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सोमवार, 5 सितंबर 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 10: आराधना में अवरोध - परमेश्वर को ना जानना (i)

आराधना में अवरोध - परमेश्वर को ना जानना (i):

हम देख चुकें हैं कि परमेश्वर की आराधना का तात्पर्य है परमेश्वर को वह महिमा, आदर, श्रद्धा, समर्पण, बड़ाई, स्तुति, धन्यवाद आदि देना जिसके वह सर्वथा योग्य है (भजन 96:8), और जो उसका हक है। जैसे कि यदि किसी व्यक्ति के बारे में हमारी जानकारी ना हो तो हम उसके गुणों के बारे में ना तो बता सकते हैं, और ना ही औरों के सामने उसकी महिमा या बड़ाई कर सकते हैं; वैसे ही यदि हमें परमेश्वर के गुणों, विशेषताओं, कार्यों, योग्यताओं, हैसियत, सामर्थ, बुद्धिमता आदि के बारे जानकारी ना हो तो हम उसकी महिमा तथा आराधना नहीं कर सकते हैं। जैसे जितना हम किसी व्यक्ति को नज़दीकी से और व्यक्तिगत रीति से जानते हैं, उतना ही बेहतर हम उसका वर्णन करने पाते हैं, वैसे ही जितना नज़दीकी से और व्यक्तिगत रीति से हम परमेश्वर को अनुभव द्वारा जानने पाते हैं, उतना ही बेहतर हम उसकी महिमा और आराधना करने पाते हैं। किसी के बारे में जानना और वास्तव में उसे जानना भिन्न हैं, यद्यपि दोनों ही स्थितियों में हम उसके बारे में कुछ सीमा तक तो बोल और बता सकते हैं। लेकिन सच्चाई से परमेश्वर की आराधना कर पाना तब ही संभव है जब हम उसे वास्तव में व्यक्तिगत रीति से जानने लगें।

बहुत समय पहले मेरे साथ हुई एक घटना मुझे स्मरण आ रही है: मैं अपने एक निकट मित्र के साथ कुछ वार्तालाप कर रहा था, और उस वार्तालाप में उस समय के एक बहुत जाने-माने उच्च-श्रेणी के राष्ट्रीय नेता का ज़िक्र आया। वार्तालाप के प्रवाह को बिना बदले या बाधित किए, बड़ी ही हल्की रीति से उस नेता का नाम लेते हुए मेरा मित्र बोला, "अरे वो! उसे तो मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ"; फिर, उसी साँस में, आंखों में एक नटखट चमक तथा चेहरे पर एक मज़ाकिया मुस्कान लाकर मेरा मित्र आगे बोला, "लेकिन वो मुझे कितना जानता है, यह एक बिलकुल अलग बात है!"

बात की सच्चाई यह है कि मेरा वह मित्र उस नेता के बारे में तो जानता था, लेकिन उस नेता को नज़दीकी तथा व्यक्तिगत रीति से कदापि नहीं जानता था। यद्यपि वह उस नेता के बारे में बहुत कुछ बता सकता था, उसके बारे में वार्तालाप कर सकता था, लेकिन यह इस बात का प्रमाण नहीं था कि मेरा वह मित्र उस नेता को व्यक्तिगत रीति से भली भांति जानता है, उसके साथ निकट संबंध रखता है। ऐसी ही स्थिति हम में से अनेकों के साथ परमेश्वर के साथ हमारे संबंध को लेकर भी है। हम परमेश्वर के बारे में जानते हैं, अपने ज्ञान तथा सामान्य जानकारी के आधार पर हम उसके बारे में बहुत कुछ बता भी सकते हैं, परन्तु केवल एक ही बात है जो महत्वपूर्ण है, वह है कि क्या परमेश्वर के साथ हमारा एक निकट और व्यक्तिगत संबंध है; क्या हमने स्वयं निजी तौर पर उसे अनुभव कर के जाना है? क्या यह सच नहीं है कि सामान्यतः हम केवल उसके बारे में ही जानते हैं, परन्तु अपने निजी अनुभव तथा निकट एवं व्यक्तिगत संबंध द्वारा नहीं? क्या यह सच नहीं है कि सामन्यतः लोगों के लिए परमेश्वर के साथ संबंध रखना एक उत्साह-विहीन रस्म, यन्त्रवत कार्य, बेपरवाही का और ऊपरी, बाहरी दिखावे के लिए पूरी करी जाने वाली ज़िम्मेदारी है जिस के द्वारा कुछ धार्मिक अनुष्ठानों, रीति-रिवाज़ों और प्रथाओं का पालन हो सके?

