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सोमवार, 26 अगस्त 2019

भले बुरे ज्ञान के वृक्ष का फल, और मृत्यु


प्रश्न:
परमेश्वर ने भले बुरे ज्ञान का फल खाने से आदम को मना क्यों किया? क्या परमेश्वर ने झूठ बोला कि इसे खाते ही तुम मर जाओगे

उत्तर:
परमेश्वर के वचन बाइबल की बातों की व्याख्या करने और उन्हें समझने-समझाने के लिए कुछ अनिवार्य सिद्धांतों का पालन किया जाता है जिससे सही व्याख्या और सही अर्थ समझना-समझाना संभव हो सके। इन सिद्धांतों में से एक मूलभूत सिद्धांत है कि परमेश्वर कभी झूठ नहीं बोलता है, और क्योंकि “आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था” (यूहन्ना 1:1), इसलिए परमेश्वर का वचन भी कभी भी झूठा, दोगला, या अपने किसी अन्य भाग से असंगत नहीं होगा। जिस प्रभु परमेश्वर ने अपने विषय यह दावा किया कि "मार्ग, सत्य, और जीवन मैं ही हूँ" (यूहन्ना 14:6) भला वह झूठ कैसे बोल सकता है? इसलिए, यदि किसी व्याख्या अथवा वचन की समझ में कोई विसंगति अथवा त्रुटि प्रतीत होती है, तो निश्चित मानिए की वह विसंगति अथवा त्रुटि परमेश्वर या उसके वचन में नहीं वरन हमारी समझ या व्याख्या में है। इसलिए हमें उस असंगत अथवा त्रुटिपूर्ण व्याख्या अथवा अर्थ को स्वीकार करने के स्थान पर उसका प्रार्थना सहित गहन पुनःअवलोकन, उसकी की गई व्याख्या और उसे प्रदान किए गए अर्थों पर पुनःविचार एवँ मनन करना चाहिए, और परमेश्वर के वचन को नहीं, वरन अपनी व्याख्या और अपने द्वारा समझे गए अर्थ को सुधारना चाहिए।

ऐसा करने के लिए कुछ बातें मेरे लिए बहुत सहायक रही हैं; बाइबल के जिन शब्दों के अर्थ या व्याख्या पर मुझे कोई संदेह होता है, उनकी सही समझ और अर्थ जानने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करके, प्रार्थना सहित मैं उनका मूल इब्रानी (पुराने नियम के लिए) या यूनानी (नए नियम के लिए) भाषाओं में प्रयुक्त शब्द के अर्थ देखता हूँ। न तो मुझे इब्रानी भाषा आती है और न यूनानी, परन्तु अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किए गए उन शब्दों के अर्थ और प्रयोग की जानकारी आसानी से इंटरनेट के माध्यम से सभी के लिए उपलब्ध है। साथ ही मैं उस पद या खंड को बाइबल के अनेकों अनुवादों में देखता हूँ कि विभिन्न अनुवाद उस बात को और उसके संभावित अर्थ को किस प्रकार से प्रस्तुत कर रहे हैं। यह करते समय मैं Young's Literal Translation (YLT) को अवश्य ही देखता हूँ जिसमें मूल भाषा के शब्द का हूबहू अनुवाद किया गया है, न कि अनुवादकों द्वारा संभावित अर्थ को दिया गया है। यदि फिर भी कोई असमंजस अथवा अनिश्चितता रहती है तो विभिन्न व्याख्याकर्ताओं द्वारा उस विषय या शब्द अथवा खण्ड के विषय क्या लिखा गया है, उसे देखता हूँ। इस अंतिम विधि की आवश्यकता मुझे बहुत कम ही होती है; परमेश्वर, प्रार्थना के उत्तर में, बहुधा मूल भाषा के अर्थ के द्वारा ही अधिकांशतः उस विसंगति को दूर कर देता है, और यदि कुछ संदेह शेष रहता है तो बहुधा भिन्न अनुवादों में पढ़ने के द्वारा वह भी स्पष्ट हो जाता है।

