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रविवार, 28 अप्रैल 2019

चतुर भण्डारी (लूका 16:1-13)



यह दृष्टांत प्रभु यीशु द्वारा दिए गए दृष्टांतों और शिक्षाओं में से, समझने और समझाने में, सबसे कठिन में से एक है। कठिनाई मुख्यतः इस कारण है क्योंकि जो हम पढ़ते और देखते हैं उससे यह स्पष्ट है कि उस भण्डारी ने गलत किया है, वह बेईमान रहा है, परन्तु फिर भी ऐसा लगता है मानो प्रभु उसकी सराहना कर रहे हैं, और उसे अनुसरण के योग्य उदाहरण के समान प्रस्तुत कर रहे हैं। यह कुछ सीमा तक सत्य भी है, परन्तु पूर्णतया नहीं।

इस दृष्टांत में प्रभु के अभिप्राय को समझने के लिए हमें उस भण्डारी द्वारा प्रयुक्त बातों पर ध्यान देना होगायोजना बनना, चतुराई, बुद्धिमत्ता, उद्देश्य या लक्ष्य साधना, और उचित कार्यविधि अपनाना, जिससे वह अपनी परिस्थिति का सर्वोत्तम उपयोग कर सके। अन्त के पदों से, अर्थात 10 से 13 पदों से, यह बिलकुल स्पष्ट है कि प्रभु बेईमानी के विरुद्ध तथा गलत तरीकों से कमाए गए धन के विरुद्ध है; अतः इसमें कोई संदेह नहीं है कि, यहाँ प्रभु अपने शिष्यों से न तो यह कह रहे थे और न ही अभिप्राय दे रहे थे कि उस भण्डारी की बेईमानी अनुसरणीय है। किन्तु, निःसंदेह भण्डारी ने जो किया प्रभु ने उसमें कुछ योग्य भी पाया, और इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों से उससे कुछ सीखने और उन शिक्षाप्रद बातों को अपने जीवनों में लागू करने के लिए कहा। जो प्रशंसनीय बातें प्रभु को उस भण्डारी में दिखाई दीं वे थीं, जोखिम भरे समय में भी अपनी बुद्धिमता को बनाए रखना, चतुर और बुद्धिमान होना, और योजनाबद्ध तरीके से अपने लक्ष्य को पूरा करना (लूका 16:3-4).

वह भण्डारी समझ गया था कि उसके हिसाब देने का समय आ गया है (लूका 16:2); और वह अपने आते अन्त से भी अवगत था। किन्तु उसने न तो हिम्मत हारी और न ही हार मानी; वरन जो भी समय और संसाधन उसे उपलब्ध थे उसने उनका प्रयोग किया, और जो कुछ भी वह कर सकता था उसने किया, यह सुनिश्चित करने के लिए कि उसका भविष्य अंधकारमय न रहे, परन्तु अच्छा हो जाए (लूका 16:5-7)। प्रभु अपने शिष्यों को यही बात सिखा रहे थे (लूका 16:8), कि जैसे सँसार के लोग चतुर होते हैं शिष्यों को भी चतुर होना चाहिए, और जो कुछ भी उनके पास है उसका, अपने संसाधनों का उपयोग, उचित रीति से भली-भांति करना चाहिए। प्रभु ने हमें मूर्ख या सरलता से धोखा खा जाने वाले होने के लिए नहीं बुलाया है, वरन चतुर और समझदार होने के लिए बुलाया है (मत्ती 10:16) ऐसा नहीं है कि प्रभु हमें कुटिल या चालाक (बुरे अभिप्राय में) बनाना चाहता है, परन्तु वह चाहता है कि हम अपनी परिस्थितियों का आंकलन करना सीखें, और फिर उसके अनुसार बुद्धिमत्ता से व्यवहार करें (लूका 12:56-58; लूका 14:25-33; मत्ती 10:23).

