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सोमवार, 21 दिसंबर 2009

सम्पर्क मई २००९: अंधेरों में उजाले ढूँढती ज़िन्दगी

“मैं प्रमाणित करता हूँ कि स्वर्ग निवासी श्री परमानन्द परमेश्वर ही वास्तविक और इकलौते परमेश्वर हैं और सारी मिलकियत के मालिक हैं।”
हस्ताक्षर:

सम्पर्क सम्पादक


क्या परमेश्वर को ऐसे किसी प्रमाणपत्र की आवश्यक्ता है? अगर मैं उसके अस्तितव का इन्कार करूँ तो उसके अस्तितव पर क्या कोई फर्क पड़ने वाला है? ज़रा इस बात को इस उदहरण से समझिये: क्या एक लावरिस, अनाथ बच्चा जिसने अपने माँ-बाप को कभी देखा न हो कह सकता है कि मेरा जन्म देने वाला कोई है ही नहीं? पर ऐसे कई बेवकूफ मौजूद हैं जो कहते हैं कि सृष्टि को जन्म देने वाला कोई है ही नहीं, परमेश्वर का वचन उन्हें मूर्ख की संज्ञा देता है-भजन ५३:१।

मैं धर्म पर विश्वास नहीं करता तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं नास्तिक हूँ। क्या आस्तिक होने के लिये धर्म पर विश्वास करना ज़रूरी है? परमेश्वर धर्म को नहीं इन्सान को प्यार करता है, हर एक इन्सान को। परमेश्वर के लिये इन्सान महत्वपूर्ण है, धर्म नहीं। हमारे धर्मों ने हमें आपस में बाँट दिया है। धर्म इन्सानियत पर एक ऐसा बोझ हैं जिसमें इन्सानियत का ही दम घुटने लगा है। इन्सानी सोच धर्म की ज़ंज़ीरों से ऐसी बन्धी है कि आदमी उससे ऊपर उठकर सोचता ही नहीं। मान लीजिए दो धर्म हैं और दोनो एक दूसरे के प्रति जलन, बदले के भाव और घमण्ड से भरे हैं कि हम ही अच्छे और सच्चे हैं; तो दोनो में क्या फर्क है? हाँ उनके बाहरी रूप में, उनके नाम में, उनके रीति-रिवाज़ों में फर्क हो सकता है; पर भीतर से, मूल स्वरूप में तो सब एक सा ही है। धर्म हमें एक विशेष विचारधारा मानने और उसका पालन करने को विवश करता है।

धर्म तो मात्र एक आवरण है, आचरण नहीं। कोई किसी भी धर्म को मानता हो, इसाई, मुसलिम, हिन्दू, सिख या अन्य कोई भी धर्म; हर धर्म को मानने वाले अधिकांशतः एक सा ही स्वभाव रखते हैं, एक से ही कार्य करते हैं जैसे झूठ बोलना, धोखा देना, जलन-विरोध रखना, पत्नियों को पीटना, लालच और बुरी ललसाएं रखना आदि। उनके कर्म एक से हैं सिर्फ धर्म अलग-अलग हैं।

हमारे धर्म बहुत क्रूर हो गये हैं। उनमें दया, प्रेम, सहनशीलता और दीनता नहीं रही। अब उनमें बदले के भाव, घृणा और अहंकार भरा है - हम श्रेष्ट हैं और दूसरे तुच्छ हैं। आज दूसरे धर्म का इन्सान हमें दुश्मन दिखने लगा है। जो हमारे धर्म को नहीं मानते उन्हें हम विधर्मी मानने लगते हैं। कितनी संकीर्ण है यह सोच कि धर्मी वही है जो मेरे धर्म को मानता है। आदमी धर्म से अच्छा या बुरा नहीं होता पर कर्म से अच्छा या बुरा होता है।

जिस ज़मीन पर हम जी रहे हैं उस ज़मीन को हमने बरबाद कर डाला है। अब हम अपनी बरबादी पर खड़े हैं। कोई बचाव अब बचा ही नहीं है। ज़मीन और ज़मीर मरने पर हैं। अब बेवकूफी की दलीलें देने और तर्कों को बैठाने से समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला। फिर भी इस गफलत में पड़े जीते हैं कि जैसे कभी मरेंगे नहीं। अन्तः हमें कड़ुवी सच्चाई का सामना करना ही पड़ेगा। अब इस संसार की दुष्टता की सीमाएं परमेश्वर के सहने से बाहर हो चुकी हैं।

रिक्शा वाला यदि रिश्वत नहीं लेता तो क्या ऐसी ईमानदारी को ईमानदारी कहेंगे? यह उसकी मजबूरी है। ऐसे ही कुछ लोग मजबूरी में ईमानदार हैं, क्योंकि उन्हें बेईमनी करने का मौका ही नहीं मिला। तो क्या ऐसे लोगों को ईमानदार कहा जा सकता है? कहते हैं कि अमीर आदमी गरीबों का शोषण करते हैं। पर सच्चाई इस से कुछ हट कर है, मामला बस मौके का है। ध्यान कीजिए, यदि आपके शहर में कोई नया आदमी फंस जाए तो क्या रिक्शेवाला उससे पाँच की बजाए पच्चीस नहीं लपेट लेगा? वह चूना लगाने में ज़रा भी चूक नहीं करेगा। ऐसे ही हर कोई, अमीर हो या गरीब, मौका पड़ने पर अपना दाँव खेल जाता है और अपनी पौ-बारह करने से नहीं चूकता।

शरीर है तो शरारत तो करेगा ही, चाहे छिपकर करे या खुलकर। ऊपर से आप जो भी हों जैसे भी हों पर अस्ल बात तो यह है कि आप अन्दर से कैसे हैं? व्यभिचार को बुरा तो सब कहते हैं पर मौका पड़ते ही, कुछ छुपकर तो कुछ खुलकर, उसका मज़ा भी ले लेते हैं। जब ज़मीर मर जाता है तो इन्सान सबसे ज़्यादा खतरे की ज़मीन पर आ खड़ा होता है। आज आदमी का ज़मीर मर गया है इसलिए आदमी इतना भयानक बन गया है कि अपने ही बच्चों की हत्या करवाने में नहीं हिचकता। माँ-बाप अपनी बेटी की सुपारी डॉकटर को देकर माँ के पेट में ही अपनी बेटी की हत्या निसंकोच करवा देते हैं।

मरते हुए बाप ने बेटे को नसीहत देनी चाही और अपनी ज़िन्दगी के अनुभव का निचोड़ उससे कहा कि “बेटा मैंने यही सीखा है कि पैसे से सुख नहीं खरीदा जा सकता।” बेटा बोला “पिताजी एक बात मैं भी आप से कहना चाहूँगा, फिर मौका हो न हो, यह तो सच है कि पैसे से सुख नहीं खरीदा जा सकता, पर पैसे से मनपसंद दुख तो खरीद सकते हैं। झोंपड़ी में भी दुख है और महल में भी दुख है, यदि दुख ही भोगना है तो फिर क्यों न महल में ही भोगें?” बाप के पास कोई जवाब नहीं था, वह खामोश अपने बेटे को देखता रहा और आते समय में उसके आचरण और भविश्य के बारे में सोचता रहा।

बाप और बेटे की सोच में फर्क है। बेटा बाप की बात से सहमत नहीं है। घर में तनाव है , पत्नि को पति की शकल देखकर गुस्सा चढ़ने लगता है। परिवार में सब कुछ है पर खुशी नहीं है। घर में दम घुटने सा लगा है। बाप बेटा, बेटी, पती-पत्नि में दूरी आने लगी है। रिशतेदारी पहले जैसी नहीं बची। रिशते झूठे पड़ते जा रहे हैं, रिशतों में मिलवाटी और दिखावटी अंदाज़ रह गया है। बस कहने भर को रिशते हैं। इसी मिलवट ने हमारा चैन खो दिया है, हमारी खराई खो दी है, बहुत से रिशते और पड़ौसी खो दिये हैं।

आज ३०,००० हज़ार करोड़ का मिलवटी सामान हमारे भारत के बाज़ार में फैला हुआ है। मिलवाटी युग है जहाँ प्यार में स्वार्थ मिल है, सत्य मे असत्य मिलकर परोसा जाता है। हवा, पानी, धर्म और सब सामान मिलवटी है। पैसा पाने की दौड़ में इन्सानियत कहीं खो गई है।

आज आदमी इस कदर घमंडी है कि अपने बुरे कामों पर भी अपने भले कामों की तरह ही घमंड करता है। ज़रा कुछ आमतौर पर उपयोग होने वाले वाक्यों में झाँक कर देखिये कि कैसी-कैसी बातों में वह घमंड करता है: “क्या बेवकूफ बनाया उसे”, “कितने बढ़िया तरीके से चूना लगाया है”, “ यार ऐसा कोई सगा नहीं जिसे हमने ठगा नहीं” आदि। इन वाक्यों में आपको क्या झलकता है?

