सूचना: ई-मेल के द्वारा ब्लोग्स के लेख प्राप्त करने की सुविधा ब्लोगर द्वारा जुलाई महीने से समाप्त कर दी जाएगी. इसलिए यदि आप ने इस ब्लॉग के लेखों को स्वचालित रीति से ई-मेल द्वारा प्राप्त करने की सुविधा में अपना ई-मेल पता डाला हुआ है, तो आप इन लेखों अब सीधे इस वेब-साईट के द्वारा ही देखने और पढ़ने पाएँगे.
धर्म लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
धर्म लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

मैं अपने आस-पास और कार्यस्थल में यीशु का प्रचार कैसे कर सकता हूँ?



यदि आप वास्तव में प्रभु यीशु में अपने विश्वास को अपने आस-पास तथा सहकर्मियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो जो सबसे पहला कार्य आपको करना चाहिए वह है अपनी इस इच्छा को परमेश्वर के सामने रखें और उससे माँगें कि वह आपको इसके लिए तैयार करे तथा इसके विषय आपका मार्गदर्शन करे। उससे माँगें कि वह आपको उन संभव अवसरों को पहचानने की समझ-बूझ दे, तथा सिखाए कि उन अवसरों का सदुपयोग कैसे किया जाए; वह आपको उन लोगों के पास लेकर जाए जो सुसमाचार को ग्रहण करने, या कम से कम सुनने के लिए तैयार हैं, बिना किसी अनुचित विवाद अथवा बहस में पड़े (1 कुरिन्थियों 16:9)। परमेश्वर से माँगें कि वह आपको इसके लिए आवश्यक साहस, उचित शब्द, और सही अभिव्यक्ति की क्षमता प्रदान करे जिससे आप इस कार्य को यथोचित रीति से करने पाएँ (यशायाह 50:4), और जब आप प्रभु की इस सेवकाई को उसकी इच्छानुसार करें तो परमेश्वर आपके बैरियों एवँ विरोधियों को बाँध कर नियंत्रण में रखे।

सहज रीति से, बिना विरोध को निमंत्रण दिए “प्रचार” करने का सबसे अच्छा तरीका है, उसे जी कर दिखाना और अपने व्यावाहरिक जीवन की गवाही से उसे प्रगट करना (प्रकाशितवाक्य 12:11), क्योंकि आपके शब्दों से कहीं अधिक ऊँचा और प्रभावी आपका जीवन ‘बोलता’ है। दो प्रकार से हैपहली यह कि, प्रभु ने आपके जीवन को कैसे बदला, उसने आपको अन्दर से कैसे बदला है, और आपके हृदय-परिवर्तन के समय से लेकर अब तक वह कैसे आपकी सहायता करता रहा है, कैसे आपके हित में कार्य करता रहा है; इन बातों की आपके अपने शब्दों में दी गई मौखिक गवाही; और आपकी दूसरी व्यावाहरिक गवाही है, आपके दैनिक जीवन में आए परिवर्तनों की गवाही जो आपके साथी और आस-पास वाले देखते हैं आपकी जीवन-शैली, रूचियाँ, बात-चीत, व्यवहार, सत्य-निष्ठा, तथा कार्य-नैतिकता एवँ प्रतिबध्दता इत्यादि। गवाही के पहली रीति के माध्यम से, आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों को बाँटते हैं आप किसी को यह नहीं कहते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए या नहीं करना चाहिए ऐसा करने से विरोध और तर्क या विवाद उत्पन्न हो सकते हैं; वरन, आप केवल वह बताएँ जो प्रभु ने आपके जीवन में किया है, और/या प्रभु ने किसी विशेष परिस्थिति में कैसे आपकी सहायता की। क्योंकि ये आपके व्यक्तिगत अनुभव हैं, इसलिए कोई भी इन्हें आपके लिए गलत या अस्वीकार्य नहीं ठहरा सकता है, और प्रभु इन्हें औरों के हृदयों में कार्य करने के लिए उपयोग करेगा; उनके अन्दर जिज्ञासा को जागृत करेगा कि वे भी अपने जीवनों में इन्हें आज़माएँ। गवाही के दूसरी रीति के माध्यम के द्वारा, अर्थात आपकी जीवन शैली इत्यादि की गवाही के द्वारा, आप अपने जीवन को निःशब्द किन्तु व्यवाहारिक रीति से गवाही देने देते हैं, और जब भी कोई आपके जीवन की किसी बात के लिए कोई प्रश्न उठाए, तो आप उसके साथ अपने विश्वास तथा सुसमाचार को बाँटने के लिए सदा तैयार बने रहें (2 तिमुथियुस 4:2).

