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सोमवार, 27 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग 3 – विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों के सहायता से (3)



2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?

(भाग 3 – तीन उदाहरणों की समझ)


अब उपरोक्त संबंधित बातों के आधार पर इन तीन उदाहरणों को समझते हैं: पहली बात जो पहले ही कही जा चुकी है – इन में से किसी ने भी कभी भी पवित्र आत्मा को पाने के लिए कोई प्रार्थना, प्रयास, या इच्छा नहीं दिखाई; उन्हें जब पवित्र आत्मा दिया गया, वह परमेश्वर के समय, विधि और इच्छानुसार दिया गया। केवल एक ने ही पवित्र आत्मा को दूसरों को देने की सामर्थ्य पाने की इच्छा व्यक्त थी, शमौन टोनहा करने वाले ने, और उसका वास्तविक उद्धार ही नहीं हुआ था, और उसके यह कहने के लिए उसकी तीव्र निंदा की गई, उससे पश्चाताप करने के लिए कहा गया! दूसरी बात, यहूदियों से भिन्न ये तीनों वर्ग – सामरी, अन्य-जाति, और युहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्य, इन तीनों के मसीही विश्वास में आने और पवित्र आत्मा पाने का उल्लेख केवल प्रेरितों के कार्य – जो कि पहली मसीही मण्डली के आरंभिक कार्यों का इतिहास है, में ही दिया गया है। एक बार जब इन सभी वर्गों में से लोग आकर विश्वास के द्वारा प्रभु की कलीसिया, उसकी देह के साथ जुड़ गए, तो इसके बाद कभी भी किसी भी पत्री के लेखों में (जो सभी कलीसियाओं के सुधार और विकास के लिए पवित्र आत्मा के द्वारा अनेकों बातों, धारणाओं, परम्पराओं आदि को छोड़ने, सुधारने, या अपनाने के लिए बताए गए निर्देश हैं), कहीं भी यह शिक्षा नहीं दी गई है कि मसीही विश्वास में आने के बाद किसी भी विश्वासी को पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए अलग से कुछ भी करने की आवश्यकता है, और न ही कहीं भिन्न मसीही विश्वासियों की भिन्न पृष्ठभूमि से होने के किसी महत्व के होने का कोई उल्लेख किया गया है। तीसरी बात, इन तीनों गैर-यहूदी समूहों के लोगों को उदाहरण बनाकर कभी भी, परमेश्वर के वचन में कहीं भी यह शिक्षा नहीं दी गई है, कि इनके समान ही, पवित्र-आत्मा पाने के लिए कलीसिया के किसी प्रेरित, या अगुवे, या किसी विशेष जन की किसी मध्यस्थता की कोई आवश्यकता है। पत्रियों में कलीसिया के अगुवों की जिम्मेदारियों को तो बताया और सिखाया गया है, किन्तु कहीं यह नहीं कहा गया है कि उन्हें लोगों को पवित्र आत्मा प्राप्त करने में सहायक भी होना चाहिए। चौथी बात, इन तीनों को आधार बना कर बाइबल में कभी भी कहीं पर भी ऐसी कोई शिक्षा तो दूर, हलका सा कोई संकेत भी नहीं आया है कि ये घटनाएं उदाहरण हैं कि पवित्र आत्मा पाने के लिए कुछ प्रतीक्षा, या कुछ विशेष करना पड़ता है, पवित्र आत्मा उद्धार पाते ही तुरंत ही नहीं मिल जाता है।

