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गुरुवार, 19 मार्च 2020

मसीही विश्वास का आधार – संक्षेप में



बाइबल परमेश्वर का एकमात्र, अनंत, पूर्णतया दोष-रहित, कभी गलत नहीं ठहरने वाला, कभी न बदलने या बदला जा सकने वाला वचन है: “तेरा सारा वचन सत्य ही है; और तेरा एक एक धर्ममय नियम सदा काल तक अटल है” (भजन 119:160)। यह अनन्त काल के लिए स्वर्ग में स्थापित है: “हे यहोवा, तेरा वचन, आकाश में सदा तक स्थिर रहता है (भजन 119:89), और स्वयं प्रभु यीशु के अपने शब्दों में, अंत के समय, हम इसी वचन के द्वारा जांचे जाएंगे: “जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहराने वाला तो एक है: अर्थात जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा” (यूहन्ना 12:48).

बाइबल को वचन भी कहा जाता है और यह स्वयं परमेश्वर का लिखित रूप में प्रकटीकरण है: “आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था” (यूहन्ना 1:1)। प्रभु यीशु मानव रूप में परमेश्वर का अवतार, जीवित वचन हैं, “और वचन देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण हो कर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते की महिमा” (यूहन्ना 1:14), और वे उनकी उपाधिपरमेश्वर का पुत्र के द्वारा भी जाने जाते हैं जो बस प्रभु को संबोधित करने की एक उपाधि है; यह परमेश्वर के साथ उनके किसी पारिवारिक संबंध को नहीं दिखाती है: “स्वर्गदूत ने उसको उत्तर दिया; कि पवित्र आत्मा तुझ पर उतरेगा, और परमप्रधान की सामर्थ्य तुझ पर छाया करेगी इसलिए वह पवित्र जो उत्पन्न होनेवाला है, परमेश्वर का पुत्र कहलाएगा” (लूका 1:35)। बाइबल की विषय-वस्तु प्रभु यीशु हैं, और उनके बारे हमारी जानकारी के लिए जो भी आवश्यक है वह सब बाइबल में दिया गया है। अपने पृथ्वी के समय में प्रभु यीशु ने पापों से पश्चाताप और परमेश्वर के राज्य के बारे में प्रचार किया: “…यीशु ने गलील में आकर परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार प्रचार किया। और कहा, समय पूरा हुआ है, और परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है; मन फिराओ और सुसमाचार पर विश्वास करो ” (मरकुस 1:14-15); और वे सब के लिए भलाई करते रहेपरमेश्वर ने किस रीति से यीशु नासरी को पवित्र आत्मा और सामर्थ्य से अभिषेक किया: वह भलाई करता, और सब को जो शैतान के सताए हुए थे, अच्छा करता फिरा; क्योंकि परमेश्वर उसके साथ था” (प्रेरितों 10:38).

उनके अपने शब्दों में, प्रभु यीशु इस संसार में पापियों को बचाने आए थे: “मैं धर्मियों को नहीं, परन्तु पापियों को मन फिराने के लिये बुलाने आया हूं” (लूका 5:32)। वे संसार को पापों के दुष्परिणाम से बचाने के लिए आए थे: “क्योंकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए। परमेश्वर ने अपने पुत्र को जगत में इसलिए नहीं भेजा, कि जगत पर दंड की आज्ञा दे परन्तु इसलिए कि जगत उसके द्वारा उद्धार पाए। जो उस पर विश्वास करता है, उस पर दंड की आज्ञा नहीं होती, परन्तु जो उस पर विश्वास नहीं करता, वह दोषी ठहर चुका; इसलिए कि उसने परमेश्वर के एकलौते पुत्र के नाम पर विश्वास नहीं किया” (यूहन्ना 3:16-18)। हमें हमारे पापों से बचाने के लिए, यद्यपि उन्होंने निष्पाप जीवन जीया था: “न तो उसने पाप किया, और न उसके मुंह से छल की कोई बात निकली” (1 पतरस 2:22), फिर भी उन्होंने संसार के सभी लोगों के समस्त पाप अपने ऊपर ले लिए, और अपने प्राण बलिदान कर के उनका दण्ड चुका दिया, और फिर अपने परमेश्वर होने के प्रमाण स्वरूप, वे तीसरे दिन मृतकों में से जीवित हो उठे: “उसी ने अपने आप को हमारे पापों के लिये दे दिया, ताकि हमारे परमेश्वर और पिता की इच्छा के अनुसार हमें इस वर्तमान बुरे संसार से छुड़ाए” (गलातियों 1:4); “…पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया। ओर गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा” (1 कुरिन्थियों 15:3-4)। अब, जो कोई भी, वह चाहे किसी भी देश, जाति, रंग, शैक्षिक स्तर, या सांसारिक ओहदे का हो या अन्य किसी भी सांसारिक आधार के होते हुए भी, अपनी इच्छा के द्वारा सच्चे और नम्र मन से प्रभु यीशु द्वारा पापों की क्षमा प्राप्त करने के लिए किए गए कार्य को स्वीकार कर लेता है, पश्चाताप कर के उन से पापों के लिए क्षमा माँगता है, और स्वेच्छा से अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित कर देता है, वह तुरंत ही सदा काल के लिए पापों से क्षमा पा लेता है और परमेश्वर की संतान हो जाता है: “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लोहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना 1:12-13); इस एक साधारण से विश्वास के कार्य के द्वारा जिसमें किसी भी मानवीय कार्य, या अनुष्ठान, या किसी भी अन्य मनुष्य की कोई भी मध्यस्थता की कोई आवश्यकता नहीं है: “क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है। और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे” (इफिसियों 2:8-9)। कोई भी, कभी भी, कहीं भी आप भी, इसी समय, अपने लिए यह कर सकते हैं: “यदि तू अपने मुंह से यीशु को प्रभु जान कर अंगीकार करे और अपने मन से विश्वास करे, कि परमेश्वर ने उसे मरे हुओं में से जिलाया, तो तू निश्चय उद्धार पाएगा। क्योंकि धामिर्कता के लिये मन से विश्वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुंह से अंगीकार किया जाता है” (रोमियों 10:9-10), सच्चे मन से की गई विश्वास की प्रार्थना के द्वारा, कि : “प्रभु यीशु कृपया मेरे पापों को क्षमा करें और मुझे स्वीकार कर लें। मैं अपना जीवन आपके हाथों में समर्पित करता हूँ।उद्धार का उनका यह प्रस्ताव पूर्णतः मुफ्त है तथा सभी के लिए खुला है, उनके पाप चाहे कैसे भी और कितने भी जघन्य क्यों न हों प्रभु की क्षमा मनुष्य की किसी भी निकृष्टता या पाप की सीमा से कहीं बढ़कर है।

