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मंगलवार, 4 अगस्त 2009

सम्पर्क अक्टूबर २००१: एक खोज...जीवन के सही अर्थ की

मेरा नाम दीपक जरीवाला है और मेरा जन्म मुम्बई शहर के एक गुजराती परिवार में हुआ। मेरी माँ एक धार्मिक प्रवृत्ति की स्त्री है और वह बड़ी गम्भीरता से बहुत से ईश्वरों की उपासना करती है। मुझे भी उन्होंने यही सिखाया और मैं भी आठवीं कक्षा से ही काफी धार्मिक था। मैं अपने घर के छोटे से उपासना स्थाल में दीया जलाया करता था। जब अपनी आँखें बन्द करके मैं तरह-तरह के ईश्वरों से प्रार्थना करता था, तब मुझे एहसास होता था कि मेरा जीवन परमेश्वर की नज़र में ठीक नहीं है और वह मेरे पापों को जानता है। बाहर से तो मैं एक अच्छा लड़का था पर मैं जानता था कि मेरा हृदय दुष्ट है। मेरे अन्दर एक संघर्ष शुरू हो गया कि किसी तरह मेरा जीवन अन्दर से पवित्र और शुद्ध हो सके। जब मैं चारों तरफ लोगों को देखता जो मन्दिर मस्जिद, गुरुद्वारों और गिरजों से अपने आपको बड़ा धार्मिक दर्शाते हुए निकलते थे, तब मुझे वे मक्कार नज़र आते थे।

मेरा एक घनिष्ट पंजाबी मित्र था जो मुम्बई के सेंट मिकाएल गिरजे में ९ बुद्धवार की सभाओं में जाया करता था। एक बार उसने मुझे भी उन ९ बुद्धवार की सभाओं में आमंत्रित किया। वहाँ जाने पर मुझे समझ में आया कि यह ९ बुद्धवार की सभाएं मरियम की पूजा में समर्पित होती थीं। उन लोगों क यह विश्वास था कि इन सभाओं के दौरान किसी की कोई भी अभिलाशा हो तो वह पूरी हो जाती है। पर मेरी कोई खास अभिलाशा नहीं थी लेकिन धार्मिक प्रवृत्ति का होने के कारण मैंने वहाँ जाना शुरू कर दिया। एक शान्त वातावरण, एक भव्य गिरजा और वहाँ सजा सँवरा पादरी खड़ा होकर सन्देश देता, जो कभी-कभी अच्छा भी होता था; यह सब देखकर मैं बड़ा प्रभावित हुआ। जब वे लोग यह प्रार्थना करते कि “माता मरियम तू हमें संसार की दुष्ट, बुरी संगती, गन्दी किताबों और फिल्मों से बचाए रख” तब मैं और भी कायल होता कि मैं वास्तव में एक पापी हूँ। मैंने न केवल ९ बुद्धवार, बल्कि १०४ बुद्धवार तक इन सभाओं में करीब दो साल तक गया। बस एक बार नहीं गया जब मेरी नाक का औपरेशन था - जाना तो मैं तब भी चाहता था पर मेरी माँ ने नहीं जाने दिया। लेकिन वहाँ जाने से भी मेरे मन की हालत में कोई सुधार नहीं आया। मैं पवित्रता के उस स्तर को अनजाने में खोज रहा था जिसे मैं पाने में असमर्थ था। मैं लगातार कई बार सान्ताक्रूज़ के मन्दिर, मस्जिद में भी गया और एक बार साई बाबा का मन्दिर देखने शिरडी भी गया। लेकिन तब भी मैंने कोई खास एहसास या आशीश नहीं पायी। मैं अस्थमा की बीमारी से पीड़ित था। इस बिमारी से छुटकारा पाने के लिए मैं वकोला में एक बाबा के पास गया जो कहता है कि उसने बहुतों को चंगा किया है, परन्तु वह भी मुझे ठीक नहीं कर सका। उसने बड़े बड़े काम किए होंगे पर मेरे लिए वह कुछ नहीं कर सका। करीब दो साल तक मैंने फिल्में और टी०वी० देखना छोड़ दिया यह सोचकर कि यह सब बुराई के स्रोत हैं। मेरे इस व्यवहार से मेरी माँ को बड़ी चिंता हुई कि इस लड़के को क्या हो गया कि इसने फिल्में देखना बन्द कर दिया है। उसने मुझे कुछ धार्मिक पुस्तकें पढ़ने के लिए दीं पर वे भी मुझे संतुष्ट नहीं कर पाईं।

बारहवीं कक्षा पास करने के बाद मैं आई० आई० टी० (इन्जीनियरिंग) में नहीं जा सका। तब मैंने मजबूरी में फैसला लिया कि मैं रूड़की विश्वविद्यालय में इलेक्ट्रोनिक इन्जीनियरिंग के लिए जाऊँगा और मैंने रूड़की विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। दाखिले के तुरन्त बाद, रैगिंग के दौरान सीनियर लड़कों ने मेरे साथ अनौपचारिक व्यवहार किया जो मेरे लिए बहुत कठिन था। मैं चाहता था कि मेरा धार्मिक जीवन फिर शुरू हो जाए और मैंने एक उपासना स्थल भी देख लिया था जहाँ मैं जा सकूँ। विश्वविद्यालय के अन्दर एक गिरजा घर भी था जहाँ छात्रों की रविवारिय सभा होती थी और मौका मिलते ही मैं वहाँ भी गया। उस सभा में जाकर एक विचित्र बात मैंने पहली बार देखी कि वहाँ न कोई तस्वीर थी जिसकी वे आराधाना करते और न कोई सफेद चोगे वाला पादरी। मैंने उनसे निवेदन किया कि मुझे एक बाईबल चाहिए, क्योंकि यह मेरी हमेशा की इच्छा थी कि मैं बाईबल पढ़ूं। उन्होंने मुझे अगली बार आने का निमंत्रण दिया और जब मैं दोबारा गया तो मेरे लिए एक बाईबल का प्रबंध भी किया हुआ था।

विश्वविद्यालय के होस्टल में एक छात्र के कमरे मेंबाईबल के अद्धयन की सभा में मैं जाने लगा। इन सभाओं में जाने के द्वारा मैं एहसास करने लगा कि बाईबल का परमेश्वर पवित्र है। उसकी नज़रों में एक बुरा विचार भी पाप के बराबर है। और तब मुझे एहसास हुआ कि यही वास्तविक परमेश्वर की पवित्रता हो सकती है। परमेश्वर का वचन बाईबल मुझसे बात करने लगा। याद रखिए कि किसी ने मुझे गिरजा जाने या बाईबल पढ़ने के लिए दबाव नहीं डाला। मुम्बई में मैं कभी भी नामधारी इसाईयों के जीने के ढंग और तौर-तरीकों को पसन्द नहीं करता था। जब मैं विश्वविद्यालय की बाईबल अद्धयन सभा में जाता था तो बहुत कुछ था जो मुझे समझ नहीं आता था, परन्तु एक बात थी जो मेरा ध्यान बार-बार अपनी ओर खींचती थी, वह थी ‘बच-जाना’ ‘उद्धार पाना’ ‘जो बच गए’ ‘जो उद्धार पा गये’ का प्रयोग। मैं बड़ा अचम्भित था कि किससे बचना, उद्धार पाना तो किससे पाना यह बात मुझे बहुत बेचैन करती थी।

२४ सितम्बर १९८६ रात ८:०० बजे की शाम मेरे जीवन की सबसे अदभुत शाम बन गयी जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता। उस शाम मैंने बाईबल अद्धयन के बाद एक भाई से पूछा कि ‘बच जाने या उद्धार पाने का का क्या अर्थ है?’ उसने मुझे समझाया, ‘यदि तुम परमेश्वर के सामने मन से मान लो कि तुम एक पापी हो और प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करो कि वह तुम्हारे लिए मरा और तीसरे दिन जी उठा; उसने तुम्हें शुद्ध करने के लिए अपना बहुमूल्य लहू बहाया, और यदि तुम उसे अपने हृदय में ग्रहण करो तो तुम बच जाओगे यानि उद्धार पाओगे।’ यह मुझे बहुत अच्छा लगा, जैसे एक प्यासे के लिए ठंडा पानी। मैं जानता था कि मैं एक पापी हूँ, अब मुझे किसी और की सहमति की ज़रूरत नहीं थी। मैंने उसके आमंत्रण को स्वीकार किया और घुटने टेककर प्रार्थना की ‘हे प्रभु मैं अपने पापों को मानता हूँ। मैं विश्वास करता हूँ कि प्रभु यीशु मेरे लिए मरे और तीसरे दिन जी उठे।’ उस शाम मैंने प्रभु यीशु को अपने दिल में अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता करके ग्रहण किया और तब से वह मेरे हृदय और जीवन में है। वह मेरे साथ है और उसने मेरे सारे पापों को क्षमा कर दिया है। मैं उस आग की झील से जो नरक कहलाती है अनन्तकाल के लिए बच गया हूँ, उद्धार पा गया हूँ। परमेश्वर के अनुग्रह से मेरे पास एक विश्वासी पत्नी और एक पुत्री है और मैं अपना काम करता हूँ। प्रभु से मेरी यही प्रार्थना है कि जो लोग मेरी यह गवाही पढ़ते हैं वे प्रभु यीशु में अपने जीवन का सही अर्थ खोज सकें।

परमेश्वर आपको आशीश दे।

रविवार, 12 जुलाई 2009

सम्पर्क अक्टूबर २००१: सम्पर्क परमेश्वर के वचन से

सच्ची ज्योती जो हर एक मनुष्य को प्रकाशित करती है - यूहन्ना १:९
सेंज़ा नम का प्रांस का एक महान कलाकार था जो बड़ा जीवट, निर्भीक और ज्ञानवान व्यक्ति था। कुछ ऐसा कहा जाता है कि वह एक सुन्दर घाटी के एक कस्बे के होटल में शाम को पहुँचा। होटल के मालिक ने घाटी की तारीफ करते करते एक बात यह भी कह दी कि यहाँ पर और बहुत रहस्यमय बातें भी हैं। सेंज़ा ‘रहस्यमय’ शब्द से चौंका और पूछा कि वह रहस्यमय बातें क्या हैं? होटल के मालिक ने कहा कि “साहब रात बहुत हो चुकी है, अब आप आराम करें, बाकी बातें कल करेंगे।” लेकिन सेंज़ा अड़ गया कि उसे अभी बताना पड़ेगा। सेंज़ा के काफी ज़िद करने पर होटल के मालिक ने कहा, “एक रहस्यमय बात तो यह है कि इस घाटी में हर रोज़ एक आदमी की मौत होती है।” सेंज़ा ने घबराकर पूछा “आज का आदमी अभी तक मरा या नहीं, नहीं तो मैं यहां से चलूं।”

