पाने के लिए देना
परमेश्वर की ओर से सदा ही यह स्थापित रहा है कि उसके निर्देषों के अनुसार किए गए
किसी भी निवेष का प्रतिफल कलपना से कहीं बढ़कर होगा। जब परमेश्वर ने इस्त्राएलियों को
अपनी व्यवस्था और नियम दिए, तो उनका महत्वपूर्ण भाग था दशमांश, भेंटें, संपदा एवं बढ़ोतरी के प्रथम-फल परमेश्वर के घर में लाना और गरीबों की सहायता करना।
उसके इन निर्देषों के पालन का उद्देश्य था उसके आज्ञाकारी लोगों को आशीषित तथा फलवंत
करना; इस संदर्भ में परमेश्वर
ने कहा: "भला होता कि उनका मन सदैव ऐसा ही बना रहे, कि वे मेरा भय मानते हुए मेरी सब आज्ञाओं पर चलते रहें,
जिस से उनकी और उनके वंश की सदैव
भलाई होती रहे!" (व्यवस्थाविवरण 5:29)
समस्त युगों में इस्त्राएल का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि परमेश्वर के लोगों
ने जब भी परमेश्वर की आज्ञाकारिता में उसे तथा उसके कार्य के लिए अपनी संपदा में से
दिया है तो प्रत्युत्तर में उन्होंने सदा बढ़ोतरी ही पाई है। परन्तु जब भी उन्होंने
ऐसा नहीं किया है, तो सदा दुःख ही पाया है; और जो कुछ उन्होंने बचा कर रखना चाहा या सुरक्षित रखना चाहा वह भी उनके पास नहीं
बचा।
हिज़किय्याह राजा के समय में एक बड़ा सुधार आया; परमेश्वर के लोगों ने अपने आप को परमेश्वर के वचन की
आज्ञाकारिता में समर्पित किया, अपने आप को सही किया, और वे फिर से अपने दशमांश और भेंट परमेश्वर के घर में लाने लग गए जिससे परमेश्वर
के पुरोहितों और परमेश्वर के भवन की आवश्यकताएं पूरी हो सकें (2 इतिहास 31:1-11)। जब उन्होंने निष्ठापूर्वक अपने
दशमांश और भेंटें लाना आरंभ कर दिया तब परमेश्वर ने भी उन्हें बहुतायत से आशीषित करना
आरंभ कर दिया; जिससे अब अपनी बढ़ती में से परमेश्वर को देने के लिए उनके पास और भी अधिक हो गया,
और वे इतना अधिक लाने लगे कि
पुरोहितों तथा भवन की सारी आवश्यकताएं पूरी हो जाने के बाद भी बहुत बच गया,
और उनके दिए हुए के परमेश्वर
के भवन में ढेर लग गए क्योंकि उन्हें रखने के लिए भण्डार की कोठरियां शेष नहीं रह गईं
थीं; राजा हिज़किय्याह को उन
दशमांशों तथा भेटों को रखने के लिए नए कमरे बनवाने का आदेश देना पड़ा: "और अजर्याह
महायाजक ने जो सादोक के घराने का था, उस से कहा, जब से लोग यहोवा के भवन में उठाई हुई भेंटें लाने लगे हैं, तब से हम लोग पेट भर खाने को
पाते हैं, वरन बहुत बचा भी करता
है; क्योंकि यहोवा ने अपनी
प्रजा को आशीष दी है, और जो शेष रह गया है, उसी का यह बड़ा ढेर है। तब हिजकिय्याह ने यहोवा के भवन में कोठरियां तैयार करने
की आज्ञा दी, और वे तैयार की गई" (2 इतिहास 31:10-11)।
बाद में जब इस्त्राएल एक बार फिर परमेश्वर के पीछे चलने से भटक गया और परेशानियों
में पड़ गया, तब परमेश्वर ने उन्हें फिर से स्मरण करवाया: "सारे दशमांश भण्डार में ले आओ
कि मेरे भवन में भोजनवस्तु रहे; और सेनाओं का यहोवा यह कहता है, कि ऐसा कर के मुझे परखो कि मैं आकाश के झरोखे तुम्हारे लिये
खोल कर तुम्हारे ऊपर अपरम्पार आशीष की वर्षा करता हूं कि नहीं" (मलाकी3:10)।
बुद्धिमान राजा सुलेमान के द्वारा परमेश्वर के आत्मा ने लिखवा दिया कि: "अपनी
संपत्ति के द्वारा और अपनी भूमि की पहिली उपज दे देकर यहोवा की प्रतिष्ठा करना;
इस प्रकार तेरे खत्ते भरे और
पूरे रहेंगे, और तेरे रसकुण्डों से नया दाखमधु उमण्डता रहेगा" (नीतिवचन 3:9-10)।
इन शब्दों पर ध्यान दीजिए - "अपनी संपत्ति के द्वारा और अपनी भूमि की पहिली
उपज दे देकर यहोवा की प्रतिष्ठा करना..."; परमेश्वर की सनतान होने के नाते हमें इसका अंगीकार करना
और ध्यान रखना है कि हमारे पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर के अनुग्रह से हमें दिया गया
है (व्यवस्थाविवरण 8:18)। हमारे पास जो भी है, चाहे पार्थिव संपदा; या कोई कौशल, योग्यता, सामर्थ्य या बुद्धि-ज्ञान की प्रतिभा; या कोई आत्मिक वरदान - चाहे जो भी हो, वह सब कुछ परमेश्वर के अनुग्रह
से हमें दिया गया है। ये सभी परमेश्वर द्वारा उसके खेत - अर्थात संसार के लोगों में
बोने के लिए दिए गए बीज हैं। अब यह हमारे ऊपर है कि चाहे हम इस बीज को अपने लिए इस्तेमाल
कर के समाप्त कर लें, या फिर उसे बोएं और बहुतायत की फसल जो हमें तथा दूसरों को आशीषित करे पाएं। जब
तक हम परमेश्वर की खेती में जाना, अपने हाथों को खोल कर उसके दिए बीजों को उसके लिए बोना नहीं सीखेंगे, हम परमेश्वर की आशीषों की फसल
की बहुतायत का अनुभव भी नहीं करने पाएंगे (नीत्वचन 10:22)।