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शनिवार, 21 सितंबर 2019

कलीसिया के लोगों से सांसारिक वस्तुएँ लेना



प्रश्न: क्या चर्च के पादरी, या अगुवों और प्राचीनों का चर्च के लोगों से उत्तम वस्तुओं की माँग करना बाइबल के अनुसार उचित है?

 उत्तर:
           आज जिन्हें पास्टर, या अगुवे, या परमेश्वर के दास कहा जाता है, मूल यूनानी भाषा में उनके लिए नए नियम में प्रयुक्त शब्द का शब्दार्थ है “चरवाहा”, जिसे “रखवाला” भी कहा गया है। आरंभिक कलीसिया में इस सेवकाई, तथा कलीसिया के प्रबंधन से संबंधित अन्य दायित्वों के निर्वाह के लिए उपयुक्त लोगों को स्वयं परमेश्वर ही नियुक्त करके देता था (प्रेरितों 20:28; 1 कुरिन्थियों 12:28; इफिसियों 4:11)। उस समय न तो कोई बाइबल स्कूल अथवा कॉलेज थे, न ही थियोलोजी या धर्म-ज्ञान की कोई डिग्री की कोई आवशयकता थी, जिसके आधार पर कलीसिया के दायित्व सौंपे जाएँ। कलीसिया के कार्यों के लिए अगुवाई करने की नियुक्ति परमेश्वर अपने मानकों के आधार पर, और व्यक्ति के मसीही विश्वास में सत्यनिष्ठा और दृढ़ता तथा परमेश्वर के प्रति समर्पण के आधार पर करके देता था। परमेश्वर द्वारा कलीसिया की अगुवाई के लिए दायित्वों का यह निर्धारण किसी मनुष्य की किसी भी सांसारिक योग्यता, या उसके अध्ययन-स्तर, समाज में स्थान, उसकी आयु, वरिष्ठता और अनुभव, अथवा अन्य किसी सांसारिक आधार पर नहीं किया जाता था। जैसे-जैसे सुसमाचार का प्रचार और प्रसार हुआ तथा विश्वासी जन अपने मसीही विश्वास में परिपक्व तथा दृढ़ होते गए, तब परमेश्वर ने इन आरंभिक अगुवों को कुछ माप-दण्ड सौंप कर, उनके आधार पर कलीसिया के अगुवे नियुक्त करने के लिए कहा (प्रेरितों 14:23; तीतुस 1:5-9; 1 तिमुथियुस 3:1-7); ये अध्यक्ष, या अगुवे, कलीसिया की आवश्यकतानुसार, एक से अधिक भी हो सकते थे (फिलिप्पियों 1:1)। वर्तमान में देखी जाने वाली प्रवृत्तियां, एक तो यह कि किसी शैक्षिक योग्यता, सांसारिक हैसियत, या वोट प्राप्त कर लेने के आधार पर, कलीसिया का अगुवा बनना; तथा दूसरी यह, कि कलीसिया की उन्नति एवँ देखभाल करने को केवल कुछ ही लोगों का दायित्व समझना, ये न तो परमेश्वर से हैं और न ही बाइबल में दी गई विधि हैं, वरन यह भ्रष्ट मनुष्यों द्वारा परमेश्वर की विधियों में लाए गए बिगाड़ से आई हुई प्रथा है।

