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सोमवार, 19 अप्रैल 2021

मत्ती 16:28 को समझना

 

प्रश्न: मत्ती 16:28 में प्रभु यीशु द्वारा कही गई बात  "जो यहाँ खड़े हैं, उनमें से कुछ ऐसे हैं कि वे जब तक मनुष्य के पुत्र को उसके राज्य में आते हुए ना देख लेंगे, तब तक मृत्यु का स्वाद नहीं चखेंगे" को हम कैसे समझ सकते हैं?

 

उत्तर:

 प्रभु के राज्य, या स्वर्ग के राज्य से संबंधित प्रश्न में प्रभु के द्वारा कही बात को समझने के लिए कुछ अन्य पदों को भी ध्यान में रखकर चलना पड़ेगा। हमारी सामान्यतः यही स्वाभाविक धारणा होती है कि जैसे ही वाक्यांश “स्वर्ग का राज्य” या “परमेश्वर का राज्य” सामने आए, तो हम उसे भविष्य में, इस जगत के अंत तथा न्याय के साथ स्थापित होने वाले परमेश्वर के राज्य के रूप में देखें और समझें। इसमें कुछ गलत नहीं है, यह समझना ठीक तो है, किन्तु यहाँ पर प्रभु द्वारा कही गई बात की यही एकमात्र समझ भी नहीं है; क्योंकि यदि यही अर्थ लिया जाए तो यह इसे प्रभु यीशु के दूसरे आगमन के साथ जोड़ देता है, जिसकी तिथि अनिश्चित है, और आज लगभग 2000 वर्षों से जिसकी प्रतीक्षा चल रही है। इसीलिए मत्ती 16:28 की यह बात अव्यावहारिक और स्वीकार करने में कठिन प्रतीत होती है। साथ ही यदि मत्ती 21:31 में प्रभु यीशु द्वारा अपने विरोधियों और आलोचकों से कहे गई बात को देखें, जहाँ लिखा है “...यीशु ने उन से कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि महसूल लेने वाले और वेश्या तुम से पहिले परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करते हैं।” यहाँ पर हम देखते हैं कि प्रभु यीशु यहाँ परमेश्वर/स्वर्ग के राज्य में महसूल लेने वालों और वेश्याओं के प्रवेश के लिए निरंतर ज़ारी वर्तमान काल (Present Continuous Tense) का प्रयोग कर रहा है, न कि भविष्य काल (Future Tense) – ‘वे प्रवेश करेंगे का, अथवा अनिश्चितता का – ‘वे कर सकते हैं, का। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस समय प्रभु यीशु यह बात कह रहे थी, उस समय भी यह कार्य – लोगों का परमेश्वर/स्वर्ग के राज्य में प्रवेश होना ज़ारी था, हो रहा था; इसलिए परमेश्वर/स्वर्ग के राज्य में प्रवेश होने को केवल भविष्य की बात समझना ही एकमात्र तात्पर्य नहीं है।


प्रभु द्वारा मत्ती 16:28 में कही गई इस बात को समझने के लिए, उनकी पृथ्वी की सेवकाई के समय में प्रभु द्वारा कही गई कुछ बातों को देखिए:


यूहन्ना के पकड़वाए जाने के बाद यीशु ने गलील में आकर परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार प्रचार किया। और कहा, समय पूरा हुआ है, और परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है; मन फिराओ और सुसमाचार पर विश्वास करो” (मरकुस 1:14-15)। प्रभु ने अपनी सेवकाई का आरंभ पश्चाताप करने के आह्वान के साथ किया क्योंकि “परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है” – प्रभु के शब्दों पर ध्यान कीजिए, वह राज्य दूर भविष्य में नहीं है, वरन निकट है – आ ही गया है; राज्य निकट आने वाला है नहीं कहा, वरन निकट आ गया है कहा।


