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सोमवार, 20 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना - 1 - परिचय; कब, कैसे और किसे



पवित्र आत्मा पाने से संबंधित बातें - परिचय

यह लेख किसी मसीही मत या समुदाय की शिक्षाओं पर न तो आधारित है, और न ही किसी भी मत या समुदाय की शिक्षाओं को बढ़ावा देने, उनका प्रचार करने के लिए है। इस लेख का उद्देश्य केवल और पूर्णतः बाइबल के वचनों और शिक्षाओं के आधार पर परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय सामान्यतः प्रचलित गलत शिक्षाओं का विश्लेषण कर के उन शिक्षाओं के सत्य और असत्य को उजागर करना है।

जैसा कि आप यहाँ लिखी हुई बातों को पढ़ते हुए स्वयं ही समझ जाएंगे, परमेश्वर पवित्र आत्मा का प्रत्येक मसीही विश्वासी के जीवन में बहुत बड़ा महत्व है, और प्रत्येक मसीही विश्वासी के जीवन में पवित्र आत्मा की प्रभु यीशु मसीह की ओर से स्थापित बहुत बड़ी तथा अनिवार्य भूमिका है (यूहन्ना 16:7-13)। बिना पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और मार्गदर्शन के कोई भी मसीही विश्वासी परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षाओं को उनकी वास्तविकता में न तो समझ सकता है (1 कुरिन्थियों 2:11-14), और न उनमें दृढ़ एवं स्थापित हो सकता है (यूहन्ना 14:26), और न ही प्रभु के लिए कार्यकारी और उपयोगी हो सकता है (गलातियों 5:22-23 – जहां पवित्र आत्मा होगा, वहीं उसके फल भी होंगे)। क्योंकि बहुधा लोग पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और उपयोगिता को समझते और स्वीकार नहीं करते हैं, इसलिए उनके मसीही जीवन आत्मिकता में निष्क्रिय और अप्रभावी, तथा प्रभु के लिए अनुपयोगी रहते हैं; और यह सामर्थ्यहीन एवं निष्क्रिय मसीही जीवन व्यतीत करते रहने के कारण लोग अपनी अनंतकाल तक के लिए उपयोगी आत्मिक आशीषें अर्जित करने से भी वंचित रह जाते हैं।

ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय सामान्यतः बहुत सी भ्रांतियां भी पाई जाती हैं, जिसके कारण मसीही विश्वासियों में असमंजस रहता है। बहुधा पवित्र आत्मा के नाम से दी जाने वाली गलत शिक्षाओं, लोगों पर उन गलत शिक्षाओं के विषय अनुचित ज़ोर देने के द्वारा, और उन लोगों के विचित्र तथा परमेश्वर के वचन से पूर्णतः असंगत व्यवहार के द्वारा, दुर्भाग्यवश इन गलतफहमियों को और भी अधिक बढ़ावा मिलता रहता है, जिस से लोग पवित्र आत्मा से संबंधित सही बातों और शिक्षाओं से और दूर होते रहते हैं। इन गलत शिक्षाओं के कारण कई मसीही तो पवित्र आत्मा की बातों के महत्व को सुनना, देखना या इस पर कोई वार्तालाप अथवा चर्चा ही नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें यह लगता है कि यह एक विशेष समुदाय की शिक्षा है, और जो उस समुदाय से संबंधित नहीं हैं, उनके लिए इसमें पड़ने की आवश्यकता भी नहीं है – किन्तु यह भी गलत है। जैसे परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाओं को सिखाना और मानना गलत है, वैसे ही पवित्र आत्मा की बिलकुल अनदेखी कर देना, उस पर ध्यान न देना भी उतना ही गलत है।

यह लेख परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित सभी बातों पर नहीं है, वरन केवल पवित्र आत्मा को प्राप्त करने से संबंधित कुछ आधारभूत शिक्षाओं पर ही है; जिन को हम यहाँ निम्न शीर्षकों के अंतर्गत देखेंगे:

पवित्र आत्मा कब, कैसे, और किसे मिलता है?
क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है?
1. क्या पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है? – (लूका 11:13); संबंधित चार बातें
2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?
(भाग 1 – तीन उदाहरण - प्रेरितों 8:14-17; अध्याय 10, 11; 19:1-7)
(भाग 2 – यहाँ पर ध्यान रखने योग्य संबंधित शिक्षाएं)
(भाग 3 – तीन उदाहरणों की समझ)
3. क्या पवित्र आत्मा अगुवों या प्रेरितों द्वारा हाथ रखने से मिलता है?
4. क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है?
5. पवित्र आत्मा पाने के लिए कुछ विशेष करना – निष्कर्ष
पवित्र आत्मा का बपतिस्मा क्या है?
पवित्र आत्मा से भरना या परिपूर्ण होना क्या है?
उपसंहार

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पवित्र आत्मा कब, कैसे, और किसे मिलता है?

