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बुधवार, 17 अप्रैल 2019

अनापेक्षित फंदा


न्यायियो 8:27 – "उनका गिदोन ने एक एपोद बनवाकर अपने ओप्रा नाम नगर में रखा; और सब इस्राएल वहां व्यभिचारिणी के समान उसके पीछे हो लिया, और वह गिदोन और उसके घराने के लिये फन्दा ठहरा।" परमेश्वर ने इस्राएलियों को उनके सताने वालों पर गिदोन के नेतृत्व में एक अद्भुत और अप्रत्याशित विजय दिलवाई थी। इस अद्भुत विजय के स्मारक के रूप में गिदोन ने वह एपोद 'अपने नगर' ओपरा में स्थापित किया। परन्तु परमेश्वर का वचन यह भी बताता है कि वह एपोद गिदोन और उसके घराने के लिए फंदा बन गया।

इस पद से ऊपर के पदों (पद 22-26) से हम देखते हैं कि गिदोन का इस्राएलियों पर प्रभुत्व अथवा नेतृत्व का कोई इरादा नहीं था। वह इस अद्भुत विजय के लिए सारा आदर और महिमा परमेश्वर यहोवा ही को देना चाहता था। उस विजय से मिली लूट में से लेकर उसने स्मारक बनवाना चाहा, वह भी लोगों द्वारा स्वेच्छा से दिए गए लूट के भाग के प्रयोग के द्वारा। गिदोन ने कोई मूर्ति या अन्यजातियों के किसी देवी-देवताओं की मूर्ति अथवा चिन्ह के द्वारा नहीं, वरन एक एपोद के द्वारा यह करना चाहा। एपोद परमेश्वर के तम्बू में सेवकाई करते समय याजकों द्वारा पहने जाने वाले विशेष वस्त्र का एक भाग होता था (निर्गमन 28:4-8), और इसे परमेश्वर की इच्छा जानने के लिए भी प्रयोग किया जाता था (1 शमूएल 30:7-8)। अतः हम देखते हैं कि किसी भी प्रकार से परमेश्वर के विमुख जाने का गिदोन का कोई इरादा नहीं था। उसकी गलती बस इतनी थी कि उसने यह कार्य, चाहे परमेश्वर को आदर और महिमा देने ही के लिए, किन्तु परमेश्वर से पूछे बिना या परमेश्वर से निर्देश पाए बिना, अपनी बुद्धि और समझ के आधार पर, जैसा उसे सही और अच्छा लगा, उसने कर दिया।

फिर हम नीचे, पद 33, 34 में देखते हैं कि कुछ समय पश्चात, गिदोन के देहांत के बाद, इस्राएलियों ने परमेश्वर को छोड़ कर अन्य देवी-देवताओं के पीछे चलना आरंभ कर दिया। पद 27 का अभिप्राय संकेत करता है कि इस्राएलियों की इस मूर्तिपूजा और परमेश्वर के स्थान पर अन्य देवी-देवताओं के पीछे हो लेने के समय में उन्होंने गिदोन के जीवित रहते हुए भी, गिदोन द्वारा बनवाए गए उस स्मारक को भी देवता समान उपासना के लिए प्रयोग करना आरंभ कर दिया, जिससे "वह गिदोन और उसके घराने के लिये फन्दा ठहरा।"

यह उदाहरण दिखता है कि शैतान, हमारे द्वारा बात को जाने-पहचाने बिना, हमारे अच्छे और परमेश्वर को आदर देने के अभिप्राय से रखे गए उद्देश्यों को भी लोगों को बहकाने और परमेश्वर के विमुख कर देने के लिए प्रयोग कर सकता है, जो फिर हमारे तथा औरों लिए आशीष का नहीं वरन ठोकर का और पाप में गिरने कारण बन सकता है। परमेश्वर की आराधना, उपासना और आदर के लिए जो कुछ आवश्यक है, परमेश्वर ने वह अपने वचन में पहले से, उससे संबंधित विवरण तथा निर्देशों के साथ लिखवा रखा है। परमेश्वर द्वारा उस लिखवाए गए के अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह परमेश्वर से नहीं है; परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं है, और उसे चाहे जितनी श्रद्धा से माना या मनाया जाए वह, स्वयं प्रभु यीशु के शब्दों में, “व्यर्थ उपासना” (मत्ती 15:9), अर्थात निरुद्देश्य एवँ निष्फल उपासना है, या “कुकर्म” है (मत्ती 7:21-23)। इसीलिए, मसीही विश्वासियों के लिए यह अनिवार्य है कि किसी भी बात में अपनी बुद्धि और समझ का सहारा कभी न लें, विशेषकर आराधना तथा उपासना से संबंधित बातों में तो कतई नहीं, परंतु हर बात के लिए परमेश्वर की इच्छा जानकर उसके अनुसार ही कार्य करें (1 थिस्सलुनीकियों 5:21); कहीं आज की हमारी कोई बात, कल हमारी ही संतानों के लिए परेशानियाँ न खड़ी कर दे। परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए हमें केवल परमेश्वर के वचन को सीखकर उसका पालन करना है (1 शमूएल 15:22), न कि परमेश्वर को आदर और आराधना के लिए अपने ही मनगढ़ंत तरीके बना कर उन्हें मानना या मनवाना है, जो फिर हमारे अपने तथा औरों के लिए फंदा बन जाएँ जैसा गिदोन के एपोद के द्वारा हुआ।

