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गुरुवार, 21 फ़रवरी 2019

क्या मसीही विश्वासियों के लिए बड़ों के पैर छूना उचित है?



 किसी आयु में वृद्ध व्यक्ति के पैरों को झुक कर हाथ लगाना उसे आदर प्रदान करने का सूचक है। किसी आदरणीय या महान समझे जाने वाले पुरुष के सम्मुख झुकना, उसकी वंदना करने के समान या उसे आराध्य समझने के समान भी माना जा सकता है। सामान्यतः झुक कर पैरों को हाथ लगाने में ये दोनों ही अभिप्राय सम्मिलित होते हैं। यह करने के द्वारा हाथ लगाने वाला, जिसके पैरों को हाथ लगाया जा रहा है, उसे यह जताता है कि मैं आपकी आयु और आपके अनुभव, आपके दर्जे/स्तर, आपके गुणों, आदि का आदर करता हूँ; आपके सामने मैं आपके पैरों की धूल के समान हूँ, और मुझे आपके आशीर्वाद की आवश्यकता है।

यह प्रथा मसीही विश्वासियों में नहीं देखी जाती है क्योंकि परमेश्वर का वचन – बाइबल में किसी भी मनुष्य को वन्दना अथवा आराध्य समझना या मानना वर्जित है, और बाइबल के स्पष्ट उदाहरण हैं कि सृजे हुओं ने अन्य सृजे हुओं से वंदना या आराधना के भाव में नमन को अस्वीकार किया, ऐसा करने के लिए मना किया (प्रेरितों 10:25-26; 14:14-15; प्रकाशितवाक्य 19:10; 22:8-9)। पैर छूने की यह अपेक्षा उनमें ही देखी जाती है जो मसीही विश्वासी नहीं हैं।

एक मसीही विश्वासी, पापों से किए गए पश्चाताप प्रभु यीशु मसीह द्वारा कलवरी के क्रूस पर किए गए कार्य के आधार पर प्रभु के नाम में मांगी गई पापों से क्षमा, और प्रभु परमेश्वर को जीवन समर्पण के द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह से परमेश्वर की संतान है (यूहन्ना 1:12-13), उसकी देह पवित्र आत्मा का, जो उसमें निवास करता है, मंदिर है (1 कुरिन्थियों 6:19), वह अन्य विश्वासियों के साथ मिलकर परमेश्वर का निवास स्थान बनाया जा रहा है (इफिसियों 2:21-22), प्रभु यीशु मसीह के स्वरूप में ढाला जा रहा है (रोमियों 8:29; 2 कुरिन्थियों 3:18), और संपूर्ण विश्वव्यापी कलीसिया के एक अंग के रूप में प्रभु यीशु मसीह की दुल्हन (इफिसियों 5:25-27), मसीह यीशु का संगी वारिस (रोमियों 8:16-17), और प्रभु यीशु मसीह की ओर से जगत के मार्गदर्शन के लिए ज्योति (मत्ती 5:14) है।

इसकी तुलना में, मनुष्य पाप स्वभाव के साथ जन्म लेता है (भजन 51:5) और पाप करता रहता है (1 यूहन्ना 1:8, 10), परमेश्वर के सम्मुख मनुष्य की बुद्धिमत्ता भी मूर्खता है (1 कुरिन्थियों 1:25-27), उसके मन में कोई अच्छी वस्तु वास नहीं करती है (यिर्मयाह 17:9; मरकुस 7:20-23), उसकी सभी कल्पनाएं बुरी ही होती हैं (सभोपदेशक 9:3, अय्यूब 15:14-16), और उसमें से कोई भली वस्तु नहीं आ सकती है (अय्यूब 14:4), स्वभाव से परमेश्वर के प्रतिकूल रहने वाला है (रोमियों 8:7); मनुष्य नश्वर है (याकूब 4:14), शारिरिक दशा में कदापि अविनाशी नहीं हो सकता है (1 कुरिन्थियों 15:50) ।

अब, इस वाक्य, "मसीही विश्वासी के लिए झुक कर किसी के पैर छूने में कुछ अनुचित अथवा असंगत नहीं है, यह केवल आदर का सूचक है, और कुछ नहीं" में 'मसीही विश्वासी' के स्थान पर मसीही विश्वासी के उपरोक्त गुण – "परमेश्वर की संतान, पवित्र आत्मा के मंदिर...", 'किसी के पैर' के स्थान पर शारीरिक मनुष्य की दशा और गुण – "पापी, बुराई से भरा हुआ, नश्वर...", तथा 'पैर छूने' के स्थान पर उसके अभिप्राय, "मैं आपकी आयु और आपके अनुभव, आपके दर्जे/स्तर, आपके गुणों, आदि का आदर करता हूँ; आपके सामने मैं आपके पैरों की धूल के समान हूँ, और मुझे आपके आशीर्वाद की आवश्यकता है" को रखकर इस वाक्य का निर्माण कीजिए।

ऐसा करने पर इस वाक्य का स्वरूप कुछ इस प्रकार हो जाएगा : "[मसीही विश्वासी] ‘परमेश्वर की संतान, पवित्र आत्मा के मंदिर, परमेश्वर के निवास स्थान, प्रभु यीशु मसीह के स्वरूप समान, प्रभु यीशु मसीह की दुल्हन, मसीह के संगी वारिस, जगत के मार्गदर्शन के लिए प्रभु यीशु की ज्योति के लिए झुक कर [किसी के] पाप स्वभाव के साथ जन्मे, पाप करते रहने वाले, परमेश्वर के सम्मुख निर्बुद्धि, मन में भली बातों से रहित, जिसकी सभी कल्पनाएं बुरी ही होती हैं, और जिसमें से कोई भली वस्तु नहीं आ सकती है, ऐसा नश्वर मनुष्य, जो स्वभाव से परमेश्वर के प्रतिकूल रहने वाला है[के पैर छूने]को यह जताने में कि मैं आपकी आयु और आपके अनुभव, आपके दर्जे/स्तर, आपके गुणों, आदि का आदर करता हूँ; आपके सामने मैं आपके पैरों की धूल के समान हूँ, और मुझे आपके आशीर्वाद की आवश्यकता है में कुछ अनुचित अथवा असंगत नहीं है, यह केवल आदर का सूचक है, और कुछ नहीं।" इस आधार पर निर्णय कीजिए कि क्या इस विवरण के साथ इसी बात को कहने पर क्या वह अब भी पहले जैसी उचित और सुसंगत प्रतीत होती है?