आज आदमी की मानसिकता बदल गई है। वह सिर्फ अपने स्वार्थ की सोच से बंधा है। वह अपना और अपनों से आगे सोचना ही नहीं चाहता। बदले हुए संसार के साथ इन्सान इतना बदल गया है कि अब उसे इन्सान कहना मुशकिल है।

जीवन में कुछ कमी सी चुभती है, ऐसा लगता रहता है कि कहीं कुछ है जो अभी पाया नहीं है। पैसा पाया, पद पाया, और जो कुछ संसार दे सकता था वह सब पाया पर फिर भी जीवन का आनन्द नहीं पाया तो क्या पाया? कहीं संतुष्टी और चैन नहीं दिखता। इन्सान करे तो क्या करे?

अगर खाने में सब हो, नमक न हो,
तो सब बेकार है।
जीवन में सब कुछ हो, शांति न हो,
तो सब बेकार है।
घर में सब कुछ हो, खुशी न हो,
तो सब बेकार है।

यह सब पढ़कर जीवन में परिवर्तन न हो तो यह पढ़ना भी बेकार है।

मौत के दफ्तर में किसी दिन छुट्टी नहीं होती। हर घंटे में १११२ और हर मिनिट में १८ आदमी मर रहे हैं। आज उसका तो कल मेरा और परसों आपका वक्त आ सकता है। वक्त रुकता नहीं। यह शरीर तो शमशान की अमानत है और शमशान से आगे इसे कोई भी नहीं ले जा पाएगा। कुछ विद्वान लोग मौत के बाद की बात सुनकर मुस्कुराते हैं जैसे कि कोई बेवकूफी की बात कह दी हो। परन्तु इस जीवन के बाद भी एक जीवन है और यहाँ की मौत के आगे भी एक मौत है। आपके हर पाप आपके साथ जाएंगे। आपके इन्हीं पापों ने आपको न तो यहाँ चैन से जीने दिया और न मौत के बाद भी चैन लेने देंगे।

पाप आदमी के लिये ही नहीं, सारे संसार के लिये श्राप है। सारा संसार श्राप को भोग रहा है। इससे कोई घर नहीं बचा। पाप ने ही आदमी के इस जीवन को और इसके बाद के जीवन को नरक बना डाला है। आप चाहे किसी भी धर्म के क्यों न हों, अगर आपके जीवन में पाप है तो आपका जीवन श्राप है। पाप ऐसा श्राप है जो मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ेगा।

स्वर्ग को आकाश में रखने की ज़रूरत नहीं है। स्वर्ग को मन में लाने की ज़रूरत है। स्वर्ग आपके जीवन और परिवार में भी आ सकता है। आप यदि पाप के साथ जी रहे हैं तो आप नरक के साथ जी रहे हैं। मैं नरक जाने की बात नहीं कर रहा हूँ, नरक तो हम यहीं भोगना शुरू कर देते हैं। अगर आप पाप कि क्षमा के साथ जी रहे हैं तो आप स्वर्ग के साथ जी रहे हैं। हमारे पाप हमारी सारी आशीशें सोख़ लेते हैं, बस एक बंजर रेगिस्तान सा जीवन ही जीने के लिये रह जाता है।

शायद कितने ही लोग जो इन पंक्तियों को पढ़ रहे हैं अपने आप से और अपने हालात से हार हुए होंगे। शायद कुछ ने बहुत बार खुद संवरने और हालात संवारने की नाकाम कोशिश भी करी होगी और अब सोचते होंगे कि करें तो क्या करें? अगर आप अपने आप से, अपने ग़लत कामों से, ग़लत आदातों से, क्रोध, सिग्रेट-बीड़ी-शराब से, घर के झगड़ों से, शरीर या मन की बीमारियों से, थक चुके हैं और कोई रास्ता आपको सूझ नहीं पड़ता तो सच मानिये यह संदेश आप ही के लिये है। आपकी सारी समस्याओं और आपकी बेचैनी का इलाज भी है।

शायद यह आपके लिये आखिरी समय और आखिरी संदेश हो सकता है। जब तक आप में साँस है तब तक आस है। पर साँस की कोई आस नहीं कि कब दग़ा दे जाये। आखिर कब तक इस समय को खोते रहोगे, कितना और? शायद आपने बहुत कुछ खो दिया है - समय, और समय के साथ मौके, और मौकों के साथ कितनी ही आशीशें। आखिर कब तक और क्यूँ? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस धर्म को लेकर जीते हैं, आपने कैसे और कितने पाप किये हैं। यीशु में सबको क्षमा करने की सामर्थ है।

शायद आदमी सब छोड़ सकता है, शरीर को तो एक दिन छोड़ ही देगा, पर पाप और उसके श्राप को नहीं छोड़ सकता। पाप के श्राप और उस श्राप के डंक से केवल प्रभु यीशु ही छुड़ा सकता है। उसने आपके लिये वह सब कुछ कर दिया है जो पाप और उसके श्राप से छूटने के लिये आपको चाहिये। अब आपको कहीं जाने या कुछ और करने की ज़रूरत ही नहीं बची है। बस आपको अपने पाप की क्षमा ही तो माँगनी है, सिर्फ सच्चे मन से इतना ही तो कहना है कि “हे यीशु मुझ पापी पर दया करें, मेरे पाप क्षमा करें।”

नीत्शे एक प्रसिद्ध दार्शनिक और नास्तिक था जिसने एक विचारधारा को जन्म दिया कि जब कोई किसी पर करुणा या दया दिखाता है तो वह अपनी शक्ति गवाँ देता है। कहने का तात्पर्य था कि ‘न्याय’ यदि दया दिखाएगा तो अपनी न्याय देने की शक्ति गवाँ देगा। एक समय उसके जीवन में ऐसा भी आया कि यह दरशनशास्त्री पागल हो गया। जिस वर्ष नित्शे पागल हुआ, उसी वर्ष अडोल्फ हिटलर का जन्म हुआ। उसने भी इस विचारधारा को धारण कर लिया। वह दूसरों को तुच्छ समझकर उनका अपमान करता था। मजबूर, कमज़ोर, अपंग और लाचार लोगों को राष्ट्र पर बोझ समझकर उस बोझ को हटाना चाहता था और ऐसी ही कई योजनाएं बनाता था।

आज हिटलर मर चुका है पर उसकी सोच नहीं मरी। उसका मानना था कि झन्डा डण्डे के सहारे ही ऊँचा उठाया जा सकता है। ऐसे ही कई लोग हैं जो अपने परिवार में डण्डे के सहारे ही अपनी पत्नी और बच्चों पर अपना झन्डा जमाने की कोशिश करते हैं।

पर यीशु मसीह में यह बात बिलकुल उलट है - दण्ड से बचाने के लिये दया कितनी ज़रूरी है। पाप के दण्ड से बचने का एक ही मार्ग है - ‘दया’ और ‘क्षमा’ का। यीशु ने एक ऐसी योजना बनाई जिसमें वह खुद शून्य हो गया ताकि कोई नाश न हो सके। उसने धर्म के लिये नहीं, इन्सान के लिये अपनी जान दी। यीशु की दया से सज़ा क्षमा में बदल जाती है और श्राप की जगह आशीश समा जाती है। उसने अपनी जान क्रूस पर देकर हमारे पापों की सज़ा को क्षमा में बदल डाला। इस क्षमा को प्राप्त करने के लिये आपको इसाई धर्म अपनाने की ज़रूरत नहीं है। इसाई धर्म तो एक परम्परा है, परम सत्य नहीं। सत्य तो परम परमेश्वर है। हम उन्हें प्यार नहीं कर सकते जिन्होंने हमारा बुरा किया है। पर प्रभु यीशु ने उनसे भी प्यार किया जो प्यार करने के लायक भी नहीं थे।

