सूचना: ई-मेल के द्वारा ब्लोग्स के लेख प्राप्त करने की सुविधा ब्लोगर द्वारा जुलाई महीने से समाप्त कर दी जाएगी. इसलिए यदि आप ने इस ब्लॉग के लेखों को स्वचालित रीति से ई-मेल द्वारा प्राप्त करने की सुविधा में अपना ई-मेल पता डाला हुआ है, तो आप इन लेखों अब सीधे इस वेब-साईट के द्वारा ही देखने और पढ़ने पाएँगे.

बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

सम्पर्क फरवरी २००१: यात्रा की समाप्ति के समीप

(संपादक के संक्षिप्त शब्दों के साथ)

एक ऐसे जीवन के साथ थोड़ी देर गुज़ारिएगा जो अब मौत के बिल्कुल करीब खड़ा है। मालूम नहीं पर ऐसा हो सकता है कि जब तक “सम्पर्क” का यह अंक आप तक पहुँचे वह प्रभु के पास न पहुँच जाए। डॉक्टरों के अनुसार उसके जिस्म में जीने के लिए अब ज़्यादा कुछ बचा ही नहीं है। जनवरी में इस भाई का यह संदेश मुझे मिला कि वह मुझ से मिलना चाहता है। मैं उससे जाकर मिला। मिलते ही उसने मुझसे पूछा, भाई आपकी तबियत कैसी है? और कहा मैं आपके लिए प्रार्थना करता हूँ। उसके चेहरे पर कोई उदासी नहीं थी, वह खुश था, जबकि वह मौत के इतना करीब था, मौत का ज़रा सा भी डर उसमें नहीं था। मौत के सामने खड़ा होकर जैसे मौत का मज़ाक बना रहा हो। वह अपने प्रभु के पास जाने की तैयारी में था। जब हम उसे छोड़ कर जाने लगे तो उसने मुझसे कहा कि मेरे पास लोग आते हैं पर उन्हें देने के लिए मेरे पास सुसमाचार के पर्चे नहीं हैं। मैंने जाते हुए पिछले सम्पर्क के अंक की कुछ प्रतियां उसे दीं। उसमें इस संसार से जाते जाते भी अपने प्रभु के लिए कुछ कर डालने की साहसिक इच्छा थी। ऐसे जलते हुए जीवन के सामने खड़ा होना ज़रा भी सहज नहीं है।

(अनिल भाई ने यह गवाही खुद नहीं लिखी क्योंकि वह लिखने लायक हाल में नहीं था। वह जो बोलता गया, एक दूसरा भाई लिखता रहा।)

मेरा नाम अनिल कुमार है। मेरा जन्म उत्तरांचल के हरिपुर गाँव, ज़िला देहरादून में सन् १९६५ में हुआ। कई साल के बाद हम हिमाचल प्रदेश के किल्लौड़ गाँव में आकर बस गए। जब मैं बड़ा हुआ तो मेरे मन में यह इच्छा जन्मी के मैं परमेश्वर को कैसे पा सकता हूँ? इसलिए मैं हमेशा परमेश्वर की खोज में लगा रहा करता था। मैंने बहुत दूर दूर अनेकों तीर्थों की यात्राएं भी कर डालीं लेकिन मुझे सच्चे परमेश्वर की शांति नहीं मिल पाई। एक दिन मुझे एक जन ने प्रभु यीशु के बारे में पढ़ने के लिए एक पर्चा दिया। मैंने उसे पढ़ा पर विश्वास नहीं कर पाया कि प्रभु यीशु ही सच्चा परमेश्वर है और वही मुझे सच्ची शाँति दे सकता है। इसके बाद मैं अचानक बहुत बिमार हो गया और मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया। उस अस्पताल में भी प्रभु यीशु का सुसमाचार सुनाया जाता था। एक दिन मैंने परमेश्वर के वचन से एक पद, “हे सब बोझ से दबे और थके लोगों मेरे पास आओ मैं तुम्हें विश्राम दूंगा-मत्ती ११:२८” पर सुसामाचार सुना। पहली बार मुझे एहसास हुआ जैसे कोई मुझसे बात कर रहा है और आशवासन दे रहा है कि मैं तुम्हें विश्राम दूँगा। मुझे निश्चय हो गय कि यह किसी मनुष्य की आवाज़ नहीं है, यह परमेश्वर ही मुझसे बोल रहा है।

इसके बाद मुझे यह अहसास हुआ कि मैं एक पापी मनुष्य हूँ और पाप के बोझ से दबा एक बेचैन व्यक्ति हूँ। मुझे पाप के बोझ से छुटकारे की ज़रूरत है। मैंने परमेश्वर के वचन की इस सच्चाई पर विश्वास किया कि प्रभु यीशु ने मेरे पापों का बोझ अपने उपर लेकर अपनी जान दी और मर कर तीसरे दिन जी उठा। अचानक मेरी बीमारी बढ़ने लगी और मुझे खून की काफी उल्टियाँ आने लगीं। लेकिन मैं प्रभु की दया के सहरे चँगा होकर घर आ गया। घर आने के बाद मैं प्रभु यीशु को और जो काम उसने मेरे जीवन में किया था, फिर सब भूल गया।

यूं सालों बीत गये, तब एक दिन हमारे गाँव में कुछ विश्वासी भाई प्रभु यीशु का संदेश लेकर आये। उन भाईयों ने मुझे फिर प्रभु यीशु के प्रेम के बारे में बताया। इससे मेरे विश्वास में एक नयी जान जागी और मैं प्रभु में बढ़ने लगा। उन्होंने मुझे निमंत्रण दिया कि भाई आप हमारे यहाँ संगति में आया करो। फिर मैं लगातार प्रभु के लोगों की संगति में जाने लगा। जब मैं प्रभु के लोगों में आया तो तब प्रभु ने मुझे अपने वचन से यह निश्चय दिया कि उसने मेरे पापों को माफ कर दिया और मेरे अन्दर पाप की बिमारी को चंगा कर दिया है। प्रभु ने मुझे अद्भुत शांति और अद्भुत आनंद से भर दिया।

आज भी मैं शारीरिक तौर से बहुत बीमार हूँ और बीमारी के बिस्तर पर हूँ लेकिन तौ भी मेरे पास प्रभु की अद्भुत शांति और आनन्द है। मैंने परमेश्वर के वचन में अय्युब नाम के एक व्यक्ति के बारे में पढ़ा है कि वह कैसी कैसी मुशकिलों और दुखों से होकर गुज़रा लेकिन तब भी उसने न केवल विश्वास को थामे रखा, वरन उसने परमेश्वर को धन्यवाद ही दिया। इससे मेरे विश्वास को और बढ़ोत्री मिली कि चाहे दुख हो या खुशी, हमें प्रभु को नहीं भूलना चाहिए, बल्कि धन्यावाद ही देना चाहिए कि प्रभु परमेश्वर जो भी तूने किया उसके लिए तेरा धन्यवाद हो। परमेश्वर के वचन में मैंने पढ़ा कि सब बातें मिलकर, उनके लिए जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं, भला ही उत्पन्न करती हैं - रोमियों ८:२८। अब मेरे पास एक जीवित आशा है कि चाहे मैं मरुं या जीऊँ, प्रभु मुझे नहीं छोड़ेगा। अगर मैं मर गया तो एक दिन प्रभु के साथ स्वर्ग में होऊंगा। इस संसार से जाने से पहले मैं आप से कहना चाहता हूँ, प्रियों क्या आपके पास ऐसा अद्भुत आनन्द और सच्ची शांति है? यदि नहीं तो आज ही प्रभु यीशु की तरफ अपने हाथ फैला कर उससे माँगें और वह आपको देगा।

सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

सम्पर्क फरवरी २००१: परमेश्वर के वचन से सम्पर्क

यूहन्ना प्रेरित नये नियम के उन आठ लेखकों में से एक है जिनके द्वारा पवित्र आत्मा ने नये नियम की २७ पुस्तकों को लिखवाया। उनमें से ५ पुस्तकों का लेखक यूहन्ना है।

यूहन्ना यहूदी धर्म का अनुयायी और गलील प्राँत के बेथसदा के निवासी जब्दी और शलोमी के छोटे बेटे थे। ये लोग गलील की झील से मछली पकड़ने का धंधा किया करते थे। यह झील २१ की०मी० लम्बी और ११ की०मी० चौड़ी है। इतनी बड़ी झील में वे पूरी पूरी रात मशालें लेकर नाव खेते थे। भारी जाल जो १०० फीट के घेरे में फैलता था, उसे उन्हें बार बार फेंकना और खींचना पड़ता था। ऐसी सख्त मेहनत ने इनके कंधों, हाथों और जिस्म को आम आदमी से कहीं ज़्यादा मज़बूत बना दिया था।

ये लोग अपना दिमाग का कम और शरीर का ज़्यादा उपयोग करते थे और लड़ने मरने को तैयार रहते थे। इसलिए इस्त्रायली लोग गलील के लोगों को बिलकुल अक्ल से पैदल समझते थे। इस्त्राएल के सर्वोच्च धर्म गुरुओं का विश्वास था कि गलील से कभी कोई नबी प्रकट नहीं होगा (यूहन्ना ७:५२)। अजीब बात यह थी कि प्रभु ने अपने १२ में से ११ चेलों को ऐसे गलील से ही चुना; बस एक यहूदा से था और वह था यहूदा इस्करियोती।