अब इस पर विचार कीजिए कि क्या ऐसे व्यक्ति के लिए, जो परमेश्वर की सन्तान, परमेश्वर पवित्र-आत्मा का मंदिर प्रभु यीशु मसीह के स्वरूप में ढलता जा रहा है और सँसार के सम्मुख मसीह यीशु की ज्योति को प्रकट करने के लिए रखा गया है, एक ऐसे व्यक्ति के सम्मुख यह अभिप्राय देना उचित होगा जो पाप स्वभाव के साथ है, नश्वर है, परमेश्वर की बुद्धिमता से विहीन है, जो स्वभाव से परमेश्वर के प्रतिकूल है, कि मुझे आपके आशीर्वाद की आवश्यकता है क्योंकि मैं आपके सम्मुख आपके पैर की धूल के समान हूँ!

उत्तर स्वतः ही प्रगट है कि मसीही विश्वासी की आत्मिक वास्तविकता और परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान की गई हस्ती और स्तर के आधार पर, उसके लिए किसी मनुष्य के सामने झुककर उसके पैर छूना, उसके अभिप्रायों के आधार पर, उचित नहीं है।


मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

मूर्तियों, देवी-देवताओं आदि को अर्पित वस्तुएँ खाना



जबकि बहुधा भोजन वस्तुएं खेतों में उगाई, खलिहानों में रखी, और फिर दुकानों में बेची जाती हैं गैर-मसीही देवी-देवताओं को अर्पित करने, और धार्मिक अनुष्ठानों को करने के पश्चात, तो क्या मसीही विश्वासियों का उन्हें उपयोग करना उचित है?

चाहे लोग हमारे सच्चे और जीवते परमेश्वर को जानते या मानते नहीं भी हों, और अपने जीवनों में उसके महत्व और स्थान को स्वीकार नहीं भी करते हों, फिर भी परमेश्वर उनसे प्रेम करता है और उनके लिए उपलब्ध करवाता है (भजन 145:9; मत्ती 5:45)। भजनकार कहता है कि प्रभु परमेश्वर ही है जो धरती से वनस्पति को उगवाता है जिससे मनुष्यों और पशुओं को भोजन वस्तु प्राप्त होती है (भजन 104:14)। इसी विचार के अनुरूप, पौलुस बीज बोने और उगने के उदाहरण के द्वारा कहता है कि बीज चाहे कोई भी बोए, किन्तु बीज का उगना, बढ़ना और फल लाना परमेश्वर ही के द्वारा होता है (1 कुरिन्थियों 3:6-8)। इसलिए चाहे किसान खेती करते समय कोई धार्मिक अनुष्ठान अथवा मूर्तिपूजा करे भी, तो भी खेत में वही, उतना, और उसी गुणवत्ता का उगेगा, जितना परमेश्वर उस बीज और धरती से करवाएगा। इसलिए हम मसीही विश्वासी इस बात के लिए निश्चिंत और सुनिश्चित रह सकते हैं कि हमारी प्रत्येक भोजन वस्तु में परमेश्वर का हाथ और आशीष है, चाहे उसे उगाने या बेचने वाला कोई भी हो, और यह कैसे भी किया गया हो।

मूर्तियों को अर्पित वस्तुओं को खाने के निषेध के विषय में, 1 कुरिन्थियों 8 और 10 पढ़ें, जहां पर पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस इस विषय पर चर्चा करता है। यद्यपि मूर्ति कुछ भी नहीं है (1 कुरिन्थियों 8:4), इसलिए इस दृष्टिकोण से किसी मूर्ति को अर्पित की हुई वस्तु खाने या न खाने का कोई महत्व अथवा प्रभाव भी नहीं है(1 कुरिन्थियों 8:8); परन्तु मूलतः, मूर्तियों को अर्पित वस्तु को खाना वर्जित करने के पीछे का उद्देश्य, मूर्तियों की उपासना या अराध्य होने का संकेत भी देने से बचना है (1 कुरिन्थियों 8:7) – क्योंकि वेदी की वस्तुओं के प्रयोग के द्वारा, व्यक्ति उस वेदी का भी संभागी हो जाता है (1 कुरिन्थियों 10:18)। अधिक परिपक्व मसीही विश्वासियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विश्वास में दुर्बल मसीही भाई इस बात के कारण किसी भ्रम में पड़कर भटक न जाएं (1 कुरिन्थियों 8:7, 10-13); और अविश्वासियों पर भी यह प्रगट रहना चाहिए कि मसीही विश्वासी प्रभु की मेज़ और उनकी मेज़ अर्थात, दुष्टात्माओं की मेज़, दोनों में सम्मिलित नहीं हो सकते हैं (1 कुरिन्थियों 10:20-21)। पौलुस यह भी कहता है कि यदि कोई मूर्तियों को अर्पित वस्तु को भोजन वस्तु के रूप में उनके सामने परोसता है, और यह बता देता है, तो एक मसीही विश्वासी को उस व्यक्ति के विवेक के कारण उस भोजन वस्तु को स्वीकार नहीं करना चाहिए (1 कुरिन्थियों 10:25-30); दूसरे शब्दों में, यद्यपि उस भोजन वस्तु को खाना, किसी भी अन्य भोजन वस्तु को खाने से ज़रा भी भिन्न नहीं होगा, फिर भी मूर्ति को अर्पित उस वस्तु का उस व्यक्ति के मन और विवेक में एक विशेष स्थान होने के कारण, और यह दिखाने के लिए की एक मसीही विश्वासी इन बातों से पृथक रहता है, किसी मसीही विश्वासी को वह भोजन वस्तु नहीं खानी चाहिए।

इसलिए, यद्यपि यह बाइबल के अनुसार बिल्कुल सही औए वांछनीय है कि मूर्तियों को चढ़ाई गई वस्तुओं को न तो स्वीकार किया जाए और न ही खाया जाए, और इस सिद्धांत का यथासंभव पालन भी होना चाहिए; परन्तु हमारे शीर्षक-प्रश्न जैसी विशेष परिस्थितियों के संदर्भ में, इसे एक हठधर्मिता का सिद्धांत भी नहीं बना लेना चाहिए, मानो इसी के पालन के द्वारा हम परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और स्वीकार योग्य बनते हैं – क्योंकि यह तो केवल कलवरी के क्रूस पर किए गए प्रभु यीशु के कार्य के द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह से ही संभव हो सकता है, और परमेश्वर हमारे हृदय की दशा भली-भांति जानता है (1 कुरिन्थियों 8:3).


सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

परमेश्वर अपने बच्चों के लिए भौतिक समृद्धि किस प्रकार प्रदान करता है?