नया जन्म पाने से परमेश्वर की सन्तान बन जाने वाले लोगों के बारे में भी यदि देखें तो - वे अपने स्वर्गीय परमेश्वर पिता को व्यक्तिगत अनुभव द्वारा और वस्तविकता में कितना जानते हैं तथा जानने का प्रयास करते हैं? उनके लिए उसकी योजनाओं और उन उम्मीदों को जो परमेश्वर उन से रखता है वे कितना जानते हैं तथा जानने का प्रयास करते हैं? उनके लिए परमेश्वर की इच्छाएं को तथा जो कार्य वह चाहता है कि उसके बच्चे करें उन कार्यों को वे कितना जानते हैं तथा जानने का प्रयास करते हैं? उसके वचन को जिसे उसने हमें दिया है कि वह हमारा मार्गदर्शक बने और परमेश्वर पिता के बारे में हमें सिखाए उस वचन को वे कितना जानते हैं तथा जानने का प्रयास करते हैं?


तो फिर इसमें कौन सी असमंजस की बात है कि नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी भी सार्वजनिक तौर पर अपना मुंह खोलकर परमेश्वर की आराधना के लिए कुछ शब्द बोलने में इतना अधिक हिचकिचाते हैं, अपने आप को असमर्थ पाते हैं
(...क्रमश:)

शनिवार, 3 सितंबर 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 9 – आराधना द्वारा विजय


आराधना द्वारा विजय


हमने परमेश्वर की आराधना और महिमा विषय से आरंभ किया था, और यह देखा कि प्रार्थना परमेश्वर से पाने से संबंधित है जब कि आराधना परमेश्वर को देने से। परमेश्वर की आराधना तथा उसे देने की आशीष को सीखने तथा समझने के लिए हमने परमेश्वर के वचन में से परमेश्वर को देने और परमेश्वर से पाने से संबंधित कुछ उदाहरणों को देखा; ये उदाहरण मुख्यतः पार्थिव और भौतिक वस्तुओं से संबंधित हैं, परन्तु इनमें एक आत्मिक पक्ष भी विद्यमान है।

हम उदाहरणों की इस श्रंखला का अन्त एक ऐसे उदाहरण से करेंगे जो दिखाता है कि कैसे आराधना के द्वारा विजय और बहुतायत की आशीषें प्राप्त हुईं। कृपया 2 इतिहास 20 को पढ़ें; स्थान के अभाव के कारण इस अध्याय पर पूरी व्याख्या करना यहाँ संभव नहीं होगा। बहुत संक्षिप्त में, परमेश्वर के भय में चलने वाले राजा यहोशापात को पता चलता है कि उस पर तीन जातियाँ, अम्मोनी, मोआबी और एदोमी, मिलकर आक्रमण करने वाली हैं। अपनी इस विकट परिस्थिति का एहसास होने पर, वह सारी परिस्थिती परमेश्वर के हाथों में समर्पित कर देता है, और अपनी सारी प्रजा के साथ परमेश्वर द्वारा छुटकारा पाने के लिए उससे प्रार्थना में लग जाता है। परमेश्वर उसे आश्वासन देता है कि परमेश्वर यहोशापात के लिए लड़ेगा और यहोशापात को कोई हानि उठानी नहीं पड़ेगी; उसे केवल अपनी सेना को तैयार करके युद्ध भूमि पर ले जाना होगा, युद्ध की सी पांति बान्ध कर उन्हें खड़ा करना होगा और फिर शान्त होकर खड़े रहें और परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य को देखें (2 इतिहास 20:14-17)। यहोशापात और उसकी प्रजा ने परमेश्वर के इस सन्देश पर विश्वास किया, उसको स्वीकार किया और इसके लिए परमेश्वर की आराधना करी (पद 18-19)। अगले दिन राजा यहोशापात अपने सेना को लेकर युद्ध भूमि पर गया, और उसने सेना के आगे परमेश्वर की आराधना और स्तुति करते हुए चलने वाले लोगों को रखा (पद 21); फिर, "जिस समय वे गाकर स्तुति करने लगे, उसी समय यहोवा ने अम्मोनियों, मोआबियों और सेईर के पहाड़ी देश के लोगों पर जो यहूदा के विरुद्ध आ रहे थे, घातकों को बैठा दिया और वे मारे गए" (2 इतिहास 20:22)। उन आक्रमणकारियों का अन्त हो जाने के पश्चात, यहोशापात और उसके लोगों को मृत आक्रमणकारियों पर से लूट का माल एकत्रित करने के लिए तीन दिन का समय लग गया (पद 24-25); जिसके पश्चात वे सब लोग बराका नाम तराई में परमेश्वर की आराधना के लिए एकत्रित हुए (पद 26-27)

