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बुधवार, 31 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 7: पाने के लिए देना


पाने के लिए देना

परमेश्वर की ओर से सदा ही यह स्थापित रहा है कि उसके निर्देषों के अनुसार किए गए किसी भी निवेष का प्रतिफल कलपना से कहीं बढ़कर होगा। जब परमेश्वर ने इस्त्राएलियों को अपनी व्यवस्था और नियम दिए, तो उनका महत्वपूर्ण भाग था दशमांश, भेंटें, संपदा एवं बढ़ोतरी के प्रथम-फल परमेश्वर के घर में लाना और गरीबों की सहायता करना। उसके इन निर्देषों के पालन का उद्देश्य था उसके आज्ञाकारी लोगों को आशीषित तथा फलवंत करना; इस संदर्भ में परमेश्वर ने कहा: "भला होता कि उनका मन सदैव ऐसा ही बना रहे, कि वे मेरा भय मानते हुए मेरी सब आज्ञाओं पर चलते रहें, जिस से उनकी और उनके वंश की सदैव भलाई होती रहे!" (व्यवस्थाविवरण 5:29)

समस्त युगों में इस्त्राएल का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि परमेश्वर के लोगों ने जब भी परमेश्वर की आज्ञाकारिता में उसे तथा उसके कार्य के लिए अपनी संपदा में से दिया है तो प्रत्युत्तर में उन्होंने सदा बढ़ोतरी ही पाई है। परन्तु जब भी उन्होंने ऐसा नहीं किया है, तो सदा दुःख ही पाया है; और जो कुछ उन्होंने बचा कर रखना चाहा या सुरक्षित रखना चाहा वह भी उनके पास नहीं बचा।

हिज़किय्याह राजा के समय में एक बड़ा सुधार आया; परमेश्वर के लोगों ने अपने आप को परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता में समर्पित किया, अपने आप को सही किया, और वे फिर से अपने दशमांश और भेंट परमेश्वर के घर में लाने लग गए जिससे परमेश्वर के पुरोहितों और परमेश्वर के भवन की आवश्यकताएं पूरी हो सकें (2 इतिहास 31:1-11)। जब उन्होंने निष्ठापूर्वक अपने दशमांश और भेंटें लाना आरंभ कर दिया तब परमेश्वर ने भी उन्हें बहुतायत से आशीषित करना आरंभ कर दिया; जिससे अब अपनी बढ़ती में से परमेश्वर को देने के लिए उनके पास और भी अधिक हो गया, और वे इतना अधिक लाने लगे कि पुरोहितों तथा भवन की सारी आवश्यकताएं पूरी हो जाने के बाद भी बहुत बच गया, और उनके दिए हुए के परमेश्वर के भवन में ढेर लग गए क्योंकि उन्हें रखने के लिए भण्डार की कोठरियां शेष नहीं रह गईं थीं; राजा हिज़किय्याह को उन दशमांशों तथा भेटों को रखने के लिए नए कमरे बनवाने का आदेश देना पड़ा: "और अजर्याह महायाजक ने जो सादोक के घराने का था, उस से कहा, जब से लोग यहोवा के भवन में उठाई हुई भेंटें लाने लगे हैं, तब से हम लोग पेट भर खाने को पाते हैं, वरन बहुत बचा भी करता है; क्योंकि यहोवा ने अपनी प्रजा को आशीष दी है, और जो शेष रह गया है, उसी का यह बड़ा ढेर है। तब हिजकिय्याह ने यहोवा के भवन में कोठरियां तैयार करने की आज्ञा दी, और वे तैयार की गई" (2 इतिहास 31:10-11)

बाद में जब इस्त्राएल एक बार फिर परमेश्वर के पीछे चलने से भटक गया और परेशानियों में पड़ गया, तब परमेश्वर ने उन्हें फिर से स्मरण करवाया: "सारे दशमांश भण्डार में ले आओ कि मेरे भवन में भोजनवस्तु रहे; और सेनाओं का यहोवा यह कहता है, कि ऐसा कर के मुझे परखो कि मैं आकाश के झरोखे तुम्हारे लिये खोल कर तुम्हारे ऊपर अपरम्पार आशीष की वर्षा करता हूं कि नहीं" (मलाकी3:10)