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

मूर्तियों, देवी-देवताओं आदि को अर्पित वस्तुएँ खाना



जबकि बहुधा भोजन वस्तुएं खेतों में उगाई, खलिहानों में रखी, और फिर दुकानों में बेची जाती हैं गैर-मसीही देवी-देवताओं को अर्पित करने, और धार्मिक अनुष्ठानों को करने के पश्चात, तो क्या मसीही विश्वासियों का उन्हें उपयोग करना उचित है?

चाहे लोग हमारे सच्चे और जीवते परमेश्वर को जानते या मानते नहीं भी हों, और अपने जीवनों में उसके महत्व और स्थान को स्वीकार नहीं भी करते हों, फिर भी परमेश्वर उनसे प्रेम करता है और उनके लिए उपलब्ध करवाता है (भजन 145:9; मत्ती 5:45)। भजनकार कहता है कि प्रभु परमेश्वर ही है जो धरती से वनस्पति को उगवाता है जिससे मनुष्यों और पशुओं को भोजन वस्तु प्राप्त होती है (भजन 104:14)। इसी विचार के अनुरूप, पौलुस बीज बोने और उगने के उदाहरण के द्वारा कहता है कि बीज चाहे कोई भी बोए, किन्तु बीज का उगना, बढ़ना और फल लाना परमेश्वर ही के द्वारा होता है (1 कुरिन्थियों 3:6-8)। इसलिए चाहे किसान खेती करते समय कोई धार्मिक अनुष्ठान अथवा मूर्तिपूजा करे भी, तो भी खेत में वही, उतना, और उसी गुणवत्ता का उगेगा, जितना परमेश्वर उस बीज और धरती से करवाएगा। इसलिए हम मसीही विश्वासी इस बात के लिए निश्चिंत और सुनिश्चित रह सकते हैं कि हमारी प्रत्येक भोजन वस्तु में परमेश्वर का हाथ और आशीष है, चाहे उसे उगाने या बेचने वाला कोई भी हो, और यह कैसे भी किया गया हो।

मूर्तियों को अर्पित वस्तुओं को खाने के निषेध के विषय में, 1 कुरिन्थियों 8 और 10 पढ़ें, जहां पर पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस इस विषय पर चर्चा करता है। यद्यपि मूर्ति कुछ भी नहीं है (1 कुरिन्थियों 8:4), इसलिए इस दृष्टिकोण से किसी मूर्ति को अर्पित की हुई वस्तु खाने या न खाने का कोई महत्व अथवा प्रभाव भी नहीं है(1 कुरिन्थियों 8:8); परन्तु मूलतः, मूर्तियों को अर्पित वस्तु को खाना वर्जित करने के पीछे का उद्देश्य, मूर्तियों की उपासना या अराध्य होने का संकेत भी देने से बचना है (1 कुरिन्थियों 8:7) – क्योंकि वेदी की वस्तुओं के प्रयोग के द्वारा, व्यक्ति उस वेदी का भी संभागी हो जाता है (1 कुरिन्थियों 10:18)। अधिक परिपक्व मसीही विश्वासियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विश्वास में दुर्बल मसीही भाई इस बात के कारण किसी भ्रम में पड़कर भटक न जाएं (1 कुरिन्थियों 8:7, 10-13); और अविश्वासियों पर भी यह प्रगट रहना चाहिए कि मसीही विश्वासी प्रभु की मेज़ और उनकी मेज़ अर्थात, दुष्टात्माओं की मेज़, दोनों में सम्मिलित नहीं हो सकते हैं (1 कुरिन्थियों 10:20-21)। पौलुस यह भी कहता है कि यदि कोई मूर्तियों को अर्पित वस्तु को भोजन वस्तु के रूप में उनके सामने परोसता है, और यह बता देता है, तो एक मसीही विश्वासी को उस व्यक्ति के विवेक के कारण उस भोजन वस्तु को स्वीकार नहीं करना चाहिए (1 कुरिन्थियों 10:25-30); दूसरे शब्दों में, यद्यपि उस भोजन वस्तु को खाना, किसी भी अन्य भोजन वस्तु को खाने से ज़रा भी भिन्न नहीं होगा, फिर भी मूर्ति को अर्पित उस वस्तु का उस व्यक्ति के मन और विवेक में एक विशेष स्थान होने के कारण, और यह दिखाने के लिए की एक मसीही विश्वासी इन बातों से पृथक रहता है, किसी मसीही विश्वासी को वह भोजन वस्तु नहीं खानी चाहिए।