सेंज़ा जैसा निर्भीक दिखने वाला व्यक्ति भी वास्तव में अन्दर से कितना डरपोक था। हम जो कुछ दिखते हैं वास्तव में हम वह नहीं होते। सच तो यह है कि बस प्रभु ही आपको पूरी तरह से जानता है। वह आपको जितनी अच्छी तरह जानता है कि उतनी अच्छी तरह आप भी अपने को नहीं जानते। वो ही वह सच्ची ज्योति है जो हमारे असली जीवन स्हमारी मुलाकात करा देती है। पवित्र आत्मा यहां इस ज्योति को ‘सच्ची ज्योति’ कह कर क्यों संबोधित कर रहा है? सच्ची ज्योति में वह सामर्थ होती है जो अन्धकार के कामों को सबके सामने रख देती है; “... जो सब कुछ प्रकट करता है वह ज्योति है (इफिसीयों ५:१३)।” वास्तव में ज्योति के निकट आकर ही हमें मालूम होता है कि अंधकार कितना भयानक है।

क्या आपने कभी उजाले के उल्लू के बारे में सुना है? ये वो उल्लू होते हैं जो रहते तो उजाले में हैं पर काम वही अंधेरे वाले करते हैं। ये वे हैं जो बाईबल के शब्दों और पदों को तो जानते हैं पर बाईबल के परमेश्वर को नहीं जानते, उसके प्यार और उसकी सहनशीलता को नहीं जानते।

एक अन्धा भिखारी, शाम के झुटपुटे में लालटैन लेकर बैठा था। किसी ने उस से पूछा “सूरदास जी इस लालटैन का आप से क्या लेना देना?” अन्धा बोला “यह मेरे लिए नहीं आपके लिए है, जिससे आप मुझे देखकर कुछ दे सकें।” कई तो इस अन्धे की तरह सिर्फ अपने मतलब के लिए ज्योति से जुड़े खड़े हैं।

स्वार्थ के टुकड़ों पर दुम हिलाते हुए ये लोग जहाँ जैसा मौका देखते हैं वैसा ही रंग बदल डालते हैं, यह ‘मल्टीकलर’ विशवासी फिलौसफी है। ये मानते हैं कि संसार के सागर में रह कर मगरमच्छ से बैर रख कर जीना सहज नहीं है। इसलिए मगरमच्छ से कुछ समझौते करने में ही ये अपनी भलाई समझते हैं और समझौतों के साथ ही जीते हैं; जैसे बिजली वाले से, लाईसेन्स वाले से, पासपोर्ट वाले से, रेलगाड़ी वाले टीटी से, इत्यादि। कहते हैं “सिर्फ चाए पानी के पैसे दे देता हूँ।” आज रिश्वत के गंदे काम को यह एक खूबसूरत अंदाज़ दे दिया गया है। ज्योति कितना ही प्रकाश क्यों न फैलाए लेकिन इन पर कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि ये तो अपनी आँखें बन्द रखने की ज़िद्द छोड़ने को राज़ी ही नहीं हैं।

ऐसे विश्वासी क्रूस की गाथा को शब्दों से तो जानते हैं पर क्रूस का काम उनके मन में नहीं हुआ होता। कितने ऐसे हैं जो कितनों के लिए मन में बैर, विरोध और भारीपन पालते हैं। विश्वासी तो वह है जो अपने शत्रु के लिए भी बुरा नहीं सोच सकता। क्रूस पर प्रभु यीशु का पहला वाक्य क्या था, क्या आपको याद है? वह वाक्य उसने अपने शत्रुओं के लिए कहा था जिन्होंने उसे ज़लील करके इतनी भयानक और दर्दनाक मौत दी थी। उनके लिए प्रभु ने प्रार्थना की “ऐ बाप इन्हें माफ कर...।” अपने इन शत्रुओं के लिए उसके दिल में ज़रा भी कड़वाहट नहीं थी। यह क्रूस का काम है। आप खुद जानते हैं कि आपके कितने रिशतेदारों के लिए आपके मन में कितना विरोध है; उनका बुरा देखने का विचार आप अपने मन में पाल रहे हैं। मण्डली में कितनों के प्रति कितनी कड़वाहट भरी है। सच्ची ज्योति सब कुछ साफ साफ जता देती है, और इस समय वह आपको आपकी दशा जता रही है। प्रभु का ज्ञान हमारी अज्ञानता को हम पर प्रकट करता है और हमारे मन पर चोट करता है ताकि हम जाग सकें और कुछ सोच सकें।

“बुराई को भलाई से जीत लो (रोमियों१२:२१)।” जिन्होंने आपके लिए बुराई की है, उनके लिए प्रभु से कहें “हे प्रभु मेरे दिल से उनके लिए भारीपन निकलें। मुझे मौका दें और ऐसा दिल भी दें कि मैं उनकी भलाई कर सकूँ।” मित्र मेरे यह बात मैं नहीं, बाईबल कहती है कि बुराई को बुराई से कभी नहीं जीत सकते। आग पर मिट्टी का तेल डालने से आग बुझेगी नहीं और भड़केगी। आग बुझानी है तो उस पर पानी डालो; जलन की आग जीवन के जल से ही बुझेगी। हमें माफी मांगनी ही नहीं माफी देनी भी आनी चाहिए। कई बार माफी देकर भी हम उस बात को अपने मन में याद रखते हैं ताकि जब कभी मौका आए तो उसका उपयोग किया जा सके। यह सच्ची माफी नहीं है, इस तरह ही हमारे समंबन्धों में मक्कारी पनपने लगती है। जो वास्तव में मसीह के साथ चलता है वह हमेशा हर विरोध को एक तरफ रखकर जीता है। मन में बुराई रखकर विश्वासी किसी भले काम का नहीं रह पाता।

मौत का डर सबसे डरावना डर होता है, जैसे शमशान की शान भी अपनी एक अलग शान होती है; हर शानदार आदमी भी वहाँ सहम सा जाता है। शमशान हो या कब्रिस्तान, वहाँ न साँस है न सिसकी, न आह है न आहट, बस एक दिल में एक सर्द एहसास देती खामोशी है जो कहती है “तू कब तक बचेगा, एक दिन तुझे भी यहीं रह जाने के लिए आना है।” कभी कभी मन एक सवाल से परेशान होता है कि इतने आदमी बेमकसद क्यों मर रहे हैं? पर हमारा मन यह सवाल क्यों नहीं करता कि इतने सारे आदमी बिना मकसद क्यों जी रहे हैं? मेरे दोस्त, हमारा हर पाप हमारे जीवन के मकसद को ही मिटा डालता है। अब इंसान ही नहीं संसार भी अपनी समाप्ति की ओर आ गया है। संसार का अंधकार तो समाप्त नहीं होगा पर आपके मन का अंधकार ज़रूर दूर हो सकता है। अब फैसला आप पर है कि आप सत्य पर लात मारो या उसे दिल में सजाओ। जैसा आपने पहले कितने संदेशों के साथ किया है, क्या आप इसके साथ भी वही करने जा रहे हैं? अब समय को पहचान कर सही निर्णय का समय है। “यीशु ने कहा ज्योति थोड़ी देर तक तुम्हारे बीच में है, जब तक ज्योति तुम्हारे साथ है तब तक चले चलो, ऐसा न हो कि अंधकार तुम्हें आ घेरे (यूहन्ना १२:३५)।”

प्रभु करे कि अब आप के दिल की प्रार्थना हो “हे प्रभु यीशु तू जो जीवन की सच्ची ज्योति है, मुझ पर अपनी दया बनाए रख, कहीं अंधकार मुझे न आ घेरे और मैं कहीं जीवन का उद्देश्य ही न खो डालूँ - आमीन।”

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

सम्पर्क अक्टूबर २००१: सम्पादकीय

सच तो यह है कि आपके प्रेम ने, प्रार्थनाओं ने और प्यार भरे पत्रों ने सम्पर्क परिवार को पहले साल की पहली यात्रा पूरी करने में पूरा सहयोग दिया है। जब मैं अपनी ओर देखता हूँ तो बहुत ही निराश होता हूँ। पर जब जब मैं अपने प्रभु की ओर देखता हूँ तो मेरा मन प्रभु की महिमा गाने लगता है।

प्रभु के प्यार और हमारे प्यार में बड़ा फर्क है। हम उस से ही प्यार करते हैं कम से कम जो प्यार करने लायक तो हो। प्रभु ऐसों को प्यार करता है जो ज़रा भी प्यार करने के लायक हैं ही नहीं। प्रभु किसी भले आदमी पर अपनी भलाई दिखाए तो यह एक भली बात है; पर उसने मुझ जैसे बुरे आदमी पर इतनी भलाई दिखाई, यह तो बस एक गज़ब का प्यार है। प्रभु की दया रही तो उसकी इस दया को जो उसने मुझ पर की छोटे छोटे टुकड़ों में आने वाले सम्पर्क सम्पादकीयों में आपके साथ बाँटता रहूँगा।

मैं काले बोर्ड पर सफेद चौक घिसकर अपना पेट पालता हूँ। उम्र ५६ साल है बालों पर खिज़ाब नहीं लगाता। खिज़ाब लगाऊं भी तो कहाँ, बाल तो नाम मात्र को खोपड़ी के किनारों पर झालर की तरह ही शेष बचे हैं और वो भी एक के बाद एक तेज़ी से त्याग-पत्र देते जा रहे हैं। मैंने अपना पुशतैनी मज़हब और माँ-बाप, दोनों ही अपनी मर्ज़ी से नहीं चुने थे और न ही यह कर पाना मुम्किन था। न कोई बहन न भाई, घर पर मौत का साया इतना भयानक था कि कोई बचता ही नहीं था। फिर भी हमारा परिवार पूरी तरह शैतान को समर्पित था। अक्सर हमारे परिवार में छोटी छोटी बातों पर बड़ी बड़ी मार पीट बजती रहती थी। यही पुशतैनी स्वभाव मेरी ज़िन्दगी में भी तेज़ी से जमने लगा। मेरे माँ-बाप दोनो ही नौकरी करते थे, मेरे लिए उनके पास वक्त ही कहाँ बच पाता था। जैसे ही नेकर में पाँव डालने की उम्र तक पहुँचा, ज़िन्दगी की गन्दगी से खेलना भी शुरू कर दिया।

