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शनिवार, 27 जून 2009

सम्पर्क फरवरी २००२: बस बहुत हो गया

मौत और मातम से भरे एक साल को इतिहास के पन्नों में दफना कर अब हम एक नए साल को नई उम्मीदों के साथ लेकर खड़े हैं। पर सच तो यह है कि आनेवाला कल फिर से कितनी खूनी ख़बरें साथ लेकर आएगा, कोई नहीं जानता। आदमी ने ये बड़ी बरबादी खुद ही बोई थी और आज उसी की फसल काटने पर मजबूर है। अब संसार अपनी समाप्ति के समीप आ पहुँचा है; हाँ सच मानिए अन्त का आरंभ अब शुरू हो चुका है। दुनिया के सबसे अच्छे साल अब समाप्त हो गए हैं; संसार अपने समय सीमा का ज़्यादातर हिस्सा पूरा कर ही चुका है। जो समय अब बचा है वह स्थान स्थान पर होने वाले विनाश की गाथाओं, दिल दहला देने वाली घटनाओं और मनुष्य के अमानवीय व्यवहार के समाचारों से भरा होगा। इन्सान की दरिंदगी अब खुलकर सामने आने लगेगी।

हमने अपने देश की विधान सभाओं और संसद में अपने नेताओं का व्यवहार देखा है। नेता शोर-शराबा, गाली-गलोच करते हैं, फाइलें फाड़ डालते हैं, सभास्थल में लेट जाते हैं और काम अवरुद्ध करते हैं, अनुशासन भंग करने के कारण मार्शल उन्हें उठाकर सभास्थल से बाहर करते हैं। इन देश के संचालकों द्वारा उछल-कूद, लातम-लात, जूते फेंकना, माईक तोड़ना और फेंकना, कई बड़े नेताओं का सदन की मेज़ों के नीचे छिपना देशवासियों ने देखा है। ये वही नेता हैं जो सदन के बाहर सब जगह लोगों से देश में शान्ति और एकता लाने के वायदे करते फिरते हैं, कानून व्यवस्था लागू करने की कसमें खाते हैं। इनके हाथों में कितना सुरक्षित है हमारा देश और कानून? “एक मज़ाक है” कार्यक्रम में रेडियो पर एक उदघोषणा की गई कि एक भाई और एक बहन काफी समय से लापता हैं। उन्हें आख़िरी बार सन १९४७ में देखा गया था। भाई का नाम ‘सच’ है और बहन का नाम ‘ईमानदारी’ है। देश को इन दोनो की सख़्त ज़रूरत है। जो व्यक्ति इन दोनों को ढूंढ लाने में सहायता करेगा, उसे पूरा आश्वासन दिया जाता है कि उसका नाम-पता राजनेताओं और धर्मनेताओं से पूरी तरह से छिपा कर रखा जाएगा।

हमारे राजनेताओं को मान-सम्मान की कोई चिंता नहीं। बेशर्मी की चिकनाई ऐसी चढ़ा रखी है कि शर्म का पानी ठहरता ही नहीं; बन्दा चन्दा तो ऐसे चबाता है जैसे कुछ किया ही नहीं। ‘राजनीति’ एक भद्दा शब्द बन गया है। किसी भी दाँव-पेंच से अपनी धाक जमाना ही इनका मकसद रह गया है।

कुछ डाक्टर होते हैं जो बिमारी से भी ज़्यादा खतर्नाक होते हैं। ऐसे ही हमारे धर्म और धर्मगुरू हैं। हमारे धर्म हमारी समस्याओं का उपचार देने की बजाए उन्हें और बढ़ा देते हैं। जैसे कैंसर या अन्य कोई भी रोग, जिस शरीर में पलता है उसी को नष्ट करता है, धर्म भी समाज में लगे एक भयानक रोग की तरह समाज को ही नष्ट करने में लगा है। धर्म के नाम पर मानव में विभाजन ही आया है, धर्म ने कब हमें जोड़ा है, कितने ही टुकड़ों में तोड़ ज़रूर डाला है। समाज के भयानक अपराधी इतने निर्दोषों की हत्याएं नहीं कर पाए जितनी ‘धर्म’ ने धीरे से ही कर दीं। आतंकवाद भी धर्म की ही देन है।

परमेश्वर प्रेम है पर धर्मों में कहाँ प्रेम है? धर्मों में क्षमा देने की सामर्थ नहीं है। धर्म ने हमारी साधारण सी समझने की सामर्थ का भी सत्यानास कर दिया है; ऐसा बुद्धिहीन कर दिया है कि ‘धर्म’ के नाम पर कोई भी अधर्म करवा लो, बड़ी सहजता और गर्व से कर जाएंगे। शास्त्रों के शब्दों और सिद्धान्तों को सिर में भर लेने से जीवन नहीं बदलता।

धर्म परिवर्तन के विचार ने भी एक नई समस्या ला खड़ी की है। आपसी विरोध, जलन, बदले की भावना को बड़ी तेज़ी से बढ़ा दिया है। धर्म परिवर्तन के नाम पर गुमराह करने के लिए ऐसी ऐसी बातें बुनकर बताई जाती हैं और लोगों के दिमाग़ों में अटकाई जाती हैं जिससे सुनने वाले आक्रोश से भर जाएं। फिर इस उन्माद को हवा देकर समाज में आग लगाई जाती है और स्वार्थ की रोटीयां सेकी जातीं हैं। सब धर्मों की नीति है कि जो हमारे धर्म की नीति से सहमत नहीं है वह विधर्मी है, काफिर है; ऐसों को नाश कर डालो।

प्रभु यीशु कहता है मैं नाश करने नहीं पर बचाने आया हूँ। परमेश्वर का वचन बाईबल कोई धर्म हम पर नहीं थोपता, केवल सत्य को हमारे सामने प्रस्तुत करता है। हज़ारों साल का इतिहास इस बात का सबूत है कि बाइबल जैसा कहती है, वैसा ही होता है। मानव इतिहास, अनेक प्रयासों के बावजूद, बाईबल के एक भी दावे को आज तक झुठला नहीं पाया है। बाईबल के पूर्णत्या सत्य और परमेश्वर का वचन होने के प्रमाणों की कमी नहीं है, कमी तो लोगों के उन प्रमाणों को मानने की मन्सा में है। बिना जाँचे परखे ही लोग बाईबल को शक की निगाह से देखते हैं; ऐसों को समझाना वास्तव में बड़ी टेढ़ी खीर है।

कुछ दिन पहले मैं और मेरी पत्नि एक अच्छे पैसे वाले व्यक्ति के घर गए। वह व्यक्ति तो घर पर नहीं मिले, उनकी पत्नि और उसकी सास ही घर पर मिलीं। सास काफी बुज़ुर्ग थीं और उन्ही विचारों के साथ जी रहीं थीं। सास ने मेरी पत्नि से पूछा “आपके पास कितने बच्चे हैं?” मेरी पत्नि ने जवाब दिया “हमारे दो बच्चे हैं।” सास ज़रा अचरज से बोलीं “बस दो ही?” सास के ऐसा कहते ही बहू बोल उठी “दो ही बहुत हैं न जूते खाने के लिए।” और मैं सोचने लगा कि माँ-बाप को अपने बच्चों से क्या यही आशा बची है?

हम अपने परिवार में ही आपस में बिखरने लगे हैं। कई अपने भी अपने से नहीं लगते और अपनों में भी पराएपन का एहसास होता है। हम झूठे और खूबसूरत शब्दों से अपनों को ही धोखा देते हैं। पति-पत्नि में, सास-बहू में, बाप-बेटे के रिश्तों में अब काफी खटास आ चुकी है। कुछ तो इस आस में जी रहें हैं कि कब बाप मरे तो कुछ हाथ लगे। कितने अपनी पत्नियों को सिर्फ शब्दों से ही सहलाते हैं, पर अपना मन कहीं और लगाए रखते हैं।

एक आदमी की बीमार बीवी अपनी आखिरी साँसें गिन रही थी। बीवी ने मरते-मरते अपने पति से पूछा, “क्या मेरे मरने के बाद तुम दूसरी शादी करोगे?” पति ने बहुत कोशिश करके आँखें नम करीं और ग़मग़ीन लहज़े में बोला, “कभी नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता।” बीवी बोली, “मुझे मालूम है तुम दूसरी शादी ज़रूर करोगे। मेरी एक विनती है कि मेरे शादी के कपड़े उसे मत पहिनाना, वरना मेरी आत्मा को बहुत दुख पहुँचेगा।” बीवी को समझाते और तसल्ली देते देते पति झोंक में बोल गया, “वैसे भी तुम्हारा शादी का सूट नसीमा को फिट तो बैठेगा नहीं।” अभी बीवी मरी नहीं थी, वह आगे की तैयारी पहिले ही कर चुका था।

हालातों ने कितनों के दिल ही छील डाले हैं। कितने अपने घरों में ही अजनबी की तरह जीते हैं, तब खामोशी में यह विचार आता है कि चल खुदकुशी ही कर ले। जो हमारी आँखों को दिखता है, वह आदमी का असली चेहरा नहीं होता। जो बात हमारे कान सुनते हैं वास्तव में वह आदमी के दिल की बात नहीं होती।

एक व्यक्ति की पत्नि की अर्थी जा रही थी। वह आदमी चिल्ला-चिल्ला कर रो रहा था। बाहर से दुखी दिखता था पर अन्दर से था नहीं। भीड़ उसे बहुत दिलासा दे रही थी। गाँव के आखिरी संकरे मोड़ पर एक पुराना बरगद का पेड़ था, मुड़ते समय अर्थी उससे टकरा गई, कफन हिला और बीवी उठ बैठी। आदमी का रोना-पीटना तो बन्द हो गया पर अब दिल दुखी हो गया। अन्दर ही अन्दर सोचने लगा कि “यह मुसीबत फिर जी उठी।” बीवी दो साल और जीवित रह कर फिर मर गई।

आदमी फिर रो रहा था, फिर अर्थी उसी रास्ते जा रही थी, फिर वही मोड़ और बरगद का पेड़ आया। वह आदमी रोना बन्द कर, तेज़ी से अर्थी के आगे आया और उठाने वालों से बोला, “भाई लोगों ज़रा ध्यान से और बरगद से बच कर निकलना।” लोग उसे रोता चिल्लाता तो देख रहे थे पर अन्दर की बात तो कुछ और ही थी। हम परिवार में भी अपनों को ही धोखा देते और अपनों से ही धोखा खाते रहते हैं।