अर्थात, प्रेरितों के कार्य में उल्लेखित ये घटनाएं, उन विभिन्न गैर-यहूदी वर्गों के कलीसिया में यहूदियों के साथ ही मिला कर एक कर दिए जाने का प्रतिनिधित्व मात्र करने के उदाहरण थीं। एक बार जब कलीसिया सब प्रकार के लोगों से मिल कर एक बन गई तो फिर उन्हें किसी भी आधार पर अलग-अलग देखने की कोई आवश्यकता नहीं रह गई। इनमें तीसरी घटना में, पौलुस द्वारा यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्यों से पूछा गया एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, जो कि आरम्भ में दिए गए तर्क – पवित्र आत्मा वास्तविकता में उद्धार पाते, मसीही विश्वास में आते ही मिल जाता है, की एक और पुष्टि है। पौलुस ने पूछा, “...क्या तुम ने विश्वास करते समय पवित्र आत्मा पाया? उन्होंने उस से कहा, हम ने तो पवित्र आत्मा की चर्चा भी नहीं सुनी” (प्रेरितों के काम 19:2)। अर्थात पौलुस को यही स्वाभाविक आशा थी कि जब वे लोग मसीही विश्वास में आए थे, तो उन्होंने तब ही पवित्र आत्मा प्राप्त कर लिया होगा। किन्तु आगे के वार्तालाप (पद 3-7) से स्पष्ट होता है कि वास्तव में वे सच्चे मसीही विश्वास में आए ही नहीं थे, इसलिए पवित्र आत्मा पाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। और जब वे पौलुस की सेवकाई के द्वारा वास्तव में वे लोग मसीही विश्वास में आए, तो उन्होंने पवित्र आत्मा भी तभी तुरंत ही पा लिया।

इसलिए इन उदाहरणों का यह कहने और सिखाने के लिए प्रयोग करना कि पवित्र आत्मा अलग से मिलता है, इस बात से संबंधित तथ्यों की गलत समझ रखना और व्याख्या करना है। यह ऐसे गलत निष्कर्ष निकलना और सिखाना है, जिनका परमेश्वर के वचन के आधार पर कोई समर्थन नहीं है। जब इन घटनाओं को भी उनके सही संदर्भ में और परमेश्वर के वचन की अन्य सम्बंधित शिक्षाओं के साथ देखा जाता है तो सत्य उजागर हो जाता है।

- क्रमशः

अगला लेख: क्या पवित्र आत्मा अगुवों या प्रेरितों द्वारा हाथ रखने से मिलता है?


रविवार, 26 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग 3 – विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों के सहायता से (2)



2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?

(भाग 2 – यहाँ पर ध्यान रखने योग्य संबंधित शिक्षाएं)


 किन्तु इस बात को थोड़ा सा विस्तार से देखने से पहले, कुछ संबंधित बातों पर ध्यान करने की आवश्यकता है:
समस्त कलीसिया की एकता: इसके लिए कृपया इफिसियों 2:12-22 ध्यान से, प्रार्थना पूर्वक, और बारंबार पढ़िए। इफिसियों के इस खंड में दी गई शिक्षा का सार यही है कि प्रभु यीशु द्वारा समस्त संसार के लिए उपलब्ध करवाए गए उद्धार और परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप से पहले, संसार के मनुष्यों के मध्य परमेश्वर की व्यवस्था, उसकी शिक्षाएं और बातें, तथा परमेश्वर तक पहुँच की प्रणाली केवल यहूदियों के पास ही उपलब्ध थी। यह बात यहूदियों के लिए बड़े घमण्ड का विषय था, और इसके अंतर्गत वे अपने आप को संसार के अन्य सभी लोगों से बहुत बढ़कर समझते थे। किन्तु अब, प्रभु यीशु मसीह के द्वारा किए गए कार्य के उपरान्त, यह सारी बातें संसार के सभी लोगों के लिए उपलब्ध हो गई हैं, अब इन पर यहूदियों ही का एकाधिकार नहीं रहा है – अब सभी मसीही विश्वासी जन मसीह यीशु में विश्वास में आ जाने पर एक कर दिए गए हैं, मसीह यीशु में हो जाने के बाद यहूदियों और गैर-यहूदियों में कोई भिन्नता नहीं रही है, और सभी एक साथ मिलकर प्रभु यीशु और भविष्यद्वक्ताओं की शिक्षाओं की नींव पर पवित्र आत्मा के द्वारा परमेश्वर का निवास स्थान बनाए जा रहे हैं (इफिसियों 2:20-22) – एक ही शिक्षा पर, एक ही आत्मा के द्वारा, एक ही परमेश्वर के लिए, एक ही प्रकार के लोग, एकत्रित, कार्यान्वित, और उपयोगी किए जा रहे हैं (इफिसियों 4:4-6), बिना किसी भी प्रकार के किसी भी भेदभाव के।

