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गुरुवार, 9 जनवरी 2020

प्रभु में विश्वास का प्राथमिक आधार – आश्चर्य कर्म, या परमेश्वर का वचन?



    प्रभु यीशु में हमारे विश्वास का प्राथमिक आधार प्रभु का वचन होना चाहिए, न कि उसके नाम में किए गए आश्चर्य कर्म। प्रभु यीशु ने अपनी सेवकाई का आरंभ प्रचार के द्वारा किया था, न कि आश्चर्य कर्मों के द्वारा (मरकुस 1:14-15)। जब प्रभु यीशु ने अपने बारह शिष्यों को चुना, उन्हें सामर्थ्य प्रदान की और उन्हें अपने प्रतिनिधि बनाकर उनकी प्रथम सेवकाई के लिए भेजा, तब प्रभु द्वारा उन्हें दी गई प्राथमिक आज्ञा थी कि वे जा कर प्रचार करें कि स्वर्ग का राज्य निकट है; आश्चर्य कर्म करने के लिए कहना प्रचार के बाद था (मत्ती 10:1, 5-8; मरकुस 3:14-15)। यहाँ पर ध्यान देने के लिए यह महत्वपूर्ण बात है कि जो उन आश्चर्य कर्मों के लिए संदेह करेंगे उनके विरुद्ध कुछ नहीं कहा गया है, परन्तु जो उस वचन का तिरस्कार करें उनके लिए एक भयानक भविष्य रखा है (मत्ती 10:14-15)। यहाँ पर एक और भी ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात है जिसे प्रभु यीशु ने उस समय के लिए कहा यदि ये शिष्य उनकी सेवकाई के कारण उच्च अधिकारियों के सामने ले जाए जाते। प्रभु ने उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसी परिस्थिति में उनके बचाव के लिए, उन्हें पवित्र आत्मा की सामर्थ्य द्वारा, बता दिया जाएगा कि क्या ‘कहें’, बजाय इसके कि क्या आश्चर्य कर्म ‘करें’ (मत्ती 10:18-20).

    युहन्ना 17 पढ़िए, जो प्रभु की वह महायाजकीय प्रार्थना है, जो उन्होंने क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़े जाने से पहले की थी। इस प्रार्थना में ध्यान कीजिए कि कैसे प्रभु बारंबार उस वचन पर ज़ोर दे रहे हैं जो उन्होंने अपने शिष्यों को दिया था, और जिसे उन्हें अपनी सेवकाई के दौरान औरों को पहुंचाना था। प्रभु के स्वर्गारोहण से ठीक पहले, जो महान आज्ञा प्रभु ने अपने शिष्यों को दी, वह थी कि वे जा कर उस वचन का प्रचार करें जिसे प्रभु ने उन्हें सौंपा था (मत्ती 28:18-20; प्रेरितों 1:8)। प्रथम कलीसिया का जन्म, जो हम प्रेरितों 2 में देखते हैं, पतरस द्वारा किए गए प्रचार से हुआ था न कि किसी आश्चर्य’ कर्म के द्वारा ‘अन्य भाषाएं’ बोलने के चमत्कार ने तो लोगों में असमंजस और उपहास उत्पन्न किया, विश्वास नहीं; किन्तु वचन के प्रचार के द्वारा पश्चाताप, विश्वास, और उद्धार आया। हम देखते हैं कि बाद में, जो मसीही विश्वासी सताव के कारण यरूशलेम से खदेड़े गए, वे भी वचन का प्रचार करते हुए गए (प्रेरितों 8:1-4)। पौलुस ने तिमुथियुस को बल देकर कहा कि परमेश्वर के वचन को सही रीति से और ठीक-ठीक सिखाया जाना चाहिए (2 तिमुथियुस 2:2, 15) क्योंकि वचन ही है जो विश्वास के द्वारा उद्धार प्राप्त करने के लिए बुद्धिमान बना सकता है (2 तिमुथियुस 3:14-17)

    प्रभु यीशु मसीह वचन हैं; वह वचन जो परमेश्वर के साथ है; वह वचन जो परमेश्वर है; वह वचन जिसने देहधारी होकर हमारे बीच में डेरा किया (यूहन्ना 1:1, 14) – वह, जो जीवित वचन है, वही जो मसीही विश्वास का विषय और आधार है। आश्चर्य कर्म विश्वास का आधार नहीं हैं, वरन जो वचन या सुसमाचार लोगों को सुनाया जाता है उसकी पुष्टि करने के चिन्ह हैं (मरकुस 16:15-20); सदा से ही परमेश्वर का वचन ही मसीही विश्वास का आधार रहा है। इसीलिए शैतान हमें सदा ही परमेश्वर के वचन से दूर ले जाने का प्रयास करता है, और ऐसा करने के लिए आश्चर्य कर्म और अद्भुत चिन्हों को विश्वास का आधार बनाना उसके धोखे और बहकावे के कार्यों में बहुत सहायक होते हैं। लोग, परमेश्वर के वचन के अध्ययन और आज्ञाकारिता में संलग्न होने के स्थान पर, ऐसी लालसाओं में पड़ जाते हैं कि वे भी आश्चर्य कर्म करने वाले हो जाएं, या आश्चर्य कर्मों के द्वारा उन्हें कुछ लाभ मिल जाए, या आश्चर्य कर्म करने वाले कहलाए जाने के द्वारा उनका नाम और ख्याति हो जाए, आदि।

    आश्चर्य कर्म तो शैतान, उसके दूत, और उसका अनुसरण करने वाले भी कर सकते हैं (निर्गमन 7:11-12, 22; 8:7; प्रेरितों 16:16-18; 2 थिस्सलुनीकियों 2:9-10; प्रकाशितवाक्य 13:11-15), और यदि व्यक्ति परमेश्वर के वचन – “सत्य में दृढ़ता से स्थापित न हो, तो शैतान के धोखों और अद्भुत चिन्हों द्वारा बहकाए जाने के द्वारा उन के विनाश में जाने का खतरा बना रहता है, उसी विनाश में जिसमें इस प्रकार के चिन्ह और अद्भुत कार्य करने वाले अंततः जाएंगे (प्रकाशितवाक्य 19:20; 20:10).

    इसलिए हमारे लिए यह सुनिश्चित कर लेना अनिवार्य है कि परमेश्वर और प्रभु यीशु मसीह में हमारा विश्वास किसी चिन्ह अथवा आश्चर्य कर्म आदि पर आधारित नहीं है वरन परमेश्वर के वचन जो अचूक और दोषरहित है, पर विश्वास लाने और भरोसा रखने पर आधारित है। हमें परमेश्वर के वचन बाइबल  को प्रार्थना सहित पढ़ने और उस पर मनन करने में समय बिताना चाहिए,और उसमें होकर परमेश्वर से मार्गदर्शन के खोजी होना चाहिए (1 शमुएल 3:21; भजन 119:105)। परमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित होना ही शैतान के द्वारा बहकाए जाने से बचे रहने का अचूक उपाय है इसके लिए कुलुस्सियों 2 पर भी मनन करें।

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

यीशु के मार/कोड़े खाने तथा यीशु के लहू द्वारा शारीरिक चंगाई





प्रश्न: क्या प्रभु यीशु मसीह के मार/कोड़े खाने से, और लहू से हम शारीरिक रोगों से चंगाई प्राप्त करते हैं?

उत्तर:
पवित्र शास्त्र की व्याख्या करते समय जो गलती सर्वाधिक तथा सामान्यतः की जाती है वह है बाइबल के किसी पद या खण्ड को, या पद के अंश को उसके संदर्भ के बाहर लेना; फिर उसे अपनी इच्छा या समझानुसार अर्थ प्रदान करना; और फिर उन गलत अर्थों को न केवल “परमेश्वर के सत्य’ समझकर मान लेना वरन उन्हें औरों को भी यही कहकर सिखाना; चाहे वे अर्थ संदर्भ की आवश्यकता तथा बाइबल में उस बात या शब्दों के प्रयोग के अनुसार सही न भी हों, जिससे कि फिर वे अवास्तविक एवं अस्वीकार्य हो जाते हैं। परमेश्वर का वचन बाइबल, 2 तिमुथियुस 2:15 में हमें सिखाता है किअपने आप को परमेश्वर का ग्रहणयोग्य (न कि मनुष्यों को) और ऐसा काम करने वाला ठहराने का प्रयत्न कर, जो लज्ज़ित होने न पाए और जो सत्य के वचन को ठीक रीति से काम में लाता हो; तथा ऐसे शिक्षकों के पीछे हो लेने के फंदे में पड़ने वाला न हो जो सही शिक्षा देने के स्थान पर लोगों को केवल वही सुनाते-सिखाते हैं जो कि वे लोग सुनना-सीखना चाहते हैं (2 तिमुथियुस 4:2-4)। शैतान द्वारा परमेश्वर के वचन के दुरूपयोग के षड़यंत्र में फंसने से बचने के लिए (वह तो इतना धूर्त है कि उसने प्रभु यीशु को भी इस फंदे में फंसाने का प्रयास कियामत्ती 4:1-11), हम सभी को 1 थिस्सलुनीकियों 5:21 “सब बातों को परखो: जो अच्छी है उसे पकड़े रहो का ध्यान रखना और उसका पालन करना चाहिए; तथा बेरिया के मसीही विश्वासियों के समान होना चाहिए जिनकी बाइबल में इसलिए प्रशंसा हुई है क्योंकि वे पहले सभी शिक्षाओं को पवित्र शास्त्र से जांचते थे और तब ही उन पर विश्वास करते थे (प्रेरितों 17:11-12) – चाहे उन्हें सिखाने वाला पौलुस प्रेरित ही क्यों न रहा हो।

प्रभु यीशु के मार/कोड़े खाने के द्वारा चंगाई के संदर्भ में, बाइबल के जिस पद का अकसर प्रयोग किया जाता है वह है यशायाह 53:5 “परन्तु वह हमारे ही अपराधों के कारण घायल किया गया, वह हमारे अधर्म के कामों के हेतु कुचला गया; हमारी ही शान्ति के लिये उस पर ताड़ना पड़ी कि उसके कोड़े खाने से हम चंगे हो जाएं।पतरस ने इसी पद में से अपनी पहली पत्री में उद्धृत किया – “वह आप ही हमारे पापों को अपनी देह पर लिये हुए क्रूस पर चढ़ गया जिस से हम पापों के लिये मर कर के धामिर्कता के लिये जीवन बिताएं: उसी के मार खाने से तुम चंगे हुए” (1 पतरस 2:24)। यह काफी रोचक ‘संयोग’ है कि, इन दो पदों के अतिरिक्त (वास्तव में, केवल एक ही पद), संपूर्ण बाइबल में और कोई पद है ही नहीं जिसमें “मार/कोड़े” तथा “चंगाई” शब्द एक साथ आए हों। साथ ही, हम इन दोनों ही पदों में यह भी देखते हैं कि जिस ‘चंगाई’ की बात हो रही है वह पाप के दुष्प्रभाव से आत्मिक चंगाई है; न कि किसी रोग, बीमारी, विकार, या अन्य किसी शारीरिक व्याधि से देह की चंगाई।