यह केवल प्रभु यीशु ही की, या केवल नए नियम की शिक्षा नहीं है। पुराने नियम में, नीतिवचन की पुस्तक चतुर, बुद्धिमान, और समझदार होने की शिक्षा के साथ आरंभ होती है (नीतिवचन 1:1-7); और तुरंत ही चतुर, बुद्धिमान, और समझदार नहीं होने के दुष्परिणामों के विषय सचेत करती है (नीतिवचन 1:20-33)। दाऊद, जो परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति था, ने अपने दायित्वों के निर्वाह और अपने प्राणों की रक्षा के लिए बुद्धिमानी से कार्य किया (1 शमूएल 18:5, 14, 30)। भजन 119:98-100 हमें दिखाता है कि कैसे परमेश्वर अपने अनुयायियों को सँसार के लोगों से अधिक चतुर और सूझ-बूझ वाला बनाता है, और अपने वचनों के द्वारा अपने लोगों को चतुराई और बुद्धिमत्ता सिखाता है जिससे, वे इन सदगुणों का उपयोग अपने दैनिक जीवनों में, सँसार के लोगों और परिस्थितियों का सामना करते समय करें, जिससे प्रभु के लिए जीने और उसके गवाह होने के अपने उद्देश्यों को पूरा कर सकें।

प्रभु के शिष्यों का सदैव यही प्रयास रहना चाहिए कि वे परमेश्वर के राज्य में अपना अनन्तकाल बिताने के लिए आदर के साथ प्रवेश करें; अर्थात, दूसरे शब्दों में, भले प्रतिफलों के साथ प्रवेश करें, जिन्हें वे अनन्तकाल में उपयोग करेंगे। अपने पृथ्वी के समय में, अन्हें अच्छी योजनाएं बनाकर, चतुराई और बुद्धिमता के साथ प्रभु के लिए जीवन जीने और गवाही देने के उद्देश्य की पूर्ति करते रहना चाहिए, तथा इस कार्य के लिए जो अवसर परमेश्वर उन्हें प्रदान करता है उनका भली-भांति उपयोग करना चाहिए। प्रभु यीशु के समान ही, प्रभु के शिष्यों को भी परमेश्वर की ओर से उन्हें सौंपे गए उद्देश्यों को पूरा करने में दृढ़ बने रहना चाहिए (लूका 9:51-52); और पौलुस के समान, सभी शिष्यों को अपने कार्यों को योजनाबद्ध तरीके से करना चाहिए (2 कुरिन्थियों 1:17) तथा किसी न किसी प्रकार से प्रभु के लिए उपयोगी होने के लिए प्रयासरत तथा सक्रीय रहना चाहिए, बजाए इसके कि निष्क्रीय रहकर बातों के होने की प्रतीक्षा करें (प्रेरितों 16:6-10).

स्वर्ग में प्रवेश, अर्थात हमारा उद्धार, प्रभु में विश्वास लाने तथा अपने पापों से पश्चाताप करने और प्रभु से उनकी क्षमा प्राप्त करने के द्वारा, केवल परमेश्वर के अनुग्रह ही से है। परन्तु हमारे अनन्तकाल के लिए प्रतिफल हमें परमेश्वर द्वारा हमारे कर्मों के आधार पर प्रदान किए जाते हैं; मसीही विश्वासियों, अर्थात नया जन्म पाए हुए परमेश्वर की संतानों का न्याय, उनके उद्धार पाने के लिए नहीं वरन उन्हें प्रतिफल प्रदान करने के लिए है, और कुछ ऐसे भी होंगे जो अनन्तकाल के लिए स्वर्ग में छूछे हाथ प्रवेश करेंगे (1 कुरिन्थियों 3:12-15).

चतुर भण्डारी के दृष्टांत के द्वारा प्रभु अपने शिष्यों को सिखा रहे हैं कि वे परिस्थितयों से कभी न घबराएं, चतुर और बुद्धिमान बनें, अपने उद्देश्य पर दृष्टि गड़ाए रखें और उस उद्देश्य को पूरा करने में प्रयासरत रहें। परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी कठिन या निराशाजनक क्यों न हों, शिष्यों को चतुराई और बुद्धिमता के साथ उपयुक्त कार्यविधि को अपनाना चाहिए, जैसा कि उस भण्डारी ने किया, और विकट परिस्तिथियों को भी अपने पक्ष में मोड़ लिया। प्रभु के शिष्यों को अपनी सांसारिक धन-संपदा का उपयोग ऐसी रीति से करना चाहिए कि 'जब वह जाता रहे,’ या चला जाए, अर्थात पृथ्वी के उनके समय के पूरे होने पर, वे लोग जिन्हें शिष्यों के धन और संसाधनों के द्वारा पृथ्वी पर लाभ पहुँचा, वे उन शिष्यों के आदर के साथ अनन्तकाल में प्रवेश का कारण बन जाएँ (लूका 16:9)