एक किए जाने से पूर्व के सामाजिक वर्ग: मसीही विश्वासियों की प्रथम मण्डली स्थापित होने के समय में, इस्राएल के निवासियों के दृष्टिकोण से समाज के लोगों को मुख्यतः चार प्रकार के वर्गों में देखा जाता था – (1) यहूदी, जो परमेश्वर की चुनी हुई प्रजा थे; जिनके पास परमेश्वर की व्यवस्था, विधियां, वचन थे; जिनके पास परमेश्वर का मंदिर और उसकी उपासना और आराधना का दायित्व था; और इसलिए वे अपने आप को मनुष्यों में सर्वोच्च स्तर का समझते थे, उन्हें लगता था कि उनके समान कोई अन्य न तो है और न हो सकता है। (2) सामरी लोग, जो न तो पूर्णतः यहूदी थे, और न ही पूर्णतः अन्य-जाति वरन बीच में कहीं थे। यहूदी उन्हें अपने समान नहीं मानते थे, और वे सामरी, स्वयं को याकूब की संतान होने, तथा यहूदी व्यवस्था, आराधना, और विधियों के पालन करने वाले होने के कारण (यूहन्ना 4:9, 12, 20, 25), यहूदियों ही के समान अपने आप को अन्य-जाति लोगों से भिन्न समझते थे। (3) अन्य-जाति या गैर यहूदी, जिन्हें परमेश्वर के जन या कृपा के पात्र होने के योग्य भी नहीं समझा जाता था; यहूदी उन से कोई भी व्यवहार रखना अधर्म समझते थे (प्रेरितों 10:28)। (4) यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के अनुयायी, जिनमें से निकलकर पतरस, अन्द्रियास आदि प्रभु के पास आए थे (यूहन्ना 1:35-42); यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के चेले यहूदी तो थे, किन्तु यूहन्ना की शिक्षाओं के पीछे चल निकलने के कारण यहूदी मुख्य धारा से पृथक देखे जाते थे। इन सभी वर्गों के लोगों के पास परमेश्वर ने यहूदियों में से आए मसीही विश्वासियों, अर्थात, फिलिप्पुस, पतरस, यूहन्ना, और पौलुस को सुसमाचार के साथ भेजा, और उन यहूदी मसीहियों की सेवकाई में होकर उन लोगों ने भी वही पवित्र आत्मा पाया जो आरंभ में यहूदी विश्वासियों ने पाया था। उन के लिए यह होना परमेश्वर के वचन में प्रभु यीशु की बात की पुष्टि तथा परमेश्वर की इच्छानुसार हुआ कार्य कहा गया (प्रेरितों 11:15-18)।

कहने का अभिप्राय यह है कि परमेश्वर ने यहूदियों से भिन्न या नीचे समझे जाने वाले प्रत्येक वर्ग के लोगों को, यहूदियों के द्वारा ही, अपने साथ मिला लिया – जो इफिसियों 2:20-22 के व्यावहारिक प्रयोग का उदाहरण है – सब को एक देह में एक साथ, परमेश्वर का एक ही मंदिर होने के लिए जोड़ लिया। ऐसा करना इसलिए आवश्यक था, जिससे यहूदियों में से मसीही विश्वासी बने शिष्य भी यह स्वयं ही देख, समझ और मान लें कि अब प्रभु में होने के बाद न तो वे कोई विशेष हैं, और न ही गैर-यहूदी उनसे निचले स्तर के हैं (प्रेरितों 10:28, 35; 11:1-4, 18)। यदि यह बात और कार्य यहूदी मसीही विश्वासियों के समक्ष और उन ही के माध्यम से नहीं होता, और इसके विषय उन आरंभिक यहूदी विश्वासियों, प्रेरितों और कलीसिया के अगुवों, तथा अन्य मसीही विश्वासियों की समझ और धारणाएं नहीं सुधारी जाती और बदलतीं, तो उन और उन के बाद के यहूदी विश्वासियों के लिए यह स्वीकार करना बहुत कठिन होता कि गैर-यहूदी भी प्रभु यीशु में होकर उन ही के समान के स्तर के हो गए हैं, और उनके पास भी अब वही और वैसा ही पवित्र-आत्मा, तथा परमेश्वर की संतान होने का आदर है। और यदि यह नहीं होता तो उस स्थिति में, कलीसिया में आरम्भ ही से बहुत बड़ा विभाजन और मत-भेद हो जाता, जिसे बाद में पाट पाना बहुत कठिन होता। इस सन्दर्भ में, यह ध्यान देने योग्य बात है कि इतने प्रमाणों और स्पष्टीकरणों के बावजूद, आरंभिक कलीसिया में यह मतभेद तुरंत ही नहीं गया, भेदभाव फिर भी होता रहा (प्रेरितों 6:1); शैतान प्रभु के लोगों के मध्य विभाजन और झगड़े खड़े करने का कोई अवसर नहीं छोड़ता है।