बुद्धिमान राजा सुलेमान के द्वारा परमेश्वर के आत्मा ने लिखवा दिया कि: "अपनी संपत्ति के द्वारा और अपनी भूमि की पहिली उपज दे देकर यहोवा की प्रतिष्ठा करना; इस प्रकार तेरे खत्ते भरे और पूरे रहेंगे, और तेरे रसकुण्डों से नया दाखमधु उमण्डता रहेगा" (नीतिवचन 3:9-10)

इन शब्दों पर ध्यान दीजिए - "अपनी संपत्ति के द्वारा और अपनी भूमि की पहिली उपज दे देकर यहोवा की प्रतिष्ठा करना..."; परमेश्वर की सनतान होने के नाते हमें इसका अंगीकार करना और ध्यान रखना है कि हमारे पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर के अनुग्रह से हमें दिया गया है (व्यवस्थाविवरण 8:18)। हमारे पास जो भी है, चाहे पार्थिव संपदा; या कोई कौशल, योग्यता, सामर्थ्य या बुद्धि-ज्ञान की प्रतिभा; या कोई आत्मिक वरदान - चाहे जो भी हो, वह सब कुछ परमेश्वर के अनुग्रह से हमें दिया गया है। ये सभी परमेश्वर द्वारा उसके खेत - अर्थात संसार के लोगों में बोने के लिए दिए गए बीज हैं। अब यह हमारे ऊपर है कि चाहे हम इस बीज को अपने लिए इस्तेमाल कर के समाप्त कर लें, या फिर उसे बोएं और बहुतायत की फसल जो हमें तथा दूसरों को आशीषित करे पाएं। जब तक हम परमेश्वर की खेती में जाना, अपने हाथों को खोल कर उसके दिए बीजों को उसके लिए बोना नहीं सीखेंगे, हम परमेश्वर की आशीषों की फसल की बहुतायत का अनुभव भी नहीं करने पाएंगे (नीत्वचन 10:22)

मंगलवार, 30 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 6: ’कारण तथा प्रभाव’ का संबंध:


कारण तथा प्रभावका संबंध

परमेश्वर की प्रत्येक सन्तान के जीवन में समान रूप से तथा लगातार लागू रहने वाले सिद्धांतों में से एक है: "धोखा न खाओ, परमेश्वर ठट्ठों में नहीं उड़ाया जाता, क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता है, वही काटेगा" (गलतियों 6:7); इसी सिद्धांत को कुछ भिन्न शब्दों में यूँ भी कहा गया है: "परन्तु बात तो यह है, कि जो थोड़ा बोता है वह थोड़ा काटेगा भी; और जो बहुत बोता है, वह बहुत काटेगा" (2 कुरिन्थियों 9:6)। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के लिए, मात्रा एवं गुणवत्ता में हमारे द्वारा किया गया निवेष ही यह निर्धारित करता है कि हम परमेश्वर से प्रत्युत्तर में क्या और कितना पाएंगे।

जब हम परमेश्वर से कुछ प्राप्त करते हैं, चाहे वह प्रार्थना के अथवा आराधना के प्रत्युत्तार में हो, तब यदि हम हमारे जीवन में किए गए उसके उपकार और कार्य का अंगीकार करने तथा खुलकर उसकी गवाही देने के लिए तैयार होते हैंअपने उजियाले को मनुष्यों के सामने चमकाने देते हैं (मत्ती 5:15-16), यदि हम सार्वजनिक रीति से, ईमानदारी से तथा आत्मा और सच्चाई से, उससे मिली आशीष के लिए उसे अपना धन्यवाद, आदर और आराधना अर्पित करते हैं, तो जो हम उसे देते हैं परमेश्वर कभी उसका कर्ज़दार नहीं बना रहता। जो हम आराधना में उसे देते हैं, उसके प्रत्युत्तर में वह और भी बढ़कर आशीषें हमें लौटा कर दे देता है। जैसे जैसे हमारी आराधना की मात्रा और गुणवत्ता बढ़ती जाती है, प्रत्युत्तर में परमेश्वर से मिलने वाली आशीषें भी उसी अनुपात में बढ़ती जाती हैं! कारण अर्थात पाना, उसके प्रभाव अर्थात प्रत्युत्तर का जनक हो जाता है, जो फिर से एक नए पाने और देने के सिलसिले का आरंभ बन जाता है, और यह सिलसिला बढ़ता रहता है - ऊँचाईयों को अग्रसर मार्ग, जिससे हम परमेश्वर द्वारा अधिकाधिक परिपूर्ण और आशीषित होते जाते हैं। कारण तथा प्रभाव के संबंध का यह सिद्धांत सभी विश्वासियों के लिए उपलब्ध और कार्यकारी है, परन्तु इसका सही उपयोग करना हमारे अपने हाथ में है।

