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सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

परमेश्वर अपने बच्चों के लिए भौतिक समृद्धि किस प्रकार प्रदान करता है?




परमेश्वर के वचन बाइबल में आरंभ से ही जीविका के लिए कार्य करना सिखाया गया है। परमेश्वर ने आदम को बनाया, उसी के लिए अदन की वाटिका लगाई, परन्तु उस वाटिका की देखभाल करने का कार्य आदम को सौंपा (उत्पत्ति 2:8, 15)। इस्राएल ने भी, वाचा की भूमि कनान की जंगल की यात्रा के दौरान, यद्यपि उन चालीस वर्षों में कुछ बोया या काटा नहीं, परन्तु उन्हें प्रति प्रातः उठकर अपने लिए मन्ना एकत्रित करने के लिए परिश्रम करना होता था; यदि वे ऐसा नहीं करते, तो दिन चढ़ने के साथ वह मन्ना जाता रहता था (निर्गमन 16:21)। कनान में पहुँचने का बाद भी, उन्हें उस स्थान को अपना बनाने के लिए युद्ध लड़ने पड़े, और उस उपजाऊ भूमि के लाभ अर्जित करने के लिए उसमें खेती और काम करना पड़ा। इस्राएल के शत्रुओं को पराजित करने के लिए जब परमेश्वर ने उनकी ओर से युद्ध किए तब भी, उन्हें जाकर युद्ध भूमि में पाँति बांधकर उपस्थित होना था (2 इतिहास 20:14-17), और उसके बाद युद्ध की लूट को एकत्रित करने के लिए जाना था (2 इतिहास 20:25)। परमेश्वर के किसी भी जन को आराम से घर बैठने के द्वारा कभी कुछ नहीं मिला, और आलसी होकर बिना कार्य किए परमेश्वर द्वारा उनकी जेबें भरने की प्रतीक्षा करने से भी किसी को कुछ प्राप्त नहीं हुआ है, वह चाहे आत्मिक आशीष हो या भौतिक; उन्हें सदा ही अपनी जीविका कमाने और परिवारों की देखभाल करने के लिए परिश्रम करना पड़ा है यह हमारे आदि माता-पिता द्वारा किए गए प्रथम पाप की विरासत "और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा " (उत्पत्ति 3:19) का निर्वाह है। स्वयँ प्रभु यीशु मसीह ने भी अपनी सेवकाई आरंभ करने से पहले बढ़ई का कार्य किया था (मरकुस 6:3)। परमेश्वर के पवित्र आत्मा ने हमारे लिए अपने वचन में दर्ज करवा दिया है: " क्योंकि तुम आप जानते हो, कि किस रीति से हमारी सी चाल चलनी चाहिए; क्योंकि हम तुम्हारे बीच में अनुचित चाल न चले। और किसी की रोटी सेंत में न खाई; पर परिश्रम और कष्‍ट से रात दिन काम धन्‍धा करते थे, कि तुम में से किसी पर भार न हो। यह नहीं, कि हमें अधिकार नहीं; पर इसलिये कि अपने आप को तुम्हारे लिये आदर्श ठहराएं, कि तुम हमारी सी चाल चलो। और जब हम तुम्हारे यहां थे, तब भी यह आज्ञा तुम्हें देते थे, कि यदि कोई काम करना न चाहे, तो खाने भी न पाए। हम सुनते हैं, कि कितने लोग तुम्हारे बीच में अनुचित चाल चलते हैं; और कुछ काम नहीं करते, पर औरों के काम में हाथ डाला करते हैं। ऐसों को हम प्रभु यीशु मसीह में आज्ञा देते और समझाते हैं, कि चुपचाप काम कर के अपनी ही रोटी खाया करें।” (2 थिस्सलुनीकियों 3: 7-12)। पौलुस और उसके साथी, यद्यपि उनका प्राथमिक कार्य परमेश्वर के सुसमाचार का प्रचार और प्रसार था, फिर भी वे अपनी जीविका तथा औरों की सहायता के लिए कमाने के लिए परिश्रम करते थे (1 थिस्सलुनीकियों 2:7-10), और यही सभी को भी करना चाहिए। परमेश्वर के वचन में, कार्य करने वालों को निर्देश दिया गया है कि वे विश्वासयोग्यता से कार्य करें, यह मानकर कि वे मनुष्यों के लिए नहीं परन्तु परमेश्वर के लिए कर रहे हैं, और परमेश्वर ही उन्हें उसका प्रतिफल देगा (कुलुस्सियों 3:22-25; 1 पतरस 2:18-21)। इसलिए समृद्ध होने के लिए सबसे पहली बात जो मसीही विश्वासी को पूरी करनी है वह है एक सत्यनिष्ठ, ईमानदार, और उद्यमी व्यक्ति होना, उसे सौंपे गए कार्यों एवं दायित्वों का निर्वाह अपने विश्वास, और अपने प्रभु की गवाही के लिए करना और उससे अपने उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह की महिमा करना (1 पतरस 2:12) यह भरोसा रखते हुए कि परमेश्वर उसकी निष्ठा और उद्यम का उचित प्रतिफल, अपने समय और विधि से अवश्य देगा।

