेकिन अगले दिन सभी चूहे यह देखकर अवाक रह गये कि बिल्ली के गले में घंटी बंधी थी। पूछ-ताछ हुई तो मालूम चला कि जो छोटा चूहा घंटी लाया था, उसी ने बांध भी दी और अभी ज़िन्दा भी है। चूहों ने उसे बुलाकर उससे पूछा कि यह कैसे किया? वो बोला, कुछ खास नहीं, बस नींद की गोली कुतर कर बिल्ली के दूध में डाल दी, जब वो गहरी नींद में सो गयी तो काम कर डाला।

अक्सर यह देखा जाता है कि छोटे ईमान्दार विश्वासी, बड़े-बड़े काम बड़ी खामोशी से कर जाते हैं; जबकि बड़े-बड़े नामधारी विश्वासी छोटी-छोटी बातों पर बड़ी-बड़ी राजनीति खेलते रह जाते हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने विवेक को जलते हुए कोयले से दाग़ लिया है। इस अन्त के समय में तो ऐसे लोगों की भरमार होगी। इनका विनाश ऊंघता नहीं, बस परमेश्वर का धैर्य ही है जो इनके इस विनाश को रोके हुए है। इन लोगों को देखकर हमें निराश और हताश होने की ज़रूरत नहीं, बस प्रभु मुझ पर और आप पर दया करे कि हम इन्के साथ न लग जाएं।

जाते-जाते प्रभु के प्रेम की एक कहानी आपके सामने रखना चाहता हूँ। बाईबल में, लूका ७:११-१७ के पन्नों में, नाइन शहर की एक विधवा की कहानी खुदी है जो अपने इकलौते बेटे के जनाज़े में चल रही थी। वह कभी सोच भी नहीं सकती थी कि अपने जवान बेटे को अपनी ही आँखों के सामने दफनाना पड़ेगा। बेटे की बिमारी मौत में बदलते ही उसकी आखिरी उम्मीद भी ढह गयी। इस विधवा के दिल पर क्या बीती होगी? सही एहसास तो हम नहीं कर पाएंगे। माँ ने रात-दिन जागकर, सब कुछ करके देखा होगा। अब जन्म देने वाली माँ जीवन देने में असहाय और अस्मर्थ थी। वैसे तो हमने कितनों के अंतिम संसकार होते हुए देख होंगे, उन्में सम्मिलित भी हुए होंगे। पर जब हम किसी अपने को अंतिम विदाई देते हैं तो दिल पर क्या बीतती है, शब्दों में उस दर्द को ब्यान करने की सामर्थ नहीं है। जैसे-जैसे कब्रिस्तान करीब आता जाता, माँ बार-बार बेटे के चेहरे को चूमती, थोड़ी ही देर में उस चेहरे को हमेशा के लिए कफन से ढाँक दिया जाएगा और लाश पर मिट्टी डाल दी जाएगी। वो माँ कैसे बिलखती हुई लौटेगी अपने सुनसान खाली घर में। लोग शब्दों से आगे क्या सहारा दे पाएंगे? तभी शहर से बाहर जाता हुआ वह जनाज़ा, शहर के अन्दर आते प्रभु यीशु और उसके साथ चल रहे चेलों से रू-ब-रू हुआ। परमेश्वर का बेटा, बेटे के वियोग में तड़पती माँ को देखकर अपने आप को रोक न सका। उस माँ को देखकर प्रभु को तरस आया और प्रभु ने उससे कहा ‘मत रो’ (लूका ७:१३)। ठीक जीवन के सबसे अंधियारे समय में, उस माँ की मुलाकात जीवन की ज्योति से हुई, और ज्योति ने कहा ‘मत रो’। फिर प्रभु उसके बेटे के पास गया जो अब एक लाश, एक दुखदायी बोझ भर बन के रह गया था; अब कहीं कोई उम्मीद बाकी थी ही नहीं। प्रभु ने उस बेटे की लाश से कहा “मैं तुझ से कहता हूँ उठ” और वह जवान ज़िन्दा हो कर उठ बैठा और बोलने लगा। ज्योति ने अंधकार को हर लिया, असंभव संभव हो गया, माँ का मातम आनंद में बदल गया।

शायद आप अपने जीवन में किसी निराशा में फंसे होंगे, हालात से हार चुके होंगे। शायद अब दुनियाँ में कोई रास्ता, कोई उम्मीद की किरण बाकी नहीं होगी। लेकिन प्रभु कहता है “उठ! मत डर, मैं तुझे बनाऊँगा”। अपने घुटनों पर आईये, प्रभु की ओर अपने हाथ फैलाईये और प्रभु से कहिए “हे प्रभु मैं पूरी तरह से हार चुका हूँ, प्रभु मेरी सुधि लें, मुझ पर दया करें।” अपने अंधियारों को उस ‘जीवन की ज्योति’ को सौंप दें और उसकी ज्योति और प्रेम से अपने जीवन को भर लें। वह असंभव को संभव करने वाला, कुछ नहीं से सब कुछ उत्पन्न करने वाला सृष्टिकर्ता परमेश्वर है। वही मार्ग, जीवन और सत्य है (यूहन्ना १४:६)।
सम्पर्क की सीमाएं सीमित हैं, बस अब यहीं ठहरने को कहती हैं। आपकी प्रार्थनों के अभिलाषी.....
सम्पर्क परिवार।






बुधवार, 27 मई 2009

सम्पर्क अप्रैल २००३: कहीं यह कहानी आपकी तो नहीं

किसी ने एक कहानी कही। एक किसान से कहा गया कि एक दिन में जितनी भूमि पर तू चल लेगा, उतनी भूमि तुझ को दे दी जाएगी, पर शर्त यह है कि सूरज डूबने से पहिले, जहाँ से चलना शुरू किया है, वहीं वापस भी पहुँचना है। यदि सूरज डूबने तक वापस नहीं पहुँचा तो कुछ भी नहीं मिलेगा। किसान सारा दिन, बिना आराम किये या खाने-पीने को रुके, तेज़ी से चलता रहा ताकि ज़्यादा से ज़्यादा ज़मीन ले सके। शाम ढलने लगी तो उसे ध्यान आया कि वापस भी लौटना है, और उसने जलदी जलदी लौटना शुरू किया। तेज़ी से ढलते सूरज के पूरा ढलने से पहिले वापस पहुँचने के प्रयास में उसने दौड़ना शुरू किया। दिन भर चल कर वह काफी थक चुका था, अब दौड़ने की शक्ति उसमें नहीं थी। वह कभी दौड़ता, कभी गिरता, फिर उठता, फिर दौड़ता। सूरज लगभग ढलने ही को था, और वह किसान भी थकान और कमज़ोरी से बुरी तरह से बेहाल हो चुका था। लेकिन मंज़िल को निकट देख, उसने एक अंतिम प्रयास में अपनी पूरी जी जान लगा दी। ढलते सूरज की अंतिम किरणों के ढलने से ज़रा पहिले वह मंज़िल पर पहुँच कर गिर पड़ा और गिरते ही दम तोड़ दिया। ज़मीन तो उसे दे दी गई, पर केवल उतनी, जितनी उसे दफनाने के लिए ज़रूरी थी। उसकी दौड़ खाली हाथ शुरू हुई थी और खाली हाथ ही ख़त्म हो गई। स्वार्थ में अंधा हमारा समाज अपने लालच की मृगतृषणा के पीछे, अपनी बरबादी के अंजाम से बेख़बर ऐसे ही दौड़ता जा रहा है। किसे फुर्सत है कि ज़रा रुक के सोचे कि हर कोई खाली हाथ इस दुनिया में आता है और खाली हाथ ही चला भी जाता है। इस दुनिया की भाग-दौड़ में कमाया हुआ अगर कुछ साथ जाएगा तो वह है ज़िन्दगी का हिसाब-किताब, बाकि सब तो यहीं रह जाएगा।

एक सर्वेक्षण के अनुसार, एक आम बच्चा, हाई स्कूल तक आते-आते, लग्भग बीस हज़ार घंटे के टी०वी० प्रोग्राम देख चुका होता है। इन्हीं प्रोग्रामों में वह लगभग एक लाख विज्ञापन भी देख चुका होता है। इन प्रोग्रामों और विज्ञापनों को देखकर उसका कच्चा और कोमल दिमाग़ सीखता है कि सिग्रेट पीने से शान दिखती है, शराब पीने से मस्ती आती है, यौन संबन्धों में ज़बर्दस्त मज़ा है और इसके लिए न तो शादी तक रुकने और न ही शादी की सीमओं में रहने की कोई आवश्यक्ता है। वह बचपन से ही इस झूठी शान, मौज-मस्ती और वासना की कामना अपने मन में पालने लगता है।

