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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना – 2 – विशेष प्रयास – माँगने से – लूका 11:13 (भाग 3)



क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है?

1. क्या पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है? (लूका 11:13)

(संबंधित चौथी बात एवं निष्कर्ष)

(4) उपरोक्त बातों के आधार पर वह बहुत ही महत्वपूर्ण चौथी बात जिसे हमें बड़े ध्यान से समझना है और फिर जिसका हमें सावधानी से पालन करना चाहिए, वह है कि मसीही विश्वासी होने का दावा करने वालों में अवश्य ही कुछ ऐसे भी होंगे जो प्रभु और उसके वचन की परख के अनुसार सच्चे मसीही विश्वासी नहीं हैं, इसलिए उनमें पवित्र आत्मा की उपस्थिति कदापि नहीं होगी। इन अंत के दिनों के लिए प्रभु ने पहले से ही सचेत कर दिया है कि ऐसे बहुतेरे ‘विश्वासी’ आएँगे जो “भक्ति का भेस तो धरेंगे, किन्तु उसकी शक्ति को नहीं मानेंगे” (2 तीमुथियुस 3:5)। ऐसे लोग प्रभु यीशु के प्रति चाहे कितनी भी भक्ति या विश्वास रखने का दावा करते रहें, कितने भी समय से मसीही मंडली का भाग रहे हों, मंडली में कितने भी सक्रिय रहे हों; उनके द्वारा कैसे भी और कितने भी अद्भुत काम और प्रचार क्यों न हुए हों (मत्ती 7:21-23), वे वास्तव में प्रभु के शिष्य, उस के सच्चे समर्पित और आज्ञाकारी जन हैं ही नहीं। ऐसे लोग चाहे कितना भी मांग लें, किन्तु उन्हें पवित्र आत्मा तब तक मिलेगा ही नहीं जब तक कि वे सच्चे पश्चाताप, पापों के अंगीकार और क्षमा प्राप्ति, जीवन समर्पण, और वचन की आज्ञाकारिता के साथ वास्तव में प्रभु के जन न हो जाएं। इसके विपरीत ऐसे लोग भी होंगे जिन्होंने आरंभ से ही सच्चे मन से पश्चाताप किया, वास्तव में प्रभु यीशु के आज्ञाकारी हो गए, और प्रभु को सच में अपना जीवन समर्पण कर दिया; और इसलिए प्रभु का पवित्र आत्मा उनके मसीही विश्वास में आते ही तुरंत ही उनके अन्दर निवास तथा कार्य करने लग गया।

अब, वचन की संबंधित शिक्षाओं और वास्तविकता पर ध्यान किए बिना, मात्र बाहरी स्वरूप और दिखावे के लिए उनके द्वारा किए जाने वाले कार्यों के आधार पर, इस तथ्य की यह व्याख्या करना कि किसी को पवित्र आत्मा शीघ्र दे दिया जाता है, और किसी को विलम्ब से; इसलिए जिसे नहीं दिया गया है वह इसके लिए प्रार्थना, उपवास, या अन्य प्रयास करे और प्रभु से माँगे, प्रभु के सामने गिड़गिड़ाए, उन से प्रभु के नाम में झूठ बोल कर बात का बिलकुल गलत अर्थ प्रस्तुत करना है; लोगों को पवित्र आत्मा पाने के विषय बिलकुल गलत शिक्षा, जो कि परमेश्वर के वचन से बिलकुल मेल नहीं खाती है, देना और भरमाना है; उन्हें सच्चाई को पहचानने और उस का सामना करने में सहायता कर के बच जाने के स्थान पर, उन्हें नरक में धकेलना है। और ऐसा करने वाले सभी प्रचारकों, शिक्षकों, पादरियों, और कलीसिया के अगुवों से परमेश्वर हिसाब लेगा, वे बचेंगे नहीं (यहेजकेल 33:1-9)।