परमेश्वर ने अगर हमारी खोपड़ी में एक खिड़की लगा दी होती तो बड़ा ग़ज़ब हो गया होता। खिड़की से झाँक कर लोग पता कर लेते कि अन्दर क्या चल रहा है। कितने घर बरबाद हो गये होते। पर परमेश्वर की दया से केवल परमेश्वर ही देख पाता है कि आपकी और मेरी खोपड़ी में क्या क्या चल रह है। वो देखता है कि आप कितनों के प्रति जलन से भरे हैं, गन्दे विचारों से भरे हैं। उसे पता है कि आपने कितनों के पैसे और सामान वापस नहीं किए और न करने की मन्सा रखते हैं। आपके घर में क्या क्या चल रहा है, कितने गन्दे संबंध छिपाकर पाल रखे हैं, परमेश्वर सब जानता है। हम अपनी ज़िन्दगी के असली रंग तो बहुत छिपाकर रखते हैं, पर औरों को वह दिखाते हैं जो हैं ही नहीं।

कुछ लोग अपने आप से, अपने परिवार से बहुत उदास परेशान रहते हैं। कुछ के ग़म सारी उम्र उनके दिल पर ठहरे रहते हैं। कुछ अपनी समस्याओं का अन्त आत्म हत्या में ढूँढते हैं। पर आत्म हत्या तो कोई उपाय नहीं है। यह तो एक हत्या है और एक ऐसी हाय है जो हमेशा के हादसे में कुदा देती है। वैसे तो बहुतों के पास बहुत कुछ है पर वास्तविक खुशी और चैन नहीं, तभी मन का एक सूनापन उन्हें बहुत सताता है। आप और आपके परिवार का क्या हाल है?

जीवन में हारे, हाँफते, परेशान, बेचारे, बेचैन लोगों से प्रभु यीशु कहता है “मेरे पास आओ, मैं तुम्हें चैन दूँगा (मत्ती ११:२८)।” प्रभु बताता है कि हर परेशानी की जड़ पाप है। यही पाप हमेशा भयानक परेशानी और बेचैनी उत्पन्न करता है। वह यह भी कहता है कि सबने पाप किया है (रोमियों ३:२३) कोई किसी भी धर्म का क्यों न हो, किसी भी स्तर का क्यों न हो। परमेश्वर “अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है (प्रेरितों १७:३०)।” परमेश्वर के वचन का यह पद शुरू होता है ‘अब’ से। ‘अब’ जब संसार के पाप की दशा परमेश्वर के सहने की सीमा तक आ पहुँची है। ‘अब’ जब बस परमेश्वर की बरदाश्त टूटने और पाप से जुड़ी हर चीज़ पर उसका कहर बरसने को है। इसिलिए वह आपसे कहता है, ‘हर जगह’ सबसे कहता है, इस मौके को न गंवाओ, अभी भी चेत जाओ, बच जाओ। चाहे आप कितना ही गिरा हुआ, शर्मनाक जीवन क्यों न जी रहे हों, आपके पाप कैसे ही क्यों न हों, आपने वह पाप कितने ही छिप कर या गुमनामी में क्यों न किए हों, परमेश्वर से कुछ छुपा नहीं है। वह आपके सब पापों को पूरी तरह से जानता है और अभी उन्हें क्षमा करके आपको एक नया जीवन देना चाहता है - अगर आप लेने को तैयार हों!

परमेश्वर का वचन हमें चार ‘कालों’ के बारे में बताता है - १. भूतकाल (जो बीत गया); २. वर्तमान काल (जो जी रहे हैं); ३. भविष्य काल (जो आने वाला है); ४. आनन्त काल (जो मौत के बाद शुरू होता है और समय की सीमा से बाहर है)। सत्य वचन, इब्रानियों ९:२७ में कहता है “एक बार मरना फिर न्याय का होना निश्चित है। जो भी मनुष्य ने किया, उसका न्याय होगा। हर पापी अनन्त विनाश की पीड़ा में धकेला जाएगा। इसीलिए वही सत्य वचन चेतावनी भी देता है कि “यदि मन न फिराओगे तो इसी तरह नाश होगे (लूका १३:५)।” ‘मन फिराने’ का मतलब है प्रभु यीशु से पापों का अंगीकार करके उन पापों की क्षमा माँगना और उनसे मुँह मोड़ लेना - उस प्रभु यीशु से जिसने आपके पापों की क्षमा, आपको उनके दण्ड से बचाने के लिए, क्रूस पर अपनी जान दी।

अब एक निर्णाय का समय हमारे सामने है। अब, मौका रहते, यदि हमने अपने पापों के बारे में फैसला नहीं लिया तो फिर बात हाथ से निकल जाएगी और परमेश्वर को ही फैसला लेना पड़ेगा। जो पाप की दशा में उसके सामने जाएगा, वह पापी होने का दण्ड भी पाएगा। यदि हमने पापों से क्षमा नहीं माँगी तो हमारे सोचने की सीमा से बाहर हम पर गुज़रने ही वाला है।

प्रिय पाठक, एक प्रार्थना करके कहें “हे यीशु दया करके मेरे पाप क्षमा कर दें।” परमेश्वर का दिल तो आपको माफी देने को तैयार है लेकिन अगर आपका दिल माफी माँगने को तैयार नहीं है तो वह ज़बरदस्ती अपनी माफी आप पर थोपेगा नहीं। वह आपके सामने दोनो मार्ग और उनकी मंज़िलें स्पष्ट रूप से रख देता है, किस मार्ग पर चलना और किस अंजाम तक पहुँचना चहते हैं, यह आप पर है। ध्यान रहे, जो मौका है वो यहीं, इसी जीवन में है। मौत के बाद फिर माफी का कोई मौका नहीं है, फिर तो न्याय है; फिर इस जीवन में किए गए अपने चुनाव का अंजाम अनन्त कल तक भोगने के अलावा और कोई स्थिती नहीं होगी। मौत की लाईन में तो सभी खड़े हैं, कोई आगे है तो कोई कुछ पीछे। कई बार बेटा मौत की लाईन में बाप से आगे खड़ा होता है। जो पैदा हुआ है, वह निश्चय मरेगा भी। हर बीतता पल, हर बढ़ता कदम मौत के और निकट लाता जाता है। इस सच्चाई से आप बेखबर न रहें, जिसने पापों की क्षमा नहीं माँगी वह कैसी दुर्दशा में होगा, न यहाँ चैन से जिया और न वहाँ चैन से रह पाएगा। प्रभु यीशु कोई धर्म देने कतई नहीं आया, वह तो आपको पापों की क्षमा देने आया ताकि कोई नाश न हो पर सब अनन्त आनन्द और अनन्त जीवन पाएं।

बहुत से बेवकूफ कहते हैं “कल किसने देखा है?” पर हकीकत यह है कि कल तो हर एक ने देखना भी है और भोगना भी है। बड़ी खामोशी से साल दर साल हाथों से खिसकते चले गए और मालूम ही नहीं पड़ा। उम्र तो बीतती ही जा रही है, लीपा-पोती से कोई कब तक जवान रहने का भ्रम बना कर रख सकता है। जिस्म की जिल्द से झुर्रियों को छुपने की भरसक कोशिश कर लो, खिज़ाब से बालों का असली रंग छुपा कर रख लो पर इन दिखावों से बढ़ती उम्र न रुकती है न घटती है। जिस घटना के बारे में सोचते ही दहशत आती है, कहीं जीवन के अगले ही पल में वो आपका इंतज़ार ना कर रही हो। मौत के सन्नाटे किसी न किसी के लिए तो हर पल के साथ जुड़े खड़े हैं, कब किसको अपने साथ जोड़ लें किसी को नहीं पता। मौत आई तो फिर पापों से क्षमा माँगने की मोहलत कभी नहीं देगी, बस चुपचाप दबे पाँव आकर उठा ले जाएगी।

आदमी एक अन्देखी शक्ति - पाप करने की प्रवर्ती से बंधा खड़ा है। जो नहीं चाहता वह कर डालता है, जिससे घृणा आती है उसे भी करने से अपने आप को रोक नहीं पाता (रोमियों ७:१५)। कैसा भी और कितना ही प्रयास क्यों न कर लो, अन्ततः यह शक्ति हावी हो ही जाती है। अगर प्रगट में नहीं तो छुपकर, शरीर में नहीं तो मन में, कर्मों में नहीं तो लालसाओं में लेकिन इस शक्ति के प्रभाव से बच पाना मनुष्य की सामर्थ से बाहर है। आपका सच्चा पश्चाताप, आपको इस अन्देखी शक्ति से छुटकारा पाने और बचने की सामर्थ देता है; एक ऐसी सामर्थ जो आपकी नहीं वरन पाप और मृत्यु पर जयवंत प्रभु यीशु की है। क्योंकि सच्चे पश्चाताप और समर्पण के बाद आप प्रभु यीशु के शरणागत हो जाते हैं और उसका आत्मा आप में निवास करता है, आपको सामर्थ देता है। सच मानिएगा सच्ची शान्ति उसी से मिलती है क्योंकि सच्ची शान्ति वहीं है जहाँ पाप नहीं है।

प्रीय पाठक यह लेख तो अब समाप्ति पर है, मेरी आपसे जो इस लेख को पढ़ रहे हैं विनम्र विनती है इस मौके को न गवाँएं। आप चाहें तो अभी प्रभु यीशु से यूँ प्रार्थना कर सकते हैं “हे यीशु मुझ पापी पर दया करके मेरे पाप क्षमा कर दें, मैं जैसा हूँ वैसा ही आपके पास आया हूँ, मुझ पापी पर दया करें। मेरे जीवन में, मेरे परिवार में सच्ची शान्ति और खुशी दें।”

सच्चे मन से की गई पश्चाताप की एक प्रार्थना आपका अनन्त काल बदलने की सामर्थ रखती है।

गुरुवार, 25 जून 2009

सम्पर्क फरवरी २००२: कोई था जो मेरे द्वार पर आया

मेरा नाम शताब सिंह है और मैं ज़िला सहारनपुर की बेहट तहसील के ग्राम लोदिपुर का निवासी हूँ। मैं एक अनपढ़ और ग़रीब परिवार में पला और बड़ा हुआ। मेरे माता-पिता इस स्थिति में नहीं थे कि वे मुझे पढ़ा सकते,इसलिए मुझे १० साल की उम्र से ही एक ज़मींदार के यहाँ पशु चराने की नौकरी पर लगा दिया गया। वहाँ मेरी उम्र के और भी बच्चे थे, जो बड़ी शैतानी करते थे उन्में से मैं भी एक था।

जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया, तो मेहनत मज़दूरी भी करने लगा। जो भी पैसे मज़दूरी से कमाता, बुरी संगति के कारण, बुरे कामों में उड़ा देता था। देखते देखते मैं २५ वर्ष का हो गया और इसी दौरान मेरी शादी भी हो गई। शादी होने के कारण मेरी ज़िम्मेदारी भी बढ़ गई और मेरे मौज-मस्ती के जीवन में विघ्न पड़ गया। लेकिन इत्तेफाक से मुझे एक अच्छी मेहनत करने वाली पत्नी मिल गयी। हम दोनो ही इकट्ठे मेहनत मज़दूरी करते और जो पैसा मिलता उसमें से कुछ बचा भी लेते। उस पैसे को मैं ब्याज़ पर भी दे देता था, और इसी पैसे से मैंने अपना घर भी बनाया। इसके बाद मैं फिर बुरी संगति में बैठने लगा, धीरे धीरे शराब भी पीने लगा और घर वालों को परेशान भी करने लगा। बात यहाँ तक बिगड़ी कि मुझे ग़लत कामों से रोकने पर मैं अपने माँ बाप को डाँट भी देता और उनकी पिटाई भी कर देता था। इस तरह मैं ने अपना सारा धन शराब में उड़ा दिया। अब मैं धीरे धीरे फिर कंगाली की कगार पर आ गया। मेरे मित्र मुझ से कटने लगे और मैं असहाय सा हो गया। अब मेरे सामने बहुत सारी समस्याएं मुँह फैलाए खड़ी हो गईं, रोज़ी रोटी के लाले पड़ गये और मैं बीमार रहने लगा। मैं इतना बीमार हुआ कि मेरी कमर 60० के कोण से झुक गई और मैं बहुत कमज़ोर हो गया। डाक्टरों ने मुझे हड्डी की टी०बी० बताई, मुझे लगने लगा कि मैं अब कुछ ही दिन जीवित रहुँगा। इतना सब कुछ होने के बाद भी मैं न तो परमेश्वर को जानता था और न ही पहचानता था। बस मनुष्य द्वारा निर्मित इश्वरों और साधु-सन्तों में ही परमेश्वर को खोजता रहा।

इस हाल में ही एक दिन मैं टी०वी० पर एक कार्यक्रम देख रहा था, जिसमें मैंने देखा कि यीशु नाम के एक व्यक्ति ने बहुत से बीमारों को चंगा कर दिया। फिर भी लोग उसपर अत्याचार कर रहे थे और उस पर पत्थर मार रहे थे, अन्त में उसे क्रूस पर चढ़ा दिया गया। मैं सोच रहा था कि यह कौन व्यक्ति है जो इतना दुखः सहन करके भी कुछ नहीं बोलता? जो लोग उस पर अत्याचार कर रहे हैं उनके लिए प्रार्थना कर रहा है। मेरे मन में उसे जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उसी दिन शाम को मेरा एक रिशतेदार मेरे पास आया और बोला कि तुम भी चंगे हो सकते हो यदि तुम मेरे साथ चलो। लेकिन इसके लिए तुम्हें शराब बीड़ी आदि सभी गंदी आदतें छोड़नी होंगी। मैं चलने को तैयार नहीं था पर मेरे घर वालों ने मुझे उसके साथ ज़बरदस्ती भेज दिया।

उस स्थान पर पहुँच कर मैंने देखा कि जो चित्र मैंने टी०वी० पर देखा था, वही चित्र वहाँ भी लगा है। मेरे मन में कुछ विश्वास जागा कि यही व्यक्ति मुझे भी ठीक कर सकता है। संगति के बाद उन लोगों ने मुझे एक क्रूस की माला और यीशु का एक पोस्टर भी दिया। मैंने वहाँ संगति में कुछ पैसे भी दिये और कहा कि आप मेरे लिए प्रार्थना करें। उन्होंने कहा कि तुम्हें लगतार संगति में आना पड़ेगा और तुम ठीक हो जाओगे। मैं अपने परिवार के साथ निरंतर संगति में जाता रहा। वे लोग मुझे प्रार्थना करके तेल और पानी भी देते थे और कुछ दिन बाद मैं ठीक भी हो गया। स्वस्थ होने के बाद मैं फिर मज़दूरी करने लगा।

एक दिन मुझे पता चला कि ग्राम ताहरपुर में एक संगति है जो रात्रि में होने वाली थी। उसमें मैं भी शामिल हुआ। वहाँ पर मैंने एक व्यक्ति को देखा जो बहुत अच्छा प्रवचन देता था और उसके द्वारा बड़े बड़े आश्चर्यकर्म भी हुए। एक दिन मैंने उस व्यक्ति को शराब पीते हुए देखा, मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने संगति के एक व्यक्ति से इसके बारे में पुछा कि आप तो शराब पीने से मना करते हो और यह तो शराब पीता है। तब उसने कहा कि तीन दिन, शुक्रवार, शनिवार और रविवार को छोड़ आप किसी भी दिन शराब पी सकते हो। इतनी बात सुनकर मैंने फिर शराब पीना शुरू कर दिया। साथ ही कमर का दर्द फिर से उठ खड़ा हुआ और इतना बढ़ गया कि उसे दबाने के लिए मैं हर वक्त शराब पीने लगा। मेरी हालत लगातार बिगड़ती चली गई। धीरे धीरे माँ-बाप, रिशतेदार, यार सभी मेरा साथ छोड़ते गए। तब एक सम्बंधी मुझ पर दया करके मुझे हर्बटपुर के अस्पताल में छोड़ आया जहाँ मेरा इलाज चला। लेकिन मेरे पास न तो पैसे ही थे और न ही सहारा। दवा कहाँ से आएगी, इलाज कैसे चलेगा; इसी उधेड़-बुन में मैं पूरे दिन पड़ा रहता था। सोचता था कि बस अब ज़िन्दगी थोड़े ही दिनों की है।

मैं प्रार्थना करनी नहीं जानता था पर फिर भी प्रभु यीशु के नाम से टूटी-फूटी प्रार्थना कर लिया करता था। उसी का परिणाम हुआ कि एक दिन मेरे पास प्रभु का एक सच्चा दास आया, जिससे मेरी कोई जान पहचान नहीं थी। उसने मुझ से पूछा “आप के दरवाज़े पर जो निशान बना है वो क्या है?” मैंने कहा कि यह प्रभु यीशु के क्रूस का निशान है। उसने फिर सवाल किया कि क्या आप का उद्धार हो गया है और क्या आपके पाप क्षमा हो गए हैं? मैंने कहा मुझे पता नहीं कि उद्धार क्या होता है और पाप कैसे क्षमा होते हैं। उसने मुझ से कहा कि भाई बादशाही बाग़ में एक संगति होती है, आप वहाँ जाया करो। वहाँ आप पापों से मुक्ति और उद्धार के बारे में जान पाओगे। मैंने उसे वहाँ जाने का आश्वासन तो दिया पर नहीं गया। वह भाई फिर मेरे घर आया और पूछा कि “क्या आप बादशाही बाग़ गये थे?” मैंने असमर्थ्ता जताई कि किन्ही कारणों से मैं नहीं जा पाया। एक बार फिर मैंने उसे आश्वासन दिया कि मैं वहाँ ज़रूर जाऊँगा। एक दिन मैं हिम्मत करके वहाँ चला गया।

वहाँ बैठकर मुझे सब कुछ अजीब सा लगा। एक दिन वही भाई मेरे पास पुनः आया और उसने वही सवाल किया “क्या आप बादशाही बाग़ गए?” मैं ने कहा भाई मैं गया था और मुझे वहाँ बहुत अच्छा लगा लेकिन सच तो यह था कि मुझे वहाँ बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था। उसने मुझ से फिर से जाने के लिए कहा, फिर एक दिन वो ही भाई मुझे अपने साथ बादशाही बाग़ संगति में लेकर गया और वहाँ उसने मेरी मुलाकात कई विश्वासी भाईयों से करवाई। वहाँ उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए नए नियम पस्तक की एक प्रति भी दी।

इस बार मुझे कुछ अच्छा लगा और मेरे अन्दर प्रभु यीशु को जानने की उत्सुकता जागी। जैसे-जैसे मैं संगति में जाता रहा और प्रभु में बढ़ता रहा, तैसे-तैसे शैतान भी अपने हमले मुझ पर तेज़ करता गया। इधर मैं प्रभु में बढ़ रहा था उधर मेरी पत्नि और मेरी लड़की बिमारी में बढ़ रहीं थीं। मैं प्रार्थना करने लगा और भाईयों को भी प्रार्थना के लिए कहा। उन्होंने प्रभु के वचन के द्वारा मुझे बहुत हियाव दिया। धीरे धीरे मेरे सब पाप और बुरे काम छूतते चले गए। मैं सोच भी नहीं सकता था कि किसी तरह मेरे गन्दे काम छूट जाएंगे, लेकिन ऐसा हो गया। मैं बुरे दोस्तों की संगति से भी दूर चला गया। प्रभु की दया से, दाऊद के समान, मैं सब लौटा ले लाया।

अब प्रभु मुझ से अपने वचन के द्वारा बातें करने लगा और मेरा आनन्द बढ़ता गया। मैं सोच भी नहीं सकता था कि मेरे पाप क्षमा हो जाएंगे, लेकिन प्रभु ने अपने वचन से मुझे विश्वास दिया कि उसने मेरे एक-एक पाप को काली घटा के समान मिटा दिया है। लेकिन एक समस्या मेरे साथ उत्पन्न हो गई। जैसे जैसे मैं प्रभु में बढ़ता गया तो मेरे समाज के लोग और रिशतेदार कहने लगे कि यह तो इसाई हो गया है। परन्तु सच तो यह है कि मैंने अपना धर्म नहीं बदला पर अपना कर्म बदला है। पहले मैं पापों में जीता था, अब मेरा पापों से छुटकारा हो गया है। अब मैं पूर्ण रूप से आश्वस्थ हूँ कि यदि मैं आज मर भी जाऊँ तो सीधे स्वर्ग जाउँगा क्योंकि प्रभु यीशु ने मेरे पापों को अपने उपर ले कर मेरा सारा कर्ज़ चुका दिया है और मेरे पापों को अपने लहू से धो दिया है। उसकी दया से आज मेरे पास शान्ति और आनन्द है।