हम एक नये समाज की संरचना कर रहे हैं, जहाँ शादी के पहिले ४ सालों में ही ५०% दम्पतियों के पारिवारिक संबन्धों में कड़वाहट आ जाती है। आदमी ऐसी कड़वाहट, किसी न किसी रूप में, जीवन भर झेलता रहता है। हमारा सारा समाज साँप की तरह ज़हरीला होता जा रहा है। बस हम अपने स्वार्थ में ही सिमटे हुए जी रहे हैं और स्वार्थ के ग़ुलाम कभी फर्ज़ का एहसास नहीं कर पाते। हर ग़रीब और मजबूर आदमी से चाहे जो करवा लो, क्योंकि उसकी बहन, बेटी और पत्नि की इज़्ज़त को सब बिकाऊ समझते हैं। सत्य को कहने का एहसास और सत्य को सहने की क्षमता हमारे समाज में समाप्त होती जा रही है।

जहाँ इमान्दारी नहीं वहाँ बेईमानी अपने आप कानून बन जाती है। उदाहरण स्वरूप - रिश्वत देंगे तो काम होगा नहीं तो अटका रहेगा। यहाँ एक भुगतान, वहाँ एक नज़राना, यही प्रचलन है; जो इसका पालन नहीं करता वह ‘परिणाम’ भुगतता है। हमारे समाज का एक व्यवस्थित और ज़रूरी व्यवसाय ‘बेईमानी’ है। धोखे बहुत ही सस्ते हैं। हर जगह, हर माल के साथ कम से कम एक धोखा तो मुफ्त में मिल ही जाता है। एक आम धोखा है दिखावे की ईमान्दारी। अधिकांश लोगों को मक्कारी में महारथ हासिल होती है, और ऐसे मक्कार लोग ही चापलूसी कर पाते हैं। इसी चापलूसी की सीढ़ी के सहारे वे सफलता को प्राप्त करते हैं। पैसे की दौड़ में प्रेम, परिवार, फर्ज़, आदर्श सब कहीं पीछे छूट गये हैं।

सौ सालों में संसार इतना ज्ञानी हो गया है कि आज्ञानता के कामों की सारी सीमाएं लांघ गया है। हमारे धर्म गड़बड़ा गये हैं। वे आदमी को आदमी से जोड़ने की बजाए तोड़ने में लगे हैं। धर्म ने धर्म के नाम पर मानवता की हत्या कर डाली है और आदमी को हत्यारा बना डाला है। धर्म ने धर्म के नाम पर ही हमारे मनों में प्रेम नहीं वरन बैर बोया है और इस बैर भाव ने हमारे विवेक को अंधा कर डाला है। परमेश्वर तो सिर्फ एक ही है और वह सबका है। जैसे हमारे पास एक ही सूर्य है और वह सबका है, सबको प्रकाश देता है। न वह स्वदेशी है न विदेशी। न ही अमरीकन है न अफ्रीकन, न हिन्दू है न मुसलमान। अगर हम कहने लगें ‘सूर्य’ हमारा है, ‘सन’ तुम्हारा है, ‘आफ़ताब’ मुसलमानों का है, और इस बात के पीछे लड़ने-मरने पर उतारू हो जाएं, तो क्या यह निहायत ही बेवकूफ़ी नहीं है? क्या हमने अपनी सामन्य बुद्धी भी किसी दुष्ट महाजन के पास गिरवी रखवा दी है? परमेश्वर एक है और वह सबका है। वह सबको प्यार करता है और कोई फर्क नहीं करता। फर्क तो सिर्फ आदमी की सोच में है।

धर्म ने बड़ा भ्रम पैदा कर रखा है और हमारे दिमाग़ों में नफरत और बँटवारे की ऊँची दीवारें खड़ी कर दीं हैं। नफरत की इन ऊँची दीवारों के सामने, आदमी बहुत बौना हो गया है। हमारे नेताओं ने इन ऊँचीं दीवारों पर काँच के टुकड़े बिछा दिए हैं। अब कोई हाथ बढ़ाकर तो देखे। इन्हीं धर्मों ने इन्सानियात की जड़ों में सामप्रदायिक्ता का ज़हर भरकर इन्सान को हैवान बना दिया है। परमेश्वर किसी ख़ास धर्म के दायरे में लोगों को प्यार नहीं करता। उसने सारे जगत से एक समान और एक सा प्यार किया। आप किसी भी धर्म के क्यों न हों, परमेश्वर के लिए इसका कोई महत्व नहीं है। संसार में करोड़ों लोग इसाई धर्म को मानने वाले हैं। वे हर इतवार को अपनी हाज़िरी दर्ज कराने गिरजे में जाते हैं। इनके पास इसाई ‘धर्म’ है पर अधिकांश के जीवन में मसीह बिलकुल नहीं है। यदि सच्चाई जीवन में नहीं है तो धर्म का क्या अर्थ रह जाता है? अधर्म की कमाई का एक हिस्सा धर्म के कामों में लगाकर आप धर्मी नहीं बन जाते। वैसे भी, अधिकांश्तः दान देने का काम तो नाम कमाने के लिए ही किया जाता है। लालाजी ने अपने सामने अपने ईश्वर की फोटो लगा रखी है, वे उसके आगे अपना सिर झुकाकर बेईमानी करना शुरू कर देते हैं, इस विश्वास में कि उनका इश्वर उनकी सहायता करेगा, बेईमानी करने में भी और पकड़े जाने पर छुड़ाने में भी।

कुछ तो ऐसे हैं कि आप उन्हें ज़रा सही बात समझा कर तो देखें, आपको तुरन्त ‘बाज़ारु’ भाषा में उनसे जवाब मिलेगा, “हाँ हम तो ऐसे ही हैं, बताओ आप क्या करोगे? मेरे भविष्य को तय करने वाले आप कौन होते हो? आपको मुझे भला-बुरा बताने की ज़रूरत नहीं है। मेरी ज़िन्दगी है, मैं अपने ढंग से जीना चाहता हूँ, आपसे मतलब?” आपको ऐसा लगेगा जैसे उसे भली बात बताकर आपने ततईयों के छत्ते में हाथ डाल दिया हो। उन्हें तो बस अपने मतलब की बात सुनने से मतलब है। वे सिर्फ कानों की खुजली मिटाना चाहते हैं, अन्दर का पाप नहीं। एक दफा एक डॉक्टर साहब शराबियों की एक सभा में उन्हें समझा रहे थे कि शराब पीने के कैसे-कैसे बुरे परिणाम होते हैं। डॉक्टर सहिब ने अपनी बात प्रमाणित करने के लिये काँच के एक बर्तन में शराब भरी और दूसरे में पानी, फिर एक केंचुआ लिया और उसे पानी भरे बर्तन में डाल दिया। केंचुआ बड़े आराम से पानी में तैरने लगा। फिर उन्होंने उस केंचुए को पानी से निकाल कर शराब भरे बर्तन में डाल दिया। उसमें डालते ही केंचुआ टुकड़े-टुकड़े होकर गल गया। डॉक्टर साहब ने समझाया कि शराब से कैसे भयानक परिणाम होते हैं। तब डॉक्टर साहब ने वहाँ बैठे एक शराबी से पूछा, “क्यों जनाब अब आप समझे कि शराब हमारे पेट में जाकर क्या करती है?” शराबी खड़ा होकर बोला, “हाँ डॉक्टर साहब, मैं समझ गया कि शराब हमारे पेट में जाकर क्या करती है - ये हमारे पेट में पल रहे सारे कीड़े मार देती है!” डॉक्टर साहब ने अपना सिर पकड़ लिया।