प्रभु के चुनाव को देखिये, उसने जगत के बेवकूफों को चुन लिया, जिन्होंने जगत को उथल पुथल कर डाला और मानवीय इतिहास में ऐसा परिवर्तन लाए जो आज २००० साल बाद भी रुका नहीं। मेरे प्रभु ने ऐसे लोगों को ऐसा बना दिया जैसा कभी कोई सोच भी नहीं सकता। वही प्रभु आज भी वैसा ही है और उसने कहा “मैं तुम्हें बनाऊँगा (मत्ती ४:१९)। जो कोई मेरे पास आयेगा उसे मैं कभी न निकालूँगा (यूहन्ना ६:३७)।” जो भी हो, जैसा भी हो, वह उसे निकालेगा नहीं पर बना देगा।

प्रेरितों के काम ५:३६,३७ पद बताते हैं किउस काल में इस्त्राएलियों ने रोमी सरकार के विरुद्ध कई विद्रोह किये थे और और उन विद्रोहों को रोमियों ने बुरी तरह कुचल डाला था। यूहन्ना ऐसे माहौल में पैदा हुआ और बड़ा हुआ परन्तु वह एक सच्ची शाँती का खोजी था इसलिए वह यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले का चेला बन गया। एक दिन उसके इस गुरू ने एक व्यक्ति को उसे दिखाया और उससे एक बड़े भेद की बात कही। उसने प्रभु की ओर इशारा करते हुए कहा “देखो यह परमेश्वर का मेमना है जो जगत के पाप उठा ले जाता है (यूहन्ना १:२९)।” बस फिर क्या था, उसने अपनी जवानी में ही अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर दिया और प्रभु ने उसे एक ऐसा साहसिक पुरुष बना डाला जो इतिहास में अनन्त तक जीवित रहेगा।

यूहन्ना रचित सुसमाचार में यूहन्ना प्रेरित पवित्र आत्मा के द्वारा इतने सटीक शब्द चित्र प्रस्तुत करता है जैसे सीधे घटना स्थल से कोई चश्मदीद गवाह बोल रहा हो। इन बातों को कोई चुनौती दे नहीं सकता, जैसे: “यह बात दसवें घंटे की है(यूहन्ना १:३९)”; “और यह बात छटे घंटे के लगभग हुई (यूहन्ना ४:६)।” यह सुसमाचार इन घटनाओं के लगभग ५० साल बाद लिखा गया था पर इन घटनाओं का प्रभाव देखिये कि यूहन्ना को घंटे तक याद थे।

यूहन्ना प्रेरित हमारे सामने किसी एतिहासिक यीशु को नहीं रखता पर एक वास्तविक यीशु को जो स्वयं परमेश्वर है प्रस्तुत करता है। वह इसी बुनियादी सच्चाई को लेकर चलता है। वह अपना सुसमाचार आरंभ करता है “आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था और वचन ही परमेश्वर था। यही आदि में परमेश्वर के साथ था (यूहन्ना १:१,२)।” “आदि” शब्द किसी भी समय सीमा के साथ बांधा नहीं जा सकता। इन दो पदों में चार बार “था” शब्द का प्रयोग किया गया है। “आदि” में कितना भी पीछे चले जाएं, जहाँ जाएं वहाँ वचन “था” । यह वचन पैदा नहीं हुआ परन्तु हर जगह पहले ही से “था” । यह वचन सृष्टि नहीं, सृष्टिकर्ता है।

ध्यान दें इन तीन शब्दों पर - (१) ध्वनि, (२) शब्द, और (३) वचन। ध्वनि अर्थहीन होती है और शब्द या आवाज़ सन्देश वाहक होते हैं, जिनके द्वारा सन्देश या विचार हम तक पहुँचता है। लेकिन जिस “वचन” शब्द का प्रयोग यहाँ किया गया है वह इन दोनो से बिलकुल अलग है। उसमें अर्थ है, सामर्थ है: “और वह सब वस्तुओं को अपनी सामर्थ के वचन से सम्भालता है...” (इब्रानियों १:३)। इसी वचन के सुनने से विश्वास उत्पन्न होता है (रोमियों १०:१७)। यही वचन हमें सम्भालता और सुधारता है। यह वचन कोई फिलौसफी नहीं है, यह परमेश्वर के दिल की आवाज़ है। इसी वचन में परमेश्वर की सामर्थ और परमेश्वर की इच्छा है। यूहन्ना अपने इस सुसमाचार में ३६ बार इस “वचन” का प्रयोग करता है। ध्यान दें “वचन” शब्द का उप्योग करता है, वचन्मों का नहीं। प्रभु यीशु के ३७ नामों में से एक नम “परमेश्वर का वचन” भी है। यानि यही एकलौता वचन जो एकलौता पुत्र है।

मेरे लिए तो एक और बात है कि मैं इस वचन के द्वारा अपने अन्दर तक इमानदारी से देख पाता हूँ और यह मेरे लिए पवित्र आत्मा की आवाज़ है। प्रभु की दया से मैं इस वचन काअपने दिल से आदर करता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि यही परमेश्वर है। यह मेरे लिए कोई इतिहास की किताब नहीं है, हर रोज़ का जीवन है। यह मेरे लिए ‘बड़े दिन’ या जन्म दिन का केक नहीं पर हर रोज़ की रोटी है। जब मैं दिल की सच्चाई से इसे पढ़ता हूँ तो मैं कई बार इसके सहारे अपने जीवन को पढ़ने लगता हूँ। जब मैं भटकने लगता हूँ तब यह मेरी अगुवाई कर सही मार्ग पर लाता है। इसमें ज़रा भी मिलावट नहीं है। शुरू में सारी सृष्टी इसी वचन के द्वारा ही सृजी गई और सृष्टी का अन्त भी इसी वचन के द्वारा ही होगा, और फिर सबका न्याय भी इसी वचन के अनुसार ही होना है।

यही वचन आदि में परमेश्वर के साथ था और आज यही वचन आपके पास है, जो आज आपसे बात कर रहा है। इसी वचन में प्रभु ने आज्ञाएं भी दीं हैं पर प्रभु बड़े दुखी मन से कहता है “जब तुम मेरा कहना नहीं मानतॆ तो क्यों मुझे हे प्रभु हे प्रभु कहते हो?” (लूका ६:४६)।

बहुतेरे विश्वासी बहुत सी पाप की छोटी छोटी रस्सियों से बन्धे खड़े हैं। जैसे इर्ष्या, विरोध, लालच, कई छिपे गंदे काम, दोगलापन-बोलते कुछ हैं पर करते कुछ और ही हैं। पाप की ऐसी छोटी छोटी रस्सियों से बन्धा जन कुछ भी करने की सामर्थ खो देता है।

एक बार हमारे आदरणीय भाई जॉर्डन खान मेरठ में आए थे। मैं उस समय लड़का सा ही था। वहाँ एक आदमी प्रार्थना में ज़ोर ज़ोर से शैतान को बाँध रहा था (शायद भाई जॉर्डन खान उस व्यक्ति को जानते हों)। भाई ने बीच में ही ज़ोर से डाँटकर कहा, “चुप कर तू क्या शैतान को बाँधेगा, तुझे तो खुद शैतान ने बाँध रखा है।” शब्द तीखे थे पर सत्य थे। अनेक लोग परमेश्वर के सामने घुटने झुकाए दिखते हैं पर वास्तव में उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में शैतान के सामने घुटने झुका रखे हैं। जब उनके काम फंस जाते हैं तो चुपचाप इधर उधर रिश्वत देकर अपना काम निकलवा लेते हैं और फिर आकर सुनाते हैं कि कैसे प्रभु ने मेरे काम करवा डाले। क्या वास्तव में वह कम प्रभु ने करवाये या रिशवत ने? ये वे जीवन हैं जिनमें परमेश्वर के वचन का कोई काम नहीं है। ऐसे जीवन परमेश्वर के वचन का सीधा अपमान करते हैं, उस वचन का जो स्वयं परमेश्वर ही है।

एक बार की बात है, एक बूढ़े व्यक्ति ने अपने साथियों से पूछा, “ज़रा सामने देखो, वह जो आदमी बकरी को बाँधकर खींचे ले ज रहा है; क्या तुम मुझे बता सकते हो कि उस आदमी ने बकरी को बाँध रखा है या बकरी ने उस आदमी को?” उसके दोस्तों ने कहा “अबे यार तू वाकई में सठिया गया है। क्य तुझे दिखता नहीं कि आदमी ने बकरी को बाँध रखा है।” बुज़ुर्ग ने जवाब दिया “तो यार इन दोनो के बीच से इस रस्सी को हटा दे और तब बता कि बकरी आदमी के पीछे आएगी या आदमी बकरी के पीछे भागेगा।”

चाहे देखने में आदमी ने बकरी को बाँध रखा हो पर वासत्व में बकरी ने आदमी को बाँध रखा है। ऐसे ही कई नामधारी विश्वासियों को शैतान ने पाप की छोटी छोटी रस्सियों से बाँध रखा है। लेकिन इसी वचन में प्रभु ने अपनी बड़ी दया में कहा है “तुम सत्य को जानोगे और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा...(यूहन्ना ८:३२)।” “उसका वचन सत्य है। (यूहन्ना १७:१७)”