मेरे पिताजी को हुक्केबाज़ी का बड़ा शौक था। कभी कभी वो मूँह से धुएं के छल्ले निकालते थे, एक छल्ला फिर दूसरा छल्ला फिर तीसरा छल्ला और फिर एक फूँक से तीनों एक दूसरे में से निकालकर बिखेरते जाते। यह सब कुछ देखकर मुझे बड़ा मज़ा आता था, फिर मुझे भी तो यह सब कुछ करके दिखाना था। अधकचरी उम्र में ही मुझे बुरी लतों ने घेर लिया। मेरे घर पर जमे मौत के साए के कारण मेरे पिताजी को टी०बी० की लम्बी बिमारी मौत के मूँह में ले गई। अब मैं और मेरी माँ ही बचे थे। माँ भी बचते बचते ही बची थी। बाप की मौत के बाद मेरे लिए एक आज़ादी थी - जो करो, जैसे भी करो। अब मैं तहज़ीब को तहमद की तरह खूंटे पर टांग कर पूरी बदतमीज़ी पहन कर खड़ा हो गया। मुझे समझ पाना अपने में एक टेढ़ी खीर थी। स्कूल में मिले नम्बरों से पता नहीं चलता था कि वास्तव में मैं क्या हूँ। मैं देखने में बड़ा भोला और भला दिखता था पर अन्दर की कहानी तो कुछ और ही थी। (प्रभु की दया रही तो बीच की बची कहानी फिर अगले अंकों में कहूँगा।)

उस समय ज़िन्दगी की पूरी मस्ती छन रही थी, पर जब जब मैं अकेला होता था तो एक खालीपन की बेचैनी मुझे हमेशा बेचैन करती थी, और यह बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। अनेक धर्मों के द्वार पर इस खालीपन को भरने के लिए गया, पर प्यासा ही लौटा। मुझे जल की तस्वीर नहीं पर वह वास्तविक जल चाहिए था जो अन्दर तृप्ती दे। धर्मों में बड़ा उल्झाव था। इतना सिर मारकर भी धर्मों में वह सिरा नहीं मिला जहाँ से मैं शुरू करता। आखिर सब ही मक्कारी से लगने लगे। बाईबल भी मुझे रूखी, बेमज़ा और उबाऊ किताब लगी और उसकी बातें मुझे बेवकूफी से भरी लगीं। अब मैंने एक बगावत शुरू कर दी, साम्यवादी विचारों को स्वीकार कर मैं नास्तिक बन गया। परमेश्वर के विरोध में बोलने लगा, बाईबल को झूठा कहने लग जब कि मैंने पूरी बाईबल पढ़ी भी नहीं थी, मात्र कुछ अंश ही कहीं कहीं से पढ़े थे। अब मेरे लिए परमेश्वर शून्य और सन्नाटा ही था। लोगों को तो मैं एक जुनून के साथ ज़िन्दगी जीता और ज़बरदस्त मस्ती छानता दिखता था। लोगों के सामने बहुत हंसता और चहकता हुआ दिखता था पर अकेले में मेरा मन बहुत उचाट रहता था। मैं मन मसोस कर जी रहा था और अपने-आप से पूरी तरह हताश हो चुका था।

एक दिन एक व्यक्ति मेरे घर आकर मेरी बीमार चाची को बाईबल पढ़कर सुना रहे थे। मेरी तरफ उनकी पीठ थी। जो कुछ उन्होंने पढ़ा उसे सुनकर मुझे एक बिजली का झटका सा लगा और मैं एकदम भौंचक्का सा रह गया। ऐसा लगा कि यहाँ सब कुछ मेरे बारे में ही लिखा है और उन्होंने मुझे उघाड़कर मेरी छिपी हुई ज़िन्दगी को खोलकर सबके सामने पढ़ डाला है। पहले मैं सकपकाया लेकिन फिर अपने आप को संभाला। मैंने ज़िन्दगी में पहली बार ऐसी दस्तक अपने दिल के द्वार पर सुनी। वह बुज़ुर्ग व्यक्ति जाते जाते एक सभा में आने का प्यार भरा निमंत्रण दे गए। मैंने उन्हें वायदा दिया कि चलूँगा, इसलिए मुझे लेने वह कई बार मेरे घर आए पर मैं किसी तरह बहाने देकर उन्हें रफा दफा करता रहा। मेरे लिए यह निहायत ही बेवकूफी की बात थी कि शाम को ‘बरबाद’ किया जाए और वह भी किसी धर्म के नाम पर। पर वह बुज़ुर्ग व्यक्ति अक्सर घर आते रहे और मुझे बुलाते रहे।

एक दिन मैं मजबूरी में चला ही गया। कोई अदृष्य शक्ति ही मुझे खीच कर ले गई। मैं वहाँ मन मारकर बैठा रहा, वहाँ से निकल भागना चाहता था पर कोई था जो मुझे रोके रहा। वहाँ जो व्यक्ति प्रवचन दे रहे थे वह कुछ इस तरह कह रहे थे कि पापों से माफी मांगनी चाहिए; प्रभु यीशु पापों को क्षमा करता है और जीवन बदल जाता है। मेरा मन कहता कि ऐसा कैसे हो सकता है कि एक प्रार्थना करने से जीवन ही बदल जाए। मुझे इस बात पर कतई विश्वास नहीं हुआ। लेकिन एक बात ज़रूर हुई कि मैंने अच्छा आदमी बनने की पूरी कोशिश शुरू कर दी, कि सिग्रेट, शराब नहीं पीऊँगा और फिल्म आदि नहीं देखूंगा। यह सिलसिला ज़्यादा दिन नहीं चल सका और पुरानी आदतें वैसी ही बनी रहीं, फर्क सिर्फ इतना हुआ कि मैं अब और ज़्यादा बेचैन रहने लगा। बीच बीच में आत्म हत्या के प्रयास भी किए। ऐसा लग रहा था कि ज़िन्दगी रुक सी गई है और दम घुट रहा है। मौत मिल नहीं रही थी और ज़िन्दगी जी नहीं पा रहा था। मैं बहुत थक चुका था। मैंने अच्छा बनने के लिए बहुत मेहनत की थी पर हर बार हार ही हाथ लगी। मरता क्या न करता; मैं अपनी ज़िन्दगी की सबसे यादगार उस अंधेरी रात पर आ गया था जिसने मुझे हमेशा के उजाले में लाकर खड़ा कर दिया। मैंने एक आखिरी उम्मीद से प्रभु का द्वार खटखटा ही दिया। एक शक मेरे सीने में तब भी था कि क्या यीशु मेरा जीवन बदल सकता है? मैंने प्रभु यीशु से जो प्रार्थना उस समय की उसके सही शब्द तो मुझे अब याद नहीं, पर उस प्रार्थना का भाव याद है। सच्चाई यह थी कि मैं प्रार्थना से प्रभु यीशु को परखना चाहता था। मुझमें न तो नरक का डर था न ही स्वर्ग का प्रलोभन। मैं अपनी इस बड़ी अजीब बेचैनी से बाहर आना चहता था। मैं बहुत अकेला था और मुझे कोई चाहिए था जिससे मैं कुछ कह सकूँ - शायद यीशु ही मेरी सुन ले। प्रभु से प्रार्थना करने के बाद मैं एक बड़े ही गज़ब के अनुभव से गुज़रा। बाहर से तो मेरा कुछ नहीं बदला पर अन्दर एक अजीब सी खुशी मुझे मिल गई। इस खुशी को शब्दों में बयान करने लायक शब्द आज तक मुझे नहीं मिले। अब मुझे मालूम हुआ कि मेरे प्रभु के पास मेरे जीवन के लिए एक योजना है और यह योजना आत्म हत्या तो कतई नहीं है। खैर अभी यहीं तक, शेष फिर अगले अंक में, प्रभु की उस दया को जो मुझ पर हुई, प्रभु की दया से कहता रहूँगा।

आपके बहुत सारे पत्र हमें मिलते हैं और लगभग हर पत्र का जवाब हम डाक द्वारा देने का प्रयास करते हैं। अभी आए एक पत्र का जवाब मैं आप को सब के साथ देना चाहूँगा। पत्र लिखने वाले ने, अपने ढंग से सवाल पूछा है कि हम किस मिशन के हैं? सालों से इस सवाल के साथ लोग अक्सर मुझे घेरे रहते हैं।

कुछ खतरनाक विचार हमारे दिमाग से गुज़रते हैं जो बड़ा बिगाड़ पैदा करते हैं और हमारे दिलों में बे सिर पैर की दहशत पैदा कर डालते हैं। एक पुरानी आप-बीती आपके साथ बाँटना चाहुँगा। मैं नया-नया प्रभु में आया था, एक दिन कई लोगों के साथ एक घर में बैठा था। वहाँ एक बड़े सड़ियल स्वभाव के एक इसाई साहब भी बैठे थे और खामख्वाह काज़ी बन रहे थे, अपनी ही हाँके जा रहे थे। शायद उनके इतने बड़े शरीर में परमेश्वर के प्यार का एहसास करने वाला दिल फिट ही नहीं था। इतने में पीने के लिए सबको पानी दिया गया। मैंने पानी का गिलास हाथ में लिया और आँखें बन्द करके परमेश्वर को मन में ही धन्यवाद करके पीना शुरू किया ही था कि वह साहब बोले “ क्यों भई तुम क्या फलां मिशन के हो?” यह सुनते ही मेरा कलेजा कबाब हो गया, पानी तो मैं जैसे तैसे पी गया पर अपना गुस्सा न पी सका। इस तरह गुस्से से बड़ों को जवाब देना परी तरह गलत था, मुझे अपनी बात प्यार से कहनी चाहिए थी। पर उस समय इतनी परिपक्वता नहीं थी, झुंझलाकर जवाब दिया “साहब जो हमें एक गिलास पानी देता है उसे हम मुस्कुराकर प्यार से ‘थैंक यू’ (यानि धन्यवाद) बोलते हैं, पर जिसने पानी बनाया है उसे ‘थैंक यू’ बोलते ही क्या हम ‘फलां’ मिशन के बन जाते हैं? हमारे दिमाग का पूरा अकीदा यह है कि मसीह को मानने वाला किसी न किसी मिशन का ज़रूर होगा। वैसे ही जैसे परमेश्वर को मानने वाला किसी न किसी धर्म का ज़रूर होगा। मैं आपसे सवाल पूछता हूँ, कृपया मुझे बाईबल से बताएं कि प्रभु यीशु किस मिशन का था, मैं उस मिशन को स्वीकार कर लूँगा। जब प्रभु ही किसी मिशन का नहीं था तो आप हमें किसी विशेष मिशन में क्यों धकेलना चाहते हैं?”