इस दृष्टांत के द्वारा प्रभु हमें बेईमान होना नहीं सिखा रहा है, वरन बिना निराश हुए, बिना हार माने, चतुर और बुद्धिमान होना, अपने उद्देश्य की पूर्ति की कार्यविधि पर अपना ध्यान केंद्रित रखना, और बुद्धिमता के साथ अपनी परिस्थितियों का प्रयोग करना सिखा रहा है, जिससे हम अपने अनन्तकाल के लिए प्रतिफल बनाए रखें और उन्हें अधिक बढ़ा सकें।


बुधवार, 17 अप्रैल 2019

अनापेक्षित फंदा


न्यायियो 8:27 – "उनका गिदोन ने एक एपोद बनवाकर अपने ओप्रा नाम नगर में रखा; और सब इस्राएल वहां व्यभिचारिणी के समान उसके पीछे हो लिया, और वह गिदोन और उसके घराने के लिये फन्दा ठहरा।" परमेश्वर ने इस्राएलियों को उनके सताने वालों पर गिदोन के नेतृत्व में एक अद्भुत और अप्रत्याशित विजय दिलवाई थी। इस अद्भुत विजय के स्मारक के रूप में गिदोन ने वह एपोद 'अपने नगर' ओपरा में स्थापित किया। परन्तु परमेश्वर का वचन यह भी बताता है कि वह एपोद गिदोन और उसके घराने के लिए फंदा बन गया।

इस पद से ऊपर के पदों (पद 22-26) से हम देखते हैं कि गिदोन का इस्राएलियों पर प्रभुत्व अथवा नेतृत्व का कोई इरादा नहीं था। वह इस अद्भुत विजय के लिए सारा आदर और महिमा परमेश्वर यहोवा ही को देना चाहता था। उस विजय से मिली लूट में से लेकर उसने स्मारक बनवाना चाहा, वह भी लोगों द्वारा स्वेच्छा से दिए गए लूट के भाग के प्रयोग के द्वारा। गिदोन ने कोई मूर्ति या अन्यजातियों के किसी देवी-देवताओं की मूर्ति अथवा चिन्ह के द्वारा नहीं, वरन एक एपोद के द्वारा यह करना चाहा। एपोद परमेश्वर के तम्बू में सेवकाई करते समय याजकों द्वारा पहने जाने वाले विशेष वस्त्र का एक भाग होता था (निर्गमन 28:4-8), और इसे परमेश्वर की इच्छा जानने के लिए भी प्रयोग किया जाता था (1 शमूएल 30:7-8)। अतः हम देखते हैं कि किसी भी प्रकार से परमेश्वर के विमुख जाने का गिदोन का कोई इरादा नहीं था। उसकी गलती बस इतनी थी कि उसने यह कार्य, चाहे परमेश्वर को आदर और महिमा देने ही के लिए, किन्तु परमेश्वर से पूछे बिना या परमेश्वर से निर्देश पाए बिना, अपनी बुद्धि और समझ के आधार पर, जैसा उसे सही और अच्छा लगा, उसने कर दिया।

फिर हम नीचे, पद 33, 34 में देखते हैं कि कुछ समय पश्चात, गिदोन के देहांत के बाद, इस्राएलियों ने परमेश्वर को छोड़ कर अन्य देवी-देवताओं के पीछे चलना आरंभ कर दिया। पद 27 का अभिप्राय संकेत करता है कि इस्राएलियों की इस मूर्तिपूजा और परमेश्वर के स्थान पर अन्य देवी-देवताओं के पीछे हो लेने के समय में उन्होंने गिदोन के जीवित रहते हुए भी, गिदोन द्वारा बनवाए गए उस स्मारक को भी देवता समान उपासना के लिए प्रयोग करना आरंभ कर दिया, जिससे "वह गिदोन और उसके घराने के लिये फन्दा ठहरा।"