परमेश्वर के वचन बाइबल की यह स्पष्ट शिक्षा है कि जैसे ही व्यक्ति मसीह यीशु में विश्वास में आता है, अर्थात जैसे ही व्यक्ति पापों से पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु यीशु से क्षमा मांग कर, अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करता है, प्रभु के अनुग्रह के द्वारा उद्धार पाता है, उसी पल से वह परमेश्वर की संतान हो जाता है (यूहन्ना 1:12-13), और उसी क्षण उसे न केवल प्रभु परमेश्वर की ओर से पवित्र आत्मा दे दिया जाता है (प्रेरितों 19:2; इफिसियों 1:13-14), वरन साथ ही में वह व्यक्ति पवित्र आत्मा का मंदिर बन जाता है और परमेश्वर पवित्र आत्मा उसमें सदा के लिए निवास करने लगता है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19) – बिना किसी भेद-भाव के, प्रत्येक वास्तविक उद्धार पाने वाले मसीही विश्वासी में। साथ ही बाइबल की शिक्षाओं के आधार पर कृपया यह भी ध्यान कर लीजिए कि ‘अन्य-भाषाएँ’ बोलना पवित्र आत्मा पा लेने का प्रमाण कदापि नहीं है – क्योंकि अन्य-भाषा बोलना और आत्मिक वरदान अपने आप में एक वृहद विषय है, जिस पर हम अभी कोई चर्चा नहीं कर रहे हैं, इस लिए इस लेख में इसके विषय और कुछ नहीं कहा गया है। यदि प्रभु की इच्छा में हुआ और प्रभु ने अगुवाई और मार्गदर्शन दिया, तो इस के विषय फिर आगे कभी चर्चा करेंगे।

जिस पल व्यक्ति उद्धार पाता है, उसी पल से वह व्यक्ति प्रभु का हो जाता है (2 कुरिन्थियों 5:15, 17)। क्योंकि बिना पवित्र आत्मा के कोई भी वास्तव में यीशु को प्रभु नहीं कह सकता है (1 कुरिन्थियों 12:3), इसलिए परमेश्वर के वचन के अनुसार यह असंभव है कि कोई वास्तव में उद्धार पाए, वास्तविक मसीही विश्वासी हो जाए, वास्तव में यीशु को अपना प्रभु अर्थात स्वामी माने और कहे (लूका 6:46), किन्तु उसमें पवित्र आत्मा न हो। जो भी वास्तव में मसीह यीशु में विश्वास में होगा, पवित्र आत्मा भी उसे संचालित करने और सुरक्षित रखने के लिए उसमें अवश्य ही होगा (रोमियों 8:1-2, 9)। यदि ऐसा नहीं होगा तो फिर परमेश्वर का वचन झूठा हो जाएगा – जो कि नामुमकिन है।

क्योंकि पवित्र आत्मा परमेश्वर है इसलिए उसे किसी भी मानवीय अनुष्ठान अथवा विधि-विधान, या कार्यवाही के आधीन न तो लाया जा सकता है, और न ही इन बातों से उसे नियंत्रित अथवा निर्देशित किया जा सकता है। पवित्र आत्मा को अंशों में नहीं बाँटा जा सकता है, उसे या उसकी उपलब्ध मात्रा को घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता है, और न ही उसे किश्तों में उपलब्ध करवाया जा सकता है। इसलिए यदि वह किसी में है – तो है, अपनी संपूर्णता और परिपूर्णता में है; और नहीं है तो बिलकुल नहीं है! इसलिए वह सभी सच्चे मसीही विश्वासियों में सदा ही समान ही होता है, न किसी में कम और न किसी में अधिक; परमेश्वर कभी भी पवित्र आत्मा नाप-नाप कर नहीं देता है (यूहन्ना 3:34)। किन्तु, जैसा हम आगे देखेंगे, प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा की उपस्थिति होने पर भी, उस विश्वासी व्यक्ति के व्यवहारिक मसीही जीवन में होने वाला पवित्र आत्मा का प्रभावी प्रगटीकरण, उद्धार पाए हुए उस व्यक्ति के मसीही जीवन की आत्मिक परिपक्वता के अनुपात में होता है, और इसलिए वह कम या अधिक प्रतीत हो सकता है – पवित्र आत्मा अपनी सामर्थ्य ,अथवा गुणवत्ता या मात्रा में किसी में भी कम या अधिक नहीं होता है, वरन व्यक्ति का पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता और अधीनता में होकर कार्य और व्यवहार करना कम या अधिक होता है।