अगली बार प्रभु ने चाहा तो “सम्पर्क” के माध्यम से आप और हम फिर परमेश्वर के इस जीवित वचन से सम्पर्क करेंगे।



शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

सम्पर्क फरवरी २००१: मैं तुझे न छोड़ूँगा, तू मेरा है

मेरा नाम अभयेन्द्र कुमार सिंह है। मैं रुड़की विश्वविद्यालय में मैकनिकल इंजीनियरिंग के तृतीय वर्ष का २१ वर्षीय छात्र हूँ। मेरा जन्म फीजी देश में हुआ, जो प्रशान्त महसागर में ३३८ टापुओं का एक समूह है। मेरी माँ एक धार्मिक और काफी पूजा-पाठ करने वाली स्त्री थी। फिर भी मेरे परिवार में बहुत पारिवारिक समस्याएं रहती थीं। मेरा बड़ा भाई दुष्ट आत्माओं द्वारा जकड़ा हुआ था जिसके कारण हमारे घर में बहुत क्लेश होता था। अचानक १९९४ में मेरे इसी बड़े भाई ने आत्म हत्या कर ली। इस बात ने मुझे बुरी तरह झिंझोड़ दिया और मेरे मन में ईश्वर के प्रति आस्था को कुचल डाला।

उन मुश्किल के दिनों में जब मैं हाई स्कूल का छात्र था, तब कुछ लोगों ने मेरे स्कूल में बाईबल के नए निय्म की कुछ प्रतियाँ बाँटीं। मैं जब जब उस नए नियम को पढ़ता था तब तब मुझे एक अजीब सी शाँति मिलती थी। इसके बाद मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ एक प्रार्थना घर में जाने लगा। वहाँ पर सन्देश सुनने और नया नियम पढ़ने से मुझे प्रभु यीशु मसीह के प्रेम का एहसास होने लगा। प्रभु यीशु मसीह के क्रूस की गाथा मुझे बड़ी अजीब लगती थी। परन्तु धीरे धीरे मुझे बाईबल की इस सच्चाई पर विश्वास हो गया कि मैं एक पापी हूँ और प्रभु मेरे पापों के लिए क्रूस पर मारे गए, गाड़े गए और तीसरे दिन जी उठे। तब मैंने अपने पापों का पश्चाताप किया और प्रभु यीशु को अपने दिल में ग्रहण किया। मुझे विश्वास हो गया कि प्रभु ने मेरे सारे पापों को माफ कर दिया है। उसी क्षण मेरे जीवन में एक अद्भुत शान्ति आ गई।

उन्हीं दिनों मेरी बड़ी बहन ने भी प्रभु यीशु पर विश्वास करके अपने पापों से पश्चाताप किया, जिससे प्रभु यीशु पर मेरा विश्वास और भी मज़बूत हो गया। मैं हर रविवार को प्रभु के लोगों की संगति में जाने लगा। वहाँ मुझे बड़ा अद्भुत आनन्द मिलता था। परमेश्वर के अनुग्रह से १९९८ में जब मैं रुड़की विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आया तो यहाँ पर भी मुझे प्रभु के लोगों की संगति मिल गई। यह सब पढ़ कर आप सोच रहे होंगे मैं प्रभु में आगे ही बढ़ते जा रहा था; लेकिन ऐसा नहीं था। अब मैं आपको अपने जीवन के उस दुखदायी हिस्से के बारे में बताना चाहता हूँ।

इन सब आशीशों के बाद भी मेरे जीवन में कई गलत समझौते सालों तक पनपते रहे, पर मैं उनको लापरवाही से लेता रहा। इन समझौतों के चलते मैं धीरे धीरे परमेश्वर के लोगों की संगति से दूर होने लगा और मेरा समय बुरे दोस्तों के साथ मौज मस्ती में बीतने लगा। मैंने शैतान को अपने जीवन में काम करने का खुला द्वार दे दिया, जिसके चलते मैं एक भयानक पाप में फँस गया जिसके बारे में बताते हुए मुझे आज भी बहुत शर्म आती है। मैं जानता था कि परमेश्वर की नज़रों में मैं दोषी हूँ, परन्तु फिर भी इस पाप में मैं गिरता चला गया। मेरे जीवन के इन भयानक दिनों में मैं बहुत मानसिक तनाव से दब गया, लेकिन मेरा दिल इतना कठोर हो चुका था कि मैं अपनी इस दुर्दशा से छुटकारा पाने के लिये प्रभु की ओर अपने हाथ नहीं फैला रहा था।

इन्हीं दिनों मेरे पिताजी का देहान्त हो गया और मेरा देश भी एक बड़े राजनैतिक संकट में पड़ गया। यह सारी विपरीत परिस्थितियाँ मिलकर मेरे सहने से बाहर हो रही थीं। गर्मियों की छुट्टियों में अपने परिवार से मिलने मैं फिजी गया लेकिन उन दिनों में भी मैंने परमेश्वर से और उसके वचन से मिलने का कोई प्रयास नहीं किया। अपनी मूर्खता में मैं यही सोचता रहा कि मैं खुद अपनी आत्म शक्ति से अपने पापों और विपरीत परिस्थितियों पर काबू पा लूँगा। मैं यह भूल गया कि शैतान और अंधकार की शक्तियाँ मेरी आत्म शक्ति से कहीं अधिक शक्तिशाली हैं।

जब मैं छुट्टियों के बाद वापस अपने विश्वविद्यलय लौट के आया तो वही पाप मुझे फिर से जकड़ने लगे। ऐसी बुरी हालत में भी प्रभु यीशु ने मुझे नहीं छोड़ा और मुझे अपना ही सर्वनाश करने से रोके रखा। इस बार प्रभु ने अपनी बड़ी दया से उन दोस्तों की संगति से अलग कर दिया जो मेरे पतन का कारण थे। अचानक वही दोस्त मेरे शत्रु बन गये और मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया। इस अकेलेपन में मैं एक बार फिर परमेश्वर के वचन को पढ़ने लग गया और वह वचन मुझे उस गिरी हुई दशा से फिर से उठाने लगा।

मैंने फिर से अपने विश्वासी भाइयों की संगति में जाना शुरु कर दिया जो मेरे बुरे दिनों में भी, जब मैं प्रभु और उसके लोगों की संगति से दूर रहा, मेरे लिये प्रार्थना करते रहे। प्रभु ने मुझ भगौड़े बेटे को उसी प्रेम से फिर स्वीकार किया जैसे उसने मुझे पहले ग्रहण किया था। उसके वचन और संगति ने मुझे फिर से उभार कर खड़ा कर दिया।

आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मेरा दिल खुशी से भर जाता है, यह सोच कर कि मैं कहाँ तक गिरा और उसने मुझे कहाँ से उठा लिया। कितना सच है उसका यह कथन “मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूँगा और न कभी त्यागूँगा (इब्रानियों १३:५)।”

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

सम्पर्क फरवरी २००१: संपादकीय प्रभु में प्रियों

आपका आभार प्रकट करने के लिये हमारे पास बहुत ही सीमित शब्द हैं। आपके प्यार भरे पत्र और पवित्र प्रार्थनाएं हमें संभालती और हियाव देती हैं। प्रभु यीशु की दया और आपका सहयोग रह तो “सम्पर्क” की सीमाएं, नये सदस्यों के साथ फैलती जाएंगी।

किसी बात को जानने में और समझने में बहुत बड़ा फर्क है। एक पत्नि अपने पति से गुस्से में बोली, “मैं तुम्हें खूब अच्छी तरह समझती हूँ।” वह अपने पति को न सिर्फ जानती थी वरन सालों उसकी संगति में रहकर अब वह उसकी बातों को और उसकी फितरत को खूब समझती थी। आज अधिकांश नये विश्वासियों के पास प्रभु की संगति का समय समाप्त सा होता जा रहा है। सुबह उन्हें बिस्तर नहीं छोड़ता, दिन व्यवसाय और काम से संबंधित भागा-दौड़ी में निकल जाता है और शाम को टी०वी० उन्हें पकड़ लेता है; बस उनके दिन ऐसे ही बीतते जाते हैं।

इसलिये बहुत से विश्वासी जानते तो बहुत हैं पर वचन को गंभीरता से समझ नहीं पाते। आपसी संबंधों में छोटी छोटी बातों पर आपस में उलझकर मच्छर छानने में लगे हैं और अपनी बेवकूफी से ऊँट निगले जा रहे हैं। जलन विरोध और बदले की भावना आदि सब ऊँट ही तो हैं जो निगले जा रहे हैं। ऐसे विरोध के पुराने पाप कितनी नई समस्याओं को जन्म देते हैं।