यह उदाहरण दिखता है कि शैतान, हमारे द्वारा बात को जाने-पहचाने बिना, हमारे अच्छे और परमेश्वर को आदर देने के अभिप्राय से रखे गए उद्देश्यों को भी लोगों को बहकाने और परमेश्वर के विमुख कर देने के लिए प्रयोग कर सकता है, जो फिर हमारे तथा औरों लिए आशीष का नहीं वरन ठोकर का और पाप में गिरने कारण बन सकता है। परमेश्वर की आराधना, उपासना और आदर के लिए जो कुछ आवश्यक है, परमेश्वर ने वह अपने वचन में पहले से, उससे संबंधित विवरण तथा निर्देशों के साथ लिखवा रखा है। परमेश्वर द्वारा उस लिखवाए गए के अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह परमेश्वर से नहीं है; परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं है, और उसे चाहे जितनी श्रद्धा से माना या मनाया जाए वह, स्वयं प्रभु यीशु के शब्दों में, “व्यर्थ उपासना” (मत्ती 15:9), अर्थात निरुद्देश्य एवँ निष्फल उपासना है, या “कुकर्म” है (मत्ती 7:21-23)। इसीलिए, मसीही विश्वासियों के लिए यह अनिवार्य है कि किसी भी बात में अपनी बुद्धि और समझ का सहारा कभी न लें, विशेषकर आराधना तथा उपासना से संबंधित बातों में तो कतई नहीं, परंतु हर बात के लिए परमेश्वर की इच्छा जानकर उसके अनुसार ही कार्य करें (1 थिस्सलुनीकियों 5:21); कहीं आज की हमारी कोई बात, कल हमारी ही संतानों के लिए परेशानियाँ न खड़ी कर दे। परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए हमें केवल परमेश्वर के वचन को सीखकर उसका पालन करना है (1 शमूएल 15:22), न कि परमेश्वर को आदर और आराधना के लिए अपने ही मनगढ़ंत तरीके बना कर उन्हें मानना या मनवाना है, जो फिर हमारे अपने तथा औरों के लिए फंदा बन जाएँ जैसा गिदोन के एपोद के द्वारा हुआ।

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

यीशु के 12 से 30 साल तक के जीवन के विषय में क्या बाईबल शान्त है?



परमेश्वर के वचन बाइबल में हमारे लिए परमेश्वर, उसके राज्य, उसके साथ हमारे संबंध, उसके कार्य, गुण, कार्यविधि, नियम, आज्ञाओं इत्यादि के विषय बहुत कुछ दिया गया है, किन्तु परमेश्वर और उसके बारे में सब कुछ नहीं दिया गया है; क्योंकि परमेश्वर ने अपने वचन में हमारे लिए वही सब लिखवाया है जो वह चाहता है कि हम जानें और मानें और जिससे हम उसकी निकटता में आएँ, उद्धार पाएँ और उसके परिवार का भाग बन जाएँ।

यद्यपि बाइबल में प्रभु यीशु के लड़कपन, 12 वर्ष से लेकर उनके सेवकाई आरंभ करने,30 वर्ष की आयु तक का विवरण नहीं दिया गया है, किन्तु बाइबल इसके विषय में बिलकुल शान्त भी नहीं है। यह परमेश्वर और प्रभु यीशु के विरोधियों द्वारा फैलाया गया भ्रम है कि बाइबल उनके 12 से 30 वर्ष की आयु के बारे में कुछ नहीं बताती है; और अपने द्वारा फैलाए गए इस भ्रम के आधार पर वे यह एक और झूठ फैलाते हैं कि प्रभु यीशु भारत आए थे यहाँ से सीख कर वापस इस्राएल आए और उन शिक्षाओं के अनुसार प्रचार किया। सच तो यह है कि बाइबल स्पष्ट बताती है कि प्रभु यीशु वहीं इस्राएल में अपने परिवार के साथ ही रहे थे। इस संदर्भ में बाइबल में, सुसमाचारों में, दिए गए कुछ पदों को देखिए:

मत्ती 13:54 “और अपने देश में आकर उन की सभा में उन्हें ऐसा उपदेश देने लगा; कि वे चकित हो कर कहने लगे; कि इस को यह ज्ञान और सामर्थ के काम कहां से मिले?

मरकुस 6:2-3 “सब्त के दिन वह आराधनालय में उपदेश करने लगा; और बहुत लोग सुनकर चकित हुए और कहने लगे, इस को ये बातें कहां से आ गईं? और यह कौन सा ज्ञान है जो उसको दिया गया है? और कैसे सामर्थ के काम इसके हाथों से प्रगट होते हैं? क्या यह वही बढ़ई नहीं, जो मरियम का पुत्र, और याकूब और योसेस और यहूदा और शमौन का भाई है? और क्या उस की बहिनें यहां हमारे बीच में नहीं रहतीं? इसलिये उन्होंने उसके विषय में ठोकर खाई।”