सामान्य उपयोग में, क्योंकि शब्द ‘चंगाई’ का प्रयोग मुख्यतः शारीरिक अस्वस्थताओं, तथा शरीर के रोगों के लिए होता है, इसलिए इस पर कुछ विशेष ध्यान दिए बिना, लोग बस यही मान लेते हैं कि इन पदों में भी जिस ‘चंगाई’ की बात हो रही है वह भी शारीरिक चंगाई ही है। दुर्भाग्यवश, बहुतेरे प्रचारक और शिक्षक भी यही चाहते हैं कि हम इसी गलती को मानें; इसलिए पवित्र शास्त्र के पदों को संदर्भ और वास्तविक लेख से बाहर लेकर और फिर उन पर आधारित व्याख्या करने के द्वारा वे इस गलत अर्थ और व्याख्या पर बल देते रहते हैं और उसे ही सिखाते रहते हैं। न तो वे स्वयँ व्याख्या करते समय पद के संदर्भ या खण्ड से संबंधित बातों पर ध्यान देते हैं, और न ही हमें प्रोत्साहित करते हैं कि हम किसी बात को स्वीकार करने या किसी निष्कर्ष पर आने से पहले, पूर्ण पद का अध्ययन उसके सही संदर्भ तथा संबंधित बातों में होकर करें।

एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण और संबंधित तथ्य जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए यह है कि संपूर्ण बाइबल में कहीं पर भी, वाक्याँशउसके मार/कोड़े खाने से हम चंगे हो जाएंतथा  उसी के मार/कोड़े खाने से तुम चंगे हुएका कभी भी कहीं भी किसी करिश्माई शारीरिक चंगाई के लिए प्रयोग नहीं हुआ है; किसी भी भविष्यद्वक्ता, या प्रेरित, या परमेश्वर के जन के द्वारा कभी कहीं भी नहीं जबकि पुराने नियम में और नए नियम में करिश्माई शारीरिक चंगाइयों की घटनाओं की कोई कमी कतई नहीं है। हम नए नियम से शारीरिक चंगाई के कुछ उदाहरणों को देखते हैं:
·         पौलुस, तिमुथियुस को निर्देश देता है, “भविष्य में केवल जल ही का पीने वाला न रह, पर अपने पेट के और अपने बार बार बीमार होने के कारण थोड़ा थोड़ा दाखरस भी काम में लाया कर” (1 तिमुथियुस 5:23)। प्रगट है कि तिमुथियुस को बारंबार होने वाले किसी शारीरिक रोग के कारण परेशानी होती रहती थी, और पौलुस उससे थोड़ा थोड़ा दाखरसऔषधि के समान लेने के लिए कह रहा है क्यों यहाँ पर पौलुस ने तिमुथियुस से प्रभु यीशु के मार/कोड़े खाने के आधार पर चंगाई की माँग/दावा करने के लिए नहीं कहा?
·         स्वयँ पौलुस के शरीर में एक कांटा चुभाया गया के बारे में देखें पौलुस कहता हैऔर इसलिये कि मैं प्रकाशनों की बहुतायत से फूल न जाऊं, मेरे शरीर में एक कांटा चुभाया गया अर्थात शैतान का एक दूत कि मुझे घूँसे मारे ताकि मैं फूल न जाऊं। इस के विषय में मैं ने प्रभु से तीन बार बिनती की, कि मुझ से यह दूर हो जाए” (2 कुरिन्थियों 12: 7, 8)। पौलुस को इस समस्या के निवारण के लिए प्रभु से विनती क्यों करनी पड़ी; ऐसा करने के स्थान पर उसने प्रभु के मार/कोड़े खाने के आधार पर उपलब्ध चंगाई को क्यों नहीं माँग लिया? और जबकि प्रभु द्वारा विश्वास की प्रार्थना के प्रत्युत्तर में चंगाई देने के लिए पौलुस या तिमुथियुस के “विश्वास” पर तो संदेह किया ही नहीं जा सकता है!
·         हम प्रेरितों के काम में देखते हैं कि जब पतरस ने, प्रेरितों 3 में, मंदिर के प्रवेश द्वार पर बैठे जन्म के लंगड़े को चँगा किया, तो उसने लंगड़े मनुष्य से यह नहीं कहाप्रभु यीशु के मार/कोड़े खाने तुझे चँगा किया जाता है;” वरन, “तब पतरस ने कहा, चान्दी और सोना तो मेरे पास है नहीं; परन्तु जो मेरे पास है, वह तुझे देता हूं: यीशु मसीह नासरी के नाम से चल फिर” (प्रेरितों 3:6).

क्या बाइबल में कहीं पर भी, कोई भी, एक भी ऐसा उदाहरण है जहाँ वाक्याँश “प्रभु के मार/कोड़े खाने के द्वारा तुझे चँगा किया जाता है” का शारीरिक चंगाई प्राप्त होने के लिए उल्लेख आया है? यदि नहीं, तो फिर, इस वाक्याँश का इतनी बहुतायत से प्रचार और शिक्षा में इतना प्रयोग और व्याख्या, तथा लोगों द्वारा इसे इतना सहज स्वीकार तथा ग्रहण किया जाना क्यों है? और भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि, लोग इतने भोले और आसानी से धोखा खाने वाले क्यों बने रहते हैं; और उन भरमाने तथा बहकाने वालों से इसके लिए परमेश्वर के वचन में से स्पष्टिकरण क्यों नहीं मांगते हैं?

सीधा और सपष्ट तथ्य यह है कि ये पद मसीह द्वारा हमारे लिए सहे गए दुखों के लिए तो है, परन्तु हमारे पापों के दुखों के लिए है, जिन्हें उसने अपने ऊपर ले लिया था। क्योंकि उसने हमारे दण्ड को अपने ऊपर ले लिया, हमारे स्थान पर उसने कोड़े खाए, हमें हमारे पापों के दण्ड से छुटकारा मिला है, और पाप के द्वारा कुचली गई हमारी आत्मा को चंगाई प्राप्त हुई है (यशायाह 61:1; लूका 4:18)। वाक्याँशउसके मार/कोड़े खाने से हम चंगे हुए...” रोग या बीमारियों से मिली किसी शारीरिक चंगाई के लिए नहीं प्रयोग हुआ है, वरन हमारे पापों के दुष्प्रभावों से हमें मिलने वाली चंगाई के लिए प्रयोग किया गया है।

इसी प्रकार से, बाइबल में यह कहीं नहीं आया है कि यीशु का लहू हमें शारीरिक रोगों और बीमारियों से चंगा करता है। प्रभु यीशु के लहू को अन्य कई बातों के लिए प्रभावी बताया गया है वे सभी आत्मिक हैं और प्रभु परमेश्वर के साथ हमारे संबंधों के बारे में हैं, जैसे कि हमारा प्रायश्चित (रोमियों 3:25); हमारा धर्मी ठहरना (रोमियों 5:9); हमें परमेश्वर के निकट लाने, अर्थात उससे मेल करवाने (इफिसियों 2:13); हमारे विवेक को मरे हुए कामों से शुद्ध करने (इब्रानियों 9:14); हमें पवित्र स्थान में प्रवेश प्रदान करने के हियाव देने के लिए (इब्रानियों 10:19); हमारे छुटकारे (1 पतरस 1:18-19); पापों से शुद्ध करने (1 यूहन्ना 1:7); पापों से छुड़ाए जाने (प्रकाशितवाक्य 1:5) के लिए। परन्तु कहीं पर भी प्रभु यीशु के लहू के द्वारा किसी भी शारीरिक चंगाई होने या किए जाने का कोई उल्लेख नहीं है, और न ही कभी किसी प्रेरित या नए नियम के किसी भी लेखक ने शारीरिक चंगाई के लिए न तो “प्रभु यीशु के लहू” को प्रयोग किया है और न ही ऐसा करने की कोई शिक्षा दी है।

इसलिए लोगों को यह सिखाना कि हम बाइबल के किसी पद या अंश को, किसी ऐसे स्वरूप या उपयोग के लिए मांगे या उसका दावा करें, जो कि परमेश्वर के वचन में उसके प्रयोग या उसके संदर्भ के अनुसार नहीं है, और परमेश्वर का वचन जिसके विषय न तो कुछ सिखाता है और न ही करने के लिए कहता है, तो उसे परमेश्वर के वचन के अनुसार सही शिक्षा कैसे माना और स्वीकार किया जा सकता है? ऐसी सभी शिक्षाएँ और प्रयोग परमेश्वर के वचन से बाहर के हैं; वे सभी 2 तिमुथियुस 2:15 के निर्देश के अनुसार नहीं हैं, इसलिए गलत और अस्वीकार्य होने के आधार पर उनका तिरिस्कार किया जाना चाहिए।


शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

मैं अपने आस-पास और कार्यस्थल में यीशु का प्रचार कैसे कर सकता हूँ?



