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गुरुवार, 21 मई 2009

सम्पर्क अक्टूबर २००३: अभी अन्धेरा और भी बाकी है

कहीं किसी ने एक कहानी गढ़ कर कही। एक राजा के पास एक फकीर पहुँचा। राजा कुछ मसती में था, मुस्कुरा कर बोला, “मांगो क्या मांगते हो।” फकीर के हाथ में एक छोटा पर अजीब सा थैला था। फकीर बोला, “महाराज, बस इस थैले में सोने के सिक्के भरकर दे दीजिए।” राजा ने फौरन आज्ञा दी और महामंत्री ने स्वर्ण मुद्राएं उसके छोटे थैले में डालनी शुरू कीं। हज़ारों स्वर्ण मुद्राएं डाली गयीं पर वह छोटा थैला भरने में ही नहीं आ रहा था। अब घबराया सा राजा हार कर बोला, “सन्यासी महाराज, यह छोटा थैला कोई जादूई थैला लगता है।” फकीर ने बड़ी लापरवाही से कहा, “नहीं राजन, यह थैला कोई जादूई थैला नहीं है। यह थैला तो आदमी के दिल से बना है।” मित्र मेरे, आदमी का दिल पैसे से, पद से, ज्ञान से और मान से, कितना ही क्यों न भर लो, पर उसका दिल कभी भर नहीं पाएगा। आदमी के दिल को बनाने वाले ने अपने लिये बनाया है और केवल वही है जो इस दिल के खालीपन को भर सकता है, संतुष्ट कर सकता है। उसके बिना यह दिल खाली ही रहेगा, बेचैन रहेगा और फिर बेचैनी में ही मरेगा।

धर्म खुद में खाली और खोखले हैं, वे आदमी के दिल के खालीपन को क्या भर पाएंगे। हज़ारों धर्म, हज़ारों सालों से, हज़ारों कर्तब और तरीकों से एक मन को भी संतुष्ट नहीं कर पाए। आज तक आदमी का मन उस खालीपन की बेचैनी को भोग रहा है।

५ मई २००३ के “मिड डे” अखबार में एक सर्वेक्षण छपा था, जिसके अनुसार - २०% बच्चे अपना १५वाँ जन्म दिन मनाने से पहले ही सैक्स (व्यभिचार) में फंस चुके होते हैं; ६७% माँ-बाप अपने बच्चों के इस व्यभिचार को जान ही नहीं पाते। अनुमान्तः एक साल में १५ साल से कम उम्र की ८०,००० लड़कियाँ माँ बन चुकी होती हैं। पाप बड़ी तेज़ी से हमारे घरों में पनप रहा है। इस कारण हर घर अनसुलझी परेशानियों से घिरा है। आदमी परिवार से, समाज से, बिमारियों से और बेरो़ज़गारियों से हार गया है। वह ज़िन्दा तो है पर सहमा सा अपने अन्दर शम्शान सह रहा है। कुछ ने तो सोच लिया क्यूँ ऐसी सज़ा सहने के लिए जीएं। उनके मन ने मान लिया है कि अब कुछ नहीं बदलने वाला है। ऐसी मौत माँगती ज़िन्दगियों की कमी नहीं। बेवजह की बातों से, बुरी आदतों से, पाप से घिरा हर घर बिखर जाता है। घर दरवाज़ों और दीवारों से कभी नहीं बनता, पर प्रेम से बनता है, प्रेम से पनपता है और प्रेम से सजता है। परिवार में यदि प्रेम नहीं है तो कुछ नहीं है। परमेश्वर प्रेम है, जब परमेश्वर ही जीवन और घर में नहीं है तो प्रेम कहाँ होगा, हाँ प्रेम का दिखावा ज़रूर हो सकता है।