प्रभु यीशु ही परमेश्वर तक पहुंचने का एकमात्र मार्ग हैं, “यीशु ने उस से कहा, मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता” (यूहन्ना 14:6); पापों से बचने का वे ही एकमात्र मार्ग हैं: “और किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिस के द्वारा हम उद्धार पा सकें” (प्रेरितों 4:12)। उनका राज्य इस जगत का नहीं है: “यीशु ने उत्तर दिया, कि मेरा राज्य इस जगत का नहीं, यदि मेरा राज्य इस जगत का होता, तो मेरे सेवक लड़ते, कि मैं यहूदियों के हाथ सौंपा न जाता: परन्तु अब मेरा राज्य यहां का नहीं ” (यूहन्ना 18:36)। यह संसार और इस संसार की सभी बातें तथा सभी सांसारिक लोग नाश हो जाएंगे: “तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्तुओं से प्रेम रखो: यदि कोई संसार से प्रेम रखता है, तो उस में पिता का प्रेम नहीं है। क्योंकि जो कुछ संसार में है, अर्थात शरीर की अभिलाषा, और आंखों की अभिलाषा और जीविका का घमण्ड, वह पिता की ओर से नहीं, परन्तु संसार ही की ओर से है। और संसार और उस की अभिलाषाएं दोनों मिटते जाते हैं, पर जो परमेश्वर की इच्छा पर चलता है, वह सर्वदा बना रहेगा” (1 यूहन्ना 2:15-17); इसलिए प्रभु यीशु तैयारी कर रहे हैं कि उनके चेले उनके साथ सदा काल के लिए स्वर्ग में रहें: “तुम्हारा मन व्याकुल न हो, तुम परमेश्वर पर विश्वास रखते हो मुझ पर भी विश्वास रखो। मेरे पिता के घर में बहुत से रहने के स्थान हैं, यदि न होते, तो मैं तुम से कह देता क्योंकि मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूं। और यदि मैं जा कर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूं, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहां ले जाऊंगा, कि जहां मैं रहूं वहां तुम भी रहो” (यूहन्ना 14:1-3)। अपने स्वर्गारोहण से ठीक पहले, प्रभु यीशु ने अपने चेलों को यह जिम्मेदारी दी कि वे सारे संसार में जाएं और किसी धर्म का नहीं तथा न ही किसी धर्म परिवर्तन का, वरन उनमें लाए गए विश्वास के द्वारा पापों से उद्धार के सुसमाचार (अच्छे समाचार) का प्रचार करें और सिखाएं, और संसार के सभी स्थानों के लोगों को प्रभु का चेला बनाएं, क्योंकि उन्होंने समस्त जगत के सभी लोगों के लिए उनके सभी पापों की कीमत को चुका दिया है: “यीशु ने उन के पास आकर कहा, कि स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अधिकार मुझे दिया गया है। इसलिए तुम जा कर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से बप्तिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ: और देखो, मैं जगत के अन्त तक सदैव तुम्हारे संग हूं” (मत्ती 28:18-20)

ध्यान कीजिए कि: मैं आज आकाश और पृथ्वी दोनों को तुम्हारे साम्हने इस बात की साक्षी बनाता हूं, कि मैं ने जीवन और मरण, आशीष और शाप को तुम्हारे आगे रखा है; इसलिए तू जीवन ही को अपना ले, कि तू और तेरा वंश दोनों जीवित रहें (व्यवस्थाविवरण 30:19) – इसलिए अपने लिए बुद्धिमत्ता से चुनाव कर लीजिए।

गुरुवार, 9 जनवरी 2020

प्रभु में विश्वास का प्राथमिक आधार – आश्चर्य कर्म, या परमेश्वर का वचन?