मक्कारों की भीड़ में वास्तविक विश्वासी खो सा गया है। ढूँढ कर देखो तो दो चार वास्तविक विश्वासी ही मिल पायेंगे। अब तो आलम यह है कि कई विश्वासियों पर ही विश्वास नहीं हो पाता। कई दफा हम यह गलत धारणा मन में रखकर जीते हैं कि प्रभु हमारी बरदाश्त कर ही लेगा, हमें माफ कर ही देगा। हम खुद हर बार परमेश्वर से क्षमा चाहते हैं पर हम खुद दूसरों को क्षमा करना नहीं चाहते। लेकिन वचन में लिखा है “और यदि तुम क्षमा न करो तो तुम्हारा पिता भी जो स्वर्ग में है, तुम्हारा अपराध क्षमा न करेगा (मरकुस ११:२६)।” “और जब कभी तुम खड़े हुए प्रार्थना करते हो तो यदि तुम्हारे मन में किसी की ओर से कोई विरोध हो तो क्षमा करो इसलिए कि तुम्हारा स्वर्गीय पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा करे (मरकुस ११:२५)।” सच्चाई से क्षमा पाया हर एक जीवन हमेशा दूसरों को क्षमा करने का मन रखता है।

प्रभु पहले हमारे लिये काम नहीं करना चाहता, पर वह पहले हममें काम करना चाहता है। लेकिन कितनों ने अपने मन सख्त कर लिये हैं और प्रभु को काम करने देने के लिये समर्पित नहीं होते। इसलिए उनका आत्मिक प्रचार आत्मिक उपचार नहीं कर पाता। अगर यह सच है कि कुछ छोटी छोटी बातों के कारण दुसरों के प्रति आप अपने मन में विरोध पाले हुए हैं, तो आपके लिए यह सच्चाई और भी अधिक तीखी होगी कि ऐसे आप परमेश्वर के अनुग्रह का अपमान कर रहे हैं, चाहे यह बात आपके गले से नीचे उतरे या ना उतरे। परमेश्वर से माफी माँगना तो बहुत सहज होता है पर अपने भाई, बहिन, माँ-बाप, पत्नि, दोस्तों और मण्डली के लोगों से, दिल की सच्चाई से माफी माँगना बहुत कठिन होता है। यही छोटे पाप आपकी बड़ी आशीशों को रोके खड़े रहते हैं और आपको प्रभु के अनुग्रह से वंचित कर देते हैं। मन की यह गन्दगी हमारी सारी बन्दगी को व्यर्थ ठहरा देती है।

प्रभु ने शायद आपके मन को गहराई से खोदा और क्या कहीं यही सब कुछ तो नहीं पाया? हम झुकना नहीं चाहते, शायद दूसरों को झुकना चहते हैं। पतरस बहुत सालों बाद ही यह सीख पाया कि दीनता से कमर बँधी रहनी चाहिये। प्रभु के साथ पतरस का तीन साल का काम का रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं था। बारह चेलों में बड़े बनने की बड़ी इच्छा से जूझता रहा, प्रभु के लिये जान देने का दावा करने के बाद कितने शर्मनाक ढंग से प्रभु का इन्कार कर गया। प्रभु तो उसकी यह सब बातें पहले ही से जानता था, लेकिन फिर भी दीनता के तौलिये को कमर पर कस कर प्रभु ने अपने पकड़वाने वाले शत्रु तक के पैर धो डाले। पतरस ने दीनता के इस पाठ को कई सालों बाद सीखा, और तब यह लिखा कि “तुम सब के सब एक दूसरे की सेवा के लिये दीनता से कमर बाँधे रहो (१ पतरस ५:५)।” ऐसे विश्वासियों के जीवन में और उनकी बातों में अनुग्रह नहीं दिखता, क्योंकि उनहोंने अपनी कमर दीनता से नहीं बांधी। इसलिये उनके अन्दर का आदाम का नंगा स्वभाव स्बके सामने बार बार आता रहता है। अगर आपका दिल भी किसी के प्रति विरोध से भरा है तो फिर आपको फैसला करना है कि या तो आप उसे ठीक करें या फिर ताड़ना के लिये तैयार रहें। यदि दिल सख्त किया तो प्रभु अपनों को अनुशासित करना भी जानता है। ध्यान रहे कि प्रभु की ताड़ना को हलकी बात न समझें, “हे मेरे पुत्र प्रभु की ताड़ना को हलकी बात न जान...(इब्रानियों १२:५)।” प्रभु हमें वास्तविक दीनता और एक मनता में बनाये रखे।

बन्द करने से पहले आपकी प्रार्थनाओं के लिये अनुरोध करता हूँ। ऐसा न हो कि हम आपको उपदेश पहुँचा कर खुद निकम्मे साबित हों। “सम्पर्क” पत्रिका के प्रकाशन के लिये भी विशेष प्रार्थना करें और अपनी प्रतिक्रिया भी हमें अवश्य लिखें। प्रभु ने चाहा तो आपसे “सम्पर्क” के अगले अंक के माध्यम से फिर सम्पर्क करेंगे।

प्रभु में आपका,
“सम्पर्क” परिवार

सोमवार, 21 सितंबर 2009

सम्पर्क मई २००१: मित्र मेरे, कल कहीं देर न हो जाए

मेरे साथ एक पुराने अध्यापक थे। जितने पुराने वह स्वयं थे, उससे कहीं पुरानी उनके पास एक साईकिल थी। अकसर उनके चेहरे के चबूतरे पर बारह बजे रहते थे। सीनियर अध्यापक होने पर भी उनके कपड़ों की हालत शर्मनाक रहती थी। वह रिटायर भी इसी हालत ही में हुए। यह लाखों का खिलाड़ी कबाड़ियों की तरह जीया। वह अपने पैसे को तो नहीं खा सका पर उसका पैसा उसके जीवन को खा गया। पैसा और रोटी जीवन के लिए ज़रूरी हैं यह सच है, लेकिन यदि रोटी ही जीवन को खा जाए तो कैसा दुर्भाग्य है। जंगली जानवर भी अपनी ज़रूरतें पूरी कर लेते हैं, पेड़ भी एक ही जगह खड़े-खड़े अपनी ज़रूरतें पूरी कर लेते हैं। लेकिन अजीब सी बात है कि आदमी इतना बुद्धीमान होते हुए भी अभाव में ही जीता है, ‘और थोड़ा और’ की लालसा हमेशा उसे सताती रहती है। आदमी के साथ कुछ गड़बड़ ज़रूर है।

आवश्यकताओं की अपनी सीमाएं हैं लेकिन लालच असीम है। आवश्यकताओं की पूर्ती सम्भव है पर लालच को पूरा करना असम्भव है, और हवस तो जैसे एक पागलपन है। ज़्यादतर लोग इस पागलपन की दौड़ में जुटे पड़े हैं, उन्हें बस यही लगता रहता है कि “मेरे पास उससे कुछ कम न हो, कम से कम उतना तो हो ही”। पहले इन्सांन, आदम और हव्वा की सारी ज़रूरतें आनन्द की भरपूरी के साथ बाग़-ए-अदन में ही पूरी हो जाती थीं। फिर भी उनके लालच ने उन्हें भयानकता में ढकेल दिया। कुछ लोग ग़रीबी की गुलामी से आज़ादी पाने के लिए बहुत श्रम करते हैं। कुछ को आज़ादी मिल भी जाती है लेकिन तब तक वे धन के गुलाम बन चुके होते हैं - खाई से निकले और खड्ड में जा पड़े। दुःख की बात यह कि चैन फिर भी नहीं मिलता, न गरीब को और न अमीर को।

हमारे समाज में जगह जगह सड़ाहट भरी पड़ी है, कहाँ और कैसे बच कर कदम रखें सूझ नहीं पड़ता। हमारे उँचे लोग बातें तो बहुत ऊँचीं करते हैं पर अकसर उनके काम बहुत नीचे होते हैं। ज्ञान के आकाश में वे चील की तरह बहुत उँचे उड़ते तो दिखते हैं, पर उनकी निगाहें किसी घूरे पर पड़े सड़े-गले मरे जानवर पर लगी रहतीं हैं। उनके मन में बहुत गन्दगी रहती है और मौके की तलाश में रहते हैं कि कहीं दांव लगे और हाथ साफ करें। हमारे जीवन में भी ऐसे दोगले स्वभाव के साथ जीते हैं। अशलीलता के विरोध में बलते तो हैं पर अशलीलता देखने को हमारा मन मचलता है। अगर कहीं यही अशलीलता हमारी बहन या बेटी दिखा दे तो हमारी कहानी बिलकुल बदल जाती है। हमारा विवेक मर चुका है। आज हमारा समाज, परिवार, व्यापार, व्यवहार सब कुछ हमारे स्वार्थ को ही समर्पित है।

हम अजीब बेईमान हैं जो ईमान्दार को बेवकूफ कहते हैं। दूसरों की बेईमानी को गाते हैं और अपनी छिपाते हैं। हम अपनी असलियत खुद नहीं देखना चाहते पर अपने को अच्छा साबित करने में ज़रा भी नहीं चूकते। हर गन्द बकने वाला अपने बारे में यही कहता कि “मैं दिल से बुरा नहीं हूँ, जो कहना होता है कह देता हुँ, दिल में नहीं रखता।” हर शराबी कहता है कि “मैं चोरी करके नहीं पीता, बस ग़म हलका करने को एक-आध बोतल चख लेता हूँ।” हर रिशवत लेने वाला कहता है कि “ मैं किसी को नाजायज़ दबा कर पैसे नहीं लेता, बस आटे में नमक की तरह खा लेता हूँ, ज़्यादतर तो उस कमाई में से ऊपर वाले को दान में दे देता हूँ।” वे सोचते हैं कि परमेश्वर उनकी रिशवत की कमाई में से कुछ हिस्सा लेकर उसे सही ठहरा देगा, या फिर परमेश्वर कोई भिखारी है जो उनके चोरी और रिशवत के टुकड़ों पर पल रहा है। ज़रा सोचिये तो सही कि क्या परम-पवित्र परमेश्वर ऐसी अपवित्र कमाई का एक ज़रा सा अंश भी स्वीकार करेगा?