मैं यह अपने व्यक्तिगत अनुभव से कह रहा हूँ - परमेश्वर को महिमा दें, वह लौटा कर आपको महिमा देगा; उसे आदर दें, उससे आदर पाएं; उसे श्रद्धा दें, उससे श्रद्धा पाएं; उसकी बड़ाई करें, उससे बड़ाई पाएं; अपने समय में से उसे दें, वह आपके जीवन में और समय भर देगा; अपने जीवन में उसे प्राथमिकता दें, वह आपको प्राथमिकता दिलवाएगा; उसके लिए कार्य करें, वह आपके लिए कार्य करेगा; पृथ्वी पर उसकी आवश्यकताओं को पूरा करें, वह आपकी आवश्यकताओं को पूरा करेगा केवल पृथ्वी पर ही नहीं वरन स्वर्ग में भी। यह सब कठिन और समझ के बाहर प्रतीत हो सकता है, परन्तु विश्वास के साथ कदम आगे बढ़ाएं, परमेश्वर आपको निराश कभी नहीं होने देगा।

प्रार्थना के द्वारा आप उतना ही पा सकते हैं जितनी आपकी सोच की सीमा और अपनी आवश्यकताओं के बारे में समझ है; परन्तु आराधना आपको आपकी कलपना से भी कहीं अधिक बढ़कर आशीषित और भरपूर कर सकती है (1 कुरिन्थियों 2:9)

आराधना के लिए उभारना परमेश्वर का तरीका है हमें उस बहुतायत के जीवन को उपलब्ध करवाने का जो परमेश्वर अपने लोगों को देना चाहता है: "... मैं इसलिये आया कि वे जीवन पाएं, और बहुतायत से पाएं" (यूहन्ना 10:10)। आराधना इसलिए नहीं है कि हम परमेश्वर की तूती उसके लिए बजाएं; वरन इसलिए है ताकि जो भी फसल हम उसके लिए बोएं बहुतायात से उसका प्रतिफल पाएं।
आगे हम इस कारण और प्रभाव के संबंध को समझने के लिए कुछ और उदाहरण देखेंगे।

सोमवार, 29 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 5: आराधना से आशीष


आराधना से आशीष

मैंने जैसे जैसे परमेश्वर और उसके वचन के बारे में सीखा तथा जाना, मुझे यह एहसास भी होता तथा बढ़ता गया है कि परमेश्वर का संपूर्ण वचन अद्भुत रीति और बहुत बारीकी से परस्पर जुड़ी हुई इकाई है, इस वचन का प्रत्येक भाग अन्य भागों से संबंधित उनका सहायक एवं पूरक है। हम जैसे जैसे परमेश्वर के वचन की गहराइयों में उतरते जाते हैं, अद्भुत बारीकी का यह परस्पर संबंध हमारे लिए इस बात को और भी सुदृढ़ करता जाता है कि वास्तव में यह परमेश्वर ही का वचन है, और इस एहसास से हमारे मन उसके प्रति और भी आराधना तथा आदर से भरते जाते हैं।