           साथ ही, एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण पहलू है जिसका ध्यान रखना और उस पर गहन विचार करना अत्यंत आवश्यक है; वह है कलीसिया में कुछ लोगों की ज़िम्मेदार पदों पर नियुक्ति का अर्थ यह नहीं है कि मण्डली के शेष लोगों को कलीसिया और विश्वास से संबंधित दायित्वों में कोई रुचि लेने की आवश्यकता नहीं है। कलीसिया के आरंभ से ही सभी मसीही विश्वासियों को “राजपद धारी याजकों का समाज” माना गया है (1 पतरस 2:9), परमेश्वर के लिए निर्धारित “याजक” कहा गया है (प्रकाशितवाक्य 1:6), जो कि पुराने नियम से लिया गया विचार और ओहदा है, जिसके अन्तर्गत नियुक्त व्यक्ति परमेश्वर का सेवक और परमेश्वर की बातों को लोगों तक पहुँचाने वाला होता था। इससे यह प्रगट है कि परमेश्वर की कलीसिया में परमेश्वर का “याजक” होना और परमेश्वर के लिए कार्य करना केवल किसी नियुक्त अध्यक्ष या अगुवे ही का दायित्व नहीं है, वरन परमेश्वर की दृष्टि में उसका प्रत्येक नया जन्म पाया हुआ विश्वासी जन “याजक” है, और उसे वैसे ही कार्य भी करना है। और जैसे याजकों के लिए न केवल परमेश्वर के प्रति समर्पित होना अनिवार्य था, परन्तु उन्हें परमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित भी होना होता था, वैसे ही आज प्रत्येक मसीही विश्वासी को भी ऐसा ही होना है – ने केवल परमेश्वर के प्रति समर्पित परन्तु पमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित भी। वास्तविकता यही है कि यही परमेश्वर के प्रति उनके प्रेम और समर्पण की एकमात्र पहचान है (यूहन्ना 14:21, 23-24), इसके अतिरिक्त व्यक्ति के परमेश्वर के प्रति समर्पित होने की और कोई पहचान बाइबल में नहीं दी गई है (1 यूहन्ना 2:3-6)। इस बात पर थोड़ा रुक कर गंभीरता से विचार कीजिए, कि यदि परमेश्वर की प्रत्येक नया जन्म पाई हुई सन्तान परमेश्वर का “याजक” होने के नाते, परमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित होने के लिए सच्ची लगन के साथ परिश्रम और प्रयास करे, तो क्या कोई भी गलत और झूठी शिक्षा का देने वाला या गलत “अगुवा” अपने गलत शिक्षाओं और बातों के द्वारा परमेश्वर के लोगों को बहका या बरगला सकेगा, जैसा के आज इतना अधिकाई से हो रहा है? और यह भी सोचिए कि तब कलीसिया कितनी सामर्थी और प्रभावी हो जाएगी!

           क्योंकि सभी मसीही विश्वासी परमेश्वर के “याजक” भी हैं, इसीलिए, परमेश्वर ने अपने सभी “याजकों,” अर्थात मसीही विश्वासियों के लिए कोई न कोई सेवकाई भी निर्धारित की है (इफिसियों 2:10), जिससे न केवल वह विश्वासी वरन संपूर्ण मण्डली भी लाभान्वित हो सके। तथा उस सेवकाई  के द्वारा, कलीसिया में सभी के लाभ के लिए, परमेश्वर ने प्रत्येक मसीही विश्वासी को कुछ न कुछ गुण या वरदान भी दिए हैं (रोमियों 12:4-8; 1 कुरिन्थियों 12:4-11), जिनके सदुपयोग के द्वारा कलीसिया उन्नति करे, कलीसिया के लोग प्रभु के लिए एक प्रभावी गवाह बनें, और उद्धार के सुसमाचार का प्रसार हो। इसलिए कलीसिया की उन्नति, सुचारू कार्य, कलीसिया की बातों के उचित प्रबंधन, और कलीसिया की आवश्यकताओं और दायित्वों के सही निर्वाह के लिए, प्रत्येक “याजक” अर्थात प्रत्येक मसीही विश्वासी को भी कलीसिया में अवश्य ही सक्रीय एवँ संलग्न रहना चाहिए।

