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गुरुवार, 10 जून 2021

उद्धार पाने तथा बपतिस्मा लेने में क्या अंतर है?

 

प्रश्न: 

उद्धार पाने तथा बपतिस्मा लेने में क्या अंतर है? क्या उद्धार पवित्र आत्मा की छाप लगना, और बपतिस्मा पवित्र आत्मा का अभिषेक होना है?

 

उत्तर:

 बपतिस्मा, परमेश्वर के वचन  पवित्र शास्त्र बाइबल के नए नियम खण्ड के लिखे जाने की मूल भाषा, यूनानी, के शब्द “बैपतिज़ो” से आया है, और इस शब्द का शब्दार्थ होता है बारंबार डुबोना, गोता देना, जलमग्न करना, अभिभूत कर देना, या पूर्णतः भिगो देना।

 

शब्द उद्धार यूनानी भाषा के शब्द “सोटीरिया” से आया है जिसका शब्दार्थ होता है छुटकारा, सुरक्षित किया जाना, बचाव, अर्थात किसी हानि अथवा हानिकारक बात से बचा लिया जाना।

 

मसीही विश्वास के सन्दर्भ में, उद्धार पाने का अर्थ है पापों के परिणाम से बचाया जाना , क्योंकि प्रभु यीशु मसीह ने उन्हें अपने ऊपर लेकर हमारे लिए उनका संपूर्ण दण्ड सह लिया – समस्त मानव जाति के लिए। क्योंकि अब पापों की कीमत चुकाई जा चुकी है, उनके दुष्परिणाम भुगत लिए गए हैं, इसलिए अब किसी को भी अपने पापों के परिणामों से बचने के लिए अपनी ओर से या अपने लिए और कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। अब बस इतना ही करना शेष है कि प्रभु यीशु द्वारा किए गए कार्य पर विश्वास कर के , व्यक्ति यह स्वीकार कर ले कि वह पापी है, प्रभु यीशु से उन पापों की क्षमा माँग ले, अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर दे, और उसे अपना निज प्रभु एवं उद्धारकर्ता स्वीकार कर ले। उसके द्वारा यह करने पर, क्योंकि वह प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करता है, इसलिए परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा, वह व्यक्ति उस अनन्तकाल की मृत्यु, उस अपरिवर्तनीय हानि की दशा से छुटकारा पा लेता है, सुरक्षित कर दिया जाता है, बचा लिया जाता है, जो उसके पापों में होने के कारण उसकी नियति थी; अब वह उस स्थिति से “बचा लिया” गया है, उसने उस अपरिवर्तनीय हानि की दशा में जाने से उद्धार पा लिया है। यह उनके किसी कर्मों के द्वारा नहीं (इफिसियों 2:5, 8), वरन साधारण विश्वास में, स्वेच्छा से, सच्चे मन से की गई एक ही प्रार्थना के द्वारा, बिना किसी अन्य मनुष्य के हस्तक्षेप अथवा मध्यस्थता के द्वारा हो जाता है। उद्धार पाया हुआ व्यक्ति हमेशा के लिए परमेश्वर की संतान बन जाता है (यूहन्ना 1:12-13) और उसका यह आदर उससे कभी भी वापस नहीं लिया जाएगा।

 

जो इस प्रकार से बचा लिए गए हैं, जिन्होंने उद्धार प्राप्त कर लिया है, केवल उन्हीं के लिए प्रभु यीशु मसीह ने मत्ती 28:19 में कहा है कि वे बपतिस्मा लेने के द्वारा अपने उद्धार की गवाही दें। बपतिस्मा लेने से उद्धार नहीं है; वरन उद्धार पाए हुए व्यक्ति को बपतिस्मा लेना है। इस पद में प्रभु द्वारा दिए गए निर्देशों के क्रम पर ध्यान कीजिए: पहले व्यक्ति को प्रभु यीशु का शिष्य या अनुयायी बनना है और तब ही उस शिष्य को बपतिस्मा दिया जाना है।

इससे यह स्पष्ट है कि बपतिस्मा और उद्धार दो बिलकुल पृथक बातें हैं। बपतिस्मा किसी को भी उद्धार के लिए योग्य नहीं बनाता है, परन्तु प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास के द्वारा जो उद्धार प्राप्त कर लेते हैं, उनसे यह अपेक्षा रहती है कि वे बपतिस्मे के द्वारा इस बात की गवाही देंगे।