हर बुरा व्यक्ति अपनी बुराई दबाता है और दूसरे की खुल कर गाता है। जो जितनी अच्छी तरह अपनी बुराई छिपा लेता है, वह उतना अच्छा दिखाई देता है। आदमी नकली इत्र से अपनी असली दुर्गंध छिपाता फिरता है। परमेश्वर का वचन सच कहता है “ज़रा भी फर्क नहीं, सबने पाप किया है।” समाज के रोएं रोएं में ज़हर समा चुका है। हममें से कोई भी अपना दोष स्वीकरने को तैयार नहीं। पत्नी सोचती है पति गलत है। पति, पत्नि के दोष गाता है; माँ-बाप बच्चों के। सास बहु को गलत कहती है तो बहु सास को। हमारा अहंकार हमें हमारे पापों को मानने नहीं देता, लेकिन पाप तो सबने किया है। परमेश्वर का वचन कहता है कि “निष्पाप तो कोई जन नहीं है (२ इतिहास ६:३६)।” यही पाप हमारी बेचैनी और परेशानी का मूल कारण है।

हम एक बासी सा जीवन जीते-जीते उकता गये हैं। श्रम तो बहुत करते हैं पर कमाते बेचैनी ही हैं। दौड़ते तो दिनभर हैं पर पहुँचते कहीं नहीं। हर शाम आदमी थका-हारा हुआ सा घर लौटता है और फिर अगले दिन वैसे ही भागना शुरू कर देता है। चैन पाने की अभिलाषा में बेचैनी भोगता है। संघर्ष बहुत करना पड़ता है पर हार ही हाथ लगती है। जीवन से हताश लोगों की कतार में एक आप भी हो सकते हैं। हो सकता है कि आप भी अपने जीवन के तनावों से तंग आकर झुंझला चुके हों। शायद चारों तरफ आपको समस्याएं ही दिखती हों उनके समाधान नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो सपने आप सालों से बुनते आए हैं वे अब अचानक सार्थक होते नहीं दिखते। जीवन के ऐसे दिनों में आदमी में हालात का सामना करने का साहस ही नहीं बचता और तब वह मौत माँगता है। शायद आप भी सोचते हों कि काश मैं न होता; अब तो चिता पर चढ़कर ही चैन मिलेगा, बस अब मौत के बाद ही सुख होगा। यह एक भयानक भ्रम है, एक गलत धारणा है। चिता पर या कब्र में तो आपका शरीर जाएगा, आप नहीं।

आपको परमेश्वर ने अनन्त बनाया है और आप अनन्त हैं। जब आप पृथ्वी पर आए थे तो आपको एक शरीर दीया गया था; जब आप पृथ्वी से जायेंगे तब यह शरीर पृथ्वी पर ही छोड़कर जायेंगे। मृत्यु के द्वारा आप सिर्फ अपने शरीर का ही अस्तित्व समाप्त करेंगे पर आप तो अनन्त हैं। पृथ्वी और पृथ्वी के काम तो नाश हो जायेंगे पर आप अनन्त हैं और आपको एक अनन्त भोगना है। मृत्यु जीवन की सम्पूर्ण समाप्ति नहीं है क्योंकि आपका अस्तित्व मौत के बाद भी रहेगा। आपकी तुलना किसी भी जीव से नहीं की जा सकती (उत्पत्ति २:२०)। आपके रचियेता ने आपके जैसा कोई दूसरा जीव बनाया ही नहीं। हमारे वैज्ञानिक कहते हैं कि मानुष वनमानुष से बहुत मिलता है। आदमी का डी.एन.ए. वनमानुष के डी.एन.ए. से ९० प्रतिशत से भी अधिक मेल खाता है। वे साबित करना चाहते हैं कि आदमी को परमेश्वर ने नहीं बनाया, वह वनमानुष से बना है। थोड़ा सा दिमाग पर ज़ोर देकर सोचें, आदमी चाँद को पाँव से रौन्द आया है और ग्रहों की यात्रा की तैयारी कर रहा है। लेकिन वनमानुष हज़ारों सलों से नंगा ही घूम रहा है, कम से कम एक कच्छा ही अपने लिए बना लेता! आदमी और वनमानुष में कहीं कोई तुलना है?

यदि हमारे धर्मों के पास पाप की बीमारी का ईलाज होता तो संसार इतनी भयानकता से घिरा, बेचैनी और घुटन सहता न होता। बहुतों के पास धन भी है और धर्म भी फिर भी वे हताश, परेशान और दुखी हैं। आदमी अपने पापों में पड़ा रहता है, फिर भी दूसरों को तुच्छ और नीच, और अपने को श्रेष्ठ समझने का अहंकार ढोता है। धर्म के भ्रम जाल ने मानव-मानव के बीच घृणा को ही जन्म दिया है। सब धर्मों के अनुयायियों के कामों में रत्ती भर भी फर्क नहीं है। आदमी एक सा है, उसके काम एक से हैं सिर्फ उसके धर्मों के नाम फर्क हैं। वैज्ञानिक हमारे शरीर के एक अंश, हमारे डी.एन.ए. का विशलेषण करके बता सकते हैं कि व्यक्ति विशष के माँ-बाप कौन हैं, पर यह कभी नहीं बता सकते कि उसका धर्म कौन सा है। परमेश्वर एक है और उसने समस्त मानव जाति को एक सा ही रचा है, अलग अलग धर्मों में बाँट कर नहीं और फर्क करके नहीं रचा। “उसने एक ही मूल से मनुष्यों की सब जातियां सारी पृथ्वी पर रहने के लिये बनाई हैं (प्रेरितों १७:२६)।”

जब भी हम धर्म के बारे में बात करते हैं तो हम एक खतरे के दायरे में आकर बात करते हैं। यह बहुत संवेदनशील विषय है और आदमी एकदम धर्म के विषय में उत्तेजित हो उठता है। धर्म अनजाने में हमारे मन में यह धारणा धर देता है कि मैं एक श्रेष्ठ धर्म का व्यक्ति हूँ और दूसरे धर्म के लोग बुरे हैं या मेरे धर्म से कमतर हैं। धर्म को लेकर यह मानसिकता, सार्वजनिक रूप से, मनों में गहराई से घर चुकी है। यह धारणा आदमी को आदमी से बाँट देती है। यह अहंकार एक कैंसर के समान है - जहाँ हमारा शरीर अपने ही विरोध में मौत बोना और पालना शुरू कर देता है, और यह मानसिकता हमारे समाज में ऐसा ही प्रभाव लाती है। इस संवेदनशील उत्तेजना का उपयोग हमारे धार्मिक और राजनैतिक नेता अपने स्वार्थ हेतु सहजता से कर लेते हैं। परमेश्वर को इतना छोटा बनाकर धर्म के दड़बे में घुसेड़ने की कोशिश करना न सिर्फ एक निहायत ही बेवकूफी है वरन परमेश्वर का अपमान भी है। परमेश्वर असीम है और उसका प्रेम असीम है। वह जाति और धर्म के दायरे से बाहर हर व्यक्ति से प्रेम करता है, क्योंकि परमेश्वर प्रेम है। वह कभी भी धर्म परिवर्तन की बात नहीं करता, परन्तु वह मन परिवर्तन की बात करता है और पाप से मन फिराने की बात करता है, ताकि आप जो अनन्त हैं, अनन्त आनन्दमय जीवन पायें।

इलाज तो बीमारी का होता है तन्दरुस्ती का नहीं। अगर आपको एहसास है कि आप पाप के बीमार हैं, पाप ने आप के सारे सुखों को सोख लिया है और आप बेचैन हैं तो जन लें कि प्रभु यीशु पापों की क्षमा देने के लिए ही आया था। पापों की क्षमा पाना किसी विदेशी सम्प्रदाय में सम्मिलित होना नहीं है। यह सोच भी मूर्खता पूर्ण है कि परमेश्वर किसी धर्म विशेष के लोगों को ही स्वर्ग लेजायेगा। परमेश्वर किसी का पक्षपात नहीं करता (कुलुस्सियों ३:२५)। उसने जगत से प्रेम किया, जगत के हर वर्ग से, ताकि जो कोई जैसा भी हो अगर यह विश्वास करे कि प्रभु यीशु ने क्रूस पर सिर्फ उसके पापों की क्षमा के लिये अपना लहु बहा कर अपनी जान दे दी और तीसरे दिन जी उठा, तो वह व्यक्ति अनन्त विनाश से बच जायेगा और अपनी बेचैनी से छुटकारा पायेगा। यह असम्भव कार्य केवल प्रभु यीशु के लिये ही सम्भव था क्योंकि वह स्वयं परमेश्वर है। वह आपको प्यार करता है और नहीं चाहता कि आप नाश हों और हमेशा-हमेशा की बेचैनी में जा पड़ें।