यीशु को यहूदी लोग विधर्मी मनते थे। उन्हें लगता था कि वह हमारा धर्म बिगाड़ रहा है। यीशु उनके धर्म का विरोधी नहीं था, पर उनकी मक्कारी, जलन, बैर, बदले की भावना और धर्म के नाम पर स्वार्थ सिद्धी के लिये लोगों को गुमराह करने का विरोध करता था। यीशु तो स्वयं भी इसाई नहीं थे और न ही उन्होंने कभी इस शब्द का प्रयोग किया। उनके ३०० साल बाद तक तो इसाई धर्म नाम की कोई चिड़िया भी नहीं थी। यीशु ने इसाई धर्म का मार्ग नहीं, सच्चाई का मार्ग बताया।

मैं आपको झंझोड़ कर जगाना चाहता हूँ ताकि आप अपने बारे में सही सोच सकें और सही फैसला ले सकें।

२३ साल का एक जवान जीवन से पूरी तरह हार चुका था। उसकी मौत मांगती हुई ज़िन्दगी में कोई उम्मीद ही नहीं बची थी। मई १९६९ की एक गरम रात में उपर के अकेले और अन्धेरे कमरे में वह अपने घुटनों के बल जा गिरा। कुछ मिनिटों में वह बिलकुल बदला हुआ बाहर निकला। कैसे और किसने उसका सब कुछ बदल डाला? एक छोटी प्रार्थना ने यह करिश्मा कर दिया, जी हाँ एक प्रार्थना ने - “हे यीशु मुझ पापी पर दया करें।” सच्चे दिल से निकली बस एक पुकार ने उसके जीवन को बदल डाला।

वह २३ साल का जवान आज ६३ साल का बूढ़ा हो चुका है, और आपके लिये इन शब्दों को लिख रहा है। मैं काली स्याही से अपने काले कारनामे नहीं लिख सकता। ऐसे काले कारनामे कि समाज उन्हें लिखने की इजाज़त नहीं देता और न ही मेरे पास उन्हें लिखने की हिम्मत है। उस समय मैं ही अपने आपको माफ नहीं कर पाता था। पर मेरे प्रभु ने कुछ पलों में ही मेरे सारे पापों को केवल माफ ही नहीं किया पर उसने मुझे ही बदल डाला। वही परमेश्वर आज आप से इन शब्दों के सहारे बात कर रहा है।

क्यों न आज आप भी कह दें “हे यीशु मुझ पापी पर दया करें।”

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

सम्पर्क मई २००९: पूरे पन्नों की अधूरी कहानी

आसमान पर छाये बादल ढलती हुई शाम को और गहरा कर रहे थे। आने वाले तूफान के अंदेशे से शहर की सड़कों सुन्सान थीं। तेज़ सरसराती हवाओं ने सर्दी को शिद्दत तक पहुँचा दिया था। एक संत, आती रात बिताने और बिगड़ते हुये मौसम से बचने के लिये जगह ढूँढता फिर रहा था। तभी उस सन्नाटे को तोड़ती एक आवाज़ ने उसे चौंका दिया “महाराज, ठहरने की जगह ढूँढ रहे हैं? क्या आप मेरे घर चलकर ठहरना चाहेंगे?” इससे पहले कि वह संत कुछ कह पाता, उस व्यक्ति ने आगे कहा “महाराज, प्रतीत होता है कि आप संत हैं? मैं आपसे क्या छुपाऊँ, मैं एक चोर हूँ। अगर आपको इससे कोई ऐतराज़ न हो तो मेरे घर ठहर कर मुझे धन्य कर सकते हैं।” संत दुविधा में फंस गया। मन में विचार चलने लगे “अगर इस चोर के यहाँ ठहरा तो लोग क्या कहेंगे, मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? अगर नहीं ठहरा तो इस सर्दी और खराब मौसम में सुबह होने तक मेरा क्या होगा?” मरता क्या न करता, मन मार कर चोर के पीछे पीछे चल दिया। चोर ने संत को अपने घर लाकर उसकी बड़ी आव-भगत की। संत सोचने लगा “मेरे सामने इस चोर ने अपनी असलियत नहीं छुपाई पर मैं तो अपने मन में क्या क्या छुपाये बैठा हूँ। यह चोर जो है सो है पर मक्कार तो नहीं है।” आखिरकर संत अपने आप को रोक न सका, वह चोर के पैरों पर गिर पड़ा और कहने लगा “मैं जो दिखता हूँ वास्तव में वैसा हूँ नहीं; लालच, अभिमान और पाखँड मुझ में भरा है। मैं यह तो सदा सोचता हूँ कि लोग मेरे बारे क्या सोचेंगे पर कभी यह नहीं सोचता कि परमेश्वर मेरे बारे में क्या सोचेगा?”

मेरी और आपकी अन्दर की हालत कुछ ऐसी ही है। ज्ञान तो बहुत लोग बाँटते हैं पर स्वयं उस ज्ञान का अनुसरण कितने करते हैं? अपने द्वारा प्रचार की गई शिक्षाओं का पालन स्वयं कितने करते हैं? परमेश्वर का वचन चिताता है “सो हे दोष लगाने वाले, तू कोई क्यों न हो, तू निरुत्तर है। क्योंकि जिस बात में तू दूसरे पर दोष लगाता है, उसी बात में अपने आप को भी दोषी ठहराता है। इसलिये कि तू जो दोष लगाता है, आप ही वह काम करता है।” “और हे मनुष्य तू जो ऐसे ऐसे काम करने वालों पर दोष लगाता है और आप ही वह कम करता है, क्या यह समझता है कि परमेश्वर की दण्ड की आज्ञा से बच जायेगा?” (रोमियों २:१, ३)। भले ही आप माने या न माने पर सच्चाई यही है।

एक बड़ी सीधी और स्वाभाविक सी बात है कि खुद खोया हुआ आदमी दूसरों को क्या राह दिखायेगा? अन्धा अन्धों को क्या मार्ग बतायेगा? फिर भी आज ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो स्वयं संसार में लिप्त हैं पर दूसरों को बैराग का पाठ पढ़ाते हैं, जो स्वयं परमेश्वर की राह से कोसों से दूर हैं पर दूसरों को परमेश्वर को पाने का मार्ग बताते हैं। आये दिन ऐसे पाखंडियों की पोल खुलने के समाचार आते रहते हैं फिर भी अनेक लोग अपनी आँखों से उस पाखंड को देखते हुए भी उनके अनुसरण करने में ज़रा भी नहीं हिचकते।

हमारा अहंकार हमें इस बात को स्वीकारने से रोकता है कि मैं एक पापी हूँ। बस फर्क इतना ही है कि कुछ के पाप खुले हैं और कुछ के अभी तक छिपे हैं। गलती होना स्वाभाविक है, पर गलती मानकर माफी पा लेना समझदारी है। गलती को जान कर भी उसे छिपाना मक्कारी है और गलती को जान बूझ कर उसे सही साबित करने में लग जाना एक भयानक बेवकूफी है। आप जितना अपने बारे में जानते हैं उससे कहीं अधिक परमेश्वर आपके बारे में जानता है।

दो तरह के चश्मे दिमाग पर चढ़े होते हैं। अपने को देखने के और दूसरों को देखने के। बुज़ुर्ग अक्सर कहते हैं कि हमारा ज़माना शराफत का ज़माना था। पर हकीकत यह है कि उस ‘शराफत के ज़माने’ में पले-बड़े ये लोग भी ईमान्दारी को सिर्फ मक्कारी से ओढ़े रहते हैं। कितने ही ‘शरीफ’ बुज़ुर्ग आँखों पर मोटा चश्मा लगाये अख़बार, पत्रिकाओं, सड़क के किनारों पर लगे विज्ञापनों, टी०वी० और सिनेमा में अशलीलता देखने को नज़रें घुमाते फिरते हैं, इस फिराक में रहते हैं कि कहीं कुछ नंगापन देखने को मिल जाये। कहीं न कहीं हम सब किसी न किसी मक्कारी से भरे जीते हैं। मुँह मुसकुराता है पर मन कोसता है। मन मारकर ही तो साहब को सलाम ठोकना पड़ता है। मन मक्कारी से भरा है।