जिस क्षण व्यक्ति उद्धार पाता है, उसी क्षण से वह पवित्र आत्मा का मंदिर भी बन जाता है, और पवित्र आत्मा उसी पल से उसमें आकर निवास करने लग जाता है (इफिसियों 1:13; 1 कुरिन्थियों 3: 16; 6:19), अपनी भरपूरी और संपूर्णता में – पवित्र आत्मा परमेश्वरीय व्यक्ति है – उसे न तो टुकड़ों में दिया जा सकता है, और न ही वह टुकड़ों में दिया जाता है (यूहन्ना 3:34)। पवित्र आत्मा को प्राप्त करने के लिए किसी को भी इससे अतिरिक्त और कुछ भी करने की कोई आवश्यकता नहीं है, कि वह प्रभु यीशु में विश्वास लाकर, उस को अपना निज उद्धारकर्ता ग्रहण कर ले, उसे अपना जीवन समर्पित कर दे (देखें: http://samparkyeshu.blogspot.com/2020/04/1.html )। प्रभु यीशु में विश्वास करने से पवित्र आत्मा भी उनके जीवन में आ जाता है, और इसी तथ्य को विभिन्न प्रकार से व्यक्त किया गया है, जैसे कि पवित्र आत्मा की छाप लगना (इफिसियों  1:14), या पवित्र आत्मा का बपतिस्मा मिलना (प्रेरितों 11:15-17)। छाप लगने का अर्थ होता है उस पर उसके स्वामी की पहचाना का चिह्न लगा देना – उद्धार पाए हुए व्यक्ति के अंदर पवित्र आत्मा की उपस्थिति इस बात का चिह्न या छाप है कि वह अब प्रभु परमेश्वर का है (1 कुरिन्थियों 6:19, 20)। इसी प्रकार से, पवित्र आत्मा का बपतिस्मा पाने का अर्थ है पवित्र आत्मा में पूरी तरह से भीग जाना, या उसमें अभिभूत कर दिया जाना, या उसमें डुबो दिया जाना – पूर्णतः पवित्र आत्मा की अधीनता में आ जाना। ये सभी इसी एक बात, पवित्र आत्मा के नियंत्रण में आ जाने, को व्यक्त करने के विभिन्न तरीके हैं।

गुरुवार, 13 मई 2021

1 तीमुथियुस 2:15, बच्चे जनने से उद्धार पाने को समझना


प्रश्न:

   1 तीमुथियुस 2:15 में जो लिखा है कि स्त्री बच्चे जनने से उद्धार पाएगी; इस वचन का सही अर्थ क्या है?

 

उत्तर:

    इस पद की बात ने बहुत से लोगों को असमंजस में रखा हुआ है, और बाइबल की अनेकों व्याख्याओं तथा टिप्पणियों में इसके विभिन्न उत्तर हैं, इसे कई प्रकार से समझाने का प्रयत्न किया गया है। प्रार्थनाओं के द्वारा परमेश्वर ने जो मुझे अपने वचन तथा अपने कुछ सेवकों की व्याख्याओं के माध्यम से समझ प्रदान की है, उसे आपके सामने रख रहा हूँ; आशा है यह उत्तर आपको स्वीकार्य होगा। इसे समझने के लिए पहले कुछ अन्य संबंधित बातों को देखना और समझना होगा, तभी, सभी के तालमेल के साथ इसे ठीक से समझा जा सकेगा।


    पहली बात, बच्चा जनने के द्वारा ‘उद्धार’ वह आत्मिक उद्धार नहीं है जो रोमियों 10:9-13 में तथा परमेश्वर के वचन में अन्य स्थानों लिखा है। यह सामान्य जानकारी है कि प्रत्येक बच्चा जनने वाली स्त्री आत्मिक उद्धार पाई हुई नहीं होती है; और प्रत्येक आत्मिक उद्धार पाई हुई स्त्री ने बच्चा भी जना हो, यह भी अनिवार्य नहीं है। हिन्दी में ‘उद्धार और अंग्रजी में अधिकांश अनुवादों में ‘saved’ के प्रयोग के कारण ही इस पद का यह असमंजस और समझने में कठिनाई है। मूल यूनानी भाषा में जो शब्द यहाँ पर प्रयोग किया गया है वह है “सोद्जो” जिसका सामान्यतः अर्थ होता है ‘बचना’ या ‘उद्धार’; किन्तु परमेश्वर के वचन बाइबल में केवल यही इस शब्द का अर्थ नहीं है। परमेश्वर के वचन में इसके अन्य अर्थ और प्रयोग भी किए गए हैं, उदाहरण के लिए:

·        मत्ती 9:21, लूका 8:50 और प्रेरितों 4:9 में इसी शब्द का अनुवाद और प्रयोग ठीक या बहाल होना या चंगा होने के अभिप्राय से किया गया है।

·        मत्ती 27:40 में इसे सुरक्षा या विकट परिस्थिति से छुड़ा लेने के अभिप्राय से अनुवाद और प्रयोग किया गया है।

·        मरकुस 5:23 में इसे चंगाई मिलने के अभिप्राय से अनुवाद और प्रयोग किया गया है।

·        2 तिमुथियुस 4:18 में इसे सुरक्षित रखे जाने के अभिप्राय से अनुवाद और प्रयोग किया गया है।

   (उपरोक्त उदाहरण हिन्दी अनुवाद में उतने स्पष्ट नहीं हैं जितने अंग्रजी में; इसलिए यदि आप इन्हें किसी अंग्रेज़ी अनुवाद – जैसे कि KJV या NKJV आदि के साथ देखें तो अधिक अच्छे से समझ में आएगा।)

   कहने का अर्थ यह है कि जिस “उद्धार” की यहाँ पर, 1 तीमुथियुस 2:15, में बात की गई है, वह आत्मिक उद्धार नहीं, वरन किसी अन्य स्थिति से बचाया जाना, या सुरक्षित किया जाना, या उससे निकालकर बहाल करना, या उभारना है। इसलिए अब यह देखना होगा कि यह क्या स्थिति है जिसके बारे में यहाँ बात की जा रही है। इसे दो बातों से देखा तथा समझा जा सकता है – एक, उत्पत्ति में स्त्री के सृजे जाने के समय से आरंभ करके, परमेश्वर द्वारा निर्धारित स्त्रियों की भूमिका के सन्दर्भ में होकर; तथा, दूसरे, इस पद के तात्कालिक सन्दर्भ के साथ।

   पहले, उनके रचे जाने के समय के विवरण और उससे संबंधित बातों को देखकर, परमेश्वर द्वारा स्त्रियों के लिए निर्धारित भूमिका को समझते हैं। आदम के लिए स्त्री की आवश्यकता का पहला उल्लेख उत्पत्ति 2:18 में आया है, और वहाँ पर परमेश्वर ने कहा, “मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊंगा जो उस से मेल खाए।” परमेश्वर का उद्देश्य स्पष्ट है – स्त्री को परमेश्वर द्वारा आदम के समान बनाई गई, उससे मेल खाने वाली, उसकी सहायक होना था। यहाँ, हमारी चर्चा के लिए महत्वपूर्ण बात है कि स्त्री की रचना से भी पहले, जब परमेश्वर ने उसके बारे में विचार किया, तभी से उसकी भूमिका आदम का “सहायक” होने की थी, न कि आदम पर प्रभुता या वर्चस्व रखने वाली होने की। जो व्यक्ति सहायक नियुक्त होता है, वह निर्णायक अथवा नियंत्रण करने वाला नहीं होता है, वरन जिसकी सहायता के लिए उसे रखा जाता है, उसकी अधीनता और आज्ञाकारिता में होकर कार्य करता है। सहायक का अधिकारी हो जाना या अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने वाला हो जाना, उसके लिए निर्धारित कार्य और भूमिका के विरुद्ध जाना है, अनाज्ञाकारी होना है।

    इसका यह कदापि तात्पर्य नहीं है कि स्त्री को आदम से गौण और उसकी “दासी” होने के लिए बनाया गया था – बिना स्त्री के आदम अधूरा था, स्त्री को उसका पूरक, उसकी सहायता करने वाला होना था (1 कुरिन्थियों 11:11)। दोनों, आदम और हव्वा के लिए परमेश्वर ने कार्य और भूमिकाएँ निर्धारित की थीं; उन्हें एक-दूसरे के साथ मिलकर, परस्पर सहयोग के साथ उन दायित्वों का निर्वाह करना था। बड़े या छोटे होने या एक-दूसरे पर प्रभुता रखने की भावना अथवा होड़ तो तब थी ही नहीं। यह भिन्नता, होड़, और एक का दूसरे से ऊँचा होने का प्रयास करने की भावना का प्रचलन उस पाप के कारण आया जो उन दोनों ने किया (उत्पत्ति 3:16); यह भिन्नता और प्रवृत्ति परमेश्वर की आरंभिक योजना का भाग नहीं थी।