इससे पिछले खण्ड, "आराधना की अनिवार्यता" का अन्त इस पूर्वाभास के साथ हुआ था कि परमेश्वर आराधना क्यों चाहता है। कुछ यह मानते हैं कि परमेश्वर आत्माभिमानी है और चाहता है कि लोग उसकी तूती उसके लिए बजाते रहें; परन्तु ऐसा नहीं है। प्रत्येक नया जन्म पाए विश्वासी, अर्थात अपने पापों के पश्चाताप और प्रभु यीशु मसीह में लाए विश्वास के द्वारा परमेश्वर की सनतान (यूहन्ना 1:12-13) बनने वाले व्यक्ति के जीवन में एक कारण तथा प्रभावका संबंध बना रहता है; इसी कारण तथा प्रभावके संबंध के द्वारा परमेश्वर अपने आराधक को, जो आत्मा और सच्चाई में परमेश्वर की आराधना करता है, ऊँचाईयों पर लगातार चढ़ते चले जाने वाले ऐसे मार्ग पर अग्रसर करता रहता है, जिसकी आशीष ना केवल अनन्तकाल में वरन अभी वर्तमान में हमारे पृथ्वी के जीवन में भी मिलती रहती है।

इस पृथ्वी पर अपनी सेवकाई के समय में प्रभु यीशु ने कहा था: "आकाश और पृथ्वी टल जाएंगे, परन्तु मेरी बातें कभी न टलेंगी" (मत्ती 24:35); अर्थात प्रभु के वचन अचूक, अकाट्य, अटल और दृढ़ हैं; वे सदा सत्य होंगे, हर कीमत पर और चाहे जो हो जाए। इस बात को ध्यान में रखते हुए, प्रभु यीशु द्वारा कही गई एक और बात पर ध्यान कीजिए: "...प्रभु यीशु की बातें स्मरण रखना अवश्य है, कि उसने आप ही कहा है; कि लेने से देना धन्य है" (प्रेरितों 20:35)

स्वयं प्रभु यीशु के शब्दों में, लेने और देने दोनों में ही आशीष है; लेकिन प्रभु कहते हैं कि लेने की बजाए देने में आशीष अधिक है।

हम प्रार्थना परमेश्वर से लेने के लिए करते हैं; लेकिन आराधना द्वारा हम परमेश्वर को देते हैं - हम धन्यवाद देते हैं, महिमा देते हैं, भक्ति देते हैं, आदर देते हैं, श्रद्धा देते हैं, उसके वचन को आज्ञाकारिता तथा उद्यम देते हैं। प्रार्थना का सरोकार लेने ही से है और आराधना का सरोकार देने ही से है; इसलिए यद्यपि प्रार्थना और आराधना दोनों में आशीष है, लेकिन आराधना में प्रार्थना से अधिक आशीष है।


आगे, हम इस कारण तथा प्रभावके परस्पर संबंध और परमेश्वर को देने की आशीष की समझ तथा व्याख्या के लिए परमेश्वर के वचन से कुछ उदाहरणों को देखेंगे।

रविवार, 28 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 4: आराधना की अनिवार्यता


आराधना की अनिवार्यता

सामरी स्त्री के साथ हुए अपने वार्तालाप में प्रभु यीशु ने एक अति-महत्वपूर्ण बात कही - बात जिसका अकसर हवाला दिया जाता है, उध्दरण किया जाता है, परन्तु जैसे उसे लिया जाना चाहिए और समझा जाना चाहिए वैसा अकसर किया नहीं जाता है। वह बात है: "परन्तु वह समय आता है, वरन अब भी है जिस में सच्चे भक्त पिता का भजन [आराधना] आत्मा और सच्चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिये ऐसे ही भजन [आराधना] करने वालों को ढूंढ़ता है" (यूहन्ना 4:23)

यद्यपि अकसर इस पद के द्वारा यह दिखाने और सिखाने का प्रयास किया जाता है कि परमेश्वर प्रार्थना करने वालों का खोजी है, वास्तविकता ऐसी नहीं है; वास्तविकता में प्रभु यीशु ने जो कहा वह है कि परमेश्वर अपने आराधकों को ढूँढ़ता है, ना कि यह कि परमेश्वर प्रार्थना करने वालों को ढूँढ़ता है।