क्या परमेश्वर हमारी पुकार केवल गिरजे या धर्म स्थानों से ही सुनता है? परमेश्वर तो पृथ्वी के हर स्थान पर उपलब्ध है। बस एक बार दिल से पुकार कर उसे परख कर तो देखें, उससे कह कर तो देखें कि हे प्रभु मुझ पापी पर दया करें। आपने छिपकर कैसे-कैसे शर्मनाक काम किये हैं, क्या आपको उनका एहसास नहीं है? क्या पापों की बेचैनी आपके जीवन में नहीं है? आप अकेले में सिर्फ प्रभु यीशु के सामने अपने पापों को मान कर क्षमा माँग लें। ऐसी प्रार्थना से धर्म नहीं जीवन बदल जायेगा। मेरे मित्र, कौन सा विचार आपको अपने पापों से माफी माँगने से रोक रहा है? आप अपने पापों के कारण अपने परमेश्वर से दूर हो गये हैं, परमेश्वर की शांति और उसके आनन्द से कहीं दूर निकल गये हैं और बेचैनी भोग रहे हैं। प्रभु यीशु ये दूरियां आपके जीवन से हमेशा के लिये दूर कर डालेगा।

हमारी जीवन यात्रा भयानक खत्रों से भरी पड़ी है। कोई भी अन्होंनी कभी भी हो सकती है। किसी सड़क को पार करते करते कहीं आप संसार से ही पार न हो जायें। आप भौंचक्के से रह जायेंगे,कह उठेंगे कि यह क्या हुआ और अब क्या होग? मित्र मेरे कल कहीं देर न हो जाये। आप पूछ सकते हैं कि पाप से पश्चाताप की ऐसी प्रार्थना करने से क्या होगा? पर आप एक बार प्रभु यीशु को पुकार कर तो देखिये, आपका जीवन ही बदल जायेगा। मित्र मेरे जैसे ही यहाँ आपका बोल बंद होगा वैसे ही वहाँ आप की पोल का पुलिंदा खुलेगा। यह एक कोरा सिद्धांत मात्र नहीं है, बल्कि एक वास्तविकता है। एक बार क्षमा की याचना कर के तो देखें, इससे पहले कि हमेशा की देर हो जाये।

शास्त्रों के सिद्धांतों को सिर पर चढ़ा लने से सिद्धता प्राप्त नहीं होती। उत्सुकता है, तलाश है, जितना ज्ञान मिले उतना दिमाग में सजा के रख लो। ज्ञान बढ़ेगा और आपका महत्व बढ़ेगा, पर ध्यान रहे, आपकी बेचैनी वैसी ही रहेगी। पाप की यह बेचैनी आपका पीछा नहीं छोड़ेगी, बढ़ ज़रूर सकती है पर घटेगी कदापि नहीं। आप पाप की सज़ा से मुक्त नहीं हो पायेंगे। केवल सच्ची क्षमा ही इस सज़ा से मुक्त करा सकती है। अभी, हाँ अभी वह क्षमा पालेने का समय है। कल के भयानक खतरों का बचाव आज ही ज़रूरी है। मित्र मेरे कल कहीं देर न हो जाये।

किसी धर्म का लेबल अपने उपर लगा लेने की ज़रूरत नहीं है। प्रभु यीशु आपको आपके सारे पापों से क्षमा देकर एक आनन्द से भरा जीवन सौंपेगा। आप खुद ही कह उठेंगे मैंने क्या-क्या किया, मैं क्या था और उसने मुझे क्या बना दिया। सम्पर्क का अगला अंक अपके हाथ में आने से पहले कहीं कोई अन्होंनी न हो जाये। अभी हाथ उठाक्र पुकारियेगा हे यीशु मुझ पापी पर दया करें, मेरे पाप क्षमा करें। मित्र मेरे कल कहीं देर न हो जाये।

प्रभु कहता है और कि “जो कोई मेरे पास आयेगा उसे मैं कभी नहीं निकलूँगा (यूहन्ना ६:३७)” वास्तविकता भी यही है। आप जैसे भी हों जहाँ भी हों, जो भी हों, प्रभु यीशु का प्रेम आपको आमंत्रित कर रहा है। अगला कदम उठाइयेगा, श्राप से पार होकर अनन्त सुरक्षा के द्वार में प्रवएश पाइएगा। द्वार अभी आपके लिये खुला है, हाँ अभी भी मौका है, मित्र मेरे कल कहीं देर न हो जाये। आप शायद बहुत पढ़े लिखे न भी हों, पर इन पंकतियों को तो पढ़ ही रहे हैं। शायद बहुत समझदार भी न हों पर इन साधारण विचारों को तो समझ पा रहे हैं। इतना ही बहुत है आपको पापों से मुक्ति और स्वर्गीय चैन पाने के लिये। बस सच्चे दिल से पुकारिये हे प्रभु यीशु मेरे पाप क्षमा कर, मुझ पापी पर दया कर। मित्र मेरे कल कहीं देर न हो जाये।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

सम्पर्क मई २००१: अनर्थ में पड़ा जीवन, जीवन का अर्थ खोज रहा था...

मेरा नाम लॉर्डी परदाना पूर्बा है, मेरी उम्र २५ वर्ष है और मैं इन्डोनेशिया देश का निवासी हूँ जो लगभग १३५० टापुओं का एक समूह है और हिन्द महासागर तथा प्रशांत महासागर के बीच में स्थित है। मैं इन्डोनिशिया से सिविल इंजीनियरिंग की उपाधि प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा के लिये २८ जुलाई १९९९ को रूड़की विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आया था और अब बहुत शीघ्र ही अपनी पढ़ाई खत्म करके अपने देश लौटने को हूँ। इस देश को छोड़ने से पहले अपने जीवन का सबसे मधुर और अद्भुत अनुभव आपके पास छोड़कर जाना चाहता हूँ।

मेरा जन्म एक नामधारी इसाई परिवार में हुआ। जब मैं ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था, तब से मेरे मन में एक अजीब कशमकश थी। मैं अपने जीवन का सही अर्थ खोज रहा था और मेरे मन में सच्ची खुशी और प्रेम पाने की बहुत लालसा थी। उसका मूल कारण मेरी जटिल पारिवारिक समस्याएं थीं। आए दिन मेरे माँ-बाप के बीच और हम भाई-बहिनों के बीच में लड़ाईयाँ, चीखना-चिल्लाना मचा रहता जिससे मैं बहुत परेशान और बेचैन था। मैं अपने घर में किसी से अपने दिल की बात कह नहीं पाता था और इसलिए मैं अपना ज़्यादा समय घर के बाहर बिताने लगा। मैं अपने दोस्तों में खुशी खोजता था, यह सोचकर कि उनके साथ रह कर मैं अपनी सारी परेशानियाँ भूल सकूंगा। लेकिन धीरे-धीरे मैं उनके साथ शराब सिग्रेट पीना, झूठ बोलना, गाली-गलौच करना, घर से पैसे चुराना, जुआ खेलना और कई अन्य बुरे और अशलील कामों में धंसता चला गया।

उन दिनों मेरा मन उन लोगों से बहुत चिढ़ता और झुंझलाता था जो आत्मा-परमात्मा की बातें किया करते थे। वे मुझे कई बार मसीही संगति में बुलाते थे लेकिन मैं साफ इन्कार कर देता था। मैं उन्हें बेवकूफ समझता था और उनसे सीधा कहा करता था कि वे इन सब आत्मिक बतों में क्यों अपना समय बरबाद कर रहे हैं? अरे जवानी तो मौज मस्ती के लिये है और अपने तरीके से आज़ाद ज़िन्दगी जीने में ही मज़ा है। मैं नहीं चाहता था कि कोई मेरे आज़ाद जीवन पर बन्दिश लगाए। परन्तु मेरा जीवन बद से बदतर होता गया और मेरी पढ़ाई में भी नुकसान होने लगा। लेकिन मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। १९९४ में मेरा दाखिला इन्डोनेशिया के एक अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया जो कि मेरे जीवन का एक सुन्दर सपना था। मुझे इस बात से बहुत खुशी थी कि यह कॉलेज मेरे घर से बहुत दुर एक दूसरे शहर में था। मैंने सोचा कि अब मैं अपने परिवार से दूर रह कर आज़ादी से जो चाहे सो कर सकूँगा। कॉलेज प्रारम्भ करते समय मेरा मन उन्माद से, घमंड से और बहुतेरी गन्दी कामनाओं से भरा हुआ था।