मंगलवार, 23 जून 2009

सम्पर्क फरवरी २००२: आराधना का आधार

प्रार्थना कहीं पर स्वार्थ की पतली गली से होकर भी जा सकती है, पर आराधना स्वार्थ से कहीं परे, प्यारे प्रभु को एक खुले आकाश में दिल से गाती है।

जब स्नेह भरी सेवा शब्दों के साथ करते हैं तो वह स्तुती का स्वरूप धारण कर लेती है।

विशाल सागरों की अपनी सीमाएं हैं, शब्दों की भी अपनी सीमाएं हैं, मानव की सोच की भी अपनी ही सीमाएं हैं।पर प्यारे प्रभु के प्यार की कोई सिमाएं नहीं। वह दया का ऐसा सागर है जो मुझ जैसे को प्यार कर सकता है, क्षमा दे सकता है।

परमेश्वर अपने इकलौते पुत्र को पीड़ा की चरम सीमाओं के समय क्रूस पर भूल सकता है, त्याग सकता है; पर उसका एक अजीब प्यार है जो मुझ जैसे से वाय्दा करता है कि मैं न तुझे कभी छोड़ुंगा न त्यागुंगा।

यह वास्तविक सच्चाई है कि मेरे पास याकूब का सा स्वभाव है, पर इसमें ज़रा भी शक नहीं कि मेरे पास याकूब का परमेश्वर भी है, जो मुझे कभी नहीं छोड़ेगा।

एक व्यक्ति बहुत कुड़कुड़ा रहा था कि उस के पास एक जोड़ी जूते भी नहीं हैं, तभी उस्की नज़र एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी जिसके पास दोनों पैर ही नहीं थे। वह धन्यवाद से भर गया और बोला, “प्रभु भले ही मेरे पास जूते नहीं, पर दोनो पैर तो सही सलामत हैं।”

हर ‘असम्भव’ के ‘अ’ को हटाकर ‘सम्भव’ करना, केवल परमेश्वर के लिए ही सम्भव है। मौत पर विजय पाना असम्भव था, पर उसने इसे सम्भव बना डाला। मेरे जीवन से मेरे पापों को हटाना मेरे लिए कभी सम्भव था ही नहीं, पर उसने इसे सम्भव बना डाला।

कुछ विश्वासी शैतान से बहुत परेशान रहते हैं। लेकिन कुछ ऐसे हैं जिनसे शैतान बहुत परेशान रहता है - ये वे हैं जो हर हाल में प्यारे प्रभु को भजते हैं, शैतान के आगे समर्पण नहीं करते, उसका सामना करते हैं।


रविवार, 21 जून 2009

सम्पर्क फरवरी २००२: सम्पादकिय

सम्पर्क परिवार आपको सप्रेम नववर्ष की शुभकामनाएं समर्पित करता है। क्षमा चाहते हैं कि यह अंक आपके हाथों में कुछ देर से पहुँच रहा है। आपकी प्यार भरी प्रार्थनाओं और पत्रों से हम हर बार एक नया हियाव पाते जाते हैं।

तैरता हुअ वक्त ऐसे गुज़रा कि पता ही नहीं चला और हम एक नए वर्ष में आकर खड़े हो गये। एक साल चला गया और एक मौका भी इसके साथ निकल गया जो अब कभी नहीम लौटेगा। अब यह नया साल हमारे लिए फिर से एक नया मौका लेकर आया है। लूका १३:७-१० में एक अंजीर के पेड़, उसके मालिक और उसके माली की कहानी है। इस अंजीर के पेड़ ने पिछले सालों में एक अच्छी सुरक्षा और देखभाल पाई थी। इसे अच्छी भूमी पर लगाया गया और इसकी अच्छी देखभाल की गई, किस लिए? दिखाने, सजाने या जलाने की लकड़ी के लिए नहीं, वरन उससे फल की उम्मीद थी। तीन साल तक मालिक उससे फल की आस लगाए रहा और इसी उम्मीद में उसके पास आता रहा, “मैं तीन वर्ष से इसमें फल ढूँढने आता हूँ पर नहीं पाता”(लूका १३:७)। पेड़ तीन साल का नहीं था, तीन साल पहले फल देने लायक हो चुका था। इसीलिए मालिक तीन साल से उसमें फल ढूँढ रहा था, पर हर बार निराशा ही पाता था। पेड़ अपने जीवन से दिखाता है कि उसने उस अनुग्रह के समय को व्यर्थ ठहरा दिया जब उस पर कृपा दृष्टि की गई। अन्ततः मालिक ने उस पेड़ को हटाकर उसकी जगह एक दूसरे पेड़ को लगाने और नए पेड़ पर परिश्रम करने का निश्चय किया। लेकिन माली ने मालिक से विन्ती की “हे स्वामी इसे इस वर्ष और रहने दे कि मैं इसके चारों ओर खोदकर खाद डालूँ” (लूका १३:८) और मालिक से उसके लिए एक साल और माँग लिया। इस अंजीर के पेड़ की जगह हम अपने आप को रखकर सवाल करें, “प्रभु ने मुझे इस संसार में किस काम के लिए रखा है? क्या मैं प्रभु की बारी पर एक बोझ बन कर तो नहीं जी रहा? क्या अपने अनुग्रह के समय को व्यर्थ तो नहीं ठहरा रहा?” इस पेड़ ने पिछले तीन सालों की चेतावनी को लापरवाही से टाल दिया था, अगर यह बचा हुआ था तो सिर्फ अनुग्रह से। बीते साल कितने ही लोग इस संसार रूपी प्रभु की बारी से उखाड़ कर निकाल लिए गए। हम अगर बचे हैं तो सिर्फ प्रभु के अनुग्रह से। वह एक मौका और देना चाहता है कि हम उसके दिए हुए वरदान को उसके लिए उपयोग करें और उसके लिए फल लाएं, न कि उस वरदान को संसार में दफन कर दें, उसे व्यर्थ ठहरा दें।

आदम तो अपने समय को पूरा कर इस संसार से चला गया, पर आदम का स्वभाव आज भी उसकी संतान में ज़िन्दा है। बुलबुल का बोल बड़ा प्यारा है, वह अपने स्वभाव से बहुतों को लुभाती है, किसी को नुक्सान नहीं पहुँचाती। यदि बुल्बुल कौवे की तरह करकश बोले, बस रोटी और बोटी के चक्कर में रहे, जहाँ मौका लगे वहीं झपटे, तो क्या लोग उसे बुलबुल कहेंगे? यही हाल कई ‘विश्वासियों’ का है, उनके जीवन में भी ऐसा ही विरोधाभास दिखता है। भक्त यदि सख़्त बोले, स्वार्थी स्वभाव और कसैले मिज़ाज़ के साथ जिए तो लोग उसे क्या कहेंगे? ऐसे लोग जहाँ बिगाड़ न भी हो वहाँ बिगाड़ पैदा कर डालते हैं। गधे पर हाथी का लेबल लगाने से वह हाथी नहीं बन जाता। विश्वासी का लेबल लगा लेने से कोई विश्वासी नहीं बन जाता। जीवन शैली से, बोल-चाल से, व्यवहार से विश्वासी अलग ही पहचाना जाता है।

ऐसे ही कुछ लोग कहते हैं कि उनमें धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है। उदाहरण देते हैं कि पहले एक हज़ार रुपये रोज़ रिश्वत लेता था, अब सौ रूपये से ज़्यादा छूता भी नहीं; पहले एक ‘बोतल’ से कम नहीं पीता था, अब तो आधी में ही काम चला लेता हूँ। वह जो सत्य को जानता है पर मानता नहीं, वह आधे सत्य के साथ जीता है। सत्य को सिर्फ जानना परन्तु उसका जीवन में उपयोग न करना, सत्य न जानने से ज़्यादा खतर्नाक है। ऐसों के पास प्रभु का वचन जब आता है, उनके सीने में चुभता है, उन्हें कायल करता है, फिर भी वे उसे नहीं मानते, उसे नज़रंदाज़ कर जाते हैं, वे अपने लिए भयानक दंड जमा कर रहे हैं। परमेश्वर मक्कारों और पाखंडियों को ज़रा पसन्द नहीं करता। वचन कहता है, “वह जो अपने स्वामी की इच्छा जानता था और तैयार न रहा... बहुत मार खाएगा” (लूका १२:४७); “ तू गुनगुना है, न ठन्डा है और न गर्म, इसलिए मैं तुझे अपने मुँह से उगलने पर हूँ” (प्रकाशितवाक्य ३:१६); “... भला होता कि वे इस सच्चाई को जानते ही नहीं” (२ पतरस २:२१)।

कई हैं जो आराधना करते हैं, प्रभु भोज में सम्मिलित होत हैं, वचन पढ़ते हैं और फिर भी मन में बदले और बैर की भावना रखते हैं, कितनों के पैसे और सामन वापस नहीं करते, अहंकार, जलन, विरोध सीने में सजाए रखते हैं सालों गुज़र गये पर आत्मा के फल उनके जीवन में कहीं नहीं दिखते। ऐसे लोग मसीही जीवन की गवाही के लिए ठोकर के कारण हैं “... तुम्हारे कारण अन्यजातियों में परमेश्वर के नाम की निन्दा की जाती है” (रोमियों २:२४); “...ये उसके पत्र नहीं, यह उनका कलंक है” (व्यवस्थाविवरण ३२:५)। उनके लिए भला होता कि चक्की का पाट गले में डालकर, उन्हें सागर में डाल दिया जाता (मत्ती १८:६)। उन्होंने मात्र घर की दीवारों पर पवित्र वचन के पदों को ठोक रखा है, पर उनके दिलों में पवित्र वचन कभी नहीं बसने पाया। वे कान रखते हुए भी बहिरे और आँख रखते हुए भी अँधे हैं, क्योंकि वे जानबूझकर समझना ही नहीं चाहते, उन्हें समझाना भी बड़ी टेढ़ी खीर है।

एक बार एक दावत में एक देहाती अन्धे ने जीवन में पहली बार मेवों से भरी हुई खीर खाई, उसे बड़ा मज़ा आया। अन्धे ने बगल में बैठे एक व्यक्ति से पूछा “ये क्या चीज़ है?” व्यक्ति ने जवाब दिया, “खीर है।” अन्धे ने फिर पूछा “खीर देखने में कैसी होती है?” फिर जवाब मिला “सफेद होती है।” अन्धे ने फिर पूछा “सफेद कैसा होता है?” उस व्यक्ति ने कुछ परेशान होकर कहा “सूरदास जी बगुले की तरह।” अन्धे ने फिर पूछा “भाई बगुला कैसा होता है?” बगल वाले ने अपने हाथ को बगुले की गर्दन की तरह बनाया और अन्धे को छुआकर बताया कि “बगुला ऐसी मुड़ी गर्दन का होता है।” अन्धे ने मुड़ा हाथ टटोलकर कहा “यार खीर तो बड़ी टेढ़ी होती है!” कुछ ऐसे ही आत्मिक अन्धों को समझाना है।