मूल युनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद भजन [आराधना] किया गया है वह है प्रोसकूनियो जिसका अर्थ होता है आदर देने के लिए मुँह के बल हो जाना या साष्टांग प्रणाम करना, नम्र होकर आराधना करना। इसी प्रकार जिस यूनानी शब्द का अनुवाद भजन [आराधना] करने वाला हुआ है वह है प्रोस्कुनीटीस अर्थात आराधना करने वाला। लेकिन जिस यूनानी शब्द का अनुवाद प्रार्थना, या प्रार्थना करना, या प्रार्थना करने वाला किया गया है वह है प्रोसिव्कुमाई जिसका अर्थ है परमेश्वर से प्रार्थना करना या गिड़गिड़ाना।

परमेश्वर से प्रार्थना करने वाले लोगों की कोई कमी नहीं है; गैर-मसीही और अविश्वासी या फिर वे लोग जो परमेश्वर से केवल कुछ पाना भर चाहते हैं या अपने आप को किसी विकट परिस्थिति से निकलवाना चाहते हैं, वे भी अपनी आवश्यकतानुसार परमेश्वर से प्रार्थना कर लेते हैं, और परमेश्वर सब की बात को सुनता है। लेकिन परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं खोज रहा है जो केवल प्रार्थना भर करते हैं, अर्थात उससे केवल माँगते ही रहते हैं; वह अराधकों को खोज रहा है; अर्थात उन्हें जो दीन और नम्र होकर अपने आप को उसे समर्पित कर दें, उसके प्रति आदर और आराधना का रवैया बनाए रखें तथा उसकी महिमा करें।

इस पद के द्वारा हम यह भी देखते हैं कि सच्ची आराधना "आत्मा और सच्चाई" से होती है, अर्थात वह ना तो ऊपरी या बाहरी होती है, ना ही बनावटी या दिखावे के लिए होती है, वरन सच्ची आराधना हृदय की गहराईयों से प्रवाहित तथा परमेश्वर पिता की ओर निर्देशित होती है - प्रभु यीशु द्वारा कही गई प्रथम और सबसे महान आज्ञा: "उसने उस से कहा, तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है" (मत्ती 22:37-38) के व्यावाहरिक प्रगटिकरण के रूप में।


हमारे प्रेमी और ध्यान रखने वाले परमेश्वर पिता के पास उससे प्रार्थना करने वाले, अपनी आवश्यकताओं को माँगने वाले तो बहुत हैं, लेकिन उसका हृदय अपने आराधकों तथा उनके द्वारा आत्मा और सच्चाई से करी गई उसकी आराधना के लिए लालायित रहता है - और इसका बहुत महत्वपुर्ण कारण भी है जिसे हम आगे देखेंगे। परमेश्वर की सन्तान होने के नाते हमारे लिए यह अनिवार्य है कि हमारे लिए हमारे स्वर्गीय पिता द्वारा रखी गई आशाओं के अनुरूप हम बढ़ें और उससे केवल प्रार्थना ही करते रहने वाले नहीं वरन उसकी आराधना करने वाले बनें।

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 3: आराधना के तरीके


आराधना के तरीके

हमने यह देखा है कि हर बात और हर परिस्थिति में परमेश्वर का धन्यवाद करना उसकी आराधना और महिमा करने का एक तरीका है; यह परमेश्वर की सन्तान के रूप में हमारे विकास के लिए केवल प्रार्थना ही करने की अपेक्षा कहीं अधिक लाभदायक है। हमने क्रिस्टी बाउर के अनुभव और पुस्तक से देखा कि परमेश्वर के धन्यवादी होने की आदत को बनाने के लिए जान-बूझकर किए गए प्रयासों ने ना केवल उनकी पुरानी हताशा को चंगा किया वरन परमेश्वर के प्रति उनके रवैये को बदल डाला और उसके प्रेम को उन्हें एक बिलकुल नए प्रकार से अनुभव करवाया। अब परमेश्वर की आराधना और महिमा के बारे में और आगे देखें - हर बात के लिए और हर परिस्थिति में परमेश्वर के धन्यवादी होने के अलावा, हम उसकी आराधना तथा महिमा और कैसे कर सकते हैं?