परमेश्वर के वचन बाइबल में आरंभ से ही जीविका के लिए कार्य करना सिखाया गया है। परमेश्वर ने आदम को बनाया, उसी के लिए अदन की वाटिका लगाई, परन्तु उस वाटिका की देखभाल करने का कार्य आदम को सौंपा (उत्पत्ति 2:8, 15)। इस्राएल ने भी, वाचा की भूमि कनान की जंगल की यात्रा के दौरान, यद्यपि उन चालीस वर्षों में कुछ बोया या काटा नहीं, परन्तु उन्हें प्रति प्रातः उठकर अपने लिए मन्ना एकत्रित करने के लिए परिश्रम करना होता था; यदि वे ऐसा नहीं करते, तो दिन चढ़ने के साथ वह मन्ना जाता रहता था (निर्गमन 16:21)। कनान में पहुँचने का बाद भी, उन्हें उस स्थान को अपना बनाने के लिए युद्ध लड़ने पड़े, और उस उपजाऊ भूमि के लाभ अर्जित करने के लिए उसमें खेती और काम करना पड़ा। इस्राएल के शत्रुओं को पराजित करने के लिए जब परमेश्वर ने उनकी ओर से युद्ध किए तब भी, उन्हें जाकर युद्ध भूमि में पाँति बांधकर उपस्थित होना था (2 इतिहास 20:14-17), और उसके बाद युद्ध की लूट को एकत्रित करने के लिए जाना था (2 इतिहास 20:25)। परमेश्वर के किसी भी जन को आराम से घर बैठने के द्वारा कभी कुछ नहीं मिला, और आलसी होकर बिना कार्य किए परमेश्वर द्वारा उनकी जेबें भरने की प्रतीक्षा करने से भी किसी को कुछ प्राप्त नहीं हुआ है, वह चाहे आत्मिक आशीष हो या भौतिक; उन्हें सदा ही अपनी जीविका कमाने और परिवारों की देखभाल करने के लिए परिश्रम करना पड़ा है यह हमारे आदि माता-पिता द्वारा किए गए प्रथम पाप की विरासत "और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा " (उत्पत्ति 3:19) का निर्वाह है। स्वयँ प्रभु यीशु मसीह ने भी अपनी सेवकाई आरंभ करने से पहले बढ़ई का कार्य किया था (मरकुस 6:3)। परमेश्वर के पवित्र आत्मा ने हमारे लिए अपने वचन में दर्ज करवा दिया है: " क्योंकि तुम आप जानते हो, कि किस रीति से हमारी सी चाल चलनी चाहिए; क्योंकि हम तुम्हारे बीच में अनुचित चाल न चले। और किसी की रोटी सेंत में न खाई; पर परिश्रम और कष्‍ट से रात दिन काम धन्‍धा करते थे, कि तुम में से किसी पर भार न हो। यह नहीं, कि हमें अधिकार नहीं; पर इसलिये कि अपने आप को तुम्हारे लिये आदर्श ठहराएं, कि तुम हमारी सी चाल चलो। और जब हम तुम्हारे यहां थे, तब भी यह आज्ञा तुम्हें देते थे, कि यदि कोई काम करना न चाहे, तो खाने भी न पाए। हम सुनते हैं, कि कितने लोग तुम्हारे बीच में अनुचित चाल चलते हैं; और कुछ काम नहीं करते, पर औरों के काम में हाथ डाला करते हैं। ऐसों को हम प्रभु यीशु मसीह में आज्ञा देते और समझाते हैं, कि चुपचाप काम कर के अपनी ही रोटी खाया करें।” (2 थिस्सलुनीकियों 3: 7-12)। पौलुस और उसके साथी, यद्यपि उनका प्राथमिक कार्य परमेश्वर के सुसमाचार का प्रचार और प्रसार था, फिर भी वे अपनी जीविका तथा औरों की सहायता के लिए कमाने के लिए परिश्रम करते थे (1 थिस्सलुनीकियों 2:7-10), और यही सभी को भी करना चाहिए। परमेश्वर के वचन में, कार्य करने वालों को निर्देश दिया गया है कि वे विश्वासयोग्यता से कार्य करें, यह मानकर कि वे मनुष्यों के लिए नहीं परन्तु परमेश्वर के लिए कर रहे हैं, और परमेश्वर ही उन्हें उसका प्रतिफल देगा (कुलुस्सियों 3:22-25; 1 पतरस 2:18-21)। इसलिए समृद्ध होने के लिए सबसे पहली बात जो मसीही विश्वासी को पूरी करनी है वह है एक सत्यनिष्ठ, ईमानदार, और उद्यमी व्यक्ति होना, उसे सौंपे गए कार्यों एवं दायित्वों का निर्वाह अपने विश्वास, और अपने प्रभु की गवाही के लिए करना और उससे अपने उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह की महिमा करना (1 पतरस 2:12) यह भरोसा रखते हुए कि परमेश्वर उसकी निष्ठा और उद्यम का उचित प्रतिफल, अपने समय और विधि से अवश्य देगा।

दूसरे, जैसा कि पौलुस के जीवन से प्रगट है, अपने सांसारिक कार्यों के अतिरिक्त, हमें परमेश्वर के कार्यों के लिए भी समय और अवसर के खोजी रहना है, ऐसा करना अति आवश्यक है। उसकी प्रत्येक नया जन्म पाई सन्तान के लिए, परमेश्वर ने पहले से ही करने के लिए कुछ-न-कुछ निर्धारित करके रखा हुआ है (इफिसियों 2:10), और उसके अनुसार उन्हें आवश्यक वरदान भी प्रदान किए हैं। इसके लिए वह उपयुक्त अवसर हमारी ओर भेजता है, जिससे परमेश्वर द्वारा निर्धारित हमारी सेवाकाईयों का हम निर्वाह कर सकें। यदि हम जो कार्य परमेश्वर चाहता है कि हम करें, उसके प्रति निश्चित नहीं हैं, तो हमें परमेश्वर से इसके विषय और जानकारी लेने के लिए प्रार्थना में समय बिताना चाहिए। हमारी सेवकाई के कार्यों के लिए परमेश्वर की इच्छा जानने का एक संकेत हमारे पास आने वाली सेवकाई के प्रकार के अवसर हो सकते हैं, या वह सेवकाई जो हमें रुचिकर लगती है, या वह जिसे हम देखते हैं कि बहुधा लोग हमें सौंपते हैं। हमें अपने आप को परमेश्वर की सेवकाई के लिए परमेश्वर को, हमारी मण्डली या कलीसिया को, और हमारी संगति को, उपलब्ध करना चाहिए, और हमें परमेश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिए कि वह हमें उन दायित्वों में लेकर चले जो वह चाहता है कि हम निभाएं। 3 यूहन्ना 1:2 में लिखा है:हे प्रिय, मेरी यह प्रार्थना है; कि जैसे तू आत्मिक उन्नति कर रहा है, वैसे ही तू सब बातों मे उन्नति करे, और भला चंगा रहे।दूसरे शब्दों में, परमेश्वर की कार्यविधि के अनुसार, हमारी भौतिक समृद्धि, हमारी आत्मिक समृद्धि के साथ जुड़ी हुई है। जैसे जैसे हम आत्मिक रीति से समृद्ध होते जाते हैं, हम भौतिक रीति से भी समृद्ध होते जाते हैं। हम जब परमेश्वर के कार्यों के प्रति सजग और उद्यमी होते हैं, परमेश्वर हमारी तथा हमारे परिवारों की देखभाल के प्रति कार्यरत होता है।