एक और कार्य जो आप कर सकते हैं वह है किसी कठिनाई, या क्लेश, या समस्या, या तनाव में पड़े हुए, या जिसे किसी सहायता या मार्गदर्शन की आवश्यकता हो, ऐसे व्यक्ति के पास जाकर उसके लिए प्रार्थना करना। आप नम्रता और प्रेम सहित उससे उसके साथ प्रार्थना करने की अनुमति माँग सकते हैं, और यदि वे अनुमति प्रदान करते हैं, तो प्रार्थना में बिना कोई ‘प्रचार’ किए, एक छोटी, सार्थक और सरल प्रार्थना करें, परमेश्वर से माँगें कि वह उनकी परिस्थिति या कठिनाई में उनकी सहायता एवँ मार्गदर्शन करे, और इस परेशानी की परिस्थिति में वे परमेश्वर की शान्ति को अनुभव करने पाएँ। आप ऐसा फोन पर वार्तालाप के माध्यम से भी कर सकते हैं। अपने बैरी-विरोधियों के लिए भी प्रार्थनाएं अवश्य करें, चाहे वे उन्हें बिना बताए, खामोशी से की गई प्रार्थनाएं हों (रोमियों 12:14-21), और परमेश्वर स्वयँ ही उचित समय पर उन पर प्रगट करेगा कि उनके बैर-विरोध के बावजूद, आप उनके लिए प्रार्थना करते रहें हैं।

किन्तु सदा सचेत रहें, शैतान आपके विरोध में समस्याएँ या विरोध खड़े करने, या आपको विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों तथा परीक्षाओं में फंसाने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देगा, (1 तिमुथियुस 4:1-2), जिससे आपकी गवाही बिगाड़ी जा सके तथा निष्क्रीय करी जा सके। इसलिए बहुत ध्यान रखें और चौकस रहें कि आप क्या देखते हैं (भजन 101:3; 119:37), कहते हैं (इफिसियों 4:29), करते हैं (1 पतरस 2:11-12), और जीवन कैसे जीते हैं तथा कैसा व्यवहार करते हैं (1 कुरिन्थियों 11:1)। सदा हर बात के लिए प्रभु से लिपटे रहें, कभी अपने बुद्धिमत्ता पर भरोसा न रखें और प्रार्थना में प्रभु से पहले पूछे या मांगे बिना कुछ भी नहीं करें (नीतिवचन 3:5-6); अन्यथा शैतान आपको बहका कर किसी गलती में डाल देगा (2 कुरिन्थियों 11:3).

इसका यह अर्थ नहीं है कि आपके प्रयास सदा ही सकारात्मक तथा रचनात्मक स्वीकार किए जाएँगे, या आपको कभी किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा, और जीवन आपके लिए सदा ही निर्विवाद एवँ सुचारू रीति से चलता रहेगा ऐसा तो हो ही नहीं सकता है फिलिप्पियों 1:29; 2 तिमुथियुस 3:12; कोई न कोई नकारात्मक प्रतिक्रियाएं तो सदा ही होती रहेंगी। इसलिए, “पर तू सब बातों में सावधान रह, दुख उठा, सुसमाचार प्रचार का काम कर और अपनी सेवा को पूरा कर।” (2 तिमुथियुस 4:5)


सोमवार, 19 अगस्त 2019

सच्चा सुसमाचार, बनाम झूठे विश्वास और सिद्धान्त


प्रश्नक्या हम प्रभु यीशु मसीह और उसके सुसमाचार के सत्य के बारे में गलत विश्वास या झूठे सिद्धांतों को मानने वालों या पालन करने वालों से भी सीख सकते हैं? हम सच्चे सुसमाचार को कैसे पहचान सकते हैं?

यह जाना-पहचाना तथ्य है और आम देखा जाता है कि, किसी जाने-माने उत्पाद की नकल बेचने के लिए, धोखा देने वाले उस नकल का बाहरी स्वरूप असली के समान जितना अधिक बना सकें बनाते हैं, जिससे लोग उस नकली को असली समझ कर उसे स्वीकार कर लें और ले लें, इस विश्वास में कि यह असली ही है। लेकिन जब लोग उस नकली का प्रयोग करना आरंभ करते हैं, तब ही पहचान होती है कि जो दावा किया गया था वह वो नहीं है उसके गुण वास्तविक असली उत्पाद के समान नहीं हैं, और न ही वह उतना कारगर है जितना उसे होना चाहिए।

