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गुरुवार, 13 अगस्त 2020

सबत, इतवार (सन्डे), मसीही आराधना का दिन

 


प्रश्न: सबत क्या है; क्या यह और सन्डे एक ही हैं? मसीहियों को आराधना सन्डे को करनी चाहिए या सबत के दिन करनी चाहिए?


उत्तर:


     सीधा, स्पष्ट और एक वाक्य का उत्तर है कि सबत और सन्डे एक ही दिन नहीं है, और बाइबल के अनुसार मसीहियों को सन्डे के दिन आराधना करनी चाहिए।


     ‘सबत’ शब्द का अर्थ होता है विश्राम। सामान्यतः इसका अभिप्राय यहूदी कैलेंडर के सातवें दिन, और हमारे वर्तमान कैलेंडर के शनिवार का दिन होता है, क्योंकि इस दिन परमेश्वर ने अपनी सृष्टि के कार्य को पूर्ण करके विश्राम किया (उत्पत्ति 2:2-3) और यह सातवाँ दिन अपनी दस आज्ञाओं में अपने लोगों के विश्राम के लिए ठहरा दिया (निर्गमन 20:8-11)। किन्तु पुराने नियम में सबत या विश्राम दिन अनिवार्यतः यहूदी सप्ताह का सातवाँ दिन नहीं है – कोई भी ‘विश्राम दिनया ‘काम न करने का दिन,सबत का दिन कहा जा सकता है – लैव्यव्यवस्था 23 अध्याय देखें, जहाँ परमेश्वर के अन्य पर्व और उन्हें मनाने की विधियां दी गई हैं, और 25 अध्याय देखें, जहाँ एक पूरे निर्धारित वर्ष को ही सबत या विश्राम का वर्ष कहा गया है। इसी प्रकार निर्गमन 31:13 और लैव्यव्यवस्था 19:3 तथा 26:2 में भी बहुवचन ‘विश्राम दिनों आया है (अंग्रेज़ी अनुवादों में शब्द sabbaths का प्रयोग हुआ है), अर्थात एक ही दिन सबत का दिन नहीं था, जो यह स्पष्ट करता है कि पुराने नियम में शब्द ‘सबत’ केवल यहूदी सप्ताह के सातवें दिन के लिए ही नहीं था, वरन परमेश्वर द्वारा निर्धारित किसी भी विश्राम या काम से अवकाश लेने के समय के लिए था। शब्द के प्रयोग का संदर्भ निर्धारित करता था कि यह किस अभिप्राय से कहा जा रहा है; किन्तु सामान्यतः यह यहूदी सप्ताह के सातवें दिन, हमारे शनिवार, के लिए था, जिसे परमेश्वर की व्यवस्था और दस आज्ञाओं के अनुसार कोई भी कार्य करने के लिए नहीं वरन परमेश्वर की उपासना के लिए व्यतीत किया जाना था – यह व्यवस्था की माँग थी, उनके लिए जो व्यवस्था के अंतर्गत परमेश्वर के लोग थे, वे चाहे जन्म से अब्राहम के वंशज हों, या स्वेच्छा से यहूदियों के साथ रहने वाले हों (निर्गमन 20:10), या जिन्होंने यहूदी धर्म और व्यवस्था को अपना लिया हो – जैसे कि उन लोगों की वह मिली-जुली भीड़ जो इस्राएलियों के साथ मिस्र से निकलकर आई थी (निर्गमन 12:38), या बाद में जो लोग यहूदी बने (एस्तेर 8:17; 9:27; यशायाह 14:1; 45:14; ज़कर्याह 8:20-23) – उन सभी पर परमेश्वर द्वारा दी गई व्यवस्था लागू होती थी, और उसका उन्हें पालन करना था, सबत का दिन या शनिवार परमेश्वर के लिए पृथक एवं पवित्र रखना था और व्यवस्था में दी गई विधि के अनुसार उसका पालन करना था।


     हमारा आज का इतवार, या सन्डे, यहूदी कैलेंडर का सप्ताह का पहला दिन है; और हमारे वर्तमान कैलेंडर का सातवाँ दिन। यह दिन हम मसीही विश्वासियों के लिए विशेष इस लिए है क्योंकि इस दिन प्रभु यीशु मसीह मृतकों में से जी उठे थे (मरकुस 16:9, देखें पद 1-9)। इसीलिए प्रभु यीशु मसीह के अनुयायी, प्रभु की आराधना करने और प्रभु-भोज में सम्मिलित होने के लिए ‘सप्ताह के पहले दिन अर्थात सन्डे के दिन एकत्रित हुआ करते थे (प्रेरितों 20:7; 1 कुरिन्थियों 16:2) – और यह बात परमेश्वर के पवित्र आत्मा ने लिखवाई है (2 तिमुथियुस 3:16-17), हमारी शिक्षा और पालन के लिए। और नए नियम में कहीं भी ऐसा करने के लिए मसीही विश्वासियों की न तो निन्दा की गई है और न ही इसे सुधारने, तथा वापस ‘सबत’ या शनिवार के दिन पर जाने के लिए कहा गया है। अर्थात, सब्त के स्थान पर सन्डे के दिन आराधना करने की यह बात परमेश्वर की ओर से है, परमेश्वर को स्वीकार्य है, और मसीही विश्वासियों के लिए उचित एवं मान्य है। बाद में इसे ‘प्रभु का दिन भी कहा गया है (प्रकाशितवाक्य 1:10) – और यह भी पवित्र आत्मा ही के द्वारा लिखवाया गया है। इसे वापस यहूदी सबत पर पलट देने का न तो कोई निर्देश है, और न ही कोई औचित्य, अथवा अनिवार्यता है।


     आज बहुत से लोग मसीही विश्वासियों को भरमा कर सन्डे के स्थान पर सबत के दिन की ओर ले जाना चाहते हैं, और अपनी बात के समर्थन में पुराने नियम से व्यवस्था के हवाले देते हैं। किन्तु वे बाइबल से यह नहीं दिखाते हैं कि मसीह यीशु ने हमारे लिए व्यवस्था को पूरा कर दिया, उसे हमारे सामने से हटा कर क्रूस पर ठोक दिया, और व्यवस्था के पालन के लिए हम भी मसीह के साथ क्रूस पर मर गए हैं (रोमियों 7:4; 10:4; कुलुस्सियों 2:13-15) – इन पदों में ध्यान कीजिए, मसीह में व्यवस्था पूरी हो गई, अर्थात, उसकी सभी आवश्यकताएँ पूरी कर दी गई हैं; और अब उसका अन्त, अर्थात परिपूर्ण होने के कारण समापन हो गया है; अब व्यवस्था टूट नहीं सकती है – उसका संपूर्ण पालन कर के, उस पुस्तक को बन्द कर के, उसके स्थान पर परमेश्वर ने मसीह यीशु में लाए गए विश्वास के द्वारा अपने अनुग्रह की धार्मिकता लागू कर दी गई है। मसीह ने व्यवस्था को क्रूस पर जड़ कर उसे हमारे सामने से हटा दिया है – अब धार्मिकता के लिए हमें उसके मार्ग पर चलने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह गई है; मसीह में होकर हम व्यवस्था के लिए मर गए हैं – इसलिए अब न तो व्यवस्था का हम पर कुछ अधिकार रह गया है और न ही हम उसके पालन कर पाने की दशा में हैं; अब हम मसीह में विश्वास के द्वारा जीते हैं – अब हमें व्यवस्था और उसकी बातों के पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं है; हम प्रभु यीशु मसीह में विश्वास के द्वारा धर्मी ठहरते हैं, न कि व्यवस्था के पालन के द्वारा (रोमियों 3:22-31; 10:8-11)।