प्रभु यीशु के पहाड़ी उपदेश में उनके द्वारा अपने चेलों को दी गई आरंभिक शिक्षाओं में एक है: "उसी प्रकार तुम्हारा उजियाला मनुष्यों के साम्हने चमके कि वे तुम्हारे भले कामों को देखकर तुम्हारे पिता की, जो स्वर्ग में हैं, बड़ाई करें" (मत्ती 5:16)। यह हमें परमेश्वर की आराधना और महिमा करने का एक और तरीका देता है - हमारे कार्यों के द्वारा। जब हम अपने जीवनों को परमेश्वर के लिए एक सजीव उदाहरण बनाते हैं, जब हमारे कार्यों, व्यवहार और रवैये के कारण संसार के लोग परमेश्वर की महिमा करते हैं; हम परमेश्वर की आराधना करते हैं। प्रेरित पतरस के द्वारा परमेश्वर का पवित्र आत्मा इस आराधना का एक और पक्ष हमारे सामने लाता है: "अन्यजातियों में तुम्हारा चालचलन भला हो; इसलिये कि जिन जिन बातों में वे तुम्हें कुकर्मी जान कर बदनाम करते हैं, वे तुम्हारे भले कामों को देख कर; उन्‍हीं के कारण कृपा दृष्टि के दिन परमेश्वर की महिमा करें" (1 पतरस 2:12); अर्थात, संसार के लोगों की प्रतिक्रिया तथा रवैया चाहे जैसा हो, हमें आदरपूर्ण व्यवहार और भले कार्यों को कठिन परिस्थितियों के बावजूद बनाए रखना है, जिससे जो वर्तमान में हमारी आलोचना तथा बुराई करते हैं, अन्ततः परमेश्वर की महिमा करने वाले हों।


हम परमेश्वर की आराधना और महिमा अपने मसीही विश्वास की ज्योति को छुपाने या दबाने की बजाए उसे संसार के सामने चमकने देने के द्वारा करते हैं; तथा परमेश्वर को महिमा देने वाले अपने मसीही विश्वास के कार्यों के प्रगटिकरण के द्वारा भी।

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 2: आराधना द्वारा परिवर्तन



आराधना द्वारा परिवर्तन

आराधना की सामर्थ के बारे में लिखकर जो कल प्रकाशित किया गया था, उसे स्पष्ट करने के लिए एक पुस्तक से लिया गया उध्दरण है। इसके साथ ही एक चुनौती भी है; पढ़िए और देखिए कि क्या आप उस चुनौती को लेने के लिए तैयार हैं? उध्दरण है:

मैंने जैसे परमेश्वर के साथ चलना आरंभ किया, मैं उसके साथ अपने संबंध में बढ़ने भी लगा; किंतु साथ ही मुझे अपनी लंबे समय से चली आ रही हताशा से भी लड़ना पड़ रहा था। एक समझदार मसीही महिला ने मुझ से आग्रह किया कि मैं अपने बिस्तर के पास ही एक दैनिक धन्यवादी पुस्तिकारखना आरंभ कर दूँ। उसने कहा कि प्रति-रात्रि सोने से पहले मैं उस पुस्तिका में उस दिन की तीन ऐसी बातें लिखूँ जिनके लिए मैं परमेश्वर का धन्यवादी हूँ। उसका कहना था कि सोने से पहले सकारात्मक बातों पर ध्यान लगाने से मैं बेहतर सोने पाऊँगा। उस महिला ने मुझे चुनौती दी कि मैं ऐसा 90 दिन तक करूँ क्योंकि उसका विश्वास था कि ऐसा करने से मैं जीवन के प्रति अधिक सकारात्मक रवैया विकसित कर सकूँगा।

मैंने उस महिला की यह चुनौती स्वीकार कर ली। आरंभिक दिनों में तो मैंने प्रत्यक्ष और सैद्धांतिक बातें ही लिखीं जैसे कि अपने परिवार तथा मित्र जनों के लिए धन्यवादी होना। फिर स्वतः ही मैं दैनिक जीवन की बातों पर और बारीकी से ध्यान देने लग गया, और मेरे सामने ऐसी अनेक बातें आने लगीं जिनके लिए मैं परमेश्वर का धन्यवादी हो सकता था: किसी के द्वारा करी गई मेरी प्रशंसा जिससे मुझे प्रोत्साहन मिला या फिर तेज़ तूफान जिसके द्वारा मैं परमेश्वर की अद्भुत सामर्थ को स्मरण करने पाया। लिखने के इस अभ्यास ने मुझे अधिक ध्यान देने वाला बना दिया। इसके द्वारा मैं उन छोटी छोटी बातों के प्रति जागरूक और संवेदनशील हो गया जिनके द्वारा परमेश्वर प्रतिदिन हमारे प्रति अपने प्रेम को प्रगट करता रहता है।