इसके विपरीत, बाइबल के तथ्यों के आधार पर, सभी प्रचारकों, शिक्षकों, पादरियों, और कलीसिया के अगुवों को सभी लोगों को यह समझाना और बताना चाहिए कि क्योंकि पवित्र आत्मा सभी मसीही विश्वासियों में उन के वास्तव में विश्वास में आते ही, बिना कोई अन्य प्रयास किए, स्वतः ही आ जाता है, और सदा उन के साथ बना रहता है, कभी छोड़ कर नहीं जाता है, इसलिए यदि उन्हें लगता है कि उनके अन्दर पवित्र आत्मा नहीं है, तो इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं – या तो उन्होंने उसे पाया ही नहीं है; अर्थात उनका मसीही विश्वास में होने का दावा सही नहीं है, और उन्हें इसके लिए उपयुक्त पश्चाताप और समर्पण करना चाहिए। या फिर वे पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता और समर्पण में नहीं जी रहे हैं, जिस कारण से वह उनके जीवन में कार्यकारी नहीं हो रहा है। इसलिए या तो वे अपने उद्धार पाने को सुनिश्चित कर लें, या फिर यदि उनका उद्धार सच्चा है तो अपनी इच्छा के अनुसार करना छोड़ कर, परमेश्वर के वचन और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के अनुसार करना आरम्भ कर दें (गलातियों 5:25), जिससे वह उनके जीवन में कार्यकारी तथा प्रभावी हो सके। आवश्यकता पवित्र आत्मा को मांगने की नहीं है, आवश्यकता है सच में उद्धार पाने और फिर उसके प्रति समर्पित और आज्ञाकारी रहने की है।

 इसलिए लूका 11:13 को आधार बनाकर यह कहना कि पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है, इसलिए हमें प्रभु से प्रार्थना का के पवित्र आत्मा मांगना चाहिए, प्रभु के कथन की गलत व्याख्या और समझ है। इस पद के आधार पर यह गलत शिक्षा देना अनुचित है। इस पद को उसके सही सन्दर्भ तथा सम्बंधित पदों के साथ देखने से ही उसकी बात की वास्तविकता समझी जा सकती है।

- क्रमशः

अगला विषय: विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों की सहायता – भाग 1

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना – 2 – विशेष प्रयास – माँगने से – लूका 11:13 (भाग 2)



क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है?

1. क्या पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है? (लूका 11:13)

(संबंधित तीसरी बात)


(3) तीसरी बात, इस देने और लेने को एक अन्य उदाहरण से भी समझिए; जब एक रोगी किसी डॉक्टर के पास जाकर उस से अपने रोग से चंगाई मांगता है, तो क्या चंगाई कोई डॉक्टर की मेज़ पर रखी वस्तु या उसकी जेब में रखी कोई टॉफी है जिसे डॉक्टर रोगी को पकड़ा देता है, और कहता “ले, दे दी तुझे चंगाई?” उसके पास सहायता प्राप्त करने के लिए आए उस रोगी को डॉक्टर अवश्य ही चंगाई देना चाहता है, देने के लिए तैयार भी है, किन्तु रोगी द्वारा उस चंगाई को प्राप्त करने की एक विधि, एक प्रक्रिया है, जिसके पालन के किए बिना, उस डॉक्टर के द्वारा वह चंगाई दे देना और रोगी के द्वारा उस चंगाई को प्राप्त कर लेना संभव नहीं है – इस प्रक्रिया में डॉक्टर रोगी की कुछ जांच करवाता है, उसके लिए उपयुक्त दवा लिखता है, कुछ परहेज़ बताता है, रोगी को इलाज के लिए उन दवाओं और परहेजों को एक निर्धारित समय तक तथा दिए गए निर्देशानुसार नियमित लेना होता है – अर्थात उस प्रक्रिया का सही पालन करना होता है, तब ही उसे चंगाई प्राप्त होती है। इसी प्रकार से, प्रभु भी अपने शिष्यों को उनकी सहायता के लिए पवित्र आत्मा देना चाहता है और देता है, क्योंकि मनुष्यों के लिए यही प्रभु यीशु की ओर से ठहराई गई पवित्र आत्मा की सेवकाई है (यूहन्ना 14:16-17, 26; 16:7-15)। अब फिर ध्यान कीजिए, जैसे लूका 11 में, वैसे ही यहाँ यूहन्ना 14 और 16 में भी यह बात चेलों के लिए ही कही गयी है।

अर्थात पवित्र आत्मा प्राप्त करना उनके लिए ही संभव है जो वास्तव में प्रभु के चेले हैं; किसी परिवार विशेष में जन्म लेने अथवा मनुष्यों द्वारा परमेश्वर के नाम में बनाए गए कुछ रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों को पूरा करने के द्वारा नहीं, वरन वे जो अपने पापों के लिए हृदय से किए गए सच्चे पश्चाताप और प्रभु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, प्रभु को जीवन पूर्णतः समर्पण कर के, उस के वचन की आज्ञाकारिता के अनुसार प्रभु के लिए जीवन जीने के संकल्प कर लेने के द्वारा प्रभु का अनुसरण करने और उस के चेले बन जाने का निर्णय लिया है।