ध्यान कीजिए, इस पूरी घटना में यहोशापात और उसके लोगों द्वारा प्रार्थना करने का उल्लेख एक बार हुआ है, परन्तु आराधना करने का उल्लेख तीन बार हुआ है; और इन तीन में से पहले दो अवसर ऐसे थे जिनमें परिस्थितियाँ बड़ी विकट और भयावह थीं, विनाश और मृत्यु उनके सामने मूँह बाए खड़े थे। साथ ही अब एक बार और यहजीएल में होकर उन लोगों को पहुँचाए गए परमेश्वर के सन्देश को ध्यान से पढ़ें (2 इतिहास 20:14-17); आप कहीं नहीं पाएंगे कि परमेश्वर ने उन लोगों को आराधना करने का कोई आदेश दिया - परमेश्वर ने केवल यह कहा कि वे युद्ध-भूमि पर जाएं, अपने आप को वहाँ खड़ा करें, और शान्त होकर उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य को देखें। किंतु परमेश्वर में तथा उसके द्वारा उन्हें जिस परिणाम का वायदा मिला था, उसमें उन लोगों के विश्वास ने उन्हें परमेश्वर के द्वारा कुछ भी किए जाने से पहले ही उस कार्य के लिए परमेश्वर की आराधना करने को प्रेरित किया; और युद्ध के बाद मिली विजय के लिए आराधना करी गई तो समझ में आती है। युद्ध भूमि यह उनकी आराधना ही थी जिसके आरंभ होने के साथ ही परमेश्वर का कार्य भी आरंभ हो गया (पद 22) और शत्रु का नाश हो गया। उन लोगों द्वारा परमेश्वर को आराधना के दिए जाने के कारण ना केवल उन्हें एक अप्रत्याशित विजय मिली, परन्तु साथ ही ईनाम के रूप में बहुतायत से संपदा भी मिल गई।

अपने जीवन में कठिन तथा समझ से बाहर परिस्थितियों में भी चिंता, शिकायत, कुड़कुड़ाने, निराश होने और ऐसी परिस्थितियों से निकलने के लिए संसार और उसके लोगों का सहारा लेने की बजाए, उन परिस्थितियों में तथा उन परिस्थितियों के लिए परमेश्वर की आराधना करना सीखें; परिणाम आपकी कलपना से भी बढ़कर आशचर्यजनक और लाभप्रद होंगे।


अब आगे हम उन बाधाओं को देखना आरंभ करेंगे जो हमारी आराधना में आड़े आती हैं, उन बातों को जिनके कारण हम परमेश्वर की आराधना करने नहीं पाते हैं।

गुरुवार, 1 सितंबर 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 8: स्वर्ग से गारंटीशुदा


स्वर्ग से गारंटीशुदा

यह आत्मिक सिद्धांत कि परमेश्वर की इच्छा में होकर उसके तथा उसके कार्य के लिए जो भी हम निवेष करेंगे वह हमें उसका कई गुणा लौटा कर दे देगा कोई मनगढ़ंत बात नहीं है, वरन यह वह निश्चित बात है जिसे स्वयं प्रभु यीशु ने कहा है, जिसके साथ उसने यह भी कहा है कि परमेश्वर के लिए किए गए निवेष का प्रतिफल सौ गुणा होगा।

पतरस द्वारा पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में "यीशु ने कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि ऐसा कोई नहीं, जिसने मेरे और सुसमाचार के लिये घर या भाइयों या बहिनों या माता या पिता या लड़के-बालों या खेतों को छोड़ दिया हो। और अब इस समय सौ गुणा न पाए, घरों और भाइयों और बहिनों और माताओं और लड़के-बालों और खेतों को पर उपद्रव के साथ और परलोक में अनन्त जीवन" (मरकुस 10:29-30)। प्रभु यीशु द्वारा अपने अटल शब्दों में दिए गए आश्वासन पर ध्यान कीजिए - जो भी प्रभु और उसके सुसमाचार के लिए हम निवेष करते हैं स्वर्ग से उसका सौ गुणा की प्रतिफल निश्चित है।