यही बात बाइबल में दिए सच्चे सुसमाचार और परमेश्वर की शिक्षाओं के लिए भी सही है। शैतान ने, लोगों को धोखा देने के लिए, सँसार में अनेकों प्रकार के नकली सुसमाचार और परमेश्वर के वचन की गलत शिक्षाएँ फैला दी हैं। ये झूठे सुसमाचार असली के समान ही प्रतीत होते हैं, परन्तु उनमें सदा ही कुछ-न-कुछ गलतियाँ या सच्चे सुसमाचार से कुछ भिन्नता होती है, जो चाहे तुरंत ही प्रगट न हो, परन्तु देर-सवेर प्रगट हो ही जाती हैं। साथ ही, इस तर्क को स्वीकार कर लेना कि झूठे धार्मिक विश्वास एवँ सिद्धांतों के द्वारा भी परमेश्वर हमें सचेत करता और सिखाता है,  यह कहना है कि परमेश्वर गलत और असत्य के द्वारा भी “…मार्ग, सत्य, और जीवन…” (यूहन्ना 14:6) के बारे में हमें सिखाता है जो कि बिलकुल गलत तथा कदापि स्वीकार न हो सकने वाली धारणा है, जो परमेश्वर के चरित्र और गुणों के विपरीत जाती है, और बाइबल की शिक्षाओं के बिलकुल उलट है। 

इस कथन के समर्थन में, बाइबल से लिए गए कुछ खण्ड देखिए:
हम प्रेरितों 16:16-18 में देखते हैं कि पौलुस एक लड़की में से दुष्टात्मा को निकालता है, जबकि वह लड़की यही कह रही थी कि " ...ये मनुष्य परमप्रधान परमेश्वर के दास हैं, जो हमें उद्धार के मार्ग की कथा सुनाते हैं" (प्रेरितों 16:17) – यह सत्य तो था, किन्तु किसी ऐसे से आ रहा था जो परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं है।
याकूब कहता है, “जब किसी की परीक्षा हो, तो वह यह न कहे, कि मेरी परीक्षा परमेश्वर की ओर से होती है; क्योंकि न तो बुरी बातों से परमेश्वर की परीक्षा हो सकती है, और न वह किसी की परीक्षा आप करता है।” (याकूब 1:13); और क्योंकि हर एक अच्छा वरदान और हर एक उत्तम दान ऊपर ही से है, और ज्योतियों के पिता की ओर से मिलता है, जिस में न तो कोई परिवर्तन हो सकता है, ओर न अदल बदल के कारण उस पर छाया पड़ती है” (याकूब 1:17).
प्रेरित यूहन्ना अपनी पहली पत्री में कहता है, “जो समाचार हम ने उस से सुना, और तुम्हें सुनाते हैं, वह यह है; कि परमेश्वर ज्योति है: और उस में कुछ भी अन्धकार नहीं” (1 यूहन्ना 1:5).

बाइबल में बारंबार, परमेश्वर की पूर्ण सत्यता, कभी न बदलने वाली ईमानदारी, किसी भी संदेह की संभावना से भी से परे सत्यनिष्ठा, पर बल दिया गया है; अर्थात इसपर कि परमेश्वर का चरित्र और व्यवहार किसी भी संदेह या दोषारोपण की संभावना से बिलकुल बाहर हैं। न तो परमेश्वर ने कभी किया है, और न ही वह कभी यह करेगा कि अपने वचन के प्रचार और प्रसार के लिए गलत धार्मिक सिद्धांतों और शिक्षाओं का सहारा ले, जबकि उसने मानव-जाति को अपना सत्य एवँ जीवित वचन दे दिया है, और अपने इस वचन को सिखाने के लिए अपने लोगों को अपना पवित्र-आत्मा भी प्रदान किया है (यूहन्ना 14:26; 16:13-15; 1 कुरिन्थियों 2:11-14)। प्रभु यीशु ने पुनरुत्थान के पश्चात अपने स्वर्गारोहण से पहले अपनी महान आज्ञा में अपने शिष्यों से कहा था कि वे जाकर सँसार के लोगों को उसका वचन सिखाएँ न कि मनुष्य की बुद्धि से उपजी कोई गढ़ी हुई शिक्षाएँ और बातें सिखाएँ (मत्ती 28:18-20)