इसलिए, यद्यपि यह बाइबल के अनुसार बिल्कुल सही औए वांछनीय है कि मूर्तियों को चढ़ाई गई वस्तुओं को न तो स्वीकार किया जाए और न ही खाया जाए, और इस सिद्धांत का यथासंभव पालन भी होना चाहिए; परन्तु हमारे शीर्षक-प्रश्न जैसी विशेष परिस्थितियों के संदर्भ में, इसे एक हठधर्मिता का सिद्धांत भी नहीं बना लेना चाहिए, मानो इसी के पालन के द्वारा हम परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और स्वीकार योग्य बनते हैं – क्योंकि यह तो केवल कलवरी के क्रूस पर किए गए प्रभु यीशु के कार्य के द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह से ही संभव हो सकता है, और परमेश्वर हमारे हृदय की दशा भली-भांति जानता है (1 कुरिन्थियों 8:3).


सोमवार, 21 जनवरी 2019

क्या 2 राजा 5:18-19 से नामान के उदाहरण के आधार पर मसीही विश्वासियों का गैर-मसीही उपासना तथा धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेना उचित माना जा सकता है?



परमेश्वर के वचन बाइबल के गलत अर्थ निकालने, गलत व्याख्या करने और उसकी गलत समझ रखने का प्रमुख और आम तौर से देखा जाने वाला कारण है बाइबल के अंशों को उनके संदर्भ से बाहर लेना, उन्हें छोटे भागों में विभाजित करके केवल उस विभाजित भाग मात्र को ही अपनी व्याख्या का आधार बनाना, और अपनी बात को मनवाने के लिए वचन को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करना। परमेश्वर के वचन के किसी भी भाग की शिक्षाओं को सही समझने और जानने के लिए उन्हें सदैव ही उनके संदर्भ में देखना और समझना चाहिए, न कि संदर्भ के बाहर।

यहाँ नामान के उपरोक्त कथन के अर्थ और उपयोगिता को समझने के लिए, उसे पद 17, “तब नामान ने कहा, अच्छा, तो तेरे दास को दो खच्चर मिट्टी मिले, क्योंकि आगे को तेरा दास यहोवा को छोड़ और किसी ईश्वर को होमबलि वा मेलबलि न चढ़ाएगा” के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जिसमें इसे समझने की कुंजी है।

एलीशा के निर्देशों का पालन – चाहे बहुत संकोच के साथ ही सही, करने के पश्चात स्वयँ नामान को ही आश्चर्य हुआ कि वह पूर्णतः चँगा हो गया है, और वह एलीशा के पास लौट कर आता है, इस बात के लिए बिलकुल दृढ़ और निश्चित कि इस्राएल के परमेश्वर को छोड़ और कोई परमेश्वर है ही नहीं (पद 15), और केवल वही परमेश्वर सभी आराधना और बलिदान के योग्य है, अन्य कोई नहीं। इस्राएल के परमेश्वर के प्रति नामान इतना निश्चित एवँ समर्पित हो गया कि उस परमेश्वर को अपने बलिदान चढ़ाने के लिए वेदी बनाने के लिए वह अपने मूर्तिपूजक देश, जहाँ वह रहता है, की मिट्टी भी प्रयोग करना नहीं चाहता है; वह चाहता है कि उसे “दो खच्चर मिट्टी” ले जाने की अनुमति दी जाए जिससे वह इस्राएल के परमेश्वर को अपनी भेंट चढ़ाने के लिए वेदी बना सके (इसे निर्गमन 20:23-26 के विचार के अन्तर्गत देखें)। नामान का यह आग्रह उसके प्रभु परमेश्वर, जिसमें वह अब विश्वास ले आया है और जिसे उसने उपासना और बलिदान के योग्य एकमात्र परमेश्वर स्वीकार कर लिया है, के प्रति उसके समर्पण और निष्ठा के विषय बहुतायत से ब्यान करता है।