यह भी सच है कि हर एक जो शिष्य होने का दावा करता है वह वास्तव में शिष्य नहीं होता है। कई तो प्रभु के साथ केवल अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के लिए जुड़ते हैं (यूहन्ना 6:26-27); बहुतों ने तो मसीही सेवकाई को शारीरिक कमाई का माध्यम बना लिया है, वे प्रभु के नाम को सांसारिक संपत्ति जमा करने के लिए प्रयोग करते हैं (रोमियों 16:18; 1 तीमुथियुस 6:5; 2 तीमुथियुस 3:4; तीतुस 1:11; 2 पतरस 2:3, 13; यहूदा 1:12, 16)। बहुतेरे प्रभु के साथ जुड़ते तो हैं किन्तु प्रभु पर सच्चा विश्वास नहीं करते हैं (यूहन्ना 6:36, 64; 8:30-31); और कई प्रभु की सभी शिक्षाओं को स्वीकार करने और उन सभी का पालन करने के लिए तैयार नहीं होते हैं (यूहन्ना 6:66)। कई लोग मंडलियों में प्रभु के जन बनकर तो रहते हैं पर वास्तव में होते शैतान के जन हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15), और मंडलियों में फूट, झगड़ों और परेशानियों का कारण होते हैं (प्रेरितों 20:29-31; 1 यूहन्ना 2:18-19; 2 तीमुथियुस 3:5, 8; 4:14; 3 यूहन्ना 1:9-11)। प्रभु ने स्पष्ट बताया है कि वास्तव में उनका चेला कौन है (यूहन्ना 8:31-32; 14:21, 23), और इन आयतों से यह स्पष्ट है कि सच्चा शिष्य या विश्वासी वही है जो प्रभु के वचन की आज्ञाकारिता में, प्रभु की इच्छा के अनुसार, और प्रभु को समर्पित जीवन व्यतीत करता है; न कि वह जो प्रभु के नाम में अपनी इच्छा के अनुसार चलता और करता रहता है।

प्रभु तो प्रत्येक मनुष्य के हाल को जानता है, उसे पता है कि कौन उसका है और कौन नहीं (यूहन्ना 2:25; 2 तीमुथियुस 2:19)। अब स्वाभाविक प्रश्न है कि क्या प्रभु परमेश्वर ऐसे सभी पवित्र आत्मा मांगने वालों को, जो प्रभु के लोग होने का स्वांग तो भरते हैं किन्तु वास्तव में हैं नहीं, पवित्र आत्मा यूं ही दे देगा? जिनके जीवनों में प्रभु के वचन और आज्ञाकारिता का स्थान नहीं है वे प्रभु के पवित्र आत्मा को कैसे प्राप्त करने पाएंगे? क्या इन्हें भी पवित्र आत्मा पाने के लिए वास्तव में उद्धार या नया जन्म पाए हुए प्रभु के प्रति सच्चे, आज्ञाकारी, और समर्पित शिष्य नहीं होना होगा? और ऐसा होने की प्रक्रिया तो एक ही है, वही जो इस लेख के आरंभ में उद्धार या नया जन्म पाने के लिए दी गई है। तात्पर्य यह कि, प्रभु अवश्य ही अपने विश्वासियों को पवित्र आत्मा देता है, किन्तु केवल उन्हें जिन्होंने वास्तव में उद्धार पाया है, जिनका सच में नया जन्म हो गया है, जो वास्तव में प्रभु की दृष्टि में उसके चेले हो गए हैं; अन्यथा नहीं।

- क्रमशः
अगला विष्य: संबंधित चौथी बात

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना – 2 – विशेष प्रयास – माँगने से – लूका 11:13 (भाग 1)



क्या पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष करना पड़ता है?

1. क्या पवित्र आत्मा प्रभु से मांगने से मिलता है? (लूका 11:13)

(संबंधित पहली दो बातें)