लूका १९:४१-४४ में लिखा है कि जब यीशु यरूशलेम के निकट आया तो नगर को देखकर रोया और कहा “क्या ही भला होता कि तू हाँ तु ही इस दिन कुशल की बातें जानता। क्योंकि तूने वह अवसर जब तुझपर कृपादृष्टि की गयी न पहिचाना।” यहूदियों का नया साल शुरू ही हुआ था, चार दिन बाद होने वाले यहूदियों के सबसे बड़े त्योहार की तैयारियाँ की जा रहीं थीं। यरुशलेम तीर्थ यात्रियों से खचा-खच भरा हुआ था। लोग जोश और खुशी से भरे जय-जयकार कर रहे थे। प्रभु एक ऐसे स्थान पर खड़ा था जहाँ से सारा यरुशलेम शहर एक नज़र में देखा जा सकता था। पर प्रभु न सिर्फ उसका वर्तमान देख रहा था, उसे यरुशलेम का भविष्य भी दिखाई दे रहा था। यरूशलेम, जो शान्ति का नगर कहलाता था (इब्रानियों ७:२), उसने शान्ति के राजकुमार को अर्थात परमेश्वर के पुत्र और उसके वचनों को ठुकरा दिया था। परमेश्वर की चेतावनियों की बेपरवाही और बेकद्री के कारण अब यरुशलेम पर कहर बरसने को तैयार था। लोग खुश हो रहे थे पर प्रभु रो रहा था। वह नहीं चाहता कि कोई नाश हो। प्रभु दुखी मन से उस शहर को कह रहा था कि जब तुझ पर रहम किया गया तो तूने उस समय को नहीं पहिचाना और परमेश्वर की चेतावनी को लापरवाही से लिया। तब से छः सौ साल पहले राजा नबूकदनेस्सर ने, परमेश्वर की चेताविनियों की अन्धेखी करने और ऐसी ही ढिटाई में बने रहने के कारण यरूशलेम को पहली बार बरबाद कर डाला था। अब फिर वैसे ही स्वभाव के कारण, उसकी दूसरी बरबादी निकट आ रही थी। हम प्रेरितों के काम में देखते हैं कि जिन्होंने चेताव्नियों को मान लिया वे तो बच निकले पर यरुशलेम नहीं बचा। ऐसे ही संसार भी अपनी दूसरी बरबादी के निकट आ खड़ा हुआ है; पहली बरबादी नूह के समय हुई थी। एक बड़ी दहशतनाक बरबादी अब संसार से सटी खड़ी है।

उस समय यरूशलेम के मंदिर में परमेश्वर की आराधना, प्रार्थना, बलिदान, भेंट, भजन, संगीत सब चल रहा था,पर प्रभु कह रहा था कि तुमने इसे डाकुओं की खोह बना दिया है। आज भी मण्डलियों में आराधना, प्रभु भोज, प्रार्थना सब कुछ वैसे ही चल रहा है, पर अन्दर की वास्तविक दशा भी प्रभु से छुपी नहीं है।

जब पहली बार यरुशलेम बरबाद हुआ तब राजा यहोयकीम क राज्य था (दानिएल १:१) अंजीर के पेड़ के समान, परमेश्वर ने यहोयकीम को भी तीन साल दिए, पर उसने अपने पाप से मन नहीं फिराया। नबूकदनेस्सर ने यरुशलेम को घेर कर बरबाद कर डाला। इसके लगभग छः सौ साल बाद सन ७० में रोमी सम्राट वैस्पियन के पुत्र तीतुस ने यरुशलेम को पूरी तरह से बरबाद कर डाला। सम्सार के इतिहासकार बताते हैं के नबूकदनेस्सर और वैस्पियन दोद्नो बहुत ही सामर्थी सम्राट थे, इस कारण वे यरुशलेम को बरबाद कर पाए। पर बाईबल बताती है कि यहूदी लोगों के पाप के कारण यरुशलेम की बरबादी हुई। यदि ये सम्राट दस गुणा और भी सामर्थी होते, तो भी यरुशलेम के पत्थरों पर से एक पत्थर भी न हटा पाते, यदि पाप ने उसकी सुरक्षा को पहले ही न हटा दिया होता। अब दूसरी बार यह पृथ्वी भी अपने पाप के कारण अपनी बरबादी के करीब खड़ी है।


नबुकदनेस्सर ने यहूदी राजपुत्रों में से जो योग्य थे, उन्हें अपने महल में अपनी सेवा के लिए लगा लिया (दानियेल १:३,४)। आज परमेश्वर की सन्तान को शैतान ने पद, पैसे और परिवार की सेवा में ही लगा रखा है। वे परमेश्वर के लिए नहीं, शैतान के लिए उपयोगी बन गए हैं। उनका परमेश्वर के लिए काम न करना ही शैतान के लिए काम करने जैसा है। संसार की चकाचौंध, समपदा और उपलभदियों ने स्वर्ग के धन को उनके लिए छोटा कर दिया है, वे उस चिरस्थाई धन को छोड़, इस नाश्मान धन को संजोने में लगे हैं। लूका १९:४५ की ऐसी दशा में, जब मन्दिर डाकुओं की खोह बन चुका था, तब प्रभु ने मन्दिर को शुद्ध करने की आखिरी कोशिश एक बार फिर की। क्या आप को यह एहसास है कि आप परमेश्वर का मन्दिर हैं (१ कुरिन्थियों ३:१६)?

प्रिय पाठक प्रभु आपसे कह रहा है कि पाप को छुपाना कितनी बड़ी बेवकूफी होगी, जबकि हम जानते हैं कि प्रभु से हमारा कोई पाप छुपा नहीं है, और प्रभु हमारे हर एक पाप को बड़ी सहजता से क्षमा भी कर देगा यदि हम दिल की ईमान्दारी से उसे मान लें और उससे क्षमा माँग लें। प्रभु चाहता है कि हम शिक्षा, सेवा और संबंध, इन तीनों में सही हों। कितने हैं जो शिक्षा में सही हैं, पर सेवा में आलसी हैं; कितने सेवा में बड़े चुस्त रहते हैं पर ग़लत शिक्षा में फंसे रहते हैं। संबंधों में सही होने के लिए हम इन छः सवालों से अपने आप को जाँच सकते हैं:-

१. परमेश्वर से व्यक्तिगत संबंध - व्यक्तिगत प्रार्थना, बाईबल अद्धयन, पारिवारिक प्रार्थना का जीवन कैसा है?
२. परिवार के सदस्यों से संबंधओं की दशा कैसी है?
३. मण्डली के सदस्यों से सम्बंध; क्या सिर्फ दूसरों की आलोचना करने, उन्हें ‘ठीक’ करने में ही लगे हैं या उनके साथ मिल-बैठकर उनकी परिस्थित्यों और समस्याओं को समझने और सुलझाने में भी कार्यशील हैं?
४. हमारे शत्रुओं से हमारे संबंध; क्या उनका बुरा देखना चाहते हैं या उनका उद्धार? क्या उनके लिए प्रार्थना कर सकते हैं कि ‘हे पिता इन्हें क्षमा कर’?
५. आप के कार्य स्थल में सहकर्मियों से संबंध; क्या आप के जीवन और कार्य में वे मसीह की गवाही को देखते हैं?
६. उन विश्वासियों से आपके संबंध जिनसे आप सहमत नहीं हैं, कैसे हैं?

अगर संबंध सही नहीं हैं तो आपने कहीं न कहीं शैतान से कोई छिपा समझौता कर रखा है। अपने दोष छुपने के लिए दूसरों पर दोष लगाना बहुत सहज है, पर इससे आपके दोष दूर नहीं हो जाते। परमेश्वर और उसका वचन ठठों में नहीं उड़ाया जा सकता, जो आप बोएंगे, वही आपको काटना भी पड़ेगा (गलतियों ६:७)।

अब अपनी इस ढलती शाम में, जहान कुछ ज़यादा ही ज़हरीला हो चला है। संसार की यह शाम भी दबे पाँव चुपचाप निकल जाएगी और अचानक ही समय, शून्य के सरोवर में, हमेशा के लिए लुप्त हो जाएगा; पीछे छोड़ जाएगा कुछ के लिए एक दिन, और कुछ के लिए एक रात। जो तैयार हैं उनके लिए धार्मिक्ता का सूर्य चँगाई लिए हुए आएगा (मलाकी ४:२) उस सदा काल के दिन में वे परमेश्वर के राज्य में उसके साथ सर्वदा राज्य करेंगे (प्रकाशितवाक्य २२:५)। परन्तु जो तैयार नहीं हैं, उनके लिए वो रात आ पहुँचेगी जिसकी फिर कोई सुबह नहीं होगी। उस भयानक रात में कोई कभी कुछ भी नहीं कर पाएगा (यूहन्ना ९:४), बस जो समय रहते किया या नहीं किया उसी का प्रतिफल भोगने के लिए रह जाएगा (मत्ती २५:३०)।

क्या आप तैयार हैं?

एक टुकड़ा प्रभु के स्वर का,
साँसों से सरक कर सीने पर ठहर गया,
तब पाप कहाँ चला गया, पता ही न चला
शून्य के सरोवर में वो सब समा गया
और, पता ही न चला
कितने सालों के साथ, ये साल भी चला गया
और सच मानो, पता ही न चला

- सम्पर्क परिवार





शुक्रवार, 12 जून 2009

सम्पर्क नवम्बर २००२: बस अब बिखरना ही बाकी बचा है

अगर हम धर्म के नाम पर आपस में नहीं लड़ेंगेऔर यदि हम अपने धर्म को ऊँचा और दूसरे के धर्म को नीचा दिखाने के अहंकारी विवाद में आपस में नहीं उलझेंगे तो सच मानिएगा हमारे धर्म-नेता और राज-नेता भूखों मर जाएंगे, क्योंकि इसी आग पर तो इनकी रोटियां सिकती हैं। राज्नेताओं का सिद्धांत है कि बन्दूक हमेशा दूसरों के कन्धों पर रख कर चलाई जाती है, बेवकूफ ही बन्दूक का बोझ अपने कन्धों पर ढोते हैं। जीवन में नैतिकता ज़रूरी नहीं है, नारों में नैतिकता दिखाओ; मात्र शब्दों में ईमान्दारी दिखाने में क्या घिसता है?