परन्तु शैतान, अपने असत्य, झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धांतों आदि को स्वीकार्य बनाने के लिए, अपने धोखे और आडंबर को परमेश्वर के वचन के समान दिखाता है, बड़ी चतुराई से गलत बातों को धार्मिकता और ग्रहण योग्य होने के आवरण के पीछे छुपाता है (2 कुरिन्थियों 11:13-15; कुलुस्सियों 2:4-8; 16-23)। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम अपने आप को परमेश्वर के वचन की सच्चाइयों में स्थापित कर लें तथा और कुछ को नहीं, परन्तु केवल बाइबल को ही सभी शिक्षाओं, धार्मिकता, और सिद्धांतों को परखने और उनकी वास्तवकिता जाँचने के मानक के रूप में प्रयोग करें,  (प्रेरितों 17:11; 2 तिमुथियुस 3:16-17; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। जो कुछ भी परमेश्वर के वचन के अनुसार नहीं है, या किसी भी रीति से वचन का खंडन करता है या उससे असंगत है; या ऐसी कोई भी शिक्षा जो उस विषय पर बाइबल में कही गई सभी बातों के साथ पूर्णतः मेल नहीं खाती है या उनके मापदंडों पर पूर्णतः खरी नहीं उतरती है; या ऐसी कोई भी बात जो सँसार के रीति-रिवाज़ों अथवा बातों, या मनुष्यों की बुद्धि और व्यवहार से उत्पन्न होकर बाइबल की मसीही शिक्षाओं में लाई गई और मिलाई गई हैं (मत्ती 15:3-9), वह गलत सिद्धान्त है, गढ़ी हुई झूठी धार्मिकता है, जो परमेश्वर को अप्रसन्न करती है तथा उसे अस्वीकार्य है, और उसकी पूर्णतः अवहेलना करनी चाहिए, उसका संपूर्ण तिरिस्कार किया जाना चाहिए।

सच्चा सुसमाचार, 1 कुरिन्थियों 15:1-4 में लिखा है – “हे भाइयों, मैं तुम्हें वही सुसमाचार बताता हूं जो पहिले सुना चुका हूं, जिसे तुम ने अंगीकार भी किया था और जिस में तुम स्थिर भी हो। उसी के द्वारा तुम्हारा उद्धार भी होता है, यदि उस सुसमाचार को जो मैं ने तुम्हें सुनाया था स्मरण रखते हो; नहीं तो तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ हुआ। इसी कारण मैं ने सब से पहिले तुम्हें वही बात पहुंचा दी, जो मुझे पहुंची थी, कि पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया। और गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा” (1 कुरिन्थियों 15 बाइबल का ‘सुसमाचार अध्याय’ है सुसमाचार से संबंधित विभिन्न सत्यों को सीखने और समझने के लिए इसका अध्ययन अवश्य कीजिए)। कृपया ध्यान दें, सच्चा सुसमाचार, जैसा कि पवित्र-शास्त्र में कहा गया है, परमेश्वर के वचन के अनुसार है न कि मनुष्यों की चतुराई से आया है; दूसरे शब्दों में, सच्चे सुसमाचार में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले से पवित्र-शास्त्र में लिखा नहीं गया है।

इसे बाइबल ही से समझिए:
इब्रानियों 10:5-9 में प्रभु यीशु द्वारा कहे गए वचन हैं जो उन्होंने स्वर्ग छोड़कर पृथ्वी पर आने से ठीक पहले कहे थे; वहाँ लिखा है: “इसी कारण वह जगत में आते समय कहता है, कि बलिदान और भेंट तू ने न चाही, पर मेरे लिये एक देह तैयार किया। होम-बलियों और पाप-बलियों से तू प्रसन्न नहीं हुआ। तब मैं ने कहा, देख, मैं आ गया हूं, (पवित्र शास्त्र में मेरे विषय में लिखा हुआ है) ताकि हे परमेश्वर तेरी इच्छा पूरी करूं। ऊपर तो वह कहता है, कि न तू ने बलिदान और भेंट और होम-बलियों और पाप-बलियों को चाहा, और न उन से प्रसन्न हुआ; यद्यपि ये बलिदान तो व्यवस्था के अनुसार चढ़ाए जाते हैं। फिर यह भी कहता है, कि देख, मैं आ गया हूं, ताकि तेरी इच्छा पूरी करूं; निदान वह पहिले को उठा देता है, ताकि दूसरे को नियुक्त करे।प्रभु यीशु ने विशेषतः यह कहा कि उनका कार्य पहले से ही लिखा गया है पवित्र शास्त्र में मेरे विषय में लिखा हुआ है और वे वही करेंगे जो उनके विषय लिखा गया है, वे परमेश्वर की इच्छा को पूरी करेंगे; अर्थात, उसे पूरा करेंगे जो पहले से लिखा जा चुका है; मसीह यीशु ने कोई नई बात नहीं निकाली या की।
अपने पुनरुत्थान के पश्चात जब प्रभु यीशु यरूशलेम से इम्माउस को लौटने वाले दो शिष्यों से मिले, और उनके साथ चर्चा की, तब उसने मूसा से और सब भविष्यद्वक्ताओं से आरम्भ कर के सारे पवित्र शास्‍त्रों में से, अपने विषय में की बातों का अर्थ, उन्हें समझा दिया।” (लूका 24:27) – जो कि एक और पुष्टि है कि प्रभु यीशु ने केवल वही किया, जो उस समय उपलब्ध पवित्र-शास्त्र में पहले से लिखा जा चुका था, उनके पृथ्वी पर जन्म लेने तथा अपनी सेवकाई को आरंभ करने से पहले ही।
प्रेरित पौलुस ने भी, यीशु को अपना उद्धारकर्ता और प्रभु स्वीकार करने के पश्चात पवित्र-शास्त्र का उपयोग किया पुराने नियम के लेखों का प्रयोग प्रभु की सेवकाई के विषय बताने और उसे प्रमाणित करने के लिए: “वह पवित्र शास्त्र से प्रमाण दे देकर, कि यीशु ही मसीह है; बड़ी प्रबलता से यहूदियों को सब के साम्हने निरूत्तर करता रहाऔर वह परमेश्वर के राज्य की गवाही देता हुआ, और मूसा की व्यवस्था और भाविष्यद्वक्ताओं की पुस्तकों से यीशु के विषय में समझा समझाकर भोर से सांझ तक वर्णन करता रहा” (प्रेरितों 18:28; 28:23)। क्योंकि सच्चे सुसमाचार में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले से ही परमेश्वर के वचन लिखा नहीं जा चुका है, इसलिए जो कोई भी सुसमाचार के नाम में कुछ भी ऐसा प्रचार करता या सिखाता है जो पवित्र-शास्त्र में पहले से विद्यमान नहीं है, या कुछ नई बातें अथवा ‘नए दर्शन या प्रकाशन’ के द्वारा सुसमाचार में कुछ नया जोड़ने का प्रयास करता है, वह वास्तव में सुसमाचार को भ्रष्ट कर रहा है और उसपर कदापि विश्वास नहीं करना चाहिए और न ही उसकी बात को स्वीकार करना चाहिए।