स्वर्गीय सत्य हमारी शर्मनाक हालत को सबके सामने लाकर रख देता है। हम परिवार में कुछ होते हैं, दोस्तों में कुछ और अपने अधिकारी के सामने कुछ और ही बन जाते हैं। परमेश्वर का वचन हमारी सारी पर्तों को हटा कर हमारा असली चेहरा हमें दिखाता है। आज की ज़िन्दगी एक नाटक से ज़्यादा नाटकीय है।
कहा जाता है कि ज़्यादातर पत्नियाँ बनावटी आँसू और दिखावटी हंसी में माहिर होती हैं, क्योंकि वे सोचती हैं कि इसके बिना तो गाड़ी खिसकती ही नहीं। बाहर भेड़ सी दिखने वाली बीवी, घर में आकर भेड़िये सी भी हो जाती है। ऐसे ही एक परिवार में बेटे ने झल्लाकार कहा, “रोज़ लेट हो जाता हूँ, डैडी कम से कम घड़ी तो रिपेयर करवा दो।” ‘धर्मपत्नि’ पतिदेव की तरफ इशारा करते हुए बीच में बोली, “इस घर में बहुत चीज़ें रिपेयर के लिये पड़ीं हैं, शुरुआत तो इस बुढ्ढे की खोपड़ी से होनी चाहिए।” ऐसी ‘धर्मपत्नियों’ से बोलते समय आपका सुर ज़रा ऊपर नीचे हुआ नहीं कि घर को युद्ध का मैदान बनते देर नहीं लगती। वे बात-बेबात पर लड़ने को बेताब अड़ी खड़ी रहती हैं। अगर किसी ज़िद्द पर अड़ गयीं, तो फिर वो बीवी क्या जो ज़िद्द छोड़ दे और वो ज़िद्द क्या बीवी जो छोड़ दे।

पर कुछ घरों की कहानी इससे उलट होती है। वहाँ कुछ मर्द ऐसे होते हैं जो नीच तरीकों से अपनी मर्दान्गी दिखाते हैं-अपनी बीवी पर हाथ उठाकर, उन्हें तरह तरह से प्रताड़ित कर के यो दूसरों के सामने ज़लील करके । तमीज़ और शर्म कभी हमारे घरों में कोई चीज़ होती थी। अब बाप अपनी बेटी के सामने पूरे गन्दे और नंगे शब्दों के साथ गाली बकता है। जैसे-जैसे उनका बुढ़ापा बढ़ने लगता है, वे सठियाने, खिसियाने और ज़्यादा ही बतियाना शुरू कर देते हैं। वे इतना मंज चुके होते हैं कि ऐसा कोई मुद्दा नहीं होता जो उनकी पकड़ के बाहर हो। रिटायरमैंट के बाद तो बात ही कुछ और हो जाती है, काम काफी बढ़ जाते हैं; जैसे-पड़ौसियों का ज़बरदस्ती सिर खाना, मौहल्ले की दुकान पर निठल्ले बैठ आने-जाने वालों पर टिप्णीयां करना, सब्ज़ी वालों से झक मारना, पुराने घिसे-पिटे किस्सों को बार-बार दोहराना, अख़बार में छपे हुए हर विज्ञापन से लेकर मण्डी के भाव तक को चाट जाना इत्यादि। आम लोग इनसे इस तरह डरने लगते हैं जैसे पागल कुत्ते का काटा पानी से डरता है। परिवार में औलाद भी पीछे नहीं है। वह भी बाप को बाप तब तक समझती है जब तक बाप की जेब गरम है। बाद में तो बाप बोझ बन जाता है। प्रिय पाठक, आपके परिवार का क्या हाल है?

परिवार से आगे खिसक कर देखें, आज हमारे समाज का क्या हाल है? पहले कहा जाता था, जितने मूँह उतनी बातें; पर आज बात बदल गयी है। मूँह कम हैं बातें ज़्यादा हैं। मूँह खाने के लिए और जीभ कोसने के लिए प्रयोग होती है। खाने के भी कई विकल्प हैं - चाहो तो गाली खा लो, कसम खा लो, हवा खा लो, कान खा लो, किसी का सिर खा लो, घूंसे खा लो, किसी का माल खा लो और हिम्मत हो तो सिर्फ माल ही नहीं पूरा माल गोदाम खा लो। कुछ लोग तो कहने लगे हैं कि ईमान्दार व्यक्ति वह है जिसे बेईमानी करने का मौका नहीं मिला।