      इस पर भी ध्यान करें कि पहली कलीसिया और प्रेरितों – प्रभु यीशु के शिष्यों, के समय पर ही इस बात पर खुलकर और विस्तार से चर्चा हुई थी, और निष्कर्ष निकाल कर यह आज्ञा दे दी गई थी कि न तो कभी कोई व्यवस्था को पूरा करने पाया है (प्रेरितों 15:10) और न ही व्यवस्था की बातों को पूरा करने की कोई आवश्यकता है (प्रेरितों 15:24)। साथ ही, पौलुस ने पवित्र आत्मा के अगुवाई में अपनी पटरियों में यह बिलकुल स्पष्ट कर दिया था कि व्यवस्था के पालन से कोई भी परमेश्वर के दृष्टि में धर्मी नहीं ठहरेगा (रोमियों 3:20; गलातियों 3:11), और जो भी व्यवस्था के अनुसार जीना चाहता है वह संपूर्ण व्यवस्था का पालन करने के श्राप के अधीन है (गलातियों 3:10), परन्तु मसीह यीशु ने हमें इस श्राप के अधीन आने से छुड़ा लिया है (गलातियों 3:13); और याकूब लिखता है कि जो व्यवस्था के एक भी बिंदु का दोषी है, वह संपूर्ण व्यवस्था का दोषी है (याकूब 2:10) – तो हम क्यों अपने आप को इस असम्भव और पूर्णतया अनावश्यक बोझ के नीचे ले कर आएँ?  


     अब, जो भी अपने आप को व्यवस्था की बातों के पालन के अधीन लाना चाहता है, उसके लिए कहा गया है कि वह श्रापित है’, व्यवस्था के द्वारा धर्मी नहीं ठहरता है, और व्यवस्था का विश्वास से कोई संबंध नहीं है (गलातियों 3:10-13)। और शैतान के ये लोग, धर्मी बनकर (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15), मसीह यीशु के नाम में हमें वापिस व्यवस्था के पालन में ढकेलने का प्रयास कर रहे हैं हमें श्रापित करना चाह रहे हैं जिससे हम मसीह में विश्वास की हमारी आशीषों को गँवा दें, व्यर्थ कर दें।


     इनसे सावधान रहें, इनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में न आएँ, क्योंकि सबत के पालन का यह झूठ बहुत बल के साथ अनेकों रीतियों और सभी माध्यमों से प्रचार किया जा रहा है, लोगों को भरमाया जा रहा है। इनसे बच कर रहें, इनकी बातों से दूर रहें।

सोमवार, 11 मई 2020

पवित्र आत्मा को पाना – भाग 5 – उपसंहार


उपसंहार 

 हमने पवित्र आत्मा तथा पवित्र आत्मा को प्राप्त करने से प्रायः संबंधित विभिन्न शिक्षाओं तथा धारणाओं की सत्यता के बारे में अध्ययन किया है। जैसा उपरोक्त व्याख्या में प्रगट है, पवित्र आत्मा को प्राप्त करने से संबंधित इन आम शिक्षाओं का बाइबल से कोई आधार नहीं है और वे गलत हैं। परमेश्वर के वचन बाइबल से, हम कुछ बातों को सीखते हैं जिन्हें सदा ध्यान में रखना आवश्यक है, जिस से हम एक स्पष्ट और बाइबल के अनुसार सही विचार परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय रख सकें। 

पवित्र आत्मा परमेश्वर है, पवित्र त्रिएकत्व का एक व्यक्ति। उस की प्रत्येक मसीही विश्वासी के जीवन – आत्मिक तथा शारीरिक, में बहुत ही महतवपूर्ण भूमिका है, ऐसी भूमिका जिसे हलका नहीं किया जा सकता है, जिसे नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता है, और जिसे महत्वहीन कह कर एक किनारे नहीं किया जा सकता है। स्वयं प्रभु यीशु मसीह के शब्दों में, वह हमारा परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया सहायक है जो हम में निवास करता है और सदैव हमारे साथ बना रहता है (यूहन्ना 14:16, 17), तथा हमें सब बातें सिखाता है, और सब बातें स्मरण करवाता है (यूहन्ना 14:26)। एक मसीही विश्वासी के जीवन में पवित्र आत्मा की भूमिका इतनी अनिवार्य, और इतनी लाभप्रद है कि स्वयं प्रभु यीशु ने उसे भेजा और अपने आप को एक ओर कर लिया कि वह उन के शिष्यों का दायित्व ले (यूहन्ना 16:7), जिस से कि वह उन्हें सत्य का मार्ग और आने वाली बातें बता सके (यूहन्ना 16:13)। 

पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और सिखाए जाने के बिना, कोई भी परमेश्वर के वचन को उस की सत्यता और प्रभावी उपयोगिता के लिए सीख नहीं सकता है (1 कुरिन्थियों 2:9-15)। इस लिए जिसे भी परमेश्वर के वचन को सीखने और अध्ययन करने की सच्ची लालसा है, उसे यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि उस का मार्गदर्शन एवं सहायता करने के लिए पवित्र आत्मा उस के साथ है, अन्यथा वह सत्य को कभी नहीं सीख सकेगा, बस मानवीय विचार और बुद्धि की बातों में भटकता रहेगा, कभी सत्य की पहचान तक नहीं पहुँच पाएगा (2 तीमुथियुस 3:7)

हम विस्तार से देख चुके हैं कि पवित्र आत्मा को महिमान्वित करने के भेष में दी जाने वाली सभी बाइबल के प्रतिकूल और गलत शिक्षाओं के निहितार्थ कितने छलावों और खतरों से भरे हैं। परमेश्वर के वचन के अध्ययन करके सही निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए, यह अनिवार्य है कि बाइबल के प्रत्येक खण्ड, प्रत्येक आयत, और उस के प्रत्येक भाग का उस के सही सन्दर्भ में तथा परमेश्वर के वचन में अन्य संबंधित शिक्षाओं को साथ ले कर अध्ययन किया जाए जिस से परमेश्वर के वचन की गलत समझ और गलत व्याख्या से बचा जा सके, क्योंकि परमेश्वर के वचन के सभी भाग एक दूसरे के पूरक ही हैं, वे कभी एक दूसरे का खंडन नहीं करते हैं। इस लिए ऐसी कोई भी बात जो संदर्भ में या अन्य संबंधित शिक्षाओं के साथ सहजता से सही नहीं बैठे, वह परमेश्वर के वचन से बाहर की बात है, और उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। और जबकि गलत शिक्षाएँ और झूठे सिद्धांत किसी आयत या उसके एक भाग, या किसी खण्ड को अलग से उस के सन्दर्भ से बाहर ले कर बिना बाइबल की अन्य संबंधित शिक्षाओं को ध्यान में रखे हुए एक विशेष विचार का समर्थन करने के लिए व्याख्या करने के द्वारा बनाई जाती हैं। 