मियाँ मानव की खोपड़ी कूड़ादान है जिसमें सब तरह की गन्दगी भरी पड़ी है। बस मुँह का ढक्कन खुलते ही बदबू बाहर बहने लगती है। मानव मन बुराई से बुरी तरह से बंधा है। लेकिन वह अपने दोष मानने की बजाए उन्हें दूसरों पर थोपने में लगा रहता है। ज़रा सोचिए, क्या दूसरों पर दोष थोपने से अपने दोष दूर हो सकते हैं? इससे हमारे अंदर के छिपे अहंकार को तुष्टी प्राप्त होती है। हर बात में दोष ढूंढना कुछ लोगों की आदत है। वे हमेशा अपने दिमाग़ की बत्ती बुझाकर देखते हैं। वे सूरज को भी दोषी ठहरा देते हैं, कहते हैं कि सूरज काली परछाईयों को पैदा करने के लिए निकलता है। सब सवालों को एक तरफ सरका कर हमारा अहंकार अड़ा खड़ा रहता है। अपने को सही साबित करने में लगे रहते हैं, पर अपना दोष मानने को तैयार नहीं होते। पति-पत्नियों में देखिए कि वे कैसे एक दूसरे में दोष ढूँढते रहते हैं, और एक दूसरे पर दोष देने के मौके नहीं चूकते। वे अपनी किस्मत को तो कोसते हैं, वे अपना घर तोड़ने को तो तैयार रहते हैं, उनके मासूम बच्चे, उनके अभद्र सामजिक व्यवहार की शर्म की पीड़ा को ढोते हैं, पर वे अहंकार को छोड़ एक दूसरे से क्षमा माँगने को तैयार नहीं होते।

हो सकता है कि आपके पारिवारिक रिशते ऐसी ही समस्याओं से निकल रहे हों। आपके परिवार में सुख के सिवाए सब कुछ हो। ऐसे ‘सब कुछ’ के होने का क्या अर्थ रह जाता है? कभी-कभी तो कोई भी अपना नहीं लगता। लगता है कि सब मतलब से ही साथ लगे हैं। मन में बहुत सूनेपन और उदासी का एहसास पनपता है और अपनों से भी विश्वास खिसक जाता है। आदमी चिंताओं से घिरा चिता तक चला जाता है। वह लगतार जीवन में पतझड़ को ही जीता है। मनचाही होती नहीं, बस अनचाही घटती है। बात-बात में विफलता, निराशा और खिसियाहट ही मिलती है। ऐसे में मौत माँगती ज़िन्दगियों की कमी नहीं जो आत्महत्या कर लेना चाहती हैं, या फिर सब कुछ छोड़कर कहीं भाग जाना चाहती हैं। लेकिन चाहे परिवार छोड़ दो, पत्नि छोड़ दो, रिशते छोड़ दो, सब कर लो; फिर भी चैन नहीं मिल पाएगा। यह सच है कि गधा कभी आदमी नहीं बनेगा, पर आदमी रोज़ गधा बनकर जीता है। इतने कामों के बोझ में दबीं, सड़कों की भीड़ में मरती-खपती ये बेचैन ज़िन्दगियां, सुकून कैसे और कहाँ पाएंगी? ऐसे जीवन से थके हुए लोगों से प्रभु कहता है, “हे थके और बोझ से दबे लोगों मेरे पास आओ, मैं तुम्हें चैन दूँगा (मत्ती ११:२८)।” वह धर्म देने की बात नहीं करता।

शायद आप बहुत जलदी गुस्सा खाने वाले व्यक्ति हैं। एक नंगी नागफनी सा स्वभाव है, जिसे कोई छू कर तो देखे। यह गुस्सा आपके अन्दर की कहानी कहता है कि आप अन्दर से कितने कमज़ोर हैं, आप में काबू रखने की ताकत नहीं है। जब आदमी अपशब्द या गाली बकते हैं तब सन्देश देते हैं कि वे अपने पर से नियंत्रण खो चुके हैं। शायद दुखों ने दीमक की तरह आपके जीवन को खोखला बना दिया हो। इस साल आपके स्वासथ्य नें आपका साथ न दिया हो, रोज़गार गड़बड़ा गया हो या फिर आपके प्रीय जनों में से कोई आपके साथ न रहा हो। जब तक आप यहाँ हैं तब तक परेशानियों और मुश्किलों का अन्त नहीं है। अभी तो बहुत सारी अनहोनी होनीं बाकी हैं। लेकिन परमेश्वर आपके दिल की टीसती परेशानियों को बहुत पास से पहिचानता है, उनसे आपको आराम भी देना चाहता है।

हम कितनी ही परतों और परदों के पीछे अपने अन्दर के असली आदमी को छिपाए रहते हैं, पर परमेश्वर तो हमें अन्दर तक जानता है। वह जानता है कि हम सबने पाप किए हैं और यही पाप हमारी सारी बेचैनी व परेशानी के कारण हैं। बुराई से भरा मन बुराई उगलेगा और बुराई झेलेगा। आपको एक बदलाव की ज़रूरत है, बुराई और पाप से भरे मन को बदलने की ज़रूरत है, जीवन बदलने की ज़रूरत है, धर्म बदलने की नहीं। शायद आप पर यह परम सत्य उजागर नहीं हुआ कि प्रभु यीशु ही परमेश्वर है। जैसे सूर्य एक है और वह सबको एक सा प्रकाश देता है, वैसे ही प्रभु यीशु भी एकमात्र परमेश्वर है। प्रभु यीशु ने कहा, “मैं जगत की ज्योति हूँ (यूहन्ना ८:१२)।” यह ज्योति हमारे अन्दर की असली हालत को उजागर करती है। पाप का अन्धकार कितना ही गहरा और पुराना क्यों न हो, ज्योति के सम्मुख ठहर नहीं पाता। आपकी ज़िन्दगी चाहे कितने अन्धेरों से क्यों न गुज़री हो, ज्योति को स्वीकारते ही सारे अन्धेरे दूर हो जाते हैं। जब ज्योति मन में आती है तो पाप का अन्धेरा फिर ठहर नहीं पाता।

यह बात सच और मानने के लायक है, क्योंकि पवित्रशास्त्र कहता है कि यीशु पापों की क्षमा देने के लिए ही आया है। सब पापों की सम्पूर्ण क्षमा देने की क्षमता प्रभु यीशु में ही है। जैसे ही आप पाप से क्षमा पाएंगे, वैसे ही पाप की सज़ा से भी मुक्त हो जाएंगे। जब तक आदमी अपने पाप से जुड़ा है तब तक वह बेचैनी से, परेशानी से और अपने विनाश से से जुड़ा है। जब तक जीवन में दोष होगा, तब तक कभी सन्तोष नहीं होगा। आदमी रोष से, विरोध और बेचैनी से भरा रहेगा। पैसे से, शक्ति से भले ही हम गिरजे, मस्जिद, और मन्दिर बनवा सकते हैं,पर भले और प्यार करने वाले लोग कभी भी पैदा नहीं कर सकते। टैक्नोलोजी जीवन में सुविधाएं तो पैदा कर सकती है, अच्छी शिक्षा और अच्छी नौकरी भी दे सकती है, पर अच्छी ज़िन्दगी कदापि नहीं दे पाएगी। क्या किसी ने कभी सिर्फ यश, पद और पैसा पाकर शान्ति और सन्तोष पाया है?

डर हर इन्सान के जीवन में हमेशा रहता है। कुछ हो जाने का डर, मन की छिपी बात खुल जाने का डर, हर हाल में हार जाने का डर, जीने में भी मर जाने का डर। कहा जाता है कि एक राजा था। जब उसकी उम्र मौत के निकट सरकने लगी तब उसे मौत का डर सताने लगा। मौत से बचने के लिए उसने एक ज़बरदस्त सुरक्षित महल बनवाया जहाँ चिड़िया भी पर नहीं मार सकती थी। जब राजा बाहर से उस महल का निरीक्षण कर रहा था, तो सड़क पर खड़ा एक फकीर राजा को देखकर हंस रहा था। राजा ने उसे बुलवाया और पूछा कि वह क्यों हंस रहा है, फकीर बोला, “जिस मौत के डर से तू ने यह महल बनवाया है, वह मौत तो बड़े आराम से अन्दर पहुँच कर तुझे मार जाएगी”। हो सकता है आप मौत के वार से कई बार बच निकले हों, पर ऐसा नहीं कि हर बार मौत का वार खाली ही जाएगा। मौत एक सच्चाई है और आपको उसका सामना करना ही है। मौत के बाद क्या होगा, यह एक सवालिया चिन्ह नहीं सवालिया मीनार है। मौत के बाद भी एक भविष्य है। परमेश्वर का परम सत्य वचन कहता है “मनुष्य का एक बार मरना फिर न्याय का होना नियुक्त है (इब्रानियों ९:२७)।” आखिर बचकर कहाँ भागोगे? सब छिपे और खुले पापों का हिसाब होगा। मौत ही भयानकता नहीं, बलकि पापों के साथ मौत में जाने वालों के लिए असली भयानकता तो मौत के बाद है!