भ्रष्टाचार हमारी परंपराओं में पूरी तरह से खप गया है। इससे अछूता बच निकलना अपने आप में आदमी के बस से बाहर है। कुछ कर्मचारी हैं जिनका नियम है नियम से रोज़ लेट आना, किसी के बनते काम में ज़बरदस्ती टाँग अड़ाना ताकि बन्दा कुछ नज़राना चढ़ाकर जाए। जैसे ही कर्मचारी, तरक्की पा, अधिकारी बन्कर घूमने वाली कुर्सी तक पहुँचता है, उसका दिमाग़ ही घूम जाता है। ग़ुरूर इतना आ जाता है कि खुद को खुदा और दूसरों को गधा समझने लगता है। बिकाऊ माल की तरह, कितने ही अधिकारियों और कर्मचारियों की भी एक कीमत होती है। उस कीमत पर वह आराम से खरीदा जा सकता है। बस इतना हो कि आप उसकी दिखावटी ईमान्दारी पर उंगली न उठाएं। वो जता देते हैं कि आखिर आपको भी तो पानी में ही रहना है, तो ध्यान रखिएगा, कहीं मगरमच्छों से ज़रा सी छेड़-छाड़ बहुत महंगी न पड़ जाए।

हमारे स्वतंत्र देश में सबसे अधिक स्वतंत्रता और सुरक्षा की ज़रूरत अपराधियों को है, जो हमारी पुलिस बड़ी मुस्तैदी से उन्हें मुहैया भी करा देती है, सिर्फ महीना बांधने की ज़रूरत है। पहले एक खेल होता था चोर भाग, सिपाही आया। आज कहते हैं कि सिपाही भाग चोर आया। एक बार एक सिपाही ने एक चोर से पूछा, “मियां धंधा कैसा चल रह है?” चोर बोला, “भाई साहब क्या बताऊं, लाकर और बैंक का ज़माना है। आजकल कुछ खास हाथ नहीं लगता। धंधा बदलने की सोच रहा हूँ। अब चोरी छोड़ नेतागिरी करूंगा।”

हमारी राज व्यवस्था को चलाने हेतु ‘नेताश्री’ लोगों की ज़रूरत होती है। नेतागिरी का बुनियादी उसूल है, दूसरों को आपस में लड़ाओ और खुद नेता बन जाओ। उन्हें लोगों को किसी न किसी बात पर लड़वाना ज़रूरी होता है; जैसे-धर्म पर, ज़ात पर, भाषा पर, शिक्षा पर, इत्यादि। असल में हमारे यहां दो तरह के लोग हैं - एक लड़ने वाले और दूसरे लड़वाने वाले। लड़ाने वाले अक्ल लड़ाते हैं और दूसरों को आपस में भिड़ा देते हैं। पर लड़ने वालों को अक्ल की ज़रूरत ही नहीं होती। उन्हे तो बस थोड़ा सा उक्सा भर दो, फिर तो मुद्दे या परिणाम के बारे में जाने-सोचे बिना, तुरंत, तोड़-फोड़, आगज़नी और मारने-काटने को तत्पर और तैयार हो जाते हैं। हमारे धर्मगुरू भी इसी तरह हमें आपस में भिड़ाने को भड़काते रहते हैं। धर्म के नाम पर हमारे मनों में इतनी नफरत भर दी गई है कि पूरा समाज भिखराव के रास्ते पर खड़ा है। धर्म के उद्देश्य और रास्ते बदल चुके हैं और आदमी के दिमाग़ को धर्म के दीमक ने इस लायक नहीं छोड़ा कि वह कुछ सही सोच सके। मज़हबी बदले की भावना के घने बादलों में घिरा समाज, इस भावना के अंजाम से बेपरवाह, अपने ही विनाश की ओर अग्रसर है।