शैतान भली-भाँति जानता है कि एक मसीही विश्वासी के जीवन में और जीवन के द्वारा पवित्र आत्मा के कार्यकारी होने का कितना महत्त्व है, और ऐसा होना उस की इच्छाओं तथा योजनाओं के लिए कितना घातक है। क्योंकि शैतान पवित्र आत्मा को मसीही विश्वासी के जीवन से निकाल तो नहीं सकता है, इस लिए वह प्रयास करता रहता है कि लोगों को बहला, फुसला, और बहका कर, उन्हें परमेश्वर द्वारा दिए गए इस सामर्थ्य और उपयोगिता के स्त्रोत के आज्ञाकारी एवं समर्पित न रहने दे। शैतान अच्छे से जानता है कि जैसे हव्वा के साथ, वैसे ही वह सरलता से हमें भी आकर्षक, लाभकारी, और अद्भुत प्रतीत होने वाली बातों के द्वारा फंसा कर बहका सकता है (उत्पत्ति 3:6), और इस प्रकार से परमेश्वर के वचन के तोड़ने-मरोड़ने और गलत व्याख्याओं के द्वारा हमें परमेश्वर के वचन से भटका कर दूर ले जा सकता है। इस लिए मसीही विश्वासी के जीवन में पवित्र आत्मा की भूमिका तथा आवश्यकता को समझने के लिए, और उस के विषय किसी गलत शिक्षा अथवा सिद्धांत में बहकाए जाने से बचने और सुरक्षित रहने के लिए, यह बहुत आवश्यक है कि हम कुछ बुनियादी सत्यों को अच्छे से समझ लें, और अपने आप को उन पर स्थिर और दृढ़ कर लें।ऐसी कोई भी शिक्षा या सिद्धांत जो इन बुनियादी बाइबल तथ्यों से सहजता से मेल नहीं खाती है या उन में सहजता से सही नहीं बैठती है, ऐसी कोई भी बात जिसे इन तथ्यों के अनुसार सही बैठाने के लिए कुछ तोड़ने-मोड़ने, और विशेष प्रयास करने की आवश्यकता पड़ती है, वह मनगढ़ंत है, और उस का तिरिस्कार किया जाना चाहिए।

ये बुनियादी तथ्य हैं: 

1. पवित्र आत्मा परमेश्वर है: वह मनुष्य के नियंत्रण में न तो है; और न ही उसे मनुष्य की इच्छाओं और विचारों के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य किया जा सकता है; तथा न ही उसे मनुष्य की अभिलाषाओं और अपेक्षाओं के अनुसार इधर-इधर किया जा सकता है। परमेश्वर के साथ हमारे संबंधों में, सदा ही परमेश्वर नियम बनाता है और सदा ही हम मनुष्य उन नियमों का पालन करते हैं।ऐसा कुछ भी जो इस बुनियादी नियम को पलटना या उसकी अनदेखी भी करना चाहता है वह परमेश्वर की ओर से नहीं हो सकता है।इस लिए ऐसी कोई भी शिक्षा जिस में ऐसे किसी सुझाव का संकेत मात्र भी है कि पवित्र आत्मा को बाध्य किया जा सकता है, उसे चालाकी से प्रयोग किया जा सकता है, या मनुष्य के किसी भी प्रयास के द्वारा उस से कुछ ऐसा करवाया जा सकता है जो परमेश्वर के वचन के अनुसार नहीं है, वह गलत शिक्षा है, अस्वीकार्य है, और उसे लेश मात्र भी स्थान नहीं दिया जाना चाहिए। 

2. पवित्र आत्मा व्यक्ति है, पवित्र त्रिएकत्व का एक भाग: पवित्र आत्मा कोई वस्तु नहीं है जिसे टुकड़ों में बाँटा जा सके, जिसे अधिक या कम किया जा सके, अथवा विस्तृत या संकुचित जा सके, या अंशों अथवा किस्तों में दिया और लिया जा सके। जिस प्रकार से इन में से कोई भी बात मेरे और आपके साथ नहीं की जा सकती है, क्योंकि हम व्यक्ति हैं, उसी प्रकार से ये उस के साथ भी नहीं की जा सकती हैं। जहाँ भी उस की उपस्थिति होगी, वह उस की सम्पूर्णता में होगी, न की टुकड़ों में अथवा खण्डों में। 

3. पवित्र आत्मा अपने लिए कोई महिमा नहीं लेता है, परन्तु सारी महिमा मसीह की ओर करता है: पवित्र आत्मा की भूमिका प्रभु यीशु मसीह की गवाही देना है (यूहन्ना 15:26), प्रभु की बातों को लेकर उन्हें हमें बताना है (यूहन्ना 16:15), प्रभु यीशु मसीह द्वारा कही गई बातों को सिखाना और स्मरण दिलाना है (यूहन्ना 14:26)। इस लिए जो यह कहते फिरते हैं कि उन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा दर्शन और भविष्यवाणियाँ मिली हैं, ऐसी बातें जो कि बाइबल की बातों से बाहर होती हैं, वे सचेत हो जाएं – वे बहुत बड़े छलावे में हैं। लोगों को इस बात का एहसास होना चाहिए और उन्हें यह स्वीकार करना चाहिए कि, प्रभु यीशु के समान ही (यूहन्ना 8:26; 12:49), पवित्र आत्मा भी कभी अपने आप से कुछ नहीं कहता है, केवल वही कहता है जो वह सुनता है (यूहन्ना 16:13)। और जो भी वह कहता है वह सदा ही प्रभु यीशु को महिमा देने के लिए कहता है, कभी भी अपने आप को महिमा देने के लिए नहीं (यूहन्ना 16:14)। इस लिए ऐसा कोई भी विचार, धारणा, विश्वास, या व्यवहार जो प्रभु यीशु के स्थान पर पवित्र आत्मा को महिमा देने के लिए है वह पवित्र आत्मा की ओर से नहीं है, परमेश्वर की ओर से नहीं है; क्योंकि परमेश्वर कभी भी अपने आप का और अपने वचन का खण्डन नहीं करेगा। 