           आरंभिक कलीसिया में अगुवे कलीसिया पर शासन या अधिकार रखने के लिए नहीं, वरन कलीसिया की सेवा के लिए होते थे। पतरस ने अपनी पहली पत्री में, प्रभु यीशु मसीह को “प्रधान रखवाला” कहा है, और कलीसियाओं पर नियुक्त किए गए “रखवालों” को कलीसिया के लोगों की सेवा के लिए निर्देश दिए हैं: “तुम में जो प्राचीन हैं, मैं उन की नाईं प्राचीन और मसीह के दुखों का गवाह और प्रगट होने वाली महिमा में सहभागी हो कर उन्हें यह समझाता हूं। कि परमेश्वर के उस झुंड की, जो तुम्हारे बीच में हैं रखवाली करो; और यह दबाव से नहीं, परन्तु परमेश्वर की इच्छा के अनुसार आनन्द से, और नीच-कमाई के लिये नहीं, पर मन लगा कर। और जो लोग तुम्हें सौंपे गए हैं, उन पर अधिकार न जताओ, वरन झुंड के लिये आदर्श बनो। और जब प्रधान रखवाला प्रगट होगा, तो तुम्हें महिमा का मुकुट दिया जाएगा, जो मुरझाने का नहीं” (1 पतरस 5:1-4)। इस खण्ड से स्पष्ट है कि अगुवों, या चरवाहों, या रखवालों को कलीसिया की सेवा करने वाला होना है, न कि कलीसिया से सेवा लेने वाला। अगुवे को कलीसिया के लोगों को परमेश्वर के वचन और आत्मिक जीवन की सही शिक्षा देनी है, उनके लिए आदर्श बनना है, उनकी सहायता एवं मार्गदर्शन करना है, उन पर अधिकार या रौब नहीं जताना है, और न ही उन्हें सांसारिक वस्तुओं की कमाई का माध्यम बनाना है। सच्चा अगुवा या रखवाला वही है जो परमेश्वर द्वारा दिए गए उपरोक्त निर्देशों को मानता है और प्रभु के भय में अपने झुण्ड की देखभाल और रखवाली करता है, अपने झुण्ड से सांसारिक वस्तुएँ कमाने के लिए नहीं वरन परमेश्वर द्वारा उसे सौंपे गए दाय्तिवों के निर्वाह के लिए, इस एहसास के साथ कि एक दिन उस झुण्ड की स्थिति और सलामती का सारा हिसाब-किताब उसे प्रभु को अवश्य ही देना होगा, क्योंकि प्रभु सभी से यह हिसाब बुलाकर लेगा (मत्ती 25:19), बचेगा कोई नहीं।

           कलीसिया के लोगों की भी ज़िम्मेदारी है कि जो लोग प्रभु की ओर से उनमें सेवकाई के लिए नियुक्त किए गए हैं, और उस सेवकाई का निर्वाह कर रहे हैं, उनकी बिना किसी संकोच या हिचकिचाहट के, ठीक से देखभाल करे और उनकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का ध्यान रखे (1 कुरिन्थियों 9:1-14; गलातियों 6:6; 1 थिस्सलुनीकियों 5:12-13; 1 तिमुथियुस 5:17-18; इब्रानियों 13:7, 17)। यहाँ ध्यान की जाने वाली एक महत्वपूर्ण बात यह है कि बाइबल के इन सभी हवालों में यह बात व्यक्त अथवा निहित है कि पहला दायित्व सेवक द्वारा कलीसिया की उचित एवँ उपयुक्त देखभाल करने का है, जिसके प्रत्युत्तर में कलीसिया के लोगों को उस सेवक की देखभाल करने के लिए कहा गया है। अर्थात सेवक का पहला कर्तव्य है कलीसिया को देना – अपना समय, अपने गुण या योग्यताएँ, उसे प्रदान की गई वचन की समझ एवँ ज्ञान, कलीसिया के लोगों की सेवा, आदि। और फिर अपनी उसी सेवा के आधार पर ही वह कलीसिया के लोगों से अपनी भौतिक आव्श्यक्ताओं की पूर्ति करने की अपेक्षा रख तो सकता है। किन्तु लोगों से ऐसा करने की माँग करना या ऐसा करने के लिए कलीसिया के लोगों को बाध्य करना बाइबल में कहीं नहीं दिया गया है; पुराने नियम में भी नहीं।

