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गुरुवार, 21 मार्च 2019

लेंट और उपवास


प्रश्न:
क्या लेंट में उपवास करना चाहिए?
 उत्तर:
   ईस्टर, लेंट, लेंट का उपवास, क्रिसमस आदि किसी त्यौहार या परम्परा का बाइबल में कोई उल्लेख नहीं है, और न ही उन्हें मानने - मनाने से संबंधित कोई शिक्षा अथवा निर्देश दिए गए हैं। न ही कहीं यह कहा या जताया गया है की इनके मानने अथवा मनाने से कोई भी परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरा; या फिर नहीं मानने अथवा नहीं मनाने से अधर्मी ठहरा, या उसकी किसी आशीष में बढ़ती अथवा घटती हुई।

   परमेश्वर ने अपनी बुद्धिमत्ता में न तो प्रभु यीशु के जन्म की, और न ही उनके क्रूस पर चढ़ाए जाने की कोई तिथि बाइबल में दर्ज करवाई – जबकि समय का नाप और लेखा उत्पत्ति की पुस्तक से मिलता आया है – उत्पत्ति 7:4, 11; 8:4-5, 13-14; इसलिए यदि आवश्यक अथवा उपयोगी होता तो अपने एकलौते पुत्र से संबंधित ये इतनी महत्वपूर्ण क्रिसमस और ईस्टर की तारीखें भी परमेश्वर दर्ज करवा सकता था। किन्तु उसने ऐसा नहीं किया, और न ही कभी चाहा कि मनुष्य अपनी ओर से कोई तिथि निर्धारित करें या मनाएं; और न ही उन्हें मानने-मनाने से संबंधित कोई विधि अथवा निर्देश दिए। क्रिसमस और ईस्टर आदि, सभी गैर-मसीही त्यौहार हुआ करते थे जिन्हें मसीह यीशु में अपूर्ण विश्वास और समर्पण किए हुए लोगों ने मसीहियत में आने के बाद भी मनाना नहीं छोड़ा और उन्हें अपने पूर्व धर्मों के देवी-देवताओं के नाम से मनाने के स्थान पर ‘मसीही’ हो जाने के पश्चात मसीह यीशु के नाम से मनाना आरंभ कर दिया। ये सभी पर्व और परम्पराएं मनुष्यों द्वारा बनाए और स्थापित किए गए रीति-रिवाज़ हैं, जो कर्मों के द्वारा धर्मी प्रतीत होने का आडंबर करने के लिए प्रेरित करते हैं। किन्तु बाइबल के अनुसार इनका मनाया जाना व्यर्थ है (मत्ती 15:8-9), क्योंकि हमारे सभी धार्मिकता के कार्य परमेश्वर की दृष्टि में मैले चीथड़ों के समान हैं (यशायाह 64:6), और कर्मों के द्वारा कोई परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी नहीं ठहरता है (रोमियों 3:20, 28; रोमियों 4:2; रोमियों 11:6; इफिसियों 2:8-9; तीतूस 3:5)। परमेश्वर केवल अपने वचन की आज्ञाकारिता से प्रसन्न होता है (1 शमूएल 15:22)। उसे व्यर्थ के पर्व और बलिदानों आदि से घृणा है "तुम्हारे नये चांदों और नियत पर्वों के मानने से मैं जी से बैर रखता हूं; वे सब मुझे बोझ से जान पड़ते हैं, मैं उन को सहते सहते उकता गया हूं" (यशायाह 1:14; देखें यशायाह 1:11-18) परमेश्वर हम से चरित्र की उत्तमता तथा नम्रता, और उसके प्रति सच्चा समर्पण एवं आज्ञाकारिता चाहता है, मनुष्यों के अपने मन की इच्छानुसार गढ़े हुए पर्व मानना-मनाना नहीं (होशे 6:6; मीका 6:8)

   यदि प्रभु यीशु मसीह के चालीस दिन के उपवास के अनुसरण में लेंट का उपवास रखा जाता है तो प्रभु यीशु मसीह के इस उपवास के संबंध में बाइबल में लिखी कुछ बातों का भी अनुसरण होना चाहिए। प्रभु के इस उपवास का वर्णन मत्ती 4:1-11 तथा लूका 4:1-13 में हमें मिलता है। परमेश्वर के वचन के इन खण्डों के अध्ययन से हम सीखते हैं कि:
·         प्रभु यीशु मसीह ने 40 दिन का यह उपवास केवल एक बार, अपनी सेवकाई के आरंभ में रखा था, सेवकाई के अन्त में पकड़वाए और क्रूस पर चढ़ाए जाने के समय नहीं। और न ही वे इसे प्रतिवर्ष किसी नियत समयानुसार दोहराते रहे थे, जबकि फसह का पर्व इस्राएलियों द्वारा प्रतिवर्ष मनाया जाता था।
·         जैसे मत्ती 4:1 में आया है, उस उपवास के समय में प्रभु अकेले जंगल में थे, और उनके जंगल में जाने का उद्देश्य था कि प्रभु की इबलीस द्वारा परीक्षा की जाए । वे इस परिक्षा के लिए पवित्र आत्मा की अगुवाई से जंगल में गए थे (मत्ती 4:1), किसी परंपरा के निर्वाह के लिए नहीं।
·         उस समय वह 40 दिन तक पूर्णतः निराहार रहे थे (लूका 4:2)।
·         उन चालीस दिनों के उपवास के दौरान प्रभु उन सभी चालीस दिनों तक शैतान द्वारा परखे भी गए थे  (लूका 4: 1)। और फिर अन्त में उनकी वे तीन परीक्षाएं हुईं जिनका विवरण हम मत्ती 4:3-11 और लूका 4:3-13 में पाते हैं।
   क्या आज मनाए जाने वाले लेंट और उस दौरान रखे जाने वाले चालीस दिन के उपवास में इनमें से एक भी बात पाई जाती है? यदि नहीं, तो फिर यह प्रभु यीशु के उपवास का अनुसरण कैसे कहा जा सकता है? तो क्या यह प्रभु के नाम पर लोगों से झूठ बोलना, झूठी शिक्षा देना, और उन्हें निष्फल धोखे में रखना नहीं है?