बाइबल में कहीं भी ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया गया है कि पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए किसी भी मसीही विश्वासी को कोई विशेष प्रयास, प्रतीक्षा, प्रार्थना, योग्यता, या अवसर की आवश्यकता नहीं होती है। अकसर लूका 11:13 को आधार बना कर यह दावा किया जाता है कि स्वयं प्रभु यीशु ने कहा है कि पवित्र आत्मा माँगने से मिलता है। किन्तु ऐसा कहना बाइबल की इस बात की व्याख्या करने में भी वही दो गलतियाँ करना है, जो सामान्यतः बाइबल की लगभग सभी बातों की अनुचित व्याख्या एवं अनुचित प्रयोग करने के साथ की जाती है – पहली गलती, बात को उसके सन्दर्भ से बाहर ले कर, केवल कुछ ही शब्दों के अनुसार उसकी व्याख्या करना; तथा दूसरी गलती, उस बात या विचार से संबंधित बाइबल की अन्य शिक्षाओं एवं पदों का ध्यान न रखते हुए, बिना उन शिक्षाओं का उस व्याख्या में समावेश किए, एक विशेष धारणा को समर्थन देने के लिए केवल कुछ चुने हुए शब्दों, वाक्यांशों, और पदों का प्रयोग करना।

आईए प्रभु से मांगने के द्वारा पवित्र आत्मा मिलने की लूका 11:13 की बात को उसके सन्दर्भ में और अन्य संबंधित शिक्षाओं के साथ रख कर देखते हैं, और तब उनके अनुसार निष्कर्ष लेते हैं:

(1) लूका 11:13 को उसके सन्दर्भ, अर्थात लूका 11:1-13, के साथ देखने पर जो पहली बात हमारे सामने आती है, वह है, कि इस खण्ड में प्रभु यीशु मसीह द्वारा कही गई यह बात, उनके चेलों (लूका 11:1) के साथ हो रहे प्रभु के संवाद का भाग है – अभिप्राय यह है कि प्रभु यीशु ने पवित्र आत्मा मिलने की बात हर किसी के लिए नहीं कही, और न ही हर उस व्यक्ति के लिए कही है जो कोई भी प्रभु का जन होने, उस पर विश्वास करने का दावा करे; वरन प्रभु ने यह केवल उन के लिए ही कही है जो वास्तव में प्रभु के चेले हैं। इस बात को और इसके अर्थ एवं तात्पर्यों को समझना बहुत आवश्यक है। यदि इसे यूहन्ना 7:37-39 के साथ मिलाकर देखें तो यह और स्पष्ट हो जाता है कि पवित्र आत्मा केवल प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने वालों, अर्थात प्रभु यीशु के शिष्यों को ही दिया जाना था, और वह भी भविष्य में; न कि उसी समय जब प्रभु ने यह बातें कहीं थी। आगे चलकर, क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़वाए जाने से पहले प्रभु ने सहायक के रूप में एक बार फिर केवल शिष्यों को ही, आने वाले समय में, पवित्र आत्मा दिए जाने की प्रतिज्ञा दी थी (यूहन्ना अध्याय 14, 16)। और अंततः जब प्रेरितों दो अध्याय में पवित्र आत्मा दिया गया तो वह केवल प्रभु के विश्वासियों या शिष्यों को ही दिया गया (प्रेरितों 2:1-4), जब कि वहां उस समय अनेकों “भक्त यहूदी” (प्रेरितों 2:5) विद्यमान थे। (इसकी और पुष्टि, कि यह केवल चेलों ही के लिए है, आगे के भागों भी दी गई है)।

(2) दूसरी बात जो हम देखते हैं, वह है कि प्रभु यहाँ शिष्यों को उदाहरण के द्वारा यह समझा रहे हैं कि यदि सांसारिक पिता अपनी संतान के लिए उत्तम दे सकता है, तो परमेश्वर पिता सर्वोत्तम, यहाँ तक कि पवित्र आत्मा भी क्यों नहीं दे देगा? प्रभु अपने शिष्यों को यहाँ लूका 11:5-13 पद में समझा रहा है कि वे अपनी आवश्यकताओं के लिए चिंतित न हों, वरन सदा अपना भरोसा परमेश्वर पर रखें कि समय और परिस्थिति के अनुसार, परमेश्वर पिता उनकी आवश्यकताओं को पूरा करता रहेगा। इस बात को पद 10-13 में वह और विशिष्ट रीति से समझाता है कि जैसे सांसारिक पिता अपनी संतान को यथासंभव अच्छा ही देते हैं, वैसे ही परमेश्वर पिता भी अपनी संतान को उनके लिए सदा सर्वोत्तम ही देगा। परमेश्वर द्वारा अपने लोगों को भली वस्तुएं देने की कोई सीमा नहीं है, यहाँ तक कि जो उसे मांगने का साहस रखने वाले होंगे वह उन्हें वह पवित्र आत्मा को भी, अर्थात परमेश्वर स्वयं अपने आप को, भी दे देगा।