यदि आप वास्तव में प्रभु यीशु में अपने विश्वास को अपने आस-पास तथा सहकर्मियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो जो सबसे पहला कार्य आपको करना चाहिए वह है अपनी इस इच्छा को परमेश्वर के सामने रखें और उससे माँगें कि वह आपको इसके लिए तैयार करे तथा इसके विषय आपका मार्गदर्शन करे। उससे माँगें कि वह आपको उन संभव अवसरों को पहचानने की समझ-बूझ दे, तथा सिखाए कि उन अवसरों का सदुपयोग कैसे किया जाए; वह आपको उन लोगों के पास लेकर जाए जो सुसमाचार को ग्रहण करने, या कम से कम सुनने के लिए तैयार हैं, बिना किसी अनुचित विवाद अथवा बहस में पड़े (1 कुरिन्थियों 16:9)। परमेश्वर से माँगें कि वह आपको इसके लिए आवश्यक साहस, उचित शब्द, और सही अभिव्यक्ति की क्षमता प्रदान करे जिससे आप इस कार्य को यथोचित रीति से करने पाएँ (यशायाह 50:4), और जब आप प्रभु की इस सेवकाई को उसकी इच्छानुसार करें तो परमेश्वर आपके बैरियों एवँ विरोधियों को बाँध कर नियंत्रण में रखे।

सहज रीति से, बिना विरोध को निमंत्रण दिए “प्रचार” करने का सबसे अच्छा तरीका है, उसे जी कर दिखाना और अपने व्यावाहरिक जीवन की गवाही से उसे प्रगट करना (प्रकाशितवाक्य 12:11), क्योंकि आपके शब्दों से कहीं अधिक ऊँचा और प्रभावी आपका जीवन ‘बोलता’ है। दो प्रकार से हैपहली यह कि, प्रभु ने आपके जीवन को कैसे बदला, उसने आपको अन्दर से कैसे बदला है, और आपके हृदय-परिवर्तन के समय से लेकर अब तक वह कैसे आपकी सहायता करता रहा है, कैसे आपके हित में कार्य करता रहा है; इन बातों की आपके अपने शब्दों में दी गई मौखिक गवाही; और आपकी दूसरी व्यावाहरिक गवाही है, आपके दैनिक जीवन में आए परिवर्तनों की गवाही जो आपके साथी और आस-पास वाले देखते हैं आपकी जीवन-शैली, रूचियाँ, बात-चीत, व्यवहार, सत्य-निष्ठा, तथा कार्य-नैतिकता एवँ प्रतिबध्दता इत्यादि। गवाही के पहली रीति के माध्यम से, आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों को बाँटते हैं आप किसी को यह नहीं कहते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए या नहीं करना चाहिए ऐसा करने से विरोध और तर्क या विवाद उत्पन्न हो सकते हैं; वरन, आप केवल वह बताएँ जो प्रभु ने आपके जीवन में किया है, और/या प्रभु ने किसी विशेष परिस्थिति में कैसे आपकी सहायता की। क्योंकि ये आपके व्यक्तिगत अनुभव हैं, इसलिए कोई भी इन्हें आपके लिए गलत या अस्वीकार्य नहीं ठहरा सकता है, और प्रभु इन्हें औरों के हृदयों में कार्य करने के लिए उपयोग करेगा; उनके अन्दर जिज्ञासा को जागृत करेगा कि वे भी अपने जीवनों में इन्हें आज़माएँ। गवाही के दूसरी रीति के माध्यम के द्वारा, अर्थात आपकी जीवन शैली इत्यादि की गवाही के द्वारा, आप अपने जीवन को निःशब्द किन्तु व्यवाहारिक रीति से गवाही देने देते हैं, और जब भी कोई आपके जीवन की किसी बात के लिए कोई प्रश्न उठाए, तो आप उसके साथ अपने विश्वास तथा सुसमाचार को बाँटने के लिए सदा तैयार बने रहें (2 तिमुथियुस 4:2).

एक और कार्य जो आप कर सकते हैं वह है किसी कठिनाई, या क्लेश, या समस्या, या तनाव में पड़े हुए, या जिसे किसी सहायता या मार्गदर्शन की आवश्यकता हो, ऐसे व्यक्ति के पास जाकर उसके लिए प्रार्थना करना। आप नम्रता और प्रेम सहित उससे उसके साथ प्रार्थना करने की अनुमति माँग सकते हैं, और यदि वे अनुमति प्रदान करते हैं, तो प्रार्थना में बिना कोई ‘प्रचार’ किए, एक छोटी, सार्थक और सरल प्रार्थना करें, परमेश्वर से माँगें कि वह उनकी परिस्थिति या कठिनाई में उनकी सहायता एवँ मार्गदर्शन करे, और इस परेशानी की परिस्थिति में वे परमेश्वर की शान्ति को अनुभव करने पाएँ। आप ऐसा फोन पर वार्तालाप के माध्यम से भी कर सकते हैं। अपने बैरी-विरोधियों के लिए भी प्रार्थनाएं अवश्य करें, चाहे वे उन्हें बिना बताए, खामोशी से की गई प्रार्थनाएं हों (रोमियों 12:14-21), और परमेश्वर स्वयँ ही उचित समय पर उन पर प्रगट करेगा कि उनके बैर-विरोध के बावजूद, आप उनके लिए प्रार्थना करते रहें हैं।

किन्तु सदा सचेत रहें, शैतान आपके विरोध में समस्याएँ या विरोध खड़े करने, या आपको विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों तथा परीक्षाओं में फंसाने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देगा, (1 तिमुथियुस 4:1-2), जिससे आपकी गवाही बिगाड़ी जा सके तथा निष्क्रीय करी जा सके। इसलिए बहुत ध्यान रखें और चौकस रहें कि आप क्या देखते हैं (भजन 101:3; 119:37), कहते हैं (इफिसियों 4:29), करते हैं (1 पतरस 2:11-12), और जीवन कैसे जीते हैं तथा कैसा व्यवहार करते हैं (1 कुरिन्थियों 11:1)। सदा हर बात के लिए प्रभु से लिपटे रहें, कभी अपने बुद्धिमत्ता पर भरोसा न रखें और प्रार्थना में प्रभु से पहले पूछे या मांगे बिना कुछ भी नहीं करें (नीतिवचन 3:5-6); अन्यथा शैतान आपको बहका कर किसी गलती में डाल देगा (2 कुरिन्थियों 11:3).

इसका यह अर्थ नहीं है कि आपके प्रयास सदा ही सकारात्मक तथा रचनात्मक स्वीकार किए जाएँगे, या आपको कभी किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा, और जीवन आपके लिए सदा ही निर्विवाद एवँ सुचारू रीति से चलता रहेगा ऐसा तो हो ही नहीं सकता है फिलिप्पियों 1:29; 2 तिमुथियुस 3:12; कोई न कोई नकारात्मक प्रतिक्रियाएं तो सदा ही होती रहेंगी। इसलिए, “पर तू सब बातों में सावधान रह, दुख उठा, सुसमाचार प्रचार का काम कर और अपनी सेवा को पूरा कर।” (2 तिमुथियुस 4:5)


गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

वह पाप जिसका फल मृत्यु नहीं है



प्रश्न:  बाईबल में 1 यूहन्ना 5 :16-17 में वह कौन सा पाप है जिसका फल मृत्यु नहीं है ?

उत्तर:
           इन पदों ने बहुतेरों को असमंजस में रखा हुआ है, और इनकी अनेकों व्याख्याएं की गई हैं। इसलिए कोई पूर्णतः स्पष्ट और सभी को स्वीकार्य उत्तर शायद संभव न हो। सामान्यतः 1 यूहन्ना 5:16-17 को समझने का प्रयास करते समय या व्याख्या करते समय, बाइबल में पाप और उसके दुष्परिणाम से संबंधित पदों, जैसे कि रोमियों 3:23 और रोमियों 6:23, तथा ऐसे ही अन्य पदों का ध्यान करते हुए व्याख्या दी जाती है या समझने का प्रयास किया जाता है।

           परन्तु हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यूहन्ना ने जब यह पत्री लिखी थी तो अन्य पत्रियों और लेखों को संकलित करके तैयार हुआ नया नियम तब उसके पाठकों को उपलब्ध नहीं था, जैसा कि अब हमारे हाथों में है। इसलिए जिन लोगों को यह पत्री लिखी गई थी, उनके पास वे सब पद और शिक्षाएँ नहीं थे जो अब नए नियम में संकलित होकर हमारे पास हैं, और जिनके आधार पर अब हम इन पदों को समझने के प्रयास करते हैं। इसलिए वे लोग तब यूहन्ना द्वारा लिखी इस बात को उस प्रकार से नहीं देख और समझ सकते थे जैसा कि हम आज बहुधा देखते और समझते हैं; और न ही तब वे लोग इनमें कोई ऐसे अर्थ डाल सकते थे जो नए नियम में अन्य स्थानों पर लिखी बातों के आधार पर हैं, जिस प्रकार के अर्थों को इनमें डालकर इन्हें समझने के प्रयास आज हम करते हैं। इसलिए इन पदों का अर्थ उसी संदर्भ में देखा तथा समझा जाना चाहिए, जिस संदर्भ में उन लोगों ने तब पढ़ा और समझा होगा जब यूहन्ना ने यह पत्री उन्हें लिखी थी; क्योंकि वही अर्थ इन पदों का मूल या प्राथमिक अर्थ है, शेष सभी अर्थ और अभिप्राय उस मूल अर्थ के सहायक हैं, उनसे वह मूल अर्थ बदल नहीं सकता है।

           यूहन्ना की इस पत्री के आरंभिक अध्यायों को पढ़ने से प्रतीत होता है कि यूहन्ना ने यह पत्री ऐसे लोगों की मण्डली को लिखी थी जिनमें से कुछ तो मसीही विश्वास में ‘बालक’ थे, किन्तु अधिकांश मसीही विश्वास में दृढ़ और स्थापित थे, परिपक्व थे, और धार्मिकता से संबंधित बातों को जानते थे (1 यूहन्ना 2:7, 13, 14, 20, 21, 24, 27)। इसलिए बहुत संभव है कि वे पुराने नियम और मूसा में होकर इस्राएलियों को मिली व्यवस्था का कुछ ज्ञान और समझ रखते थे। परमेश्वर यहोवा को मानने वालों के लिए क्या पाप है और क्या नहीं है, इसकी समझ परमेश्वर के उस वचन के आधार पर थी जिसे हम आज पुराना नियम कहते हैं; और उसमें भी मुख्यतः “व्यवस्था” के आधार पर। जब हम पुराने नियम की धार्मिकता और व्यवस्था के आधार पर देखते हैं, तो व्यवस्था में कुछ पाप ऐसे थे जिनका कोई प्रायश्चित नहीं था, उनके लिए मृत्यु-दण्ड की आज्ञा थी; उदाहरण के लिए देखिए: निर्गमन 28:43; लैव्यवस्था 22:9; गिनती 1:51; गिनती 3:10; गिनती 3:38; गिनती 18:7; गिनती 18:22; गिनती 18:32; आदि। लैव्यवस्था 10:1-2 में हम देखते हैं कि नादाब और अबीहू को पश्चाताप करने का, या उनके लिए किसी को कोई विनती अथवा प्रायश्चित अर्पित करने का अवसर ही नहीं दिया गया, वे तुरंत ही मर गए। जो लोग पुराने नियम की धार्मिकता और परमेश्वर की व्यवस्था से अवगत थे, वे समझते थे कि व्यवस्था में ऐसे पाप उल्लेखित हैं जिनका परिणाम मृत्यु है, उनके लिए कोई प्रायश्चित या क्षमा का प्रावधान किया ही नहीं गया है, इसलिए उनकी क्षमा की कोई गुंजाइश ही नहीं है, उनके लिए क्षमा मिल ही नहीं सकती है।