           पुराने नियम में लेवी के गोत्र को परमेश्वर ने कनान में कोई भूमि आवंटित नहीं की थी; लेवी के घराने के लोगों, अर्थात लेवियों और याजक समाज का भरण-पोषण मंदिर में भेंट और चढ़ावे के लिए लाए जाने वाले पशुओं, फसलों, दश्मांशों और अन्य सामग्री द्वारा किया जाता था (गिनती 5:9; 18:24; व्यवस्थाविवरण 14:29)। इसके लिए परमेश्वर द्वारा यह निर्धारित था कि आराधनालय में भेंट करने या चढ़ाने के लिए जो भी लाया जाता था, वह चाहे पशु हो अथवा वनस्पति, उसे उत्तम गुणवत्ता का होना आनिवार्य था (लैव्यवस्था 22:18-25; 22:22)। किसी भी प्रकार का दोषयुक्त पशु या सामग्री भेंट के लिए नहीं लाई जा सकती थी; ऐसा करना परमेश्वर का अपमान करना था (मलाकी 1:8)। इसलिए यह कहा जाता है कि ‘परमेश्वर के दास’ के लिए उत्तम वस्तुएँ लानी चाहिएँ। लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है वरन इससे बहुत बढ़कर है; परमेश्वर ने केवल यह ही निर्धारित नहीं किया था कि उत्तम वस्तुएँ लाई जाएँ, उसने साथ ही यह भी निर्धारित करके दिया था कि क्या लाना है, कितना लाना, कब लाना है, और उसे कैसे अर्पित करना है। लेवी या याजक इन बातों को निर्धारित नहीं करते थे, वे केवल परमेश्वर द्वारा निर्धारित बातों का निर्वाह करते थे और लाई गई भेंट को स्वीकार करते थे। जब मंदिर के अधिकारियों ने परमेश्वर की निर्देशित विधि को बिगाड़ दिया, तब प्रभु यीशु ने इसके लिए उनकी भर्त्सना भी की (यूहन्ना 2:13-16; मत्ती 21:13)। किन्तु आधारभूत वास्तविकता यह थी कि जो लाया जाता था वह परमेश्वर को अर्पित करने के लिए लाया जाता था न कि याजक को देने के लिए। यद्यपि उस भेंट का प्रयोगकर्ता अन्ततः याजक या लेवी ही होता था, फिर भी जो कुछ भी आराधनालय में भेंट में चढ़ाए जाने के लिए लाया जाता था, वह विधि अनुसार परमेश्वर को चढ़ाए जाने के बाद ही याजक के उपयोग के लिए होता था। बाइबल में हम यह भी देखते हैं कि एली के पुत्रों ने परमेश्वर के इन निर्देशों की अवहेलना की और बहुत भारी दण्ड चुकाया (1 शमूएल 2:12-17, 22-25, 30-34)। इसके अतिरिक्त, याजक का यह दाय्तिव भी था कि वह परमेश्वर का दूत बनकर लोगों को परमेश्वर के वचन की सही शिक्षा भी दे (मलाकी 2:7)। कहने का तात्पर्य यह है कि निःसंदेह याजक, लोगों की उत्तम भौतिक वस्तुओं का हकदार था, परन्तु साथ ही वह उत्तम आत्मिक बातें एवँ सेवा लोगों को देने के लिए भी उतना ही उत्तरदायी भी था।

           जैसा ऊपर कहा गया है, पुराने नियम के समय में भेंट और बलिदान मंदिर में व्यवस्था की बातों को पूरा करने के अन्तर्गत, याजकों को देने के लिए नहीं परन्तु परमेश्वर को देने के लिए, अनिवार्यतः लाए जाते थे; और परमेश्वर को अर्पित होने बाद ही फिर वहाँ से याजकों में बांटे जाते थे। जबकि अब नए नियम की कलीसिया में भेंट के लिए कोई सामग्री लाने का कोई निर्देश नहीं है; यद्यपि ऐसा करना वर्जित तो नहीं है, किन्तु यह करना केवल स्वेच्छा से है, अनिवार्य नहीं है। यह बात तब में और अब में यह एक बहुत महत्वपूर्ण अन्तर है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। वर्तमान में जो व्यक्ति परमेश्वर के दास को कुछ दे रहा है, वह अपनी इच्छा से दे रहा है, ऐसा करने के लिए वह बाध्य नहीं है। न ही यह आवश्यक है कि अगुवे को दी जाने वाली वस्तु परमेश्वर को अर्पित भेंट समझी जाए, या परमेश्वर को अर्पित किए जाने बाद ही कलीसिया के अगुवे को दी जाए। पुराने नियम की भेंटों की तुलना में, नए नियम की कलीसियाओं में भेंट देना, पूर्णतः देने वाले पर निर्भर है (2 कुरिन्थियों 9:7)। किसी भी व्यक्ति को परमेश्वर के नाम से बाध्य करके उससे अपनी आवश्यकता के लिए कुछ ऐंठना सर्वथा अनुचित है, परमेश्वर के नाम और वचन का दुरूपयोग है।