शैतान द्वारा सांसारिकता की बातों द्वारा सुसमाचार को भ्रष्ट करना तो तुरंत ही, प्रथम ईसवीं में ही आरंभ हो गया था, और इन भ्रष्ट शिक्षाओं में इतना आकर्षण था कि, प्रेरितों के समय और सेवकाई के दौरान ही, मसीही विश्वासी धोखा खाने लगे थे और गलत शिक्षाओं में पड़ने लगे थे। इसीलिए हम देखते हैं कि नए नियम के सभी लेखक अपने-अपने लेखों में गलत शिक्षाओं और धोखे तथा शैतान के झूठ एवँ चालाकियों के बारे में बारंबार लिखते हैं। नए नियम की सभी पत्रियां, मसीह यीशु की शिक्षाओं से संबंधित गलत धारणाओं और असंगतियों को सही करने के उद्देश्य से लिखी गई हैं, जिससे मसीही विश्वासी शैतान द्वारा फैलाई जा रही गलत शिक्षाओं का सामना करके उनका प्रतिरोध कर सकें, उन्हें निष्क्रीय कर सकें।

जब एक बार हम सच्चे सुसमाचार के गुण पहचान जाते हैं, तब फिर हम उनका प्रयोग प्रत्येक अन्य शिक्षा एवँ सिद्धान्त की वास्तविकता और सत्यता को जाँचने के लिए कर सकते हैं। पवित्र-आत्मा ने, पौलुस प्रेरित में होकर गलत सुसमाचार को पहचानने के कुछ चिन्ह गलातियों 1:3-9 में दिए हैं, और साथ ही चेतावनी भी दी है कि जो सुसमाचार पहले-पहल दे दिया गया है, उसे यदि पौलुस या कोई स्वर्गदूत भी आकर बदलना या भिन्न प्रकार से व्यक्त करना चाहे, तो उसे कदापि स्वीकार नहीं किया जाए।

गलातियों 1:3-9 का लेख इस प्रकार से है:
गलातियों 1:3 परमेश्वर पिता, और हमारे प्रभु यीशु मसीह की ओर से तुम्हें अनुग्रह और शान्‍ति मिलती रहे
गलातियों 1:4 उसी ने अपने आप को हमारे पापों के लिये दे दिया, ताकि हमारे परमेश्वर और पिता की इच्छा के अनुसार हमें इस वर्तमान बुरे संसार से छुड़ाए
गलातियों 1:5 उस की स्‍तुति और बड़ाई युगानुयुग होती रहे। आमीन
गलातियों 1:6 मुझे आश्चर्य होता है, कि जिसने तुम्हें मसीह के अनुग्रह से बुलाया उस से तुम इतनी जल्दी फिर कर और ही प्रकार के सुसमाचार की ओर झुकने लगे
गलातियों 1:7 परन्तु वह दूसरा सुसमाचार है ही नहीं: पर बात यह है, कि कितने ऐसे हैं, जो तुम्हें घबरा देते, और मसीह के सुसमाचार को बिगाड़ना चाहते हैं
गलातियों 1:8 परन्तु यदि हम या स्वर्ग से कोई दूत भी उस सुसमाचार को छोड़ जो हम ने तुम को सुनाया है, कोई और सुसमाचार तुम्हें सुनाए, तो श्रापित हो
गलातियों 1:9 जैसा हम पहिले कह चुके हैं, वैसा ही मैं अब फिर कहता हूं, कि उस सुसमाचार को छोड़ जिसे तुम ने ग्रहण किया है, यदि कोई और सुसमाचार सुनाता है, तो श्रापित हो। अब मैं क्या मनुष्यों को मनाता हूं या परमेश्वर को? क्या मैं मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता हूं?