दूसरे, जैसा कि पौलुस के जीवन से प्रगट है, अपने सांसारिक कार्यों के अतिरिक्त, हमें परमेश्वर के कार्यों के लिए भी समय और अवसर के खोजी रहना है, ऐसा करना अति आवश्यक है। उसकी प्रत्येक नया जन्म पाई सन्तान के लिए, परमेश्वर ने पहले से ही करने के लिए कुछ-न-कुछ निर्धारित करके रखा हुआ है (इफिसियों 2:10), और उसके अनुसार उन्हें आवश्यक वरदान भी प्रदान किए हैं। इसके लिए वह उपयुक्त अवसर हमारी ओर भेजता है, जिससे परमेश्वर द्वारा निर्धारित हमारी सेवाकाईयों का हम निर्वाह कर सकें। यदि हम जो कार्य परमेश्वर चाहता है कि हम करें, उसके प्रति निश्चित नहीं हैं, तो हमें परमेश्वर से इसके विषय और जानकारी लेने के लिए प्रार्थना में समय बिताना चाहिए। हमारी सेवकाई के कार्यों के लिए परमेश्वर की इच्छा जानने का एक संकेत हमारे पास आने वाली सेवकाई के प्रकार के अवसर हो सकते हैं, या वह सेवकाई जो हमें रुचिकर लगती है, या वह जिसे हम देखते हैं कि बहुधा लोग हमें सौंपते हैं। हमें अपने आप को परमेश्वर की सेवकाई के लिए परमेश्वर को, हमारी मण्डली या कलीसिया को, और हमारी संगति को, उपलब्ध करना चाहिए, और हमें परमेश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिए कि वह हमें उन दायित्वों में लेकर चले जो वह चाहता है कि हम निभाएं। 3 यूहन्ना 1:2 में लिखा है:हे प्रिय, मेरी यह प्रार्थना है; कि जैसे तू आत्मिक उन्नति कर रहा है, वैसे ही तू सब बातों मे उन्नति करे, और भला चंगा रहे।दूसरे शब्दों में, परमेश्वर की कार्यविधि के अनुसार, हमारी भौतिक समृद्धि, हमारी आत्मिक समृद्धि के साथ जुड़ी हुई है। जैसे जैसे हम आत्मिक रीति से समृद्ध होते जाते हैं, हम भौतिक रीति से भी समृद्ध होते जाते हैं। हम जब परमेश्वर के कार्यों के प्रति सजग और उद्यमी होते हैं, परमेश्वर हमारी तथा हमारे परिवारों की देखभाल के प्रति कार्यरत होता है।