           दूसरी बात, 1 यूहन्ना 5:16 में दो बार “विनती” शब्द का प्रयोग किया गया है। “विनती” के लिए जिन शब्दों का मूल यूनानी भाषा में प्रयोग किया गया है वे दोनों स्थानों पर अलग-अलग शब्द हैं। पहली बार प्रयुक्त शब्द है ‘aiteo’ जिसका अर्थ होता है ‘to ask (पूछना)’, या, ‘to request (निवेदन करना)’; और दूसरी बार प्रयुक्त शब्द है ‘erotao’ जिसका अर्थ होता है ‘to interrogate (पूछताछ करना, या जानकारी लेना)’। बाइबिल के अंग्रेज़ी के भिन्न अनुवादों में देखने से भी यही बात सामने आती है कि सभी अनुवादक इन्हें “प्रार्थना” का अर्थ रखने वाली “विनती” नहीं लिखते हैं। इन मूल शब्दों के अर्थों के आधार पर 1 यूहन्ना 5:16 को इस अभिप्राय से देख सकते हैं, “यदि कोई अपने भाई को ऐसा पाप करते देखे, जिस का फल मृत्यु न हो, तो विनती (‘aiteo’ - निवेदन) करे, और परमेश्वर, उसे, उन के लिये, जिन्हों ने ऐसा पाप किया है जिस का फल मृत्यु न हो, जीवन देगा। पाप ऐसा भी होता है जिसका फल मृत्यु है: इस के विषय में मैं विनती (‘erotao’ - पूछताछ करने या जानकारी एकत्रित करने) के लिये नहीं कहता।” यहाँ दूसरी बार प्रयुक्त “विनती” शब्द का अभिप्राय उस प्रकार से “प्रार्थना” करना नहीं है, जैसा कि हम सामान्यतः समझते हैं और जिसके अन्तर्गत परमेश्वर से कुछ माँगते हैं।

           यहाँ दो बहुत महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देना अत्यावश्यक है, जिनका इस पद की व्याख्या एवँ समझ पर सीधा-सीधा प्रभाव पड़ता है। पहली, जैसा कि इस पद के आरंभ में आया है, यूहन्ना द्वारा यह बात “अपने भाई” अर्थात किसी मसीही विश्वासी जन के लिए कही जा रही है; अर्थात ऐसे व्यक्ति के लिए जिसके मसीह यीशु में विश्वास लाने के द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह से पाप क्षमा हो गए हैं और वह प्रभु की सन्तान बनकर अनन्त जीवन में प्रवेश कर चुका है (यूहन्ना 1:12-13)। मसीही विश्वासी होने के नाते, वह अब व्यवस्था की बातों और अनिवार्यताओं से बाहर है, व्यवस्था की आवश्यकताओं की उस पर कोई पकड़ शेष नहीं है (रोमियों 7:6; कुलुस्सियों 2:14); अब न तो व्यवस्था के आधार पर उसका आँकलन किया जा सकता है, और न ही वह व्यवस्था के अनुसार दोषी ठहराया जा सकता है या उसे कोई दण्ड दिया जा सकता है।

           दूसरी यह, कि इस पद के अन्त में लिखा है “...पाप ऐसा भी होता है जिसका फल मृत्यु है: इस के विषय में मैं बिनती करने के लिये नहीं कहता” और इसी वाक्य को लेकर सारा असमंजस, अनिश्चितता, दुविधा होती है। ध्यान देने तथा समझने योग्य बात यह है कि यहाँ पर यूहन्ना ने यह नहीं कहा है कि “क्योंकि उस व्यक्ति के वे पाप क्षमा ही नहीं किए जाएँगे, इसलिए मैं उनके लिए प्रार्थना करने के लिए नहीं कह रहा हूँ” – किन्तु सामान्यतः हम इस पद को पढ़ते समय यही अर्थ निकालते तथा मानते हैं, जबकि ऐसा लिखा ही नहीं गया है। किन्तु यदि हम यहाँ “विनती” के स्थान पर मूल यूनानी भाषा में प्रयुक्त शब्द ‘erotao’ के शब्दार्थ ‘to interrogate’ (पूछताछ करना, या जानकारी लेना) का उपयोग करें, तो फिर वाक्य बन जाता है “...पाप ऐसा भी होता है जिसका फल मृत्यु है: इस के विषय में मैं ‘पूछताछ’ करने के लिये नहीं कहता।” अब यूहन्ना के कहे इस वाक्य का अभिप्राय हो जाता है, “...पाप ऐसा भी होता है जिसका व्यवस्था के अनुसार फल मृत्यु है: परन्तु तुम्हें इसके विषय कोई पूछताछ करने की आवश्यकता नहीं है।” अब जब इसे ऊपर कही गई पहली “भाई” वाली बात के साथ जोड़ कर देखा जाए तो यहाँ यूहन्ना द्वारा कही गई बात हो जाती है, “...व्यवस्था के अनुसार ऐसा पाप तो है जिसके लिए मृत्यु है: परन्तु इसके लिए तुम्हें जानकारी लेने या पूछताछ करने की आवश्यकता नहीं है।” तात्पर्य यह कि, जब प्रभु ही ने उस व्यक्ति को क्षमा कर दिया है जो व्यवस्था के अनुसार क्षमा नहीं किया जा सकता था, उसे अपने मण्डली का सदस्य और अपनी सन्तान बनाकर अपने परिवार में सम्मिलित कर लिया है, तो फिर अब तुम्हें उसके पापों का लेखा-जोखा लेने, उसके विषय पूछताछ करने या जानकारी एकत्रित करने की क्या आवश्यकता है? उससे चाहे ऐसा भी पाप हो जाए जो व्यवस्था के अनुसार क्षमा योग्य नहीं है, परन्तु तुम्हारा उसके पाप के क्षमा-योग्य होने या न होने की बात से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए तुम उसकी पूछताछ मत करो।

           यदि इस पद, 1 यूहन्ना 5:16, को उससे पहले के पदों के संदर्भ में देखें, तो भी उन पदों में व्यक्त बात के साथ यह अभिप्राय सही बैठता है। 1 यूहन्ना 5:13-15 में यूहन्ना अपने पाठकों को समझा रहा है कि प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करने से जो अनन्त जीवन मिला है, उसके कारण हमें यह हियाव भी दिया गया है कि हम परमेश्वर से माँग सकें, और हमें यह आश्वासन है कि परमेश्वर हमारे निवेदन सुनकर, यदि वे उसकी इच्छा के अनुसार हैं, तो उन्हें पूरा करेगा। क्योंकि यूहन्ना 3:16 के अनुसार परमेश्वर की इच्छा मसीह यीशु पर विश्वास करने वालों को जीवन प्रदान करने की है, और अब प्रभु यीशु मसीह में होकर व्यवस्था की बातें और दण्ड हम पर लागू नहीं हैं, इसलिए हम निःसंकोच परमेश्वर से उन लोगों को जीवन दान देने के लिए प्रार्थना कर सकते हैं, जो व्यवस्था के अनुसार इस जीवन दान के योग्य नहीं थे, और परमेश्वर उन लोगों को भी जीवन दान देगा।

           संभव है कि व्यवस्था के आधार पर कुछ लोगों को यह संकोच रहा हो कि जिस पाप के लिए परमेश्वर ने पहले ही किसी क्षमा का प्रावधान नहीं किया है और अपनी दी हुई व्यवस्था में मृत्यु निर्धारित कर दी है, उसी के लिए अब हम परमेश्वर से अपनी बात से पलटने और बदलने के लिए कैसे निवेदन कर सकते हैं? यूहन्ना यहाँ उन्हें हिम्मत दे रहा है कि यदि कोई ऐसा पाप कर भी दे, जिसका दण्ड व्यवस्था के अनुसार मृत्यु है, तो भी अब प्रभु यीशु मसीह में होकर उसकी क्षमा और जीवन दान के लिए अवसर उपलब्ध है, मार्ग खुला है।

शनिवार, 21 सितंबर 2019

कलीसिया के लोगों से सांसारिक वस्तुएँ लेना



प्रश्न: क्या चर्च के पादरी, या अगुवों और प्राचीनों का चर्च के लोगों से उत्तम वस्तुओं की माँग करना बाइबल के अनुसार उचित है?

 उत्तर:
           आज जिन्हें पास्टर, या अगुवे, या परमेश्वर के दास कहा जाता है, मूल यूनानी भाषा में उनके लिए नए नियम में प्रयुक्त शब्द का शब्दार्थ है “चरवाहा”, जिसे “रखवाला” भी कहा गया है। आरंभिक कलीसिया में इस सेवकाई, तथा कलीसिया के प्रबंधन से संबंधित अन्य दायित्वों के निर्वाह के लिए उपयुक्त लोगों को स्वयं परमेश्वर ही नियुक्त करके देता था (प्रेरितों 20:28; 1 कुरिन्थियों 12:28; इफिसियों 4:11)। उस समय न तो कोई बाइबल स्कूल अथवा कॉलेज थे, न ही थियोलोजी या धर्म-ज्ञान की कोई डिग्री की कोई आवशयकता थी, जिसके आधार पर कलीसिया के दायित्व सौंपे जाएँ। कलीसिया के कार्यों के लिए अगुवाई करने की नियुक्ति परमेश्वर अपने मानकों के आधार पर, और व्यक्ति के मसीही विश्वास में सत्यनिष्ठा और दृढ़ता तथा परमेश्वर के प्रति समर्पण के आधार पर करके देता था। परमेश्वर द्वारा कलीसिया की अगुवाई के लिए दायित्वों का यह निर्धारण किसी मनुष्य की किसी भी सांसारिक योग्यता, या उसके अध्ययन-स्तर, समाज में स्थान, उसकी आयु, वरिष्ठता और अनुभव, अथवा अन्य किसी सांसारिक आधार पर नहीं किया जाता था। जैसे-जैसे सुसमाचार का प्रचार और प्रसार हुआ तथा विश्वासी जन अपने मसीही विश्वास में परिपक्व तथा दृढ़ होते गए, तब परमेश्वर ने इन आरंभिक अगुवों को कुछ माप-दण्ड सौंप कर, उनके आधार पर कलीसिया के अगुवे नियुक्त करने के लिए कहा (प्रेरितों 14:23; तीतुस 1:5-9; 1 तिमुथियुस 3:1-7); ये अध्यक्ष, या अगुवे, कलीसिया की आवश्यकतानुसार, एक से अधिक भी हो सकते थे (फिलिप्पियों 1:1)। वर्तमान में देखी जाने वाली प्रवृत्तियां, एक तो यह कि किसी शैक्षिक योग्यता, सांसारिक हैसियत, या वोट प्राप्त कर लेने के आधार पर, कलीसिया का अगुवा बनना; तथा दूसरी यह, कि कलीसिया की उन्नति एवँ देखभाल करने को केवल कुछ ही लोगों का दायित्व समझना, ये न तो परमेश्वर से हैं और न ही बाइबल में दी गई विधि हैं, वरन यह भ्रष्ट मनुष्यों द्वारा परमेश्वर की विधियों में लाए गए बिगाड़ से आई हुई प्रथा है।