4. जैसा हम ने इस संपूर्ण लेख में देखा है, वास्तव में नया जन्म पाए हुए सच्चे मसीही विश्वासी पवित्र आत्मा का मंदिर हैं, न कि ऐसी टंकियाँ जो रिस सकती हैं या रिसती रहती हैं, जिन में से होकर कुछ समय या परिस्थितियों में पवित्र आत्मा रिस कर बाहर निकल जाता है। प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी को पवित्र आत्मा उसी पल दे दिया जाता है जब वह मसीह यीशु में विश्वास लाता है, और तब से लेकर पृथ्वी पर उस की आख़िरी साँस तक पवित्र आत्मा उस में बसा रहता है उसके साथ बना रहता है। इस लिए मसीही विश्वास में आ जाने के पश्चात किसी भी प्रकार से पवित्र आत्मा को प्राप्त करने, या जीवन में पवित्र आत्मा की उपस्थिति की मात्रा को बढ़ाने या प्रभावी करने के लिए, कोई भी ‘बपतिस्मे’ अथवा ‘भरपूरी या परिपूर्णता’ कर पाने की बात गलत व्याख्या है, और बाइबल के सत्य का गलत प्रयोग है – ऐसा होना तो संभव है ही नहीं! पवित्र आत्मा की उन में विद्यमान उपस्थिति को और अधिक प्रमुख या बेहतर करने के लिए सच्चा मसीही विश्वासी जो कर सकता है, वह है उस के प्रति समर्पित तथा आज्ञाकारी बना रहे; वह जितना अधिक पवित्र आत्मा को उसे नियंत्रित एवं निर्देशित करने देगा, वह प्रभु के लिए उतना ही अधिक उपयोगी और सामर्थी बनेगा, और पवित्र आत्मा अपनी सामर्थ्य उस हो कर में उतना अधिक प्रगट करेगा। 

 समाप्त

रविवार, 10 मई 2020

पवित्र आत्मा को पाना – भाग 4 – भरना या परिपूर्ण होना – भाग 3 – निहितार्थ




पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना क्या है? – भाग 3

निहितार्थ

इस गलत शिक्षा को स्वीकार करने का अर्थ है, जैसे कि उपरोक्त ‘पवित्र आत्मा का बपतिस्मा’ के गलत शिक्षा के साथ है, मसीह की देह, उसकी कलीसिया को दो भागों में विभाजित करना – वे जन के पास यह भरपूरी या परिपूर्णता ‘है’, और वे जिन के पास यह ‘नहीं है।’ और फिर इस से, जिनके पास ‘है’ उन में ‘उच्च श्रेणी का होने,’ ‘बेहतर क्षमता और कार्य-कुशलता वाले होने,’ और ‘परमेश्वर से आशीष और प्रतिफल पाने पर अधिक दावा रखने’ की भावनाओं के द्वारा; तथा जिनके पास ‘नहीं है’ उन्हें इस ‘विशिष्ट विश्वासियों’ के समूह में सम्मिलित होने और उस समूह के लाभ अर्जित कर पाने के निष्फल व्यर्थ प्रयासों को करते रहने के चक्करों में फंसा देते हैं। दोनों ही स्थितियों में, अंततः परिणाम एक ही है – वास्तविक मसीही परिपक्वता और प्रभु के लिए प्रभावी होने में गिरावट (1 कुरिन्थियों 3:1-3) – जिनके पास ‘है’ उन में इस के कारण उठने वाले घमंड, वर्चस्व, तथा अधिकार रखने की भावनाओं के कारण; और जिनके पास ‘नहीं है’ उन्हें एक पूर्णतः अनावश्यक और अनुचित कार्य में समय गंवाने और व्यर्थ प्रयास करने में लगा देने के द्वारा, जिससे वे मसीही विश्वास, परमेश्वर के वचन, और प्रभु के लिए प्रभावी होने में बढ़ न सकें।

इस के अतिरिक्त, इस एक छोटी सी और अ-हानिकारक प्रतीत होने वाली बात से संबंधित गलत शिक्षा में शैतान ने एक बार फिर से परमेश्वर के विरुद्ध बहुत बड़ा षड्यंत्र लपेट कर ‘भक्ति की आदरणीय बात’ के रूप छिपा कर हम में घुसा दिया है। और हमारा इसलिए इस बात के प्रति सचेत होना, उस की सही समझ रखना, इस गलत शिक्षा से निकलना, और बच के रहना कितना अनिवार्य है (2 कुरिन्थियों 2:11)। पवित्र आत्मा प्राप्त कर लेने के पश्चात, उस की प्रभावी उपस्थिति एवं सामर्थ्य को बढ़ाने के लिए बाद में किसी अन्य प्रक्रिया के द्वारा एक भिन्न पवित्र आत्मा से भर जाने अथवा ‘परिपूर्ण’ होने के अनुभव का संभव होने की बात कहने से तो यही अर्थ निकलता है कि पवित्र आत्मा को बांटा जा सकता है, उसे घटाया या बढ़ाया जा सकता है, उसे किस्तों या टुकड़ों में लिया या दिया जा सकता है, आदि।

ये सभी बातें न केवल वचन के विरुद्ध हैं, वरन पवित्र आत्मा के त्रिएक परमेश्वर का स्वरूप होने का इनकार करने का प्रयास करती हैं। यह गलत शिक्षा पवित्र आत्मा को पवित्र त्रिएक परमेश्वर के एक व्यक्ति के स्थान पर, एक  वस्तु बना देती है जिसे काटा, छांटा, और बांटा जा सकता है और फिर मनुष्यों के प्रयासों द्वारा दिया या लिया जा सकता है। और सब से अनुचित यह कि यह शिक्षा, परमेश्वर पवित्र आत्मा को मनुष्य के हाथों का खिलौना बना देती हैं, कि मनुष्य अपने व्यवहार और आचरण, अर्थात अपने कर्मों के द्वारा निर्धारित और नियंत्रित कर सकता है कि पवित्र आत्मा कब, किसे, कैसे, और कितना दिया जाएगा, और फिर वह उस मनुष्य में क्या और कैसे कार्य करेगा!

अर्थात पवित्र आत्मा तो फिर परमेश्वर नहीं रहा वरन मनुष्य के हाथों की कठपुतली हो गया। और क्योंकि त्रिएक परमेश्वर के तीनों स्वरूप – परमेश्वर पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा समान और एक ही हैं, इसलिए या तो फिर शेष दोनों स्वरूप भी उस कठपुतली के समान हो गए, अन्यथा पवित्र त्रिएक परमेश्वर में विभाजन है, पवित्र आत्मा शेष दोनों से भिन्न और पृथक है, शेष दोनों से कुछ कम है, जिसका अर्थ है कि पवित्र त्रिएक परमेश्वर का सिद्धांत झूठा है, और परमेश्वर का वचन जो यह सिद्धांत सिखाता है, वह भी झूठा है।

इस गलत शिक्षा को स्वीकार करने का अर्थ है कि परमेश्वर मनुष्य की मुठ्ठी में आ गया; और अब मनुष्य उसे अपनी इच्छानुसार नियंत्रित और उपयोग करेगा! परमेश्वर इस घोर विधर्म के विचार से भी हमारी रक्षा करे, हमें इस के घातक फरेब में कभी भी न पड़ने दे। ये सभी गलत शिक्षाएं परमेश्वर और उसके पवित्र वचन को झुठलाने और उसे हमारे जीवनों में अप्रभावी करने के लिए बड़ी चतुराई तथा परोक्ष रीति से किए गए शैतान के हमले हैं; हमारे लिए इन शैतानी षड्यंत्रों को ध्यान दे कर समझना और उन से दूर रहना, और शैतान के इन छलावों में फँसने से बच कर रहना बहुत अनिवार्य है।