तीसरा, हमारे पास अभी जो भी आमदनी है, हमें जो भी मिलता है, वह चाहे कितना भी कम या अधिक हो, हमें उसमें से अपना दशमांश अवश्य देना चाहिए। परमेश्वर ने दशमांश देने के लिए कभी किसी न्यूनतम आय सीमा को निर्धारित नहीं किया, जिसे जो भी मिलता था, उसे उतने में से ही दशमांश देना था। हम परमेश्वर को जितना अधिक देंगे, परमेश्वर उसके अनुपात में उतना अधिक हमें लौटा कर देगा। हम जो भी कमाते हैं, चाहे थोड़ा या बहुत, हमें उसमें से नियमित और ईमानदारी से दशमांश निकालकर चर्च या मण्डली में दे देना चाहिए, न कि उसे अपनी इच्छा अथवा समझ के अनुसार परमेश्वर के नाम में कहीं खर्च कर देना चाहिए। जैसा कि मलाकी  3:10 में लिखा है, हमें उसे परमेश्वर के भवन में लाना और देना है; इसके बाद ही शेष भाग को अपनी आवश्यकताओं के लिए प्रयोग करना चाहिए; और हम स्वयं देखेंगे कि परमेश्वर इसके द्वारा हमें कैसे आशीषित करता है। इस बात का बहुत अच्छा उदाहरण कि कैसे परमेश्वर दशमांश देने के उसके वचन पर विश्वास और पालन करने वालों को आशीषित करता है विलियम कोलगेट का जीवन है, जो विश्वप्रसिद्ध कोलगेट टूथपेस्ट बनाने वाली कंपनी का संस्थापक था: (https://en.wikipedia.org/wiki/William_Colgate)। इसलिए, हमें शैतान को हमारे मनों में यह भय नहीं उत्पन्न करने देना चाहिए कि हम दशमांश देना आर्थिक रीति से बर्दाशत नहीं करने पाएँगे, क्योंकि इस भय के पालन के द्वारा वह हमारी आशीषें हम से चुरा लेता है; वरन, हमें परमेश्वर और उसके वचन पर भरोसा रखते हुए नियमित दशमांश देना चाहिए। बिना पहले बीज बोए कोई भी फसल नहीं काट सकता है; हमारी आशीषों की फसल के लिए हमारे दशमांश ही वे बोया गया बीज हैं बोए गए बीज की गुणवत्ता और मात्रा ही मिलने वाली फसल की मात्रा और गुणवत्ता को निर्धारित करती है।

चौथा, हमें परमेश्वर से प्रार्थना करना और जानना चाहिए कि अपने रोज़गार को और उन्नत बनाने के लिए क्या हमें और अध्ययन या प्रशिक्षण लेना चाहिए कि नहीं। आजकल इंटरनेट के माध्यम से अध्ययन, प्रशिक्षण तथा कार्य करने के अनेकों साधन और अवसर उपलब्ध हैं, जिनका हम सदुपयोग कर सकते हैं, जिससे हम कमा भी सकते, और साथ ही अपने कार्य तथा अपनी आय को बढ़ा भी सकते हैं।

यह सब परमेश्वर की इच्छा और मार्गदर्शन में करने के द्वारा, हम पाएँगे कि किसी प्रकार से हमें यह सब करने के लिए पर्याप्त समय भी मिलेगा, और इसके लिए आवश्यक सामर्थ्य तथा बुद्धिमता भी, जिससे हम न केवल अपना वर्तमान सांसारिक कार्य भी भली भांति करने पाएंगे वरन परमेश्वर के लिए भी उपयोगी रहेंगे, अपने परिवारों की देखभाल भी करने पाएँगे, और आवश्यक अध्ययन या प्रशिक्षण के द्वारा अपनी आय की वृद्धि के लिए व्संसाधन भी जुटा भी सकेंगे। जब यह सब परमेश्वर की इच्छा और मार्गदर्शन में किया जाएगा, तो इन सभी दायित्वों के योग्य निर्वाह के संघर्ष में विजय दिलवाना परमेश्वर का दायित्व होगा; और हमें बस अपने आप को उस युद्ध भूमि में खड़े होकर परमेश्वर के कार्य को देखना होगा और फिर जाकर आशीष को एकत्रित करना होगा।

कठिन समयों में सान्तवना तथा प्रोत्साहन के लिए बाइबल का एक बहुत अच्छा खण्ड है यशायाह 40:27-31 “हे याकूब, तू क्यों कहता है, हे इस्राएल तू क्यों बोलता है, मेरा मार्ग यहोवा से छिपा हुआ है, मेरा परमेश्वर मेरे न्याय की कुछ चिन्ता नहीं करता? क्या तुम नहीं जानते? क्या तुम ने नहीं सुना? यहोवा जो सनातन परमेश्वर और पृथ्वी भर का सृजनहार है, वह न थकता, न श्रमित होता है, उसकी बुद्धि अगम है। वह थके हुए को बल देता है और शक्तिहीन को बहुत सामर्थ देता है। तरूण तो थकते और श्रमित हो जाते हैं, और जवान ठोकर खाकर गिरते हैं; परन्तु जो यहोवा की बाट जोहते हैं, वे नया बल प्राप्त करते जाएंगे, वे उकाबों के समान उड़ेंगे, वे दौड़ेंगे और श्रमित न होंगे, चलेंगे और थकित न होंगे

गुरुवार, 24 जनवरी 2019

मत्ती 25:31-46 के आधार पर, क्या उद्धार कर्मों, अर्थात भले कार्यों के द्वारा है?