           साथ ही, एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण पहलू है जिसका ध्यान रखना और उस पर गहन विचार करना अत्यंत आवश्यक है; वह है कलीसिया में कुछ लोगों की ज़िम्मेदार पदों पर नियुक्ति का अर्थ यह नहीं है कि मण्डली के शेष लोगों को कलीसिया और विश्वास से संबंधित दायित्वों में कोई रुचि लेने की आवश्यकता नहीं है। कलीसिया के आरंभ से ही सभी मसीही विश्वासियों को “राजपद धारी याजकों का समाज” माना गया है (1 पतरस 2:9), परमेश्वर के लिए निर्धारित “याजक” कहा गया है (प्रकाशितवाक्य 1:6), जो कि पुराने नियम से लिया गया विचार और ओहदा है, जिसके अन्तर्गत नियुक्त व्यक्ति परमेश्वर का सेवक और परमेश्वर की बातों को लोगों तक पहुँचाने वाला होता था। इससे यह प्रगट है कि परमेश्वर की कलीसिया में परमेश्वर का “याजक” होना और परमेश्वर के लिए कार्य करना केवल किसी नियुक्त अध्यक्ष या अगुवे ही का दायित्व नहीं है, वरन परमेश्वर की दृष्टि में उसका प्रत्येक नया जन्म पाया हुआ विश्वासी जन “याजक” है, और उसे वैसे ही कार्य भी करना है। और जैसे याजकों के लिए न केवल परमेश्वर के प्रति समर्पित होना अनिवार्य था, परन्तु उन्हें परमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित भी होना होता था, वैसे ही आज प्रत्येक मसीही विश्वासी को भी ऐसा ही होना है – ने केवल परमेश्वर के प्रति समर्पित परन्तु पमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित भी। वास्तविकता यही है कि यही परमेश्वर के प्रति उनके प्रेम और समर्पण की एकमात्र पहचान है (यूहन्ना 14:21, 23-24), इसके अतिरिक्त व्यक्ति के परमेश्वर के प्रति समर्पित होने की और कोई पहचान बाइबल में नहीं दी गई है (1 यूहन्ना 2:3-6)। इस बात पर थोड़ा रुक कर गंभीरता से विचार कीजिए, कि यदि परमेश्वर की प्रत्येक नया जन्म पाई हुई सन्तान परमेश्वर का “याजक” होने के नाते, परमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित होने के लिए सच्ची लगन के साथ परिश्रम और प्रयास करे, तो क्या कोई भी गलत और झूठी शिक्षा का देने वाला या गलत “अगुवा” अपने गलत शिक्षाओं और बातों के द्वारा परमेश्वर के लोगों को बहका या बरगला सकेगा, जैसा के आज इतना अधिकाई से हो रहा है? और यह भी सोचिए कि तब कलीसिया कितनी सामर्थी और प्रभावी हो जाएगी!

           क्योंकि सभी मसीही विश्वासी परमेश्वर के “याजक” भी हैं, इसीलिए, परमेश्वर ने अपने सभी “याजकों,” अर्थात मसीही विश्वासियों के लिए कोई न कोई सेवकाई भी निर्धारित की है (इफिसियों 2:10), जिससे न केवल वह विश्वासी वरन संपूर्ण मण्डली भी लाभान्वित हो सके। तथा उस सेवकाई  के द्वारा, कलीसिया में सभी के लाभ के लिए, परमेश्वर ने प्रत्येक मसीही विश्वासी को कुछ न कुछ गुण या वरदान भी दिए हैं (रोमियों 12:4-8; 1 कुरिन्थियों 12:4-11), जिनके सदुपयोग के द्वारा कलीसिया उन्नति करे, कलीसिया के लोग प्रभु के लिए एक प्रभावी गवाह बनें, और उद्धार के सुसमाचार का प्रसार हो। इसलिए कलीसिया की उन्नति, सुचारू कार्य, कलीसिया की बातों के उचित प्रबंधन, और कलीसिया की आवश्यकताओं और दायित्वों के सही निर्वाह के लिए, प्रत्येक “याजक” अर्थात प्रत्येक मसीही विश्वासी को भी कलीसिया में अवश्य ही सक्रीय एवँ संलग्न रहना चाहिए।

           आरंभिक कलीसिया में अगुवे कलीसिया पर शासन या अधिकार रखने के लिए नहीं, वरन कलीसिया की सेवा के लिए होते थे। पतरस ने अपनी पहली पत्री में, प्रभु यीशु मसीह को “प्रधान रखवाला” कहा है, और कलीसियाओं पर नियुक्त किए गए “रखवालों” को कलीसिया के लोगों की सेवा के लिए निर्देश दिए हैं: “तुम में जो प्राचीन हैं, मैं उन की नाईं प्राचीन और मसीह के दुखों का गवाह और प्रगट होने वाली महिमा में सहभागी हो कर उन्हें यह समझाता हूं। कि परमेश्वर के उस झुंड की, जो तुम्हारे बीच में हैं रखवाली करो; और यह दबाव से नहीं, परन्तु परमेश्वर की इच्छा के अनुसार आनन्द से, और नीच-कमाई के लिये नहीं, पर मन लगा कर। और जो लोग तुम्हें सौंपे गए हैं, उन पर अधिकार न जताओ, वरन झुंड के लिये आदर्श बनो। और जब प्रधान रखवाला प्रगट होगा, तो तुम्हें महिमा का मुकुट दिया जाएगा, जो मुरझाने का नहीं” (1 पतरस 5:1-4)। इस खण्ड से स्पष्ट है कि अगुवों, या चरवाहों, या रखवालों को कलीसिया की सेवा करने वाला होना है, न कि कलीसिया से सेवा लेने वाला। अगुवे को कलीसिया के लोगों को परमेश्वर के वचन और आत्मिक जीवन की सही शिक्षा देनी है, उनके लिए आदर्श बनना है, उनकी सहायता एवं मार्गदर्शन करना है, उन पर अधिकार या रौब नहीं जताना है, और न ही उन्हें सांसारिक वस्तुओं की कमाई का माध्यम बनाना है। सच्चा अगुवा या रखवाला वही है जो परमेश्वर द्वारा दिए गए उपरोक्त निर्देशों को मानता है और प्रभु के भय में अपने झुण्ड की देखभाल और रखवाली करता है, अपने झुण्ड से सांसारिक वस्तुएँ कमाने के लिए नहीं वरन परमेश्वर द्वारा उसे सौंपे गए दाय्तिवों के निर्वाह के लिए, इस एहसास के साथ कि एक दिन उस झुण्ड की स्थिति और सलामती का सारा हिसाब-किताब उसे प्रभु को अवश्य ही देना होगा, क्योंकि प्रभु सभी से यह हिसाब बुलाकर लेगा (मत्ती 25:19), बचेगा कोई नहीं।

           कलीसिया के लोगों की भी ज़िम्मेदारी है कि जो लोग प्रभु की ओर से उनमें सेवकाई के लिए नियुक्त किए गए हैं, और उस सेवकाई का निर्वाह कर रहे हैं, उनकी बिना किसी संकोच या हिचकिचाहट के, ठीक से देखभाल करे और उनकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का ध्यान रखे (1 कुरिन्थियों 9:1-14; गलातियों 6:6; 1 थिस्सलुनीकियों 5:12-13; 1 तिमुथियुस 5:17-18; इब्रानियों 13:7, 17)। यहाँ ध्यान की जाने वाली एक महत्वपूर्ण बात यह है कि बाइबल के इन सभी हवालों में यह बात व्यक्त अथवा निहित है कि पहला दायित्व सेवक द्वारा कलीसिया की उचित एवँ उपयुक्त देखभाल करने का है, जिसके प्रत्युत्तर में कलीसिया के लोगों को उस सेवक की देखभाल करने के लिए कहा गया है। अर्थात सेवक का पहला कर्तव्य है कलीसिया को देना – अपना समय, अपने गुण या योग्यताएँ, उसे प्रदान की गई वचन की समझ एवँ ज्ञान, कलीसिया के लोगों की सेवा, आदि। और फिर अपनी उसी सेवा के आधार पर ही वह कलीसिया के लोगों से अपनी भौतिक आव्श्यक्ताओं की पूर्ति करने की अपेक्षा रख तो सकता है। किन्तु लोगों से ऐसा करने की माँग करना या ऐसा करने के लिए कलीसिया के लोगों को बाध्य करना बाइबल में कहीं नहीं दिया गया है; पुराने नियम में भी नहीं।