 - क्रमशः

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शनिवार, 9 मई 2020

पवित्र आत्मा को पाना – भाग 4 – भरना या परिपूर्ण होना – भाग 2 – समझना (2)




पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना क्या है? – भाग 2  
समझना (2)

यदि व्यक्ति पवित्र आत्मा के निर्देशानुसार चलता नहीं है (गलातियों 5:16, 25), उसकी आज्ञाकारिता के द्वारा उसकी सामर्थ्य को प्रयोग नहीं करता है, तो पवित्र आत्मा उसके जीवन में अप्रभावी तथा निष्क्रिय रहता है (इफिसियों 4:30; 1 थिस्सलुनीकियों 5:19)। इसे इस उदाहरण द्वारा समझिए - आपके घर में बिजली का कनेक्शन और तार लगे हैं और उन तारों में बिजली प्रवाहित होती रहती है; किन्तु जब तक आप कोई कार्यशील, एवं बिजली से चलने वाला उपयुक्त उपकरण उसके साथ जोड़कर बिजली को अपना कार्य नहीं करने देते हैं, तब तक उस बिजली की आपके घर में उपस्थिति निष्क्रिय एवं प्रभाव रहित है। आप जैसा और जितना शक्तिवान उपकरण जोड़ेंगे और बिजली को उस में से प्रवाहित होकर कार्यकारी होने देंगे, उतना ही आप उस विद्यमान बिजली की सामर्थ्य को प्रत्यक्ष देखेंगे, और उसका सदुपयोग करेंगे। उपकरण चाहे छोटा और कम शक्ति का हो, अथवा बड़ा और अधिक शक्ति का, उसमें प्रवाहित होने वाली बिजली एक ही और समान गुणवत्ता की होगी। उस बिजली की सामर्थ्य का प्रदर्शन तथा उपयोग उस उपकरण द्वारा बिजली का प्रयोग करने की क्षमता पर निर्भर होगा।

इसी प्रकार से आप जितना अधिक परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी और समर्पित रहेंगे, जितना उसके वचन के अनुसार चलेंगे, जितना परमेश्वर को और उसके वचन को अपने जीवन में उच्च स्थान और आदर देंगे, उतना अधिक पवित्र आत्मा की सामर्थ्य आप में होकर कार्य करेगी, प्रकट होगी। यदि आपका आत्मिक जीवन कमज़ोर रहेगा, तो आपको अपने जीवन में पवित्र आत्मा की सामर्थ्य भी उतनी ही कम अनुभव होगी तथा दिखाई देगी। यदि आप मात्र औपचारिकता पूरी करने के लिए बाइबल का एक छोटा खंड पढ़ना, और कुछ औपचारिक प्रार्थना दोहराना भर ही कर सकते हैं – और बहुतेरे तो यह भी नहीं करते हैं, तो फिर आप कैसे आशा रख सकते हैं कि आप के जीवन में पवित्र आत्मा की जीवंत तथा सामर्थी उपस्थिति दिखाई देगी?

बच्चों को नियमित स्कूल में जाना होता है, बैठ कर, और ध्यान देकर पढ़ना होता है, ठीक से अपना गृह कार्य करना होता है, परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना पड़ता है, तभी वे ज्ञान और समझ में बढ़ने पाते हैं, और जीवन में कुछ कर पाने के योग्य होने पाते हैं। यह उनके प्रतिदिन कुछ मिनिट तक स्कूल के विभिन्न गलियारों में हो कर भाग आने तथा शेष दिन को अन्य बातों में व्यतीत करने के द्वारा नहीं होता है। इसी प्रकार से आत्मिक पाठशाला में भी उचित समय के लिए बैठना, वहां पर्याप्त समय बिताना, तथा ध्यान दे कर पवित्र आत्मा से सीखना, और जीवन के अनुभवों की परीक्षाओं से हो कर निकलना होता है। तब ही प्रभु का जीवन और सामर्थ्य व्यक्ति के जीवन में दिखाई देती है।

प्रत्येक वास्तविक नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी पवित्र आत्मा का मंदिर है और पवित्र आत्मा मसीही विश्वासी में सदा विद्यमान है, बसा हुआ है (2 तीमुथियुस 1:14)। मसीही विश्वासी जब अपने आत्मिक स्तर एवं परिपक्वता के अनुसार, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और आज्ञाकारिता में होकर परमेश्वर की महिमा एवं कार्य के लिए कुछ ऐसा करने पाता है, जो उसके लिए अपने आप से, या किसी मानवीय सामर्थ्य अथवा ज्ञान या योग्यता से कर पाना संभव नहीं था, तो वह पवित्र आत्मा से भरकर कार्य करना होता है, जैसा कि हम ऊपर पतरस, यूहन्ना और पौलुस के उदाहरणों से देख चुके हैं।

क्योंकि सामान्यतः सभी मसीही विश्वासी परमेश्वर और उसके वचन के प्रति अपने विश्वास, समर्पण, और आज्ञाकारिता में न तो एक सामान स्तर के होते हैं, और न ही सभी उस स्तर के होते हैं जितने कुछ विशिष्ट लोग अपनी मसीही आज्ञाकारिता और परिपक्वता के कारण होते हैं, इसलिए ऐसा लगता है कि पवित्र आत्मा से भरकर कार्य करना, अर्थात पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से कुछ अद्भुत या विलक्षण काम करना, केवल कुछ विशिष्ट लोगों के लिए ही संभव है। किन्तु यह भ्रांति है; और इस भ्रान्ति का दुरुपयोग ‘पवित्र आत्मा से भरने’ की आवश्यकता की गलत शिक्षा को सिखाने और प्रचार करने के लिए किया जाता है। आत्मिकता और आज्ञाकारिता में बढ़िए, और आप भी पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से भरकर कार्य करने वाले हो जाएंगे।

बड़ा ही सामान्य और स्वाभाविक सा उदाहरण है, आप किसी भी दुर्बल और रोगी मनुष्य से वैसा और उतना ही शारीरिक परिश्रम करने की आशा नहीं रखेंगे जो एक स्वस्थ और बलवंत मनुष्य सहजता से कर सकता है।

जब तक संसार और सांसारिकता के साथ समझौते का रोग हम मसीही विश्वासियों को आत्मिक रीति से दुर्बल और आत्मिक रीति से अस्वस्थ बनाए रखेगा; जब तक कि हम संसार के लोगों की आज्ञाएँ मानने और उन लोगों के लिए काम करते रहने को प्राथमिकता देने के लिए, परमेश्वर और उस के वचन की आज्ञाकारिता को अपने जीवनों में उन से विचले दर्जे का स्थान देते रहेंगे, तथा उसे एक सर्वोपरि अनिवार्यता के स्थान पर सुविधा के अनुसार किया गया कार्य बना कर, अपनी आत्माओं को दुर्बल बनाए रखेंगे, हम भी वह सब कदापि नहीं करने पाएंगे जो एक आत्मिक जीवन में स्वस्थ और सबल व्यक्ति के लिए कर पाना संभव है। और हम भी इस प्रकार की गलत शिक्षाओं को गढ़ने और प्रचार करने वालों के भ्रम द्वारा ठगे जाते रहेंगे, इधर-उधर उछाले जाते रहेंगे (इफिसियों 4:14)