संक्षेप में, पवित्र आत्मा प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी को उद्धार पाते ही तुरंत ही परमेश्वर की ओर से उसके मसीही जीवन को व्यतीत करने में सहायता, सुरक्षा, और सामर्थ्य देने के लिए दे दिया जाता है, और उस के जीवन भर उस में बना रहता है।
यह एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है कि पवित्र आत्मा प्रत्येक वास्तव में उद्धार पाए हुए सच्चे मसीही विश्वासी में सदा ही विद्यमान है; लेकिन इस से भी अधिक महत्वपूर्ण तथ्य जिसे हम सभी को बड़े ध्यान से समझना है, और जिस के तात्पर्य को व्यावहारिक मसीही विश्वास में निःसंकोच लागू करना है, उपरोक्त तथ्य को विपरीत रीति से कहना है – कि जो वास्तव में उद्धार पाया हुआ और सच्चा मसीही विश्वासी नहीं है, उसमें पवित्र आत्मा भी विद्यमान नहीं है, और न कभी किसी भी प्रयास द्वारा होगा।
 मसीही विश्वासी परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता में, मसीही विश्वास की बातों के पालन में, और पवित्र आत्मा के प्रति समर्पण में जितना परिपक्व होगा, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य, फल, और कार्य भी उसके जीवन में उतने अधिक प्रगट होंगे।

सोमवार, 29 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 5: आराधना से आशीष


आराधना से आशीष

मैंने जैसे जैसे परमेश्वर और उसके वचन के बारे में सीखा तथा जाना, मुझे यह एहसास भी होता तथा बढ़ता गया है कि परमेश्वर का संपूर्ण वचन अद्भुत रीति और बहुत बारीकी से परस्पर जुड़ी हुई इकाई है, इस वचन का प्रत्येक भाग अन्य भागों से संबंधित उनका सहायक एवं पूरक है। हम जैसे जैसे परमेश्वर के वचन की गहराइयों में उतरते जाते हैं, अद्भुत बारीकी का यह परस्पर संबंध हमारे लिए इस बात को और भी सुदृढ़ करता जाता है कि वास्तव में यह परमेश्वर ही का वचन है, और इस एहसास से हमारे मन उसके प्रति और भी आराधना तथा आदर से भरते जाते हैं।

इससे पिछले खण्ड, "आराधना की अनिवार्यता" का अन्त इस पूर्वाभास के साथ हुआ था कि परमेश्वर आराधना क्यों चाहता है। कुछ यह मानते हैं कि परमेश्वर आत्माभिमानी है और चाहता है कि लोग उसकी तूती उसके लिए बजाते रहें; परन्तु ऐसा नहीं है। प्रत्येक नया जन्म पाए विश्वासी, अर्थात अपने पापों के पश्चाताप और प्रभु यीशु मसीह में लाए विश्वास के द्वारा परमेश्वर की सनतान (यूहन्ना 1:12-13) बनने वाले व्यक्ति के जीवन में एक कारण तथा प्रभावका संबंध बना रहता है; इसी कारण तथा प्रभावके संबंध के द्वारा परमेश्वर अपने आराधक को, जो आत्मा और सच्चाई में परमेश्वर की आराधना करता है, ऊँचाईयों पर लगातार चढ़ते चले जाने वाले ऐसे मार्ग पर अग्रसर करता रहता है, जिसकी आशीष ना केवल अनन्तकाल में वरन अभी वर्तमान में हमारे पृथ्वी के जीवन में भी मिलती रहती है।

इस पृथ्वी पर अपनी सेवकाई के समय में प्रभु यीशु ने कहा था: "आकाश और पृथ्वी टल जाएंगे, परन्तु मेरी बातें कभी न टलेंगी" (मत्ती 24:35); अर्थात प्रभु के वचन अचूक, अकाट्य, अटल और दृढ़ हैं; वे सदा सत्य होंगे, हर कीमत पर और चाहे जो हो जाए। इस बात को ध्यान में रखते हुए, प्रभु यीशु द्वारा कही गई एक और बात पर ध्यान कीजिए: "...प्रभु यीशु की बातें स्मरण रखना अवश्य है, कि उसने आप ही कहा है; कि लेने से देना धन्य है" (प्रेरितों 20:35)

स्वयं प्रभु यीशु के शब्दों में, लेने और देने दोनों में ही आशीष है; लेकिन प्रभु कहते हैं कि लेने की बजाए देने में आशीष अधिक है।

हम प्रार्थना परमेश्वर से लेने के लिए करते हैं; लेकिन आराधना द्वारा हम परमेश्वर को देते हैं - हम धन्यवाद देते हैं, महिमा देते हैं, भक्ति देते हैं, आदर देते हैं, श्रद्धा देते हैं, उसके वचन को आज्ञाकारिता तथा उद्यम देते हैं। प्रार्थना का सरोकार लेने ही से है और आराधना का सरोकार देने ही से है; इसलिए यद्यपि प्रार्थना और आराधना दोनों में आशीष है, लेकिन आराधना में प्रार्थना से अधिक आशीष है।


आगे, हम इस कारण तथा प्रभावके परस्पर संबंध और परमेश्वर को देने की आशीष की समझ तथा व्याख्या के लिए परमेश्वर के वचन से कुछ उदाहरणों को देखेंगे।