           पुराने नियम में लेवी के गोत्र को परमेश्वर ने कनान में कोई भूमि आवंटित नहीं की थी; लेवी के घराने के लोगों, अर्थात लेवियों और याजक समाज का भरण-पोषण मंदिर में भेंट और चढ़ावे के लिए लाए जाने वाले पशुओं, फसलों, दश्मांशों और अन्य सामग्री द्वारा किया जाता था (गिनती 5:9; 18:24; व्यवस्थाविवरण 14:29)। इसके लिए परमेश्वर द्वारा यह निर्धारित था कि आराधनालय में भेंट करने या चढ़ाने के लिए जो भी लाया जाता था, वह चाहे पशु हो अथवा वनस्पति, उसे उत्तम गुणवत्ता का होना आनिवार्य था (लैव्यवस्था 22:18-25; 22:22)। किसी भी प्रकार का दोषयुक्त पशु या सामग्री भेंट के लिए नहीं लाई जा सकती थी; ऐसा करना परमेश्वर का अपमान करना था (मलाकी 1:8)। इसलिए यह कहा जाता है कि ‘परमेश्वर के दास’ के लिए उत्तम वस्तुएँ लानी चाहिएँ। लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है वरन इससे बहुत बढ़कर है; परमेश्वर ने केवल यह ही निर्धारित नहीं किया था कि उत्तम वस्तुएँ लाई जाएँ, उसने साथ ही यह भी निर्धारित करके दिया था कि क्या लाना है, कितना लाना, कब लाना है, और उसे कैसे अर्पित करना है। लेवी या याजक इन बातों को निर्धारित नहीं करते थे, वे केवल परमेश्वर द्वारा निर्धारित बातों का निर्वाह करते थे और लाई गई भेंट को स्वीकार करते थे। जब मंदिर के अधिकारियों ने परमेश्वर की निर्देशित विधि को बिगाड़ दिया, तब प्रभु यीशु ने इसके लिए उनकी भर्त्सना भी की (यूहन्ना 2:13-16; मत्ती 21:13)। किन्तु आधारभूत वास्तविकता यह थी कि जो लाया जाता था वह परमेश्वर को अर्पित करने के लिए लाया जाता था न कि याजक को देने के लिए। यद्यपि उस भेंट का प्रयोगकर्ता अन्ततः याजक या लेवी ही होता था, फिर भी जो कुछ भी आराधनालय में भेंट में चढ़ाए जाने के लिए लाया जाता था, वह विधि अनुसार परमेश्वर को चढ़ाए जाने के बाद ही याजक के उपयोग के लिए होता था। बाइबल में हम यह भी देखते हैं कि एली के पुत्रों ने परमेश्वर के इन निर्देशों की अवहेलना की और बहुत भारी दण्ड चुकाया (1 शमूएल 2:12-17, 22-25, 30-34)। इसके अतिरिक्त, याजक का यह दाय्तिव भी था कि वह परमेश्वर का दूत बनकर लोगों को परमेश्वर के वचन की सही शिक्षा भी दे (मलाकी 2:7)। कहने का तात्पर्य यह है कि निःसंदेह याजक, लोगों की उत्तम भौतिक वस्तुओं का हकदार था, परन्तु साथ ही वह उत्तम आत्मिक बातें एवँ सेवा लोगों को देने के लिए भी उतना ही उत्तरदायी भी था।

           जैसा ऊपर कहा गया है, पुराने नियम के समय में भेंट और बलिदान मंदिर में व्यवस्था की बातों को पूरा करने के अन्तर्गत, याजकों को देने के लिए नहीं परन्तु परमेश्वर को देने के लिए, अनिवार्यतः लाए जाते थे; और परमेश्वर को अर्पित होने बाद ही फिर वहाँ से याजकों में बांटे जाते थे। जबकि अब नए नियम की कलीसिया में भेंट के लिए कोई सामग्री लाने का कोई निर्देश नहीं है; यद्यपि ऐसा करना वर्जित तो नहीं है, किन्तु यह करना केवल स्वेच्छा से है, अनिवार्य नहीं है। यह बात तब में और अब में यह एक बहुत महत्वपूर्ण अन्तर है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। वर्तमान में जो व्यक्ति परमेश्वर के दास को कुछ दे रहा है, वह अपनी इच्छा से दे रहा है, ऐसा करने के लिए वह बाध्य नहीं है। न ही यह आवश्यक है कि अगुवे को दी जाने वाली वस्तु परमेश्वर को अर्पित भेंट समझी जाए, या परमेश्वर को अर्पित किए जाने बाद ही कलीसिया के अगुवे को दी जाए। पुराने नियम की भेंटों की तुलना में, नए नियम की कलीसियाओं में भेंट देना, पूर्णतः देने वाले पर निर्भर है (2 कुरिन्थियों 9:7)। किसी भी व्यक्ति को परमेश्वर के नाम से बाध्य करके उससे अपनी आवश्यकता के लिए कुछ ऐंठना सर्वथा अनुचित है, परमेश्वर के नाम और वचन का दुरूपयोग है।

           यदि कलीसिया का कोई अगुवा कलीसिया के लोगों से उत्तम पाने की लालसा इसलिए रखता है क्योंकि पुराने नियम में याजक, लेवी, और मंदिर के सेवक को उत्तम पहुंचता था, तो फिर उस अगुवे को पुराने नियम के उस याजक या मंदिर के सेवक के समान भौतिक संपत्ति – विशेषकर भूमि से संबंधित, न रखने, एवँ आराधनालय तथा वचन की सेवा करने से संबंधित दायित्व का भी वैसा ही निर्वाह भी करना चाहिए। अर्थात वर्तमान समय का वह अगुवा कलीसिया के लोगों से लेकर अपने लिए सांसारिक संपत्ति जोड़ने और बनाने की बजाए कलीसिया के लोगों के लिए एक आदर्श बने, और परमेश्वर के वचन का गहन अध्ययन करके परमेश्वर से ही वचन की शिक्षा प्राप्त करे, तथा परमेश्वर के लोगों को वचन की सही शिक्षाएँ भी देने के लिए तत्पर और तैयार रहे। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि जब लेवियों और याजकों ने परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार अपने दायित्वों का निर्वाह नहीं किया तो परमेश्वर ने उन्हें दण्ड भी दिया (यहेजकेल 34:7-19; मलाकी 2:1-9)। उसी प्रकार से वर्तमान के उन अगुवों को जो पुराने नियम के निर्देशों के आधार पर कलीसिया से उत्तम प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें यह ध्यान भी रखना चाहिए कि यदि वे कलीसिया में परमेश्वर की इच्छानुसार सेवकाई नहीं करेंगे तो परमेश्वर फिर उन्हें भी उन अनाज्ञाकारी याजकों और लेवियों के समान ही दण्डित भी करेगा।

           आज परमेश्वर के दास से अपेक्षित है कि वह अपने प्रथम कर्तव्य, अर्थात कलीसिया की सेवा करने में उद्यमी रहे, जैसा कि पौलुस ने अपने जीवन के उदाहरण से सिखाया है – 1 थिस्सलुनीकियों 2 अध्याय पढ़िए; यहाँ अपनी सेवकाई का वर्णन करते हुए 9 पद में पौलुस यह भी लिख रहा है कि वह किसी पर बोझ नहीं बना, वरन परिश्रम करके वह स्वयँ ही अपना भरण-पोषण करता था, और ऐसा करते हुए वह साथ ही बहुत परिश्रम तथा लगन के साथ परमेश्वर के वचन को भी सिखाता और सुनाता था  (साथ ही प्रेरितों 18:3; प्रेरितों 20:34-35; 1 कुरिन्थियों 4:12; 1 थिस्सलुनीकियों 4:11; 2 थिस्सलुनीकियों 3:8-9 भी देखें)। साथ ही, यह सिखाने के बाद कि कलीसिया को परमेश्वर के सेवकों का ध्यान करना चाहिए उनकी आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिए, 1 कुरिन्थियों 9:15 में पौलुस अपनी सेवकाई के बदले में स्वयँ के लिए कलीसिया से कुछ लेने से स्पष्ट और बलपूर्वक मना करता है; सेवकाई के बदले लोगों से कुछ लेने की बजाए वह मर जाना अधिक उत्तम समझता है। यदि आज कलीसिया के अगुवे, या परमेश्वर के दास को परमेश्वर के वचन से उदाहरण, आधार, और आदर्श लेकर कलीसिया से कुछ भौतिक वस्तुएँ प्राप्त करने की अपेक्षा रखनी है तो फिर पुराने नियम के आधार पर क्यों? वर्तमान के लिए दिए गए नए नियम में पौलुस के उदाहरण से वे प्रेरणा और शिक्षा क्यों नहीं लेते हैं (1 कुरिन्थियों 11:1; 2 थिस्सलुनीकियों 3:9)? वे पौलुस को अपना आदर्श बनाकर उसका अनुसरण क्यों नहीं करते हैं?

           दुःख की बात है कि वर्तमान में परमेश्वर के वचन और कार्य के प्रति ऐसा अपेक्षित एवँ वाँछित समर्पण बहुत कम ही देखने को मिलता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लगभग सभी कलीसियाओं में परमेश्वर के नियमों और विधियों के स्थान पर, उनके डिनौमिनेशन या मत के अनुसार, मनुष्यों द्वारा, परमेश्वर के नाम से प्रतिपादित नियम और विधियाँ लागू कर दी गई हैं। अब यद्यपि कलीसिया के ऐसे प्रबंधकों को परमेश्वर के वचन को तोड़ने और उसकी अनाज्ञाकारिता करने में लेश-मात्र भी ग्लानि अथवा हिचकिचाहट नहीं होती है; फिर भी वे इस बात पर बहुत दृढ़ और कठोर रहते हैं कि उनके द्वारा दिए गए नियमों का पूर्णतः पालन हो, कोई अवहेलना न हो, अन्यथा परिणाम अच्छे नहीं होंगे। कलीसिया के सभी दायित्वों के निर्वाह के लिए नियुक्ति परमेश्वर के मानकों और उसकी विधि के अनुसार नहीं वरन मनुष्यों द्वारा स्थापित मानकों, योग्यताओं, गुणों, और डिनौमिनेशन या मत की विधियों के अनुसार की जाती है। इसीलिए कलीसिया के अगुवों के लिए यह अब परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपा गया दायित्व नहीं, अपितु “नौकरी” हो गया है, जिसपर उन्हें उस डिनौमिनेशन या मत के मानने वाले मनुष्यों ने नियुक्त किया है। और क्योंकि यह “नौकरी” मनुष्यों ने उन्हें मानवीय मानकों, गुणों, तथा “योग्यताओं” के आधार पर दी है, इसीलिए आज के अधिकांश अगुवे परमेश्वर को नहीं वरन अपने डिनौमिनेशन या मत के सांसारिक “अधिकारियों” को प्रसन्न करने की चेष्टा में रहते तथा कार्य करते हैं, क्योंकि वे अधिकारी न केवल उनके “नौकरी” में बने रहने को प्रभावित कर सकते हैं, वरन उनके भविष्य, उन्नति, और डिनौमिनेशन या मत के साथ जुड़ी उनकी संभावित भलाई को भी प्रभावित कर सकते हैं – यह पौलुस द्वारा गलातियों 1:10 में कही बात के साथ कैसा अद्भुत विरोधाभास प्रस्तुत करता है। इसलिए इसमें कोई अचरज की बात नहीं है कि यद्यपि वे परमेश्वर का नाम तो लेते हैं, परन्तु उनमें परमेश्वर का कोई भय नहीं है, उन्हें परमेश्वर को अपना हिसाब देने की कोई चिंता नहीं है, उन्हें सौंपी गई मण्डली के प्रति उनका केवल एक औपचारिक लगाव है, और वे परमेश्वर का नाम लेकर केवल अपना ही काम निकालना, अपनी ही इच्छाएं पूरी करना चाहते हैं। उनमें से कोई भी उनके अधिकारियों द्वारा किए जा रहे किसी भी गलत, या अनैतिक, या बाइबल की शिक्षाओं के प्रतिकूल बात के लिए न तो विरोध करता है और न ही कुछ बोलता है (गलातियों 2:11-18 के साथ तुलना कीजिए); वरन वे परमेश्वर का नाम लेते हुए औपचारिकता से काम करते रहते हैं, और उन ही ओहदों पर पहुँच कर वहाँ मिलने वाले सांसारिक लाभों का मज़ा लेने की लालसा रखते हैं (कुलुस्सियों 3:1-5 से तुलना कीजिए)। परमेश्वर का नाम और काम उनके लिए “पेट-पालने” का माध्यम बन गया है (रोमियों 16:18; फिलिप्पियों 3:19), और उनकी निष्ठा तथा समर्पण परमेश्वर के प्रति नहीं अपितु उनके सांसारिक “अधिकारियों” के प्रति हो गए हैं – पौलुस ने ऐसों को “मसीह के क्रूस के बैरी” बताया है (फिलिप्पियों 3:18)।