लूका 2:39-40 “और जब वे प्रभु की व्यवस्था के अनुसार सब कुछ निपटा चुके तो गलील में अपने नगर नासरत को फिर चले गए। और बालक बढ़ता, और बलवन्‍त होता, और बुद्धि से परिपूर्ण होता गया; और परमेश्वर का अनुग्रह उस पर था।”

लूका 2:51-52 “तब वह उन के साथ गया, और नासरत में आया, और उन के वश में रहा; और उस की माता ने ये सब बातें अपने मन में रखीं। और यीशु बुद्धि और डील-डौल में और परमेश्वर और मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ता गया।”

लूका 4:16 “और वह नासरत में आया; जहां पाला पोसा गया था; और अपनी रीति के अनुसार सब्त के दिन आराधनालय में जा कर पढ़ने के लिये खड़ा हुआ।”

यूहन्ना 7:15 “तब यहूदियों ने अचम्भा कर के कहा, कि इसे बिन पढ़े विद्या कैसे आ गई?

ध्यान कीजिए, मत्ती, मरकुस और यूहन्ना के हवाले यह स्पष्ट दिखा रहे हैं कि प्रभु यीशु की शिक्षाओं को सुनकर सब को अचम्भा होता था कि उन्होंने ‘बिना पढ़े’ वह सब कैसे जान लिया जो वे प्रचार करते थे। अर्थात, वे लोग जानते थे कि प्रभु यीशु कभी कहीं शिक्षा पाने नहीं गए थे, उन्हीं के मध्य रहे थे, परन्तु फिर भी इतना कुछ सीख गए थे, अद्भुत प्रचार कर सकते थे। यदि प्रभु यीशु कहीं गए होते, तो लोग फिर यह कहते कि “उन्होंने समझ लिया कि वह यह सब उस परदेश से सीख कर आया था जहाँ वह गया हुआ था” – किन्तु किसी ने भी कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा। दूसरी बात, प्रभु यीशु ने जो भी प्रचार किया वह परमेश्वर के वचन के उस भाग, जिसे हम आज बाइबल के पुराने नियम के नाम से जानते है, से था। यदि प्रभु कहीं बाहर से कुछ सीखकर आए होते तो पुराने नियम से नहीं सिखाते वरन उस “ज्ञान” के अनुसार सिखाते जिसे वे सीख कर आए थे – किन्तु ऐसा कदापि नहीं था। उनकी सारी शिक्षाएँ परमेश्वर के वचन के पुराने नियम पर आधारित थीं।

लूका के हवालों पर ध्यान कीजिए – ये तीनों हवाले स्पष्ट दिखाते हैं कि प्रभु यीशु की परवरिश वहीं गलील के नासरत में, जो उनका निवास-स्थान था, हुई थी।

इसलिए चाहे बाइबल में उनकी 12 से 30 वर्ष की आयु के बारे में कोई विवरण नहीं है, किन्तु इतना अवश्य प्रगट है कि प्रभु वहीं नासरत में अपने परिवार के साथ ही रहे थे और लोगों ने उन्हें बड़े होते हुए देखा और जाना था।

मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

याकूब 5:16 में हमें " एक दूसरे के साम्हने अपने अपने पापों को मान" लेने की सलाह क्यों दी गई है?



इसे ठीक से समझने के लिए, याकूब 5:16 को उसके संदर्भ में देखा जाना चाहिए याकूब 5:13-18 के एक भाग के समान। जब हम ऐसा करते हैं, तो यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि इन पदों में दो प्रक्रियाओं के विषय में कहा गया है शारीरिक चंगाई तथा पाप। जबकि याकूब 5:16 में कही गई शारीरिक चंगाई 5:14-15aमें दी गई चंगाई के विचार के साथ संबंधित है; याकूब 5:16 में कही गई पापों को मान लेने की बात उन पापों के क्षमा से संबंधित या क्षमा के लिए नहीं है क्योंकि, उसके लिए तो पहले ही 5:15 में ही कह दिया गया है कि वे क्षमा हो चुके हैं, 5:16 में एक दूसरे के सामने उन्हें मान लेने के लिए कहने से भी से पूर्व। यहाँ पर हिन्दी में “मान लेने” अनुवाद किए गए के लिए जो मूल यूनानी भाषा में शब्द आया है वह है, ‘exomologeo (एक्सो-मोलो-जियो)’, जिसका अर्थ होता है स्वीकार कर लेना या (स्वीकृति के अभिप्राय से) पूर्णतः सहमत होना, (Strong’s Bible Dictionary).

