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शनिवार, 3 सितंबर 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 9 – आराधना द्वारा विजय


आराधना द्वारा विजय


हमने परमेश्वर की आराधना और महिमा विषय से आरंभ किया था, और यह देखा कि प्रार्थना परमेश्वर से पाने से संबंधित है जब कि आराधना परमेश्वर को देने से। परमेश्वर की आराधना तथा उसे देने की आशीष को सीखने तथा समझने के लिए हमने परमेश्वर के वचन में से परमेश्वर को देने और परमेश्वर से पाने से संबंधित कुछ उदाहरणों को देखा; ये उदाहरण मुख्यतः पार्थिव और भौतिक वस्तुओं से संबंधित हैं, परन्तु इनमें एक आत्मिक पक्ष भी विद्यमान है।

हम उदाहरणों की इस श्रंखला का अन्त एक ऐसे उदाहरण से करेंगे जो दिखाता है कि कैसे आराधना के द्वारा विजय और बहुतायत की आशीषें प्राप्त हुईं। कृपया 2 इतिहास 20 को पढ़ें; स्थान के अभाव के कारण इस अध्याय पर पूरी व्याख्या करना यहाँ संभव नहीं होगा। बहुत संक्षिप्त में, परमेश्वर के भय में चलने वाले राजा यहोशापात को पता चलता है कि उस पर तीन जातियाँ, अम्मोनी, मोआबी और एदोमी, मिलकर आक्रमण करने वाली हैं। अपनी इस विकट परिस्थिति का एहसास होने पर, वह सारी परिस्थिती परमेश्वर के हाथों में समर्पित कर देता है, और अपनी सारी प्रजा के साथ परमेश्वर द्वारा छुटकारा पाने के लिए उससे प्रार्थना में लग जाता है। परमेश्वर उसे आश्वासन देता है कि परमेश्वर यहोशापात के लिए लड़ेगा और यहोशापात को कोई हानि उठानी नहीं पड़ेगी; उसे केवल अपनी सेना को तैयार करके युद्ध भूमि पर ले जाना होगा, युद्ध की सी पांति बान्ध कर उन्हें खड़ा करना होगा और फिर शान्त होकर खड़े रहें और परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य को देखें (2 इतिहास 20:14-17)। यहोशापात और उसकी प्रजा ने परमेश्वर के इस सन्देश पर विश्वास किया, उसको स्वीकार किया और इसके लिए परमेश्वर की आराधना करी (पद 18-19)। अगले दिन राजा यहोशापात अपने सेना को लेकर युद्ध भूमि पर गया, और उसने सेना के आगे परमेश्वर की आराधना और स्तुति करते हुए चलने वाले लोगों को रखा (पद 21); फिर, "जिस समय वे गाकर स्तुति करने लगे, उसी समय यहोवा ने अम्मोनियों, मोआबियों और सेईर के पहाड़ी देश के लोगों पर जो यहूदा के विरुद्ध आ रहे थे, घातकों को बैठा दिया और वे मारे गए" (2 इतिहास 20:22)। उन आक्रमणकारियों का अन्त हो जाने के पश्चात, यहोशापात और उसके लोगों को मृत आक्रमणकारियों पर से लूट का माल एकत्रित करने के लिए तीन दिन का समय लग गया (पद 24-25); जिसके पश्चात वे सब लोग बराका नाम तराई में परमेश्वर की आराधना के लिए एकत्रित हुए (पद 26-27)

ध्यान कीजिए, इस पूरी घटना में यहोशापात और उसके लोगों द्वारा प्रार्थना करने का उल्लेख एक बार हुआ है, परन्तु आराधना करने का उल्लेख तीन बार हुआ है; और इन तीन में से पहले दो अवसर ऐसे थे जिनमें परिस्थितियाँ बड़ी विकट और भयावह थीं, विनाश और मृत्यु उनके सामने मूँह बाए खड़े थे। साथ ही अब एक बार और यहजीएल में होकर उन लोगों को पहुँचाए गए परमेश्वर के सन्देश को ध्यान से पढ़ें (2 इतिहास 20:14-17); आप कहीं नहीं पाएंगे कि परमेश्वर ने उन लोगों को आराधना करने का कोई आदेश दिया - परमेश्वर ने केवल यह कहा कि वे युद्ध-भूमि पर जाएं, अपने आप को वहाँ खड़ा करें, और शान्त होकर उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य को देखें। किंतु परमेश्वर में तथा उसके द्वारा उन्हें जिस परिणाम का वायदा मिला था, उसमें उन लोगों के विश्वास ने उन्हें परमेश्वर के द्वारा कुछ भी किए जाने से पहले ही उस कार्य के लिए परमेश्वर की आराधना करने को प्रेरित किया; और युद्ध के बाद मिली विजय के लिए आराधना करी गई तो समझ में आती है। युद्ध भूमि यह उनकी आराधना ही थी जिसके आरंभ होने के साथ ही परमेश्वर का कार्य भी आरंभ हो गया (पद 22) और शत्रु का नाश हो गया। उन लोगों द्वारा परमेश्वर को आराधना के दिए जाने के कारण ना केवल उन्हें एक अप्रत्याशित विजय मिली, परन्तु साथ ही ईनाम के रूप में बहुतायत से संपदा भी मिल गई।

अपने जीवन में कठिन तथा समझ से बाहर परिस्थितियों में भी चिंता, शिकायत, कुड़कुड़ाने, निराश होने और ऐसी परिस्थितियों से निकलने के लिए संसार और उसके लोगों का सहारा लेने की बजाए, उन परिस्थितियों में तथा उन परिस्थितियों के लिए परमेश्वर की आराधना करना सीखें; परिणाम आपकी कलपना से भी बढ़कर आशचर्यजनक और लाभप्रद होंगे।


अब आगे हम उन बाधाओं को देखना आरंभ करेंगे जो हमारी आराधना में आड़े आती हैं, उन बातों को जिनके कारण हम परमेश्वर की आराधना करने नहीं पाते हैं।