           यह कलीसिया के लोगों और अगुवों, दोनों को ही परमेश्वर की ओर से दी गई ज़िम्मेदारी है कि वे अपने-अपने दायित्वों के अनुसार एक दूसरे की आवश्यक्ताओं का ध्यान रखें, एक-दूसरे की आवश्यक्ताओं की पूर्ति करें, और सदा इस बात का ध्यान रखें कि एक दिन, उन्हें अपने-अपने दायित्वों के निर्वाह का उत्तर प्रभु को अवश्य ही देना होगा, और प्रभु से अपना प्रतिफल भी उसी के अनुसार लेना होगा; न तो कोई प्रभु को उत्तर देने से और न ही कोई प्रभु से अपने किए के प्रतिफल को लेने से बच सकता है । तैयार रहें; हिसाब लेने और देने का वह दिन शीघ्र ही आने वाला है।

सोमवार, 2 सितंबर 2019

अय्यूब के दुखों का उद्देश्य



प्रश्न: यद्यपि अय्यूब धर्मी था, फिर भी उसे दुःख क्यों उठाने पड़े?

उत्तर:
हमें अय्यूब की कहानी को नए नियम के दो पदों के संदर्भ में देखना चाहिए: रोमियों 8:28 “और हम जानते हैं, कि जो लोग परमेश्वर से प्रेम रखते हैं, उन के लिये सब बातें मिलकर भलाई ही को उत्पन्न करती है; अर्थात उन्हीं के लिये जो उस की इच्छा के अनुसार बुलाए हुए हैं”; तथा याकूब 5:11 “देखो, हम धीरज धरने वालों को धन्य कहते हैं: तुम ने अय्यूब के धीरज के विषय में तो सुना ही है, और प्रभु की ओर से जो उसका प्रतिफल हुआ उसे भी जान लिया है, जिस से प्रभु की अत्यन्‍त करूणा और दया प्रगट होती है। अय्यूब के लिए याकूब 5:11, रोमियों 8:28 की पुष्टि है शैतान जितने भी दुःख अय्यूब पर लेकर आया, परमेश्वर ने उन सभी को आशीष में परिवर्तित कर दिया, न केवल अय्यूब के लिए वरन उसके मित्रों के लिए भी, जिन्हें अय्यूब में होकर, व्यक्तिगत अविस्मरणीय तथा शिक्षाप्रद अनुभव के द्वारा, परमेश्वर और उसकी धार्मिकता के बारे में सीखने का अवसर मिला।

अय्यूब की पुस्तक के पहले अध्याय को पढ़ते समय, हमें अय्यूब के बारे में दो बहुत महत्वपूर्ण बातों से अवगत करवाया जाता है। पहली यह कि यद्यपि अय्यूब धर्मी व्यक्ति था (अय्यूब 1:1), इस बात को परमेश्वर ने भी कहा (अय्यूब 1:8; 2:3); किन्तु उसकी धार्मिकताकर्मोंकी धार्मिकता थी (अय्यूब 1:5), जैसा कि उसके मित्र एलिपज़ ने भी कहा (अय्यूब 4:6)। और दूसरी यह कि, अय्यूब द्वारा परमेश्वर का भय मानना, अपने आप को तथा अपने परिवार को हानि से बचाए रखने के लिए अधिक था, न कि परमेश्वर की हस्ती को पहचानते हुए उसकी आराधना करने के भाव से (अय्यूब 3:25)। अय्यूब ने इस बात को स्वीकार किया जब वह औरों की भलाई करने के अपने भले कार्यों का वर्णन कर रहा था, “क्योंकि ईश्वर के प्रताप के कारण मैं ऐसा नहीं कर सकता था, क्योंकि उसकी ओर की विपत्ति के कारण मैं भयभीत हो कर थरथराता था” (अय्यूब 31:23)। अपने कर्मों के कारण, अय्यूब अपनी ही दृष्टि में धर्मी था (अय्यूब 32:1; 34:5) – जो कि उसके लिए एक विनाशक संभावना हो सकती थी। परमेश्वर अय्यूब की इस नश्वर कर्मों की धार्मिकता की स्थिति को सुधारना चाहता था, और अय्यूब को सदा काल कि अविनाशीविश्वास की धार्मिकता में लाना चाहता था जो कभी नहीं बिगड़ेगी, कभी नहीं घटेगी, और जिसके विरुद्ध शैतान कभी कुछ नहीं कर सकेगा।

परमेश्वर ने यह सुधार शैतान द्वारा अय्यूब की भक्ति और निष्ठा की परिक्षा करने की इच्छा को प्रयोग करने के द्वारा किया। शैतान के माध्यम से, तथा उसके मित्रों द्वारा उस पर किए जाने वाले दोषारोपण से, परमेश्वर ने होने दिया कि अय्यूब अपने सारे भौतिक संसाधनों, सारी बुद्धिमत्ता, सभी योग्यताओं, और समस्त सांसारिक स्तर से, अर्थात जिन बातों में वह घमण्ड कर सकता था, बिलकुल खाली हो जाए। एक बार जब ऐसा हो गया, तब परमेश्वर ने अय्यूब द्वारा उठाए किसी भी प्रश्न का कोई उत्तर देने, या अपने आप को सही ठहराने, या शैतान को उसे दुःख देने की अनुमति प्रदान करने को सही ठहराने का प्रयास करने की बजाए, परमेश्वर ने अय्यूब को अपनी भव्यता, अपनी अद्भुत सृजनात्मक शक्ति, अपनी अथाह बुद्धिमत्ता और कार्य कुशलाताओं तथा योग्यताओं से, जिनमें होकर वह सारी सृष्टि का नियंत्रण करता है, उसे संचालित करता है, और उस में की प्रत्येक वस्तु और बात की जानकारी रखता और देखभाल करता है अय्यूब को अवगत करवाया। और इस प्रकार से परमेश्वर ने अय्यूब को यह एहसास करवाया कि वास्तविकता में अय्यूब सृष्टि में कितना महत्वहीन है, किन्तु फिर भी परमेश्वर उसे जानता है और उसका ध्यान रखता है, और साथ ही उसे यह एहसास भी करवाया कि अपनी जिस स्व-धार्मिकता में वह गर्व अनुभव कर रहा था और परमेश्वर को प्रसन्न करने के अपने गढ़े हुए प्रयासों के द्वारा जिस स्व-धार्मिकता को बनाए रखने के प्रयासों में वह लगा रहता था, वह कितनी महत्वहीन थी और ऐसा करने के द्वारा, एक प्रकार से, अय्यूब परमेश्वर का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए कर रहा था।

अब, परमेश्वर की अति-महान हस्ती, उसकी अचूक बुद्धिमत्ता और योग्यताओं के सम्मुख आने पर, तुरंत ही अय्यूब को यह एहसास हो गया कि वह कितना मूर्ख था कि परमेश्वर के सम्मुख अपने कर्मों से धर्मी होने और बने रहने के दावे कर रहा था और इसके लिए परमेश्वर का उपयोग करने के प्रयास कर रहा था। इसलिए तुरंत ही अय्यूब अपने तुच्छ होने को स्वीकार कर लेता है (अय्यूब 40:4-5)। और परमेश्वर जब आगे उससे उत्तर माँगता है तो अय्यूब अपनी मूर्खता को स्वीकार करके पश्चाताप करता है (अय्यूब 42:1-6) – उसे प्रतिफल देने के लिए परमेश्वर उससे यही चाहता था (याकूब 5:11) तथा इसी बात की ओर उसे हांक रहा था। जब अय्यूब ने परमेश्वर के सम्मुख अपनी वास्तविकता को स्वीकार कर लिया, तो परमेश्वर ने उसे क्षमा कर दिया (1 यूहन्ना 1:9), और न केवल अय्यूब की हानि को पूरा कर दिया, वरन उसे पहले से दुगना दे दिया (अय्यूब 42:10) – अय्यूब के लिए रोमियों 8:28 की पूर्ति हुई; साथ ही अय्यूब में होकर अय्यूब के मित्रों को भी धार्मिकता का पाठ सीखने को मिला (अय्यूब 42:7-8)

इसलिए, वास्तव में अय्यूब के दुःख, दुःख नहीं थे, वरन वह प्रधान सर्वोत्तम शिल्पकार प्रभु परमेश्वर, शैतान की योजनाओं के द्वारा, अय्यूब के जीवन के अनुपयोगी भागों को तराश कर हटा रहा था, उसके जीवन के पैने और खुरदरे भागों को घिस कर सपाट कर रहा था, और उसे रगड़ कर अपनी एक उत्कृष्ठ कलाकृति को एक ऐसी दिव्य चमक प्रदान कर रहा था, जिससे अय्यूब को एक ऐसा स्वरूप, स्तर, और सुन्दरता मिले जो सदैव सुरक्षित बनी रहेगी और शैतान अय्यूब के विरुद्ध चाहे जो भी योजना बनाए, वह चमक कभी धूमिल नहीं होगी, तथा साथ ही आने वाले समयों में लोगों को इससे परमेश्वर की धार्मिकता से संबंधित बहुमूल्य आत्मिक पाठ सीखने को मिलेंगे।