  अब दोनों प्रश्नों पर आते हैं; पहले – परमेश्वर क्यों नहीं चाहता था कि मनुष्य भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खाए? यह हम सभी के परिवारों में सामान्यतः देखा जाता है कि घर की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक सदस्य के लिए नहीं होती है, विशेषकर बच्चों के लिए तो बहुत सी वस्तुएँ वर्जित होती हैं। वे बच्चे घर के सदस्य हैं, उन वस्तुओं पर पैतृक संपत्ति के रूप में उनका अधिकार है, किन्तु एक आयु, समझ-बूझ और सामर्थ्य तक पहुँचने से पहले उन्हें उन वस्तुओं के प्रयोग की अनुमति नहीं होती है। उदाहरण के लिए रसोई में अत्यंत उपयोगी और दिन में अनेकों बार काम में ली जाने वाली चीज़ें जैसे कि छुरी-चाकू, या दियासलाई, या बिजली के उपकरण आदि; या, बड़ों के द्वारा चलाए जाने वाले मोटरसाईकिल, कार या अन्य कोई मशीन आदि। किन्तु जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, उन वस्तुओं को संभाल कर उपयोग करना सीख लेते हैं, उन वस्तुओं के उचित-अनुचित उपयोग के बारे में समझने लगते हैं, उनके उपयोग के लिए आवश्यक सावधानियों को जान लेते हैं, तब उन्हें उन वस्तुओं के उपयोग करने की अनुमति भी मिल जाती है। आदम और हव्वा की सृष्टि व्यसक स्वरूप में हुई थी, किन्तु सँसार की वस्तुओं और उनके उपयोग के संबंध में अभी उन्हें कोई विशेष अनुभव नहीं था! परमेश्वर ने यह कहीं नहीं कहा था कि मनुष्य कभी भी उन दोनों वृक्षों (उत्पत्ति 2:9) के फल को नहीं खाएगा। आरंभ में परमेश्वर ने उन्हें खाने के लिए वर्जित किया था; किन्तु संभव है कि कुछ समय पश्चात, आदम और हव्वा के उचित परिपक्व हो जाने के पश्चात उन्हें इसकी अनुमति मिल जाती; किन्तु सर्प के बहकावे में आकर उन्होंने सब कुछ बिगाड़ दिया। जब परमेश्वर ने भले और बुरे के ज्ञान के तथा जीवन के वृक्ष की सृष्टि की, उन्हें अदन की वाटिका में रखा, और आदम को उस वाटिका की देखभाल करने को कहा (उत्पत्ति 2:15), तो यह अपने आप में स्पष्ट संकेत है कि उचित समय पर परमेश्वर उसे उन्हें उपयोग करने की अनुमति भी देता (1 कुरिन्थियों 9:9, 10, 13)। इसलिए यह सोचना कि परमेश्वर ऐसा नहीं चाहता था, शैतान के उसी झांसे में आना और वही गलती करना है जो हव्वा ने की, और फिर यही गलती परमेश्वर के विरुद्ध पाप करने के लिए उकसाएगी, और पाप करवाएगी। परमेश्वर पर अनर्गल लांछन लगाने के बजाए, पहले वचन का अध्ययन करना तथा अपने गलत धारणाओं को सुधारना उचित होगा।

  अब इस दूसरे प्रश्न को जो अकसर लोग उठाते हैं: “परमेश्वर ने झूठ क्यों बोला कि इसे खाते ही तुम मर जाओगे?” को देखते हैं: फल को खाने से मर जाने बात उत्पत्ति 2:17 में लिखी गई है। इसके लिए YLT का अनुवाद है – “and of the tree of knowledge of good and evil, thou dost not eat of it, for in the day of thine eating of it--dying thou dost die” – मूल इब्रानी भाषा में यह नहीं लिखा है कि “इसे खाते ही तुम मर जाओगे” या “तुम तुरंत ही मर जाओगे।” अंग्रजी भाषा के अन्य अनुवादों में भी सामान्यतः यही आया है कि “you will surely die” अर्थात, “तुम निश्चय ही मर जाओगे”, न कि आम धारणा और समझ की बात “you will immediately die” अर्थात “तुम तुरंत ही मर जाओगे।” दोनों में बहुत अन्तर है। तुरन्त या ‘Immediately’ का अर्थ है ‘उसी समय’; जबकि निश्चय या ‘surely’ का अर्थ है कि यह अवश्यंभावी है कि तुम मर जाओगे – किन्तु यह कब होगा इसका कोई समय संकेत नहीं दिया जा रहा है, बस यह कहा जा रहा है कि मृत्यु से बच नहीं सकते, तुम पर मृत्यु अवश्य ही आएगी। जो अनुवाद YLT में दिया गया है – “dying thou dost die” उसका अर्थ होता है “तुम मरते, मरते मर जाओगे” अर्थात जिस पल तुम उस फल को खा लोगे उसी पल से तुम्हारा मरना आरंभ हो जाएगा, तुम मरते चले जाओगे और अन्ततः मर जाओगे – क्या मनुष्य जन्म लेते ही मरण की इस प्रक्रिया के अन्तर्गत नहीं आ जाता है? बाइबल में यहाँ पर कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि मनुष्य के मरने की यह प्रक्रिया कब और कैसे पूरी होगी। इस संदर्भ में जब हम इससे आगे के विवरण को देखते हैं तो परमेश्वर की कही इस बात को पूरा होते हुए भी देखते हैं – आदम, हव्वा (और फिर उनकी सभी संतानें भी) एक आयु पर आकर मर गए (और मरते चले जा रहे हैं)। परमेश्वर ने कहा ‘तुम निश्चय मर जाओगे’, और निश्चय ही वे मर गए – यहाँ ‘तुरंत’ तो गलत व्याख्या करने या गलत समझाने वालों ने डाला है, परमेश्वर ने नहीं कहा है। तो अब बताईये कि क्या परमेश्वर ने कोई झूठ बोला? मनुष्यों द्वारा की गई गलत व्याख्या के आधार पर परमेश्वर की बात को गलत समझ कर उसे झूठा कहना क्या उचित है?

   जो लोग परमेश्वर पर इतना बड़ा लांछन लगाते हैं, उन्हें पहले अपनी बात के आधार को भली-भांति परख लेना चाहिए। हम परमेश्वर से उस बात के विषय प्रार्थना करके उससे निःसंकोच और स्पष्ट कहें कि “मैं इस बात को समझ नहीं पा रहा हूँ, या स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ, कृपया मेरे संदेह का निवारण करें” और वह करेगा (याकूब 1:5), किन्तु कृपया परमेश्वर पर अनुचित दोषारोपण कभी मत कीजिएगा, इसके बहुत गंभीर दुष्परिणाम होते हैं।