इसमें लेशमात्र भी कोई संदेह या अस्पष्टता नहीं है की बाइबल के अनुसार उद्धार केवल परमेश्वर के अनुग्रह ही से है, अन्य किसी रीति से नहीं। उद्धार को किसी भी प्रकार से, कैसे भी भले कार्यो अथवा अच्छे आचरण के द्वारा 'कमाया' नहीं जा सकता है, वरन यह परमेश्वर का उपहार है, जिसे प्रभु यीशु मसीह द्वारा कलवारी के क्रूस पर किए गए कार्य के द्वारा समस्त मानव जाति के लिए सेंतमेंत उपलब्ध करवाया गया है, और उद्धार प्राप्त करने में किसी भी मनुष्य द्वारा किए गए किसी भी कार्य की कोई भी, लेशमात्र भी, भूमिका  नहीं है (इफिसियों 2:1-9, रोमियों 3:27-28)।

परमेश्वर के अनुग्रह से एक बार मिला उद्धार अनन्तकाल के लिए होता है, उसे कभी गंवाया या मिटाया नहीं जा सकता है (यूहन्ना 10:28-29), और उद्धार पाए हुए व्यक्ति अनन्तकाल तक प्रभु परमेश्वर के साथ रहेंगे (यूहन्ना 14:3)। परमेश्वर ने उद्धार पाई हुई अपनी प्रत्येक संतान के करने के लिए पहले ही से कुछ न कुछ कार्य निर्धारित करके रखे हैं (इफिसियों 2:10), और परमेश्वर की इच्छा तथा आशा है की उसकी संतान उन कार्यों को भली-भांति पूर्ण करें; और ऐसा जीवन व्यतीत करें जो उन्हें परमेश्वर से उपहार के रूप में मिले उद्धार को प्रदर्शित करता है और उसकी गवाही देता है, तथा परमेश्वर को महिमा देता है (रोमियों 6:11-14; 12:1-2; 14:7-8; 1 कुरिन्थियों 6:19-20; 2 कुरिन्थियों 5:15).

परमेश्वर द्वारा निर्धारित और मसीही विश्वासियों को सौंपे गए कार्यों को परमेश्वर के वचन और निर्देशों के अनुसार किया जाना है। मसीही विश्वासियों के सभी कार्य बहुत बारीकी से उनके स्वीकार्य एवं स्थाई बने रहने वाली गुणवत्ता के लिए जाँचे जाएंगे (1 कुरिन्थियों 3:11-15); उन कार्यों की इसी बने रहने वाली गुणवत्ता के अनुसार विश्वासियों को अनन्तकाल के लिए प्रतिफल दिए जाएंगे। कुछ विश्वासियों को तब पता चलेगा की उनके कोई भी कार्य जांच से सफलतापूर्वक नहीं निकलने पाए हैं, उनके सभी कार्यों को अस्वीकृत करके रद्द कर दिया गया है, और वे अब खाली हाथ रह गए हैं; परन्तु कार्यों के अस्वीकार तथा रद्द हो जाने के बावजूद, उनका उद्धार रद्द नहीं किया गया; वे अभी भी 'उद्धार' पाए हुए हैं, स्वर्ग में प्रभु के साथ हैं, परन्तु अनन्तकाल के लिए खाली हाथ हैं (पद 15)। विश्वासियों के न्याय के समय (1 पतरस 4:17), उनका न्याय उद्धार के लिए उनकी योग्यता की जांच करने या प्रदान करने के लिए नहीं होगी – यह तो सदा के लिए उस एक पल में ही निर्धारित होकर स्थापित हो गया था जिस पल उन्होंने अपने पापों से पश्चाताप करके प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण किया था, जब वे पृथ्वी पर जीवित थे। उनके कर्मों के अनुसार उनका न्याय अर्थात, परमेश्वर और उसके वचन के प्रति उनके समर्पण तथा आज्ञाकारिता की गुणवत्ता की जांच मसीही विश्वासियों को उनके अनन्तकाल के लिए दिए जाने वाले प्रतिफलों के लिए होगी। दाख की बारी के स्वामी के दृष्टान्त  (मत्ती 20:1-16) से हम देखते हैं कि उन्हें भी जिन्होंने, औरों की अपेक्षा कम समय तक कार्य किया, परंतु स्वामी की इच्छानुसार किया, उन्हें भी वही पारिश्रमिक मिला जो अन्य सभी को दिया गया। परमेश्वर द्वारा हमें भेजे गए कार्य करने के अवसरों को उपयोग में लाना और उन अवसरों का हम किस रीति से सदुपयोग करते हैं, परमेश्वर और उसके वचन के प्रति हमारे समर्पण का अडिग और संपूर्ण होना, ही हमारे अनन्तकालीन प्रतिफलों को निर्धारित करता है।

मत्ती 25:31-46 में दिया गया दृष्टान्त मसीही विश्वासियों के इसी न्याय के संदर्भ में है – वे परमेश्वर तथा उसके वचन के आज्ञाकारी रहे हैं की नहीं, और परमेश्वर की संतान होने के नाते उनसे जैसी आशा रखी गई थी, उन्होंने वैसे कार्य किए हैं कि नहीं। हम इस दृष्टान्त में देखते हैं कि पद 33 में एक पृथक करना दिखाया गया है – भेड़ों और बकरियों का – ध्यान करें की वे 'भेड़' या 'बकरियां' बने या बनाए नहीं गए, वरन वे पहले से ही 'भेड़' और 'बकरियां' थे; पद 34 और 37 में, प्रभु भेड़ों को "पिता के धन्य" और "धर्मी" कहता है – ये उपनाम भूतकाल में हैं, अर्थात उनका यह स्तर निर्धारित करके उन्हें दिया जा चुका था, उन्हें राजा के समक्ष प्रस्तुत करने से पहले ही से (पद 31-32)। इस पूरे दृष्टान्त में प्रभु कहीं पर भी 'भेड़ों' से यह कहता या संकेत देता नहीं दिखाई देता है कि “मेरे नाम में किए गए भले कार्यों के आधार पर, मैं अब तुम्हें मेरी भेड़ें होने का अधिकार देता हूँ, उद्धार पाने का अधिकार देता हूँ, धर्मी स्वीकार किए जाने का अधिकार देता हूँ, और परमेश्वर के धन्य कहलाए जाने का अधिकार देता हूँ।” ये भेड़ें ही थीं जिन्होंने नए जन्म पाने और उद्धार तथा परमेश्वर के परिवार का सदस्य, धर्मी, और परमेश्वर के धन्य होने के कारण उनमें विद्यमान स्वर्गीय स्वभाव के कारण ऐसे कार्य किए जो उनके स्वर्गीय स्वभाव के अनुरूप थे और उस स्वभाव को प्रदर्शित करते थे जिससे वे 'बकरियों' से पृथक दिखते हैं।  उन बकरियों के पास भी वही अवसर आए किन्तु क्योंकि इनमें वैसा स्वर्गीय स्वभाव तथा गुण नहीं थे, इसलिए उन्होंने कुछ भी स्वर्गीय करने या दिखाने की कोई प्रवृत्ति अथवा इच्छा नहीं प्रदर्शित की। 'भेड़ों' ने उद्धार पाने और परिवर्तित होने से उनमें विद्यमान स्वर्गीय स्वभाव के अनुसार कार्य किए; और उसी प्रकार 'बकरियों' ने अपनी अपरिवर्तित, उद्धार नहीं पाई हुई दशा के अनुसार कार्य किए। उनके कार्यों ने उन्हें 'भेड़' या 'बकरी' नहीं बनाया, परन्तु उनके 'भेड़' अथवा 'बकरी' होने से उन्होंने अपनी उस प्रवृत्ति एवं दृष्टिकोण के अनुसार कार्य किए और दिखाए।