उन दिनों मेरा मन उन लोगों से बहुत चिढ़ता और झुंझलाता था जो आत्मा-परमात्मा की बातें किया करते थे। वे मुझे कई बार मसीही संगति में बुलाते थे लेकिन मैं साफ इन्कार कर देता था। मैं उन्हें बेवकूफ समझता था और उनसे सीधा कहा करता था कि वे इन सब आत्मिक बतों में क्यों अपना समय बरबाद कर रहे हैं? अरे जवानी तो मौज मस्ती के लिये है और अपने तरीके से आज़ाद ज़िन्दगी जीने में ही मज़ा है। मैं नहीं चाहता था कि कोई मेरे आज़ाद जीवन पर बन्दिश लगाए। परन्तु मेरा जीवन बद से बदतर होता गया और मेरी पढ़ाई में भी नुकसान होने लगा। लेकिन मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। १९९४ में मेरा दाखिला इन्डोनेशिया के एक अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया जो कि मेरे जीवन का एक सुन्दर सपना था। मुझे इस बात से बहुत खुशी थी कि यह कॉलेज मेरे घर से बहुत दुर एक दूसरे शहर में था। मैंने सोचा कि अब मैं अपने परिवार से दूर रह कर आज़ादी से जो चाहे सो कर सकूँगा। कॉलेज प्रारम्भ करते समय मेरा मन उन्माद से, घमंड से और बहुतेरी गन्दी कामनाओं से भरा हुआ था।
लेकिन मेरे जीवन के लिए परमेश्वर की कुछ और ही कल्पना थी। जब मैं कॉलेज में दाखिले के लिये गय तो वहाँ मुझे कुछ सीनियर छात्र आकर मिले। उनका व्यवहार बहुत ही अच्छा था और इन आरम्भ के दिनों में उन्होंने मेरी बहुत सहयाता की। उनकी सहायता और प्रेम भाव को देखकर मैं भौंचक्का रह गया। एक दिन उन्होंने मुझे एक बाईबल अद्धयन की क्क्षा में आमंत्रित किया। मुझे आत्मिक बातों में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी परन्तु मैं उन्हें निराश नहीं करना चाहता था इसलिए मैंने उन्का निमंत्रण स्वीकार कर लिया। ७ सितम्बर १९९४ को मैं पहली बार ऐसी सभा में गया जिसका विष्य था “उद्धार का निश्चय”। प्रचारक ने कहा कि मनुष्य अपने पाप के कारण अपने सृष्टिकर्ता परमेश्वर से अलग हो गया है और पाप की मज़दूरी अनन्तकाल की भयानक मौत है। उन्होंने एक उदाहरण से दर्शाया कि हम पापियों और परमेश्वर के बीच एक गहरी खाई है जिसको हम अच्छे कामों, अच्छे चरित्र, या किसी भी धर्म के सहारे लाँघ नहीं सकते। लेकिन परमेश्वेर ने अपने एकलौते पुत्र प्रभु यीशु मसीह को इस जगत में भेजा ताकि वह हम सब के पापों की सज़ाखुद अपने ऊपर क्रूस पर सहकर हमारे और परमेश्वर के बीच में एक मार्ग बन जाए। इसलिए प्रभु यीशु पर विश्वास करके कोई भी व्यक्ति नरक की भयानक मौत से बच कर स्वर्ग के अनन्त जीवन में पहुँच सकता है।

मुझे यह सब बातें पूरी तरह समझ में नहीं आईं। उन्होंने मुझसे पूछा कि यदि आज रात तुम्हारी मौत हो जाए तो क्या तुम स्वर्ग जाओगे या नरक? इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था, क्योंकि मुझे यह एहसास हो रहा था कि मैं पाप से भरा हूँ और मुझ में कोई भी अच्छाई नहीं है। मैंने सोचा कि अगर यह सब बातें सही हैं तो मेरा नरक जाना तय है। फिर उन्होंने दोहराया कि प्रभु यीशु मसीह मेरे सब पापों को क्षमा कर, मेरी ज़िन्दगी को एक नई शुरुआत दे सकते हैं। तब मैंने उनके साथ एक छोटी प्रार्थना की और प्रभु यीशु से अपने पापों की माफी माँग ली। जो कुछ भी उस दिन हुआ मुझे पूरी तरह समझ में तो नहीं आया, परन्तु आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मुझे एहसास होता है कि परमेश्वर की आत्मा ने मेरे जीवन में काम करना शुरू कर दिया था। मुझे स्वर्ग-नरक, जीवन-मृत्यु, पाप और पापों की माफी, ऐसे कई सवाल जिन्हें मैं सोचता भी नहीं था, सताने लगे। इन विचारों ने मेरा दिल तोड़ दिया और मैंने रो-रोकर प्रार्थना में प्रभु के सामने मान लिया कि मैं एक भयानक पापी हूँ। मैंने न केवल अपना वरन कईयों का जीवन बरबाद कर दिया है। मैंने प्रभु से कहा “प्रभु मेरे सारे पाप और अधर्म को माफ कर दे। मैं अपना जीवन बदलना चाहता हूँ, प्रभु मेरी सहायता कर।”

तभी मेरे मन में सच्ची शांति आ गयी और मौत का डर चला गया। साथ ही मेरे विचार और मेरा व्यवहार भी बदलने लगा। फिर भी मैं अपने विश्वासी दोस्तों से कहता थ कि यह परिवर्तन तो थोड़े ही दिनों का है और बहुत जल्द ही मेरी स्थिति पहले जैसी हो जाएगी। यह विचार मुझे डराता भी था। लेकिन जैसे-जैसे मैं परमेश्वर के वचन को रोज़ पढ़ने लगा तो मुझे एहसास होने लगा कि परमेश्वर मुझ से बात कर रहा है। यह परमेश्वर कोई बेजान वस्तु नहीं पर मुर्दों में से जी उठा प्रभु यीशु है और उसी की सामर्थ मुझे सम्भाले हुए है। परमेश्वर के वचन को पढ़ने से मुझे बहुत शान्ति और खुशी मिलने लगी और साथ ही मुझे मेरे उन पापों का भी एहसास होने लगा जो मैंने दूसरों के विरोध में किए थे। परमेश्वर की दया से मैं उन लोगों से माफी माँग सका और मैंने अपने परिवार जनों से भी अपने सम्बंध ठीक कर लिए। मैं उनके लिए प्रार्थना भी करने लगा।

मैं अब एहसास करता हूँ कि यह सब परमेश्वर की ओर से ही हुआ है। आज मेरे पास सच्ची शांति और प्रेम है। मैं अपने जीवन के पथ पर अकेला नहीं क्योंकि प्रभु यीशु मेरा सच्चा मित्र है। मेरी समस्याओं में मेरे पास हमेशा एक आशा है कि प्रभु यीशु न तो मुझे कभी छोड़ेगा और न त्यागेगा।







सोमवार, 31 अगस्त 2009

सम्पर्क मई २००१: परमेश्वर के वचन से सम्पर्क

उसमें जीवन था और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति थी, और ज्योति अन्धकार में चमकती है, और अन्धकार ने उसे ग्रहण न किया (यूहन्ना १:४,५)।

किसी आदमी ने एक घड़ी बनाई और उसके डायल में एक राजनेता की तस्वीर लगाई। घड़ी की खासियत यह थी कि हर सैकिंड के बाद राजनेता की आँखें बदल जाती थीं। यह व्यंग्य तो तीखा था, पर वास्तविकता में हम सबकी हालत भी ऐसी ही है। हम अपने आप में बहुत नाटकबाज़ हैं।हर २४ घटों में हमारी भी दशा, दिशा, विचार, व्यवहार तेज़ी से बदलते रहते हैं। हम जहाँ काम करते हैं वहाँ कुछ और, घर में कुछ और, मण्डली में कुछ और होते हैं। दोस्तों, दुशमनों, परिवार जनों और विश्वासी जनों के सामने हमारा स्वभाव बदलता रहता है। वास्तव में पर्दे के पीछे हम कुछ और ही होते हैं। अक्सर हम अपने अधिकारियों और नेताओं को लालची बताकर उन्हें बहुत कोसते हैं, पर ज़रा ईमानदारी से अपने आप से सवाल करें, क्या मन में हम खुद बहुत लालची नहीं हैं? “खाने” के बारे हम दूसरों को बहुत उपदेश दे सकते हैं पर जैसे ही मुफ्त का बढ़िया खाना हमारे सामने आता है तो हमारी हालत बस देखते ही बनती है। वास्तविकता यही है।

यूहन्ना अक्सर ‘सच’ शब्द को दो बार एक साथ रखकर प्रयोग करता है - “मैं तुम से सच-सच कहता हूँ...।” मूल युनानी भाषा में जिसमें यूहन्ना का सुसमाचार लिखा गया था, इस तरह ‘सच-सच’ का प्रयोग करने क एक अर्थ है “वास्तविकता में” या इसे यूँ कहिये कि बस यही वास्तविकता है, यानि यही इकलौता सच है, इसके अलावा और दूसरा कोई सच है ही नहीं। यूहन्ना इस तरह सत्य से हमारी मुलाकात करवाता है - “उसमें जीवन था” (यूहन्ना १:४)। यही जीवित परमेश्वर है और यही सत्य है।

प्रभु की मृत्यु के बाद तीसरे दिन कुछ स्त्रियां जीवित प्रभु को कब्रिस्तान में ढूंढ रहीं थीं, तब स्वर्गदूत ने उन्हें समझाया “तुम जीवते को मरे हुओं में क्यों ढूंढती हो? (लूका २४:५)।” सच यही है कि मौत प्रभु को मार कर अपने वश में नहीं रख सकती थी। मात्र वही जीवित प्रभु है जो मौत पर विजयी हुआ भी और विजय पने की सामर्थ भी रखता है। यही इकलौता सत्य है।