परमेश्वर के प्रति नामान की इस निष्ठा और समर्पण को ध्यान में रखते हुए, अब हम 2 राजा 5:18-19 का आँकलन करते हैं। नामान के कथन में कुछ बहुत महत्वपूर्ण सत्य निहित हैं, जिनके आधार पर ही हम इन पदों से उचित और उपयोगी निष्कर्ष निकाल सकते हैं:

·         नामान प्रभु परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास और समर्पण में अति-दृढ़ था। बिलकुल खुले रूप में, उसे अपने इस नए विश्वास का सबके सामने अंगीकार करने में न तो कोई संकोच था और न ही उसे अपने इस निर्णय के प्रति कोई संशय था कि अब से वह केवल इस्राएल के परमेश्वर ही की सेवा करेगा, किसी अन्य देवी-देवता की नहीं।
·         नामान, रिम्मोन के भवन में, स्वेच्छा से नहीं वरन केवल राजा के प्रति उसके कार्य के निर्वाह की बाध्यता के अन्तर्गत ही जाता।
·         रिम्मोन के सामने दण्डवत नामान को नहीं करना था वरन राजा को करना था; नामान उस दण्डवत की मुद्रा में तभी आता जब राजा को उसके हाथ के सहारे की आवश्यकता होती, अन्यथा नहीं।
·         रिम्मोन के भवन में नामान की उपस्थिति न ही राजा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से होनी थी और न ही उपासना के लिए, परन्तु केवल राजा को सहारा देने वाले व्यक्ति के रूप में।
·         इस ज़िम्मेदारी के निर्वाह के प्रति भी नामान न तो सहमत था, और न ही इसे लेकर शान्ति से था, वरन अब उसके लिए यह एक मजबूरी थी, कोई स्वेच्छा से किया गया कार्य नहीं।
·         ऐसा करने के प्रति वह अपने संकोच और अनमने होने को सबके सामने खुले रूप से कहता है, यह जानते हुए कि जब वह इस विषय में एलीशा से बात कर रहा था तब उसके देश के अन्य लोग भी वहाँ उपस्थित थे, और वह उन संभावित परिणामों से भी भली-भांति अवगत था जो इन बातों का उसके राजा के कानों तक पहुँचने से हो सकते थे। परन्तु फिर भी उन लोगों की उपस्थिति में वह ऐसा करने के प्रति अपने संकोच को व्यक्त करने, या अपने विश्वास के बारे में बात करने में निर्भय तथा निःसंकोच था।

उसके इस विश्वास और समर्पण के विषय एलीशा उसे प्रत्युत्तर देता है “कुशल से विदा हो”; दूसरे शब्दों में, एलीशा ने उसे आश्वस्त किया कि “चिन्ता मत कर, परमेश्वर तेरे विश्वास और समर्पण के बारे में, तथा इसके बारे में तेरे मन की भावनाओं के बारे में भली-भांति जानता है, और वह तेरे हृदय की दशा का अनुसार तेरा मूल्याँकन करेगा (इसे 1 शमूएल 16:7; 1 इतिहास 28:9; 2 इतिहास 16:9; नीतिवचन 16:2; यिर्मयाह 17:10; Jeremiah 20:12; लूका 16:15 के संदर्भ में देखें), इसलिए अपनी परिस्थितियों और मजबूरियों को लेकर परेशान न हो, केवल वह कर जो तेरे लिए सही है।”