जब परेशानियाँ खत्म नहीं होतीं तब आदमी अपने आपको खत्म करने की कोशिश कर जाता है। वह यह नहीं समझता कि जान देने से सिर्फ शरीर से ही छुटकारा पाया जा सकता है पर पाप की परेशानी तो आपके साथ ही जायेगी। आपकी परेशानी का कारण परिस्थितियाँ नहीं पाप है। अगर छूटना ही है तो पाप से छूटना है।

समस्याएं हैं, पर क्या हैं वे समस्याएं? मूल समस्या तो यही है कि हम सही समस्या को समझ नहीं पा रहे हैं। जानते ज़रूर हैं कि समस्याएं हैं, एक का समाधान ढूंढो तो दूसरी आ पड़ती है, कभी खत्म नहीं होतीं। सच तो यह है कि पाप ही आपके जीवन की एक मात्र समस्या है, इस एक समस्या से बाकी सब समस्याएं हैं। यही आज तक इन्सान समझ नहीं पाया है।

निर्धन की समस्या है कि क्या खाऊँ कि भूख मिटे? धनवान की समस्या है कि क्या खाऊँ कि भूख लगे? चिन्ताएं और परेशानियाँ दोनो के पास हैं। न गरीब न अमीर, न अन्पढ़ और न पढ़ा लिखा, न उच्च पद पर बैठने वाला न निम्न स्तर पर काम करने वाला, न पाश्चत्य सभ्यता वाला न अन्य किसी सभ्यता वाला, कोई नहीं है जो समस्याओं से बचा हुआ है। हर देश, जाति, वर्ग का हर जन किसी न किसी समस्या से घिरा है और छुटकारा ढूंढ रहा है लेकिन फिर भी अपने पाप का अंगीकार करने को तैयार नहीं है। अहंकार की पट्टी अपनी आँखों पर बाँधे, अन्धेरे कुएं में पड़े अन्धे व्यक्ति की तरह बाहर निकलने को दीवारें टटोल रहा है पर उस पट्टी को उतारकर ऊपर की ओर देखने और बच निक्लने को तैयार नहीं है।

प्रश्न यह नहीं है कि पाप की मात्रा कितनी है? असल प्रश्न है कि पाप है या नहीं? सभोपदेशक ७:२० में लिखा है “एक भी धर्मी नहीं है जिससे पाप न हुआ हो।” वह अधर्मी की नहीं धर्मी की बात कर रहा है।

धर्म परिवर्तन से पाप की समस्या का समाधान नहीं होने वाला। धर्म परिवर्तन कोई सच्चा परिवर्तन नहीं ला पायेगा, पर मन परिवर्तन ही वास्तविक परिवर्तन ला पायेगा।

जीवन एक मैच की तरह चल रहा है। कब किस की गिल्ली उड़ जाये पता भी नहीं चलेगा। कभी कभी इतने शॉर्ट नोटिस पर यहाँ से जाना पड़ता है कि सोचने का मौका भी हाथ नहीं लगता। कब स्वर्गीय अम्पायर की ऊठी कि आप खेल से बाहर जाते दिखाई देंगे। ज़्यादतर तो मूँह लटकाये ही जाते हैं, थोड़े ही हैं जो हाथ उठाये हुए आनन्द से जाते हैं। आपका अपने बारे में क्या विचार है? कुछ भी अनहोनी हो जाए तो आप कैसे जाएंगे? कभी सोचा भी है कि जब जाएंगे तो कहाँ जाएंगे? सच तो यह है कि हर हारा हुआ इन्सान हमेशा की हार में जा पहुंचेगा। स्वर्गीय अम्पायर ने अपनी उंगली से आपकी असली दशा और आपके अन्जाम की दिशा दर्शायी है। यह उंगली सिर्फ पाप को ही प्रकट नहीं करती पर पाप के परिणाम को भी प्रकट करती है, और पाप के परिणाम से बच निकलने का मार्ग भी दिखाती है।

बस अब दिल का दरवाज़ा खोलने की देर है। सूर्य का प्रकाश तो आपके दरवाज़े पर आपका इंतिज़ार कर रहा है, केवल आपके दरवाज़ा खोलने की देर है, वह प्रकाश सारे अंधकार को क्षण भर में दूर कर डालेगा। प्रभु यीशु आपके पापों को हर लेने के लिये ही आया। इसलिए वह हर हारे और परेशान इन्सान से कहता है, मत डर मैं हूँ मेरे पास आओ।

अब मैं इन आखिरी लाईनों में आखिरी बात दिल से कहता हूँ। दिल चाहता है कि यह बातें आपके दिल पर लिख जायें, सिर्फ कलम से उतर कर कागज़ तक न रह जाएं। आप दिल से विश्वास करके मुँह से सिर्फ एक छोटी प्रार्थना में दो बातें कह जाएं। पहली बात मान लें; दूसरी बात माँग लें। पहले यह मान लें कि “मैं एक पापी हूँ”, और दूसरा अपने पापों की क्षमा माँग लें। प्रभु यीशु से प्रार्थना में कहें कि “हे यीशु मैं पापी हूँ, मैं बेचैन और परेशान हूँ, मुझपर दया करके मेरे पाप क्षमा करें, मेरे मन में आयें, मुझे अपने लहू से शुद्ध और पवित्र करें।”

यही एक ऐसी प्रार्थना है जो आपको एक ऐसी ज़िन्दगी जीने का मौका देती है जो आपने कभी जी नहीं होगी। ज़रा यह प्रार्थना एक सच्चे दिल से करके तो देखिये....

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

सम्पर्क मई २००९: मुठ्ठी भर माटी का मानव

मेरा नाम फिलिप रत्‌नम है। मैं एक प्रभु को प्यार करने वाले परिवार में पैदा हुआ। परिवार में मेरे माता, पिता और हम चार भाई और बहनें हमेशा पारिवारिक प्रार्थना करते थे। पिताजी लगातार प्रभु की सेवा में बने रहते थे। अक्सर पिताजी को बीमारों और दुष्टात्माओं से ग्रसित लोगों के लिये विशेष प्रार्थना करने के लिये बुलाया जाता था। जहाँ तक स्वर्गीय स्वामी की सेवा करने की बात थी, वह रात हो या दिन कभी नहीं चूकते थे। वे एक गरीब परिवार से थे इसलिये लम्बी दूरियाँ अक्सर साईकिल या बस में तय करनी पड़ती थीं।

मैं अपने परिवार में सबसे छोटा था। जब मैं १३ सालो का होने को था उससे ७ दिन पहले ही पिताजी परमेश्वर के पास चले गये (यद्यपि हमारे लिये वह अभी भी जीवित हैं)। जबकि मैं ऐसे भक्त परिवार में पला फिर भी मेरा हृदय संसार के पीछे जाने लगा। १२ वर्ष की उम्र तक तो मुझे परमेश्वर के वचन के प्रति बहुत आकर्शण था लेकिन मेरे पिता के देहाँत के बाद मेरे परिवार ने परमेश्वर के घर में जाना छोड़ दिया। केवल मेरी बड़ी बहन ही परमेश्वर की संगति में जाती थी।

एक अच्छे विश्वासी परिवार में पले-बड़े होने का लाभ मुझे यह रहा कि एक ढाल मेरे जीवन में रहती थी। मेरा संसार स्कूल, घर और दोस्त ही थे। जबकि मैं मोहल्ले में रहने वाले दोस्तों के साथ खेलता पर फिर भी मैं उनकी तरह व्यवहार नहीं कर पाता था। न ही मैं गाली दे पाता था, न ही उनकी तरह लड़ पाता था, न ही उनकी तरह धोखा दे पाता था और न ही उनकी तरह बन पाता था। मैं सारी गालियाँ मुँहज़ुबानी जानता था पर उनको मुँह खोलकर इस्तेमाल नहीं कर पाता था। मैं सारी दुष्ट बातें जानता था पर उनको व्यवाहरिक तौर से कर नहीं पाता था। मैं एहसास करता था कि हर वक्त कोई सामर्थ मुझे इन बुराईयों से रोके रहती है।