तीसरा, हमारे पास अभी जो भी आमदनी है, हमें जो भी मिलता है, वह चाहे कितना भी कम या अधिक हो, हमें उसमें से अपना दशमांश अवश्य देना चाहिए। परमेश्वर ने दशमांश देने के लिए कभी किसी न्यूनतम आय सीमा को निर्धारित नहीं किया, जिसे जो भी मिलता था, उसे उतने में से ही दशमांश देना था। हम परमेश्वर को जितना अधिक देंगे, परमेश्वर उसके अनुपात में उतना अधिक हमें लौटा कर देगा। हम जो भी कमाते हैं, चाहे थोड़ा या बहुत, हमें उसमें से नियमित और ईमानदारी से दशमांश निकालकर चर्च या मण्डली में दे देना चाहिए, न कि उसे अपनी इच्छा अथवा समझ के अनुसार परमेश्वर के नाम में कहीं खर्च कर देना चाहिए। जैसा कि मलाकी  3:10 में लिखा है, हमें उसे परमेश्वर के भवन में लाना और देना है; इसके बाद ही शेष भाग को अपनी आवश्यकताओं के लिए प्रयोग करना चाहिए; और हम स्वयं देखेंगे कि परमेश्वर इसके द्वारा हमें कैसे आशीषित करता है। इस बात का बहुत अच्छा उदाहरण कि कैसे परमेश्वर दशमांश देने के उसके वचन पर विश्वास और पालन करने वालों को आशीषित करता है विलियम कोलगेट का जीवन है, जो विश्वप्रसिद्ध कोलगेट टूथपेस्ट बनाने वाली कंपनी का संस्थापक था: (https://en.wikipedia.org/wiki/William_Colgate)। इसलिए, हमें शैतान को हमारे मनों में यह भय नहीं उत्पन्न करने देना चाहिए कि हम दशमांश देना आर्थिक रीति से बर्दाशत नहीं करने पाएँगे, क्योंकि इस भय के पालन के द्वारा वह हमारी आशीषें हम से चुरा लेता है; वरन, हमें परमेश्वर और उसके वचन पर भरोसा रखते हुए नियमित दशमांश देना चाहिए। बिना पहले बीज बोए कोई भी फसल नहीं काट सकता है; हमारी आशीषों की फसल के लिए हमारे दशमांश ही वे बोया गया बीज हैं बोए गए बीज की गुणवत्ता और मात्रा ही मिलने वाली फसल की मात्रा और गुणवत्ता को निर्धारित करती है।

चौथा, हमें परमेश्वर से प्रार्थना करना और जानना चाहिए कि अपने रोज़गार को और उन्नत बनाने के लिए क्या हमें और अध्ययन या प्रशिक्षण लेना चाहिए कि नहीं। आजकल इंटरनेट के माध्यम से अध्ययन, प्रशिक्षण तथा कार्य करने के अनेकों साधन और अवसर उपलब्ध हैं, जिनका हम सदुपयोग कर सकते हैं, जिससे हम कमा भी सकते, और साथ ही अपने कार्य तथा अपनी आय को बढ़ा भी सकते हैं।

यह सब परमेश्वर की इच्छा और मार्गदर्शन में करने के द्वारा, हम पाएँगे कि किसी प्रकार से हमें यह सब करने के लिए पर्याप्त समय भी मिलेगा, और इसके लिए आवश्यक सामर्थ्य तथा बुद्धिमता भी, जिससे हम न केवल अपना वर्तमान सांसारिक कार्य भी भली भांति करने पाएंगे वरन परमेश्वर के लिए भी उपयोगी रहेंगे, अपने परिवारों की देखभाल भी करने पाएँगे, और आवश्यक अध्ययन या प्रशिक्षण के द्वारा अपनी आय की वृद्धि के लिए व्संसाधन भी जुटा भी सकेंगे। जब यह सब परमेश्वर की इच्छा और मार्गदर्शन में किया जाएगा, तो इन सभी दायित्वों के योग्य निर्वाह के संघर्ष में विजय दिलवाना परमेश्वर का दायित्व होगा; और हमें बस अपने आप को उस युद्ध भूमि में खड़े होकर परमेश्वर के कार्य को देखना होगा और फिर जाकर आशीष को एकत्रित करना होगा।

