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मंगलवार, 16 जुलाई 2019

प्रभु भोज और बपतिस्मा


प्रश्न: क्या प्रभु भोज में सम्मिलित होने के लिए बपतिस्मा लेना अनिवार्य है?

उत्तर:
        प्रभु भोज और उससे संबंधित बातें एक बहुत बड़ा विषय है, जिसकी संपूर्ण चर्चा यहाँ कर पाना संभव नहीं है। यह बहुत संक्षेप में, बाइबल के कुछ हवालों और उदाहरणों द्वारा इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयत्न है।

        ध्यान कीजिए कि प्रभु भोज की स्थापना, प्रभु यीशु ने फसह के पर्व को मनाते हुए की थी। फसह के पर्व का विवरण निर्गमन 12 अध्याय में मिलता है, और प्रभु यीशु का वह फसह का मेमना होने के विषय 1 कुरिन्थियों 5:7 बताया गया है। निर्गमन 12:3-4 में परमेश्वर का निर्देश था कि एक घराने/परिवार  के लिए एक मेमना बलिदान किया जाए, और यदि घराना छोटा हो तो वह अपने पड़ौसी के साथ मिलकर इसे कर ले। तात्पर्य यह, कि एक मेमने को खाने के लिए जो लोग एकत्रित होते थे, वे एक परिवार या घराना होते थे – अर्थात उन्हें साथ देखकर देखने वाला यह समझता था कि ये सभी एक ही परिवार/घराने के सदस्य हैं, और इसके लिए शारीरिक रीति से एक परिवार होना अनिवार्य नहीं था – दो भिन्न परिवार मिलकर एक होकर भी इस कार्य को कर सकते थे। प्रभु यीशु ने जब फसह खाने की तैयारी के लिए कहा, तो अपने ‘व्यक्तिगत या निज’ परिवार, जिनके साथ उनका खून का रिश्ता था, उनके साथ तैयारी करने को नहीं कहा और न ही उन्हें आमंन्त्रित किया, वरन प्रभु ने यह भोज उन शिष्यों के साथ खाया जो उसके साथ दिन-रात रहा करते थे। उन शिष्यों के परिवार जन भी इस भोज में आमंत्रित नहीं थे। प्रभु यीशु वह ‘बलिदान का एक मेमना’ बने और उस एक मेमने में से खाने वाले सभी उसके ‘परिवार’ अर्थात उसकी कलीसिया के सदस्य हैं; वे चाहे परस्पर सांसारिक रीति से संबंधित न भी हों, परन्तु प्रभु में लाए गए  विश्वास द्वारा अब एक परिवार हैं – परमेश्वर का परिवार (इफिसियों 2:17-19)।

        प्रभु भोज कोई औपचारिक रीति या परंपरा नहीं है जिसका निर्वाह अपने आप को “ईसाई” या “मसीही” कहने वाला कोई भी जन कर ले। प्रभु के उन बारह शिष्यों के अतिरिक्त प्रभु के अन्य शिष्य भी थे; लूका 10:1 में हम 70 अन्य शिष्यों का उल्लेख पाते हैं, और प्रेरितों 1:15 में 120 शिष्य साथ एकत्रित होकर प्रार्थना किया करते थे; किन्तु प्रभु ने उन सब को उस अंतिम प्रभु भोज के लिए नहीं बुलाया, और न ही शिष्यों को यह कहा कि “बाद में अन्य शिष्यों में भी बाँट देना”। फिर, प्रभु ने उस भोज को स्थापित करते समय केवल वहाँ उपस्थित शिष्यों से ही यह कहा: “...मुझे बड़ी लालसा थी, कि दुख-भोगने से पहिले यह फसह तुम्हारे साथ खाऊं” (लूका 22:14-15)। यह हमें दिखाता है कि प्रभु की दृष्टि में वे ही प्रभु भोज के योग्य हैं जो व्यावहारिक जीवन में प्रभु के साथ सदा बने रहते हैं, उसमें लाए गए विश्वास द्वारा प्रभु का परिवार/घराना हैं।

        एक और बहुत महत्वपूर्ण बात का ध्यान करना आवश्यक है – यहूदा इस्करियोती को प्रभु भोज नहीं दिया गया था; जब प्रभु ने रोटी और दाखरस को अपना बदन और लहू कहकर शिष्यों में बाँटा, उस समय तक यहूदा वहाँ से जा चुका था। यूहन्ना 13 में हम देखते हैं कि फसह मनाने के लिए एकत्रित होने पर प्रभु ने सबसे पहले शिष्यों के पाँव धोए, और फिर वे लोग भोजन करने के लिए बैठे, और तब प्रभु ने सबसे पहला टुकड़ा डुबोकर यहूदा को दिया, टुकड़ा लेते ही शैतान उसमें समा गया और वह उन्हें छोड़कर बाहर चला गया (13:26, 27, 30)। यह प्रभु भोज की स्थापना नहीं थी; वरन भोजन का आरंभ था। प्रभु ने प्रभु भोज की स्थापना, उस समय चल रहे भोजन के दौरान की, अर्थात जब वे लोग भोजन कर रहे थे: “...जब वे खा रहे थे, तो यीशु ने रोटी ली, और आशीष मांग कर तोड़ी, और चेलों को देकर कहा, लो, खाओ; यह मेरी देह है” (मत्ती 26:26), और यहूदा इससे पहले उन्हें छोड़कर जा चुका था।