परमेश्वर ने हमें अपनी पवित्र आत्मा के द्वारा आवश्यक सामर्थ्य तथा अपने वचन के द्वारा उपयुक्त मार्गदर्शन दे रखा है; अब यह हम पर है कि हम उसका सदुपयोग करें और प्रभु के योग्य गवाह बनें।

 - क्रमशः
अगला लेख:  पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना क्या है? भाग 3 –  निहितार्थ

शुक्रवार, 8 मई 2020

पवित्र आत्मा को पाना – भाग 4 – भरना या परिपूर्ण होना – भाग 2 समझना (1)


पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना क्या है? – भाग 2  

समझना (1)


सामान्य समझ के अनुसार भी यह कोई भेद की या किसी विशेष अतिरिक्त समझ से समझी जाने वाली बात नहीं है। जैसे कि हम देखते हैं कि प्रेरितों 2:4 में, अन्य चेलों के साथ, पतरस ने भी पवित्र आत्मा पाया, और प्रेरितों 4:8 में उसने पवित्र आत्मा से भर कर मसीहियों का विरोध कर रहे अधिकारियों का प्रभावी एवं सफल रीति से सामना किया और उनके सामने प्रभु परमेश्वर का प्रचार किया। पतरस और यूहन्ना के लिए, उनकी अपनी योग्यता, शिक्षा, और हैसियत के आधार पर यह बहुत असाधारण तथा उनके सामर्थ्य के बाहर का कार्य था, क्योंकि वे ‘अनपढ़ और साधारण’ मनुष्य थे (प्रेरितों 4:13), और उनके सामने वचन में पारंगत और विद्वान तथा उच्च अधिकारी लोग थे; लेकिन फिर भी बिना किसी घबराहट या गलती के उन दोनों ने उन विद्वान उच्च अधिकारियों को निरुत्तर कर दिया (प्रेरितों 4:14); और वे लोग पहचान गए की ऐसा उन दोनों के प्रभु के साथ रहने के कारण संभव हुआ है।

प्रेरितों 13:52 में फिर से आया है कि चेले पवित्र आत्मा तथा आनंद से भरते रहे – यह बारंबार होता ही रहा, अर्थात वे उसकी सामर्थ्य से कार्य करते ही रहे; न कि यह कि थोड़े-थोड़े समय बाद पवित्र आत्मा उनमें से चला जाता था, और उन्हें फिर से उसे प्राप्त करना पड़ता था – यह तो हो नहीं सकता था, क्योंकि प्रभु ने उन से वायदा किया था कि पवित्र आत्मा सर्वदा उन के साथ रहेगा (यूहन्ना 14:16); और ऊपर हम देख चुके हैं कि पवित्र आत्मा को, अन्दर एक स्तर बनाए रखने के लिए, थोड़े-थोड़े भागों में नहीं लिया जा सकता है।

पौलुस के लिए आया है कि उसने प्रेरितों 9:17 में पवित्र आत्मा पाया, या, परिपूर्ण हो गया, और फिर प्रेरितों 13:9 में जब उसे शैतान की शक्ति का सामना करना पड़ा तो लिखा है कि उसने यह पवित्र आत्मा से भर कर किया। वचन ऐसा कोई संकेत या शिक्षा नहीं देता है कि इन लोगों को पवित्र आत्मा फिर से, या परिस्थिति के अनुसार किसी भिन्न प्रकार का, या फिर किसी भिन्न मात्रा में दिया गया; न ही यह कि वह छोड़ कर जा चुका था और उसे फिर से तथा अब पहले से अधिक मात्रा में दिया गया; और तब उन्होंने उससे “भर कर” कार्य किया। पवित्र आत्मा तो वही और उतना ही था जो आरंभ में उन्हें मिला था; जो भिन्न था वह था परिस्थिति के अनुसार प्रभु की आधीनता और आज्ञाकारिता में हो कर उनके द्वारा पवित्र आत्मा की सामर्थ्य का प्रभावी रीति से उपयोग करना, और कार्य को उसकी सामर्थ्य से पूरा करना।

वास्तव में यह “पवित्र आत्मा से भर कर कार्य करना” कोई अनोखी या अनूठी बात नहीं है, जो केवल कुछ ही लोगों के लिए होती हो । किन्तु बहुत से प्रचारक इसे ऐसी अनोखी और अनूठी बात बना कर ही अनुचित प्रस्तुत करते रहते हैं, अपने वर्चस्व को बनाए रखने, और अपने आप को प्रभावी और असामान्य दिखाने के लिए इसकी गलत शिक्षा देते रहते हैं, जो बाइबल के तथ्यों से बिलकुल मेल नहीं खाती है। अभिव्यक्ति, “पवित्र आत्मा से भर कर कार्य करना”, प्रतिदिन की सामान्य भाषा और भाषा के उपयोग के अनुसार ही है।

हम सभी के द्वारा प्रतिदिन उपयोग एवं अनुभव की जाने वाली कुछ अभिव्यक्तियों पर ध्यान कीजिए: जब आप कभी कहते, पढ़ते, या सुनते हैं कि, "उसने प्रेम से भर कर...," या "वह आनंद से भर गया,और उसने..." या "उसने क्रोध से भर कर...", आदि, तो आप इसे कैसे समझते हैं? क्या आप यह समझते हैं कि व्यक्ति ने नए सिरे से या किसी विशेष अनोखी रीति से ऐसा प्रेम, आनंद, क्रोध, आदि को प्राप्त किया, जो सामान्यतः अन्य लोगों में नहीं होता है, या जैसा अन्य लोगों के पास नहीं होता है, और तब वह कार्य किया? या आप बिना किसी विशेष प्रयास अथवा माथापच्ची के सहज ही समझ जाते हैं कि उस व्यक्ति ने उसमें पहले से ही विद्यमान उस बात का एक विशेष बल के साथ किसी विशिष्ट कार्य के लिए, अथवा विशिष्ट परिस्थिति में विशेष रीति से उपयोग किया, या उसे कार्यान्वित किया?