कितनी बार ज्ञानवान लोग अज्ञानियों की भाषा का उपयोग करते हैं। हमें अक्सर एक थके हुए सवाल का सामना करना पड़ता है - “आप कौन है?” जवाब में यदि कहें कि “जनाब आदमी हूँ”, तो जनाब की असली मनषा एक दूसरे सवाल में सामने आती है जब वो मुस्कुराते हुए फिर पूछते हैं - “ साहब आदमी तो सभी हैं, मेरा मतलब था कि आप इसाई हैं या मुसलमान हैं, आखिर आप कौन हैं”? क्या मैं इसाई, मुसलमान, हिन्दू आदि बन्धनों के ऊपर उठकर एक इन्सान नहीं हो सकता? धर्म एक बड़ी बाधा है, हाँ सच मानिए एक दिमाग़ी बाधा है। धर्म तोड़ता है, जोड़ता नहीं। हमारे धर्म हमें परमेश्वर से कब जोड़ते हैं, वे तो आदमी को आदमी से तोड़ते हैं। धर्म हमें विरोध से, अहंकार से और बदले की भावना से भर देते हैं। स्वयं एक नज़र अपने समाज पर दृष्टि डालिए, उसने कैसे हमारे संसार को टुकड़ों में तोड़ डाला है। बस अब संसार का बिखरना ही तो बाकी बचा है।

किसी भी धर्म की दुकान पर चैन और शान्ति नहीं बिकती। ज़रा ग़ौर कीजीएगा, जब खुद धर्म की दुकान चलने वालों के पास ही चैन और शान्ति नहीं है तो वे फिर औरों को कैसे और क्या देंगे? हमारे धर्म स्थानों में अधर्म का कारोबार खूब चलता, पनपता है चाहे-किसी भी धर्म का स्थान क्यों न हो। यहाँ आए जीवन से निराश और थके-हारे लोगों को झूठी शान्ति के बहलावे देकर बड़ी चतुराई से लूटा जाता है। क्या कभी परमेश्वर इन्सान को इन्सानियत से दूर ले जाएगा? क्या परमेश्वर इतना पराया है कि वह अपने नाम पर इतना कुछ करने देगा? यह भयानकता तो सिर्फ धर्म के नाम पर ही होती है। धर्म ही आदमी को परमेश्वर से दूर ले गया है।

हम भी तो कुछ कम दोषी नहीं। हमार जीवन में धर्म के लिए जगह है पर ईमान्दारी और सच्चाई के लिए कोई जगह है ही नहीं। हम भी अपने स्वार्थ और लालच के कारण अलग-अलग धर्मों से जुड़े हैं। हमारा मन धर्म-गुरूओं से कहता है कि महाराज कोई ऐसा गुरू मंत्र बताओ कि बस नोट बरसने लगें। परमेश्वर के घर के बाहर जूते उतारते हैं तब अन्दर जाते हैं कि वो स्थान अपवित्र न हो, पर मन की अपवित्रता क्यों नहीं उतारते, उसे क्यों साथ ही ले जाते हैं? आराधना स्थल पहुँचने से पहले हम अपनी दाढ़ी रगड़ते, खोपड़ी रंगते, नहाते-धोते और शरीर संवारते हैं; परन्तु परमेश्वर तो मन को देखता है (१ शमूएल १६:७), उस मन की दशा का क्या कभी स्वच्छ करते हैं? मन में तो बैर, जलन, लालच, झूठ और अहंकार है। सारी गंदगी तो वहीं धरी है, और धरी ही रहती है। यहीं तो सारी बात गड़बड़ा जाती है। जूते उतारने, शरीर संवारने से फर्क नहीं पड़ता, ऐसा करने में कोई बुराई या ग़लत बात भी नहीं है; पर जब मन ही साफ न रखा हो तो ऐसी बाहरी सफाई से क्या लाभ? परिवार का झगड़ा मन में भरे लोग, गाली बकने वाले, व्यभिचारी, रिश्वतखोर, लालची, दुराचारी परमेश्वर के भवन में हाथ जोड़े, आंखें बन्द किए, मन में परमेश्वर से संसार को ही मांगा करते हैं। उन्होंने कहां कभी अपने पाप की गन्दगी और बेचैनी को स्वीकारा और उससे छुटकारा मांगा?

युग बदले पर आदमी का स्वभाव नहीं बदला। शिक्षा, समाज, संगत, सरकार कोई भी उसको नहीं बदल पाया। आदमी का स्वभाव आदमी के साथ ही पैदा होता है। इन्सान दो तरह से जीता है-एक जो प्रगट में और दूसरा छिपकर। खाने के दांत अलग, दिखाने के अलग। शब्दों को भी दो तरह से इस्तेमाल करता है, कुछ बात बताने के लिए, कुछ बात छिपाने के लिए। चश्मे भी दो तरह के रखता है, एक देखने के लिए दूसरा दिखाने के लिए। वैसे ही आदमी के स्थायी स्वभाव का एक भाग व्यभिचार भी है। यह उम्र के साथ समाप्त नहीं होता। मैंने बूढ़े लोगों को अक्सर कहते सुना है, “क्या ज़माना आ गया है, कितना नंगापन और अशलीलता आजकल की फिल्मों और टी०वी० कार्यक्रमों में दिखाया जाता है।” यह शब्द सिर्फ सुनाने के लिए हैं, मोटे चश्मों में से कितनी ही बूढ़ी तरसती आंखें झांकती फिरती हैं कि कहीं कुछ नंगापन दिख जाए।

एक जवान औरत बोली, “अंकल इस ऑफिस में गन्दी निगाह रखने वाले लोग हैं, एक भी राखी बंधवाने को तैयार नहीं है। मेरे कोई भाई नहीं है, आप ही बुज़ुर्ग हैं कल मैं आपको ही राखी बांधूंगी। बस आपको ५१ रू० और एक सूट देना पड़ेगा।” यह सुनते ही बज़ुर्ग कुछ गड़बड़ा सा गया। जवान स्त्री मुस्कुराई और बोली, “परेशान मत होइए, ५१ रू० और सूट वूट की कोई ज़रूरत नहीं है।” बुज़ुर्ग बोले, “५१ की जगह १०१ रू० ले लो, एक छोड़ दो सूट दे दूंगा, पर परेशानी तो राखी से है।” ‘शरीर’ तो मरा सा है पर व्यभिचार की लालसा ज़रा भी कम नहीं हुई। श्री. भास्कर का कहना है कि ९० प्रतिशत शादी शुदा लोग व्यभिचारी होते हैं। पति-पत्नि अलग-अलग ग़लत संबंध छिपकर पालते हैं। हम कितने मक्कार हैं, कैसे ईमानदारी से मक्कारी को ओढ़े रहते हैं। कितने ही लोग सुबह से ही मक्कारी शुरू कर लेते हैं; ऑफिस में, मन मारकर साहब को सलाम मारना पड़ता है। मुंह मुस्कुराता है पर मन कोसता है। हमारी मक्कारी को अगला सहजता से समझ भी लेता है, लेकिन उसे अपनी मक्कारी के पीछे छिपा, अन्जान बन जाता है। मक्कारी थोड़ी हो या बहुत, हमारे स्वभाव का एक हिस्सा तो है ही।

आज सबसे अधिक फलती, फूलती और फैलती कला है चापलूसी, जो सर्वत्र सर्वाधिक विकासमान है। इसे ‘कुत्ते-गिरी’ का स्वभाव भी कहते हैं। टुकड़ों के लिए दुम हिलाते फिरिएगा, पहले मक्खन लगायिगा और मौका लगते ही ज़बर्दस्त चूना लगा जाइये। स्वार्थ साधने के लिए कुछ न कुछ तो लगाना ही पड़ेगा, नोट लगाओ या सिफारिश, पर चिकनाहट भरी चापलूसी के साथ लगाओ। मक्खन मारने में माहिर कलर्क, शाम को साहब के घर सामान पहुंचाने पहुंचा, घर में नए पर्दे लगे देख साहब से बोला, “साहब, मेम साहब ने क्या पर्दे लटकाए हैं, मेरा तो दिल ही लटका रह गया।”

जनाब यह जग ज़ाहिर है कि हर धंधे में धांधलियां हैं; बिना गोट फिट किए, काम फिट नहीं बैठता। हमारे समाज का कोई भी भाग भ्रष्टाचार से बचा नहीं है। कानून के रखवालों और बदमाशों में बहुत ‘भाईचारा’ है; यदि ये रखवाले बदमाशों को ‘भाई’ न बनायें तो ‘चारा’ कहां से खाएं? यदि मुजिरम समाप्त कर दिए जाएं तो इन रखवालों की रोज़ी रोटी ही चौपट हो जाएगी। इन रखवालों के लिए बदमाश सोने का अंडा देने वाली मुर्गी हैं। एस० जे० उदय की एक छोटी सी कहानी है ‘ग़लती’ जिसमें एक औरत अपने आप का गुण्डों के हाथों से छुड़ाकर भागी और सीधे थाने में घुसती चली गई, यही उसकी सब से बड़ी ग़लती थी। कहानी दर्शाती है कि सुरक्षा कर्मियों के हाथों में भी हम कितने असुरक्षित हैं। आप बदमाशों के हाथों से तो छूट सकते हैं, पर एक बार ऐसे ‘रक्षकों’ के हाथों में पड़े तो फिर बच निकलना मुशकिल ही होता है।

“भईया सबसे बड़ा रुपईया” ‘पैसा’ सब को अच्छा लगता है, ज़रूरी भी है; पर पैसा हर ज़रूरत कतई पूरी नहीं कर सकता। अगर आपकी पैसे की समस्या समाप्त हो जाए तो क्या हर समस्या समाप्त हो जाएगी? सोचिए तो सही, क्या पैसे वालों के पास समस्याओं की कमी है? पैसे से समस्याएं कम नहीं होतीं पर चिंताएं ज़रूर बढ़ जाती हैं, खतरे बढ़ जाते हैं, अहंकार, शत्रु और पाप की अभिलाषाएं भी बढ़ जाती हैं। पैसे से आप बहुत कुछ खरीद सकते हैं पर घर में प्यार भरी खुशी नहीं ला सकते। बच्चों को अच्छी और उच्च शिक्षा दिला सकते हैं पर उन्हें सुधार नहीं सकते। हर तरह के साज-सामान से भरा महल तो बना सकते हैं पर प्रेम और अपनेपन से भरा परिवार नहीं बना सकत। पैसे से परिवार में कलह तो हो जाते हैं, पर पैसे से पारिवारिक कलह सुलझ नहीं सकते।