मेरे प्यारे पाठकों आप परमेश्वर और हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो। परमेश्वर की दया और आपकी प्रार्थनों के सहारे ही हम सम्भले रहते हैं। आप से विनम्र निवेदन है कि कम से कम एक जन को ‘सम्पर्क’ पत्रिका का अपनी तरफ से सदस्य ज़रूर बनाएं - हम ‘सम्पर्क’ के साथ दुगने लोगों तक पहुँच पाएंगे। बस हमें स्वर्गीय सामर्थ की आवश्यक्ता है जो हमें आपकी प्रार्थनाओं से प्राप्त होती है। प्रभु ने चाहा तो फिर और आगे अगले अंक में आपसे सम्पर्क करेंगे।

प्रभु में आपका,

“सम्पर्क परिवार”

शनिवार, 27 जून 2009

सम्पर्क फरवरी २००२: बस बहुत हो गया

मौत और मातम से भरे एक साल को इतिहास के पन्नों में दफना कर अब हम एक नए साल को नई उम्मीदों के साथ लेकर खड़े हैं। पर सच तो यह है कि आनेवाला कल फिर से कितनी खूनी ख़बरें साथ लेकर आएगा, कोई नहीं जानता। आदमी ने ये बड़ी बरबादी खुद ही बोई थी और आज उसी की फसल काटने पर मजबूर है। अब संसार अपनी समाप्ति के समीप आ पहुँचा है; हाँ सच मानिए अन्त का आरंभ अब शुरू हो चुका है। दुनिया के सबसे अच्छे साल अब समाप्त हो गए हैं; संसार अपने समय सीमा का ज़्यादातर हिस्सा पूरा कर ही चुका है। जो समय अब बचा है वह स्थान स्थान पर होने वाले विनाश की गाथाओं, दिल दहला देने वाली घटनाओं और मनुष्य के अमानवीय व्यवहार के समाचारों से भरा होगा। इन्सान की दरिंदगी अब खुलकर सामने आने लगेगी।

हमने अपने देश की विधान सभाओं और संसद में अपने नेताओं का व्यवहार देखा है। नेता शोर-शराबा, गाली-गलोच करते हैं, फाइलें फाड़ डालते हैं, सभास्थल में लेट जाते हैं और काम अवरुद्ध करते हैं, अनुशासन भंग करने के कारण मार्शल उन्हें उठाकर सभास्थल से बाहर करते हैं। इन देश के संचालकों द्वारा उछल-कूद, लातम-लात, जूते फेंकना, माईक तोड़ना और फेंकना, कई बड़े नेताओं का सदन की मेज़ों के नीचे छिपना देशवासियों ने देखा है। ये वही नेता हैं जो सदन के बाहर सब जगह लोगों से देश में शान्ति और एकता लाने के वायदे करते फिरते हैं, कानून व्यवस्था लागू करने की कसमें खाते हैं। इनके हाथों में कितना सुरक्षित है हमारा देश और कानून? “एक मज़ाक है” कार्यक्रम में रेडियो पर एक उदघोषणा की गई कि एक भाई और एक बहन काफी समय से लापता हैं। उन्हें आख़िरी बार सन १९४७ में देखा गया था। भाई का नाम ‘सच’ है और बहन का नाम ‘ईमानदारी’ है। देश को इन दोनो की सख़्त ज़रूरत है। जो व्यक्ति इन दोनों को ढूंढ लाने में सहायता करेगा, उसे पूरा आश्वासन दिया जाता है कि उसका नाम-पता राजनेताओं और धर्मनेताओं से पूरी तरह से छिपा कर रखा जाएगा।

हमारे राजनेताओं को मान-सम्मान की कोई चिंता नहीं। बेशर्मी की चिकनाई ऐसी चढ़ा रखी है कि शर्म का पानी ठहरता ही नहीं; बन्दा चन्दा तो ऐसे चबाता है जैसे कुछ किया ही नहीं। ‘राजनीति’ एक भद्दा शब्द बन गया है। किसी भी दाँव-पेंच से अपनी धाक जमाना ही इनका मकसद रह गया है।

कुछ डाक्टर होते हैं जो बिमारी से भी ज़्यादा खतर्नाक होते हैं। ऐसे ही हमारे धर्म और धर्मगुरू हैं। हमारे धर्म हमारी समस्याओं का उपचार देने की बजाए उन्हें और बढ़ा देते हैं। जैसे कैंसर या अन्य कोई भी रोग, जिस शरीर में पलता है उसी को नष्ट करता है, धर्म भी समाज में लगे एक भयानक रोग की तरह समाज को ही नष्ट करने में लगा है। धर्म के नाम पर मानव में विभाजन ही आया है, धर्म ने कब हमें जोड़ा है, कितने ही टुकड़ों में तोड़ ज़रूर डाला है। समाज के भयानक अपराधी इतने निर्दोषों की हत्याएं नहीं कर पाए जितनी ‘धर्म’ ने धीरे से ही कर दीं। आतंकवाद भी धर्म की ही देन है।

परमेश्वर प्रेम है पर धर्मों में कहाँ प्रेम है? धर्मों में क्षमा देने की सामर्थ नहीं है। धर्म ने हमारी साधारण सी समझने की सामर्थ का भी सत्यानास कर दिया है; ऐसा बुद्धिहीन कर दिया है कि ‘धर्म’ के नाम पर कोई भी अधर्म करवा लो, बड़ी सहजता और गर्व से कर जाएंगे। शास्त्रों के शब्दों और सिद्धान्तों को सिर में भर लेने से जीवन नहीं बदलता।

धर्म परिवर्तन के विचार ने भी एक नई समस्या ला खड़ी की है। आपसी विरोध, जलन, बदले की भावना को बड़ी तेज़ी से बढ़ा दिया है। धर्म परिवर्तन के नाम पर गुमराह करने के लिए ऐसी ऐसी बातें बुनकर बताई जाती हैं और लोगों के दिमाग़ों में अटकाई जाती हैं जिससे सुनने वाले आक्रोश से भर जाएं। फिर इस उन्माद को हवा देकर समाज में आग लगाई जाती है और स्वार्थ की रोटीयां सेकी जातीं हैं। सब धर्मों की नीति है कि जो हमारे धर्म की नीति से सहमत नहीं है वह विधर्मी है, काफिर है; ऐसों को नाश कर डालो।

प्रभु यीशु कहता है मैं नाश करने नहीं पर बचाने आया हूँ। परमेश्वर का वचन बाईबल कोई धर्म हम पर नहीं थोपता, केवल सत्य को हमारे सामने प्रस्तुत करता है। हज़ारों साल का इतिहास इस बात का सबूत है कि बाइबल जैसा कहती है, वैसा ही होता है। मानव इतिहास, अनेक प्रयासों के बावजूद, बाईबल के एक भी दावे को आज तक झुठला नहीं पाया है। बाईबल के पूर्णत्या सत्य और परमेश्वर का वचन होने के प्रमाणों की कमी नहीं है, कमी तो लोगों के उन प्रमाणों को मानने की मन्सा में है। बिना जाँचे परखे ही लोग बाईबल को शक की निगाह से देखते हैं; ऐसों को समझाना वास्तव में बड़ी टेढ़ी खीर है।

कुछ दिन पहले मैं और मेरी पत्नि एक अच्छे पैसे वाले व्यक्ति के घर गए। वह व्यक्ति तो घर पर नहीं मिले, उनकी पत्नि और उसकी सास ही घर पर मिलीं। सास काफी बुज़ुर्ग थीं और उन्ही विचारों के साथ जी रहीं थीं। सास ने मेरी पत्नि से पूछा “आपके पास कितने बच्चे हैं?” मेरी पत्नि ने जवाब दिया “हमारे दो बच्चे हैं।” सास ज़रा अचरज से बोलीं “बस दो ही?” सास के ऐसा कहते ही बहू बोल उठी “दो ही बहुत हैं न जूते खाने के लिए।” और मैं सोचने लगा कि माँ-बाप को अपने बच्चों से क्या यही आशा बची है?

हम अपने परिवार में ही आपस में बिखरने लगे हैं। कई अपने भी अपने से नहीं लगते और अपनों में भी पराएपन का एहसास होता है। हम झूठे और खूबसूरत शब्दों से अपनों को ही धोखा देते हैं। पति-पत्नि में, सास-बहू में, बाप-बेटे के रिश्तों में अब काफी खटास आ चुकी है। कुछ तो इस आस में जी रहें हैं कि कब बाप मरे तो कुछ हाथ लगे। कितने अपनी पत्नियों को सिर्फ शब्दों से ही सहलाते हैं, पर अपना मन कहीं और लगाए रखते हैं।

एक आदमी की बीमार बीवी अपनी आखिरी साँसें गिन रही थी। बीवी ने मरते-मरते अपने पति से पूछा, “क्या मेरे मरने के बाद तुम दूसरी शादी करोगे?” पति ने बहुत कोशिश करके आँखें नम करीं और ग़मग़ीन लहज़े में बोला, “कभी नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता।” बीवी बोली, “मुझे मालूम है तुम दूसरी शादी ज़रूर करोगे। मेरी एक विनती है कि मेरे शादी के कपड़े उसे मत पहिनाना, वरना मेरी आत्मा को बहुत दुख पहुँचेगा।” बीवी को समझाते और तसल्ली देते देते पति झोंक में बोल गया, “वैसे भी तुम्हारा शादी का सूट नसीमा को फिट तो बैठेगा नहीं।” अभी बीवी मरी नहीं थी, वह आगे की तैयारी पहिले ही कर चुका था।

हालातों ने कितनों के दिल ही छील डाले हैं। कितने अपने घरों में ही अजनबी की तरह जीते हैं, तब खामोशी में यह विचार आता है कि चल खुदकुशी ही कर ले। जो हमारी आँखों को दिखता है, वह आदमी का असली चेहरा नहीं होता। जो बात हमारे कान सुनते हैं वास्तव में वह आदमी के दिल की बात नहीं होती।

एक व्यक्ति की पत्नि की अर्थी जा रही थी। वह आदमी चिल्ला-चिल्ला कर रो रहा था। बाहर से दुखी दिखता था पर अन्दर से था नहीं। भीड़ उसे बहुत दिलासा दे रही थी। गाँव के आखिरी संकरे मोड़ पर एक पुराना बरगद का पेड़ था, मुड़ते समय अर्थी उससे टकरा गई, कफन हिला और बीवी उठ बैठी। आदमी का रोना-पीटना तो बन्द हो गया पर अब दिल दुखी हो गया। अन्दर ही अन्दर सोचने लगा कि “यह मुसीबत फिर जी उठी।” बीवी दो साल और जीवित रह कर फिर मर गई।