   इसे इस प्रकार समझिए, किसी बड़ी कंपनी और कारखाने में एक मालिक होता है, और उसके नीचे अलग-अलग जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए अलग-अलग विभागों के अलग-अलग डायरेक्टर होते हैं – कोई आर्थिक मामले संभालता है, कोई कर्मचारियों की नियुक्ति और उनसे संबंधित समस्याओं को देखता है, कोई कच्चे माल की आपूर्ति का दायित्व निभाता है, तो कोई तैयार माल को बाहर बेचने और मुनाफा कमाने के कार्य को पूरा करता है, आदि। सभी “डायरेक्टर” हैं, सभी उसी एक मालिक के लिए कार्य कर रहे हैं, सभी के मिल-जुल कर कार्य करने से ही कंपनी और कारखाना तरक्की कर सकते हैं; कोई बड़ा या छोटा नहीं है, सभी एक दूसरे के सहायक और पूरक हैं। किन्तु जैसे ही कोई एक भी “डायरेक्टर” किसी दूसरे के विभाग में दखलंदाजी करने लगता है, अपने आप को औरों से बड़ा या अधिक महत्वपूर्ण जताने के प्रयास करने लगता है, वह सभी के लिए परेशानी उत्पन्न करता है और अन्ततः न केवल अपना, वरन औरों का था कंपनी एवं कारखाने का, और उसके मालिक का भी नुकसान कर डालता है। इसी प्रकार, परमेश्वर की मूल योजना में, संसार में पाप के प्रवेश से पहले, आदम और हव्वा के अपने-अपने कार्य और भूमिकाएँ थीं, जो परस्पर एक दूसरे की पूरक थीं, जिन्हें एक दूसरे के सहयोग से निभाया जाना था; उन्हें बड़ा-छोटा होने के लिए नहीं, साथ मिलकर काम करने के लिए रखा गया था – प्राथमिक भूमिका पहले सृजे गए आदम की थी, और हव्वा को उसका सहायक होना था, उसे आदम के साथ मिलकर परिवार बनाना था, और उस परिवार की देखभाल और परवरिश करनी थी। उनके इस साथ मिलकर कार्य करने से वे समस्त पृथ्वी और उसकी सभी प्राणियों को वश में रखने वाले बन सकते थे (उत्पत्ति 1:27-28)। अदन की वाटिका में कार्य करने, उसकी रक्षा करने, और उसके फलों में से लेकर खाने, तथा किस फल को नहीं खाना है, इसका निर्णय रखने का दायित्व परमेश्वर ने, हव्वा की सृष्टि से भी पहले, आदम को दिया था (उत्पत्ति 2:15-17), जिसे फिर हव्वा की सृष्टि के पश्चात उसके साथ बाँटा नहीं गया; यह आदम का दायित्व था, हव्वा का नहीं।

   अदन की वाटिका में हुए उस पहले पाप, जिसका परिणाम हम आज तक झेल रहे हैं, के कार्यान्वित हो जाने में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हव्वा द्वारा उसके लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित भूमिका और कार्य से हटकर, आदम को सौंपे गए कार्य में हाथ डालना था – वह “सहायक” से “निर्णायक” और नियंत्रण करने वाली बन गई। शैतान की बातों और बहकावे में आकर (2 कुरिन्थियों 11:3), न केवल उसने वाटिका से संबंधित कार्य और वहाँ के फलों में से किसे खाना है और किसे नहीं का निर्णय करने का अधिकार अपने हाथों में ले लिया, तथा बिना आदम से पूछे अपने उस निर्णय को प्रभावी किया, वरन उसने आदम को भी अपने इस गलत निर्णय के पालन में सम्मिलित कर लिया (उत्पत्ति 3:6, 12)। यह आदम की गलती थी कि उसने हव्वा को मना करने के स्थान पर, उसके कहे को माना, और इस प्रकार वह भी परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता में आ गया। परमेश्वर द्वारा निर्धारित कार्य और भूमिका के निर्वाह के स्थान पर, दूसरे के कार्य और भूमिका में हाथ डालने के कारण पाप का यह श्राप सारे संसार और सृष्टि पर आ गया (रोमियों 8:19-23), जिसके निवारण के लिए परमेश्वर को स्वर्ग की महिमा छोड़कर पृथ्वी पर अपमानित होने तथा निकृष्ट मृत्यु को सहन करने के लिए आना पड़ा। इस पाप के कारण ही स्त्री को पुरुष की अधीनता में आना पड़ा (उत्पत्ति 3:16) – किन्तु अधीनता में आने का यह अर्थ नहीं है कि उसे पुरुष से हीन अथवा गौण कर दिया गया, उसे निकृष्ट या दासी होकर रहने के लिए कहा गया। परमेश्वर द्वारा यह कहना कि “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा”, कोई नई बात लाना नहीं था, केवल स्त्री के “निर्णायक” होने की बजाए, उसके “सहायक” होने को, जो कि परमेश्वर की मूल योजना थी, उसी बात को फिर से दृढ़ता से व्यक्त और प्रभावी करना था।