    प्रभु यीशु में हमारे विश्वास का प्राथमिक आधार प्रभु का वचन होना चाहिए, न कि उसके नाम में किए गए आश्चर्य कर्म। प्रभु यीशु ने अपनी सेवकाई का आरंभ प्रचार के द्वारा किया था, न कि आश्चर्य कर्मों के द्वारा (मरकुस 1:14-15)। जब प्रभु यीशु ने अपने बारह शिष्यों को चुना, उन्हें सामर्थ्य प्रदान की और उन्हें अपने प्रतिनिधि बनाकर उनकी प्रथम सेवकाई के लिए भेजा, तब प्रभु द्वारा उन्हें दी गई प्राथमिक आज्ञा थी कि वे जा कर प्रचार करें कि स्वर्ग का राज्य निकट है; आश्चर्य कर्म करने के लिए कहना प्रचार के बाद था (मत्ती 10:1, 5-8; मरकुस 3:14-15)। यहाँ पर ध्यान देने के लिए यह महत्वपूर्ण बात है कि जो उन आश्चर्य कर्मों के लिए संदेह करेंगे उनके विरुद्ध कुछ नहीं कहा गया है, परन्तु जो उस वचन का तिरस्कार करें उनके लिए एक भयानक भविष्य रखा है (मत्ती 10:14-15)। यहाँ पर एक और भी ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात है जिसे प्रभु यीशु ने उस समय के लिए कहा यदि ये शिष्य उनकी सेवकाई के कारण उच्च अधिकारियों के सामने ले जाए जाते। प्रभु ने उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसी परिस्थिति में उनके बचाव के लिए, उन्हें पवित्र आत्मा की सामर्थ्य द्वारा, बता दिया जाएगा कि क्या ‘कहें’, बजाय इसके कि क्या आश्चर्य कर्म ‘करें’ (मत्ती 10:18-20).

    युहन्ना 17 पढ़िए, जो प्रभु की वह महायाजकीय प्रार्थना है, जो उन्होंने क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़े जाने से पहले की थी। इस प्रार्थना में ध्यान कीजिए कि कैसे प्रभु बारंबार उस वचन पर ज़ोर दे रहे हैं जो उन्होंने अपने शिष्यों को दिया था, और जिसे उन्हें अपनी सेवकाई के दौरान औरों को पहुंचाना था। प्रभु के स्वर्गारोहण से ठीक पहले, जो महान आज्ञा प्रभु ने अपने शिष्यों को दी, वह थी कि वे जा कर उस वचन का प्रचार करें जिसे प्रभु ने उन्हें सौंपा था (मत्ती 28:18-20; प्रेरितों 1:8)। प्रथम कलीसिया का जन्म, जो हम प्रेरितों 2 में देखते हैं, पतरस द्वारा किए गए प्रचार से हुआ था न कि किसी आश्चर्य’ कर्म के द्वारा ‘अन्य भाषाएं’ बोलने के चमत्कार ने तो लोगों में असमंजस और उपहास उत्पन्न किया, विश्वास नहीं; किन्तु वचन के प्रचार के द्वारा पश्चाताप, विश्वास, और उद्धार आया। हम देखते हैं कि बाद में, जो मसीही विश्वासी सताव के कारण यरूशलेम से खदेड़े गए, वे भी वचन का प्रचार करते हुए गए (प्रेरितों 8:1-4)। पौलुस ने तिमुथियुस को बल देकर कहा कि परमेश्वर के वचन को सही रीति से और ठीक-ठीक सिखाया जाना चाहिए (2 तिमुथियुस 2:2, 15) क्योंकि वचन ही है जो विश्वास के द्वारा उद्धार प्राप्त करने के लिए बुद्धिमान बना सकता है (2 तिमुथियुस 3:14-17)

    प्रभु यीशु मसीह वचन हैं; वह वचन जो परमेश्वर के साथ है; वह वचन जो परमेश्वर है; वह वचन जिसने देहधारी होकर हमारे बीच में डेरा किया (यूहन्ना 1:1, 14) – वह, जो जीवित वचन है, वही जो मसीही विश्वास का विषय और आधार है। आश्चर्य कर्म विश्वास का आधार नहीं हैं, वरन जो वचन या सुसमाचार लोगों को सुनाया जाता है उसकी पुष्टि करने के चिन्ह हैं (मरकुस 16:15-20); सदा से ही परमेश्वर का वचन ही मसीही विश्वास का आधार रहा है। इसीलिए शैतान हमें सदा ही परमेश्वर के वचन से दूर ले जाने का प्रयास करता है, और ऐसा करने के लिए आश्चर्य कर्म और अद्भुत चिन्हों को विश्वास का आधार बनाना उसके धोखे और बहकावे के कार्यों में बहुत सहायक होते हैं। लोग, परमेश्वर के वचन के अध्ययन और आज्ञाकारिता में संलग्न होने के स्थान पर, ऐसी लालसाओं में पड़ जाते हैं कि वे भी आश्चर्य कर्म करने वाले हो जाएं, या आश्चर्य कर्मों के द्वारा उन्हें कुछ लाभ मिल जाए, या आश्चर्य कर्म करने वाले कहलाए जाने के द्वारा उनका नाम और ख्याति हो जाए, आदि।

    आश्चर्य कर्म तो शैतान, उसके दूत, और उसका अनुसरण करने वाले भी कर सकते हैं (निर्गमन 7:11-12, 22; 8:7; प्रेरितों 16:16-18; 2 थिस्सलुनीकियों 2:9-10; प्रकाशितवाक्य 13:11-15), और यदि व्यक्ति परमेश्वर के वचन – “सत्य में दृढ़ता से स्थापित न हो, तो शैतान के धोखों और अद्भुत चिन्हों द्वारा बहकाए जाने के द्वारा उन के विनाश में जाने का खतरा बना रहता है, उसी विनाश में जिसमें इस प्रकार के चिन्ह और अद्भुत कार्य करने वाले अंततः जाएंगे (प्रकाशितवाक्य 19:20; 20:10).