प्रभु स्वयं लूका 11:20 में कहता है, "परन्तु यदि मैं परमेश्वर की सामर्थ से दुष्टात्माओं को निकालता हूं, तो परमेश्वर का राज्य तुम्हारे पास आ पहुंचा"; अर्थात प्रभु यीशु की उपस्थिति और कार्य परमेश्वर के राज्य के विद्यमान होने के को दिखाते हैं। इसके कुछ समय पश्चात, “जब फरीसियों ने उस से पूछा, कि परमेश्वर का राज्य कब आएगा? तो उसने उन को उत्तर दिया, कि परमेश्वर का राज्य प्रगट रूप से नहीं आता। और लोग यह न कहेंगे, कि देखो, यहां है, या वहां है, क्योंकि देखो, परमेश्वर का राज्य तुम्हारे बीच में है” (लूका 17:20-21)। सेवकाई का आरम्भ करते हुए प्रभु कहता है कि परमेश्वर का राज्य निकट है; सेवकाई के दौरान, प्रभु, परमेश्वर के वचन के ज्ञानी फरीसियों को सिखाता है कि परमेश्वर का राज्य किसी वस्तु या घटना के समान प्रगट होने के द्वारा नहीं आता है, वरन वह तो अभी उनके मध्य में ही है, अर्थात उस समय प्रभु की उनके मध्य उपस्थिति में है, यदि वे प्रभु पर विश्वास कर लेते, प्रभु को स्वीकार कर लेते, तो परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर जाते।


मरकुस 12:28-34 को देखिए; शास्त्री प्रभु को परमेश्वर की आज्ञाओं के विषय फँसाना चाहते हैं; उस वार्तालाप के अंत में प्रभु उस प्रश्न करने वाले शास्त्री से कहता है, जिसने प्रभु के उत्तरों को बिना कोई अन्य प्रश्न उठाए स्वीकार कर लिया था, जब यीशु ने देखा कि उसने समझ से उत्तर दिया, तो उस से कहा; तू परमेश्वर के राज्य से दूर नहीं: और किसी को फिर उस से कुछ पूछने का साहस न हुआ” (मरकुस 12:34)। अर्थात, प्रभु उस शास्त्री से कह रहा था कि परमेश्वर की आज्ञाओं की सही समझ को स्वीकार करने के कारण तू परमेश्वर के राज्य से दूर नहीं है, अब अपने इस किताबी ज्ञान को व्यावहारिक भी बना ले, इसे अपने जीवन में लागू कर ले, परमेश्वर की आज्ञाओं को मान ले, और तू परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर लेगा।


उपरोक्त बातों से हम समझ सकते हैं कि परमेश्वर का राज्य या स्वर्ग का राज्य, प्रभु यीशु जिसकी बात करता और सिखाता था, वह प्रभु को स्वीकार करना, उसकी आज्ञाकारिता में हो जाना, उसे समर्पित हो जाना है, जो कि यूहन्ना 1:12-13 के भी अनुरूप है – प्रभु पर लाए गए विश्वास के द्वारा परमेश्वर की संतान बनना, उसके राज्य में उसके साथ रहने के हकदार हो जाना।


प्रभु यीशु ने अपने पकड़वाए जाने से कुछ ही पहले अपने शिष्यों से यूहन्ना 14:18-20 में यह भी कहा: “मैं तुम्हें अनाथ न छोडूंगा, मैं तुम्हारे पास आता हूं। और थोड़ी देर रह गई है कि फिर संसार मुझे न देखेगा, परन्तु तुम मुझे देखोगे, इसलिये कि मैं जीवित हूं, तुम भी जीवित रहोगे। उस दिन तुम जानोगे, कि मैं अपने पिता में हूं, और तुम मुझ में, और मैं तुम में।” अर्थात अदृश्य रूप में प्रभु अपने शिष्यों के साथ अपने बलिदान और पुनरुत्थान के बाद से ही सदा बना रहने का वायदा करता है, और तब से लेकर आज तक बना हुआ भी है।


प्रभु यीशु के क्रूस पर दिए गए बलिदान, और उसके मृतकों में से पुनरुत्थान के साथ ही समस्त मानव जाति के लिए उद्धार का, स्वर्ग में प्रवेश का, मार्ग खुल गया और उपलब्ध हो गया, और वे प्रभु में लाए गए विश्वास और पापों से पश्चाताप के द्वारा उसमें प्रवेश पा सकते थे; स्वर्ग का राज्य या परमेश्वर का राज्य अब उन्हें उपलब्ध था।