एक दिन मैंने अपने आप में यह फैसला लिया कि मुझे परमेश्वर की ज़रूरत नहीं है, अब मैं खुद ही अपने आप को बहुत अच्छी तरह सम्भाल सकता हूँ। क्योंकि मैं सोचता था कि मैं दूसरों से होशियार हूँ इसलिये मैं स्वयं सारी परिस्थितियों का सामना कर सकता हूँ। उस दिन से मैंने बाईबल पढ़ना और नियमित प्रार्थना करना बन्द कर दिया और धीरे धीरे मेरी जो भी अभिलाशायें परमेश्वर से सम्बन्ध रखती थीं मिटती चली गईं और एक लम्बे समय के बाद पूरी तौर से मर गईं। अब मैं भी किसी अन्य ऐसे व्यक्ति के समान बन गया जो परमेश्वर पर निर्भर नहीं। अब मैं जो चाहे वह करने के लिये पूरी तरह आज़ाद था। परिवार में केवल मेरी बड़ी बहन ही अकेली इन सालों में प्रभु के साथ चलती रही। वह अकेली ही हर एक रविवार आराधना के लिये संगति में जाती, प्रार्थना करती और परमेश्वर के वचन को पढ़ती थी, और आज तक वैसे ही है, उसका विवाह भी एक अच्छे विश्वासी के साथ हुआ है।

मेरे बड़े भाई और मैंने परिवार की ज़रूरतों के कारण कम उम्र में ही काम करना शुरू कर दिया था। तब मेरी उम्र १८ साल की थी। अब जब मैं उन बातों पर विचार करता हूँ तो मुझे सोच कर आश्चर्य होता है कि जबकि मेरे पास कोई योग्यता या पढ़ाई की डिग्री नहीं थी फिर भी मैं जहाँ भी जाता और जो भी करता, उसमें सफलता मेरे आगे आगे चलती थी। मुझे लगता था कि मेरा जीवन ठीक सा चल रहा है लेकिन आज मैं एहसास करता हूँ कि मेरी ज़िन्दगी सच्चाई की समझ से हटकर एक पागलपन की तरफ दौड़ने लगी थी। मेरे अन्दर और ज़्यादा पाने की अभिलाशाएं पनपने लगीं और मैं संसार में ही सन्तोष ढूँढने लगा। इन बातों से अनजने में ही मेरे अन्दर यह धारणा पैदा होने लगी कि जब तक तुम किसी को दुःख न दो, कानून न तोड़ो या फिर पकड़े न जाओ जीवन में सब कुछ ठीक है । एक ही जीवन है इसलिये जितना हो सके उसका आनन्द उठाओ। जब तक जो तुम्हारे साथ हैं, सहमत हैं, तब तक सब बातें ठीक हैं। जीवन चलता गया और मेरी आदतें बुरी होती गईं लेकिन मेरे लिये वे बातें मात्र मनोरंजन थीं। मेरे परिवार वालों को इसके बारे में कुछ मालूम नहीं था। मेरी माँ, परिवार और अन्य लोग सोचते थे कि मैं एक बहुत अच्छा और सभ्य व्यक्ति हूँ। मेरे अन्दर एक दोहरा व्यक्तित्व पैदा हो गया। एक चेहरा जो दूसरों को दिखाने के लिये और दूसरा अपने आप को खुश करने के लिये। जैसे जैसे समय बीतता गया इन दोनो चेहरों को वक्त-ज़रूरत अनुसार इस्तेमाल करने में मैं माहिर हो गया।

एक समय ऐसा भी आया कि मैं एक छोटी गैंगवॉर में फँस गया। मैं एक ऐसे गिरोह के लोगों के साथ रहने लगा जो सिर्फ मुहल्ले की गलियों, इलाकों या कॉलेज में छोटी मोटी गुन्डागर्दी करते थे। हमने कुछ लोगों से दुश्मनी पाल ली। हममें से कुछ लोग और मैं अपने पास चाकू रखने लगे। मेरे कुछ दोस्त अपनी ताकत दिखाने के लिये कभी कभी चाकू का इस्तेमाल भी करते थे। एक बार हमारा यह गैंग एक चाकूबाज़ी के केस में फंस गया। मैं भाग्यशाली था कि मैं उस शाम उनके साथ नहीं था। मेरे ३ करीबी दोस्त हत्या करने के ज़ुर्म में पकड़े गये और उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया गया, जबकि मेरे यह दोस्त बड़े सरकारी अफसरों के बच्चे थे। भाग्यवश, जिसको चाकू लगा था उसकी जान बच गई और मेरे दोस्त ज़मानत पर छूट गये, लेकिन उन पर दायर हुए यह मुकद्मे २० साल से ज़्यादा चले। मेरा विवेक मरता जा रहा था और भयानक पापों के लिये मेरी अभिलाषा बढ़ती जा रही थी। मेरी दोस्ती सब प्रकार की गहरी बुराई में रहने वाले लोगों से बढ़ती गई। मुझ पर नियंत्रण रखने वाला कोई नहीं था। मैं घर देरी से आता, सुबह जल्दी चला जाता और कभी कभी रविवार को भी घर नहीं लौटता था।

मेरी बड़ी बहन, जो प्रभु के प्रेम में बनी हुई थी, अपने परिवार के साथ छुट्टियों में कुछ महीने हमारे साथ बिताने स्विट्ज़रलैंड से आती थी। जब वह आती तो उसके भक्ति के जीवन के कारण एक अजीब सा भय मुझ पर छा जाता था और मेरी आदतों पर अपने आप रोक लग जाती थी। जब तक वह हमारे यहाँ रहती थी तब तक हमारे यहाँ पारिवारिक प्रार्थना भी सुबह-शाम होती थी। परिवार से प्रभु का आदर चला गया था इस बात के लिये वह हमें घुड़कती थी। मेरे लिये तो रविवार का दिन मौज मस्ती, फिल्में और दोस्तों के साथ घूमने के लिये होता था। पर मैं अपनी बहन को देखता था, जो ज़्यादतर सर्दियों में हमारे पास आती थी, कि रविवार को चाहे बहुत धुंध वाली सुबह हो, तब भी वह अकेली ही, प्रभु की आराधना के लिये, बस में जाती थी। मैं अपनी बहन के साथ, उसको प्रसन्न करने की मनसा से, चला जाता था।

दिसम्बर १९९२ के एक रविवार की बात है, मैं परमेश्वर के घर गया हुआ था। हमेशा की तरह मैं पूरी सभा के दौरान परमेश्वर के घर के मुख्य स्भास्थल से बाहर आहते में बैठा हुआ था जहाँ माताएं अपने बहुत छोटे बच्चों के साथ बैठती थीं। उनके लिये उस आहते में एक स्पीकर भी लगा हुआ था जिससे अन्दर चल रहे प्रवचन और सन्देश उन तक पहुँचते रहें। उस दिन भी प्रचारक सन्देश दे रहा था और मैं हमेशा की तरह उस सन्देश पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था। अचानक उसने सन्देश में सफाई से एक वाक्य कहा “तूने पाप किया है।” यह बात मेरे अन्तःकरण तक पहुँची और मैंने एकदम अपने आप से कहा “तो क्या हुआ?” बात यह नहीं थी कि मैं पापी था या नहीं, पर यह थी कि मैं पाप को पाप नहीं समझता था। मैंने उस आवाज़ को उस समय तो दबा दिया पर यह वाक्य “तूने पाप किया है” मेरे कानों में गूँजता रहा।

एक दिन मैं बाज़ार से गुज़र रहा था। एक दुकान की खिड़की से एक बहुत सुन्दर जिल्द वाली किताब ने मुझे आकर्षित किया। वह एक मसीही किताबों की दुकान थी। उस पुस्तक का शीर्षक था “३६५ दिन में बाईबल।” मुझे उस पुस्तक के लेख ने नहीं पर उसकी सुन्दर जिल्द ने आकर्षित किया। मैं उस दुकान में चला गया और मैंने उस पुस्तक को खरीद लिया। घर आने के बाद मेरी इच्छा उसे पढ़ने की हुई लेकिन यह मुझे एक व्यंग्य जैसा लगा क्योंकि अब बाईबल खोलकर पढ़ने में मुझे शर्म आती थी। मेरा विवेक मुझे कचोट रहा था कि मेरे जैसा व्यक्ति बाईबल पढ़ना चाह रहा है? पर मैंने हियाव बांधा और बाईबल को छुपाकर छत पर जाकर अन्दर से ताला मारकर पढ़ना शुरू किया। तभी एक अजीब चैन और शांति मुझपर आ उतरी और मुझे लगा कि यह शब्द मुझ से ही बातें कर रहे हैं। जब भी मैं उसे पढ़ता तब एक अद्भुत शांति मुझे घेर लेती थी। मैं उसमें लिखा सब कुछ तो समझ नहीं पा रहा था परन्तु मेरा दिल मान रहा था कि उत्पत्ति से प्रकाशित्वाक्य तक लिखा उसका एक एक शब्द सौ प्रतिशत सही है। मुझे उससे बहुत लगाव होने लगा और हमेशा यह जिज्ञासा रहती कि अब इस अध्याय के बाद क्या होगा? परमेश्वर का आत्मा लगातार मुझसे बातें करता रहा। पहले तो मैंने एहसास ही नहीं किया कि परमेश्वर इस तरह भी बातें करता है। मैं सोचता था कि यह तो मेरा मन है जो मुझसे पाप करवाता है और फिर बाईबल पढ़ने को कहता है। जब भी मैं बाईबल पढ़ता तो हर बार मुझे एहसास होता कि कोई मुझे बहुत सुन्दर शब्दों से समझा रहा है। बाईबल के प्रति मेरा प्रेम बढ़ता गया और अजीब रीति से मैं घर पर ज़्यादा समय बिताने लग और दोस्तों से कटने लगा।