इस खण्ड से सच्चे सुसमाचार के बारे में हम निम्न तथ्य और विशेषताएं सीख सकते हैं:
आयत 3. सच्चे सुसमाचार के साथ परमेश्वर का अनुग्रह और शान्ति आते हैं; वह मतभेदों, विवादों और संघर्षो का कारण अथवा स्त्रोत नहीं होता है। ऐसी कोई भी शिक्षा जो परमेश्वर तथा प्रभु यीशु को हमारे जीवनों में समस्त अनुग्रह और शान्ति का स्वाभाविक स्त्रोत नहीं बनाती है, वरन परमेश्वर के अनुग्रह और शान्ति को प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार के मानवीय प्रयासों और कर्मों को आधार बनाती है, या उसे साधारण विश्वास के द्वारा ग्रहण करने के स्थान पर कुछ कर्म या धार्मिकता के निर्वाह के द्वारा उस अनुग्रह और शान्ति को ‘कमाने’ का प्रयास करती है, वह सच्चा सुसमाचार नहीं है। जब प्रभु यीशु की शान्ति तो प्रभु के प्रत्येक अनुयायी के लिए प्रभु द्वारा पहले से ही प्रदान कर दी गई है (यूहन्ना 14:27; 16:33) तो फिर उसे प्राप्त करने के लिए किसी को अपना और कोई प्रयास क्यों करना पड़ेगा?

आयत 4. ऐसी कोई भी शिक्षा या सिद्धान्त या धर्म और धार्मिकता जो हमें पापों से बचाने तथा परमेश्वर के सम्मुख धर्मी ठहराने के लिए कलवरी के क्रूस पर प्रभु यीशु द्वारा सिद्ध किए गए बलिदान के कार्य के अतिरिक्त और कुछ भी करने या निभाने को कहती है, वह झूठा सुसमाचार, गलत शिक्षा है; और उसका तुरंत ही पूर्णतः तिरिस्कार किया जाना चाहिए। हमारे उद्धार और पापों से छुटकारे के लिए जो कुछ प्रभु यीशु ने कर के दे दिया है वही पूर्ण है और सिद्ध है, उसे और अधिक कारगर करने के लिए उसमें और कुछ भी नहीं, बिलकुल कुछ नहीं, जोड़ा जा सकता है; और न ही कुछ और प्रभु के उस बलिदान का स्थान ले सकता है – न बपतिस्मा, न प्रभु-भोज में सम्मिलित होना, न दृढ़ीकरण, न कोई अन्य रीति-रिवाज़ अथवा प्रथा या त्यौहार का निर्वाह।

आयत 5. सच्चे सुसमाचार से संलग्न रहना तथा उसका पालन करना सदा ही परमेश्वर और प्रभु यीशु मसीह को महिमा देता है। सच्चा सुसमाचार कभी भी किसी भी मनुष्य को आदर और महिमा नहीं देता है; वरन वह मनुष्य के पाप और पापी स्वभाव को उजागर करता है, परमेश्वर के अनुग्रह को पाप के समाधान के लिए प्रदान करता है, और जो परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा बचाए और छुड़ाए गए हैं उन से उनके उद्धार, परमेश्वर के राज्य में प्रवेश, और परमेश्वर के साथ संगति में बहाल किए जाने के लिए, किसी मनुष्य की बड़ाई करवाने या उसे आदरणीय बनाने के स्थान पर परमेश्वर की महिमा और स्तुति करवाता है। वह जो मनुष्यों की महिमा और आदर करता है या किसी भी रीति से परमेश्वर की महिमा में से चुराता है, वह सच्चा सुसमाचार नहीं है।