प्रभु यीशु के बारे में हमारे दिमागों में पुरानी परतें चढ़ी हुई हैं। हर बार यीशु का नाम लेते ही इसाई धर्म, विदेशी धर्म, धर्म परिवर्तन इत्यादि विचार उछल कर सामने आते हैं। यीशु प्रभु आपका धर्म नहीं आपका जीवन बदलता है। ‘धर्म’ के डर को मत पकड़े रहिए, अन्यथा जीवन भर डर में ही जीएंगे, डर में ही मरेंगे और अन्त में एक डरावनी जगह ही पहुँचेंगे। प्रभु यीशु कहता है “मत डर, मैं तुझे...बनाऊंगा (मत्ती ४:१९)।” पापों की क्षमा मांगने में क्या बुराई है? क्षमा मांगने में डर क्यों लगता है? यह डर हमें कुछ करने नहीं देगा। बस आप सच्चे मन से एक प्रार्थना “प्रभु यीशु मेरे पाप क्षमा करें” जहाँ भी, जैसे भी हों कर के देखें। क्या आप कभी अकेले में अपने आप से मिले हैं? क्या आपने अपने अन्दर की यात्रा की है? क्या आपने अपने अन्दर का हिसाब-किताब देखा है? क्या आपने अपने विवेक का कभी सामना किया है? करके देखिए, आप पाएंगे कि हमारा विवेक हमें और हमारे मन को अपनी अदालत में खड़ा करके दिखाता है कि मन कितनी गन्दगी से, जलन से, बदले की भवना से और विरोध से भरा है। वह दिखाता है कि हम कैसे झूठे, मक्कार और धोखेबाज़ हैं। हमने कितने गन्दे काम छिप-छिप कर किये हैं, कितनी रिश्वत दी और ली है, कैसा व्यभिचार और दोगलापन हमारे अन्दर भरा है। कितनी निराशा और बेचैनी अन्दर भरी है। आप बहाने बना सकते हैं- कुछ नहीं होता इतना तो चलता है, सभी तो करते हैं ये तो दुनिया का दस्तूर है, इनके बिना काम कैसे चलेगा इत्यादि-इत्यादि। आप खतरे से खेल रहे हैं, अपने आप से झूठ बोलना सब से खतरनाक बात है। जब प्रभु यीशु ने आपके आगे क्षमा रखी है, आशीष और आनंद रखा है तो फिर क्यों श्राप और बेचैनी से बंधे खड़े हैं? सिर्फ एक प्रार्थना से सारे श्राप आशीष में बदल डालिए। एक बार पुकार कर तो देखिए “हे प्रभु यीशु मुझ पर दया कर।”

प्रभु करे कि आपका मन इस लेख के शेष भाग के अर्थों को गम्भीरता से ग्रहण कर सके। हमारे अन्दर ‘क्या’ और ‘क्यूँ’ हैं जो हमें बहुत परेशान करते हैं। “ये सब क्या है?” “अब क्या होगा?” “ऐसा क्यूँ हो रहा है?” “मेरा क्या होगा?” यह सब बातें आदमी के स्वभाव का एक हिस्सा हैं। अक्सर हमारा जीवन ऐसे ही सवालों से घिरा रहता है, और सवालों के उत्तर ढूँढने में ही असली काम के मौके हाथ से निकल जाते हैं। प्रभु यीशु के द्वारा पापों कि क्षमा की बात सुनते ही लोग ऐसे ही ‘क्या’ और ‘क्यूँ’ के सवालों में उलझना-उल्झाना शुरू कर देते हैं। उनका ध्यान अपने पापों की ओर नहीं जाता, तर्क और बहानों की ओर जाता है। साल के शुरू में दो जन आपस में बात कर रहे थे। एक बोला “यार, बहुत समय लग चुका है, कैसे भी करके इस साल तो इस काम को निपटा ही दूँगा”। विडंबना देखिए, साल निपटने से पहले, यार निपट गया। कैलेन्डर के पन्नों पर फैला यह साल भी फड़फड़ाता हुआ फुर्र से उड़ जाएगा। हम बीते सालों के साथ इस साल को भी दफन कर जाएंगे। एक मौका हर साल के साथ हमारे पास से चला जाता है। हर बात का एक समय होता है, फिर समय समाप्त हो जाता है। कुछ समय पहले आपने यह लेख पढ़ना शुरू किया था, कुछ समय में यह लेख समाप्त हो जाएगा। हर इन्सान को समय की सीमा में जीना है, अचानक ही उसके जीवन का समय समाप्त हो जाएगा और संसार से उसकी विदाई हो जाएगी।

हम आने वाले दिनों में क्या देखने वाले हैं? आने वाले कल की सच्चाई को आप बाईबल के पन्नों में आज ही पढ़ सकते हैं। बाईबल किसी धर्म विशेष का धर्मशास्त्र नहीं है बलकि यह पवित्रशास्त्र है जो सब के लिए है। ६००० साल का इतिहास गवाह है कि अनेक कोशिशों के बावजूद, बाईबल की एक बात भी कभी झूठी साबित नहीं हुई है। इस पवित्रशास्त्र के अनुसार, आने वाला समय बहुत क्रूर और डरावना होगा, दिल हिला देने वाली खबरों से भरा होगा। अभी अफगानिस्तान में हुए यद्ध के घाव भरे भी नहीं थे कि इराक में भीषण युद्ध की आग भड़क उठी है। शायद अगली बार मैं और आप इसके शिकार हों; तब पल भर में हमारे घर खंडरों में बदल जाएंगे, हमारी आँखों के सामने हमारे बच्चे बिलख-बिलख कर दम तोड़ रहे होंगे, हर तरफ तबाही होगी, हम चिल्लाएंगे पर कोई सुनने वाला नहीं होगा। एक कहर से उभर नहीं पाएंगे कि दूसरा आ पड़ेगा। आने वाली घटनाओं को देखकर लोगों के जी में जी नहीं रहेगा। आप और हम ऐसे हालात से बहुत दूर नहीं हैं। कैसे इतना सब बरदाश्त करेंगे? भयानक और लाइलाज बिमारियाँ इंतिज़ार कर रहीं हैं, इतनी दर्दनाक तकलीफें आने वाली हैं कि मारे दर्द के “लोग अपनी ज़बान चबा डालेंगे” (प्रकाशितवाक्य १६:१०)। वे मौत माँगेंगे लेकिन मौत उनसे भागेगी (प्रकाशितवाक्य ९:६)। हम विनाश के सालों में जी रहे हैं। बस इंतिज़ार कीजिए एक और भयानक खबर का। आदमी की आखिरी बरबादी शुरू हो चुकी है। ख़तरे गहरा रहें हैं, और यह ख़तरे हमसे बहुत दूर नहीं हैं। यह चेतावनी मात्र नहीं है, यह एक निश्चित भविश्य है जो भोगना है। पवित्रशास्त्र कहता है “आकाश और पृथ्वी टल जाएंगे पर मेरी बातें नहीं टलेंगी” (मत्ती २४:३५)। “उन्होंने कुशल के मार्ग को नहीं जाना” (रोमियों ३:१८)। “कोई धर्मी नहीं” (रोमियों ३:१०)। “सबने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं” (रोमियों ३:२३)। “परमेश्वर चाहता है कि सब मनुष्यों का उद्धार हो” (१ तिमुथियुस २:४) चाहे वे किसी भी धर्म, जाति या वर्ग के क्यों न हों। प्रभु यीशु कहता है “मैं चाहता हूँ तू शुद्ध हो जा” (मरकुस १:४१)। प्रभु फिर कहता है “कितनी ही बार मैंने चाहा...पर तुमने न चाहा” (मत्ती २३:३७)। कोई व्यक्ति निर्दोष कैसे हो सकता है? यदि उस दोषी व्यक्ति के दोष क्षमा हो जाएं, तो वह निर्दोष भी हो जाएगा और फिर दोष के दंड से मुक्त भी हो जाएगा। “तुम जान लो कि मनुष्य के पुत्र (अर्थात प्रभु यीशु) को पृथ्वी पर पाप क्षमा करने का अधिकार है” (मरकुस २:१०)। “अब जो मसीह यीशु में हैं उनपर दंड की आज्ञा नहीं” (रोमियों ८:१)।