           यदि कलीसिया का कोई अगुवा कलीसिया के लोगों से उत्तम पाने की लालसा इसलिए रखता है क्योंकि पुराने नियम में याजक, लेवी, और मंदिर के सेवक को उत्तम पहुंचता था, तो फिर उस अगुवे को पुराने नियम के उस याजक या मंदिर के सेवक के समान भौतिक संपत्ति – विशेषकर भूमि से संबंधित, न रखने, एवँ आराधनालय तथा वचन की सेवा करने से संबंधित दायित्व का भी वैसा ही निर्वाह भी करना चाहिए। अर्थात वर्तमान समय का वह अगुवा कलीसिया के लोगों से लेकर अपने लिए सांसारिक संपत्ति जोड़ने और बनाने की बजाए कलीसिया के लोगों के लिए एक आदर्श बने, और परमेश्वर के वचन का गहन अध्ययन करके परमेश्वर से ही वचन की शिक्षा प्राप्त करे, तथा परमेश्वर के लोगों को वचन की सही शिक्षाएँ भी देने के लिए तत्पर और तैयार रहे। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि जब लेवियों और याजकों ने परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार अपने दायित्वों का निर्वाह नहीं किया तो परमेश्वर ने उन्हें दण्ड भी दिया (यहेजकेल 34:7-19; मलाकी 2:1-9)। उसी प्रकार से वर्तमान के उन अगुवों को जो पुराने नियम के निर्देशों के आधार पर कलीसिया से उत्तम प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें यह ध्यान भी रखना चाहिए कि यदि वे कलीसिया में परमेश्वर की इच्छानुसार सेवकाई नहीं करेंगे तो परमेश्वर फिर उन्हें भी उन अनाज्ञाकारी याजकों और लेवियों के समान ही दण्डित भी करेगा।

           आज परमेश्वर के दास से अपेक्षित है कि वह अपने प्रथम कर्तव्य, अर्थात कलीसिया की सेवा करने में उद्यमी रहे, जैसा कि पौलुस ने अपने जीवन के उदाहरण से सिखाया है – 1 थिस्सलुनीकियों 2 अध्याय पढ़िए; यहाँ अपनी सेवकाई का वर्णन करते हुए 9 पद में पौलुस यह भी लिख रहा है कि वह किसी पर बोझ नहीं बना, वरन परिश्रम करके वह स्वयँ ही अपना भरण-पोषण करता था, और ऐसा करते हुए वह साथ ही बहुत परिश्रम तथा लगन के साथ परमेश्वर के वचन को भी सिखाता और सुनाता था  (साथ ही प्रेरितों 18:3; प्रेरितों 20:34-35; 1 कुरिन्थियों 4:12; 1 थिस्सलुनीकियों 4:11; 2 थिस्सलुनीकियों 3:8-9 भी देखें)। साथ ही, यह सिखाने के बाद कि कलीसिया को परमेश्वर के सेवकों का ध्यान करना चाहिए उनकी आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिए, 1 कुरिन्थियों 9:15 में पौलुस अपनी सेवकाई के बदले में स्वयँ के लिए कलीसिया से कुछ लेने से स्पष्ट और बलपूर्वक मना करता है; सेवकाई के बदले लोगों से कुछ लेने की बजाए वह मर जाना अधिक उत्तम समझता है। यदि आज कलीसिया के अगुवे, या परमेश्वर के दास को परमेश्वर के वचन से उदाहरण, आधार, और आदर्श लेकर कलीसिया से कुछ भौतिक वस्तुएँ प्राप्त करने की अपेक्षा रखनी है तो फिर पुराने नियम के आधार पर क्यों? वर्तमान के लिए दिए गए नए नियम में पौलुस के उदाहरण से वे प्रेरणा और शिक्षा क्यों नहीं लेते हैं (1 कुरिन्थियों 11:1; 2 थिस्सलुनीकियों 3:9)? वे पौलुस को अपना आदर्श बनाकर उसका अनुसरण क्यों नहीं करते हैं?