आयतें 6, 7. वह ‘दूसरा सुसमाचार’ इसलिए ‘और ही प्रकार’ का है क्योंकि ‘मसीह के अनुग्रह’ को सबसे प्रथम और सबसे उत्तम महत्व का प्रस्तुत करने की बजाए, वह लोगों को उद्धार की इस प्राथमिक आवश्यकता एवँ अनिवार्यता – अनुग्रह, से दूर ले जाता है। वह ‘दूसरा सुसमाचार’ और ही बातों जैसे कि ‘भले कार्य’, ‘धार्मिकता या पवित्रता का जीवन’, या ‘आश्चर्यकर्म करने’ आदि पर बल देता है, उनकी ओर ध्यान आकर्षित करता है; वह स्वर्गीय धन एकत्रित करने की बजाए सांसारिक संपत्ति और बढ़ोतरी की ओर ध्यान केंद्रित करता है (कुलुस्सियों 3:1-2)। वह दान करने, तप-तपस्या करने, तीर्थ-यात्राएं करने, ‘संतों’ तथा अन्य मनुष्यों को आदरणीय या पूजनीय समझने; दार्शनिक विचारों, बाइबल का किताबी ज्ञान रखने, चर्च में पदवी या महत्वपूर्ण स्थान पाने और बनाए रखने, आदि पर बल देता है परन्तु उस ‘दूसरे सुसमाचार’ या ‘और ही प्रकार’ के सुसमाचार में जो सबसे महत्वपूर्ण बात अनुपस्थित होती है वह है परमेश्वर के सम्मुख ग्रहण योग्य होने के लिए केवल मसीह के अनुग्रह की एकमात्र अनिवार्यता को स्वीकार करना (कुलुस्सियों 2)। झूठे या गलत सुसमाचार से अन्ततः कलीसिया में समस्याएँ, संघर्ष, विवाद, दुखदायी एवँ बाधित और बिगड़े हुए संबंध, अपने आप को बड़ा दिखाने की प्रवृत्ति, अहम और उससे संबंधित समस्याएँ, नाश्मान और सांसारिक वस्तुएँ एवँ ओहदे पाने की लालसाएं तथा प्रयास, आदि दिखाई देंगे न कि परमेश्वर का अनुग्रह और शान्ति, जैसा कि ऊपर आयत 3 में कहा गया है।

आयतें 8, 9. सुसमाचार जो सदाकाल के लिए एक ही बार दे दिया गया है वह अपरिवर्तनीय है, उसमें न तो कुछ जोड़ा जा सकता है और न ही कुछ उसमें से घटाया जा सकता है, वरन शैतान की धूर्तता के हमलों से उसकी यत्न के साथ रक्षा करने की आवश्यकता है (यहूदा 1:3). कोई भी नहीं, न पौलुस, न कोई स्वर्गदूत, न कोई और वह चाहे कितना भी कीर्ति प्राप्त या आदरणीय क्यों न हो, प्रथम कलीसिया को सदा काल के लिए एक ही बार दिए गए उस सुसमाचार में वह कोई भी, कैसा भी परिवर्तन या ‘सुधार’ नहीं कर सकता है (प्रेरितों 2:37-40; 1 कुरिन्थियों 15:1-4)। इस प्राथमिक और आधारभूत सुसमाचार में जो कुछ भी विद्यमान नहीं है, जो कुछ भी उससे भिन्न है, वह ‘और ही सुसमाचार’ है शैतान से आया हुआ सच्चे सुसमाचार का भ्रष्ट रूप है, और उसे न तो कोई महत्व दिया जाना चाहिए और न ही स्वीकार किया जाना चाहिए, उसका अनुसरण या पालन करना तो बहुत दूर की बात है। परमेश्वर का वचन इस ‘दूसरे सुसमाचार’ को धोखे से सिखाने वालों को ‘श्रापित’ कहता है; और जिसे परमेश्वर ने श्रापित कहा हो उससे कुछ भी आशीषित अथवा महिमायोग्य प्राप्त होने की आशा रखना मूर्खतापूर्ण और बिलकुल गलत है।

पौलुस द्वारा दिए गए निर्देश तुम मेरी सी चाल चलो जैसा मैं मसीह की सी चाल चलता हूं” (1 कुरिन्थियों 11:1), तथा पवित्र-आत्मा की सहायता और मार्गदर्शन में परमेश्वर, मसीह यीशु, उद्धार आदि से संबंधित सभी शिक्षाओं को उपरोक्त गुणों तथा विशेषताओं के अनुसार जांचने (और साथ ही 1 कुरिन्थियों 15; कुलुस्सियों 2 & 3 की शिक्षाओं के आधार पर भी आँकलन करने) के द्वारा सही को गलत से अलग किया जा सकता है, वास्तविकता को पहचाना जा सकता है।

गुरुवार, 17 जनवरी 2019

गैर-मसीही वैवाहिक रीति-रिवाजों का मसीही विश्वास में स्थान


एक गैर-मसीही पृष्ठभूमि से मसीही विश्वासी हो जाने के पश्चात, क्या मसीही विश्वास उस भूत-पूर्व गैर-मसीही धर्म के रीति-रिवाजों के अनुसार एक अन्य मसीही विश्वासी से विवाह करने की अनुमति देती है?


