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रविवार, 28 अप्रैल 2019

चतुर भण्डारी (लूका 16:1-13)



यह दृष्टांत प्रभु यीशु द्वारा दिए गए दृष्टांतों और शिक्षाओं में से, समझने और समझाने में, सबसे कठिन में से एक है। कठिनाई मुख्यतः इस कारण है क्योंकि जो हम पढ़ते और देखते हैं उससे यह स्पष्ट है कि उस भण्डारी ने गलत किया है, वह बेईमान रहा है, परन्तु फिर भी ऐसा लगता है मानो प्रभु उसकी सराहना कर रहे हैं, और उसे अनुसरण के योग्य उदाहरण के समान प्रस्तुत कर रहे हैं। यह कुछ सीमा तक सत्य भी है, परन्तु पूर्णतया नहीं।

इस दृष्टांत में प्रभु के अभिप्राय को समझने के लिए हमें उस भण्डारी द्वारा प्रयुक्त बातों पर ध्यान देना होगायोजना बनना, चतुराई, बुद्धिमत्ता, उद्देश्य या लक्ष्य साधना, और उचित कार्यविधि अपनाना, जिससे वह अपनी परिस्थिति का सर्वोत्तम उपयोग कर सके। अन्त के पदों से, अर्थात 10 से 13 पदों से, यह बिलकुल स्पष्ट है कि प्रभु बेईमानी के विरुद्ध तथा गलत तरीकों से कमाए गए धन के विरुद्ध है; अतः इसमें कोई संदेह नहीं है कि, यहाँ प्रभु अपने शिष्यों से न तो यह कह रहे थे और न ही अभिप्राय दे रहे थे कि उस भण्डारी की बेईमानी अनुसरणीय है। किन्तु, निःसंदेह भण्डारी ने जो किया प्रभु ने उसमें कुछ योग्य भी पाया, और इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों से उससे कुछ सीखने और उन शिक्षाप्रद बातों को अपने जीवनों में लागू करने के लिए कहा। जो प्रशंसनीय बातें प्रभु को उस भण्डारी में दिखाई दीं वे थीं, जोखिम भरे समय में भी अपनी बुद्धिमता को बनाए रखना, चतुर और बुद्धिमान होना, और योजनाबद्ध तरीके से अपने लक्ष्य को पूरा करना (लूका 16:3-4).

वह भण्डारी समझ गया था कि उसके हिसाब देने का समय आ गया है (लूका 16:2); और वह अपने आते अन्त से भी अवगत था। किन्तु उसने न तो हिम्मत हारी और न ही हार मानी; वरन जो भी समय और संसाधन उसे उपलब्ध थे उसने उनका प्रयोग किया, और जो कुछ भी वह कर सकता था उसने किया, यह सुनिश्चित करने के लिए कि उसका भविष्य अंधकारमय न रहे, परन्तु अच्छा हो जाए (लूका 16:5-7)। प्रभु अपने शिष्यों को यही बात सिखा रहे थे (लूका 16:8), कि जैसे सँसार के लोग चतुर होते हैं शिष्यों को भी चतुर होना चाहिए, और जो कुछ भी उनके पास है उसका, अपने संसाधनों का उपयोग, उचित रीति से भली-भांति करना चाहिए। प्रभु ने हमें मूर्ख या सरलता से धोखा खा जाने वाले होने के लिए नहीं बुलाया है, वरन चतुर और समझदार होने के लिए बुलाया है (मत्ती 10:16) ऐसा नहीं है कि प्रभु हमें कुटिल या चालाक (बुरे अभिप्राय में) बनाना चाहता है, परन्तु वह चाहता है कि हम अपनी परिस्थितियों का आंकलन करना सीखें, और फिर उसके अनुसार बुद्धिमत्ता से व्यवहार करें (लूका 12:56-58; लूका 14:25-33; मत्ती 10:23).