सोमवार, 26 अगस्त 2019

भले बुरे ज्ञान के वृक्ष का फल, और मृत्यु


प्रश्न:
परमेश्वर ने भले बुरे ज्ञान का फल खाने से आदम को मना क्यों किया? क्या परमेश्वर ने झूठ बोला कि इसे खाते ही तुम मर जाओगे

उत्तर:
परमेश्वर के वचन बाइबल की बातों की व्याख्या करने और उन्हें समझने-समझाने के लिए कुछ अनिवार्य सिद्धांतों का पालन किया जाता है जिससे सही व्याख्या और सही अर्थ समझना-समझाना संभव हो सके। इन सिद्धांतों में से एक मूलभूत सिद्धांत है कि परमेश्वर कभी झूठ नहीं बोलता है, और क्योंकि “आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था” (यूहन्ना 1:1), इसलिए परमेश्वर का वचन भी कभी भी झूठा, दोगला, या अपने किसी अन्य भाग से असंगत नहीं होगा। जिस प्रभु परमेश्वर ने अपने विषय यह दावा किया कि "मार्ग, सत्य, और जीवन मैं ही हूँ" (यूहन्ना 14:6) भला वह झूठ कैसे बोल सकता है? इसलिए, यदि किसी व्याख्या अथवा वचन की समझ में कोई विसंगति अथवा त्रुटि प्रतीत होती है, तो निश्चित मानिए की वह विसंगति अथवा त्रुटि परमेश्वर या उसके वचन में नहीं वरन हमारी समझ या व्याख्या में है। इसलिए हमें उस असंगत अथवा त्रुटिपूर्ण व्याख्या अथवा अर्थ को स्वीकार करने के स्थान पर उसका प्रार्थना सहित गहन पुनःअवलोकन, उसकी की गई व्याख्या और उसे प्रदान किए गए अर्थों पर पुनःविचार एवँ मनन करना चाहिए, और परमेश्वर के वचन को नहीं, वरन अपनी व्याख्या और अपने द्वारा समझे गए अर्थ को सुधारना चाहिए।

ऐसा करने के लिए कुछ बातें मेरे लिए बहुत सहायक रही हैं; बाइबल के जिन शब्दों के अर्थ या व्याख्या पर मुझे कोई संदेह होता है, उनकी सही समझ और अर्थ जानने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करके, प्रार्थना सहित मैं उनका मूल इब्रानी (पुराने नियम के लिए) या यूनानी (नए नियम के लिए) भाषाओं में प्रयुक्त शब्द के अर्थ देखता हूँ। न तो मुझे इब्रानी भाषा आती है और न यूनानी, परन्तु अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किए गए उन शब्दों के अर्थ और प्रयोग की जानकारी आसानी से इंटरनेट के माध्यम से सभी के लिए उपलब्ध है। साथ ही मैं उस पद या खंड को बाइबल के अनेकों अनुवादों में देखता हूँ कि विभिन्न अनुवाद उस बात को और उसके संभावित अर्थ को किस प्रकार से प्रस्तुत कर रहे हैं। यह करते समय मैं Young's Literal Translation (YLT) को अवश्य ही देखता हूँ जिसमें मूल भाषा के शब्द का हूबहू अनुवाद किया गया है, न कि अनुवादकों द्वारा संभावित अर्थ को दिया गया है। यदि फिर भी कोई असमंजस अथवा अनिश्चितता रहती है तो विभिन्न व्याख्याकर्ताओं द्वारा उस विषय या शब्द अथवा खण्ड के विषय क्या लिखा गया है, उसे देखता हूँ। इस अंतिम विधि की आवश्यकता मुझे बहुत कम ही होती है; परमेश्वर, प्रार्थना के उत्तर में, बहुधा मूल भाषा के अर्थ के द्वारा ही अधिकांशतः उस विसंगति को दूर कर देता है, और यदि कुछ संदेह शेष रहता है तो बहुधा भिन्न अनुवादों में पढ़ने के द्वारा वह भी स्पष्ट हो जाता है।

  अब दोनों प्रश्नों पर आते हैं; पहले – परमेश्वर क्यों नहीं चाहता था कि मनुष्य भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खाए? यह हम सभी के परिवारों में सामान्यतः देखा जाता है कि घर की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक सदस्य के लिए नहीं होती है, विशेषकर बच्चों के लिए तो बहुत सी वस्तुएँ वर्जित होती हैं। वे बच्चे घर के सदस्य हैं, उन वस्तुओं पर पैतृक संपत्ति के रूप में उनका अधिकार है, किन्तु एक आयु, समझ-बूझ और सामर्थ्य तक पहुँचने से पहले उन्हें उन वस्तुओं के प्रयोग की अनुमति नहीं होती है। उदाहरण के लिए रसोई में अत्यंत उपयोगी और दिन में अनेकों बार काम में ली जाने वाली चीज़ें जैसे कि छुरी-चाकू, या दियासलाई, या बिजली के उपकरण आदि; या, बड़ों के द्वारा चलाए जाने वाले मोटरसाईकिल, कार या अन्य कोई मशीन आदि। किन्तु जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, उन वस्तुओं को संभाल कर उपयोग करना सीख लेते हैं, उन वस्तुओं के उचित-अनुचित उपयोग के बारे में समझने लगते हैं, उनके उपयोग के लिए आवश्यक सावधानियों को जान लेते हैं, तब उन्हें उन वस्तुओं के उपयोग करने की अनुमति भी मिल जाती है। आदम और हव्वा की सृष्टि व्यसक स्वरूप में हुई थी, किन्तु सँसार की वस्तुओं और उनके उपयोग के संबंध में अभी उन्हें कोई विशेष अनुभव नहीं था! परमेश्वर ने यह कहीं नहीं कहा था कि मनुष्य कभी भी उन दोनों वृक्षों (उत्पत्ति 2:9) के फल को नहीं खाएगा। आरंभ में परमेश्वर ने उन्हें खाने के लिए वर्जित किया था; किन्तु संभव है कि कुछ समय पश्चात, आदम और हव्वा के उचित परिपक्व हो जाने के पश्चात उन्हें इसकी अनुमति मिल जाती; किन्तु सर्प के बहकावे में आकर उन्होंने सब कुछ बिगाड़ दिया। जब परमेश्वर ने भले और बुरे के ज्ञान के तथा जीवन के वृक्ष की सृष्टि की, उन्हें अदन की वाटिका में रखा, और आदम को उस वाटिका की देखभाल करने को कहा (उत्पत्ति 2:15), तो यह अपने आप में स्पष्ट संकेत है कि उचित समय पर परमेश्वर उसे उन्हें उपयोग करने की अनुमति भी देता (1 कुरिन्थियों 9:9, 10, 13)। इसलिए यह सोचना कि परमेश्वर ऐसा नहीं चाहता था, शैतान के उसी झांसे में आना और वही गलती करना है जो हव्वा ने की, और फिर यही गलती परमेश्वर के विरुद्ध पाप करने के लिए उकसाएगी, और पाप करवाएगी। परमेश्वर पर अनर्गल लांछन लगाने के बजाए, पहले वचन का अध्ययन करना तथा अपने गलत धारणाओं को सुधारना उचित होगा।

  अब इस दूसरे प्रश्न को जो अकसर लोग उठाते हैं: “परमेश्वर ने झूठ क्यों बोला कि इसे खाते ही तुम मर जाओगे?” को देखते हैं: फल को खाने से मर जाने बात उत्पत्ति 2:17 में लिखी गई है। इसके लिए YLT का अनुवाद है – “and of the tree of knowledge of good and evil, thou dost not eat of it, for in the day of thine eating of it--dying thou dost die” – मूल इब्रानी भाषा में यह नहीं लिखा है कि “इसे खाते ही तुम मर जाओगे” या “तुम तुरंत ही मर जाओगे।” अंग्रजी भाषा के अन्य अनुवादों में भी सामान्यतः यही आया है कि “you will surely die” अर्थात, “तुम निश्चय ही मर जाओगे”, न कि आम धारणा और समझ की बात “you will immediately die” अर्थात “तुम तुरंत ही मर जाओगे।” दोनों में बहुत अन्तर है। तुरन्त या ‘Immediately’ का अर्थ है ‘उसी समय’; जबकि निश्चय या ‘surely’ का अर्थ है कि यह अवश्यंभावी है कि तुम मर जाओगे – किन्तु यह कब होगा इसका कोई समय संकेत नहीं दिया जा रहा है, बस यह कहा जा रहा है कि मृत्यु से बच नहीं सकते, तुम पर मृत्यु अवश्य ही आएगी। जो अनुवाद YLT में दिया गया है – “dying thou dost die” उसका अर्थ होता है “तुम मरते, मरते मर जाओगे” अर्थात जिस पल तुम उस फल को खा लोगे उसी पल से तुम्हारा मरना आरंभ हो जाएगा, तुम मरते चले जाओगे और अन्ततः मर जाओगे – क्या मनुष्य जन्म लेते ही मरण की इस प्रक्रिया के अन्तर्गत नहीं आ जाता है? बाइबल में यहाँ पर कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि मनुष्य के मरने की यह प्रक्रिया कब और कैसे पूरी होगी। इस संदर्भ में जब हम इससे आगे के विवरण को देखते हैं तो परमेश्वर की कही इस बात को पूरा होते हुए भी देखते हैं – आदम, हव्वा (और फिर उनकी सभी संतानें भी) एक आयु पर आकर मर गए (और मरते चले जा रहे हैं)। परमेश्वर ने कहा ‘तुम निश्चय मर जाओगे’, और निश्चय ही वे मर गए – यहाँ ‘तुरंत’ तो गलत व्याख्या करने या गलत समझाने वालों ने डाला है, परमेश्वर ने नहीं कहा है। तो अब बताईये कि क्या परमेश्वर ने कोई झूठ बोला? मनुष्यों द्वारा की गई गलत व्याख्या के आधार पर परमेश्वर की बात को गलत समझ कर उसे झूठा कहना क्या उचित है?

   जो लोग परमेश्वर पर इतना बड़ा लांछन लगाते हैं, उन्हें पहले अपनी बात के आधार को भली-भांति परख लेना चाहिए। हम परमेश्वर से उस बात के विषय प्रार्थना करके उससे निःसंकोच और स्पष्ट कहें कि “मैं इस बात को समझ नहीं पा रहा हूँ, या स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ, कृपया मेरे संदेह का निवारण करें” और वह करेगा (याकूब 1:5), किन्तु कृपया परमेश्वर पर अनुचित दोषारोपण कभी मत कीजिएगा, इसके बहुत गंभीर दुष्परिणाम होते हैं।