        इन सभी तथ्यों की आधार पर हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि प्रभु भोज प्रभु ने केवल अपने अंतरंग शिष्यों के लिए, उन्हें अपने घराने/परिवार का स्वीकार करते हुए, स्थापित किया था; उनके लिए जो पूर्णतः उसे समर्पित थे, उसके साथ सदा बने रहते थे (चाहे वे सिद्ध नहीं भी थे)। आज हम प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास और उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करने के द्वारा प्रभु के परिवार के सदस्य बनते हैं (यूहन्ना 1:12-13; रोमियों 8:14-17), और प्रभु भोज में सम्मिलित होने में लौलीन रहना प्रभु के साथ निकट संबंध बनाए रखने की एक विधि है; अन्य विधियाँ हैं उसके वचन का अध्ययन करने, प्रार्थना करने तथा उसकी अन्य संतानों के साथ संगति रखने में लौलीन रहना (प्रेरितों 2:42)।

        अब ध्यान कीजिए, न तो जब प्रभु भोज पहली बार स्थापित किया गया, तब, किसी भी शिष्य के बपतिस्मा लिए हुए होने अथवा न लिए हुए होने की कोई बात न तो उठी और न ही प्रभु द्वारा कही गई। बाइबल के अनुसार यह भी स्पष्ट है कि बपतिस्मे के द्वारा न तो कोई प्रभु की सन्तान, और न ही उसके परिवार का सदस्य बनता है। जो प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास लाते हैं, वे बपतिस्मा लेते हैं (मत्ती 28:19; प्रेरितों 2:41), न कि बपतिस्मा लेने से वे विश्वास लाते हैं। बपतिस्मा लेना मसीही विश्वास में आने की सार्वजनिक गवाही है; बपतिस्मे से कोई ‘मसीही विश्वासी’ नहीं बनाता है, वरन जो मसीही विश्वासी बन जाते हैं, वे अपने विश्वास में आने की सार्वजनिक गवाही के रूप में प्रभु की आज्ञा के अनुसार, डूब का बपतिस्मा लेते हैं। इसलिए बपतिस्मा लेना प्रभु भोज में सम्मिलित होने की कोई शर्त या अनिवार्यता नहीं है।

        जब प्रेरित पौलुस में होकर पवित्र आत्मा ने 1 कुरिन्थियों 11 में प्रभु भोज से संबंधित गलत धारणाओं और व्यवहार के विषय शिक्षा दी, तो उन गलतियों और सुधारों में कहीं यह नहीं लिखवाया कि ‘लोग जाँच लें कि उन्होंने बपतिस्मा लिया है अथवा नहीं, और केवल वे ही भाग लें जिन्होंने बपतिस्मा ले लिया हो।’ ऐसा कोई निषेध बाइबल में कहीं नहीं आया है। न तो बपतिस्मे से उद्धार है और न ही परमेश्वर के परिवार की सदस्यता; वरन जिन्होंने पश्चाताप और विश्वास में आने के द्वारा प्रभु के अनुग्रह से उद्धार पाया है, वैध बपतिस्मा उन ही का है और वे अपने मसीही विश्वास में आने के द्वारा परमेश्वर के परिवार के सदस्य उसी क्षण हो गए जैसे ही उन्होंने प्रभु यीशु से अपने पापों से क्षमा माँगकर अपना जीवन प्रभु को समर्पित किया।

        इसलिए स्वेच्छा से सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप करने तथा अपना प्रभु यीशु मसीह को अपना निज उद्धारकर्ता ग्रहण करके अपना जीवन प्रभु को समर्पित करने वाला प्रत्येक उद्धार पाया हुआ व्यक्ति प्रभु भोज में सम्मिलित हो सकता है; बाइबल के अनुसार उसे प्रभु भोज में सम्मिलित होने के लिए बपतिस्मा लेने की कोई अनिवार्यता नहीं है; परन्तु प्रभु की आज्ञा का पालन करने के लिए उसे शीघ्रातिशीघ्र, अवसर मिलते ही, डूब का बपतिस्मा अवश्य लेना चाहिए, यह करने में कोई विलम्ब नहीं करना चाहिए। बपतिस्मा लेना और प्रभु भोज में भाग लेना, दोनों ही प्रभु यीशु की आज्ञाएँ हैं, जिनका पालन अवश्य होना चाहिए, और दोनों ही मसीही विश्वास में होने को दिखाती हैं। किन्तु बाइबल में बपतिस्मा लिया हुआ होना प्रभु भोज में सम्मिलित होने के लिए अनिवार्य होना कहीं नहीं बताया गया है।