यह मई १९९३ की बात थी जब परमेश्वर के आत्मा ने मेरे अन्दर अपना काम करना शुरू किया। तब से वह मुझे बदलता गया, नया बनाता गया और मुझे सत्य के एहसास पर ले आया। अब तक मैं उत्पत्ति से शुरू करके प्रेरितों के काम तक बाईबल पढ़ चुका था। मेरा हृदय भी बड़ी सफाई से यह जान चुका था कि पूरी सृष्टि का मालिक और कर्ता कौन है, यीशु कौन है, मनुष्य ने पाप क्यों किया, शैतान कौन है, परमेश्वर की मनसा क्या है और आज तक कौन इस पूरी सृष्टि को सम्भालता है।

अब मैं शैतान और अंधकार की ताकत के भय से आज़ाद हो गया और बाईबल के परमेश्वर के प्रति एक पवित्र और आदरमय भय मेरे जीवन में प्रवेश कर गया। अब मेरा सवाल यह नहीं था कि कौन मुझे पापी साबित करेगा? कयोंकि मैं ऐसे महान सृष्टिकर्ता के सामने बिल्कुल बेपर्दा था। मेरा सवाल अब यह था कि सूरज, चाँद, सितारों को अपने मूँह के शब्द भर से बनाने वाला महान सृष्टिकर्ता मुझ जैसे मूर्ख, लापरवाह और अयोग्य पापी में क्यों इतनी रुचि रखता है? मेरे जैसा व्यक्ति तो स्वर्ग में भी लज्जा का कारण होगा। यद्यपि मुझे मेरे इस सवाल का जवाब नहीं मिला परन्तु इस पूरे समय के दौरान जब मैं इस सर्वशक्तिमान परमेश्वर की पहिचान में लाया गया तो मैंने फिर कभी अपने आप को उससे भयभीत नहीं पाया। बल्कि मैं उसकी तरफ और भी खिंचा चला गया, उससे मिले हर प्रकाशन ने मेरे हर एक शक को दूर कर दिया।

एक दिन मेरी आँख रोमियों ५:८ पर पड़ी और तब मुझे समझ में आया कि परमेश्वर एक बेकार मुठ्ठी भर मिट्टी के मानव में क्यों रुचि रखता है। रोमियों ५:८ में लिखा है “परन्तु परमेश्वर हमपर अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रगट करता है कि जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिये मरा।” मैं आगे और नहीं पढ़ पाया और बिल्कुल टूट गया। मेरा हदय बहुत भारी हो गया और मैं भावुक्ता से भर गया कि ऐसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मुझ से प्रेम किया, इतना झुक गया और मेरे लिये पापबलि बनकर मर गया। मैंने व्यक्तिगत रीति से प्रमेश्वर के प्रेम का एहसास किया और मैं आँसुओं से रोने लगा। मुझे ऐसा लगा कि प्रभु मुझ से पूछ रहा है कि अगर आज तू पृथ्वी छोड़ दे तो कहाँ जाएगा? और मेरा उत्तर था “नरक”। मैंने फिर उसकी आवाज़ सुनी “तू कहाँ जाना चाहता है?” मैंने कहा “प्रभु कोई भी नरक नहीं जाना चाहता, सब स्वर्ग जाना चाहते हैं।” मैंने फिर उसकी आवाज़ सुनी “तू कहाँ जाना चहता है?” मैंने कहा “स्वर्ग।” फिर मैंने सुना “मेरे पुत्र यीशु पर विश्वास कर जिसने तेरी खातिर अपने प्राण क्रूस पर दिए और उसके लहु से धुल जा।” मैंने एकदम अपना हृदय प्रभु को दे दिया और एक छोटी सी प्रार्थना करी, जिसे करने में मुझे शायद ३० सैकिण्ड ही लगे होंगे, शायद आपको मेरी यह प्रार्थना मूर्खता लगे। मैंने प्रभु से कहा कि “हे प्रभु मैं स्वर्ग में रहना चाहता हूँ पर मेरे पाप अनगिनित हैं और मुझे पता नहीं कि तू मेरे इन सब पापों को क्षमा कर सकता है या नहीं। लेकिन अगर तू ऐसा कर सकता है तो मैं एक नयी ज़िन्दगी बिताना चाहता हूँ और मैं अपने बीते हुए कल को भूल जाना चहता हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं एक नई शुरुआत करूँ, लेकिन क्या मैं २६ साल के पापमय और दुष्टता से भरे जीवन से निकलकर नया बन सकता हूँ? पर फिर भी मैं अपने जीवन को सम्पूर्ण रीति से तेरे हाथों में सौंपता हूँ और विश्वास करता हूँ कि प्रभु यीशु ने मेरे लिए क्रूस पर अपने प्राण दिए और अपना लहू बहाया। जबकि वह पाप रहित था पर मेरे लिए बलि बन गया और मुझे धर्मी ठहराने के लिए जी उठा। तो कृपा करके मुझ अयोग्य की यह प्रार्थना हो सके तो ग्रहण करें।”

जैसे ही मैंने यह प्रार्थना पूरी की तो मुझे मेरे हृदय में एक ऐसा हल्कापन महसूस हुआ जिसको मैं बयान नहीं कर सकता। एक बड़ा और पुराना बोझ मुझ पर से हट गया। जैसे ही मैंने आँख खोली तो मुझे लगा कि मैं सम्पूर्ण बदला हुआ व्यक्ति हूँ। मेरे अन्दर एक अजीब आनन्द फूट निकला और मेरा हृदय खुशी से भर गया। मैंने तभी दूसरे कमरे में जाकर अपनी माँ और बहन से कहा “मेरा नया जन्म हो गया है।” जब भी मैं और लोगों से मिलता तो यही वाक्य बोलता था, मुझे इस बात की चिन्ता नहीं थी कि उन्हे यह समझ में आता था कि नहीं। मैं सबसे कहने लगा कि मेरे पाप क्षमा हो गये हैं। मेरे अद्भुत आनन्द को देखकर और विश्वासी भी प्रभावित होते थे।

मेरा नया जन्म होने के पश्चात मेरे अन्दर से एक अद्भुत आनन्द, जो बयान से बाहर था प्रवाहित होने लगा, मैं हर समय आनन्दित और प्रसन्नचित्त रहने लगा। परमेश्वर के वचन - बाईबल को पढ़ने से मुझे आनन्द मिलता और ऐसा प्रतीत होता जैसे परमेश्वर एक मित्र के समान मेरे करीब बैठकर मुझसे बातें कर रहा है। बाईबल की हर बात पर मुझे विश्वास होने लगा और चाहे कितनी भी असंभव प्रतीत होने वाली बात क्यों न हो, मुझे उस पर ज़रा भी अविश्वास नहीं होता था। परमेश्वर ने मेरे जीवन में अद्भुत रीति से काम करना शुरू कर दिया। मेरा पहला डर अपने दोस्तों के बारे में था कि मैं उनका सामना कैसे करूंगा? मैं सोचता था कि ‘हे परमेश्वर मैं इन दोस्तों से क्या कहूंगा’? वे कभी विश्वास नहीं करेंगे कि एक व्यक्ति जो इतना लड़ता था, इतनी गालीयाँ बकता था, इतना झगड़ालू था, वो अब एक दम से शाँत और शालीन स्वभाव का हो गया है और परमेश्वर के बारे में बातें करने लगा है; जो इसाई अपने होश संभालने के बाद कभी चर्च नहीं गया अब अचानक से बाइबल और चर्च की बातें करने लगा है और सप्ताह के सातों दिन बाईबल अध्यन के लिये एक बाईबल के पढ़ाने वाले भाई जौन कुमार, जिन्हे परमेश्वर ने अपने बड़े अनुग्रह से मुझे मिलाया, के पास जाने लगा है।

