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सोमवार, 29 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 5: आराधना से आशीष


आराधना से आशीष

मैंने जैसे जैसे परमेश्वर और उसके वचन के बारे में सीखा तथा जाना, मुझे यह एहसास भी होता तथा बढ़ता गया है कि परमेश्वर का संपूर्ण वचन अद्भुत रीति और बहुत बारीकी से परस्पर जुड़ी हुई इकाई है, इस वचन का प्रत्येक भाग अन्य भागों से संबंधित उनका सहायक एवं पूरक है। हम जैसे जैसे परमेश्वर के वचन की गहराइयों में उतरते जाते हैं, अद्भुत बारीकी का यह परस्पर संबंध हमारे लिए इस बात को और भी सुदृढ़ करता जाता है कि वास्तव में यह परमेश्वर ही का वचन है, और इस एहसास से हमारे मन उसके प्रति और भी आराधना तथा आदर से भरते जाते हैं।

इससे पिछले खण्ड, "आराधना की अनिवार्यता" का अन्त इस पूर्वाभास के साथ हुआ था कि परमेश्वर आराधना क्यों चाहता है। कुछ यह मानते हैं कि परमेश्वर आत्माभिमानी है और चाहता है कि लोग उसकी तूती उसके लिए बजाते रहें; परन्तु ऐसा नहीं है। प्रत्येक नया जन्म पाए विश्वासी, अर्थात अपने पापों के पश्चाताप और प्रभु यीशु मसीह में लाए विश्वास के द्वारा परमेश्वर की सनतान (यूहन्ना 1:12-13) बनने वाले व्यक्ति के जीवन में एक कारण तथा प्रभावका संबंध बना रहता है; इसी कारण तथा प्रभावके संबंध के द्वारा परमेश्वर अपने आराधक को, जो आत्मा और सच्चाई में परमेश्वर की आराधना करता है, ऊँचाईयों पर लगातार चढ़ते चले जाने वाले ऐसे मार्ग पर अग्रसर करता रहता है, जिसकी आशीष ना केवल अनन्तकाल में वरन अभी वर्तमान में हमारे पृथ्वी के जीवन में भी मिलती रहती है।

इस पृथ्वी पर अपनी सेवकाई के समय में प्रभु यीशु ने कहा था: "आकाश और पृथ्वी टल जाएंगे, परन्तु मेरी बातें कभी न टलेंगी" (मत्ती 24:35); अर्थात प्रभु के वचन अचूक, अकाट्य, अटल और दृढ़ हैं; वे सदा सत्य होंगे, हर कीमत पर और चाहे जो हो जाए। इस बात को ध्यान में रखते हुए, प्रभु यीशु द्वारा कही गई एक और बात पर ध्यान कीजिए: "...प्रभु यीशु की बातें स्मरण रखना अवश्य है, कि उसने आप ही कहा है; कि लेने से देना धन्य है" (प्रेरितों 20:35)

स्वयं प्रभु यीशु के शब्दों में, लेने और देने दोनों में ही आशीष है; लेकिन प्रभु कहते हैं कि लेने की बजाए देने में आशीष अधिक है।

हम प्रार्थना परमेश्वर से लेने के लिए करते हैं; लेकिन आराधना द्वारा हम परमेश्वर को देते हैं - हम धन्यवाद देते हैं, महिमा देते हैं, भक्ति देते हैं, आदर देते हैं, श्रद्धा देते हैं, उसके वचन को आज्ञाकारिता तथा उद्यम देते हैं। प्रार्थना का सरोकार लेने ही से है और आराधना का सरोकार देने ही से है; इसलिए यद्यपि प्रार्थना और आराधना दोनों में आशीष है, लेकिन आराधना में प्रार्थना से अधिक आशीष है।


आगे, हम इस कारण तथा प्रभावके परस्पर संबंध और परमेश्वर को देने की आशीष की समझ तथा व्याख्या के लिए परमेश्वर के वचन से कुछ उदाहरणों को देखेंगे।