साथ ही यहाँ प्रभु दोहरे प्रतिफल की भी बात कर रहा है - पृथ्वी पर सौ गुणा, और परलोक में अनन्त जीवन। यहाँ प्रयुक्त शब्द "उपद्रव" से घबराईएगा नहीं, हम संसार में जो कोई भी लौकिक कार्य करते हैं उन प्रत्येक के साथ परेशानियाँ भी जुड़ी होती ही हैं। हम में से कौन है जो यह कह सकता है कि उसके सांसारिक कार्य में कोई परेशानी या कठिनाई कभी नहीं रही है? हम सबके कार्यों में ये रहती हैं; हम सब अपने कार्यों में उनके साथ निभाते भी हैं और उनके होने के बावजूद भी अपने कार्य करते रहते हैं, यह जानते हुए कि हमारे कार्य में परेशानियाँ एवं कठिनाईयाँ हमारे साथ लगी ही रहेंगी। यदि हमें किसी सांसारिक कंपनी का प्रमुख कार्य-अधिकारी यह प्रस्ताव दे कि जो कुछ भी हम उसके प्रस्ताव के अन्तर्गत उसकी कंपनी में निवेष करेंगे, उसका सौ-गुणा प्रतिफल हमें हर कीमत पर, अवश्य ही मिलेगा, परन्तु साथ ही कुछ परेशानियों को भी हमें उठाना पड़ेगा, तो हम में से कितने हैं जो अपनी सांसारिक संपदा की सौ-गुणा बढ़ोतरी के इस अवसर को हाथों से जाने देंगे, वह भी केवल इसलिए क्योंकि कुछ परेशानियाँ साथ जुड़ी हुई हैं? यदि हम सांसारिक लोगों के आश्वासन पर, सांसारिक संपदा के लिए यह जोखिम उठाने को तैयार हैं, तो प्रभु के कहने के निश्चय पर इस लोक में सौ-गुणा एवं परलोक में अनन्तकाल के प्रतिफल के लिए क्यों नहीं?

इस असमंजस का उत्तर उस घटना में छुपा है जो पतरस द्वारा पूछे गए इस प्रश्न से ठीक पहिले घटित हुई - पूरा परिपेक्ष समझने के लिए मरकुस 10:17-18 को पढ़िए। जिस जवान का यहाँ ज़िक्र है, वह अनन्त जीवन चाहता था, वह प्रभु यीशु के प्रति श्रद्धा भी रखता था और उसे यह भी विश्वास था कि प्रभु यीशु ही उसकी परेशानी का हल दे सकते हैं; लेकिन जो उसके पास नहीं था वह था प्रभु यीशु द्वारा दिए गए समाधान पर विश्वास करना और उसे अपने जीवन में कार्यान्वित करना। प्रभु ने उसके प्रश्न का उसे समाधान उपलब्ध करवाया (मरकुस 10:21-22), परन्तु उस जवान के लिए वह समाधान बहुत उग्र तथा अनेपक्षित था, चुकाने के लिए वह एक बहुत बड़ी कीमत थी; और वह जैसा आया था वैसा ही निराश वापस लौट गया। प्रभु यीशु ने जो उस जवान से करने के लिए कहा, वह उस बात से भिन्न नहीं था जो उसने अपने चेलों को सिखाई थी - पाना चाहते हो तो देना सीखो: "दिया करो, तो तुम्हें भी दिया जाएगा: लोग पूरा नाप दबा दबाकर और हिला हिलाकर और उभरता हुआ तुम्हारी गोद में डालेंगे, क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिये भी नापा जाएगा" (लूका 6:38)

यही वह स्थान है जहाँ हम में से बहुतेरे आकर ठोकर खाते हैं, हानि उठाते हैं - प्रभु के प्रति हमारे विश्वास, हमारी श्रद्धा के बावजूद; अनन्त जीवन की बातों के लिए हमारी इच्छा के बावजूद, हम प्रभु के वचनों को स्वीकार करके अपने जीवन में कार्यकारी करना नहीं चाहते हैं; उन्हें सुनना तो चाहते हैं किंतु मानने की हिम्मत नहीं रखते। हम प्रभु की कही बात पर विश्वास करने से घबराते हैं, जो प्रभु ने हमारे हाथों में दिया है, परन्तु अब उसे छोड़ देने के लिए कह रहा है, उसे हम प्रभु के कहने पर छोड़ देना नहीं चाहते। परमेश्वर चाहता है कि हम उस पर विश्वास रखें, उसके कहने पर स्वेच्छा से अपने आप को खाली कर देने की हिम्मत रखें, ताकि वह और अधिक तथा और बेहतर से हमें भर सके। केवल जब हम दे देते हैं, अपने आप को खाली कर देते हैं, तब ही हम परमेश्वर के लिए वह रिक्त स्थान उपलब्ध करवा पाते हैं जिसे वह नई और बेहतर आशीषों की भरपूरी से भरना चाहता है।

कहावत है कि बेहतर ही अकसर सर्वोत्तम का दुश्मन होता है; जो बेहतर आज आपके पास है, उसके कारण उस सर्वोत्तम से जो परमेश्वर आपको देना चाहता है अपने आप को वंचित ना रखें। जो आपके पास है, उसे परमेश्वर के राज्य में निवेष करें, उसकी खेती में की खेती बो दें और भरपूरी की फसल पाने के लिए तैयार रहें।