बस यही अभिप्राय पवित्र आत्मा से भरकर कार्य करने से है। यह बस यही कहने का तरीका है कि प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी में पहले से ही विद्यमान पवित्र आत्मा की सहायता से उसने कुछ अनोखा या असामान्य कर दिया, कुछ ऐसा जो उस व्यक्ति की सामान्य योग्यताओं और क्षमताओं के आधार पर वह नहीं कर सकता था, जैसा कि हम ऊपर पतरस, यूहन्ना, और पौलुस के उदाहरणों में देख चुके हैं।

 - क्रमशः
अगला लेख:  पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना क्या है? भाग 3 – समझना (2)

गुरुवार, 7 मई 2020

पवित्र आत्मा को पाना – भाग 4 – पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना (1) - इफिसियों 5:18



पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना क्या है? – भाग 1  इफिसियों 5:18

पवित्र आत्मा से भर जाना से अभिप्राय है पवित्र आत्मा की सामर्थ्य, उसके नियंत्रण में होकर कार्य करना। इसके लिए इफिसियों 5:18 “और दाखरस से मतवाले न बनो, क्योंकि इस से लुचपन होता है, पर आत्मा से परिपूर्ण होते जाओ” के आधार पर दावा किया जाता है कि पवित्र आत्मा से परिपूर्ण होने या भर जाने की शिक्षा बाइबल में दी गई है। किन्तु यदि हम बहुधा ज़ोर देकर दोहराई जाने वाली पवित्र आत्मा संबंधी गलत शिक्षाओं के प्रभाव से निकल कर इस वाक्य को साधारण समझ से देखें, और वह भी उसके सही सन्दर्भ में, तो यहाँ असमंजस की कोई बात ही नहीं है। इस वाक्य का सीधा सा और स्पष्ट अर्थ है; यहां दाखरस द्वारा मनुष्य को नियंत्रित कर लेने वाले प्रभाव को व्यक्त करने के लिए अलंकारिक भाषा का प्रयोग किया गया है। पवित्र आत्मा की प्रेरणा से पौलुस ने जो लिखा है उसे ऐसे समझा जा सकता है, “जिस प्रकार दाखरस से ‘परिपूर्ण’ व्यक्ति दाखरस के मतवाला कर के लुचपन का व्यवहार करवाने के प्रभाव द्वारा पहचाना जाता है कि वह उस के अन्दर विद्यमान दाखरस के प्रभाव तथा नियंत्रण में है, उसी प्रकार मसीही विश्वासी को अपने आत्मा से भरे हुए या ‘परिपूर्ण’ होने को अपने आत्मिक व्यवहार के द्वारा प्रदर्शित और व्यक्त करना है कि वह पवित्र आत्मा से भरा हुआ है, उसके नियंत्रण में है” और फिर पद 19 से 21 में वह पवित्र आत्मा से भरे हुए होने पर किए जाने वाले अपेक्षित व्यवहार की बातें बताता है।

इस वाक्य में एक और बात पर ध्यान कीजिए, पौलुस ने लिखा है, ‘...परिपूर्ण होते जाओ’ अर्थात यह लगातार चलती रहने वाली प्रक्रिया है कि लगातार पवित्र आत्मा के प्रभाव और नियंत्रण में बने रहो; इसे यदा-कदा किए जाने वाला कार्य मत समझो। इसका यह अर्थ न तो है और न ही हो सकता है कि तुम्हें पवित्र आत्मा की मात्रा बारंबार लेते रहना पड़ेगा जब तक कि तुम उस से ‘भर’ नहीं जाते हो; या फिर यह कि क्योंकि पवित्र आत्मा व्यक्ति में से रिस कर निकलता रहता है, इस लिए जब भी ऐसा हो जाए तो उसे फिर से ‘भर’ लेने के लिए पर्याप्त मात्रा में उसे ले लो। यह तो कभी हो ही नहीं सकता है, क्योंकि जैसा ऊपर देखा है, पवित्र आत्मा परमेश्वर है, पवित्र त्रिएक परमेश्वर का एक व्यक्तित्व, उसे बांटा नहीं जाता है, वह टुकड़ों या किस्तों में नहीं मिलता है, उसे घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता है, और वह हर किसी सच्चे मसीही विश्वासी में मात्रा तथा गुणवत्ता में समान ही होता है। क्योंकि यही सच है तो फिर यही संभव है कि व्यक्ति के सच्चे मसीही विश्वास में आते ही जैसे ही पवित्र आत्मा उसे मिला, वह तुरंत ही उससे ‘भर गया’ अथवा ‘परिपूर्ण’ भी हो गया, क्योंकि अब जो पवित्र आत्मा मिल गया उससे अतिरिक्त, या अधिक, या दोबारा तो कभी मिल ही नहीं सकता है; जो है, जितना है, हमेशा वही और उतना ही रहेगा; अब तो बस उस व्यक्ति को पवित्र आत्मा की उपस्थिति को व्यक्त करते रहना है, अपने व्यवहारिक जीवन में पवित्र आत्मा के प्रभाव को दिखाते रहना है। तो इसलिए अब जिसमें जो भिन्नता हो सकती है वह व्यक्ति के पवित्र आत्मा के प्रति समर्पण एवं आज्ञाकारिता को व्यक्त करना या व्यवहारिक जीवन में प्रदर्शित करना है; किन्तु उसका यह व्यवहार और आचरण (जैसा कि हम शीघ्र ही देखेंगे) उस में पवित्र आत्मा की ‘मात्रा’ का सूचक नहीं है – क्योंकि न तो वह मात्रा और न गुणवत्ता कभी भी बदल नहीं सकती है।

 - क्रमशः
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बुधवार, 6 मई 2020

पवित्र आत्मा का बपतिस्मा – भाग 3 – संख्या; निहितार्थ




पवित्र आत्मा का बपतिस्माभाग 3
कितने बपतिस्मे
निहितार्थ

पवित्र आत्मा का बपतिस्मा कोई अलग से मिलने या लिए जाने वाला बपतिस्मा नहीं है; और न ही इसे प्राप्त करने के लिए मसीही विश्वासियों को कोई निर्देश दिए गए हैं। पवित्र आत्मा, पौलुस में हो कर स्पष्ट कहता है “एक ही प्रभु है, एक ही विश्वास, एक ही बपतिस्मा” (इफिसियों 4:5)। अब यदि उद्धार पाने के बाद लिया गया एक तो पानी का बपतिस्मा है और फिर यदि उस तथाकथित शिक्षा के अनुसार परमेश्वर के लिए प्रभावी होने के लिए एक और पवित्र आत्मा का बपतिस्मा भी है, तो फिर ये तो एक नहीं वरन दो अलग-अलग बपतिस्मे हो गए, और इफिसियों में दी गई ‘एक ही बपतिस्मा’ होने की बात झूठी हो गई! अर्थात पवित्र आत्मा ने, जिसकी प्रेरणा से समस्त पवित्र शास्त्र लिखा गया है (2 तीमुथियुस 3:16), वचन में झूठ डलवा दिया, उसी ने अपने ही बात काट दी, अपने ही विषय गलती कर दी – जो कि असंभव है, ऐसा विचार करना भी घोर मूर्खता है।