पवित्रशास्त्र की सच्चाई से ज़्यादातर लोग अन्धेरे में हैं। पवित्रशास्त्र की पहली और सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि प्रभु यीशु पापों की क्षमा देने के लिए आया। उसने क्रूस पर अपने प्राण हमारे पापों की क्षमा के लिए दिए। वह मर कर तीसरे दिन जी उठा। उसका क्रूस पर बहा लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है। यदि हम इस बात पर विश्वास करें और एक प्रार्थना करें “हे प्रभु यीशु मुझ पापी पर दया कर” तो वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है (१ यूहन्ना १:९)। बाढ़, अकाल, सूखा, बेरो़ज़गारी, भूकम्प, आतंकवाद और युद्ध, किसी में कोई कमी नहीं बची है, सब बढ़ते ही जा रहे हैं। रही-सही कमी मज़हबी दंगों ने पूरी कर डाली है। आदमी का मन क्रोध, जलन, बैर, अहंकार और अशान्ति से भरा है, तभी तो हमारे घर और समाज और देश कलह, झगड़ों और परेशानियों से भरे हैं।

कहीं यह कहानी आपकी और आपके घर की तो नहीं? कहीं आप अपने बारे में तो नहीं पढ़ रहे हैं? कहीं ये बातें आपको कुरेद तो नहीं रहीं हैं? कहीं आपका विवेक आपको कुछ याद तो नहीं दिला रहा है? कहीं आपका अहंकार आपको अपने पाप स्वीकारने से रोक तो नहीं रहा है? कहीं किसी व्यक्ति के द्वारा मन में बैठाया कोई झूठा तर्क या डर आपको पाप क्षमा मांगने से तो नहीं पलट रहा है? यदि हाँ तो स्मरण रखिए , आपको किसी नए धर्म की कोई आवश्यकता नहीं है, सिर्फ पापों की क्षमा की आवश्यक्ता है। अपने पाप और उसके भयानक अंजाम को हमेशा के लिए विदाई देने को आपको केवल एक छोटी प्रार्थना सच्चे दिल से करनी है “ हे यीशु मुझ पापी पर दया कर, मेरे पाप क्षमा कर।” इस क्षमा को प्रभु यीशु से लेने का फैसला भी आप ही को करना है और न लेने का अंजाम भी आप ही को भुगतना है।

मंगलवार, 26 मई 2009

सम्पर्क अप्रैल २००३: मैं अकेला नहीं

मेरा नाम सतीश है और मैं मेरठ का रहने वाला हूँ। अपने परिवार में मैं अकेला ही लड़का था। जब मैं पाँच वर्ष क था तब मेरी माँ चल बसी। उसके बाद पिताजी ने दूसरी शादी करी जिससे उनके दो बच्चे और हुए। कुछ समय तो ठीक-ठाक चला, फिर माँ और पिताजी के बीच काफी झगड़े होने लगे। उसी दौरान हमारे मकान में एक किराएदार दम्पति रहने लगे। उनके पास भी कोई सन्तान नहीं थी। कुछ समय बाद वह किराएदार चल बसा; और माँ-पिताजी के बीच झगड़े इतने बढ़े कि माँ अपने मायके चली गयी। किराएदार के मरने के बाद पिताजी ने उसकी पत्नि के साथ सम्बंध बढ़ाने शुरू कर दिये और बात शादी तक आ गयी। जब माँ को पता चल तो वह अपने परिवार के साथ आई और मार-पीट तक हुई। सबने पिताजी को समझाया, लेकिन उन्होंने किसी की नहीं मानी और तीसरी शादी भी कर ली। कुछ समय बाद पिताजी का भी देहाँत हो गया। अब यह जो तीसरी माँ थी, घर का जो भी कीमती सामान था, सब बेचकर अपने घर चली गयी।

अब, १५ वर्ष की उम्र में, मैं अकेला रह गया। क्योंकि मुझे कोई कहने-समझाने वाला नहीं था, मेरी संगति बुरे लड़कों से होने लगी। लड़ाई-झगड़ा करना, शराब पीना, जुआ खेलना, चोरी करना- यह सब आदतें मुझे लड़कपन से ही लग गयीं और बढ़ती गयीं। मेरी बूआ को मुझ पर तरस आया और वह मुझे अपने गाँव ले गयीं। वहाँ भी मेरे अन्दर कोई सुधार नहीं आया। तब परिवार में यह फैसला हुआ कि मेरी शादी कर दी जाए, और १६ वर्ष की उम्र में ही मेरी शादी हो गयी। मेरे भी दो बच्चे, एक लड़का और एक लड़की पैदा हुए, लेकिन मेरी बुरी आदतों के कारण मेरी पत्नि अपने घर चली गयी। मैं बहुत खुश हुआ क्योंकि अब कोई रोक-टोक नहीं थी। मैं मौज मस्ती करता और सोचता था कि अगर वह नहीं आएगी तो और बहुत सी हैं। इस तरह मैं भी अपने बाप के नक्श-ए-कदम पर चलने में लगा हुआ था। हुआ यही कि पत्नि के घर वालों ने एक साल इन्तज़ार करके, उसकी शादी दूसरी जगह कर दी। समय बीतता गया, मैंने दूसरी शादी कर ली, फिर तीसरी शादी भी कर डाली।

बुरे कामों के कारण मुझे १९८९ में जेल भी जाना पड़ा। क्योंकि मुझ पर आतंक्वाद का केस लगा था, इसलिए मुझे कुछ निश्चित नहीं था कि मैं जेल से कब निकलूँगा, ५ साल में या १० साल में, या निकलूँगा भी कि नहीं। यही सोच कर मैंने अपनी पत्नि से कहा कि मेरा कोई भरोसा नहीं, मेरी मानो तो तुम दूसरी शादी कर लो। उसने कहा, चाहे कुछ भी हो मैं इन्तज़ार करूँगी, और इस तरह उसने मेरा पूरा साथ दिया। मेरे जेल जाने से मेरे कुछ रिशतेदार बहुत परेशान थे, वहीं कुछ खुश भी थे कि अब तो यह जेल में ही मर जाएगा क्योंकि ज़्यादा शराब और सिग्रेट के सेवन से मेरे फेफड़े खराब हो चुके थे। जेल में मैं कई देवताओं की पूजा-अर्चना बड़ी लगन से करने लगा। ३४महीने बाद मैं जेल से बाहर आया। अब बुरा ही करने की कई योजनाएं मेरे अन्दर थीं। परन्तु मेरी पत्नि ने मुझे समझाया और मुझे मेरी लड़की की कसम दी। तब हम गाँव छोड़कर दिल्ली चले गये। वहाँ एक फैकट्री में मुझे काम मिल गया लेकिन अपने क्रोध के कारण मैं वहाँ भी रह नहीं पाया। तब मैं मेरठ अपने गाँव वापस आ गया। यहाँ भी अपने क्रोधी स्वभाव के कारण मैं कहीं भी किसी काम में टिक नहीं पाया। जो भी मैंने थोड़ा बहुत कमाया था, वह सब दो साल तक खाली बैठकर खर्च कर डाला, बल्कि ऊपर से और कर्ज़ भी हो गया। अब मैं बहुत परेशान था कि क्या करूँ?

तभी एक भाई मेरे पास आया और कहने लगा, “क्या तुम रूड़की में होने वाली एक सभा में चलोगे?” मैंने कहा, “तुम मेरी हालत जानते हो, मेरे पास किराया-भाड़ा कुछ भी नहीं है।” उसने कहा, “किराए की चिंता मत करो, सब प्रबंध हो जाएगा, बस तुम चलो।” ३१ दिसम्बर की सुबह वह भाई मेरे पास फिर आया और बोला कि अपने परिवार को भी साथ ले चलो। मैंने सोचा कि चलो, वहाँ रोटी तो मिल ही जाएगी।

सभा शुरू हुई, और परमेश्वर के वचन यूहन्ना ५:२ ने मुझ से बात की, जिसमें एक कहानी थी कि एक कुण्ड था, उसके पास बहुत से बीमार इस आशा में पड़े थे कि कब उस कुण्ड का पानी स्वर्गदूत के द्वारा हिलाया जाए। पानी हिलते ही जो कुण्ड में पहिले उतरता, उसकी चाहे जो बीमारी क्यों न हो वह चंगा हो जाता था। वहाँ एक मनुष्य था जो ३८ वर्ष से इस उम्मीद में था कि पानी हिलने पर कोई उसे भी उस कुण्ड में उतार दे, लेकिन किसी को उस पर तरस नहीं आया। प्रभु यीशु को उस पर तरस आया और प्रभु ने उससे पूछा, “क्या तू चंगा होना चाहता है?” उसने कहा हाँ; तब यीशु ने कहा, “अपनी खाट उठा कर चल फिर।” उसी समय वह बीमार चंगा हो गया। मुझे लगा कि यह सब बातें तो मेरे जीवन में हैं; क्योंकि मेरे जीवन में तो पाप ही पाप था जो एक तरह से बीमारी ही थी। संदेश के अंत में प्रचारक ने निमंत्रण दिया कि जो कोई प्रभु यीशु के सामने अपने पाप मानना चाहता है वह अपना हाथ दिखा दे। मैंने तुरंत अपना हाथ ऊपर कर दिया। भाई ने प्रार्थना की और प्रभु ने उसी समय मेरे पाप क्षमा कर दिए। उस समय पाप क्षमा होने का वह अदभुत अनुभव मुझे आज तक है। फिर उसी समय एक भाई से मुलाकात हुई और उस भाई ने मुझे अपने सीने से लगा लिया। यह सब देखकर मेरी आँखों में आँसू आ गये। फिर एक भाई की गवाही सुनी। सब कुछ अलग था, इससे पहिले मैंने ऐसा कहीं नहीं देखा था। मुझे बहुत अच्छा लगा और उसी समय मैंने फैसला किया कि मैं इन लोगों के साथ ही रहूँगा। फिर जहाँ भी प्रभु की प्रार्थना सभा होती मैं वहीं जाने लगा।