इसलिए हम कह सकते हैं कि यहाँ पर एलीशा नामान को परमेश्वर के द्वारा अपने लोगों से बारंबार तथा बलपूर्वक कही गई बात – मूर्तियों और मूर्तिपूजा से बिलकुल परे और दूर रहो, के विरुद्ध जाने की अनुमति नहीं दे रहा था, और न ही बात को यूँ ही बिना गंभीरता से लिए कुछ कह रहा था। पुराने नियम में बहुधा दोहराए गए मूर्तिपूजा के विरुद्ध के इस सत्य के नए नियम के समानान्तर के लिए 2 कुरिन्थियों 6:14-18 देखें। परमेश्वर अपने वचन के विरुद्ध कभी नहीं जाएगा, और न ही किसी के भी लिए उसे किसी रीति से काटेगा या बदलेगा। स्मरण रखिए कि वचन स्वयँ देहधारी प्रभु यीशु मसीह ही है (यूहन्ना 1:1-4, 14) – स्वयँ परमेश्वर, मानव देह में, और बाइबल की बातों में कोई भी परस्पर विरोध, परमेश्वर द्वारा अपना ही प्रतिवाद करने के तुल्य है – जो कि बिलकुल असंभव बात है!

इसके अतिरिक्त, बाइबल में कहीं पर भी, पुराने अथवा नए नियम में, इस घटना के आधार पर परमेश्वर के लोगों का मूर्तियों या मूर्तिपूजा से किसी भी रीति से जुड़ने को न्यायसंगत या उचित नहीं ठहराया गया है, जबकि ऐसा किया जा सकता था, यदि इस घटना के अनुसार ऐसा करना सही निष्कर्ष होता। पौलुस ने भे जब कुरिन्थियों को लिखी अपनी पहली पत्री में मूर्तियों और मूर्तियों को अर्पित भोजन वस्तुओं के विषय में निर्देश दिए, तो इस घटना का कहीं उपयोग नहीं किया।

इसलिए यह स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर ने मसीही विश्वासियों को कदापि यह अनुमति नहीं दी है कि वे अविश्वासियों की उपासना के रीति रिवाजों एवँ अनुष्ठानों का भाग हों; और नामान का उदाहरण, केवल उन अविश्वासियों को प्रसन्न रखने के लिए जिनके साथ या जिनके आधीन कोई विश्वासी काम कर रहा है, परमेश्वर के इस निर्देश से बचकर निकलने का मार्ग प्रदान नहीं करता है।

मैं इस बात को अपने जीवन के अनुभव से जानता हूँ। मैं भी गैर-मसीही और मूर्तिपूजक लोगों के साथ तथा उनके आधीन काफी समय से विभिन्न समय और स्थानों पर कार्य करता रहा हूँ। नौकरी के लिए प्रत्येक साक्षात्कार के समय मैं सदा ही साक्षात्कार लेने और मुझे नौकरी पर रखने वाले अधिकारियों से यह स्पष्ट कहा है कि मैं उनके यहाँ नौकरी करते समय कभी भी, किसी भी परिस्थिति में, किसी उपासना, भेंट, बलिदान या अन्य किसी भी धार्मिक गतिविधि अथवा अनुष्ठान में कोई भाग नहीं लूँगा; और परमेश्वर के अनुग्रह तथा सहायता से मैं आज तक अपनी इस बात पर कायम रहा हूँ; और इसके कारण न तो मेरे नौकरी पर रखे जाने और न ही बढ़ोतरी दिए जाने, या महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियों को मुझे सौंपें जाने में कभी कोई बाधा आई है। मैं आज तक निःसंकोच मूर्तियों के आगे अर्पित की गई किसी भी वस्तु को खाने से मना करता आया हूँ – नम्रता के साथ और हाथ जोड़कर अपने विश्वास को व्यक्त करने के द्वारा, बिना किसी को कोई कटु या अपमानजनक व्यवहार दिखाए। और मैंने आज तक उन लोगों के द्वारा आयोजित किसी भी धार्मिक कार्यक्रम या मृतकों के नाम से किए जाने वाले भोज में भाग नहीं लिया है। परमेश्वर सदा मेरे साथ बना रहा है, और मुझे हर उस हानि से बचाता रहा है जिसका भय दिखा कर शैतान लोगों को ऐसे दृढ़ रवैये को अपनाने से रोकने का प्रयास करता रहता है।

इसलिए, परमेश्वर पर भरोसा रखिए, उसके वचन के अनुसार चलिए (इब्रानियों 13:5-6), और परमेश्वर की विश्वासयोग्यता तथा सामर्थ्य का स्वयँ अनुभव कीजिए।