अब क्योंकि जल का बपतिस्मा तो स्थापित है ही – यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला भी वही  देता था (मरकुस 1:4-5, 8), प्रभु यीशु ने भी उस से वही बपतिस्मा लिया (मरकुस 1:9), प्रभु ने अपनी महान आज्ञा में भी शिष्यों को यही देने के लिए कहा (मत्ती 28:19), और प्रेरितों दो अध्याय में कलीसिया की स्थापना के साथ ही प्रथम मसीही विश्वासियों को भी यही दिया गया (प्रेरितों 2:41), तथा तब से अब तक सभी मसीही विश्वासियों को दिया जाता रहा है; इसलिए एक बपतिस्मे की गिनती तो यहीं पर इस पानी के बपतिस्मे के साथ समाप्त हो जाती है। पवित्र आत्मा का बपतिस्मा अलग से पाने की शिक्षा देने वाले तो फिर एक और अतिरिक्त बपतिस्मा लेने की शिक्षा देकर, जानते-बूझते हुए परमेश्वर के वचन में गलती डालते हैं, परमेश्वर के वचन को झूठा बनाते हैं, अपनी गलत धारणा के समर्थन के लिए वचन का दुरुपयोग करते हैं। जबकि प्रेरितों 11:15-18 में यह बिलकुल स्पष्ट कर दिया गया है, प्रभु के नाम और प्रभु द्वारा दी गई शिक्षा के आधार पर यह साफ बता दिया गया है, कि पवित्र आत्मा प्राप्त करना और पवित्र आत्मा का बपतिस्मा एक ही हैं, इन्हें पृथक करने या अलग देखने की न तो कोई आवश्यकता है और न ही बाइबल में कोई ऐसी शिक्षा अथवा निर्देश है।

अब इस पर ज़रा ध्यान कीजिए कि भक्ति और वचन के आदर के रूप में शैतान ने कितनी चतुराई से लोगों को परमेश्वर के वचन को झूठा ठहराने और उसकी अनाज्ञाकारिता करने के लिए झांसे में डाला है। इसीलिए पौलुस पवित्र आत्मा के द्वारा ऐसी गलत शिक्षाओं को देने वालों के लिए सचेत करता है, “यह मैं इसलिये कहता हूं, कि कोई मनुष्य तुम्हें लुभाने वाली बातों से धोखा न दे” (कुलुस्सियों 2:4); “परन्तु मैं डरता हूं कि जैसे सांप ने अपनी चतुराई से हव्‍वा को बहकाया, वैसे ही तुम्हारे मन उस सीधाई और पवित्रता से जो मसीह के साथ होनी चाहिए कहीं भ्रष्‍ट न किए जाएं” (2 कुरिन्थियों 11:3)। जैसा हम पहले की चर्चाओं में देख और स्थापित कर चुके हैं, प्रेरितों 11:16 तथा 1 कुरिन्थियों 12:13 में उल्लेखित ‘पवित्र आत्मा का बपतिस्मा’ अलंकारिक भाषा के प्रयोग द्वारा सभी वास्तविक मसीही विश्वासियों को पवित्र आत्मा के द्वारा प्रभु की एक ही देह अर्थात कलीसिया में समान रूप से सम्मिलित कर दिए जाने और समान स्थान तथा आदर प्रदान कर दिए जाने की अभिव्यक्ति है; न कि भविष्य में किए जाने के लिए कोई निर्देश।

बपतिस्मा एक ही है – जल में डुबकी का बपतिस्मा, जिसे मसीही विश्वास में आने के बाद ही प्रत्येक व्यक्ति को प्रभु की आज्ञाकारिता पूरी करने के लिए लेना है – बपतिस्मे से उद्धार नहीं है (प्रेरितों 2:38 की गलत व्याख्याओं द्वारा बहकाए न जाएं; देखिए: क्या प्रेरितों के काम 2:38 यह शिक्षा देता है कि उद्धार के लिए बपतिस्मा लेना आवश्यक है?), उद्धार पाए हुओं के लिए, प्रभु के प्रति समर्पित और आज्ञाकारी होने की गवाही देने के लिए बपतिस्मा है (मत्ती 28:19) – बपतिस्मा उन्हें दिया जाना था जो शिष्य बन जाते थे; न की बपतिस्मा लेने से व्यक्ति शिष्य बनता था)।


निहितार्थ

मसीह की देह, अर्थात उस की कलीसिया अस्तित्व में आ चुकी है; और जितनों ने नया जन्म पाया है, अर्थात वे जो सच्चे मन से पापों से पश्चाताप करने, सत्यनिष्ठा के साथ अपने पापों के लिए प्रभु से क्षमा माँगने, और वास्तविकता में अपना जीवन पूर्णतः प्रभु को समर्पित करने के द्वारा मसीह यीशु में विश्वास में आ गए हैं, वे स्वतः ही प्रभु की देह के अंग और पवित्र आत्मा का मंदिर बन जाते हैं, और परमेश्वर पवित्र आत्मा उन के अन्दर निवास करने लगता है। यदि इस पद के आधार पर यह विचार रखा जाए, कि केवल वे जिन्होंने अतिरिक्त पवित्र आत्मा का बपतिस्मा पाया है, वे ही प्रभु की देह के कार्यकारी और प्रभावी सदस्य हो सकते हैं, तो फिर यह एक बहुत खतरनाक और बाइबल के बिलकुल विपरीत सिद्धांत  ले आता है – प्रभु की कम से कम दो देह होने का – एक देह वे जिन्होंने पवित्र आत्मा का बपतिस्मा पाया है और दूसरी देह वो जिन्होंने यह बपतिस्मा नहीं पाया है; पहले वाले तो प्रभु के लिए उपयोगी होंगे और दूसरे वाले उपयोगी नहीं होने पाएँगे। ऐसी स्थित में स्वाभाविक है कि अनन्तकाल के लिए प्रभु की लगभग सभी आशीषें और प्रतिफल पहले वाले लोगों के लिए होंगे, जबकि दूसरे वाले लोगों को अनंतकाल के लिए लगभग खाली हाथ ही रहना पड़ेगा। अब आप स्वयं ही देख लीजिए कि भक्तिपूर्ण प्रतीत होने वाला यह सिद्धांत वास्तव में कितना घातक, घिनौना, पवित्र शास्त्र के प्रतिकूल, परमेश्वर के स्वभाव के बिलकुल विपरीत, तथा पूर्णतः तिरस्कार योग्य है।

साथ ही, एक बार फिर, यह लोगों को सत्य बताने की ज़िम्मेदारी से बचने का प्रयास है; यह बताने के दायित्व से मुँह मोड़ना है कि यदि उन्हें अपने जीवनों में पवित्र आत्मा की उपस्थिति का अनुभव नहीं हो रहा है तो दो ही संभावनाएं हैं, या तो उन्होंने वास्तव में उद्धार तथा नया जन्म नहीं पाया है, इसलिए उन्हें इसे सुधारने के लिए तुरंत निर्णय और उपयुक्त कार्य करना चाहिए; अथवा, उनके जीवन पवित्र आत्मा को पूर्णतः समर्पित नहीं हैं, वे वास्तव में पवित्र आत्मा के आज्ञाकारी नहीं हैं, इस लिए वह उन में हो कर कार्य नहीं कर रहा है; और फिर इस का भी तुरंत उचित सुधार करना आवश्यक है।

 - क्रमशः
अगला लेख:  पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना क्या है? (भाग 1)