जैसा आपको भली-भांति पता होगा, गैर-मसीही धर्मों के रीति-रिवाजों में उन देवी-देवताओं या अलौकिक सामर्थों का आह्वान किया जाता है जिन्हें उस धर्म में पूजनीय एवँ ईश्वरीय समझा जाता है। विवाह के वचन उन्हीं देवी-देवताओं तथा अलौकिक सामर्थों के नाम से लिए जाते हैं, इस विश्वास के साथ कि वे वहाँ उस विवाह के साक्षी बनकर उपस्थित हैं तथा भविष्य में वे ही विवाह की रक्षा और निश्चितता प्रदान करेंगे। इसका यह तात्पर्य हुआ कि उन रीति-रिवाजों में भाग लेने के द्वारा आप एक प्रकार से यह मान रहे हो कि प्रभु यीशु मसीह के अतिरिक्त भी ईश्वरीय शक्तियाँ हैं, और आप उन्हें सम्मानित करने तथा पूजने के लिए तैयार हैं, अपने जीवन में उनकी सामर्थ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, और भविष्य में भी अपने जीवन में ऐसे ही किसी भी अन्य अवसर पर उनके योगदान और स्थान को स्वीकार करते हैं। एक बार आप इस प्रकार के समझौते के लिए सहमत हो जाएँगे तो फिर इस आधार पर आपको बारंबार ऐसे ही समझौते करने के लिए बाध्य किया जा सकता है।

यह न केवल आपके अपने आत्मिक जीवन तथा प्रभु यीशु में विश्वास के लिए हानिकारक होगा, परन्तु अन्य अनेकों मसीही विश्वासियों के लिए भी ठोकर का कारण हो सकता है, जिससे आपके जीवन में प्रभु की ताड़ना को अवसर होगा (मरकुस 9:42)। किन्तु एक बार जब आप इस विषय पर एक दृढ़ निर्णय लेकर स्थिर खड़े हो जाएँगे, समझौता करने से इन्कार कर देंगे, तो प्रभु यीशु के प्रति आपके समर्पण की दृढ़ता तथा उसमें आपके विश्वास की स्थिरता सब पर प्रगट हो जाएगी, और वे अन्य अवसरों पर भी समझौता करने के लिए आपको उकसाने में संकोच करेंगे, तथा आप आत्मिक जीवन में और उन्नत तथा परिपक्व हो जाएँगे।

परन्तु मसीही विश्वास में दृढ़ होने में, औरों के प्रति नम्र और आदरपूर्ण भी बने रहें। मसीही विश्वास में दृढ़ होने का यह कदापि अर्थ नहीं है कि आप औरों की मान्यताओं, रीति-रिवाजों, और पूजनीय वस्तुओं के प्रति बुरा या उन्हें नीचा दिखाने या कटु शब्द कहने वाला व्यवहार रखें – ऐसा करने से बात केवल बिगड़ेगी, और आपकी कोई सहायता नहीं होगी, और इससे प्रभु यीशु के बारे में सुनने में उनकी रुचि उत्पन्न होने में बाधा आएगी। प्रभु यीशु के प्रति अपनी दृढ़ता दिखाने और अपने मसीही विश्वास के साथ समझौता न करने में उनकी मान्यताओं और पूजनीय वस्तुओं के प्रति हीनता की कोई टिप्पणी न करें।

यद्यपि सर्वोत्तम तो मसीही विश्वास के अनुसार मसीही रीति से विवाह करना है, किन्तु यदि इस बात की संभावना नहीं रहती है और कोई अन्य मार्ग नहीं बचता है तो ऐसे में, समझौते का एक संभव मार्ग है “कानूनी विवाह” या “न्यायालय में विवाह” कर लिया जाए, क्योंकि ऐसे विवाह में कोई धार्मिक अनुष्ठान या रीति-रिवाज़ नहीं होते हैं, इसलिए दोनों ही पक्ष दूसरे के धार्मिक अनुष्ठानों के निर्वाह करने या उन्हें चुनौती देने से बचे रह सकते हैं। ऐसे विवाह के पश्चात आप विवाह के प्रीति-भोज या समारोह में चर्च के अगुवों द्वारा नव-विवाहितों को आशीष देने का आयोजन कर सकते हैं; तथा उस समारोह में किसी प्रचारक या मसीही अगुवे के द्वारा वहाँ उपस्थित सभी परिवार जनों को सुसमाचार सन्देश देने का यह एक अच्छा अवसर भी हो सकता है। इस प्रकार से विवाह भी वैध तथा स्वीकार्य रहेगा, किसी के भी परिवार को धार्मिक आधार पर कोई ठेस नहीं पहुंचेगी, और समारोह में उपस्थित लोगों को उद्धार का सुसमाचार देने का अवसर भी मिल जाएगा।