- क्रमशः

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शनिवार, 25 अप्रैल 2020

पवित्र आत्मा पाना भाग 3 – विशेष प्रयास – प्रेरितों और अगुवों के सहायता से (1)



2. क्या पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों की सहायता से मिलता है?

(भाग 1 – तीन उदाहरण)


कुछ अन्य उदाहरण जिनकी गलत व्याख्या और प्रयोग के द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है कि पवित्र आत्मा अलग से पाया जाता है, प्रभु यीशु पर विश्वास करने से तुरंत ही नहीं मिल जाता है, हैं :
·         पतरस और यूहन्ना द्वारा सामरिया के लोगों को पवित्र आत्मा दिया जाना (प्रेरितों 8:14-17);
·         पतरस द्वारा अन्यजाति कुरनेलियुस के घर जा कर प्रचार करना, और उन अन्य-जाति लोगों का पवित्र आत्मा पाना (प्रेरितों अध्याय 10, 11);
·         पौलुस के द्वारा, यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्यों को पवित्र आत्मा दिया जाना (प्रेरितों 19:1-7)।

किन्तु यहाँ भी यदि हम गलत व्याख्या करने से संबंधित उपरोक्त दोनों गलतियों में न पड़ने का ध्यान रखें, तो बात प्रगट हो जाती है कि ये उदाहरण भी कदापि यह नहीं सिखा रहे हैं कि पवित्र आत्मा अलग से, या प्रयास से, अथवा किसी प्रभु के सेवक की मध्यस्थता से दिया जाता – ध्यान कीजिए कि इन तीनों स्थितियों में से किसी एक भी स्थिति में पवित्र आत्मा प्राप्त करने वालों में से किसी एक ने भी पवित्र आत्मा पाने के लिए कोई निवेदन या प्रार्थना, या कोई अलग और विशेष प्रार्थना अथवा प्रयास नहीं किया; और न ही किसी भी प्रेरित या प्रभु के शिष्य ने उन में से किसी से भी पवित्र आत्मा प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त करने के लिए कुछ कहा। उन सभी को पवित्र आत्मा स्वतः ही परमेश्वर की ओर से दिया गया; उन के अपने किसी आग्रह के अंतर्गत नहीं।

केवल एक था जिसने यह पवित्र आत्मा लोगों को देने का विशेष गुण मांगा था – सामरिया का शमौन टोनहा करने वाला, और कहने को तो उसने भी विश्वास किया और बपतिस्मा लिया था (प्रेरितों 8:13) किन्तु वह वास्तविक उद्धार पाया हुआ नहीं था! और उसकी इस इच्छा के लिए पतरस ने उसकी तीव्र भर्त्सना की, उसे अधर्म के बंधन में जकड़ा हुआ बताया, परमेश्वर से क्षमा प्राप्त करने के लिए पश्चाताप करने को कहा (प्रेरितों 8:18-23)। इस एक व्यक्ति के अतिरिक्त बाइबल में कोई अन्य नहीं है जिसने कभी पवित्र आत्मा के लिए कोई विशेष आग्रह किया हो, और न ही कोई प्रेरित अथवा शिष्य है जिसने किसी को कभी यह शिक्षा दी हो कि जिन्होंने उद्धार पाया है उन्हें पवित्र आत्मा पाने के लिए अलग से कुछ विशेष प्रयास, या प्रार्थना, या प्रतीक्षा करनी चाहिए। यह शिक्षा बाइबल के अनुसार है ही नहीं!
- क्रमशः

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