    इसलिए हमारे लिए यह सुनिश्चित कर लेना अनिवार्य है कि परमेश्वर और प्रभु यीशु मसीह में हमारा विश्वास किसी चिन्ह अथवा आश्चर्य कर्म आदि पर आधारित नहीं है वरन परमेश्वर के वचन जो अचूक और दोषरहित है, पर विश्वास लाने और भरोसा रखने पर आधारित है। हमें परमेश्वर के वचन बाइबल  को प्रार्थना सहित पढ़ने और उस पर मनन करने में समय बिताना चाहिए,और उसमें होकर परमेश्वर से मार्गदर्शन के खोजी होना चाहिए (1 शमुएल 3:21; भजन 119:105)। परमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित होना ही शैतान के द्वारा बहकाए जाने से बचे रहने का अचूक उपाय है इसके लिए कुलुस्सियों 2 पर भी मनन करें।

मंगलवार, 13 अगस्त 2019

क्या विश्वास से भटकने अथवा पीछे हटने वाले स्वर्ग जाएँगे?



प्रश्न:
एक बार जो व्यक्ति उद्धार पा गया तो क्या वह विश्वास से भटक जाने के बाद स्वर्ग जाएगा?

उत्तर:
जिसने भी उद्धार पाया है, अर्थात, स्वेच्छा तथा सच्चे मन से, अपने पापों से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु मसीह को अपना निज उद्धारकर्ता स्वीकार किया है, उससे अपने पापों की क्षमा माँगी है, और अपना जीवन उसे समर्पित किया है, परमेश्वर के अनुग्रह से केवल वही व्यक्ति स्वर्ग जाएगा – लेकिन मनुष्य की वास्तवक आत्मिक दशा केवल परमेश्वर ही जानता है, इसलिए कौन स्वर्ग जाएगा और कौन नहीं, इसका निर्धारण केवल परमेश्वर ही कर सकता है, और कोई नहीं।

परमेश्वर के वचन, बाइबल के अनुसार, यह बिलकुल स्पष्ट और स्थापित है कि उद्धार सदा काल के लिए है अर्थात ‘eternal’ है। इब्रानियों की पत्री का लेखक, प्रभु यीशु मसीह के द्वारा मनुष्यों को उद्धार प्रदान करने के लिए किए गए कार्यों के विषय लिखता है, “और पुत्र होने पर भी, उसने दुख उठा उठा कर आज्ञा माननी सीखी। और सिद्ध बन कर, अपने सब आज्ञा मानने वालों के लिये सदा काल के उद्धार (eternal salvation) का कारण हो गया” (इब्रानियों 5:8-9)। प्रभु यीशु मसीह ने भी कहा कि उस पर विश्वास लाए हुए उसके लोगों को वह अनन्त जीवन (अर्थात कभी समाप्त न होने वाला अक्षय जीवन, eternal life) प्रदान करता है, तथा साथ ही यह आश्वासन भी दिया कि कोई भी प्रभु या परमेश्वर के हाथों से उन अनन्त जीवन पाए हुओं को नहीं छीन सकता है (यूहन्ना 10:27-29) – प्रभु का यह वायदा बहुत ही गंभीर एवं बहुत महत्वपूर्ण तात्पर्य रखने वाला कथन है। प्रभु के इस वायदे के आधार पर, उद्धार खो देने का अभिप्राय होता है कि, शैतान ने किसी विधि से उन उद्धार पाए हुए व्यक्तियों को प्रभु या परमेश्वर के हाथ से छीन कर फिर से अपनी आधीनता में ले लिया है। यदि किसी भी प्रकार यह संभव होता, तो फिर तीन असंभव बातें संभव हो जाती हैं – पहली यह कि शैतान परमेश्वर से अधिक शक्तिशाली है; दूसरी यह प्रभु यीशु ने झूठ बोला, उसने झूठा आश्वासन दिया कि कोई भी उद्धार पाए हुओं को उसके या परमेश्वर पिता के हाथों से छीन नहीं सकता है; और तीसरी यह कि प्रभु को न शैतान की, न अपनी और न परमेश्वर की शक्ति की वास्तविकताओं का पता है, और वह यूं ही कुछ भी कहे जा रहा है! क्योंकि यह हो पाना पूर्णतः असंभव है, इसलिए प्रगट है कि कोई भी व्यक्ति, जिसने वास्तव में उद्धार पाया है, वह यूहन्ना 10:27-29 के आधार पर अपना उद्धार कभी भी नहीं खो सकता है। और क्योंकि उद्धार पाए हुओं पर दण्ड की कोई आज्ञा नहीं है (रोमियों 8:1), इसलिए जो वास्तव में उद्धार पाए हुए हैं, वे स्वर्ग में अवश्य ही प्रवेश करेंगे, चाहे विश्वास में उनकी परिपक्वता एवं स्थिति का स्तर कुछ भी क्यों न हो।