कुछ दिनों बाद प्रभु की दया हुई और मेरी सिलाई की दुकान भी खुल गयी और सबसे अच्छी बात यह हुई कि संगति हमारे घर पर ही होने लगी; जो प्रभु की दया से आज तक बनी है। मेरे घर में प्रभु ने शांति, आनंद और आशिष दी। अब मैं और मेरा परिवार आनंद से रह रहे हैं, लेकिन कभी-कभी घर में क्रोध आ जाता है और गवाही को खराब करता है। इसलिए मेरे और मेरे परिवार के लिए प्रार्थना कीजिए। अब अंत में मैं यह कहना चाहता हूँ कि जो मैंने अब तक अनुभव किया है, मेरे और हर एक विश्वासी के जीवन के लिए ज़रूरी है कि - संगति में बने रहें, रविवार की आराधना में अवश्य सम्मिलित हों, प्रभु के भय में रहें और प्रभु की गवाही भी दें।

सोमवार, 25 मई 2009

सम्पर्क अप्रैल २००३: जबकि मैं देखता नहीं था, तौभी मैंने देखा

मेरा नाम जगदीश है और मेरा जन्म एक गौड़ ब्राह्मण घराने में हुआ। मैं अपने माता-पिता की बुढ़ापे की सन्तान हूँ। शारीरिक रीति से मेरे माता-पिता सन्तान पैदा करने के योग्य नहीं थे। बुढापे की सन्तान होने के नाते, तथा पाँच बहिनों के बाद पैदा होने के कारण मैं अपने परिवार का लाड़ला बच्चा था। छोटी उम्र में ही मेरी माताजी का देहाँत हो गया। साढ़े छः साल की उम्र में मेरी आँखें जाती रहीं। इसके बावजूद भी मैंने अपनी पढ़ाई ज़ारी रखी।
शुरू से ईश्वर प्राप्ति में मेरी बहुत आस्था थी। मैं छोटी उम्र से ही एक समय भोजन करता और बहुत समय विभिन्न देवी-देवताओं के सामने पूजा-अर्चना किया करता था। मैंने कोई ऐसा तीर्थ स्थान नहीं छोड़ा जहाँ मैं अपनी शान्ति तथा ईश्वर प्राप्ति के लिए नहीं गया। मेरी इन्हीं बातों को लेकर मेरे पिताजी काफी चिन्तित थे, क्योंकि मेरी छोटी उम्र से ही ये बातें उन्हें अटपटी लगती थीं। गाँव वाले सभी मुझे एक धार्मिक भक्त मानते थे, लेकिन मैं जानता हूँ मैं कैसा भक्त था। बाहरी तौर से तो मैं धार्मिक भक्त था परन्तु भीतरी जीवन बहुत गंदा और मक्कारी से भरा हुआ था। इतनी भक्ति और पूजा-अर्चना के बाद भी मेरे जीवन में कोई शान्ति नहीं, कोई आनन्द नहीं और कोई ईश्वर का भय नहीं था, यानि मैं एक पाखंडी जीवन जी रहा था। कुछ समय बाद मेरे पिताजी की भी मृत्यु हो गयी और मैं शारीरिक और आत्मिक, दोनों रीति से यतीम हो गया। परन्तु मेरी यह इच्छा हमेशा रही कि सच्चा ईश्वर कौन है और मैं उसे कैसे जानूँ?


मेरी शादी भी हो गयी और मेरा पहिला बच्चा एक मसीही नर्सिंग होम में पैदा हुआ। वहाँ मैंने उन लोगों से मसीही प्रेम के बारे में कुछ जनकारी ली। नौ महीने तक मैं उनके मसीही सत्संग में इस इच्छा से जाता रहा कि देखें वहाँ और हमारे यहाँ में क्या फर्क है। बहुत बातों में मैंने उन से वाद-विवाद भी किया। मसीही लोगों के कहने पर मैंने एक बाईबल भी खरीद ली। जब वे लोग पूछते थे कि क्या बाईबल पढ़ते हो तो मैं बोलता था कि हाँ पढ़ता हूँ, जबकि मैंने उसे एक चमड़े की अटैची में बंद करके रखा हुआ था और पढ़ता नहीं था। एक रात मेरी पत्नि मुझ से यह कह कर सोई कि यीशु के मानने वालों के पास मत जाओ नहीं तो वे तुम्हें भी अपने जैसा ही कर देंगे और बच्चों के ब्याह-शादी भी नहीं होंगे। मैं उसकी इस बात पर बहुत हंसा, क्योंकि बात मूर्खता की थी, और अपनी पत्नि को यह कह कर चुप करा दिया कि अभी से सवा महीने की बच्ची की शादी की चिंता? फिर भी मैंने कहा, ठीक है, मैं उनके पास नहीं जाऊंगा।

२५ नवम्बर १९८३ की बात है, सुबह चार बजे किसी ने मेरा दरवाज़ा खट-खटाया। मैंने दरवाज़ा खोला तो बाहर कोई भी नहीं था। दोबारा फिर ऐसा ही हुआ, लेकिन फिर बाहर कोई भी नहीं था। अब तीसरी बार, मेरा नाम “जगदीश” लेकर, दरवाज़ा खट-खटाया गया। जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला तो मेरा कमरा चकाचौंध कर देने वाली रौशनी से भर गया। अब मैं था और एक मधुर आवाज़ थी। वहाँ न कोई आकृति थी, न कोई रंग और रूप था, बस वह रौशनी और आवाज़ थी। मेरी पत्नि को इस घटना के बारे में कुछ ख़बर नहीं थी। मैं बहुत भयभीत था, परन्तु उस आवाज़ ने जान लिया कि मैं डरा हुआ हूँ और उसने कहा “मत डर”। मैं रो पड़ा और पूछा, “महराज आप कौन हैं?” उस आवाज़ ने कहा, “तसल्ली रख, मैं बताऊंगा कि मैं कौन हूँ। बाईबल निकल और पढ़”। मैंने कहा, “महराज मैं देख नहीं सकता”, उस आवाज़ ने कहा, “क्या अब भी तुझे मेरी ज्योति पर शक है?” मैंने फिर कहा, “महाराज, मैं पढ़ नहीं सकता, मैं कहाँ से पढ़ूँ नहीं जानता”। उसने प्रश्न किया, “तू मेरे लोगों से तो कहता है कि मैं पढ़ता हूँ?” मैंने कहा, “महाराज मैं झूठ बोलता हूँ”। जब मैंने बाईबल निकल कर खोली तो उस आवाज़ ने कहा “यूहन्ना १४:६ पढ़”। जबकि मैं देख नहीं सकता था, तौभी बाईबल के बारीक और काले अक्षर मुझे डेढ़-दो फुट लम्बे और लाल स्याही से लिखे हुए दिखाई दिये, वहाँ लिखा था - “यीशु ने कहा मार्ग, सत्य और जीवन मैं ही हूँ। बिना मेरे द्वारा कोई पिता (परमेश्वर) के पास नहीं पहुँच सकता” (यूहन्ना १४:६)।