इन बातों को ध्यान में रखते हुए, जब आप मत्ती 16:19 में प्रभु द्वारा पतरस से कही बात को तथा इस पद से पूर्व के पदों में कलीसिया अर्थात मसीही विश्वासियों के समूह के बनाए जाने की बात के सन्दर्भ में देखते हैं, तो प्रभु द्वारा पतरस से कही गई बात को इस प्रकार समझा जा सकता है: “मैं तुझे स्वर्ग के राज्य में लोगों को प्रवेश करवाने की कुंजियाँ, यानि कि उद्धार का सुसमाचार, दूँगा, और जो वह सुसमाचार ग्रहण कर लेगा, अर्थात वह कुंजी ले लेगा, उसके लिए स्वर्ग में प्रवेश का द्वार खुल जाएगा; जो वह कुंजी, वह सुसमाचार अस्वीकार करेगा, उसके लिए स्वर्ग में प्रवेश का द्वार बंद रह जाएगा” – और हम देखते हैं कि प्रेरितों 2 अध्याय में पतरस द्वारा पहली बार इस कुंजी के प्रयोग के द्वारा, पतरस द्वारा पहला सुसमाचार प्रचार किए जाने के परिणामस्वरूप तीन हज़ार लोगों ने पश्चाताप किया प्रभु को ग्रहण किया, प्रभु यीशु के शिष्य बन गए (प्रेरितों 2:41) और पतरस द्वारा उन्हें दी गई उस सुसमाचार की कुंजी के उनके स्वीकार कर लेने से उनके लिए स्वर्ग के राज्य में प्रवेश का द्वार खुल गया।


यही सन्दर्भ मत्ती 16:28 पर भी लागू होता है। प्रभु यीशु ने जिस समय यह बात कही थी, उस समय वहां उपस्थित लोगों में से बहुतेरे लोग पतरस के इस पहले प्रचार किए जाने, और कलीसिया की स्थापना होने के समय तक जीवित रहे होंगे, और संभव है उन में से अनेकों प्रेरितों 2 अध्याय की इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी भी रहे होंगे। उन्होंने मृत्यु का स्वाद चखने के पहले ही स्थापित होते देख लिया; परमेश्वर के पुत्र, प्रभु यीशु के राज्य के आगमन को, लोगों द्वारा प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास के द्वारा प्रभु को उन लोगों के जीवनों में प्रवेश करते और उनके जीवनों को परिवर्तित करते हुए देख लिया। और साथ ही, जैसा प्रभु यीशु ने शिष्यों से प्रतिज्ञा की, वह अपने चेलों के साथ तब भी था और आज भी है। इस प्रकार मत्ती 16:28 की सभी बातें पतरस के पहले प्रचार के समय बनी पहली कलीसिया में पूरी हो जाती हैं। इसकी पूर्ति के लिए केवल प्रभु यीशु के दूसरे आगमन को ही लेने की आवश्यकता नहीं है – जो इसे स्वीकार करने में आने वाली कठिनाई का कारण होता है।

यह एक बार फिर से इस तथ्य की पुष्टि है कि परमेश्वर के वचन को समझने में त्रुटियों से बचने के लिए प्रभु के वचन को सदा ही उसके सन्दर्भ में तथा अन्य संबंधित पदों और शिक्षाओं के साथ ही देखना और समझाना चाहिए।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

मत्ती 11:12 को समझना


 मत्ती 11:12 बाइबल के पेचीदा खण्डों में से एक है, और विभिन्न व्याख्या कर्ताओं ने इसे विभिन्न अर्थ दिए हैं।

ऐसे खण्डों को समझने के लिए, इस बात को ध्यान में रखना होता है कि भाषा और शब्दों के प्रयोग तथा उनके अर्थों में, समय के साथ परिवर्तन आते रहते हैं, और बीते समय में शब्द का जो अर्थ हुआ करता था (मूल एवं अनुवादित भाषा, दोनों में), आवश्यक नहीं कि आज भी वही अर्थ या वैसा ही प्रयोग उतना ही उचित माना जाए।

इस पद को समझने में आने वाली कठिनाई का एक कारण है यहाँ प्रयुक्त हुए शब्द ‘बलपूर्वक तथा ‘बलवान; और सामान्यतः हमारे द्वारा इन शब्दों को एक नकारात्मक अर्थ के साथ देखना। मूल यूनानी भाषा के जिन शब्दों का अनुवाद ‘बलपूर्वक और ‘बलवान हुआ है, उनके अन्य अर्थ ‘सशक्त’ और ‘दृढ़ता पूर्वक’ भी हो सकते हैं।