   क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले प्रभु और उसके चेले किसी उपवास की दशा में नहीं थे, और उन्होंने फसह का पर्व मनाया, फसह का मेमना बलिदान किया और खाया (मत्ती 26:17-21)। इसलिए प्रभु यीशु के क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले 'उपवास' रखना और मांस न खाना, किसी रीति से बाइबल के अनुसार संगत नहीं है।

   साथ ही हम यह भी देखते हैं कि प्रभु यीशु ने कभी अपने किसी भी शिष्य से उसके सेवकाई आरंभ करने से पहले ऐसा कुछ भी करने के लिए नहीं कहा। और बाद में प्रेरितों के कार्य अथवा पत्रियों में, जहाँ मसीही विश्वासियों की शिक्षा और सुधार के विषय पवित्र आत्मा की अगुवाई और निर्देशानुसार बहुत सी बातें लिखी गई हैं, कभी इस प्रकार के किसी उपवास का कोई उल्लेख अथवा निर्देश नहीं आया है।

   ऐसे 'उपवास' का न तो कोई आधार है, न ही कोई आवश्यकता है, और न ही परमेश्वर की ओर से उसका कोई संज्ञान या प्रतिफल है – क्योंकि यह 'उपवास' परमेश्वर की ओर से स्थापित अथवा वाँछित कदापि नहीं है। आज लोग परंपरा के अन्तर्गत यशायाह 1:14-15 की अवहेलना करते हैं और मनगढ़ंत उपवास तथा उस उपवास के उद्देश्य निर्धारित कर लेते हैं। किन्तु वे फिर भी अपेक्षा करते हैं, तथा औरों को सिखाते हैं, कि यह करने और मनाने से परमेश्वर उनकी अपनी मनगढ़ंत धारणाओं को स्वीकार करने और उन्हें आशीष देने के लिए बाध्य है, और बाध्य होकर ऐसा करेगा भी!

   क्यों लोग व्यर्थ मनगढ़ंत परंपराओं का इतने उत्साह से पालन करने के स्थान पर, पहले परमेश्वर के वचन का अध्ययन करके उन बातों का पालन करना नहीं सीखते जिन्हें परमेश्वर चाहता है कि हम करें (1 थिस्सलुनीकियों 5:21)? क्यों वे परमेश्वर की आज्ञाकारिता के स्थान पर अंधी बुद्धि के साथ मनुष्यों की व्यर्थ विधियों को अधिक महत्व देते हैं जिनका बाइबल के अनुसार कोई आधार या औचित्य है ही नहीं; किन्तु परमेश्वर के आज्ञाकारी होने के प्रति इतना संकोच करते हैं; उसे सच्चा समर्पण नहीं करते हैं? क्यों?

इसलिये जब हम पर ऐसी दया हुई, कि हमें यह सेवा मिली, तो हम हियाव नहीं छोड़ते। परन्तु हम ने लज्ज़ा के गुप्‍त कामों को त्याग दिया, और न चतुराई से चलते, और न परमेश्वर के वचन में मिलावट करते हैं, परन्तु सत्य को प्रगट कर के, परमेश्वर के साम्हने हर एक मनुष्य के विवेक में अपनी भलाई बैठाते हैं। परन्तु यदि हमारे सुसमाचार पर परदा पड़ा है, तो यह नाश होने वालों ही के लिये पड़ा है। और उन अविश्वासियों के लिये, जिन की बुद्धि को इस संसार के ईश्वर ने अन्‍धी कर दी है, ताकि मसीह जो परमेश्वर का प्रतिरूप है, उसके तेजोमय सुसमाचार का प्रकाश उन पर न चमके। क्योंकि हम अपने को नहीं, परन्तु मसीह यीशु को प्रचार करते हैं, कि वह प्रभु है; और अपने विषय में यह कहते हैं, कि हम यीशु के कारण तुम्हारे सेवक हैं। इसलिये कि परमेश्वर ही है, जिसने कहा, कि अन्धकार में से ज्योति चमके; और वही हमारे हृदयों में चमका, कि परमेश्वर की महिमा की पहिचान की ज्योति यीशु मसीह के चेहरे से प्रकाशमान हो” (2 कुरिन्थियों 4:1-6)।