इस पद (यूहन्ना १४:६) का पढ़ना था कि मैं अपने जीवन में अदभुत आनन्द और अदभुत शांति महसूस करने लगा। मैं एक और विशेष किस्म की अनुभूति अपने अन्दर अनुभव करने लगा, कि मेरा तमाम बनावटीपन और मक्कारी का जीवन सच्चाई में बदल रहा है। जिन्होंने मेरे इस पहिले जीवन को देखा था, अब वे मुझ में बदलाव देखते थे। जो आवाज़ मुझे सुनाई दी थी, वह प्रभु यीशु मेरे पास चल कर आए थे। उन्होंने मुझे मेरे पापों से धो कर मुझे शुद्ध कर दिया, मुझे सच्ची शांति दी और नरक की आग से बचा कर मुझे अनन्त जीवन दे दिया। मेरा बपतिस्मा २६ मई १९८४ को फरीदाबाद में हुआ। उसी समय एक भाई ने प्रभु के वचन बाईबल में से एक प्रतिज्ञा दी “मेरे माता-पिता ने तो मुझे छोड़ दिया है, परन्तु यहोवा (परमेश्वर) मुझे सम्भाल लेगा (भजन संहिता २७:१०)” जबकि वह भाई मुझे व्यक्तिगत रीति से नहीं जानते थे। प्रभु के इस वचन से मुझे इतना आनंद मिला कि आनंद के मारे मैं एक तरफ जाकर फूट-फूट कर रोया। मेरे जीवन के ऐसे बहुत सारे अनुभव मेरे पास हैं, जब मैं अपने पिछले जीवन से उनको मिला के देखता हूँ तो मुझे पता चलता है कि प्रभु की दया दृष्टि मुझ पर बचपन से ही थी, इसीलिए प्रभु ने मुझे उद्धार देने के लिए जीवित रखा।

प्रिय पाठक, यदि आप भी अनन्त जीवन पाना चाहते हैं तो प्रभु यीशु के पास आएं।

रविवार, 24 मई 2009

सम्पर्क अप्रैल २००३: संपादकीय

प्रभु यीशु की बड़ी दया से एक बार फिर सम्पर्क आपके सम्मुख आ पाया है। यह प्रभु के पवित्र पात्रों की प्रार्थनाओं का उत्तर है। सम्पर्क का सम्पादकीय तो केवल चौंकन्ना करने के लिए एक चौकीदार की चेतावनी मात्र ही है।
सोच
वास्तव में वचन तब ही काम करता है जब वह हमारे जीवन में उतर जाए। वरना तो वचन बाईबल के काग़ज़ी पन्नों पर ही रह जाता है। जैसे ही यह जीवित वचन हमारे जीवन में उतरने लगता है, हमारा जीवन उभरने लगता है।
एक कहानी है: एक गैस के गुब्बारे बेचने वाला अक्सर जब बच्चों से घिरा होता तब एक गैस भरा गुब्बारा हवा में छोड़ देता। गुब्बारे को हवा में लहराता हुआ ऊपर को उठता देख, बच्चे बड़े आतुर होकर उससे गुब्बारे खरीदते और उसकी आमदनी बढ़ जाती। एक दिन जब उसने ऐसा ही किया तो एक छोटे बच्चे ने पीछे से उसकी कमीज़ खींची, गुब्बारे वाले का ध्यान अपनी ओर करके उसके गुब्बारों की ओर इशारा किया और बड़ी मासूमियत से पूछा, “भईया क्या ये काला गुब्बारा भी ऐसे ही ऊपर उड़ सकता है?” गुब्बारे वाले ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बेटा, गुब्बारा अपने रंग से नहीं, पर जो उसके अन्दर भरा है, उससे ऊपर ऊड़ता है।” यही बात हमारे जीवन पर भी लागू होती है, जो अन्दर भरा है, वो ही हमें दिशा प्रदान करता है- संसार हमें नीचे अपनी ओर खींचता है और परमेश्वर का वचन हमें जीवन की ऊंचाईयों की ओर अग्रसर करता है।


ज़्यादतर विश्वासी एक ऐसा परमेश्वर चाहते हैं जो उनके मन के अनुसार उनकी इच्छाएं पूरी कर सके। जो इच्छाएं उनके अन्दर होती हैं, वही उनकी प्रार्थनों में भी बाहर आती हैं। पर परमेश्वर ऐसे लोगों को खोजता है जो उसके मन के अनुसार हों और जो उसकी इच्छा पूरी करना चाहते हों। हमारे प्रभु ने स्वयं के लिए प्रार्थना की-“हे पिता मेरी नहीं पर तेरी इच्छा पूरी हो।” चेलों को भी जो प्रार्थना उसने सिखाई, उसमें कहा, “जैसे तेरी इच्छा स्वर्ग में पूरी होती है, पृथ्वी पर भी हो।”

दाऊद परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति था। अपने लड़कपन से ही उसका विश्वास अपने परमेश्वर पर दृढ़ था। जब इस्राइलियों का सामना फिलिस्तियों की सेना से हुआ, तो ४० दिन तक एक गजराज सा विशाल फिलस्ती जिसका नाम गोलियत था, उन्हें ललकारता रहा और उन्का मज़ाक उड़ाता रहा। पर किसी इस्राइली में उसका सामना करने की हिम्मत नहीं थी। वे तो बस गोलियत को देखकर डरते और काँपते ही रहे, क्योंकि पूरी इस्राइली कौम की सोच में शक था, किसी को भी अपने परमेश्वर पर और उसकी सामर्थ पर विश्वास नहीं था। क्योंकि उनकी सोच सही नहीं थी, इस लिए कुछ करने की शक्ती भी उन्में नहीं थी। परन्तु परमेश्वर के प्रति सही सोच रखने वाले दाऊद ने, गोलियत की तुलना में कद और उम्र में बहुत छोटे होने और युद्ध विद्या में निपुण न होने के बावजूद भी, केवल परमेश्वर पर अपने विश्वास की सामर्थ से गोलियत को परास्त किया और इस्राइलियों को एक बड़ी विजय दिलवाई। परमेश्वर का वचन कहता है, “दुष्ट अपने...सोच विचार छोड़कर यहोवा की ओर फिरे...(यशायाह ५५:७)।” जो उसके वचन के अनुसार सोचते हैं, वो उससे सामर्थ भी पाते हैं। जो अपनी सोच में ही हार देखने लगते हैं, वे पहले से ही मान लेते हैं कि वे हार चुके हैं, और यह हार का डर उन्हें कुछ करने नहीं देता। कुछ लोगों ने सोच लिया है कि अब प्रार्थना से कुछ होने वाला नहीं है, इस अविश्वास के कारण उनके लिए कुछ होने वाला भी नहीं है। पर जो प्रभु आपके अन्दर है वह हारा हुआ नहीं है कि कुछ कर न सके। उसमें पूरी सामर्थ है कि वो आपकी हार को जीत में बदल दे, विश्वास से उसकी ओर हाथ तो बढ़ाइये। अपनी नहीं, उसकी सामर्थ और क्षमता पर भरोसा कीजिए।

बहुत बार अच्छे लोगों के साथ भी बुरी घटनाएं घट जाती हैं। १९१४ में थॉमस एडिसन नामक ६७ साल के वृद्ध वैज्ञानिक की करोड़ों की फैक्ट्री में आग लग गयी। उम्र के आखिरी पड़ाव पर उसने अपनी सारी उम्र की मेहनत की कमाई को जलता हुआ देखा, और बोला-“जो भी होता है, अच्छे के लिए ही होता है (रोमियों ८:२८)। इस आग में हमारी कमजोरियां और कमियां भी जलकर राख हो गयीं हैं। परमेश्वर की दया से अब हम नये सिरे से शुरू करंगे।” सिर्फ तीन हफते बाद ही उसने फोनोग्राफ की खोज कर डाली।

प्रभु आपको हारे हुए जीवन जीने के लिए विश्वास में नहीं लाया, बल्कि आपकी सोच ने आपको हार और निराशा में ला खड़ा किया है। निराश व्यक्ति अपनी साधारण सोच को भी खो देता है। ऐसा हारा हुआ जीवन, मौत से ज़्यादा, जीने से डरने लगता है। आप अपने विचारों को सुन सकते हैं। आप क्या सोचते हैं; कैसे सोचते हैं; क्या हमेशा उल्टी, गन्दी और विरोध की बातें ही सोचते हैं? बाईबल बताती है के मन में ग़लत सोचने भर से ही पाप हो जाता है (मत्ती ५:२८)। प्रार्थना करें कि प्रभु आपकी ऐसी “सोच” ही बदल डाले।