आदमी फिर रो रहा था, फिर अर्थी उसी रास्ते जा रही थी, फिर वही मोड़ और बरगद का पेड़ आया। वह आदमी रोना बन्द कर, तेज़ी से अर्थी के आगे आया और उठाने वालों से बोला, “भाई लोगों ज़रा ध्यान से और बरगद से बच कर निकलना।” लोग उसे रोता चिल्लाता तो देख रहे थे पर अन्दर की बात तो कुछ और ही थी। हम परिवार में भी अपनों को ही धोखा देते और अपनों से ही धोखा खाते रहते हैं।

परमेश्वर ने अगर हमारी खोपड़ी में एक खिड़की लगा दी होती तो बड़ा ग़ज़ब हो गया होता। खिड़की से झाँक कर लोग पता कर लेते कि अन्दर क्या चल रहा है। कितने घर बरबाद हो गये होते। पर परमेश्वर की दया से केवल परमेश्वर ही देख पाता है कि आपकी और मेरी खोपड़ी में क्या क्या चल रह है। वो देखता है कि आप कितनों के प्रति जलन से भरे हैं, गन्दे विचारों से भरे हैं। उसे पता है कि आपने कितनों के पैसे और सामान वापस नहीं किए और न करने की मन्सा रखते हैं। आपके घर में क्या क्या चल रहा है, कितने गन्दे संबंध छिपाकर पाल रखे हैं, परमेश्वर सब जानता है। हम अपनी ज़िन्दगी के असली रंग तो बहुत छिपाकर रखते हैं, पर औरों को वह दिखाते हैं जो हैं ही नहीं।

कुछ लोग अपने आप से, अपने परिवार से बहुत उदास परेशान रहते हैं। कुछ के ग़म सारी उम्र उनके दिल पर ठहरे रहते हैं। कुछ अपनी समस्याओं का अन्त आत्म हत्या में ढूँढते हैं। पर आत्म हत्या तो कोई उपाय नहीं है। यह तो एक हत्या है और एक ऐसी हाय है जो हमेशा के हादसे में कुदा देती है। वैसे तो बहुतों के पास बहुत कुछ है पर वास्तविक खुशी और चैन नहीं, तभी मन का एक सूनापन उन्हें बहुत सताता है। आप और आपके परिवार का क्या हाल है?

जीवन में हारे, हाँफते, परेशान, बेचारे, बेचैन लोगों से प्रभु यीशु कहता है “मेरे पास आओ, मैं तुम्हें चैन दूँगा (मत्ती ११:२८)।” प्रभु बताता है कि हर परेशानी की जड़ पाप है। यही पाप हमेशा भयानक परेशानी और बेचैनी उत्पन्न करता है। वह यह भी कहता है कि सबने पाप किया है (रोमियों ३:२३) कोई किसी भी धर्म का क्यों न हो, किसी भी स्तर का क्यों न हो। परमेश्वर “अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है (प्रेरितों १७:३०)।” परमेश्वर के वचन का यह पद शुरू होता है ‘अब’ से। ‘अब’ जब संसार के पाप की दशा परमेश्वर के सहने की सीमा तक आ पहुँची है। ‘अब’ जब बस परमेश्वर की बरदाश्त टूटने और पाप से जुड़ी हर चीज़ पर उसका कहर बरसने को है। इसिलिए वह आपसे कहता है, ‘हर जगह’ सबसे कहता है, इस मौके को न गंवाओ, अभी भी चेत जाओ, बच जाओ। चाहे आप कितना ही गिरा हुआ, शर्मनाक जीवन क्यों न जी रहे हों, आपके पाप कैसे ही क्यों न हों, आपने वह पाप कितने ही छिप कर या गुमनामी में क्यों न किए हों, परमेश्वर से कुछ छुपा नहीं है। वह आपके सब पापों को पूरी तरह से जानता है और अभी उन्हें क्षमा करके आपको एक नया जीवन देना चाहता है - अगर आप लेने को तैयार हों!

परमेश्वर का वचन हमें चार ‘कालों’ के बारे में बताता है - १. भूतकाल (जो बीत गया); २. वर्तमान काल (जो जी रहे हैं); ३. भविष्य काल (जो आने वाला है); ४. आनन्त काल (जो मौत के बाद शुरू होता है और समय की सीमा से बाहर है)। सत्य वचन, इब्रानियों ९:२७ में कहता है “एक बार मरना फिर न्याय का होना निश्चित है। जो भी मनुष्य ने किया, उसका न्याय होगा। हर पापी अनन्त विनाश की पीड़ा में धकेला जाएगा। इसीलिए वही सत्य वचन चेतावनी भी देता है कि “यदि मन न फिराओगे तो इसी तरह नाश होगे (लूका १३:५)।” ‘मन फिराने’ का मतलब है प्रभु यीशु से पापों का अंगीकार करके उन पापों की क्षमा माँगना और उनसे मुँह मोड़ लेना - उस प्रभु यीशु से जिसने आपके पापों की क्षमा, आपको उनके दण्ड से बचाने के लिए, क्रूस पर अपनी जान दी।

अब एक निर्णाय का समय हमारे सामने है। अब, मौका रहते, यदि हमने अपने पापों के बारे में फैसला नहीं लिया तो फिर बात हाथ से निकल जाएगी और परमेश्वर को ही फैसला लेना पड़ेगा। जो पाप की दशा में उसके सामने जाएगा, वह पापी होने का दण्ड भी पाएगा। यदि हमने पापों से क्षमा नहीं माँगी तो हमारे सोचने की सीमा से बाहर हम पर गुज़रने ही वाला है।

प्रिय पाठक, एक प्रार्थना करके कहें “हे यीशु दया करके मेरे पाप क्षमा कर दें।” परमेश्वर का दिल तो आपको माफी देने को तैयार है लेकिन अगर आपका दिल माफी माँगने को तैयार नहीं है तो वह ज़बरदस्ती अपनी माफी आप पर थोपेगा नहीं। वह आपके सामने दोनो मार्ग और उनकी मंज़िलें स्पष्ट रूप से रख देता है, किस मार्ग पर चलना और किस अंजाम तक पहुँचना चहते हैं, यह आप पर है। ध्यान रहे, जो मौका है वो यहीं, इसी जीवन में है। मौत के बाद फिर माफी का कोई मौका नहीं है, फिर तो न्याय है; फिर इस जीवन में किए गए अपने चुनाव का अंजाम अनन्त कल तक भोगने के अलावा और कोई स्थिती नहीं होगी। मौत की लाईन में तो सभी खड़े हैं, कोई आगे है तो कोई कुछ पीछे। कई बार बेटा मौत की लाईन में बाप से आगे खड़ा होता है। जो पैदा हुआ है, वह निश्चय मरेगा भी। हर बीतता पल, हर बढ़ता कदम मौत के और निकट लाता जाता है। इस सच्चाई से आप बेखबर न रहें, जिसने पापों की क्षमा नहीं माँगी वह कैसी दुर्दशा में होगा, न यहाँ चैन से जिया और न वहाँ चैन से रह पाएगा। प्रभु यीशु कोई धर्म देने कतई नहीं आया, वह तो आपको पापों की क्षमा देने आया ताकि कोई नाश न हो पर सब अनन्त आनन्द और अनन्त जीवन पाएं।

बहुत से बेवकूफ कहते हैं “कल किसने देखा है?” पर हकीकत यह है कि कल तो हर एक ने देखना भी है और भोगना भी है। बड़ी खामोशी से साल दर साल हाथों से खिसकते चले गए और मालूम ही नहीं पड़ा। उम्र तो बीतती ही जा रही है, लीपा-पोती से कोई कब तक जवान रहने का भ्रम बना कर रख सकता है। जिस्म की जिल्द से झुर्रियों को छुपने की भरसक कोशिश कर लो, खिज़ाब से बालों का असली रंग छुपा कर रख लो पर इन दिखावों से बढ़ती उम्र न रुकती है न घटती है। जिस घटना के बारे में सोचते ही दहशत आती है, कहीं जीवन के अगले ही पल में वो आपका इंतज़ार ना कर रही हो। मौत के सन्नाटे किसी न किसी के लिए तो हर पल के साथ जुड़े खड़े हैं, कब किसको अपने साथ जोड़ लें किसी को नहीं पता। मौत आई तो फिर पापों से क्षमा माँगने की मोहलत कभी नहीं देगी, बस चुपचाप दबे पाँव आकर उठा ले जाएगी।

आदमी एक अन्देखी शक्ति - पाप करने की प्रवर्ती से बंधा खड़ा है। जो नहीं चाहता वह कर डालता है, जिससे घृणा आती है उसे भी करने से अपने आप को रोक नहीं पाता (रोमियों ७:१५)। कैसा भी और कितना ही प्रयास क्यों न कर लो, अन्ततः यह शक्ति हावी हो ही जाती है। अगर प्रगट में नहीं तो छुपकर, शरीर में नहीं तो मन में, कर्मों में नहीं तो लालसाओं में लेकिन इस शक्ति के प्रभाव से बच पाना मनुष्य की सामर्थ से बाहर है। आपका सच्चा पश्चाताप, आपको इस अन्देखी शक्ति से छुटकारा पाने और बचने की सामर्थ देता है; एक ऐसी सामर्थ जो आपकी नहीं वरन पाप और मृत्यु पर जयवंत प्रभु यीशु की है। क्योंकि सच्चे पश्चाताप और समर्पण के बाद आप प्रभु यीशु के शरणागत हो जाते हैं और उसका आत्मा आप में निवास करता है, आपको सामर्थ देता है। सच मानिएगा सच्ची शान्ति उसी से मिलती है क्योंकि सच्ची शान्ति वहीं है जहाँ पाप नहीं है।

प्रीय पाठक यह लेख तो अब समाप्ति पर है, मेरी आपसे जो इस लेख को पढ़ रहे हैं विनम्र विनती है इस मौके को न गवाँएं। आप चाहें तो अभी प्रभु यीशु से यूँ प्रार्थना कर सकते हैं “हे यीशु मुझ पापी पर दया करके मेरे पाप क्षमा कर दें, मैं जैसा हूँ वैसा ही आपके पास आया हूँ, मुझ पापी पर दया करें। मेरे जीवन में, मेरे परिवार में सच्ची शान्ति और खुशी दें।”