कठिन समयों में सान्तवना तथा प्रोत्साहन के लिए बाइबल का एक बहुत अच्छा खण्ड है यशायाह 40:27-31 “हे याकूब, तू क्यों कहता है, हे इस्राएल तू क्यों बोलता है, मेरा मार्ग यहोवा से छिपा हुआ है, मेरा परमेश्वर मेरे न्याय की कुछ चिन्ता नहीं करता? क्या तुम नहीं जानते? क्या तुम ने नहीं सुना? यहोवा जो सनातन परमेश्वर और पृथ्वी भर का सृजनहार है, वह न थकता, न श्रमित होता है, उसकी बुद्धि अगम है। वह थके हुए को बल देता है और शक्तिहीन को बहुत सामर्थ देता है। तरूण तो थकते और श्रमित हो जाते हैं, और जवान ठोकर खाकर गिरते हैं; परन्तु जो यहोवा की बाट जोहते हैं, वे नया बल प्राप्त करते जाएंगे, वे उकाबों के समान उड़ेंगे, वे दौड़ेंगे और श्रमित न होंगे, चलेंगे और थकित न होंगे

शनिवार, 19 जनवरी 2019

जाति लाभ और मसीही विश्वास




एक नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, अर्थात, उद्धार पाया हुआ व्यक्ति होने का अर्थ है कि व्यक्ति ने अपने पापों से पश्चाताप करके प्रभु यीशु मसीह को अपना निज उद्धारकर्ता स्वीकार किया है, उसे अपना जीवन समर्पित कर दिया है, और अब से प्रभु यीशु ही उसके जीवन का प्रभु एवँ स्वामी है, और वह व्यक्ति प्रभु यीशु को समर्पित एवँ उसका आज्ञाकारी है (लूका 6:46)। उद्धार पा लेने पर, स्वतः ही व्यक्ति के साथ कुछ बातें जुड़ जाती हैं, और कुछ जिम्मेदारियां आ जाती हैं। उद्धार पा लेने पर व्यक्ति परमेश्वर के परिवार का सदस्य बन जाता है (यूहन्ना 1:12-13; इफिसियों 2:19), वह एक पूर्णतः नई सृष्टि हो जाता है (2 कुरिन्थियों 5:17), वह सँसार के अनुसार नहीं वरन परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलने वाला हो जाता है (रोमियों 12:1-2)। उद्धार पाए हुए व्यक्ति का दृष्टिकोण स्वर्गीय होना चाहिए (कुलुसियों 3:1-2), और उसे सँसार की बातों में उलझने या फँसने से बचकर रहना चाहिए (1 यूहन्ना 2:15-17; 1 पतरस 2:11-12)। सच्चे जीवित परमेश्वर के विषय जान एवँ सीख लेने के पश्चात, परमेश्वर की सेवकाई के लिए, यहोशू के रवैये का पालन करना ही सर्वोत्तम होता है (यहोशू 24:14-15)

उद्धार पाया हुआ व्यक्ति अब प्रभु यीशु का जन है और उसके जीवन का उद्देश्य अब से अपने उद्धारकर्ता प्रभु यीशु के लिए जीवन जीना तथा अपने जीवन की सब बातों में तथा सब बातों के द्वारा अपने उद्धारकर्ता प्रभु को महिमा देना होना चाहिए (1 कोरिन्थियों 6:19-20; 2 कोरिन्थियों 5:15)। क्योंकि अब, उद्धार पा लेने के बाद से, वह परमेश्वर के परिवार का सदस्य हो गया है, इसलिए वह अपने स्वर्गीय पिता परमेश्वर की ज़िम्मेदारी भी है; और परमेश्वर ने उसकी प्रत्येक आवश्यकता को पूरा करने (मत्ती 6:24-34; फिलिप्पीयों 4:19), उसे कभी न छोड़ने या त्यागने (इब्रानियों 13:5-6), और उसे सभी परीक्षाओं में सुरक्षित रखने (1 कुरिन्थियों 10:13) की प्रतिज्ञा दी है। इसलिए अपनी किसी भी आवश्यकता के लिए, किसी भी सांसारिक लाभ या उपलब्धि के लिए, उसके लिए पिता परमेश्वर को छोड़ किसी अन्य की ओर देखना या किसी अन्य पर भरोसा करना पिता परमेश्वर की अपने बच्चों के प्रति प्रतिज्ञाओं और विश्वासयोग्यताओं को नगण्य समझना, उसका अनादर करना, उसमें और उसकी प्रतिज्ञाओं में उचित विश्वास नहीं रखना, तथा शैतान एवँ सँसार को परमेश्वर और उसके लोगों तथा उनके विश्वास का उपहास एवँ अपमान करने का अवसर प्रदान करना है।