अब यदि इन अन्य अर्थों के प्रयोग के साथ इस पद के वाक्य को बनाया जाए, तो वह कुछ इस प्रकार का होगा: “और यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के दिनों से लेकर अब तक प्रतिबद्ध लोग स्वर्ग के राज्य में सशक्त प्रयासों के द्वारा दृढ़ता पूर्वक के साथ प्रवेश करते जा रहे हैं” (मत्ती 11:12 भावानुवाद); और यह इस पद को एक अन्य इसी से संबंधित पद “व्यवस्था और भविष्यद्वक्ता यूहन्ना तक रहे, उस समय से परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाया जा रहा है, और हर कोई उस में प्रबलता से प्रवेश करता है” (लूका 16:16) के अधिक समरूप बना देता है।


इस पृष्ठभूमि के साथ, इस पद की एक संभव व्याख्या तथा समझ इस प्रकार व्यक्त की जा सकती है: “जब से यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने पश्चाताप करने और पश्चाताप के बपतिस्मे को लेने का आह्वान किया है, तब से लेकर अब तक, जितनों ने भी इस आह्वान को स्वीकार किया है, उन्होंने ऐसा मन में पक्का ठान कर तथा दृढ़ संकल्प के साथ किया है, इस निश्चित प्रयास के साथ कि समस्त प्रतिरोध का सामना करेंगे और इस बुलाहट में दृढ़ निश्चय के साथ बने रहेंगे।


किन्तु यहाँ पर साथ ही एक अन्य बात का भी ध्यान रखना चाहिए, जब प्रभु यीशु मसीह ने ये शब्द कहे थे, उस समय तक अनुग्रह के द्वारा उद्धार के युग का आरंभ नहीं हुआ था और लोग उस समय परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए व्यवस्था पर आधारित कर्मों की धार्मिकता पर ही विश्वास रखते तथा पालन करते थे, और इस लिए उनका मानना था कि परमेश्वर को ग्रहण योग्य होने के लिए उन्हें व्यवस्था के अनुरूप, प्रबल और सशक्त प्रयास करना आवश्यक है। साथ ही, प्रभु यीशु ने यहाँ पर बहुत विशिष्ट वाक्य प्रयोग किया हैऔर यूहन्ना बप्तिस्मा देने वाले के दिनों से लेकर अब तक ”, जो उनकी बात को एक निश्चित समय सीमा के साथ जोड़ देता है; और इस के पश्चात न तो किसी सुसमाचार लेख में और न ही किसी भी पत्री में इस अभिव्यक्ति (‘बल पूर्वक या ‘सशक्त या ‘दृढ़ता पूर्वक’ होना) को परमेश्वर के राज्य में प्रवेश पाने के लिए पूर्व-आग्रह या शर्त के समान फिर कहीं नहीं कहा गया है। इसलिए इस पद के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना कि परमेश्वर के राज्य में प्रवेश प्राप्त करने के लिए स्वयं के द्वारा किए गए प्रबल प्रयास आवश्यक हैं अनुचित है, पद की गलत व्याख्या है।


किन्तु परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा उसकी नया जन्म प्राप्त की हुई संतान के लिए, जिन्होंने अपने पापों से पश्चाताप कर के प्रभु यीशु मसीह को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार किया है, उनके लिए मसीही विश्वास में उन्नत होते जाने तथा अपनी मसीही बुलाहट की पवित्रता को बनाए रखने के लिए, सशक्त और दृढ़ प्रयास करते रहना सदा ही अनिवार्य रहे हैं, जैसा कि हम पौलुस की सेवकाई से देखते हैं जिसने अपने आप को सब कुछ सहते हुए भी दृढ़ता के साथ अनुशासन में बनाए रखा, और यही शिक्षा अपने युवा सहकर्मी तिमुथियुस को भी दी (1 कुरिन्थियों 9:24-27, 2 तिमुथियुस 2:3-5 & 4:7)


दूसरे शब्दों में, हमारे लिए जो इस अनुग्रह के युग में रहते हैं, उद्धार पाना और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के हकदार होना हमारे अपने किसी प्रयास से नहीं है वरन पूर्णतः परमेश्वर के अनुग्रह और प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास लाने से है। परन्तु मसीही विश्वास में आ जाने के पश्चात, उस में उन्नत एवं परिपक्व होते जाना तथा प्रभु के लिए सक्रिय एवं प्रभावी होना हमारे सशक्त एवं दृढ़ बने रहकर प्रतिरोध का सामना करने के निश्चय बनाए रखने तथा अपने विश्वास को सतत प्रयास के साथ निभाते रहने की माँग करता है।