सच्चे मन से की गई पश्चाताप की एक प्रार्थना आपका अनन्त काल बदलने की सामर्थ रखती है।

गुरुवार, 25 जून 2009

सम्पर्क फरवरी २००२: कोई था जो मेरे द्वार पर आया

मेरा नाम शताब सिंह है और मैं ज़िला सहारनपुर की बेहट तहसील के ग्राम लोदिपुर का निवासी हूँ। मैं एक अनपढ़ और ग़रीब परिवार में पला और बड़ा हुआ। मेरे माता-पिता इस स्थिति में नहीं थे कि वे मुझे पढ़ा सकते,इसलिए मुझे १० साल की उम्र से ही एक ज़मींदार के यहाँ पशु चराने की नौकरी पर लगा दिया गया। वहाँ मेरी उम्र के और भी बच्चे थे, जो बड़ी शैतानी करते थे उन्में से मैं भी एक था।

जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया, तो मेहनत मज़दूरी भी करने लगा। जो भी पैसे मज़दूरी से कमाता, बुरी संगति के कारण, बुरे कामों में उड़ा देता था। देखते देखते मैं २५ वर्ष का हो गया और इसी दौरान मेरी शादी भी हो गई। शादी होने के कारण मेरी ज़िम्मेदारी भी बढ़ गई और मेरे मौज-मस्ती के जीवन में विघ्न पड़ गया। लेकिन इत्तेफाक से मुझे एक अच्छी मेहनत करने वाली पत्नी मिल गयी। हम दोनो ही इकट्ठे मेहनत मज़दूरी करते और जो पैसा मिलता उसमें से कुछ बचा भी लेते। उस पैसे को मैं ब्याज़ पर भी दे देता था, और इसी पैसे से मैंने अपना घर भी बनाया। इसके बाद मैं फिर बुरी संगति में बैठने लगा, धीरे धीरे शराब भी पीने लगा और घर वालों को परेशान भी करने लगा। बात यहाँ तक बिगड़ी कि मुझे ग़लत कामों से रोकने पर मैं अपने माँ बाप को डाँट भी देता और उनकी पिटाई भी कर देता था। इस तरह मैं ने अपना सारा धन शराब में उड़ा दिया। अब मैं धीरे धीरे फिर कंगाली की कगार पर आ गया। मेरे मित्र मुझ से कटने लगे और मैं असहाय सा हो गया। अब मेरे सामने बहुत सारी समस्याएं मुँह फैलाए खड़ी हो गईं, रोज़ी रोटी के लाले पड़ गये और मैं बीमार रहने लगा। मैं इतना बीमार हुआ कि मेरी कमर 60० के कोण से झुक गई और मैं बहुत कमज़ोर हो गया। डाक्टरों ने मुझे हड्डी की टी०बी० बताई, मुझे लगने लगा कि मैं अब कुछ ही दिन जीवित रहुँगा। इतना सब कुछ होने के बाद भी मैं न तो परमेश्वर को जानता था और न ही पहचानता था। बस मनुष्य द्वारा निर्मित इश्वरों और साधु-सन्तों में ही परमेश्वर को खोजता रहा।

इस हाल में ही एक दिन मैं टी०वी० पर एक कार्यक्रम देख रहा था, जिसमें मैंने देखा कि यीशु नाम के एक व्यक्ति ने बहुत से बीमारों को चंगा कर दिया। फिर भी लोग उसपर अत्याचार कर रहे थे और उस पर पत्थर मार रहे थे, अन्त में उसे क्रूस पर चढ़ा दिया गया। मैं सोच रहा था कि यह कौन व्यक्ति है जो इतना दुखः सहन करके भी कुछ नहीं बोलता? जो लोग उस पर अत्याचार कर रहे हैं उनके लिए प्रार्थना कर रहा है। मेरे मन में उसे जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उसी दिन शाम को मेरा एक रिशतेदार मेरे पास आया और बोला कि तुम भी चंगे हो सकते हो यदि तुम मेरे साथ चलो। लेकिन इसके लिए तुम्हें शराब बीड़ी आदि सभी गंदी आदतें छोड़नी होंगी। मैं चलने को तैयार नहीं था पर मेरे घर वालों ने मुझे उसके साथ ज़बरदस्ती भेज दिया।

उस स्थान पर पहुँच कर मैंने देखा कि जो चित्र मैंने टी०वी० पर देखा था, वही चित्र वहाँ भी लगा है। मेरे मन में कुछ विश्वास जागा कि यही व्यक्ति मुझे भी ठीक कर सकता है। संगति के बाद उन लोगों ने मुझे एक क्रूस की माला और यीशु का एक पोस्टर भी दिया। मैंने वहाँ संगति में कुछ पैसे भी दिये और कहा कि आप मेरे लिए प्रार्थना करें। उन्होंने कहा कि तुम्हें लगतार संगति में आना पड़ेगा और तुम ठीक हो जाओगे। मैं अपने परिवार के साथ निरंतर संगति में जाता रहा। वे लोग मुझे प्रार्थना करके तेल और पानी भी देते थे और कुछ दिन बाद मैं ठीक भी हो गया। स्वस्थ होने के बाद मैं फिर मज़दूरी करने लगा।

एक दिन मुझे पता चला कि ग्राम ताहरपुर में एक संगति है जो रात्रि में होने वाली थी। उसमें मैं भी शामिल हुआ। वहाँ पर मैंने एक व्यक्ति को देखा जो बहुत अच्छा प्रवचन देता था और उसके द्वारा बड़े बड़े आश्चर्यकर्म भी हुए। एक दिन मैंने उस व्यक्ति को शराब पीते हुए देखा, मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने संगति के एक व्यक्ति से इसके बारे में पुछा कि आप तो शराब पीने से मना करते हो और यह तो शराब पीता है। तब उसने कहा कि तीन दिन, शुक्रवार, शनिवार और रविवार को छोड़ आप किसी भी दिन शराब पी सकते हो। इतनी बात सुनकर मैंने फिर शराब पीना शुरू कर दिया। साथ ही कमर का दर्द फिर से उठ खड़ा हुआ और इतना बढ़ गया कि उसे दबाने के लिए मैं हर वक्त शराब पीने लगा। मेरी हालत लगातार बिगड़ती चली गई। धीरे धीरे माँ-बाप, रिशतेदार, यार सभी मेरा साथ छोड़ते गए। तब एक सम्बंधी मुझ पर दया करके मुझे हर्बटपुर के अस्पताल में छोड़ आया जहाँ मेरा इलाज चला। लेकिन मेरे पास न तो पैसे ही थे और न ही सहारा। दवा कहाँ से आएगी, इलाज कैसे चलेगा; इसी उधेड़-बुन में मैं पूरे दिन पड़ा रहता था। सोचता था कि बस अब ज़िन्दगी थोड़े ही दिनों की है।

मैं प्रार्थना करनी नहीं जानता था पर फिर भी प्रभु यीशु के नाम से टूटी-फूटी प्रार्थना कर लिया करता था। उसी का परिणाम हुआ कि एक दिन मेरे पास प्रभु का एक सच्चा दास आया, जिससे मेरी कोई जान पहचान नहीं थी। उसने मुझ से पूछा “आप के दरवाज़े पर जो निशान बना है वो क्या है?” मैंने कहा कि यह प्रभु यीशु के क्रूस का निशान है। उसने फिर सवाल किया कि क्या आप का उद्धार हो गया है और क्या आपके पाप क्षमा हो गए हैं? मैंने कहा मुझे पता नहीं कि उद्धार क्या होता है और पाप कैसे क्षमा होते हैं। उसने मुझ से कहा कि भाई बादशाही बाग़ में एक संगति होती है, आप वहाँ जाया करो। वहाँ आप पापों से मुक्ति और उद्धार के बारे में जान पाओगे। मैंने उसे वहाँ जाने का आश्वासन तो दिया पर नहीं गया। वह भाई फिर मेरे घर आया और पूछा कि “क्या आप बादशाही बाग़ गये थे?” मैंने असमर्थ्ता जताई कि किन्ही कारणों से मैं नहीं जा पाया। एक बार फिर मैंने उसे आश्वासन दिया कि मैं वहाँ ज़रूर जाऊँगा। एक दिन मैं हिम्मत करके वहाँ चला गया।

वहाँ बैठकर मुझे सब कुछ अजीब सा लगा। एक दिन वही भाई मेरे पास पुनः आया और उसने वही सवाल किया “क्या आप बादशाही बाग़ गए?” मैं ने कहा भाई मैं गया था और मुझे वहाँ बहुत अच्छा लगा लेकिन सच तो यह था कि मुझे वहाँ बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था। उसने मुझ से फिर से जाने के लिए कहा, फिर एक दिन वो ही भाई मुझे अपने साथ बादशाही बाग़ संगति में लेकर गया और वहाँ उसने मेरी मुलाकात कई विश्वासी भाईयों से करवाई। वहाँ उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए नए नियम पस्तक की एक प्रति भी दी।

इस बार मुझे कुछ अच्छा लगा और मेरे अन्दर प्रभु यीशु को जानने की उत्सुकता जागी। जैसे-जैसे मैं संगति में जाता रहा और प्रभु में बढ़ता रहा, तैसे-तैसे शैतान भी अपने हमले मुझ पर तेज़ करता गया। इधर मैं प्रभु में बढ़ रहा था उधर मेरी पत्नि और मेरी लड़की बिमारी में बढ़ रहीं थीं। मैं प्रार्थना करने लगा और भाईयों को भी प्रार्थना के लिए कहा। उन्होंने प्रभु के वचन के द्वारा मुझे बहुत हियाव दिया। धीरे धीरे मेरे सब पाप और बुरे काम छूतते चले गए। मैं सोच भी नहीं सकता था कि किसी तरह मेरे गन्दे काम छूट जाएंगे, लेकिन ऐसा हो गया। मैं बुरे दोस्तों की संगति से भी दूर चला गया। प्रभु की दया से, दाऊद के समान, मैं सब लौटा ले लाया।