धन के बारे में दो बातें कही जाती हैं, पैसा पाने के लिए आदमी ‘उल्लू’ बन जाता है; या, पैसा पाकर ‘उल्लू’ बन जाता है। ‘उल्लू’ अन्धेरे का बड़ा शातिर खिलाड़ी होता है। वह अन्धकार की सारी सुविधाओं का उपयोग करता है और अन्धेरे में ही अपने शिकार पर चतुराई से वार करता है। उजाले को वह सह नहीं पाता। पैसे के लिए बने ये ‘उल्लू’ भी ईमान्दारी और सच्चाई के उजाले को सह नहीं पाते, उस से दूर ही भागते हैं। पैसा हमारे सब सवालों का जवाब नहीं है। झोपड़ों में रहने वाला हर व्यक्ति इस भ्रम में जीता है कि महलों में रहने वाला हर व्यक्ति सुखी है। सच तो यह है दोनों ही जगह रहने वाले दुखी और परेशान हैं। दोनो ही एक ऐसी दौड़ में जुते हैं जहाँ पहुँचकर लगता है कि यहाँ तो कुछ भी नहीं, सब व्यर्थ ही व्यर्थ है। जीवन एक ऐसे रेगिस्तान में फंसा है जहाँ रास्ता है ही नहीं, बस एक बेचैन करने वाली थकान है। एक ऐसी भटकन है जिसमें फंसकर बेचैन आदमी और अधिक तनावग्रस्त व उग्र स्वभाव का होता जा रहा है। हमारे समाज के संवरने की सभी संभावनाएं अब समाप्त हो चुकी हैं।

आदमी की मजबूरी है मन मार कर जीता है। निराश और हताश मन में सवाल उठते हैं, “तू क्यों जीता है?” “इस सब का हासिल क्या है?” “मौत क्यों नहीं आती?” ऐसे निराश और हताश लोगों को प्रभु यीशु निमंत्रण देता है “हे सब बोझ से दबे और थके लोगों मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूंगा।” (मत्ती ११:२८) एक प्रश्न उठा “लोग यीशु मसीह के बारे में क्या सोचते हैं?” (मत्ती १६:१८) और अलग अलग विचारधाराओं के अनुसार, कई उत्तर आए। आज भी जब कभी यही प्रश्न लोगों के सामने रखा जाता है तो ऐसे ही अलग अलग उत्तर मिलते हैं- “इसाई धर्मगुरू है, विदेशी धर्म है, इसाई ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं, बाहर से पैसा आता है, लालच देकर ग़रीब लोगों को इसाई बनाते हैं”, इत्यादि। जनाब, प्रश्न यीशु मसीह के बारे में था, इसाई धर्म के बारे में नहीं। जब हमें किसी जन के बारे में सही जानकारी नहीं होती, तब हम विभिन्न धारणाओं और ग़लतफहमीयों के शिकार हो जाते हैं। ग़लतफहमी से प्रेम बैर में बदल जाता है। बाईबल प्रमाणित शास्त्र है जो सदियों से हर हालात में परखा गया और सिर्फ सत्य ही निकला है। वही यीशु के बारे में सही जानकारी देता है, इसाई धर्म हमें यीशु के बारे में सही जनकारी नहीं देता। प्रभु यीशु का सन्देश शुभ सन्देश है, धर्म उपदेश नहीं। बाईबल में लिखा है, “मैं तुम्हें बड़े आनन्द का सुसामाचार सुनाता हूँ जो सब लोगों के लिए है।”(लूका २:१०) केवल किसी धर्म विशेष के लिए कदापि नहीं।

मेरे मित्र, आपके पास पैसा है, परिवार है, नाम है और एक धर्म भी है; पर क्या सच्ची स्थायी खुशी और चैन भी है? धर्म हमें जाति में, वर्गों में, मिशनों में, ग्रुपों में तोड़ता है पर प्रेम हमें जोड़ता है क्योंकि परमेश्वर प्रेम है (१ युहन्ना ४:८)। यदि आपके पास यह प्रेम नहीं तो कुछ भी नहीं (१ कुरंथियों १३:१)। प्रेम हमें परमेश्वर से, एक-दूसरे से, चैन और शान्ति से जोड़ता है। हमारे पापों ने हमें बेचैनी में धकेला है, और मौत के बाद हमेशा की बर्बादी में धकेल देंगे। पाप कभी पीछा नहीं छोड़ता, जो बोया है वही काटना भी होगा। मक्का बोया है तो गेहूँ नहीं काटेंगे। पाप बोया है तो पाप ही का फल काटेंगे। केवल समाजिक दृष्टि में ‘छोटे’ कहलाने वाले लोग ही चोर नहीं होते, ‘बड़े’ लोग भी बड़ी चोरियां करते हैं, जैसे इन्कमटैक्स की चोरी। मध्यम वर्ग के कर्मचारी बिजली की चोरी, ऑफिस के सामान की चोरी कर लेते हैं। यानि, जिसका जहाँ दाँव चल गया, वह वहीं हाथ साफ कर जाता है, क्योंकि यह पाप का व्यवहार तो मन में बसा है, बस जैसा मौका मिले उसी के अनुरूप अपनी मौजूदगी प्रकट कर देता है। परमेश्वर का सत्य वचन बाईबल कहती है कि सबने पाप किया है; सवाल ‘छोटे’ या ‘बड़े’ पाप का या ‘थोड़े’ और ‘बहुत’ पापों का नहीं है, पाप जैसा भी है, जितना भी है, है तो पाप ही। इसिलिए सब बेचैन हैं और सबका अन्त अनन्त विनाश है।

इसी सत्य वचन में एक टैक्स कलक्टर की सत्य कथा है (लूका १९:१-९)। वह यीशू को देखना चाहता था कि वह कौन है? उसके साथ दो परेशानियाँ थीं, पहली वह भीड़ जो यीशु को घेरे रहती थी और दूसरी उसका कद - वह खुद नाटा था। यही दो बातें आज भी अधिकांश लोगों को यीशु की वास्तविकता जानने से रोकतीं हैं। धर्म, मिशन, ग्रुपों और उनकी निहित शिक्षाओं की एक बड़ी भीड़, और दुसरे, हमारे दिमाग़ हमारी सोच तथा हमारी धारणाओं का बौनापन हमें वास्तविक यीशु को देखने और जानने से रोकता है। हम हमेशा सोचते हैं कि यीशु इसाई धर्म देने आया, पर बाईबल क्या कहती है?

बाईबल के कुछ पदों पर ग़ौर कीजिए:-

यीशु ने कहा:-
  • “मैं धर्मियों के लिए नहीं, परन्तु पापियों को बुलाने आया हूँ” (मरकुस २:१७);
  • “मनुष्य का पुत्र खोये हुओं को ढूंढने और उनका उद्धार करने के लिए आया है” (लूका १९:१०);
  • “मैं इसलिए आया कि वो जीवन पाएं”(यूहन्ना १०:१०);
  • “मैं जगत में ज्योति बनकर आया हूँ तकि जो कोई मुझ पर विश्वास करे वह अन्धकार में न रहे” (यूहन्ना १२:४६);
  • “मैं जगत को दोषी ठहराने के लिए नहीं परन्तु जगत का उद्धार करने के लिए आया हूँ” (यूहन्ना १२:४७);
  • “इसलिए जगत में आया हूँ कि सत्य पर गवाही दूँ” (यूहन्ना १८:३७) ।
  • “यह बात सच और हर तरह से मानने के योग्य है कि प्रभु यीशु पापियों का उद्धार करने आया” (१ तिमुथियुस १:१५)।
क्या अब भी यीशु के आने के उद्धेश्य में आप किसी भी ‘धर्म’ के प्रतिपादन को देखते हैं?

प्रभु यीशु पर उसके दुश्मन दोष देते थे कि वह पापियों के साथ क्यों खाता-पीता है? साधारण सी बात है, क्या कोई डॉक्टर मरीज़ों से अलग रह कर अपना काम कर सकता है? यह टैक्स कलेक्टर साहब एक पेड़ पर चढ़कर, अपने आप को पत्तियों से छिपाकर यीशु को देखना चाहते थे। पर वो प्रभु से छिप नहीं सके, प्रभु से तो उनके कर्म भी नहीं छुपे थे। प्रभु ने उस पेड़ के नीचे आकर उससे कहा “तुरन्त नीचे उतर आ” और वह उतर आया; सिर्फ पेड़ से ही नहीं, अपने घमंड और अहंकार और व्यवहार से भी उतर आया और सबके सामने अपने पाप मान लिए (लूका १९:८)। जैसे ही उसने ऐसा किया, यीशु ने कहा ‘आज’ इस घर में उद्धार आया है। उसके परिवार में पैसा था, स्वास्थय और धर्म भी था, पर चैन और शान्ति इस पापों की क्षमा और उद्धार के साथ ही आई। प्रभु यीशु कोई ज़बर्दस्ती नहीं करता, वह ऐसी ही क्षमा, उद्धार और शान्ति आपको भी देना चाहता है, यदि अपने पापों को मान लें और साथ ही इस बात पर विश्वास कर लें कि वह हमारे पापों के लिए क्रूस पर मारा गया और तीसरे दिन जी उठा, उसका लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है। मित्र मेरे एक बार दिल से पुकार कर कहें “हे यीशु मुझ पापी पर दया कर” (लूका १८:१३)। एक बार प्रार्थना से परख कर तो देखिए यीशु कैसा भला है।

मौत सदा मौजूद है, उससे न कोई सुरक्षा है और न कोई सुरक्षित है। आप अपने घर में, अपने बिस्तर पर अपने आप को सबसे अधिक सुरक्षित समझते होंगे, पर हकीकत तो यह है कि सबसे अधिक मनुष्य अपने बिस्तर पर ही मरते हैं!