ध्यान कीजिए, यहाँ पर इस पूरे वार्तालाप में ऐसा कहीं कोई संकेत नहीं है कि प्रभु चेलों को कोई निर्देश या आज्ञा दे रहे हैं कि “भविष्य में मेरे जो शिष्य परमेश्वर से उसे माँगेंगे केवल उन्हें ही पवित्र आत्मा प्राप्त होगा; या जो माँगेगा उसे ही पवित्र आत्मा दिया जाएगा।” अपने स्वर्गारोहण से पहले जब प्रभु ने इन्हीं चेलों से सेवकाई पर निकलने से पहले पवित्र आत्मा मिलने की प्रतीक्षा करने के लिए कहा, तब भी न तो किसी चेले ने प्रभु की इस पहले कही गई बात को लेकर कोई असमंजस व्यक्त किया या प्रश्न उठाया, और न ही किसी ने प्रभु की लूका 11:13 की बात के आधार पर प्रभु से तुरंत ही पवित्र आत्मा मांग लिया, जिससे कि वे सेवकाई पर निकल सकें। इससे प्रगट है कि प्रभु की इस बात यह अभिप्राय था ही नहीं, जो आज के कुछ प्रचारक इसे दे रहे हैं, कि पवित्र आत्मा माँगने से मिलता है। इसलिए इस बात को यह स्वरूप देना और सिखाना कि “प्रभु ने कहा है कि मांगने से ही पवित्र आत्मा मिलेगा” प्रभु के वचन का दुरुपयोग और अनुचित व्याख्या तथा शिक्षा देना है, भक्ति और आदर के भेस में वचन को झूठा ठहराना है।

यह पद एक तुलनात्मक उदाहरण के द्वारा किया गया चित्रण है कि सांसारिक पिता उत्तम देते हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि स्वर्गीय परमेश्वर पिता सर्वोत्तम देगा; यहाँ तक कि पवित्र आत्मा भी देने को तैयार है – उसके प्रेम और दान देने की कोई सीमा नहीं है, वह मानव जाति के लिए स्वयं को भी उपलब्ध करने को तैयार है, यदि कोई लेने को तैयार हो।

- क्रमशः
अगला विष्य:  संबंधित तीसरी बात

मंगलवार, 9 जुलाई 2019

बाईबल में कहाँ लिखा है कि चर्च जाना चाहिए?



प्रश्न: कुछ लोग चर्च ना जाकर कहते हैं ज़रूरी नहीं चर्च जाए हम घर में YouTube से वचन सुन लेते हैं और प्रार्थना कर लेते हैं। क्या यह सही है?

उत्तर:
        इस प्रश्न का उत्तर समझने के लिए यह समझना अत्यावश्यक है कि बाइबल के अनुसार “चर्च” क्या है। मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद चर्च हुआ है वह है एक्क्लेसीया, जिसे हिन्दी में कलीसिया भी कहा जाता है। बाइबल के अनुसार चर्च या कलीसिया कोई भवन अथवा ईंट-पत्थर का बना भौतिक स्थान नहीं है, वरन परमेश्वर के परिवार के लोगों का समूह है (1 तिमुथियुस 3:15), परमेश्वर के निवास के लिए उसका घर है (इफिसियों 2:22)। बाइबल के अनुसार कलीसिया की परिभाषा है: “परमेश्वर की उस कलीसिया के नाम जो कुरिन्थुस में है, अर्थात उन के नाम जो मसीह यीशु में पवित्र किए गए, और पवित्र होने के लिये बुलाए गए हैं; और उन सब के नाम भी जो हर जगह हमारे और अपने प्रभु यीशु मसीह के नाम की प्रार्थना करते हैं” (1 कुरिन्थियों 1:2)।

        प्रारंभिक कलीसिया की स्थापना के समय में मसीही विश्वासी एक साथ नियमित रीति से एकत्रित हुआ करते थे, और उनके एकत्रित होने के उद्देश्य थे: “और वे प्रेरितों से शिक्षा पाने, और संगति रखने में और रोटी तोड़ने में और प्रार्थना करने में लौलीन रहे” (प्रेरितों 2:42)। तब वे ऐसा मंदिर में या घर-घर प्रतिदिन किया करते थे, और उद्धार पाए हुओं को प्रभु स्वयँ अपनी कलीसिया में मिला देता था “और वे प्रति दिन एक मन हो कर मन्दिर में इकट्ठे होते थे, और घर घर रोटी तोड़ते हुए आनन्द और मन की सीधाई से भोजन किया करते थे। और परमेश्वर की स्‍तुति करते थे, और सब लोग उन से प्रसन्न थे: और जो उद्धार पाते थे, उन को प्रभु प्रति दिन उन में मिला देता था” (प्रेरितों 2:46-47)। अर्थात कलीसिया के लोगों का एक साथ एकत्रित होना एक दैनिक क्रिया थी, जिसका उद्देश्य वचन की शिक्षा पाना, परस्पर संगति रखना, साथ मिलकर प्रार्थना करना, प्रभु भोज में सम्मिलित होना, और प्रभु की स्तुति और आराधना करना होता था – वे लोग इन बातों में “लौलीन रहते थे” अर्थात उनके द्वारा ऐसे एकत्रित होना और यह सब करना बड़ी गंभीरता से लिया और किया जाता था, इसका उनके जीवनों में बहुत महत्व था।

