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शनिवार, 29 जून 2019

गैर-मसीही वैवाहिक रीति-रिवाजों, अनुष्ठानों एवं परम्पराओं का पालन करना।



क्या गैर-मसीही लोगों को प्रभु में आने के बाद पहले की गैर-मसीही वैवाहिक परंपराओं का निर्वाह करते रहना चाहिए या फिर छोड़ देना चाहिए? क्या हमें इंतिजार करना चाहिए कि प्रभु उन्हें बदलेंगे?
                  
उत्तर:
        परमेश्वर के वचन बाइबल में विवाह और वैवाहिक संबंधों के विषय तो बहुत कुछ सिखाया और बताया गया है, किन्तु विवाह की रीति, अनुष्ठानों और वैवाहिक प्रथाओं या परंपराओं के विषय कोई विशिष्ट निर्देश नहीं दिए गए हैं – न पुराने नियम में मूसा द्वारा दी गई व्यवस्था में, और न ही नए नियम में प्रभु यीशु की शिक्षाओं या पवित्र-आत्मा की प्रेरणा से लिखी गई पत्रियों में। एक बार को यह कुछ अटपटा और अस्वीकार्य सा प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में यह परमेश्वर की बुद्धिमता और दूरदर्शिता का प्रमाण है। यदि बाइबल में कहीं भी यह लिख दिया जाता कि विवाह और वैवाहिक संबंधों के रीति-रिवाज़ तथा अनुष्ठान क्या होने चाहिएँ, तो फिर उन अनुष्ठानों के निर्वाह के अतिरिक्त किए गए अन्य सभी विवाह बाइबल के अनुसार अनुचित और अवैध हो जाते। ऐसे में अन्यजातियों द्वारा सुसमाचार स्वीकार करके प्रभु में आने पर उनके सभी वैवाहिक संबंध (उन अनुष्ठानों और रीतियों के अनुसार न होने के कारण) अनुचित तथा अवैध हो जाते, परिवार बिखर जाते, जिससे फिर सामाजिक अव्यवस्था व्याप्त हो जाती, तथा प्रभु में आना लोगों के लिए फिर और भी अधिक कठिन तथा अस्वीकार्य हो जाता। किन्तु वर्तमान स्थिति के अन्तर्गत, सुसमाचार स्वीकार करने और प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता ग्रहण करने पर भी वैवाहिक संबंधों में विच्छेद की कोई आवश्यकता नहीं है (1 कुरिन्थियों 7:10-14)।

        आज हम जो विवाह से संबंधित रीति-रिवाज़ और अनुष्ठान आदि के निर्वाह को देखते हैं, वे बाइबल में दी गई प्रथाएँ नहीं परन्तु यूरोपीय देशों से आए हुए लोगों की प्रथाएँ और रिवाज़ हैं। वे लोग सँसार में जहाँ कहीं भी गए और प्रभु यीशु का सुसमाचार जहाँ कहीं भी उनके द्वारा पहुंचाया गया, साथ ही उन्होंने अपने रीति-रिवाज़ और अनुष्ठान भी पहुँचाए; और प्रभु में आने वाले स्थानीय लोग भी उनके द्वारा बताई गई “ईसाई” रीतियों और अनुष्ठानों को मानने लगे। किन्तु साथ ही में, उन “ईसाई” रीतियों में, स्थानीय रीति-रिवाजों का मिश्रण भी कुछ सीमा तक होता रहा। बाइबल में इस प्रक्रिया को कहीं अनुचित नहीं ठहराया गया है। बाइबल बस इतना कहती है कि जब वैवाहिक संबंध में बंधो तो उसे वफादारी से वैसे ही निभाओ, जैसे कि प्रभु यीशु मसीह अपनी दुलहन – विश्व-व्यापी कलीसिया के साथ निभाता है, और जैसा कलीसिया का प्रभु के प्रति निर्वाह करने का दायित्व है (इफिसियों 5:22-32)। इसलिए बाइबल के आधार पर मसीही विश्वासियों में वैवाहिक संबंध के लिए, इस बात के अतिरिक्त और कोई अनिवार्य रीति या अनुष्ठान नहीं है। सामान्यतः समाज और सँसार के लोग जिन्हें “ईसाई रिवाज़ या प्रथाएँ” कहते हैं, वे बाइबल से नहीं वरन उन यूरोपीय लोगों द्वारा आई हैं जिनके द्वारा प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करने के द्वारा उद्धार का सुसमाचार और मसीही विश्वास आया और फैलाया गया।