यह केवल प्रभु यीशु ही की, या केवल नए नियम की शिक्षा नहीं है। पुराने नियम में, नीतिवचन की पुस्तक चतुर, बुद्धिमान, और समझदार होने की शिक्षा के साथ आरंभ होती है (नीतिवचन 1:1-7); और तुरंत ही चतुर, बुद्धिमान, और समझदार नहीं होने के दुष्परिणामों के विषय सचेत करती है (नीतिवचन 1:20-33)। दाऊद, जो परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति था, ने अपने दायित्वों के निर्वाह और अपने प्राणों की रक्षा के लिए बुद्धिमानी से कार्य किया (1 शमूएल 18:5, 14, 30)। भजन 119:98-100 हमें दिखाता है कि कैसे परमेश्वर अपने अनुयायियों को सँसार के लोगों से अधिक चतुर और सूझ-बूझ वाला बनाता है, और अपने वचनों के द्वारा अपने लोगों को चतुराई और बुद्धिमत्ता सिखाता है जिससे, वे इन सदगुणों का उपयोग अपने दैनिक जीवनों में, सँसार के लोगों और परिस्थितियों का सामना करते समय करें, जिससे प्रभु के लिए जीने और उसके गवाह होने के अपने उद्देश्यों को पूरा कर सकें।

प्रभु के शिष्यों का सदैव यही प्रयास रहना चाहिए कि वे परमेश्वर के राज्य में अपना अनन्तकाल बिताने के लिए आदर के साथ प्रवेश करें; अर्थात, दूसरे शब्दों में, भले प्रतिफलों के साथ प्रवेश करें, जिन्हें वे अनन्तकाल में उपयोग करेंगे। अपने पृथ्वी के समय में, अन्हें अच्छी योजनाएं बनाकर, चतुराई और बुद्धिमता के साथ प्रभु के लिए जीवन जीने और गवाही देने के उद्देश्य की पूर्ति करते रहना चाहिए, तथा इस कार्य के लिए जो अवसर परमेश्वर उन्हें प्रदान करता है उनका भली-भांति उपयोग करना चाहिए। प्रभु यीशु के समान ही, प्रभु के शिष्यों को भी परमेश्वर की ओर से उन्हें सौंपे गए उद्देश्यों को पूरा करने में दृढ़ बने रहना चाहिए (लूका 9:51-52); और पौलुस के समान, सभी शिष्यों को अपने कार्यों को योजनाबद्ध तरीके से करना चाहिए (2 कुरिन्थियों 1:17) तथा किसी न किसी प्रकार से प्रभु के लिए उपयोगी होने के लिए प्रयासरत तथा सक्रीय रहना चाहिए, बजाए इसके कि निष्क्रीय रहकर बातों के होने की प्रतीक्षा करें (प्रेरितों 16:6-10).

स्वर्ग में प्रवेश, अर्थात हमारा उद्धार, प्रभु में विश्वास लाने तथा अपने पापों से पश्चाताप करने और प्रभु से उनकी क्षमा प्राप्त करने के द्वारा, केवल परमेश्वर के अनुग्रह ही से है। परन्तु हमारे अनन्तकाल के लिए प्रतिफल हमें परमेश्वर द्वारा हमारे कर्मों के आधार पर प्रदान किए जाते हैं; मसीही विश्वासियों, अर्थात नया जन्म पाए हुए परमेश्वर की संतानों का न्याय, उनके उद्धार पाने के लिए नहीं वरन उन्हें प्रतिफल प्रदान करने के लिए है, और कुछ ऐसे भी होंगे जो अनन्तकाल के लिए स्वर्ग में छूछे हाथ प्रवेश करेंगे (1 कुरिन्थियों 3:12-15).