        जहाँ-जहाँ प्रभु यीशु मसीह में विश्वास द्वारा पापों की क्षमा और उद्धार का सुसमाचार गया, और लोगों ने इस सुसमाचार को स्वीकार किया, प्रभु के वचन और जीवन को अपने जीवन में अपनाया, वहाँ यही बात भी अपनाई गई, और लोगों के घरों में कलीसियाएं एकत्रित होने लगीं (रोमियों 16:5; 1 कुरिन्थियों 16:19; कुलुस्सियों 4:15; फिल्मोन 1:2)। अर्थात, मसीही विश्वासी के लिए इस प्रकार संगति में एकत्रित होना प्रभु की ओर से निर्धारित और आवश्यक है, प्रभु की इच्छा के अनुसार है। इब्रानियों की पत्री में हम प्रभु की ओर से निर्देश पाते हैं कि प्रभु के आने का समय जैसे-जैसे निकट आता जाए, मसीही विश्वासियों का एकत्रित होना कम न हो वरन और भी अधिक बढ़ता जाए: “और एक दूसरे के साथ इकट्ठा होना ने छोड़ें, जैसे कि कितनों की रीति है, पर एक दूसरे को समझाते रहें; और ज्यों ज्यों उस दिन को निकट आते देखो, त्यों त्यों और भी अधिक यह किया करो” (इब्रानियों 10:25)।

        इसलिए चर्च जाना कोई रस्म या परंपरा या औपचारिकता नहीं है जिसका निर्वाह ऐसे नहीं तो वैसे कर के समझ लें कि हो गया। वरन यह प्रभु के निवासस्थान में, प्रभु की उपस्थिति में आना है जिससे कि उसकी निकटता में बढ़ने, उसके वचन को सीखने, उसके परिवार का सदस्य होने के नाते उस आत्मिक परिवार के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह किया जा सके; यह इस आत्मिक परिवार के अन्य सदस्यों की सुधि रखने तथा उनके साथ मिलकर रहने-बढ़ने का माध्यम है, तथा मसीही विश्वासी की आत्मिक उन्नति और बढ़ोतरी के लिए आवश्यक और अनिवार्य है।

        चर्च समझे जाने वाले ईंट-पत्थर के भवन में किसी भी व्यक्ति के आने और अपने उपस्थिति दर्ज करवाने की औपचारिकता निभाने से परमेश्वर को कोई सरोकार नहीं है, क्योंकि वह औपचारिकता के कर्मों तथा परंपराओं के निर्वाह से नहीं वरन अपनी आज्ञाकारिता से प्रसन्न होता है (1 शमूएल 15:22-23; अय्यूब 35:7; यशायाह 1:11-20; मलाकी 1:10), और जैसा ऊपर इब्रानियों 10:25 द्वारा दिखाया गया है, मसीही विश्वासियों का परस्पर अधिकाधिक संगति रखना प्रभु की आज्ञा है। घर में यू ट्यूब पर वचन सुन लेना और प्रार्थना कर लेना औपचारिकता का निर्वाह करना तो हो सकता है, किन्तु परस्पर संगति रखने की आज्ञा का निर्वाह कदापि नहीं हो सकता है। साथ ही जैसा प्रेरितों 2:42 में कहा गया है, मसीही विश्वासियों के लिए साथ मिलकर “रोटी तोड़ना” अर्थात पाक-अशा या प्रभु भोज में सम्मिलित होना भी घर बैठकर इंटरनेट या यू ट्यूब के माध्यम से संभव नहीं है।