किन्तु यह बात केवल परमेश्वर ही जानता है कि कौन वास्तविक मसीही विश्वासी है और कौन नहीं। उदाहरण के लिए युहूदा इस्करियोती को ही लीजिए; वह प्रभु द्वारा बुलाया गया, प्रभु के साथ रहा, प्रभु से शिक्षा पाई, प्रभु की सामर्थ्य और निर्देशन द्वारा, अन्य शिष्यों के साथ सुसमाचार प्रचार पर भी गया और उनके साथ मिलकर प्रचार किया, आश्चर्यकर्म भी किए, किन्तु अन्त में वह प्रभु के द्वारा विनाश का पुत्रऔर नाश होने वालाकहा गया (यूहन्ना 17:12), और अनन्त विनाश में चला गया। प्रभु यीशु मसीह ने भी अपने पहाड़ी प्रचार के अन्त में कहा है कि हर कोई जो उन्हें हे प्रभुकहता है, वह स्वर्ग में प्रवेश नहीं करेगा, चाहे उन्होंने प्रभु के नाम में कई प्रकार के प्रचार, आश्चर्यकर्म, तथा अद्भुत एवँ उल्लेखनीय कार्य ही क्यों न किए हों – प्रभु ने उन लोगों के इन कामों को ‘कुकर्म’ कहा ; स्वर्ग में केवल वे ही प्रवेश करेंगे जो परमेश्वर पिता के आज्ञाकारी रहते हैं और परमेश्वर की इच्छे के अनुसार कार्य करते हैं (मत्ती 7:21-23)। इसलिए लोगों के प्रगट व्यवहार, प्रचार, और कार्यों के आधार पर हम किसी भी मनुष्य के विषय यह निश्चित नहीं कह सकते हैं कि प्रभु में विश्वास रखने का दावा करने और उसके नाम से प्रचार और कार्य करने वाला प्रत्येक व्यक्ति वास्तव में उद्धार पाया हुआ है भी कि नहीं! पौलुस ने भी इस बात के विषय सचेत किया और समझाया कि शैतान और उसके दूत भी ज्योतिर्मय स्वर्गदूतों और मसीह के प्रेरितों का स्वरूप धारण कर के लोगों को बहकाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15)। इसलिए व्यक्ति के उद्धार पाया हुआ होने की वास्तविकता तो केवल परमेश्वर ही जानता है, और वही इसका निर्णय कर सकता है, तथा करता है।

साथ ही, बाइबल यह भी कहती है कि ऐसे भी मसीही विश्वासी पाए जाएँगे जो सच्चे मन से पश्चाताप करके प्रभु के पास तो आए, वे वास्तव में उद्धार पाए हुए भी थे, किन्तु उन्होंने प्रभु के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जो जांचे जाने पर प्रतिफल दिए जाने के योग्य स्वीकार किया जाता। जब न्याय के समय उनके काम जांचे जाएँगे, तो वे उद्धार पाया हुआ होने के कारण स्वर्ग में तो प्रवेश करेंगे, परन्तु छूछे हाथ, बिना कुछ भी प्रतिफल लिए, और अनन्त-काल तक फिर ऐसे ही छूछे हाथ ही रहेंगे (1 कुरिन्थियों 3:9-15)। सँसार के सभी लोगों के समान, किए गए कर्मों के अनुसार, न्याय तो मसीही विश्वासियों का भी होगा, वरन न्याय आरंभ ही मसीही विश्वासियों से होगा (1 पतरस 4:17-18), परन्तु मसीही विश्वासियों का यह न्याय उनके उद्धार पाने के लिए नहीं, वरन अनन्तकाल के लिए उनके कर्मों के आधार पर उन्हें प्रतिफल दिए जाने के लिए होगा – उद्धार कर्मों के आधार पर नहीं है, परन्तु प्रतिफल कर्मों के आधार पर हैं। उद्धार तो केवल पापों से पश्चाताप और प्रभु यीशु पर लाए विश्वास के आधार पर परमेश्वर के अनुग्रह ही से है; किसी भी या कैसे भी कामों, अथवा प्रथाओं, या रीति-रिवाजों, या अनुष्ठानों/विधि-विधानों आदि के पालन के द्वारा कदापि नहीं है (इफिसियों 2:1-9)।