        विवाह संबंधित विभिन्न प्रथाएँ – सिंदूर, मंगल सूत्र, कंगन, आदि, भी क्षेत्र या स्थान की स्थानीय प्रथाएँ हैं। किन्तु उन सभी के साथ कुछ धार्मिक अभिप्राय भी जुड़े हुए हैं। जब उन बातों का पालन किया जाता है, तो साथ ही समाज के सभी लोगों के सामने यह अभिप्राय भी जाता है कि उन प्रथाओं से संबंधित धार्मिक अभिप्रायों को भी मान्यता दी जा रही है, उन धार्मिक अभिप्रायों का भी आदर तथा निर्वाह किया जा रहा है – चाहे मसीही विश्वासी व्यक्ति का यह अभिप्राय कदापि न हो, किन्तु उन चिन्हों की उपस्थिति एवँ निर्वाह स्वतः ही देखने वालों के मन यह भावना पहुँचा देते है।

        क्योंकि मसीही विश्वासी के जीवन का उद्देश्य प्रभु यीशु मसीह को आदर एवँ महिमा देना, और उसके उद्धार के जीवन का प्रचार और प्रसार करना है, इसलिए इन चिन्हों की उपस्थिति अनकहे रूप और अनजाने में मसीही विश्वासी के जीवन के इस अति-महत्वपूर्ण और प्राथमिक उद्देश्य को नकार देती है, उसकी मसीही गवाही के विपरीत हो जाती है। साथ ही कोई गैर-मसीही यह प्रश्न भी उठा सकता है कि जब आप इन वैवाहिक रीतियों के धार्मिक अभिप्राय को स्वीकार कर सकते हैं तो अन्य धार्मिक अनुष्ठानों और रीतियों को क्यों स्वीकार नहीं कर सकते हैं? ऐसे में मसीही विश्वासी का यह कहना कि वह उन्हें केवल विवाह के चिन्ह मानता है, किन्तु उनके धार्मिक संदर्भ को नहीं मानता है, उस दूसरे व्यक्ति के लिए ठेस का कारण हो सकता है, उसे प्रतिकूल प्रतिक्रया देने के लिए उकसा सकता है, उसकी समझ में यह उसके धर्म का अपमान हो सकता है, जिसके अनेकों प्रकार के दुष्परिणाम हो सकते हैं। इसलिए बेहतर यही है कि समाज और सँसार जिन्हें “ईसाई वैवाहिक रीतियाँ” मानता और स्वीकार करता है, उन्हीं के अनुसार रहा और चला जाए; और प्रभु में आने के पश्चात अन्य सभी बातों को छोड़ कर केवल मसीही बातों का निर्वाह किया जाए (1 कुरिन्थियों 10:31; 2 कुरिन्थियों 5:15)।

        प्रभु ने लोगों तक अपनी शिक्षाओं को पहुँचाने और लोगों को उन्हें मानना सिखाने का दायित्व हम मसीही विश्वासियों को दिया है (मत्ती 28:19-20)। इसलिए उन लोगों तक इन बातों के अभिप्राय और सत्य को पहुँचाने की जिम्मेदारी भी हमारी है। हम किसी को बलपूर्वक किसी बात को मानने या स्वीकार करने के लिए बाध्य, या उन्हें परिवर्तित नहीं कर सकते हैं – यह काम परमेश्वर का है। परन्तु उस परिवर्तन के लिए परमेश्वर की शिक्षाओं का आधार लोगों तक पहुँचाना हमारा काम है। इसलिए प्रार्थना-पूर्वक परिस्थिति और उसके अभिप्रायों को समझाएं, और हमारे द्वारा डाले गए वचन के बीज को प्रभु अपने समय में अपनी रीति से फलवन्त करेगा (1 कुरिन्थियों 3:6-7)।