मैंने वह पुस्तिका केवल 3 महीने ही लिखी, लेकिन उसने मेरे दृष्टिकोण को सदा के लिए बदल डाला। मेरे प्रति परमेश्वर के प्रेम के चिन्हों को मैं कई रूपों में तथा अनेकों स्थानों पर ढूढ़ने और पाने लग गया। मैं उसका कृतज्ञ हो गया क्योंकि उसने मुझे मेरी उस पुरानी हताशा से भी चंगा कर दिया, और मैं अचंभा करने लगा कि कैसे उसने उसके प्रति मेरे, एक घायल जानवर के दुस्साहसिक और अवज्ञाकारी होने जैसे रवैये को बदल कर शांत स्वीकृति तथा उसकी प्रतीक्षा करने वाला बना दिया। या, अगर मैं इसे कुछ भिन्न शब्दों में कहूँ तो, मैं परमेश्वर के प्रेम की एक बूँद को पाने की घोर तड़पन से निकलकर उसके प्रेम के सागर में तैरते रहने वाला हो गया। अन्ततः मैं एक डूबते हुए व्यक्ति के समान हाथ-पैर मारते हुए परमेश्वर के प्रेम से लड़ने वाला होने की बजाए, उसमें पूर्ण विश्वास के साथ उसके प्रेम के सागर में तैरते रहने वाला हो गया।
- यह Our Daily Bread 2016 के सालाना संसकरण में दिए गए क्रिस्टी बाउर की पुस्तक “Best Friends With God” से लिए उध्दरण से लिया गया है।


अब आपके लिए चुनौती: क्या आप भी 3 महीने तक ऐसे ही अपनी व्यक्तिगत धन्यवादी पुस्तिका लिखकर उससे आप में आए परिवर्तन के बारे में बताएंगे?

बुधवार, 24 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 1: आराधना की आवश्यकता


 आराधना की आवश्यकता

भजन 107:8 "लोग यहोवा की करूणा के कारण, और उन आश्चर्यकर्मों के कारण, जो वह मनुष्यों के लिये करता है, उसका धन्यवाद करें!"

हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं; हम उससे अपने तथा औरों के लिए अनेक बातों को माँगते हैं; हो सकता है कि हम यह भी प्रार्थना करते हों कि परमेश्वर मुझे अपने लिए उपयोगी, या फिर और भी अधिक उपयोगी बना - लेकिन यह प्रार्थना कितने और/या कितनी ईमानदारी से माँगते हैं, यह हम सब के लिए गहन व्यक्तिगत आत्मपरीक्षण का विषय है।

लेकिन परमेश्वर से प्रार्थना करने से कहीं अधिक लाभकारी है उसकी आराधना करना; और आराधना का एक तरीका है परमेश्वर का धन्यवाद करना - सब बातों के लिए, जैसा पौलुस फिलिप्पियों 4:6-7 में कहता है: "किसी भी बात की चिन्‍ता मत करो: परन्तु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और बिनती के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्वर के सम्मुख अपस्थित किए जाएं। तब परमेश्वर की शान्‍ति, जो समझ से बिलकुल परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरिक्षत रखेगी।"

हर बात में परमेश्वर का धन्यवादी होना, विपरीत या समझ से बाहर या कठिन परिस्थितियों और अनुभवों के लिए भी, परमेश्वर में दृढ़ विश्वास का चिन्ह है; इस विश्वास का कि परमेश्वर हमारे, अर्थात अपने बच्चों के जीवनों में, केवल वही आने या होने देगा जो हमारे लिए अच्छा या हमारी भलाई के लिए है। इसलिए यदि हम उस पर और उसके द्वारा हमारे लिए निर्धारित मार्गों पर भरोसा रखते हैं, तो हम हर बात के लिए, वो चाहे कुछ भी क्यों ना हो, सदा उसका धन्यवाद करेंगे।