अब प्रभु मुझ से अपने वचन के द्वारा बातें करने लगा और मेरा आनन्द बढ़ता गया। मैं सोच भी नहीं सकता था कि मेरे पाप क्षमा हो जाएंगे, लेकिन प्रभु ने अपने वचन से मुझे विश्वास दिया कि उसने मेरे एक-एक पाप को काली घटा के समान मिटा दिया है। लेकिन एक समस्या मेरे साथ उत्पन्न हो गई। जैसे जैसे मैं प्रभु में बढ़ता गया तो मेरे समाज के लोग और रिशतेदार कहने लगे कि यह तो इसाई हो गया है। परन्तु सच तो यह है कि मैंने अपना धर्म नहीं बदला पर अपना कर्म बदला है। पहले मैं पापों में जीता था, अब मेरा पापों से छुटकारा हो गया है। अब मैं पूर्ण रूप से आश्वस्थ हूँ कि यदि मैं आज मर भी जाऊँ तो सीधे स्वर्ग जाउँगा क्योंकि प्रभु यीशु ने मेरे पापों को अपने उपर ले कर मेरा सारा कर्ज़ चुका दिया है और मेरे पापों को अपने लहू से धो दिया है। उसकी दया से आज मेरे पास शान्ति और आनन्द है।

मंगलवार, 23 जून 2009

सम्पर्क फरवरी २००२: आराधना का आधार

प्रार्थना कहीं पर स्वार्थ की पतली गली से होकर भी जा सकती है, पर आराधना स्वार्थ से कहीं परे, प्यारे प्रभु को एक खुले आकाश में दिल से गाती है।

जब स्नेह भरी सेवा शब्दों के साथ करते हैं तो वह स्तुती का स्वरूप धारण कर लेती है।

विशाल सागरों की अपनी सीमाएं हैं, शब्दों की भी अपनी सीमाएं हैं, मानव की सोच की भी अपनी ही सीमाएं हैं।पर प्यारे प्रभु के प्यार की कोई सिमाएं नहीं। वह दया का ऐसा सागर है जो मुझ जैसे को प्यार कर सकता है, क्षमा दे सकता है।

परमेश्वर अपने इकलौते पुत्र को पीड़ा की चरम सीमाओं के समय क्रूस पर भूल सकता है, त्याग सकता है; पर उसका एक अजीब प्यार है जो मुझ जैसे से वाय्दा करता है कि मैं न तुझे कभी छोड़ुंगा न त्यागुंगा।

यह वास्तविक सच्चाई है कि मेरे पास याकूब का सा स्वभाव है, पर इसमें ज़रा भी शक नहीं कि मेरे पास याकूब का परमेश्वर भी है, जो मुझे कभी नहीं छोड़ेगा।

एक व्यक्ति बहुत कुड़कुड़ा रहा था कि उस के पास एक जोड़ी जूते भी नहीं हैं, तभी उस्की नज़र एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी जिसके पास दोनों पैर ही नहीं थे। वह धन्यवाद से भर गया और बोला, “प्रभु भले ही मेरे पास जूते नहीं, पर दोनो पैर तो सही सलामत हैं।”

हर ‘असम्भव’ के ‘अ’ को हटाकर ‘सम्भव’ करना, केवल परमेश्वर के लिए ही सम्भव है। मौत पर विजय पाना असम्भव था, पर उसने इसे सम्भव बना डाला। मेरे जीवन से मेरे पापों को हटाना मेरे लिए कभी सम्भव था ही नहीं, पर उसने इसे सम्भव बना डाला।

कुछ विश्वासी शैतान से बहुत परेशान रहते हैं। लेकिन कुछ ऐसे हैं जिनसे शैतान बहुत परेशान रहता है - ये वे हैं जो हर हाल में प्यारे प्रभु को भजते हैं, शैतान के आगे समर्पण नहीं करते, उसका सामना करते हैं।


रविवार, 21 जून 2009

सम्पर्क फरवरी २००२: सम्पादकिय

सम्पर्क परिवार आपको सप्रेम नववर्ष की शुभकामनाएं समर्पित करता है। क्षमा चाहते हैं कि यह अंक आपके हाथों में कुछ देर से पहुँच रहा है। आपकी प्यार भरी प्रार्थनाओं और पत्रों से हम हर बार एक नया हियाव पाते जाते हैं।

तैरता हुअ वक्त ऐसे गुज़रा कि पता ही नहीं चला और हम एक नए वर्ष में आकर खड़े हो गये। एक साल चला गया और एक मौका भी इसके साथ निकल गया जो अब कभी नहीम लौटेगा। अब यह नया साल हमारे लिए फिर से एक नया मौका लेकर आया है। लूका १३:७-१० में एक अंजीर के पेड़, उसके मालिक और उसके माली की कहानी है। इस अंजीर के पेड़ ने पिछले सालों में एक अच्छी सुरक्षा और देखभाल पाई थी। इसे अच्छी भूमी पर लगाया गया और इसकी अच्छी देखभाल की गई, किस लिए? दिखाने, सजाने या जलाने की लकड़ी के लिए नहीं, वरन उससे फल की उम्मीद थी। तीन साल तक मालिक उससे फल की आस लगाए रहा और इसी उम्मीद में उसके पास आता रहा, “मैं तीन वर्ष से इसमें फल ढूँढने आता हूँ पर नहीं पाता”(लूका १३:७)। पेड़ तीन साल का नहीं था, तीन साल पहले फल देने लायक हो चुका था। इसीलिए मालिक तीन साल से उसमें फल ढूँढ रहा था, पर हर बार निराशा ही पाता था। पेड़ अपने जीवन से दिखाता है कि उसने उस अनुग्रह के समय को व्यर्थ ठहरा दिया जब उस पर कृपा दृष्टि की गई। अन्ततः मालिक ने उस पेड़ को हटाकर उसकी जगह एक दूसरे पेड़ को लगाने और नए पेड़ पर परिश्रम करने का निश्चय किया। लेकिन माली ने मालिक से विन्ती की “हे स्वामी इसे इस वर्ष और रहने दे कि मैं इसके चारों ओर खोदकर खाद डालूँ” (लूका १३:८) और मालिक से उसके लिए एक साल और माँग लिया। इस अंजीर के पेड़ की जगह हम अपने आप को रखकर सवाल करें, “प्रभु ने मुझे इस संसार में किस काम के लिए रखा है? क्या मैं प्रभु की बारी पर एक बोझ बन कर तो नहीं जी रहा? क्या अपने अनुग्रह के समय को व्यर्थ तो नहीं ठहरा रहा?” इस पेड़ ने पिछले तीन सालों की चेतावनी को लापरवाही से टाल दिया था, अगर यह बचा हुआ था तो सिर्फ अनुग्रह से। बीते साल कितने ही लोग इस संसार रूपी प्रभु की बारी से उखाड़ कर निकाल लिए गए। हम अगर बचे हैं तो सिर्फ प्रभु के अनुग्रह से। वह एक मौका और देना चाहता है कि हम उसके दिए हुए वरदान को उसके लिए उपयोग करें और उसके लिए फल लाएं, न कि उस वरदान को संसार में दफन कर दें, उसे व्यर्थ ठहरा दें।

आदम तो अपने समय को पूरा कर इस संसार से चला गया, पर आदम का स्वभाव आज भी उसकी संतान में ज़िन्दा है। बुलबुल का बोल बड़ा प्यारा है, वह अपने स्वभाव से बहुतों को लुभाती है, किसी को नुक्सान नहीं पहुँचाती। यदि बुल्बुल कौवे की तरह करकश बोले, बस रोटी और बोटी के चक्कर में रहे, जहाँ मौका लगे वहीं झपटे, तो क्या लोग उसे बुलबुल कहेंगे? यही हाल कई ‘विश्वासियों’ का है, उनके जीवन में भी ऐसा ही विरोधाभास दिखता है। भक्त यदि सख़्त बोले, स्वार्थी स्वभाव और कसैले मिज़ाज़ के साथ जिए तो लोग उसे क्या कहेंगे? ऐसे लोग जहाँ बिगाड़ न भी हो वहाँ बिगाड़ पैदा कर डालते हैं। गधे पर हाथी का लेबल लगाने से वह हाथी नहीं बन जाता। विश्वासी का लेबल लगा लेने से कोई विश्वासी नहीं बन जाता। जीवन शैली से, बोल-चाल से, व्यवहार से विश्वासी अलग ही पहचाना जाता है।

ऐसे ही कुछ लोग कहते हैं कि उनमें धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है। उदाहरण देते हैं कि पहले एक हज़ार रुपये रोज़ रिश्वत लेता था, अब सौ रूपये से ज़्यादा छूता भी नहीं; पहले एक ‘बोतल’ से कम नहीं पीता था, अब तो आधी में ही काम चला लेता हूँ। वह जो सत्य को जानता है पर मानता नहीं, वह आधे सत्य के साथ जीता है। सत्य को सिर्फ जानना परन्तु उसका जीवन में उपयोग न करना, सत्य न जानने से ज़्यादा खतर्नाक है। ऐसों के पास प्रभु का वचन जब आता है, उनके सीने में चुभता है, उन्हें कायल करता है, फिर भी वे उसे नहीं मानते, उसे नज़रंदाज़ कर जाते हैं, वे अपने लिए भयानक दंड जमा कर रहे हैं। परमेश्वर मक्कारों और पाखंडियों को ज़रा पसन्द नहीं करता। वचन कहता है, “वह जो अपने स्वामी की इच्छा जानता था और तैयार न रहा... बहुत मार खाएगा” (लूका १२:४७); “ तू गुनगुना है, न ठन्डा है और न गर्म, इसलिए मैं तुझे अपने मुँह से उगलने पर हूँ” (प्रकाशितवाक्य ३:१६); “... भला होता कि वे इस सच्चाई को जानते ही नहीं” (२ पतरस २:२१)।

कई हैं जो आराधना करते हैं, प्रभु भोज में सम्मिलित होत हैं, वचन पढ़ते हैं और फिर भी मन में बदले और बैर की भावना रखते हैं, कितनों के पैसे और सामन वापस नहीं करते, अहंकार, जलन, विरोध सीने में सजाए रखते हैं सालों गुज़र गये पर आत्मा के फल उनके जीवन में कहीं नहीं दिखते। ऐसे लोग मसीही जीवन की गवाही के लिए ठोकर के कारण हैं “... तुम्हारे कारण अन्यजातियों में परमेश्वर के नाम की निन्दा की जाती है” (रोमियों २:२४); “...ये उसके पत्र नहीं, यह उनका कलंक है” (व्यवस्थाविवरण ३२:५)। उनके लिए भला होता कि चक्की का पाट गले में डालकर, उन्हें सागर में डाल दिया जाता (मत्ती १८:६)। उन्होंने मात्र घर की दीवारों पर पवित्र वचन के पदों को ठोक रखा है, पर उनके दिलों में पवित्र वचन कभी नहीं बसने पाया। वे कान रखते हुए भी बहिरे और आँख रखते हुए भी अँधे हैं, क्योंकि वे जानबूझकर समझना ही नहीं चाहते, उन्हें समझाना भी बड़ी टेढ़ी खीर है।