आत्मिक इलाज करने वाले नामधारी संतों की गिनती का कोई अन्त नहीं। वे हमारे गली छाप डाक्टरों की तरह हर गली में दुकान खोले बैठे हैं। ग़रीब लोगों का उल्लू बना कर, अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। हमारी एक पड़ोसन एक दिन एक डाक्टर से अपना ख़राब दांत निकलवाकर घर लौटी। कुछ देर बाद जब सुन्न करने वाले इंजैकशन का असर ख़त्म हुआ तो दांत में पहले जैसा दर्द फिर शुरू हो गया। जब जांच-पड़ताल की तो पता चला कि ख़राब दांत तो वहीं का वहीं है, उसके बगल वाला अच्छा दांत बाहर कर दिया गया। बेचारी बहुत चीखी-चिल्लाई, पर अब क्या होता? ऐसे ही दमदार कोत्वाल के कारनामे हैं, नत्थूजी चोरी करते हैं पर फत्तूजी को जेल भेज दिया जाता है।

जो एक दूसरे को धोखे बांट रहे हैं, देर-सवेर एक दिन, अचानक वे ख़ुद बड़े धोखे के अखाड़े में आ खड़े होंगे और तब सहने के सिवाय कुछ नहीं कर पाएंगे। जो कुछ हम बोएंगे, वही हम काटेंगे। अनन्त सत्य यही है।

तन तो सजा है, पर मन का मकान अन्दर से ढह रहा है। बहुत कुछ बदला है पर आदमी अन्दर से कहीं बदला है? हत्या, व्यभिचार, आतंक, रिश्वत, बैर और जलन सब वैसा ही है; सिर्फ कपड़े, रहन सहन और भाषा बदली है। अब पाप के भारी शब्दों को हल्का करके कहने का रिवाज़ है; जैसे ‘रिश्वत’ की कमाई को उपर की कमाई या सुविधा शुल्क कहते हैं; ‘व्यभिचार’ को संबंध कहते हैं; ‘बदला लेने’ को अब इसे ज़रा सिखाना पड़ेगा और ‘ईमान्दार’ आदमी को बेवकूफ कहते हैं। हमारी दुनिया की उम्र उस मंज़िल तक पहुंच गयी है जहां उसे काला तो सफेद दिखता है और सफेद काला। बहिश्त के बाग़ीचे से जब आदम ज्ञान का फल खाकर बाहर आया तब से उसका ज्ञान तो तेज़ी से बढ़ता जा रहा है, साथ ही वह अपनी तबाही की तैयारी भी पूरी करता जा रहा है। उसने अपनी पृथ्वी को भी विनाश के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है। उसने वायु, जल, ज़मीन यानि जीवन के हर साधन को ज़हरीला कर दिया है। हमारी पृथ्वी पर भारी दबाव है और आदमी के विनाश का अध्याय साथ ही जुड़ा है; वास्तव में तो सारी सृष्टी ही कराह रही है।