चतुर भण्डारी के दृष्टांत के द्वारा प्रभु अपने शिष्यों को सिखा रहे हैं कि वे परिस्थितयों से कभी न घबराएं, चतुर और बुद्धिमान बनें, अपने उद्देश्य पर दृष्टि गड़ाए रखें और उस उद्देश्य को पूरा करने में प्रयासरत रहें। परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी कठिन या निराशाजनक क्यों न हों, शिष्यों को चतुराई और बुद्धिमता के साथ उपयुक्त कार्यविधि को अपनाना चाहिए, जैसा कि उस भण्डारी ने किया, और विकट परिस्तिथियों को भी अपने पक्ष में मोड़ लिया। प्रभु के शिष्यों को अपनी सांसारिक धन-संपदा का उपयोग ऐसी रीति से करना चाहिए कि 'जब वह जाता रहे,’ या चला जाए, अर्थात पृथ्वी के उनके समय के पूरे होने पर, वे लोग जिन्हें शिष्यों के धन और संसाधनों के द्वारा पृथ्वी पर लाभ पहुँचा, वे उन शिष्यों के आदर के साथ अनन्तकाल में प्रवेश का कारण बन जाएँ (लूका 16:9)

इस दृष्टांत के द्वारा प्रभु हमें बेईमान होना नहीं सिखा रहा है, वरन बिना निराश हुए, बिना हार माने, चतुर और बुद्धिमान होना, अपने उद्देश्य की पूर्ति की कार्यविधि पर अपना ध्यान केंद्रित रखना, और बुद्धिमता के साथ अपनी परिस्थितियों का प्रयोग करना सिखा रहा है, जिससे हम अपने अनन्तकाल के लिए प्रतिफल बनाए रखें और उन्हें अधिक बढ़ा सकें।


गुरुवार, 1 सितंबर 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 8: स्वर्ग से गारंटीशुदा


स्वर्ग से गारंटीशुदा

यह आत्मिक सिद्धांत कि परमेश्वर की इच्छा में होकर उसके तथा उसके कार्य के लिए जो भी हम निवेष करेंगे वह हमें उसका कई गुणा लौटा कर दे देगा कोई मनगढ़ंत बात नहीं है, वरन यह वह निश्चित बात है जिसे स्वयं प्रभु यीशु ने कहा है, जिसके साथ उसने यह भी कहा है कि परमेश्वर के लिए किए गए निवेष का प्रतिफल सौ गुणा होगा।

पतरस द्वारा पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में "यीशु ने कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि ऐसा कोई नहीं, जिसने मेरे और सुसमाचार के लिये घर या भाइयों या बहिनों या माता या पिता या लड़के-बालों या खेतों को छोड़ दिया हो। और अब इस समय सौ गुणा न पाए, घरों और भाइयों और बहिनों और माताओं और लड़के-बालों और खेतों को पर उपद्रव के साथ और परलोक में अनन्त जीवन" (मरकुस 10:29-30)। प्रभु यीशु द्वारा अपने अटल शब्दों में दिए गए आश्वासन पर ध्यान कीजिए - जो भी प्रभु और उसके सुसमाचार के लिए हम निवेष करते हैं स्वर्ग से उसका सौ गुणा की प्रतिफल निश्चित है।

साथ ही यहाँ प्रभु दोहरे प्रतिफल की भी बात कर रहा है - पृथ्वी पर सौ गुणा, और परलोक में अनन्त जीवन। यहाँ प्रयुक्त शब्द "उपद्रव" से घबराईएगा नहीं, हम संसार में जो कोई भी लौकिक कार्य करते हैं उन प्रत्येक के साथ परेशानियाँ भी जुड़ी होती ही हैं। हम में से कौन है जो यह कह सकता है कि उसके सांसारिक कार्य में कोई परेशानी या कठिनाई कभी नहीं रही है? हम सबके कार्यों में ये रहती हैं; हम सब अपने कार्यों में उनके साथ निभाते भी हैं और उनके होने के बावजूद भी अपने कार्य करते रहते हैं, यह जानते हुए कि हमारे कार्य में परेशानियाँ एवं कठिनाईयाँ हमारे साथ लगी ही रहेंगी। यदि हमें किसी सांसारिक कंपनी का प्रमुख कार्य-अधिकारी यह प्रस्ताव दे कि जो कुछ भी हम उसके प्रस्ताव के अन्तर्गत उसकी कंपनी में निवेष करेंगे, उसका सौ-गुणा प्रतिफल हमें हर कीमत पर, अवश्य ही मिलेगा, परन्तु साथ ही कुछ परेशानियों को भी हमें उठाना पड़ेगा, तो हम में से कितने हैं जो अपनी सांसारिक संपदा की सौ-गुणा बढ़ोतरी के इस अवसर को हाथों से जाने देंगे, वह भी केवल इसलिए क्योंकि कुछ परेशानियाँ साथ जुड़ी हुई हैं? यदि हम सांसारिक लोगों के आश्वासन पर, सांसारिक संपदा के लिए यह जोखिम उठाने को तैयार हैं, तो प्रभु के कहने के निश्चय पर इस लोक में सौ-गुणा एवं परलोक में अनन्तकाल के प्रतिफल के लिए क्यों नहीं?