लेकिन कुछ बहुत अजीब होने लगा। पहले मेरे दोस्त प्रतिदिन मेरे घर अपनी मोटर साईकिल और स्कूटर पर आते और हौर्न बजाते थे, और फिर मैं उनके साथ निकल जाता था। लेकिन मेरे नया जन्म होने के बाद, जैसे शाम होने लगी, उनके सामने जाने की मेरी चिंता बढ़ने लगी, लेकिन उस शाम कोई नहीं आया, किसी ने हौर्न नहीं बजाया। यह एक बड़ी विचित्र और अविशवस्नीय बात थी। यह वास्तव में एक चमत्कार था कि उनमें से कोई मेरे घर नहीं आया। मैंने बाद में नीतिवचन में से सीखा कि परमेश्वर मनुष्य और राजाओं के हृदय को मोड़ देता है, और यही हुआ। मेरे सारे ऐसे दोस्त जिनके सामने जाने से मैं घबराता था मुझे लगभग एक वर्ष तक बिलकुल भूल गये, और इस समय में मैं परमेश्वर की निकटता और प्रेम में बढ़कर विश्वास में दृढ़ और स्थिर हो गया। फिर बाद में जब मैं उनमें से एक से मिला तो वह मुझसे यह कहकर क्षमा माँगने लगा कि फिलिप, मैं बहुत व्यस्त हो गया और तुमसे मिल नहीं सका। मैं अचंभित था और मैंने परमेश्वर का धन्यवाद किया कि यह उसी का कार्य था। वह मुझसे कितना प्रेम करता है, वह मेरे दिल की बातें और मेरे भय भी जान लेता है, मुझे सुरक्षित रखता है और मेरी भलाई के लिये कार्य भी करता है। ऐसे ही सैंकड़ों अनुभवों के द्वारा मैंने अपने जीवन में परमेश्वर की मौजूदगी को बारंबार महसूस किया है।

उसने मेरे जीवन में कई अद्भुत कार्य किये, अब उसके साथ मुझे १६ वर्ष बीत चुके हैं, मेरी शादी हो चुकी है, मेरे तीन बच्चे हैं और मैंने ज़िन्दगी के कई उतार चढ़ाव देखे हैं, लेकिन मैं किसी एक भी ऐसे क्षण को नहीं जानता जिसमें परमेश्वर का प्रेम, उसकी विश्वासयोग्यता,भलाई और दया मेरे साथ न रहीं हों। मैं कितनी ही बार उसकी भलाई के अनुसार उसके साथ विश्वासयोग्य नहीं रहा, किंतु वह वैसा ही रहा, कभी नहीं बदला; प्रत्येक परिस्थिति में मेरा परमेश्वर, मेरा बचानेवाला, मेरा प्रभु, मेरा पिता, मेरा मित्र और मेरा राजा बनकर।

मैं आरधाना करता हूँ परमेश्वर की जो मेरी अर्थहीन ज़िन्दगी में आया और उसे एक महिमामय आशा, ज्योति और जीवन से भर दिया।

प्रीय पाठक यदि मेरा जैसा टेढ़ा और व्यर्थ मनुष्य अनन्त जीवन और वर्णन से बाहर आनन्द प्राप्त कर सकता है, तो आप भी, अभी, एक प्रार्थना के द्वारा प्रभु यीशु को अपने जीवन में आमंत्रित करके ऐसे ही अनन्त जीवन और आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं। आपको केवल यह विश्वास करना है कि प्रभु यीशु आपके पापों के लिये मारा गया, गाड़ा गया और फिर तीसरे दिन मुर्दों में से जी उठा ताकि जो कोई उसके नाम में विश्वास करे वह उसके द्वारा अनन्त जीवन, शांति, आनन्द और बहुत कुछ पाये।

रविवार, 6 दिसंबर 2009

सम्पर्क मई २००९: कल का सामना करने की सामर्थ...?

सूफी परम्परा की एक प्राचीन कहानी है। किसी राजा ने कहा “मुझे एक ऐसी सलाह चाहिये जो मेरे आड़े वक्त काम आये।” किसी सन्त ने एक कागज के टकड़े पर कुछ शब्द लिखकर राजा के पास भिजवा दिये और कहा “जब ज़रूरत पड़े तब खोल के पढ़ लेना।” राजा ने कागज़ के टुकड़े को अपने गले के लॉकेट में रखकर लटका लिया। सालों सिलसिला चलता रहा और वह सलह ऐसे ही गले में लटकी रही। लम्बे समय बाद राजा एक युद्ध पर निकला और आशा के विपरीत, जीत की बजाए उसे एक भारी हार का सामना करना पड़ा। हारे हुए राजा के विश्वास्योग्य साथी भी उसे छोड़कर भाग खड़े हुये। अकेला राजा भी अपनी जान बचाने को भागा, दुश्मन सिपाही उसके पीछे भागे। आखिर उसके प्रीय घोड़े ने भी थककर उसका साथ छोड़ दिया। राजा पैदल ही भागा लेकिन आखिर थके शरीर ने भी साथ देने से इंकार कर दिया, तौ भी वह हिम्मत करके आगे ही बढ़ता रहा, पीछा करने वाले भी बढ़ते आ रहे थे। अचानक उसके सामने एक बड़ी खाई आ गई, खाई के इधर उधर कोई रास्ता नहीं था, पीछे से पीछा करने वाले भी समीप आते जा रहे थे। अब राजा की हिम्मत भी जवाब दे गई, और वह थका और निराश औंधे मूँह खाई के किनारे जा गिरा। पीछा करने वाले घुड़सवारों की आवाज़ करीब आती जा रही थी और राजा को अपना पकड़ा जाना निश्चित लग रहा था। उसने सोचा इस अपमानजनक कैद से तो मौत भली और वह खाई में कूदकर आत्महत्या करने के इरादे से हाथों की टेक लगाकर उपर को उठा तो गले में लटके लौकेट में रखी सन्त की सलाह ध्यान आई। उसने जलदी से गले में झूलते हुए उस लॉकेट में से वह कागज़ का टुकड़ा निकाला और उसे खिलकर पढ़ा, जिसपर लिखा हुआ था “मत डर, यह वक्त भी न रहेगा।” उसे पढ़कर वह वैसे ही लेट गया। घोड़ों के टापों की आवाज़ कहीं पास आकर रुक गई और फिर धीर-धीरे हल्की होती गई और कहीं हवा में खो गई। कुछ समय बाद राजा भी उठा और अपने राज्य की ओर बढ़ चला, और बचते बचाते आखिर सुरक्षित पहुँच भी गया। राज्य में पहुँचकर उसने उस सन्त को बुलवाया, बड़े सम्मान के साथ उसका स्वागत किया, और उससे कहा “सच में जीवन के सबसे आड़े वक्त में आपकी सलाह जीवन दे गई। मैं तो खाई में कूदकर आत्महत्या करने ही वाला था पर आपके दिए यह कुछ शब्द काम आ गये।”

यह कहानी आपसे और मुझसे क्या कहती है? यदि परमेश्वर का वचन हमारे मन में रखा होगा तो वक्त के अनुसार वह हमारा मार्ग दर्शन भी करेगा। क्योंकि वचन ही बुरे वक्त में हर बुराई से बचने का एक अद्भुत सहारा है, इसलिये वचन को अपने मन में अधिकाई से बसने दो (कुलुसियों ३:१६)। अगर हम अपने मन में उसे रख छोड़ेंगे तो बुरे वक्त में परिस्थितयों का सामना करने और स्थिर रहने की सामर्थ भी उस वचन से मिलेगी।