मसीही विश्वास में कोई जातिवाद अथवा जातिभेद का स्थान अथवा मान्यता नहीं है। पिता परमेश्वर के सामने सभी मसीही विश्वासी एक समान हैं (कुलुसियों 3:11), कोई भी किसी अन्य से बड़ा या छोटा नहीं है। इसलिए अपने आप को किसी अन्य व्यक्ति से नीचा या ऊँचा समझना या बनाना, (अपने आप को किसी सांसारिक उद्धार नहीं पाए हुए व्यक्ति के स्थान पर रखने या समान देखने के द्वारा, और वह भी थोड़ी सी नाश्मान सांसारिक वस्तुओं के लिए, जिनकी प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रभु यीशु के अतिरिक्त किसी अन्य को सीधे अथवा अप्रत्यक्ष रीति से ईश्वरीय स्तर प्रदान या स्वीकार करना होगा, अपने आप को उस पर विश्वास करने वाले सांसारिक लोगों के समान दिखाने के द्वारा), परमेश्वर के अचूक, अपरिवर्तनीय, सनातन वचन की शिक्षाओं के विरुध्द जाना है; और उसका अपमान करना है और परमेश्वर ठट्ठों में नहीं उड़ाया जाता है; परमेश्वर के विरुद्ध किए गए ऐसे निन्दनीय, तथा उसका इन्कार करने के तुल्य कुकृत्यों के गंभीर परिणाम होते हैं (गलतियों 6:7-8; यहोशू 23:16)

इसलिए अपने मसीही विश्वास को छिपाने के ढोंग के स्थान पर उसे प्रगट करके रखना ही उचित होता है, चाहे उसके परिणाम जो भी हों (मत्ती 10:16-18, 22; 24:9; मरकुस 13:9)। जो लोग मसीही विश्वास में आने के बाद भी जाति के आधार पर, किसी भी प्रकार से, सांसारिक लाभों को लेने का प्रश्न को उठाते हैं, उन्हें भय होता है कि यदि वे अपने मसीही विश्वास को प्रगट करेंगे तो उन्हें "पिछड़ी जाति या वर्ग" का होने के कारण मिलने वाले लाभ फिर नहीं मिलेंगे; और उन लाभों को पाने के लालच में वे अपने मसीही विश्वास को छुपाए रखते हैं। किन्तु ऐसा करने से वे ढोंगी होने तथा परमेश्वर के वचन की शिक्षाओं के प्रतिकूल होने के दोषी हो जाते हैं, जो कि उनके लिए सांसारिक तथा आत्मिक दोनों ही स्तरों पर गंभीर हानि का कारण हो सकता है। विश्वास रखें कि अपने मसीही विश्वास को प्रगट करने के कारण होने वाली थोड़ी सी सांसारिक बातों की हानि से आप कभी नुकसान में नहीं रहेंगे, क्योंकि उससे कई गुना अधिक भरपाई परमेश्वर कर सकता है और करेगा (मत्ती 19:29; मरकुस 10:30; 1 कुरिन्थियों 2:9)। किन्तु मसीही विश्वास और प्रभु का इस प्रकार इन्कार, तथा उसकी और उसके विश्वासियों की निंदा एवं उपहास का कारण बनने से ऐसे व्यक्ति तथा उसके परिवार जनों की होने वाली दीर्घकालीन हानि की कल्पना और गणना कर पाना असंभव है; इसके दुष्प्रभाव उसकी तीसरी से चौथी पीढ़ी तक जाएंगे (निर्गमन 20:5-7)

परमेश्वर की देखभाल और कृपा का आनन्द लेने का एकमात्र तरीका है परमेश्वर पर पूर्णतः विश्वास रखना (इब्रानियों 11:6; यशायाह 40:31), अपने जीवन और कार्यों के द्वारा उसे आदर देना; और2 कुरिन्थियों  6:14-18 के अनुसार अपने आप को सँसार और सांसारिकता से पृथक रखें।