        इसलिए चर्च जाना कोई रस्म या परंपरा या औपचारिकता नहीं है, वरन प्रभु की निकटता में बढ़ने, उसके वचन को सीखने, उसके परिवार का सदस्य होने के नाते उस परिवार के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करने, और अपने इस आत्मिक परिवार के अन्य सदस्यों की सुधि रखने तथा उनके साथ मिलकर रहने-बढ़ने का माध्यम है, मसीही विश्वासी की आत्मिक उन्नति और बढ़ोतरी के लिए आवश्यक और अनिवार्य है। इसलिए चर्च या प्रभु के घर में आना प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए और उसे उन अवसरों के लिए लालायित रहना चाहिए जब वह प्रभु के घर में जाकर प्रभु और उसकी अन्य संतानों के साथ संगति कर सके (भजन 84:1-2, 10; 122:1)। किन्तु जो केवल ‘ईसाई धर्म’ के निर्वाह की सोचते हैं, वे प्रभु की आज्ञाओं के प्रति गंभीर और संवेदनशील नहीं होते हैं, वे तो बस ‘धर्म’ की परंपराओं और औपचारिकताओं का निर्वाह मात्र करने में रुचि रखते हैं, और उसके लिए अपनी धारणाएँ बना लेते हैं और उन्हीं में फंसे रहते हैं – जो कि गलत है, बाइबल के अनुसार स्वीकार्य नहीं है।

रविवार, 28 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 4: आराधना की अनिवार्यता


आराधना की अनिवार्यता

सामरी स्त्री के साथ हुए अपने वार्तालाप में प्रभु यीशु ने एक अति-महत्वपूर्ण बात कही - बात जिसका अकसर हवाला दिया जाता है, उध्दरण किया जाता है, परन्तु जैसे उसे लिया जाना चाहिए और समझा जाना चाहिए वैसा अकसर किया नहीं जाता है। वह बात है: "परन्तु वह समय आता है, वरन अब भी है जिस में सच्चे भक्त पिता का भजन [आराधना] आत्मा और सच्चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिये ऐसे ही भजन [आराधना] करने वालों को ढूंढ़ता है" (यूहन्ना 4:23)

यद्यपि अकसर इस पद के द्वारा यह दिखाने और सिखाने का प्रयास किया जाता है कि परमेश्वर प्रार्थना करने वालों का खोजी है, वास्तविकता ऐसी नहीं है; वास्तविकता में प्रभु यीशु ने जो कहा वह है कि परमेश्वर अपने आराधकों को ढूँढ़ता है, ना कि यह कि परमेश्वर प्रार्थना करने वालों को ढूँढ़ता है।

मूल युनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद भजन [आराधना] किया गया है वह है प्रोसकूनियो जिसका अर्थ होता है आदर देने के लिए मुँह के बल हो जाना या साष्टांग प्रणाम करना, नम्र होकर आराधना करना। इसी प्रकार जिस यूनानी शब्द का अनुवाद भजन [आराधना] करने वाला हुआ है वह है प्रोस्कुनीटीस अर्थात आराधना करने वाला। लेकिन जिस यूनानी शब्द का अनुवाद प्रार्थना, या प्रार्थना करना, या प्रार्थना करने वाला किया गया है वह है प्रोसिव्कुमाई जिसका अर्थ है परमेश्वर से प्रार्थना करना या गिड़गिड़ाना।

परमेश्वर से प्रार्थना करने वाले लोगों की कोई कमी नहीं है; गैर-मसीही और अविश्वासी या फिर वे लोग जो परमेश्वर से केवल कुछ पाना भर चाहते हैं या अपने आप को किसी विकट परिस्थिति से निकलवाना चाहते हैं, वे भी अपनी आवश्यकतानुसार परमेश्वर से प्रार्थना कर लेते हैं, और परमेश्वर सब की बात को सुनता है। लेकिन परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं खोज रहा है जो केवल प्रार्थना भर करते हैं, अर्थात उससे केवल माँगते ही रहते हैं; वह अराधकों को खोज रहा है; अर्थात उन्हें जो दीन और नम्र होकर अपने आप को उसे समर्पित कर दें, उसके प्रति आदर और आराधना का रवैया बनाए रखें तथा उसकी महिमा करें।

इस पद के द्वारा हम यह भी देखते हैं कि सच्ची आराधना "आत्मा और सच्चाई" से होती है, अर्थात वह ना तो ऊपरी या बाहरी होती है, ना ही बनावटी या दिखावे के लिए होती है, वरन सच्ची आराधना हृदय की गहराईयों से प्रवाहित तथा परमेश्वर पिता की ओर निर्देशित होती है - प्रभु यीशु द्वारा कही गई प्रथम और सबसे महान आज्ञा: "उसने उस से कहा, तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है" (मत्ती 22:37-38) के व्यावाहरिक प्रगटिकरण के रूप में।