हमारे पापों की कहानी हमारे कब्र में दफन होने पर खत्म होने वाली नहीं है। पाप का परिणाम मौत के बाद भी पीछा नहीं छोड़ेगा। हर बात का एक समय है, इस लेख के शुरू होने का समय था अब इसके समाप्त होने का समय है। इस दौरान परमेश्वर आपसे बातें कर रहा था, आपको आपके पाप, पाप की दशा और आपके अनन्त काल की दिशा दिखा रहा था। अब सबसे महत्तवपूर्ण समय है - प्रभु यीशु से पापों की क्षमा माँगने का, एक पश्चाताप की प्रार्थना का। यदि आप प्रार्थना नहीं करें, खामोश रहें तो आपकी यही खामोशी चीख़-चीख़ कर बता रही है कि आप पाप क्षमा के प्रभु यीशु के इस निमंत्रण को बकवास समझते हैं। मित्र मेरे, इस क्षमा पाने के मौके को टालने से सज़ा नहीं टलेगी। दूसरा कोई और मार्ग है ही नहीं। “मार्ग, सत्य और जीवन मैं ही हूँ” ... यीशु ने कहा।



गुरुवार, 11 जून 2009

सम्पर्क नवम्बर २००२: आज सोचती हूँ

मेरा नाम राजकुमारी गोयल है। कोटा (राजस्थान) में जन्मी, हिन्दू विचारों में व मर्यादाओं में पली और बड़ी हुई। जैसा मेरा नाम, वैसा ही मेरा व्यवहार था। मुझ में अहं कूट कूट कर भरा हुआ था। मेरी बहिनों के साथ भी मेरा व्यवहार अच्छा नहीं था। बहिनों में सबसे छोटी और भाईयों में सबसे बड़ी होने के काराण मेरे चारों तरफ प्यार ही प्यार था सिर्फ मेरे परिवार से ही नहीं, मेरे समस्त खानदान से मुझे अलग ही प्यार मिलता था। पिता के खास प्रेम के कारण मेरा सिक्का चलता था। मेरे पिता टी०बी० के मरीज़ थे। उन्से मेरा विशेष प्रेम था और वे मेरे पिता, माँ, दोस्त सब कुछ थे। चौदह वर्ष की उम्र तक तो सब कुछ यथावत चलता रहा। घर में सब लोग पूजा-पाठ करते, मंदिर जाते थे। लेकिन मेरी श्रद्धा शुरू से ही पूजा-पाठ में नहीं रही। ईश्वर के आगे बस इऱ्म्तहान के दिनों में ही हाथ जोड़े जाते थे, तकि अच्छे नंबरों से पास हो सकूँ। वैसे पढ़ने में मैं शुरू से ही अच्छी थी। घर में पण्डितों व साधू-संतों का आना जाना लगा रहता था।


अभी मैं दसवीं कक्षा में ही थी कि पिताजी खि तबियत टी०बी० की वजह से काफी खराब हो गई और हम लोग उन्हें लेकर अजमेर के पास मदार सैनिटोरियम गए जहाँ उन्हें भर्ती कर लिया गया। वहाँ एक नई बात देखने को मिली कि डॉक्टर राउण्ड पर आने से पहले, प्रार्थना स्थल पर एकत्रित होते थे, एक गीत गाते थे व प्रार्थना करते थे। यद्यपि उस समय कुछ समझ में नहीं आया लेकिन सुनने में अच्छा लगा। दुसरे दिन मैं और मेरे मामा प्रार्थना स्थल पर पहुँचे। वहाँ बताया गया कि यहाँ रोगियों के लिए प्रार्थना की जाती है। प्रभु यीशु रोगी को ठीक कर देते हैं। मामा और मैं प्रार्थना करने लगे कि प्रभु तू यदि मेरे पिता को ठीक कर देगा तो हम इसाई बन जाएंगे। मैं करीब एक महीना मदार अस्पताल में रही, लेकिन शायद ईश्वर को यह मन्ज़ूर नहीं था और पिताजी इस दुनिया से चल बसे। मैं पिता के देहाँत का सदमा बरदाश्त नहीं कर पाई और पिता के जाने के बाद मैं एक ज़िन्दा लाश बन गई। करीब छः महीने तक मैं बीमार रही। उस समय हर शनिवार रेडियो पर सुबह एक कार्यक्रम - मसीही वन्दना आता था; जिसमें एक गीत फिर एक छोटी सी कहानी सुनाई जाती थी। यह कार्यक्रम सुनना मुझे अच्छा लगने लगा और एक अजीब सा सुकून मिलने लगा। कुछ समय के लिए ज़िन्दगी बहुत नीरस बन गई थी। कहीं जाना अच्छा नहीं लगता था। भाई को चौदह वर्ष की उम्र में ही पिताजी का ज्वैलरी का व्यवसाय संभालना पड़ा।


मेरी ज़िन्दगी में खुशी नाम की चीज़ नहीं थी। मेरे कमिशनर या जज बनने के सारे सपने चूर-चूर हो गए। मैं शान्ति पाने के लिए इधर उधर भटकने लगी, कई ईशवरों को मानने लगी, लेकिन शान्ति कहीं नहीं मिली। मुझे लगने लगा कि मेरे नसीब में केवल दुःख ही दुःख है। इसके बाद मुझ में कुछ बदलाव आए। मेरे मामा ने मेरा दाखिला उदैपुर विश्वविद्यालय में एम०ए० में करवा दिया। वहाँ भी मेरा मन नहीं लगा और मैं एक वर्ष पश्चात कोटा वापस लौट आई। उस समय सारे प्रोफैसर मुझे समझाने लगे कि मैं फाईनल की परीक्षा दे दूँ तथा वे लोग मुझे लेक्चरार की नौकरी लगवा देंगे।


आज सोचती हूँ कि यदि मैं रुक जाती तो प्रभु में कैसे आती? कैसे अनन्त जीवन की भगीदार बनती? कोटा आने के पश्चात मैंने एम०एम० फाईनल और बी०एड० साथ साथ किया। तभी मेरे मामा ने मेरे लिए एक नर्सरी स्कूल शुरू कर्वा दिया और मुझे प्रिंसिपल बना दिया। काम था और इज़्ज़त थी लेकिन मायूसी साथ साथ थी। सब लोग मुझे शादी के लिए मनाने लगे लेकिन मेरा शादी का शुरू से ही कोई इरादा नहीं था। शादी के कई प्रस्ताव आए लेकिन मैं नहीं मानी। अन्त्तः बी०सी० गोयल, जो कि मेरे पति हैं, उन से विवाह के लिए कैसे हाँ कर दी मुझे सव्यं नहीं पता परन्तु आज मुझे पक्का विश्वास है कि यह योजना प्रभु की ओर से थी। शादी के बाद मैं पति के साथ आगरा आ गई और मैंने उनके साथ बाईबल पढ़ना शुरू किया। प्रत्येक रविवार हम दोनों आराधना के लिए जाते थे। आराधनालय में भाई ने बताया कि हम सब काफी समय से तुम दोनों की शादी के लिए प्रार्थना कर रहे थे। मुझे बाईबल पढ़ना और समझना अच्छा लगने लगा, लेकिन मैं पापी हूँ, इस बात से अन्जान थी। समय निकलता गया, मेरे पति को उनके दोस्त ने धोखा दिया तथा आर्थिक परेशनी और बेटे की फीस वगैरह के कारण देहरादून के एक स्कूल में मुझे नौकरी करनी पड़ी। मैं तो इस लायक नहीं थी लेकिन यह प्रभु की दया थी कि मैं रोज़ स्कूल जाने से पहिले बाईबल पढ़ती थी, लेकिन रिवाज़ की तरह। सन १९७९ में मुझे नौकरी छोड़ कर हरिद्वार आना पड़ा क्योंकि पति मानसिक रीति से काफी तनाव मेम रहते थे। १९८१ में फैक्ट्री का कार्य सुचारू रूप से चलने लगा लेकिन शान्ति नहीं थी। १९८४ में हरिद्वार में एक महासभा हुई उस समय मैंने प्रभु को ग्रहण किया लेकिन मजबूरी में। उस समय मेरे दिल में प्रभु का कम नहीं था। भाई लोग जब भी हमारे घर आते, मुझे बुरा लगता, कि इनके लिए चाए बनाओ, खान बनाओ। मेरे पति मुझ से कहते कि सेब खने वाला ही उसके स्वाद को बता सकता है, प्रभु का स्वाद भी ऐसा ही है। मुझे लगता सब दिखावा ही है, स्वर्ग-नरक किसने देखा है? क्या गारण्टी है कि स्वर्ग में ही जाएंगे?


यह सच है कि प्रभु एक बार जिसे चुन लेता है उसे फिर छोड़ता नहीं। १९९० में एक विदेशी परिवार हमारे यहां आया। रात के करीब १२ बज रहे थे, हम्ज सब प्रार्थना कर रहे थे, उस समय पवित्र आत्मा ने मुझ में काम किया जिसक एहसास मैं पूर्ण रूप से कर सकी। उस रात मेरा जीवन बदल गया। मुझे अब सब कुछ नया-नया मिल गया, मैं अपनी खुशी बयन नहीं कर सकती। अब प्रभु मेरे साथ है। यद्यपि मुसीबतों के दौर बराबर चलते रहे लेकिन प्रभु ने मुझे विचिलित नहीं होने दिया। सन १९९०-९१ में मेरे पति का ऑपरेशन मेरठ में हुआ, उस समय प्रभु की दी हुई प्रतिज्ञा ने मेरे विश्वास को और भी बढ़ा दिया। मुझे इस समय विपिरीत परिस्थित्यों से निकलना पड़ा, फिर भी प्रभु ने इन परिस्थित्यों में गिरने नहीं दिया। १९९८ में मेरे पति को ब्रेन ट्यूमर यानि दिमाग़ की रसौली हो गयी। स्थिति बहुत नाज़ुक थी, इस स्थिति में भी प्रभु ने मुझे उस पर विश्वास करना सिखाया। मुझे सिखाया कि मैं समाज के सामने कह सकूँ कि प्रभु यीशु ही मेरा उद्धारकर्ता परमेश्वर है। आज मेरा परिवार, ससुराल और मायके हमारे पक्ष से बिलकुल अलग नज़र आते हैं; क्योंकि हम प्रभु में विश्वास रखते हैं। दोनो पक्ष प्रभु को गहण करने से हिचकिचाते हैं। आज प्रभु की दया से मेरा परिवार प्रभु में है। प्रभु की स्तुति हो आज मैं प्रभु में बहुत खुश हूँ। मेरे वास्तविक रिश्तेदार मेरे मसीही भाई-बहन हैं। मेरे लिए प्रार्थना कीजिए कि मैं प्रभु की जीवित पत्री बन सकूँ ताकि लोग मुझे पढ़कर मेरे प्रभु पर विश्वास कर सकें।