प्रिय पाठक, आप में से कितने ही अपनी आदतों से परेशान होंगे। आप गाली नहीं देना चाहते पर मूँह से निकल जाती है; आप गुस्सा नहीं करना चाहते पर अपने को रोक नहीं पाते। कई अपनी बुरी लतों जैसे शराब, सिगरेट, व्यभिचार आदि से अपना पीछा नहीं छुड़ा पा रहे हैं। वे अपना शरीर, परिवार, पैसा सब कुछ धीरे धीरे बरबाद करते जा रहे हैं। आप में अपने आप इन बुराईयों को रोक पाने की सामर्थ नहीं है। कहीं सम्पर्क आप ही के जीवन की अनसुलझी कहानी तो नहीं कह रहा है?
बस दिखावा ही आदमी पर सवार है, सदा यही प्रयास रहता है कि अन्दर का छिपा आदमी कहीं बाहर न दिख जाए। दिखावे का चरित्र जीना, अपने आप से बेईमानी करना है। इन्हीं पापों की वजह से आपके अन्दर का आदमी बेचैन, झुंझलाया और बेबस है। कुछ तो इतने निराश हैं कि अब वे आत्म हत्या पर उतारू हैं। आप अपनी इन बुराईयों से, अपनी ही ताकत से, कभी नहीं छूट पाएंगे और न ही मन में रमीं-जमीं वासनाओं को अपनी सामर्थ से मार पाएंगे। पाप में फंसा आदमी, उसके हल की तलाश में अपने जीवन को घसीटता ही रहेगा। हमारे काले कारनामों का कच्चा चिट्ठा पक्की स्याही से लिखा जा रहा है। हमारे जीवन के अनखुले और अधखुले हर एक पन्ने को एक दिन खोला जाएगा। कोई ऐसा पन्ना नहीं है जो खुलेगा नहीं। हर पन्ने पर लिखी हर एक बात की एक दिन ठीक-ठीक जांच पड़ताल होगी। कुछ भी ढंपा नहीं रहेगा। अगर आप अपनी आंखें बन्द करके अपने अन्दर देखना शुरू करें तो आपका मन खुद ही बयान देगा कि आप जो बाहर से दूसरों को दिखाते हैं वैसे वास्तव में अन्दर से हैं नहीं। आपका मन आपके अन्दर की वास्त्विक स्थिती, अन्दर दबी हुई बेचैनी और परेशानियों को भी बयान करेगा।

इस मौजूदा ज़िंदगी में ज़्यादतर इन्सान एक घुटन के साथ जी रहे हैं। जीना उनकी मजबूरी है। साथ ही एक तलाश भी ज़ारी है कि कहीं कुछ राहत की सांस मिले। सपनों के सांचे में जीवन ढालने के लिए जी-जान लगा कर भी निराशा ही मिलती है। जिधर आपकी चाह है, उधर आपकी राह नहीं है। जब तक जीवन में पाप रहेगा, तब तक आदमी परेशान और बेचैन रहेगा। कोई भी अपने पाप से अपने आप को छुड़ा नहीं सकता। मौत के बाद भी पाप और उसकी खौफनाक बेचैनी पीछा नहीं छोड़ेगी। हर एक व्यक्ति अपने स्वभाव से ही पापी है। प्रभु यीशु इसी पाप के स्वभाव और पाप को नाश करने आया, पापी को नहीं। प्रभु यीशु नहीं चाहता कि एक भी पापी नाश हो। वह तो हर एक को मन फिराने और पापों की क्षमा माँगने का अवसर देता है, क्योंकि वह पापी से प्यार करता है - हर एक पापी से, और पाप से भरे इस जगत से भी - “क्योंकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वह नाश न हो परन्तु अनन्त जीवन पाए।”- यूहन्ना ३:१६।

इस सत्य को जानिएगा और मानिएगा तो जो भी जैसा भी आप से बुरा हो गया हो वह सब सदैव के लिए समाप्त हो सकता है। आप नए सिरे से, एक नए जन्म से शुरू कर सकते हैं। आप अपने बेचैन और परेशान जीवन को आनन्द से भर सकते हैं। पाप से पश्चाताप की सिर्फ एक प्रार्थना के बाद फिर आपको अपने किए पर कोई पछ्तावा नहीं रहेगा। धर्म परिवर्तन की बात सोच कर आप इस सच्चाई को ज़लील करते हैं। संप्रदाय नहीं पर स्वभाव बदलने की ज़रूरत है। धर्म परिवर्तन से किसी के जीवन में कोई परिवर्तन कभी नहीं आता। प्रभु यीशु ने क्रूस पर अपनी जान इस लिए दी कि आपकी जान नरक के विनाश से, जहां की पीड़ा कभी कम नहीं होती, बच जाए। यह शाश्वत सत्य इसाई ‘धर्म’ के अनुयाइयों पर भी ठीक वैसा ही लागू है जैसा किसी और पर; इसाई ‘धर्म’ के अनुयाइयों को भी पश्चाताप करने, मन फिराने और नये जन्म की वैसी ही आवश्यक्ता है जैसी किसी अन्य को - “क्योंकि सबने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं (रोमियों ३:२३)”। ‘नरक’ के बिना प्रचार बड़ा भला लगता है, पर ‘नरक’ एक सच्चाई है। इसको छिपा कर प्रचार करना लोगों को धोखा देना है। पाप के साथ जीवन जीता हर व्यक्ति, नारकीय बेचैनी को यहीं से भोगना शुरू कर देता है और मृत्यु के बाद उस बेचैनी को पूरी भयानकता के साथ हमेशा के लिए भोगता रहेगा।