हमारे प्रेमी और ध्यान रखने वाले परमेश्वर पिता के पास उससे प्रार्थना करने वाले, अपनी आवश्यकताओं को माँगने वाले तो बहुत हैं, लेकिन उसका हृदय अपने आराधकों तथा उनके द्वारा आत्मा और सच्चाई से करी गई उसकी आराधना के लिए लालायित रहता है - और इसका बहुत महत्वपुर्ण कारण भी है जिसे हम आगे देखेंगे। परमेश्वर की सन्तान होने के नाते हमारे लिए यह अनिवार्य है कि हमारे लिए हमारे स्वर्गीय पिता द्वारा रखी गई आशाओं के अनुरूप हम बढ़ें और उससे केवल प्रार्थना ही करते रहने वाले नहीं वरन उसकी आराधना करने वाले बनें।

बुधवार, 24 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 1: आराधना की आवश्यकता


 आराधना की आवश्यकता

भजन 107:8 "लोग यहोवा की करूणा के कारण, और उन आश्चर्यकर्मों के कारण, जो वह मनुष्यों के लिये करता है, उसका धन्यवाद करें!"

हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं; हम उससे अपने तथा औरों के लिए अनेक बातों को माँगते हैं; हो सकता है कि हम यह भी प्रार्थना करते हों कि परमेश्वर मुझे अपने लिए उपयोगी, या फिर और भी अधिक उपयोगी बना - लेकिन यह प्रार्थना कितने और/या कितनी ईमानदारी से माँगते हैं, यह हम सब के लिए गहन व्यक्तिगत आत्मपरीक्षण का विषय है।

लेकिन परमेश्वर से प्रार्थना करने से कहीं अधिक लाभकारी है उसकी आराधना करना; और आराधना का एक तरीका है परमेश्वर का धन्यवाद करना - सब बातों के लिए, जैसा पौलुस फिलिप्पियों 4:6-7 में कहता है: "किसी भी बात की चिन्‍ता मत करो: परन्तु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और बिनती के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्वर के सम्मुख अपस्थित किए जाएं। तब परमेश्वर की शान्‍ति, जो समझ से बिलकुल परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरिक्षत रखेगी।"

हर बात में परमेश्वर का धन्यवादी होना, विपरीत या समझ से बाहर या कठिन परिस्थितियों और अनुभवों के लिए भी, परमेश्वर में दृढ़ विश्वास का चिन्ह है; इस विश्वास का कि परमेश्वर हमारे, अर्थात अपने बच्चों के जीवनों में, केवल वही आने या होने देगा जो हमारे लिए अच्छा या हमारी भलाई के लिए है। इसलिए यदि हम उस पर और उसके द्वारा हमारे लिए निर्धारित मार्गों पर भरोसा रखते हैं, तो हम हर बात के लिए, वो चाहे कुछ भी क्यों ना हो, सदा उसका धन्यवाद करेंगे।

जो परमेश्वर का धन्यवाद और उसकी महिमा अर्थात आराधना नहीं करते वे शैतान का शिकार बन जाने के घोर खतरे में रहते हैं: रोमियों 1:21 "इस कारण कि परमेश्वर को जानने पर भी उन्होंने परमेश्वर के योग्य बड़ाई और धन्यवाद न किया, परन्तु व्यर्थ विचार करने लगे, यहां तक कि उन का निर्बुद्धि मन अन्धेरा हो गया।" रोमियों 1 का शेष भाग उन व्यर्थ विचारों और अन्धेरे मन के दुषपरिणामों का वर्णन करता है।

प्रीयों, परमेश्वर की आराधना करने और हर बात के लिए उसका धन्यवादी होने को अपने जीवन की नियमित आदत, अपने दैनिक आचरण तथा कार्य का अभिन्न भाग बना लें; जब भी कर सकते हैं - काम करते हुए, चलते हुए, बैठे हुए, यात्रा करते हुए, आदि, ऐसा करते रहें। अपने जीवनों में लगातार परमेश्वर का धन्यवाद और उसकी महिमा करते रहने का रवैया बना लें। ऐसा करने से परमेश्वर की शांति, परमेश्वर की आशीषें और परमेश्वर की सुरक्षा आपके जीवनों में आएगी; यह करना आपके लिए परमेश्वर की सन्तान होने के जीवन में बढ़ोतरी और तरक्की देने में बहुत सहायक होगा, केवल प्रार्थना करने से कहीं अधिक बढ़कर सहायक।