कार्यों ने उद्धार नहीं दिया, वरन उद्धार की दशा ने नया जन्म पाए हुए परिवर्तित लोगों से स्वर्गीय कार्य करवाए। यही बात अन्य सभी भले कार्यों और उद्धार से संबंधित बाइबल के हवालों पर भी लागू होती है।
  

सोमवार, 21 जनवरी 2019

क्या 2 राजा 5:18-19 से नामान के उदाहरण के आधार पर मसीही विश्वासियों का गैर-मसीही उपासना तथा धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेना उचित माना जा सकता है?



परमेश्वर के वचन बाइबल के गलत अर्थ निकालने, गलत व्याख्या करने और उसकी गलत समझ रखने का प्रमुख और आम तौर से देखा जाने वाला कारण है बाइबल के अंशों को उनके संदर्भ से बाहर लेना, उन्हें छोटे भागों में विभाजित करके केवल उस विभाजित भाग मात्र को ही अपनी व्याख्या का आधार बनाना, और अपनी बात को मनवाने के लिए वचन को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करना। परमेश्वर के वचन के किसी भी भाग की शिक्षाओं को सही समझने और जानने के लिए उन्हें सदैव ही उनके संदर्भ में देखना और समझना चाहिए, न कि संदर्भ के बाहर।

यहाँ नामान के उपरोक्त कथन के अर्थ और उपयोगिता को समझने के लिए, उसे पद 17, “तब नामान ने कहा, अच्छा, तो तेरे दास को दो खच्चर मिट्टी मिले, क्योंकि आगे को तेरा दास यहोवा को छोड़ और किसी ईश्वर को होमबलि वा मेलबलि न चढ़ाएगा” के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जिसमें इसे समझने की कुंजी है।

एलीशा के निर्देशों का पालन – चाहे बहुत संकोच के साथ ही सही, करने के पश्चात स्वयँ नामान को ही आश्चर्य हुआ कि वह पूर्णतः चँगा हो गया है, और वह एलीशा के पास लौट कर आता है, इस बात के लिए बिलकुल दृढ़ और निश्चित कि इस्राएल के परमेश्वर को छोड़ और कोई परमेश्वर है ही नहीं (पद 15), और केवल वही परमेश्वर सभी आराधना और बलिदान के योग्य है, अन्य कोई नहीं। इस्राएल के परमेश्वर के प्रति नामान इतना निश्चित एवँ समर्पित हो गया कि उस परमेश्वर को अपने बलिदान चढ़ाने के लिए वेदी बनाने के लिए वह अपने मूर्तिपूजक देश, जहाँ वह रहता है, की मिट्टी भी प्रयोग करना नहीं चाहता है; वह चाहता है कि उसे “दो खच्चर मिट्टी” ले जाने की अनुमति दी जाए जिससे वह इस्राएल के परमेश्वर को अपनी भेंट चढ़ाने के लिए वेदी बना सके (इसे निर्गमन 20:23-26 के विचार के अन्तर्गत देखें)। नामान का यह आग्रह उसके प्रभु परमेश्वर, जिसमें वह अब विश्वास ले आया है और जिसे उसने उपासना और बलिदान के योग्य एकमात्र परमेश्वर स्वीकार कर लिया है, के प्रति उसके समर्पण और निष्ठा के विषय बहुतायत से ब्यान करता है।

परमेश्वर के प्रति नामान की इस निष्ठा और समर्पण को ध्यान में रखते हुए, अब हम 2 राजा 5:18-19 का आँकलन करते हैं। नामान के कथन में कुछ बहुत महत्वपूर्ण सत्य निहित हैं, जिनके आधार पर ही हम इन पदों से उचित और उपयोगी निष्कर्ष निकाल सकते हैं:

·         नामान प्रभु परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास और समर्पण में अति-दृढ़ था। बिलकुल खुले रूप में, उसे अपने इस नए विश्वास का सबके सामने अंगीकार करने में न तो कोई संकोच था और न ही उसे अपने इस निर्णय के प्रति कोई संशय था कि अब से वह केवल इस्राएल के परमेश्वर ही की सेवा करेगा, किसी अन्य देवी-देवता की नहीं।
·         नामान, रिम्मोन के भवन में, स्वेच्छा से नहीं वरन केवल राजा के प्रति उसके कार्य के निर्वाह की बाध्यता के अन्तर्गत ही जाता।
·         रिम्मोन के सामने दण्डवत नामान को नहीं करना था वरन राजा को करना था; नामान उस दण्डवत की मुद्रा में तभी आता जब राजा को उसके हाथ के सहारे की आवश्यकता होती, अन्यथा नहीं।
·         रिम्मोन के भवन में नामान की उपस्थिति न ही राजा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से होनी थी और न ही उपासना के लिए, परन्तु केवल राजा को सहारा देने वाले व्यक्ति के रूप में।
·         इस ज़िम्मेदारी के निर्वाह के प्रति भी नामान न तो सहमत था, और न ही इसे लेकर शान्ति से था, वरन अब उसके लिए यह एक मजबूरी थी, कोई स्वेच्छा से किया गया कार्य नहीं।
·         ऐसा करने के प्रति वह अपने संकोच और अनमने होने को सबके सामने खुले रूप से कहता है, यह जानते हुए कि जब वह इस विषय में एलीशा से बात कर रहा था तब उसके देश के अन्य लोग भी वहाँ उपस्थित थे, और वह उन संभावित परिणामों से भी भली-भांति अवगत था जो इन बातों का उसके राजा के कानों तक पहुँचने से हो सकते थे। परन्तु फिर भी उन लोगों की उपस्थिति में वह ऐसा करने के प्रति अपने संकोच को व्यक्त करने, या अपने विश्वास के बारे में बात करने में निर्भय तथा निःसंकोच था।