इतिहास कहता है कि यीशु मसीह मारा गया पर परमेश्वर का वचन कहता है कि यीशु मसिह मेरे पापों के लिये मारा गया (१ कुरिन्थियों १५:३)। इतिहास कहता है कि मरने के तीन दिन बाद उसकी देह नहीं मिली पर परमेश्वर का वचन कहता है कि वह उसी देह में फिर से जी उठा। परमेश्वर के वचन का सत्य इतना सस्ता नहीं कि चश्मा चढ़ाकर पढ़ लेने मात्र से ही समझ में आ जायेगा। उसपर तो मन से विश्वास किया जाता है और मुँह से अंगीकार करना पड़ता है। विश्वास वचन के सुनने से आता है और मन में रख लेने से बढ़ता जाता है। परमेश्वर का वचन कभी खाली नहीं लौटता, यदि मन में लटका है तो एक दिन अपना काम ज़रूर करेगा (यशायाह ५५:११)।

जो पैग़ाम अम्बर से लाता है उस इन्सान को पैग़म्बर कहते हैं। पर जिस पैग़ाम को परमेश्वर खुद ही लाया हो और जिसके शब्दों में कुछ भी इन्सानी बुद्धी की बात न हो उस सत्य वचन को परमेश्वर का वचन कहते हैं। यह परमेश्वर का वचन इसीलिये उतना ही सत्य है जितना परमेश्वर और उतने ही आदर का पत्र है जितना स्वयं परमेश्वर। आज परमेश्वर का पैग़ाम अपके पास आया है “जिसके पास मेरा वचन है और वह उसका पालन करता है, वही है जो मुझ से प्रेम रखता है” (युहन्ना १४:२१), “समय पूरा हुआ है और परमेश्वर का राज्य निकट है इसलिये मन फिराओ और सुसमाचार पर विश्वास करो” (मरकुस १:१५), “परन्तु जितनों ने उसे (प्रभु यीशु को) ग्रहण किया उसने उन्हें परमेश्वर की सन्तान होने का अधिकार दिया अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास करते हैं” (यूहन्ना १:१२)।

आज वचन ने आपसे क्या कहा “सुन तो लो” (याकूब ४:१४)?


बुधवार, 2 दिसंबर 2009

सम्पर्क मई २००९: प्यार पहचाना नहीं

घर में एक माँ अपने बच्चे के बचे हुये भोजन के आखिरी निवाले को फेंकती नहीं, पर खुद खा लेती है क्योंकि उसमें उसकी लागत और मेहनत लगी है। वही माँ किसी शादी के भोज में उसी बच्चे की भोजन वस्तुओं से भरी हुई प्लेट को, जो वह खा नहीं पाता, बड़े आराम से कहती है, “इसे कचरे में डाल दे।” कहते हैं ‘माल-ए-मुफ्त दिल-ए-बेरहम’ यानि मुफ्त के माल को बड़ी बेरहमी से उपयोग किया जाता है। यह आदमी का स्वभाव है।

प्रभु ने हमें इतना प्रेम दिया, ऐसा बेमिसाल और बयान से बाहर प्रेम किया। क्योंकि प्रभु ने हमें यह प्रेम मुफ्त में दिया इसलिये मैं और आप इस प्रेम की कीमत को नहीं पहचानते, उसकी कद्र नहीं करते। उसने हमें अद्भुत जीवन दिया, और मुफ्त में दिया पर हमने उसकी कीमत को नहीं जाना। उसने इतना अद्भुत वचन दिया, मुफ्त दिया पर हमने उसके बेशकीमती होने को नहीं जाना।

चिंता ऐसी चिता है जिस पर आते ही आदमी मुर्दा सा हो जाता है। चिंता एक शक है जो मन पर सवार होते ही कहता है, क्या होगा? कैसे होगा? शक की लहरों पर डोलता मन हर एक लहर से कभी इधर तो कभी उधर होता रहता है। जब हम चिंता को पहन लेते हैं तो वह हमारे चेहरे और हमारे व्यवहार पर साफ झलकती है। मुझे मेरी प्यारी सी पत्नि सुंदर दिखना बंद हो जाती है, अच्छे से अच्छे खाने का मज़ा चला जाता है, भूख मरने लगती है, नींद उड़ने लगती है और ‘कल क्या होगा’ सोच सोचकर जीने का विश्वास जाता रहता है। लेकिन “धर्मी जन विश्वास से जीता है” (इब्रानियों १०:३८)। चिंता करने से कल के दुःख तो कम नहीं होते पर कल के दुःखों का सामना करने की शक्ति ज़रूर कम हो जाती है।

परमेश्वर ने चिड़िया को यदि चिंता करने की समझ दी होती तो उसने कब की आत्महत्या कर ली होती। उसमें न ही समझ है और न ही ताकत। वह एक एक दाना ढूँढकर खाती है फिर उन्हीं दानों से अपने बच्चों को पालती है। तिनका तिनका ढूँढकर अपना घर बनाती है, और वह भी ऐसा जो किसी आंधी या दुशमन का सामना नहीं कर सकता। पर प्रभु एक ऐसी ही छोटी सी चिड़िया को उदाहरण बनाकर कहता है “इसलिए डरो नहीं, तुम गौरयों से बहुत बढ़कर हो” “... क्या तुम उनसे अधिक मूल्य नहीं रखते?” (मत्ती ६:२६, १०:३१)। ज़रा सोचो तो सही मैं तुम्हें कैसे छोड़ सकता हूँ?

यीशु की देह इस जगत में इस जगत के लिये अपनी जान देने के लिये ही जन्मी; क्योंकि वह जगत से प्यार करता था। वह इस जगत के सिर्फ भलों से ही नहीं पर एक डाकू से भी प्यार करता है। उसने उस डाकू के लिये भी अपनी जान दी जो दूसरों की जान लेता है। एक भी ऐसा नहीं जिसे प्रभु प्यार न करता हो। आप कैसे ही क्यों न हों प्रभु आपको प्यार करता है।

प्रभु की देह की जिस दिन हत्या की गई, वह सृष्टि का सबसे अंधकारपूर्ण दिन था। पर परमेश्वर ने वह दिन अनन्तकाल का ज्योतिर्मय दिन बना दिया। क्रूस के द्वारा जहाँ आदमी ने अपना सबसे बड़ा दुष्कर्म दिखाया, वहीं परमेश्वर ने अपना सबसे बड़ा प्रेम और सुकर्म दिखाया। आदमी तो ज़्यादा से ज़्यादा जान ले सकता था और वह उसने ले ली। लेकिन यीशु ज़्यादा से ज़्यादा अपनी जान दे सकता था जो उसने मेरे और आप के लिये अपना प्रेम प्रमाणित करने को दे दी ।

जब मैंने उसके इस बलिदान को स्वीकर कर स्वयं को उसके हाथ में सौंप दिया तो उसने यह निश्चय भी मुझे दिया कि जो भला काम वह मुझ में आरंभ कर रहा है, अर्थात मुझे अपनी समान्ता में बदलने का काम, उसे वह पूरा भी करेगा । वह तब तक चैन से नहीं बैठेगा जब तक मुझे निर्दोष, निष्कलंक, बेझुर्री और बेदाग़ करके अपनी समान्ता में न ले आये। क्योंकि एक दिन उसे मुझे अपने स्वर्गीय राज्य का एक निवासी बनाना है, अपने साथ अनन्त काल के लिये रखना है।

एक प्रभु के दास ने एक दिन में ४० लोगों को दफनाया जिनमें से एक उसकी पत्नि भी थी। उसी शाम जब वह बच्चों के साथ भोजन करने बैठा तो उस दास ने भोजन के लिये प्रभु को इस प्रकार धन्यवाद दिया, “प्रभु बाहर युद्ध और मौत है और अन्दर बहुत दुख है, पर मैं आभारी हूँ कि इस हाल में भी अपने मुझे धन्यवाद देने के योग्य बनाया है।”

कितनी बार हम दान तो लेते हैं और दान का आनन्द भी लेते हैं पर दाता को भूल जाते हैं। प्रार्थना में बहुत तेज़ और आरधना में बहुत धीमे होते हैं, प्रार्थना में शब्दों की कमी नहीं होती पर आराधना के लिये शब्द ढूँढते रह जाते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके एहसानों का एहसास हम में बहुत कम बचा हो?

“...यहोवा का धन्यवाद करो, क्योंकि वह भला है और उसकी करुणा सदा की है” (भजनसंहिता १०६:१)।