           दुःख की बात है कि वर्तमान में परमेश्वर के वचन और कार्य के प्रति ऐसा अपेक्षित एवँ वाँछित समर्पण बहुत कम ही देखने को मिलता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लगभग सभी कलीसियाओं में परमेश्वर के नियमों और विधियों के स्थान पर, उनके डिनौमिनेशन या मत के अनुसार, मनुष्यों द्वारा, परमेश्वर के नाम से प्रतिपादित नियम और विधियाँ लागू कर दी गई हैं। अब यद्यपि कलीसिया के ऐसे प्रबंधकों को परमेश्वर के वचन को तोड़ने और उसकी अनाज्ञाकारिता करने में लेश-मात्र भी ग्लानि अथवा हिचकिचाहट नहीं होती है; फिर भी वे इस बात पर बहुत दृढ़ और कठोर रहते हैं कि उनके द्वारा दिए गए नियमों का पूर्णतः पालन हो, कोई अवहेलना न हो, अन्यथा परिणाम अच्छे नहीं होंगे। कलीसिया के सभी दायित्वों के निर्वाह के लिए नियुक्ति परमेश्वर के मानकों और उसकी विधि के अनुसार नहीं वरन मनुष्यों द्वारा स्थापित मानकों, योग्यताओं, गुणों, और डिनौमिनेशन या मत की विधियों के अनुसार की जाती है। इसीलिए कलीसिया के अगुवों के लिए यह अब परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपा गया दायित्व नहीं, अपितु “नौकरी” हो गया है, जिसपर उन्हें उस डिनौमिनेशन या मत के मानने वाले मनुष्यों ने नियुक्त किया है। और क्योंकि यह “नौकरी” मनुष्यों ने उन्हें मानवीय मानकों, गुणों, तथा “योग्यताओं” के आधार पर दी है, इसीलिए आज के अधिकांश अगुवे परमेश्वर को नहीं वरन अपने डिनौमिनेशन या मत के सांसारिक “अधिकारियों” को प्रसन्न करने की चेष्टा में रहते तथा कार्य करते हैं, क्योंकि वे अधिकारी न केवल उनके “नौकरी” में बने रहने को प्रभावित कर सकते हैं, वरन उनके भविष्य, उन्नति, और डिनौमिनेशन या मत के साथ जुड़ी उनकी संभावित भलाई को भी प्रभावित कर सकते हैं – यह पौलुस द्वारा गलातियों 1:10 में कही बात के साथ कैसा अद्भुत विरोधाभास प्रस्तुत करता है। इसलिए इसमें कोई अचरज की बात नहीं है कि यद्यपि वे परमेश्वर का नाम तो लेते हैं, परन्तु उनमें परमेश्वर का कोई भय नहीं है, उन्हें परमेश्वर को अपना हिसाब देने की कोई चिंता नहीं है, उन्हें सौंपी गई मण्डली के प्रति उनका केवल एक औपचारिक लगाव है, और वे परमेश्वर का नाम लेकर केवल अपना ही काम निकालना, अपनी ही इच्छाएं पूरी करना चाहते हैं। उनमें से कोई भी उनके अधिकारियों द्वारा किए जा रहे किसी भी गलत, या अनैतिक, या बाइबल की शिक्षाओं के प्रतिकूल बात के लिए न तो विरोध करता है और न ही कुछ बोलता है (गलातियों 2:11-18 के साथ तुलना कीजिए); वरन वे परमेश्वर का नाम लेते हुए औपचारिकता से काम करते रहते हैं, और उन ही ओहदों पर पहुँच कर वहाँ मिलने वाले सांसारिक लाभों का मज़ा लेने की लालसा रखते हैं (कुलुस्सियों 3:1-5 से तुलना कीजिए)। परमेश्वर का नाम और काम उनके लिए “पेट-पालने” का माध्यम बन गया है (रोमियों 16:18; फिलिप्पियों 3:19), और उनकी निष्ठा तथा समर्पण परमेश्वर के प्रति नहीं अपितु उनके सांसारिक “अधिकारियों” के प्रति हो गए हैं – पौलुस ने ऐसों को “मसीह के क्रूस के बैरी” बताया है (फिलिप्पियों 3:18)।

           यह कलीसिया के लोगों और अगुवों, दोनों को ही परमेश्वर की ओर से दी गई ज़िम्मेदारी है कि वे अपने-अपने दायित्वों के अनुसार एक दूसरे की आवश्यक्ताओं का ध्यान रखें, एक-दूसरे की आवश्यक्ताओं की पूर्ति करें, और सदा इस बात का ध्यान रखें कि एक दिन, उन्हें अपने-अपने दायित्वों के निर्वाह का उत्तर प्रभु को अवश्य ही देना होगा, और प्रभु से अपना प्रतिफल भी उसी के अनुसार लेना होगा; न तो कोई प्रभु को उत्तर देने से और न ही कोई प्रभु से अपने किए के प्रतिफल को लेने से बच सकता है । तैयार रहें; हिसाब लेने और देने का वह दिन शीघ्र ही आने वाला है।