ऐसे भी अनेकों लोग हैं जो मसीही विश्वास में आने के पश्चात, किसी कारणवश विश्वास से भटक गए, परन्तु प्रभु ने अपने वायदे (इब्रानियों 13:5) के अनुसार, उन्हें कभी छोड़ा नहीं। देर-सवेर, किसी न किसी रीति से, प्रभु उन्हें फिर विश्वास में लौटा कर ले आया, और फिर वे बहुत सामर्थी होकर प्रभु के लिए इस्तेमाल हुए, विश्वास में अपने लौट कर आने की गवाही के द्वारा वे अनेकों अन्य भटके हुए या कमज़ोर विश्वासियों के लिए प्रोत्साहन और हिम्मत का कारण बने। यदि आज के संदर्भ से देखें, तो जब प्रभु यीशु ने कलवारी के क्रूस पर समस्त सँसार के पापों का दण्ड अपने ऊपर लिया, उस समय तो हमारा कोई भौतिक अस्तित्व था ही नहीं। साथ ही बाइबल में कहीं यह नहीं लिखा है कि प्रभु ने लोगों के केवल उन ही पापों को अपने ऊपर लेकर उनके दण्ड को सहा जो लोगों ने प्रभु के पास आने – अर्थात, उद्धार पाने से पहले किए थे; और उन लोगों के उद्धार पाने के बाद के पापों का निवारण प्रभु ने उन लोगों के हाथों में, उनके द्वारा किए गए कर्मों पर छोड़ दिया – यह तो असंभव है – उद्धार का एक भाग परमेश्वर के अनुग्रह पर, और दूसरा भाग मनुष्यों के कर्मों के आधार पर कैसे हो सकता है? प्रभु ने तो प्रत्येक व्यक्ति के समस्त जीवन में किए गए समस्त पापों की पूरी-पूरी कीमत क्रूस पर पहले ही चुका दी है, चाहे इतिहास में उसका अस्तित्व कभी भी हो। प्रभु ने उसके पापों के दुष्परिणाम से उस व्यक्ति के अधूरे नहीं परन्तु संपूर्ण निवारण का मार्ग बना कर दे दिया है; अब किसी भी मनुष्य के लिए उद्धार का जीवन जीने के लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहा है। जब व्यक्ति के जन्म से लेकर उसके मरण के समय तक के सभी पापों को प्रभु ने अपने ऊपर ले लिया, उनकी पूरी कीमत चुका दी, तो फिर उस व्यक्ति को स्वर्ग जाने से रोकने वाला कौन सा पाप बच गया? क्या उसके विश्वास से भटक जाने का पाप भी उसके जीवन के अन्य पापों में सम्मिलित नहीं है, जिसकी कीमत प्रभु द्वारा कलवारी के क्रूस पर चुकाई जा चुकी है? 

और यदि यह मान लिया जाए कि व्यक्ति उद्धार पाने के बाद अपने जीवन की शुद्धता और पवित्रता, तथा निष्पाप रहने को अपने ही प्रयासों, कार्यों, और सामर्थ्य से बनाए रख सकता है, तो फिर वह यही कार्य उद्धार पाने से पहले भी कर सकता था – फिर तो प्रभु का आना न केवल व्यर्थ हो गया, वरन पापी, मरणहर मनुष्य, प्रभु परमेश्वर से भी बढ़कर हो गया! क्योंकि फिर तो मनुष्य मात्र अपने कर्मों से ही वह कर सकने की क्षमता रखता है जिसके लिए प्रभु को स्वर्ग छोड़कर धरती पर मनुष्य रूप में आना पड़ा, दुःख और अपमान सहना पड़ा, और अपनी जान देनी पड़ी – यह तो पूर्णतः असंगत और असंभव विचार है! फिर, ऐसा कौन सा उद्धार पाया हुआ व्यक्ति है जो सच्चे मन से कहा सकता है कि उद्धार पाने के बाद उससे कभी भी – शरीर, मन, ध्यान, विचार में, कोई भी पाप नहीं हुआ? प्रेरित यूहन्ना कहता है: “यदि हम कहें, कि हम में कुछ भी पाप नहीं, तो अपने आप को धोखा देते हैं: और हम में सत्य नहीं। यदि कहें कि हम ने पाप नहीं किया, तो उसे झूठा ठहराते हैं, और उसका वचन हम में नहीं है” (1 यूहन्ना 1:8, 10) – ध्यान कीजिए कि वह प्रेरित और उद्धार पाया हुआ होने के बावजूद, “हम” शब्द के प्रयोग द्वारा, अपने आप को भी पाप करने वालों में सम्मिलित कर रहा है। तो फिर अब विश्वास से भटके और न भटके हुए में क्या अन्तर रह गया? पाप विश्वास से भटकने वाले ने भी किया, और पाप उन्होंने भी किया है और करते हैं जो अभी भी विश्वास में बने हुए हैं – और क्योंकि पाप की मजदूरी मृत्यु है (रोमियों 6:23), इसलिए दोनों ही समान स्थिति में हैं, और दोनों ही अपने कैसे भी कार्यों या कर्मों के द्वारा अथवा उनके आधार पर नहीं वरन प्रभु के अनुग्रह, क्षमा, और प्रेम द्वारा ही परमेश्वर के सम्मुख धर्मी ठहरते हैं, और दोनों ही फिर स्वर्ग जाने के लिए प्रभु के अनुग्रह और क्षमा द्वारा ही स्वीकार्य माने जाते हैं।

इसलिए ऐसे लोगों के लिए जो विश्वास से भटक गए हैं प्रार्थना करते रहना चाहिए, न कि उनकी भर्त्सना करनी चाहिए; और उनका विश्वास में लौट कर आना तथा प्रभु के लिए उपयोगी होना प्रभु के हाथों में, उसके समय और योजना के अनुसार, पूरा होने के लिए छोड़ देना चाहिए।

गुरुवार, 17 जनवरी 2019

गैर-मसीही वैवाहिक रीति-रिवाजों का मसीही विश्वास में स्थान


एक गैर-मसीही पृष्ठभूमि से मसीही विश्वासी हो जाने के पश्चात, क्या मसीही विश्वास उस भूत-पूर्व गैर-मसीही धर्म के रीति-रिवाजों के अनुसार एक अन्य मसीही विश्वासी से विवाह करने की अनुमति देती है?