इसे और बेहतर समझने के लिए, हमें इस विचार से संबंधित दो अन्य हवालों को ध्यान में रखना चाहिए। इन दो हवालों में पहला है, 1 यूहन्ना 1:8-10, जहाँ प्रेरित यूहन्ना, ‘हम’, तथा वर्तमान काल के ‘है’ (‘था’ की बजाए) के प्रयोग के द्वारा कह रहा है कि सभी – स्वयँ उसके सहित, पाप करते हैं, अब भी; और दूसरा हवाला है, गलातियों 6:1-2, जहाँ पौलुस प्रेरित अन्य मसीही विश्वासियों को उभार रहा है कि वे उन अन्य मसीही विश्वासियों को उठाने और बहाल करने में सहायक बनें जो किसी प्रकार से किसी ‘अपराध’ या परीक्षा’ में गिर गए हैं, अर्थात जिन्होंने कुछ गलत कर दिया है; और साथ ही सहायता करने वालों को स्वयँ भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे भी किसी भी समय ऐसी ही किसी परिक्षा में गिर सकते हैं। ये हवाले हमें इस तथ्य को सीखने और समझने में सहायता करते हैं कि बाइबिल के अनुसार, परिपक्व और स्थापित मसीही विश्वासियों की भी पाप में गिर जाने की संभावना बनी रहती है, वे अपराध कर सकते हैं, तथा उनसे अपेक्षित नैतिकता के स्तरों से गिर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, कोई भी ऐसा नहीं है जो सिद्ध हो या ठोकर खाने से ऊपर हो, प्रत्येक को सदा ही परमेश्वर के अनुग्रह की आवश्यकता बनी रहती है, प्रभु के प्रति सत्यनिष्ठ और खरा बने रहने के लिए प्रभु से क्षमा और सामर्थ्य की आवश्यकता रहती है, और ऐसे भी समय हो सकते हैं जब उन्हें प्रभु द्वारा किसी गलत बात से निकाले जाने की आवश्यकता पड़ जाए।

उपरोक्त को ध्यान में रखते हुए, हम वापस याकूब 5:16 पर आते हैं, और अब हम यह तात्पर्य समझ सकते हैं कि यह पद सिखा रहा है कि “अपनी दृष्टि में बहुत धर्मी मत बनो, और न ही ढोंगी बनो; अपने आप को ‘औरों से अधिक धर्मी’ मत समझो, यह धारणा मत रखो कि तुम अपने आस-पास के और सभी लोगों से बढ़कर या उत्तम हो। वरन, नम्र रहो तथा यही मानने या स्वीकार करने का रवैया रखो कि तुम भी ठोकर खा सकते हो, गिर सकते हो, इसलिए ‘आपस में एक दूसरे के साम्हने अपने अपने पापों को मान लो ’ अर्थात औरों के सामने यह मानने और स्वीकार करने का रवैया रखो कि तुम भी औरों के समान ही गलती करने तथा पाप में पड़ने की प्रवृत्ति रखते हो, और जब भी तुम ऐसे गिर जाओ तो अपनी बहाली के लिए तुम्हें भी औरों की सहायता तथा प्रार्थनाओं की आवश्यकता होगी।”

यह पद यह नहीं सिखा रहा है कि हम जब भी पाप में पड़ें तो अपने आस-पास के लोगों के सामने जाकर उन पापों का वर्णन करें, और हमारे ऐसा करने से उन पापों की क्षमा में सहायता होगी। वरन, इस पद का अभिप्राय है कि घमण्डी या हठधर्मी होने के स्थान पर, हमें नम्र तथा औरों द्वारा सुधारे जाने के प्रति खुले रहना चाहिए; जब भी कोई अन्य हम में कोई कमी या अनुचित बात देखे और उसे हमारे सामने लाए। जब भी हमारे पाप या अपराध हमारे सामने लाए जाते हैं, हमें दीन और नम्र होकर उन्हें स्वीकार (‘मान’) कर लेना वाला होना चाहिए। हमें अन्य मसीही विश्वासियों की प्रार्थनाओं की सहायता लेनी चाहिए कि हम ऐसे नम्र बने रहें, या यदि गलत परिस्थिति में आ गए हैं तो उससे निकाले जाएँ, क्योंकि परमेश्वर के लोगों की प्रार्थनाएं किसी भी परिस्थिति में बचाव और छुटकारे के लिए एक बहुत प्रभावी और कारगार उपाय हैं।