उसके इस विश्वास और समर्पण के विषय एलीशा उसे प्रत्युत्तर देता है “कुशल से विदा हो”; दूसरे शब्दों में, एलीशा ने उसे आश्वस्त किया कि “चिन्ता मत कर, परमेश्वर तेरे विश्वास और समर्पण के बारे में, तथा इसके बारे में तेरे मन की भावनाओं के बारे में भली-भांति जानता है, और वह तेरे हृदय की दशा का अनुसार तेरा मूल्याँकन करेगा (इसे 1 शमूएल 16:7; 1 इतिहास 28:9; 2 इतिहास 16:9; नीतिवचन 16:2; यिर्मयाह 17:10; Jeremiah 20:12; लूका 16:15 के संदर्भ में देखें), इसलिए अपनी परिस्थितियों और मजबूरियों को लेकर परेशान न हो, केवल वह कर जो तेरे लिए सही है।”

इसलिए हम कह सकते हैं कि यहाँ पर एलीशा नामान को परमेश्वर के द्वारा अपने लोगों से बारंबार तथा बलपूर्वक कही गई बात – मूर्तियों और मूर्तिपूजा से बिलकुल परे और दूर रहो, के विरुद्ध जाने की अनुमति नहीं दे रहा था, और न ही बात को यूँ ही बिना गंभीरता से लिए कुछ कह रहा था। पुराने नियम में बहुधा दोहराए गए मूर्तिपूजा के विरुद्ध के इस सत्य के नए नियम के समानान्तर के लिए 2 कुरिन्थियों 6:14-18 देखें। परमेश्वर अपने वचन के विरुद्ध कभी नहीं जाएगा, और न ही किसी के भी लिए उसे किसी रीति से काटेगा या बदलेगा। स्मरण रखिए कि वचन स्वयँ देहधारी प्रभु यीशु मसीह ही है (यूहन्ना 1:1-4, 14) – स्वयँ परमेश्वर, मानव देह में, और बाइबल की बातों में कोई भी परस्पर विरोध, परमेश्वर द्वारा अपना ही प्रतिवाद करने के तुल्य है – जो कि बिलकुल असंभव बात है!

इसके अतिरिक्त, बाइबल में कहीं पर भी, पुराने अथवा नए नियम में, इस घटना के आधार पर परमेश्वर के लोगों का मूर्तियों या मूर्तिपूजा से किसी भी रीति से जुड़ने को न्यायसंगत या उचित नहीं ठहराया गया है, जबकि ऐसा किया जा सकता था, यदि इस घटना के अनुसार ऐसा करना सही निष्कर्ष होता। पौलुस ने भे जब कुरिन्थियों को लिखी अपनी पहली पत्री में मूर्तियों और मूर्तियों को अर्पित भोजन वस्तुओं के विषय में निर्देश दिए, तो इस घटना का कहीं उपयोग नहीं किया।

इसलिए यह स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर ने मसीही विश्वासियों को कदापि यह अनुमति नहीं दी है कि वे अविश्वासियों की उपासना के रीति रिवाजों एवँ अनुष्ठानों का भाग हों; और नामान का उदाहरण, केवल उन अविश्वासियों को प्रसन्न रखने के लिए जिनके साथ या जिनके आधीन कोई विश्वासी काम कर रहा है, परमेश्वर के इस निर्देश से बचकर निकलने का मार्ग प्रदान नहीं करता है।

मैं इस बात को अपने जीवन के अनुभव से जानता हूँ। मैं भी गैर-मसीही और मूर्तिपूजक लोगों के साथ तथा उनके आधीन काफी समय से विभिन्न समय और स्थानों पर कार्य करता रहा हूँ। नौकरी के लिए प्रत्येक साक्षात्कार के समय मैं सदा ही साक्षात्कार लेने और मुझे नौकरी पर रखने वाले अधिकारियों से यह स्पष्ट कहा है कि मैं उनके यहाँ नौकरी करते समय कभी भी, किसी भी परिस्थिति में, किसी उपासना, भेंट, बलिदान या अन्य किसी भी धार्मिक गतिविधि अथवा अनुष्ठान में कोई भाग नहीं लूँगा; और परमेश्वर के अनुग्रह तथा सहायता से मैं आज तक अपनी इस बात पर कायम रहा हूँ; और इसके कारण न तो मेरे नौकरी पर रखे जाने और न ही बढ़ोतरी दिए जाने, या महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियों को मुझे सौंपें जाने में कभी कोई बाधा आई है। मैं आज तक निःसंकोच मूर्तियों के आगे अर्पित की गई किसी भी वस्तु को खाने से मना करता आया हूँ – नम्रता के साथ और हाथ जोड़कर अपने विश्वास को व्यक्त करने के द्वारा, बिना किसी को कोई कटु या अपमानजनक व्यवहार दिखाए। और मैंने आज तक उन लोगों के द्वारा आयोजित किसी भी धार्मिक कार्यक्रम या मृतकों के नाम से किए जाने वाले भोज में भाग नहीं लिया है। परमेश्वर सदा मेरे साथ बना रहा है, और मुझे हर उस हानि से बचाता रहा है जिसका भय दिखा कर शैतान लोगों को ऐसे दृढ़ रवैये को अपनाने से रोकने का प्रयास करता रहता है।

इसलिए, परमेश्वर पर भरोसा रखिए, उसके वचन के अनुसार चलिए (इब्रानियों 13:5-6), और परमेश्वर की विश्वासयोग्यता तथा सामर्थ्य का स्वयँ अनुभव कीजिए।