संगति
सुअरों के बाड़े में गन्दगी के सिवाय क्या मिलेगा? पवित्र लोगों की संगति में रहने से हमारी सोच भी पवित्र होने लगती है। हम कोई क्यों न हों, अकेले हों या दुकेले, मर्द हों या औरत, जवान हों या बूढ़े, रो़ज़गार वाले हों या बेरोज़गार, लेकिन प्रत्येक विश्वासी के लिए सही संगति सब से ज़रूरी है।
संगति या मण्डली अपने सबसे बुरे दिनों में से निकल रही है। शैतान का पूरा प्रयास है कि मण्डली की सामर्थ समाप्त हो जाए, मण्डली चाहे बची रहे। अर्थात केवल ‘नामधारी’ मण्डलियां रहें, जहाँ प्रार्थना-आराधना तो हो पर उनमें सामर्थ न हो। प्रभु ने तो विजयी मण्डली बनाई और उसे ऐसी सामर्थ दी कि उस पर अधोलोक के फाटक भी विजयी नहीं हो सकते (मत्ती १६:१८) और जिसकी पहचान उसके सदस्यों के आपसी प्रेम से होती है (यूहन्ना१३:३५)। यही प्रेम और एक मनता मण्डली की सामर्थ है, और इस एक मनता से जो चाहो वह करवा लो।

अगर विश्वासी के जीवन में परमेश्वर की उपस्थिति नहीं है तो वह आम आदमी की तरह है। यदि प्रभु की मण्डली में परमेश्वर की उपस्थिति नहीं है तो वह मण्डली, कमरे में एकत्रित कुछ लोगों की भीड़ मात्र है, प्रभु की मण्डली नहीं। मण्डली में जब आपस में प्रेम और एक मनता नहीं रहती तब उसकी सामर्थ समाप्त हो जाती है। कितने तो प्रभु के घर में सालों से रहते हैं पर फिर भी मन में बैर और विरोध से भरे रहते हैं; स्वर्ग जाने का दावा करते हैं पर मन में नरक पालते हैं। एक वास्तविक विश्वासी को अपने शत्रुओं से भी प्रेम रखना है (मत्ती ५:४४), फिर मण्डली के अपने भाई-बहिनों से विरोध रखने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। मैं मण्डली के सदस्यों और सेवकों को समझाना चाहता हूँ कि परमेश्वर अपना न्याय अपने घर से ही शुरू करेगा (१ पतरस ४:१७)। क्या आपको मालूम है कि अपने घर में वो न्याय कहाँ से शुरू करेगा? सेवकों से और अपने पवित्र स्थान ही से आरंभ करेगा, “उन्होंने पुरनियों से आरंभ किया जो भवन के सामने थे (यहेजकेल ९:६)”।

जब हम दूसरों को क्षमा नहीं करते तो हम परमेश्वर की क्षमा करने वाली आत्मा का अपमान करते हैं। न्याय के दिन कुछ गाएंगे और कुछ रोएंगे चिल्लाएंगे। आप किनके साथ होंगे?

परिश्रम
उद्धार तो सहज है, एक सच्ची क्षमा याचना की प्रार्थना से प्राप्त हो जाता है। पर आत्मिक सफलता और आशीश, मेहनत और ईमान्दारी पर निर्भर करती है। पौलुस को, आत्मिक रूप से, इतनी बड़ी सफलता कैसे मिली? पौलुस कहता है कि “मैंने सबसे बढ़कर परिश्रम किया, तुम्हें वैसा परिश्रम करना है जैसे तुमने मुझे करते देखा है और अब भी सुनते हो कि मैं वैसे ही करता हूँ (फिल्लिप्यों १:३०)”। सफलता कभी तुक्के से हाथ नहीं लगती, संकरे मार्ग में सख़्त मेहनत की ज़रूरत होती है। ज़्यादतर विश्वासी आराम के दायरे में जीना चाहते हैं। आप जानते हैं फिर भी वैसे जीते नहीं। आत्मिक अनुशासन मसीही जीवन में अनिवार्य है, इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है। कभी बाईबल पढ़ना छूट गया तो कभी संगती गोल कर गये। पारिवारिक प्रार्थनाओं का भी कुछ ऐसा ही हॉल है। उपवास से डर लगता है। बस उतना परिश्रम करते हैं जिससे काम चल जाए और जान छूट जाए “हे निक्कमे और आलसी दास तू जानता था (मत्ती २५:२६)”। जीवन में जीतने की इच्छा तो सभी रखते हैं, पर मात्र इच्छा रखने से तो जीत नहीं मिलती, उस जीत के अनुरूप परिश्रम भी तो करना पड़ता है। काम तो काम करने से ही होता है।

समस्याऐं
हमारा प्रभु बहुत परिश्रम करके जीया, लेकिन हमारे बीच आज तमाश्बीन विश्वासियों की कमी नहीं है। मण्डलीयाँ ऐसों से भरी पड़ीं हैं जो दूसरों की नाप-तौल करते रहते हैं, पर खुद कुछ नहीं करते। जो घोड़ा बोझ ढोता है वह कभी दुलत्ती नहीं मारता; दुलत्ती वही चलाता है जो कुछ बोझ नहीं ढो रहा होता।

आपका ऊंचा उठना शुरू हुआ नहीं कि टाँग खींचने वालों की भीड़ इकट्ठी होनी शुरू हो जाती है। ऐसे घटिया किस्म के लोग हमेशा मेहनत करने वालों से इर्ष्या करते हैं। मण्डली में ईमानदार और मेहनती विश्वासी अलग नज़र आते हैं। ये लोग ज़िद्दी नहीं होते, न बहाने गढ़ते हैं; वरन विनम्र, तहज़ीबदार और कुर्बानियाँ करने वाले होते हैं, अपनी गलती मान लेते हैं, दिखावे नहीं करते। ध्यान रहे, जितनी सफलता मिलेगी उतने आलोचक और रुकावट डालने वाले खड़े होते रहेंगे। पौलुस कहता है, “विरोधी बहुत हैं (१ कुरिन्थियों १६:९)”। शैतान ने इन लोगों पर प्रभु का काम बिगाड़ने का दायित्व सौंपा है। इनका आत्मिक अंधापन हमेशा दूसरों के दोष देखता है। इनके अंदर एक हिंसक, बदला लेने वाला स्वभाव रहता है। ये खुद कभी नहीं सीखते पर दूसरों को सिखाने का मन बनाए रखते हैं। इन लोगों के सहारे शैतान हमारी हिम्मत तोड़ना चाहता है जिससे या तो हम शैतान के शिकार हो जाएं या उसके साथ समझौता कर लें, और प्रभु का काम अवरुद्ध हो जाए।

कितने लोग जो इस पत्रिका को पढ़ रहे हैं वह अपनी हालत जान गये होंगे, पर अपने पाप को नहीं मानेंगे। अपने विश्वासी साथियों के पास जाकर, मण्डली के साथ अपने संबन्धों को ठीक-ठाक करने की कोशिश भी नहीं करेंगे। पवित्रआत्मा चेताता है कि उनकी यह ढिटाई उन्हें बहुत महंगी पड़ेगी। कितनों को सच्चाई स्वीकारने में शर्म आती है। मक्कारी की मार ने उनकी गवाही को ही मार डाला है। पहले जो परिश्रम किया उसे खुद ही रौंद डाला है।

किसी ने व्यंग्य किया कि हमारे राजनेताओं से ज़यादा ईमानदार तो वेष्याएं होती हैं। ऐसे गिरे नेता भी, मौका पड़ने पर आपस में बात कर, गिले-शिक्वे पीछे छोड़ कर, एक साथ हो लेते हैं। पर कितने ऐसे विश्वासी हैं जो आपस में बात तक करने को भी राज़ी नहीं होते। उनका अहंकार उन्हें माफी मांगने और माफी देने से रोकता है। आपसे ज़्यादा प्रभु आपको जानता है। अपने को उससे छुपना मात्र बेवकूफी है। क्या अपने एहसास किया कि जब आप इस पत्रिका को पढ़ रहे हैं तो प्रभु आप से बात कर रहा है? अगर आप उसकी आवाज़ सुन रहे हैं तो दिल सख़्त न करें। अब फैसले के पल आ पहुँचे हैं।

इतनी सीधी और सरल सच्चाई है कि कम से कम समझ वाला भी समझ सकता है। मौके हमेशा आपका इंतिज़ार करते नहीं रहेंगे। शैतान चाहता है कि आप उस वक़्त तक इन्तज़ार करते रहें जब कोई कुछ नहीं कर पाएगा। अगर कोई पाप आपके सीने में खटक रहा है तो अहंकार छोड़ उठिए और अपने प्रभु और उसके लोगों के साथ अपने संबन्ध ठीक-ठाक कर लीजिए। प्रभु आपकी हार को भी जीत में बदलने की सामर्थ रखता है।

सम्पर्क का सम्पादक आपसे निवेदन करता है कि आप उसे भी अपनी प्रार्थना में सम्भाले रखें।

- सम्पर्क परिवार