जो परमेश्वर का धन्यवाद और उसकी महिमा अर्थात आराधना नहीं करते वे शैतान का शिकार बन जाने के घोर खतरे में रहते हैं: रोमियों 1:21 "इस कारण कि परमेश्वर को जानने पर भी उन्होंने परमेश्वर के योग्य बड़ाई और धन्यवाद न किया, परन्तु व्यर्थ विचार करने लगे, यहां तक कि उन का निर्बुद्धि मन अन्धेरा हो गया।" रोमियों 1 का शेष भाग उन व्यर्थ विचारों और अन्धेरे मन के दुषपरिणामों का वर्णन करता है।

प्रीयों, परमेश्वर की आराधना करने और हर बात के लिए उसका धन्यवादी होने को अपने जीवन की नियमित आदत, अपने दैनिक आचरण तथा कार्य का अभिन्न भाग बना लें; जब भी कर सकते हैं - काम करते हुए, चलते हुए, बैठे हुए, यात्रा करते हुए, आदि, ऐसा करते रहें। अपने जीवनों में लगातार परमेश्वर का धन्यवाद और उसकी महिमा करते रहने का रवैया बना लें। ऐसा करने से परमेश्वर की शांति, परमेश्वर की आशीषें और परमेश्वर की सुरक्षा आपके जीवनों में आएगी; यह करना आपके लिए परमेश्वर की सन्तान होने के जीवन में बढ़ोतरी और तरक्की देने में बहुत सहायक होगा, केवल प्रार्थना करने से कहीं अधिक बढ़कर सहायक।

नया आरंभ


पिछले लगभग पौने दो वर्ष से इस ब्लॉग पर कोई लेख नहीं डाल पाया हूँ - क्षमाप्रार्थी हूँ।

बहुत समय से प्रार्थना कर रहा था कि परमेश्वर ऐसी सामर्थ और योग्यता दे कि इस कमी को दूर करके परमेश्वर की महिमा के लिए कुछ नियमित लेख इस ब्लॉग पर डालने पाऊँ। कई बार प्रयास भी किया, कुछ आधा-अधूरा सा लिखा भी, कुछ अन्य मित्रों से सहायता भी लेनी चाही कि उनके द्वारा कहे और लिखे गए लेखों को यहाँ प्रस्तुत कर सकूँ, परन्तु हर प्रयास असफल ही रहा।

आज परमेश्वर के अनुग्रह से यह संभव होने पाया है कि कुछ छोटे लेख यहाँ डाल सकूँ। मेरी प्रार्थना है कि परमेश्वर इस आशीष को बनाए रखे, बढ़ाए और इस ब्लॉग को अपनी महिमा के लिए इस्तेमाल करे। कृपया अपनी प्रार्थनाओं में स्मरण रखिए कि परमेश्वर का यह अनुग्रह बना रहे, और शैतान इस फिर से बाधित ना करने पाए.

आज से एक नई श्रंखला का आरंभ कर रहा हूँ।

इसके अन्तर्गत जो पहला शीर्षक परमेश्वर ने दिया है वह है "परमेश्वर की आराधना और महिमा"। इस शीर्षक पर कुछ लेख प्रस्तुत करने के पश्चात, फिर जो अगला शीर्षक परमेश्वर से मिलेगा, उसे लेकर चलूँगा।

आशा है यह प्रयास आपके आत्मिक जीवन के लिए भी वैसा ही लाभकारी रहेगा, जैसा मेरे लिए हो रहा है।

कृपया अपने विचार एवं प्रतिक्रियाएं अवश्य भेजें, तथा इन लेखों को अपने मित्रों के साथ भी बाँटें। क्योंकि प्रत्येक लेख छोटा ही है, इसलिए आप इसे अपने मोबाइल फोन पर व्हॉट्सएप्प तथा ऐसी ही अन्य एप्प्स के द्वारा भी बाँट सकते हैं।

परमेश्वर की आशीष आपके साथ हो।