इस असमंजस का उत्तर उस घटना में छुपा है जो पतरस द्वारा पूछे गए इस प्रश्न से ठीक पहिले घटित हुई - पूरा परिपेक्ष समझने के लिए मरकुस 10:17-18 को पढ़िए। जिस जवान का यहाँ ज़िक्र है, वह अनन्त जीवन चाहता था, वह प्रभु यीशु के प्रति श्रद्धा भी रखता था और उसे यह भी विश्वास था कि प्रभु यीशु ही उसकी परेशानी का हल दे सकते हैं; लेकिन जो उसके पास नहीं था वह था प्रभु यीशु द्वारा दिए गए समाधान पर विश्वास करना और उसे अपने जीवन में कार्यान्वित करना। प्रभु ने उसके प्रश्न का उसे समाधान उपलब्ध करवाया (मरकुस 10:21-22), परन्तु उस जवान के लिए वह समाधान बहुत उग्र तथा अनेपक्षित था, चुकाने के लिए वह एक बहुत बड़ी कीमत थी; और वह जैसा आया था वैसा ही निराश वापस लौट गया। प्रभु यीशु ने जो उस जवान से करने के लिए कहा, वह उस बात से भिन्न नहीं था जो उसने अपने चेलों को सिखाई थी - पाना चाहते हो तो देना सीखो: "दिया करो, तो तुम्हें भी दिया जाएगा: लोग पूरा नाप दबा दबाकर और हिला हिलाकर और उभरता हुआ तुम्हारी गोद में डालेंगे, क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिये भी नापा जाएगा" (लूका 6:38)

यही वह स्थान है जहाँ हम में से बहुतेरे आकर ठोकर खाते हैं, हानि उठाते हैं - प्रभु के प्रति हमारे विश्वास, हमारी श्रद्धा के बावजूद; अनन्त जीवन की बातों के लिए हमारी इच्छा के बावजूद, हम प्रभु के वचनों को स्वीकार करके अपने जीवन में कार्यकारी करना नहीं चाहते हैं; उन्हें सुनना तो चाहते हैं किंतु मानने की हिम्मत नहीं रखते। हम प्रभु की कही बात पर विश्वास करने से घबराते हैं, जो प्रभु ने हमारे हाथों में दिया है, परन्तु अब उसे छोड़ देने के लिए कह रहा है, उसे हम प्रभु के कहने पर छोड़ देना नहीं चाहते। परमेश्वर चाहता है कि हम उस पर विश्वास रखें, उसके कहने पर स्वेच्छा से अपने आप को खाली कर देने की हिम्मत रखें, ताकि वह और अधिक तथा और बेहतर से हमें भर सके। केवल जब हम दे देते हैं, अपने आप को खाली कर देते हैं, तब ही हम परमेश्वर के लिए वह रिक्त स्थान उपलब्ध करवा पाते हैं जिसे वह नई और बेहतर आशीषों की भरपूरी से भरना चाहता है।

कहावत है कि बेहतर ही अकसर सर्वोत्तम का दुश्मन होता है; जो बेहतर आज आपके पास है, उसके कारण उस सर्वोत्तम से जो परमेश्वर आपको देना चाहता है अपने आप को वंचित ना रखें। जो आपके पास है, उसे परमेश्वर के राज्य में निवेष करें, उसकी खेती में की खेती बो दें और भरपूरी की फसल पाने के लिए तैयार रहें।