हर शरीर से जन्मे हुए पर मौत की मोहर लगी है। अभी तक आदमी ऐसे दरवाज़े नहीं बना सका जो मौत को रोक सकें। एक दिन मैं यहां नहीं रहूंगा, आप यहां नहीं रहेंगे, पर यहां के बाद जहां भी होंगे, वहां हम अपने कर्मों का फल ज़रूर भोगते रहेंगे। हम यहां किये हुए अपने कुकर्मों के इतिहास को किसी कूड़े के ढेर पर फेंक कर नहीं जा पाएंगे, वह इतिहास तो हमारे साथ ही जाएगा और हमारे विरोध में साक्षी भी बनेगा। अपने जीवन के उन आखिरी पलों का ज़रा एहसास करिएगा, जब आप अपने प्राणों को छोड़ने वाले ही होंगे; ये पल कभी न कभी तो निश्चय ही आएंगे। उस समय जब आपके घिनौने और छिपे पाप आपको याद आएंगे और यह कि आप उनके साथ कहां जाएंगे, तो सोचिए कैसा लगेगा? ज़रूरी नहीं कि उस समय आप के पास मन फिरने या पश्चाताप का अव्सर हो या आप पश्चाताप करने की स्थिति में हों। यह अव्सर और सामर्थ तो आज आपके पास है, कल नहीं भी हो सकती है।

मेरे प्यारे पाठक कुछ भी अन्होनी कभी भी हो सकती है। अचानक ऐसी खबर, जिसे आप कभी सुनना न चाहते हों आपको सुननी पड़ सकती है। जो बात आप सहना न चाहें, आपको सहनी पड़ सकती है। मौत का सिर्फ एक झटका, आपको अचानक ही कभी, आंसुओं की दहकती झील में हमेशा के लिए झोंक देगा। मौत आपके पास से हर एक मौका हमेशा के लिए छीन लेगी, फिर बस एक खौफनाक आंधियारे के चीखते सन्नाटों की अनन्तकालीन तड़पन ही आपके साथ रह जाएगी। प्रभु यीशु आपके जीवन में पाप को नाश करेगा, आपको नहीं। धर्म परिवर्तन के भ्रम को जीवन में मत पालिएगा। प्रभु यीशु पाप की क्षमा देने आया, कोई धर्म नहीं। एक ईमान्दारी की प्रार्थना से यीशु को परखें और कहें, “हे प्रभु यीशु मुझ पापी पर दया कर के मेरे पाप क्षमा करें। मैं विश्वास करता हूं कि आपने मेरे पापों के लिए अपना जीवन दिया, ताकि मैं अनन्त आनन्दमय जीवन पाऊं।”

समय तेज़ी से फिसल रहा है। दिन हफतों में, हफते महीनों में और महीने सालों में बदल रहे हैं। कहीं आप खड़े सोचते ही न रह जाएं और समय आपको सलाम मार जाए। हां मेरे मित्र, जो आपने पढ़ा है, कहीं वह आप ही का जीवन तो नहीं है? यदि आपके पाप आप पर प्रगट हुए हैं तो अब आपको अपने बारे में एक फैसला करना ही है-आप प्रभु यीशु की क्षमा के इस आमंत्रण को या तो अपनाएंगे या ठुकराएंगे, निर्णय आपका ही है। वह तो इसी का इंतिज़ार कर रहा है कि कब आप कहें ‘हे प्रभु यीशु मुझ पापी पर दया करके अपनी क्षमा और शांति मुझे दें। हे प्रभु मेरी प्रार्थना की लाज रखें। प्रभु यीशु के नाम में, आमीन।’

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