शनिवार, 19 जनवरी 2019

जाति लाभ और मसीही विश्वास




एक नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, अर्थात, उद्धार पाया हुआ व्यक्ति होने का अर्थ है कि व्यक्ति ने अपने पापों से पश्चाताप करके प्रभु यीशु मसीह को अपना निज उद्धारकर्ता स्वीकार किया है, उसे अपना जीवन समर्पित कर दिया है, और अब से प्रभु यीशु ही उसके जीवन का प्रभु एवँ स्वामी है, और वह व्यक्ति प्रभु यीशु को समर्पित एवँ उसका आज्ञाकारी है (लूका 6:46)। उद्धार पा लेने पर, स्वतः ही व्यक्ति के साथ कुछ बातें जुड़ जाती हैं, और कुछ जिम्मेदारियां आ जाती हैं। उद्धार पा लेने पर व्यक्ति परमेश्वर के परिवार का सदस्य बन जाता है (यूहन्ना 1:12-13; इफिसियों 2:19), वह एक पूर्णतः नई सृष्टि हो जाता है (2 कुरिन्थियों 5:17), वह सँसार के अनुसार नहीं वरन परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलने वाला हो जाता है (रोमियों 12:1-2)। उद्धार पाए हुए व्यक्ति का दृष्टिकोण स्वर्गीय होना चाहिए (कुलुसियों 3:1-2), और उसे सँसार की बातों में उलझने या फँसने से बचकर रहना चाहिए (1 यूहन्ना 2:15-17; 1 पतरस 2:11-12)। सच्चे जीवित परमेश्वर के विषय जान एवँ सीख लेने के पश्चात, परमेश्वर की सेवकाई के लिए, यहोशू के रवैये का पालन करना ही सर्वोत्तम होता है (यहोशू 24:14-15)

उद्धार पाया हुआ व्यक्ति अब प्रभु यीशु का जन है और उसके जीवन का उद्देश्य अब से अपने उद्धारकर्ता प्रभु यीशु के लिए जीवन जीना तथा अपने जीवन की सब बातों में तथा सब बातों के द्वारा अपने उद्धारकर्ता प्रभु को महिमा देना होना चाहिए (1 कोरिन्थियों 6:19-20; 2 कोरिन्थियों 5:15)। क्योंकि अब, उद्धार पा लेने के बाद से, वह परमेश्वर के परिवार का सदस्य हो गया है, इसलिए वह अपने स्वर्गीय पिता परमेश्वर की ज़िम्मेदारी भी है; और परमेश्वर ने उसकी प्रत्येक आवश्यकता को पूरा करने (मत्ती 6:24-34; फिलिप्पीयों 4:19), उसे कभी न छोड़ने या त्यागने (इब्रानियों 13:5-6), और उसे सभी परीक्षाओं में सुरक्षित रखने (1 कुरिन्थियों 10:13) की प्रतिज्ञा दी है। इसलिए अपनी किसी भी आवश्यकता के लिए, किसी भी सांसारिक लाभ या उपलब्धि के लिए, उसके लिए पिता परमेश्वर को छोड़ किसी अन्य की ओर देखना या किसी अन्य पर भरोसा करना पिता परमेश्वर की अपने बच्चों के प्रति प्रतिज्ञाओं और विश्वासयोग्यताओं को नगण्य समझना, उसका अनादर करना, उसमें और उसकी प्रतिज्ञाओं में उचित विश्वास नहीं रखना, तथा शैतान एवँ सँसार को परमेश्वर और उसके लोगों तथा उनके विश्वास का उपहास एवँ अपमान करने का अवसर प्रदान करना है।

मसीही विश्वास में कोई जातिवाद अथवा जातिभेद का स्थान अथवा मान्यता नहीं है। पिता परमेश्वर के सामने सभी मसीही विश्वासी एक समान हैं (कुलुसियों 3:11), कोई भी किसी अन्य से बड़ा या छोटा नहीं है। इसलिए अपने आप को किसी अन्य व्यक्ति से नीचा या ऊँचा समझना या बनाना, (अपने आप को किसी सांसारिक उद्धार नहीं पाए हुए व्यक्ति के स्थान पर रखने या समान देखने के द्वारा, और वह भी थोड़ी सी नाश्मान सांसारिक वस्तुओं के लिए, जिनकी प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रभु यीशु के अतिरिक्त किसी अन्य को सीधे अथवा अप्रत्यक्ष रीति से ईश्वरीय स्तर प्रदान या स्वीकार करना होगा, अपने आप को उस पर विश्वास करने वाले सांसारिक लोगों के समान दिखाने के द्वारा), परमेश्वर के अचूक, अपरिवर्तनीय, सनातन वचन की शिक्षाओं के विरुध्द जाना है; और उसका अपमान करना है और परमेश्वर ठट्ठों में नहीं उड़ाया जाता है; परमेश्वर के विरुद्ध किए गए ऐसे निन्दनीय, तथा उसका इन्कार करने के तुल्य कुकृत्यों के गंभीर परिणाम होते हैं (गलतियों 6:7-8; यहोशू 23:16)

इसलिए अपने मसीही विश्वास को छिपाने के ढोंग के स्थान पर उसे प्रगट करके रखना ही उचित होता है, चाहे उसके परिणाम जो भी हों (मत्ती 10:16-18, 22; 24:9; मरकुस 13:9)। जो लोग मसीही विश्वास में आने के बाद भी जाति के आधार पर, किसी भी प्रकार से, सांसारिक लाभों को लेने का प्रश्न को उठाते हैं, उन्हें भय होता है कि यदि वे अपने मसीही विश्वास को प्रगट करेंगे तो उन्हें "पिछड़ी जाति या वर्ग" का होने के कारण मिलने वाले लाभ फिर नहीं मिलेंगे; और उन लाभों को पाने के लालच में वे अपने मसीही विश्वास को छुपाए रखते हैं। किन्तु ऐसा करने से वे ढोंगी होने तथा परमेश्वर के वचन की शिक्षाओं के प्रतिकूल होने के दोषी हो जाते हैं, जो कि उनके लिए सांसारिक तथा आत्मिक दोनों ही स्तरों पर गंभीर हानि का कारण हो सकता है। विश्वास रखें कि अपने मसीही विश्वास को प्रगट करने के कारण होने वाली थोड़ी सी सांसारिक बातों की हानि से आप कभी नुकसान में नहीं रहेंगे, क्योंकि उससे कई गुना अधिक भरपाई परमेश्वर कर सकता है और करेगा (मत्ती 19:29; मरकुस 10:30; 1 कुरिन्थियों 2:9)। किन्तु मसीही विश्वास और प्रभु का इस प्रकार इन्कार, तथा उसकी और उसके विश्वासियों की निंदा एवं उपहास का कारण बनने से ऐसे व्यक्ति तथा उसके परिवार जनों की होने वाली दीर्घकालीन हानि की कल्पना और गणना कर पाना असंभव है; इसके दुष्प्रभाव उसकी तीसरी से चौथी पीढ़ी तक जाएंगे (निर्गमन 20:5-7)

परमेश्वर की देखभाल और कृपा का आनन्द लेने का एकमात्र तरीका है परमेश्वर पर पूर्णतः विश्वास रखना (इब्रानियों 11:6; यशायाह 40:31), अपने जीवन और कार्यों के द्वारा उसे आदर देना; और2 कुरिन्थियों  6:14-18 के अनुसार अपने आप को सँसार और सांसारिकता से पृथक रखें।