एक बार एक दावत में एक देहाती अन्धे ने जीवन में पहली बार मेवों से भरी हुई खीर खाई, उसे बड़ा मज़ा आया। अन्धे ने बगल में बैठे एक व्यक्ति से पूछा “ये क्या चीज़ है?” व्यक्ति ने जवाब दिया, “खीर है।” अन्धे ने फिर पूछा “खीर देखने में कैसी होती है?” फिर जवाब मिला “सफेद होती है।” अन्धे ने फिर पूछा “सफेद कैसा होता है?” उस व्यक्ति ने कुछ परेशान होकर कहा “सूरदास जी बगुले की तरह।” अन्धे ने फिर पूछा “भाई बगुला कैसा होता है?” बगल वाले ने अपने हाथ को बगुले की गर्दन की तरह बनाया और अन्धे को छुआकर बताया कि “बगुला ऐसी मुड़ी गर्दन का होता है।” अन्धे ने मुड़ा हाथ टटोलकर कहा “यार खीर तो बड़ी टेढ़ी होती है!” कुछ ऐसे ही आत्मिक अन्धों को समझाना है।

लूका १९:४१-४४ में लिखा है कि जब यीशु यरूशलेम के निकट आया तो नगर को देखकर रोया और कहा “क्या ही भला होता कि तू हाँ तु ही इस दिन कुशल की बातें जानता। क्योंकि तूने वह अवसर जब तुझपर कृपादृष्टि की गयी न पहिचाना।” यहूदियों का नया साल शुरू ही हुआ था, चार दिन बाद होने वाले यहूदियों के सबसे बड़े त्योहार की तैयारियाँ की जा रहीं थीं। यरुशलेम तीर्थ यात्रियों से खचा-खच भरा हुआ था। लोग जोश और खुशी से भरे जय-जयकार कर रहे थे। प्रभु एक ऐसे स्थान पर खड़ा था जहाँ से सारा यरुशलेम शहर एक नज़र में देखा जा सकता था। पर प्रभु न सिर्फ उसका वर्तमान देख रहा था, उसे यरुशलेम का भविष्य भी दिखाई दे रहा था। यरूशलेम, जो शान्ति का नगर कहलाता था (इब्रानियों ७:२), उसने शान्ति के राजकुमार को अर्थात परमेश्वर के पुत्र और उसके वचनों को ठुकरा दिया था। परमेश्वर की चेतावनियों की बेपरवाही और बेकद्री के कारण अब यरुशलेम पर कहर बरसने को तैयार था। लोग खुश हो रहे थे पर प्रभु रो रहा था। वह नहीं चाहता कि कोई नाश हो। प्रभु दुखी मन से उस शहर को कह रहा था कि जब तुझ पर रहम किया गया तो तूने उस समय को नहीं पहिचाना और परमेश्वर की चेतावनी को लापरवाही से लिया। तब से छः सौ साल पहले राजा नबूकदनेस्सर ने, परमेश्वर की चेताविनियों की अन्धेखी करने और ऐसी ही ढिटाई में बने रहने के कारण यरूशलेम को पहली बार बरबाद कर डाला था। अब फिर वैसे ही स्वभाव के कारण, उसकी दूसरी बरबादी निकट आ रही थी। हम प्रेरितों के काम में देखते हैं कि जिन्होंने चेताव्नियों को मान लिया वे तो बच निकले पर यरुशलेम नहीं बचा। ऐसे ही संसार भी अपनी दूसरी बरबादी के निकट आ खड़ा हुआ है; पहली बरबादी नूह के समय हुई थी। एक बड़ी दहशतनाक बरबादी अब संसार से सटी खड़ी है।

उस समय यरूशलेम के मंदिर में परमेश्वर की आराधना, प्रार्थना, बलिदान, भेंट, भजन, संगीत सब चल रहा था,पर प्रभु कह रहा था कि तुमने इसे डाकुओं की खोह बना दिया है। आज भी मण्डलियों में आराधना, प्रभु भोज, प्रार्थना सब कुछ वैसे ही चल रहा है, पर अन्दर की वास्तविक दशा भी प्रभु से छुपी नहीं है।

जब पहली बार यरुशलेम बरबाद हुआ तब राजा यहोयकीम क राज्य था (दानिएल १:१) अंजीर के पेड़ के समान, परमेश्वर ने यहोयकीम को भी तीन साल दिए, पर उसने अपने पाप से मन नहीं फिराया। नबूकदनेस्सर ने यरुशलेम को घेर कर बरबाद कर डाला। इसके लगभग छः सौ साल बाद सन ७० में रोमी सम्राट वैस्पियन के पुत्र तीतुस ने यरुशलेम को पूरी तरह से बरबाद कर डाला। सम्सार के इतिहासकार बताते हैं के नबूकदनेस्सर और वैस्पियन दोद्नो बहुत ही सामर्थी सम्राट थे, इस कारण वे यरुशलेम को बरबाद कर पाए। पर बाईबल बताती है कि यहूदी लोगों के पाप के कारण यरुशलेम की बरबादी हुई। यदि ये सम्राट दस गुणा और भी सामर्थी होते, तो भी यरुशलेम के पत्थरों पर से एक पत्थर भी न हटा पाते, यदि पाप ने उसकी सुरक्षा को पहले ही न हटा दिया होता। अब दूसरी बार यह पृथ्वी भी अपने पाप के कारण अपनी बरबादी के करीब खड़ी है।


नबुकदनेस्सर ने यहूदी राजपुत्रों में से जो योग्य थे, उन्हें अपने महल में अपनी सेवा के लिए लगा लिया (दानियेल १:३,४)। आज परमेश्वर की सन्तान को शैतान ने पद, पैसे और परिवार की सेवा में ही लगा रखा है। वे परमेश्वर के लिए नहीं, शैतान के लिए उपयोगी बन गए हैं। उनका परमेश्वर के लिए काम न करना ही शैतान के लिए काम करने जैसा है। संसार की चकाचौंध, समपदा और उपलभदियों ने स्वर्ग के धन को उनके लिए छोटा कर दिया है, वे उस चिरस्थाई धन को छोड़, इस नाश्मान धन को संजोने में लगे हैं। लूका १९:४५ की ऐसी दशा में, जब मन्दिर डाकुओं की खोह बन चुका था, तब प्रभु ने मन्दिर को शुद्ध करने की आखिरी कोशिश एक बार फिर की। क्या आप को यह एहसास है कि आप परमेश्वर का मन्दिर हैं (१ कुरिन्थियों ३:१६)?

प्रिय पाठक प्रभु आपसे कह रहा है कि पाप को छुपाना कितनी बड़ी बेवकूफी होगी, जबकि हम जानते हैं कि प्रभु से हमारा कोई पाप छुपा नहीं है, और प्रभु हमारे हर एक पाप को बड़ी सहजता से क्षमा भी कर देगा यदि हम दिल की ईमान्दारी से उसे मान लें और उससे क्षमा माँग लें। प्रभु चाहता है कि हम शिक्षा, सेवा और संबंध, इन तीनों में सही हों। कितने हैं जो शिक्षा में सही हैं, पर सेवा में आलसी हैं; कितने सेवा में बड़े चुस्त रहते हैं पर ग़लत शिक्षा में फंसे रहते हैं। संबंधों में सही होने के लिए हम इन छः सवालों से अपने आप को जाँच सकते हैं:-

१. परमेश्वर से व्यक्तिगत संबंध - व्यक्तिगत प्रार्थना, बाईबल अद्धयन, पारिवारिक प्रार्थना का जीवन कैसा है?
२. परिवार के सदस्यों से संबंधओं की दशा कैसी है?
३. मण्डली के सदस्यों से सम्बंध; क्या सिर्फ दूसरों की आलोचना करने, उन्हें ‘ठीक’ करने में ही लगे हैं या उनके साथ मिल-बैठकर उनकी परिस्थित्यों और समस्याओं को समझने और सुलझाने में भी कार्यशील हैं?
४. हमारे शत्रुओं से हमारे संबंध; क्या उनका बुरा देखना चाहते हैं या उनका उद्धार? क्या उनके लिए प्रार्थना कर सकते हैं कि ‘हे पिता इन्हें क्षमा कर’?
५. आप के कार्य स्थल में सहकर्मियों से संबंध; क्या आप के जीवन और कार्य में वे मसीह की गवाही को देखते हैं?
६. उन विश्वासियों से आपके संबंध जिनसे आप सहमत नहीं हैं, कैसे हैं?

अगर संबंध सही नहीं हैं तो आपने कहीं न कहीं शैतान से कोई छिपा समझौता कर रखा है। अपने दोष छुपने के लिए दूसरों पर दोष लगाना बहुत सहज है, पर इससे आपके दोष दूर नहीं हो जाते। परमेश्वर और उसका वचन ठठों में नहीं उड़ाया जा सकता, जो आप बोएंगे, वही आपको काटना भी पड़ेगा (गलतियों ६:७)।

अब अपनी इस ढलती शाम में, जहान कुछ ज़यादा ही ज़हरीला हो चला है। संसार की यह शाम भी दबे पाँव चुपचाप निकल जाएगी और अचानक ही समय, शून्य के सरोवर में, हमेशा के लिए लुप्त हो जाएगा; पीछे छोड़ जाएगा कुछ के लिए एक दिन, और कुछ के लिए एक रात। जो तैयार हैं उनके लिए धार्मिक्ता का सूर्य चँगाई लिए हुए आएगा (मलाकी ४:२) उस सदा काल के दिन में वे परमेश्वर के राज्य में उसके साथ सर्वदा राज्य करेंगे (प्रकाशितवाक्य २२:५)। परन्तु जो तैयार नहीं हैं, उनके लिए वो रात आ पहुँचेगी जिसकी फिर कोई सुबह नहीं होगी। उस भयानक रात में कोई कभी कुछ भी नहीं कर पाएगा (यूहन्ना ९:४), बस जो समय रहते किया या नहीं किया उसी का प्रतिफल भोगने के लिए रह जाएगा (मत्ती २५:३०)।

क्या आप तैयार हैं?

एक टुकड़ा प्रभु के स्वर का,
साँसों से सरक कर सीने पर ठहर गया,
तब पाप कहाँ चला गया, पता ही न चला
शून्य के सरोवर में वो सब समा गया
और, पता ही न चला
कितने सालों के साथ, ये साल भी चला गया
और सच मानो, पता ही न चला

- सम्पर्क परिवार