जैसा आपको भली-भांति पता होगा, गैर-मसीही धर्मों के रीति-रिवाजों में उन देवी-देवताओं या अलौकिक सामर्थों का आह्वान किया जाता है जिन्हें उस धर्म में पूजनीय एवँ ईश्वरीय समझा जाता है। विवाह के वचन उन्हीं देवी-देवताओं तथा अलौकिक सामर्थों के नाम से लिए जाते हैं, इस विश्वास के साथ कि वे वहाँ उस विवाह के साक्षी बनकर उपस्थित हैं तथा भविष्य में वे ही विवाह की रक्षा और निश्चितता प्रदान करेंगे। इसका यह तात्पर्य हुआ कि उन रीति-रिवाजों में भाग लेने के द्वारा आप एक प्रकार से यह मान रहे हो कि प्रभु यीशु मसीह के अतिरिक्त भी ईश्वरीय शक्तियाँ हैं, और आप उन्हें सम्मानित करने तथा पूजने के लिए तैयार हैं, अपने जीवन में उनकी सामर्थ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, और भविष्य में भी अपने जीवन में ऐसे ही किसी भी अन्य अवसर पर उनके योगदान और स्थान को स्वीकार करते हैं। एक बार आप इस प्रकार के समझौते के लिए सहमत हो जाएँगे तो फिर इस आधार पर आपको बारंबार ऐसे ही समझौते करने के लिए बाध्य किया जा सकता है।

यह न केवल आपके अपने आत्मिक जीवन तथा प्रभु यीशु में विश्वास के लिए हानिकारक होगा, परन्तु अन्य अनेकों मसीही विश्वासियों के लिए भी ठोकर का कारण हो सकता है, जिससे आपके जीवन में प्रभु की ताड़ना को अवसर होगा (मरकुस 9:42)। किन्तु एक बार जब आप इस विषय पर एक दृढ़ निर्णय लेकर स्थिर खड़े हो जाएँगे, समझौता करने से इन्कार कर देंगे, तो प्रभु यीशु के प्रति आपके समर्पण की दृढ़ता तथा उसमें आपके विश्वास की स्थिरता सब पर प्रगट हो जाएगी, और वे अन्य अवसरों पर भी समझौता करने के लिए आपको उकसाने में संकोच करेंगे, तथा आप आत्मिक जीवन में और उन्नत तथा परिपक्व हो जाएँगे।

परन्तु मसीही विश्वास में दृढ़ होने में, औरों के प्रति नम्र और आदरपूर्ण भी बने रहें। मसीही विश्वास में दृढ़ होने का यह कदापि अर्थ नहीं है कि आप औरों की मान्यताओं, रीति-रिवाजों, और पूजनीय वस्तुओं के प्रति बुरा या उन्हें नीचा दिखाने या कटु शब्द कहने वाला व्यवहार रखें – ऐसा करने से बात केवल बिगड़ेगी, और आपकी कोई सहायता नहीं होगी, और इससे प्रभु यीशु के बारे में सुनने में उनकी रुचि उत्पन्न होने में बाधा आएगी। प्रभु यीशु के प्रति अपनी दृढ़ता दिखाने और अपने मसीही विश्वास के साथ समझौता न करने में उनकी मान्यताओं और पूजनीय वस्तुओं के प्रति हीनता की कोई टिप्पणी न करें।

यद्यपि सर्वोत्तम तो मसीही विश्वास के अनुसार मसीही रीति से विवाह करना है, किन्तु यदि इस बात की संभावना नहीं रहती है और कोई अन्य मार्ग नहीं बचता है तो ऐसे में, समझौते का एक संभव मार्ग है “कानूनी विवाह” या “न्यायालय में विवाह” कर लिया जाए, क्योंकि ऐसे विवाह में कोई धार्मिक अनुष्ठान या रीति-रिवाज़ नहीं होते हैं, इसलिए दोनों ही पक्ष दूसरे के धार्मिक अनुष्ठानों के निर्वाह करने या उन्हें चुनौती देने से बचे रह सकते हैं। ऐसे विवाह के पश्चात आप विवाह के प्रीति-भोज या समारोह में चर्च के अगुवों द्वारा नव-विवाहितों को आशीष देने का आयोजन कर सकते हैं; तथा उस समारोह में किसी प्रचारक या मसीही अगुवे के द्वारा वहाँ उपस्थित सभी परिवार जनों को सुसमाचार सन्देश देने का यह एक अच्छा अवसर भी हो सकता है। इस प्रकार से विवाह भी वैध तथा स्वीकार्य रहेगा, किसी के भी परिवार को धार्मिक आधार पर कोई ठेस नहीं पहुंचेगी, और समारोह में उपस्थित लोगों को उद्धार का सुसमाचार देने का अवसर भी मिल जाएगा।

शनिवार, 3 सितंबर 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 9 – आराधना द्वारा विजय


आराधना द्वारा विजय


हमने परमेश्वर की आराधना और महिमा विषय से आरंभ किया था, और यह देखा कि प्रार्थना परमेश्वर से पाने से संबंधित है जब कि आराधना परमेश्वर को देने से। परमेश्वर की आराधना तथा उसे देने की आशीष को सीखने तथा समझने के लिए हमने परमेश्वर के वचन में से परमेश्वर को देने और परमेश्वर से पाने से संबंधित कुछ उदाहरणों को देखा; ये उदाहरण मुख्यतः पार्थिव और भौतिक वस्तुओं से संबंधित हैं, परन्तु इनमें एक आत्मिक पक्ष भी विद्यमान है।