एक व्यक्ति था जिसने मसीही विश्वास को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए अपनी पूरी सामर्थ झोंक दी, लेकिन सालों के कठोर परिश्रम के बावजूद अपनी बात साबित नहीं कर सका और न अपना एक भी कोई अनुयायी पैदा कर पाया। बन्दा हठीला था, इसलिए हिम्मत नहीं हारा। वह एक मशहूर विद्वान के पास गया और उससे अपनी सारी कहानी कह सुनाई और उससे पूछा अब मैं क्या करूँ? विद्वान ने सहज शब्दों में उसे सलाह दी “जनाब आप पहला काम यह करो कि अपने आप को क्रूस पर ठुकवा लो। फिर ऐसा करना कि मरने के बाद तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठना, बस अपकी सारी समस्या का हल हो जाएगा।” वास्तविकता यही है कि वही एक प्रभु है जो मौत पर विजयी होने की सामर्थ रखता है, उसी में जीवन अपितु अन्नत जीवन है और वही जीवित परमेश्वर है।

एक शारीरिक जीवन है और एक आत्मिक जीवन है। एक सीमित है और दूसरा असीम। शारीरिक जीव जैसे ही जन्म लेता है, उसी पल से उसकी मौत के लिए उलटी गिनती शुरू हो जाती है; और वह इस शारीरिक जीवन का हर पल मौत के भय में जीता है। यही मौत का डर उसे डराता भी है और बेचैन भी रखता है। ऐसे शारीरिक लोगों से प्रभु कहता है “तू जीवता तो कहलाता है पर है मरा हुआ (प्रकाशितवाक्य २:१)।” पाप के कारण मनुष्य मरी हुई दशा में जीता है (इफिसियों २:१)।

एक विश्वासी जन ने किसी व्यक्ति से सवाल किया “आप मौत के बाद कहाँ जाओगे?” आदमी ज़रा ज़्यादा ही चतुर था, लापरवाही से बोला “साहब मरने के बाद शमशान जाउँगा।” विश्वासी ने कहा “जनाब बुरा न मानें, वास्तविकता तो यह है कि मरने के बाद आप हमेशा की मौत में जाएंगे।” एक मौत ऐसी है जो हमेशा की है और एक जीवन भी है जो हमेशा का है।

प्रिय पाठक, आईये ज़रा धीरज धर कर प्रभु यिशु के कहे कुछ शब्दों में से होकर आगे बढ़ें जहाँ प्रभु ने कहा “... मैं ही जीवन हूँ... (यूहन्ना १४:६)।” “मैं इसलिए आया कि तुम जीवन पाओ और बहुतायत क जीवन पाओ (यूहन्ना १०:१०)।” “फिर भी तुम जीवन पाने के लिए मेरे पास आना नहीं चाहते (यूहन्ना ५:४०)।” “जिसके पास पुत्र (प्रभु यीशु) नहीं उसके पास जीवन नहीं है (१ यूहन्ना ५:११)।” एक प्रोफैसर सहब ने अपने विद्यार्थियों से एक प्रश्न पूछा “देखने के लिए किस वस्तु की ज़रूरत होती है?” ज़्यादतर विद्यार्थियों ने तपाक से जवाब दिया “सर आँख की।” उनमें से एक विद्यार्थी भाँप गया कि प्रश्न इतना सीधा नहीं है जितना लगता है, उसने ज़रा दिमाग़ पर ज़ोर दिया फिर बोला “सर आँख की और एक ऐसे दिमाग़ की जो देखी हुई वस्तुओं को समझने की सामर्थ रखता है।” तब प्रोफैसर उन सब विद्यार्थियों को एक बन्द अन्धेरे कमरे में ले गए और बोले “तुम सब के पास देखने वाली आँखें और समझने वाला दिमाग भी है, क्या तुम्हें इस अन्धकार में कुछ दिखाई दे रहा है?” अब उनकी समझ में आया कि अन्धकार ने उन्हें ‘अन्धा’ कर दिया है और देखने के लिए पहले प्रकाश फिर अन्य चीज़ों की ज़रूरत होती है।

अन्धकार सब कुछ छिपा देता है पर ज्योति सब कुछ प्रकट कर देती है। “परमेश्वर ज्योति है और उसमें कुछ भी अन्धकार नहीं (१ युहन्ना १:५)।” “तेरा वचन मेरे पाँव के लिए दीपक और पथ के लिए उजियाला है (भजन ११९:१०५)।” ‘ज्योति’ में ही हम अपने आप को अपने वास्तविक स्वरूप में देख पाते हैं, अपनी गन्दगी देख पाते हैं, देख पाते हैं कि हम कहाँ खड़े हैं, और हमें अगला कदम कहाँ रखना है। जो ज्योति में जीता है वह ठोकर खाने से बच निकलता है (युहन्ना ११:९)। अन्त के पार वह अपने अनन्त को देख पाता है। शैतान ने अनेक लोगों की बुद्धी को अन्धा कर डाला है (२ कुरिन्थियों ४:४) ताकि सच्ची ज्योति का तेजोमय सुसमाचार उन पर न चमके। शैतान चहता है कि लोग ऐसे ही अन्धकार में जिएं और फिर अनन्त अन्धकार में चले जाएं। आत्मिक अन्धकार में पड़े व्यक्ति की भूख और अतृप्ती उसे भटकाती है। वह तृप्ती पाने के लिए कुछ भी करना चाहता है और करता भी है, लेकिन आत्मिक अन्धकार उसे अपने इन प्रयासों की असार्थक्ता और विफलता पहचानने नहीं देता। सच्ची ज्योति से दूर वह अपने ही प्रयासों और कर्मों से बन्धा रहता है, इस भ्रम में कि उसके प्रयासों ने उसे सही राह दिखा दी है, जबकि सही राह तो केवल सच्ची ज्योति ही दिखा सकती है।

ज्योति तो अन्धकार में चमकती है (युहन्ना १:५)। जो जीवन की ज्योति में जीता है, उसका जीवन अलग ही चमकता है। “पर यदि जैसा वह ज्योति में है, वैसे ही हम ज्योति में चलें, तो एक दूसरे से सहभागिता रखते हैं... (१ युहन्ना १:७)।” अनेक प्रभु के अभिषिक्त लोगों को शैतान अपने लिए उप्योग करता है और इसका एक अच्छा उदहरण शमशौन का है (न्यायियों १६:२१) जिसे अन्धा करके, उसके और उसके समाज के शत्रुओं ने, अपने काम के लिए उपयोग किया। इस तरह कई प्रभु के उपयोगी पात्रों का उपयोग शैतान करता है क्योंकि उनके अन्धकार के काम अर्थात उनके छिपे पाप, जैसे व्यभिचार या व्यभिचार के विचार, लालच, अहंकार, बदला लेने की भावना आदि उन्हें अन्धा कर डालते हैं। जो जीवन कभी ज्योति देते थे वे अब एक धुआं देती बाति बन गए हैं, ऐसा धुआं जो लोगों को प्रभु के समीप नहीं आने देता, प्रभु के भवन पर कालिख चढ़ाता है। ऐसे विश्वासी प्रभु के घर के आत्मिक वातवरण को दूषित कर देते हैं।

एक जन कह रहा था “वह तो सिर पर ही चढ़ा जा रहा था। बस ऐसा जवाब दिया कि उसके होश ठिकाने आ गए और मुँह बन्द हो गया।” जब-जब कोई अपशब्द कह कर हमारे अहम पर चोट करता है तब हम भी बदले में ऐसे ही शब्दों का प्रयोग करके उसके अहम को भी वैसी ही चोट देना चाहते हैं। हम बुराई को बुराई से जीतना चाहते हैं, लेकिन प्रभु कहता है कि बुराई को भलाई से जीत लो (रोमियों १२:२१)। एक विश्वासी अपने शत्रुओं के बारे में भी बुरा नहीं सोच सकता, अपने भाईयों को भला-बुरा कहना तो दूर की बात है। अन्धकार के खेल मण्डलियों में गहराते जा रहे हैं। हम दूसरों को अपमानित करने के लिए कटाक्ष या व्यंग्य का प्रयोग करते हैं और फिर उसे हंसी में या ‘मज़ाक’ कह कर टालना चाहते हैं। अधूरे सच पर बातें गढ़ना या अफवाह फैलना फिर उसे ‘शायद’ या ‘हो सकता है’ जैसे शब्दों में ढाँपना भी काफी प्रचलित है। ऐसा अहंकार, बदले की भावना, बैर-भाव कहीं हमारे ही मन में तो नहीं भरा? हे मेरे प्रीय भाई, हे मेरी प्रीय बहन, ज़रा अपने मन में झाँक कर देख तो लें।

प्रभु का आपसे वायदा है कि “वह धुआँ देती बाति को नहीं बुझाएगा (मत्ती १२:२०)।” बस इतना हो कि मन लें और कहें “हे प्रभु तेरा यह जन यहाँ तक गिर चुका है। दया करके क्षमा कर और फिर उठा ताकि मैं फिर से जलता हुआ जीवन जी सकूँ।” “ज्योति अन्धकार में चमकती है (यूहन्ना १:५)।”

“तुम्हारा उजियाला मनुष्यों के सामने चमके कि वह तुम्हारे भले कामों को देखकर तुम्हारे पिता की जो स्वर्ग में है, बड़ाई करें (मत्ती ५:१६)।”