हम उदाहरणों की इस श्रंखला का अन्त एक ऐसे उदाहरण से करेंगे जो दिखाता है कि कैसे आराधना के द्वारा विजय और बहुतायत की आशीषें प्राप्त हुईं। कृपया 2 इतिहास 20 को पढ़ें; स्थान के अभाव के कारण इस अध्याय पर पूरी व्याख्या करना यहाँ संभव नहीं होगा। बहुत संक्षिप्त में, परमेश्वर के भय में चलने वाले राजा यहोशापात को पता चलता है कि उस पर तीन जातियाँ, अम्मोनी, मोआबी और एदोमी, मिलकर आक्रमण करने वाली हैं। अपनी इस विकट परिस्थिति का एहसास होने पर, वह सारी परिस्थिती परमेश्वर के हाथों में समर्पित कर देता है, और अपनी सारी प्रजा के साथ परमेश्वर द्वारा छुटकारा पाने के लिए उससे प्रार्थना में लग जाता है। परमेश्वर उसे आश्वासन देता है कि परमेश्वर यहोशापात के लिए लड़ेगा और यहोशापात को कोई हानि उठानी नहीं पड़ेगी; उसे केवल अपनी सेना को तैयार करके युद्ध भूमि पर ले जाना होगा, युद्ध की सी पांति बान्ध कर उन्हें खड़ा करना होगा और फिर शान्त होकर खड़े रहें और परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य को देखें (2 इतिहास 20:14-17)। यहोशापात और उसकी प्रजा ने परमेश्वर के इस सन्देश पर विश्वास किया, उसको स्वीकार किया और इसके लिए परमेश्वर की आराधना करी (पद 18-19)। अगले दिन राजा यहोशापात अपने सेना को लेकर युद्ध भूमि पर गया, और उसने सेना के आगे परमेश्वर की आराधना और स्तुति करते हुए चलने वाले लोगों को रखा (पद 21); फिर, "जिस समय वे गाकर स्तुति करने लगे, उसी समय यहोवा ने अम्मोनियों, मोआबियों और सेईर के पहाड़ी देश के लोगों पर जो यहूदा के विरुद्ध आ रहे थे, घातकों को बैठा दिया और वे मारे गए" (2 इतिहास 20:22)। उन आक्रमणकारियों का अन्त हो जाने के पश्चात, यहोशापात और उसके लोगों को मृत आक्रमणकारियों पर से लूट का माल एकत्रित करने के लिए तीन दिन का समय लग गया (पद 24-25); जिसके पश्चात वे सब लोग बराका नाम तराई में परमेश्वर की आराधना के लिए एकत्रित हुए (पद 26-27)

ध्यान कीजिए, इस पूरी घटना में यहोशापात और उसके लोगों द्वारा प्रार्थना करने का उल्लेख एक बार हुआ है, परन्तु आराधना करने का उल्लेख तीन बार हुआ है; और इन तीन में से पहले दो अवसर ऐसे थे जिनमें परिस्थितियाँ बड़ी विकट और भयावह थीं, विनाश और मृत्यु उनके सामने मूँह बाए खड़े थे। साथ ही अब एक बार और यहजीएल में होकर उन लोगों को पहुँचाए गए परमेश्वर के सन्देश को ध्यान से पढ़ें (2 इतिहास 20:14-17); आप कहीं नहीं पाएंगे कि परमेश्वर ने उन लोगों को आराधना करने का कोई आदेश दिया - परमेश्वर ने केवल यह कहा कि वे युद्ध-भूमि पर जाएं, अपने आप को वहाँ खड़ा करें, और शान्त होकर उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य को देखें। किंतु परमेश्वर में तथा उसके द्वारा उन्हें जिस परिणाम का वायदा मिला था, उसमें उन लोगों के विश्वास ने उन्हें परमेश्वर के द्वारा कुछ भी किए जाने से पहले ही उस कार्य के लिए परमेश्वर की आराधना करने को प्रेरित किया; और युद्ध के बाद मिली विजय के लिए आराधना करी गई तो समझ में आती है। युद्ध भूमि यह उनकी आराधना ही थी जिसके आरंभ होने के साथ ही परमेश्वर का कार्य भी आरंभ हो गया (पद 22) और शत्रु का नाश हो गया। उन लोगों द्वारा परमेश्वर को आराधना के दिए जाने के कारण ना केवल उन्हें एक अप्रत्याशित विजय मिली, परन्तु साथ ही ईनाम के रूप में बहुतायत से संपदा भी मिल गई।

अपने जीवन में कठिन तथा समझ से बाहर परिस्थितियों में भी चिंता, शिकायत, कुड़कुड़ाने, निराश होने और ऐसी परिस्थितियों से निकलने के लिए संसार और उसके लोगों का सहारा लेने की बजाए, उन परिस्थितियों में तथा उन परिस्थितियों के लिए परमेश्वर की आराधना करना सीखें; परिणाम आपकी कलपना से भी बढ़कर आशचर्यजनक और लाभप्रद होंगे।


अब आगे हम उन बाधाओं को देखना आरंभ करेंगे जो हमारी आराधना में आड़े आती हैं, उन बातों को जिनके कारण हम परमेश्वर की आराधना करने नहीं पाते हैं।