   क्योंकि परमेश्वर ने स्त्री से “सहायक” रहने के लिए कहा है, इसीलिए वचन में बारंबार स्त्रियों को शांत रहने, पुरुषों को और कलीसिया में प्रचार न करने, और अपने पति से सीखने और उसके अधीन रहने के लिए निर्देश दिए गए हैं (1 कुरिन्थियों 11:3-10; 1 कुरिन्थियों 14:34-35; इफिसियों 5:22-24; कुलुस्सियों 3:18; 1 तिमुथियुस 2:11-12; तीतुस 2:15; 1 पतरस 3:1-6)। यह उन्हें नीचा या गौण दिखाने के लिए नहीं है – क्योंकि परमेश्वर की दृष्टि में वे पुरुषों से किसी भी रीति से कमतर नहीं हैं, दोनों ही समान हैं (प्रेरितों 2:18; 5:14; 8:12; गलातियों 3:28)। वरन यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित उनकी तथा पुरुषों की भूमिका का सही रीति से निर्वाह करने के लिए है; उनके परमेश्वर की आज्ञाकारिता में बने रहने के लिए है। क्योंकि परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के परिणाम भयानक होते हैं, इसलिए यदि वे उसकी आज्ञाकारिता में नहीं आएँगी तो फिर अपने लिए विनाश ले लाएँगी। जो कार्य और भूमिका, विशेषकर परिवार बनाने और संचालित करने से संबंधित बातें, ममता, सहनशीलता, धैर्य आदि के निर्वाह को जैसा स्त्रियाँ कर सकती हैं, वह पुरुषों के लिए करना असंभव है। सामान्यतः, केवल स्त्री ही परिवार और बच्चों को परमेश्वर का भय और आदर करना सिखा सकती है; पुरुष के लिए यह करना बहुत कठिन है। पुरुष परिवार के लिए परमेश्वर की भक्ति का आदर्श और उदाहरण बन सकता है, किन्तु उस आदर्श और उदाहरण का अनुसरण करना, बच्चों को स्त्री ही सिखा सकती है। ऐसा भी नहीं है कि वचन के प्रचार और मसीही सेवकाई में स्त्रियों के किसी भी प्रकार से संलग्न होने के लिए मना किया गया है; वचन की शिक्षा तथा सेवकाई में भी उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है – अन्य महिलाओं और बच्चों के मध्य में (नीतिवचन 31:26-30; 1 तिमुथियुस 5:5-10; तीतुस 2:3-5); बस उन्हें यह प्रचार और शिक्षा, परमेश्वर की बुद्धिमानी और योजना में, पुरुषों और कलीसिया में करने से मना किया गया है। ध्यान कीजिए, मूसा की परवरिश राज-महल में, इस्राएलियों को सताने वाले मिस्रियों की रीति के अनुसार हुई थी, किन्तु उन इस्राएलियों के विपरीत व्यवहार की परिस्थितियों में, मूसा को वह परवरिश देने वाली उसकी अपनी माँ ही थी। परिणामस्वरूप, वयस्क होने पर वह मिस्र की रीति पर नहीं चला, वरन, इस्राएलियों को ही “अपने लोग” और यहोवा को अपना परमेश्वर मानने पाया, जिनके लिए वह मिस्र के राज-सिंहासन और ऐश्वर्य को त्यागने के लिए तैयार हो गया (प्रेरितों 7:22-36; इब्रानियों 11:24-26)। परिवार में स्त्रियों की इस अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका और आवश्यकता का पुरुषों के पास कोई विकल्प अथवा समाधान नहीं है। बात पुरुष और स्त्री को बड़े-छोटे के दृष्टिकोण से देखने के कारण बिगड़ती है, परमेश्वर के दृष्टिकोण से देखने और समझने के कारण संभलती है, आशीष लाती है।

   अब 1 तिमुथियुस 2:15 के संदर्भ पर आते हैं। बाइबल की कोई भी बात देखने, समझने के लिए उसे उसके तात्कालिक सन्दर्भ, अर्थात उसके आगे-पीछे के पदों के साथ देखना अनिवार्य है, साथ ही उसे बाइबल में  लिखी अन्य संबंधित बातों के साथ भी देखना आवश्यक है। इस अध्याय का आरंभ मसीही सेवकाई से संबंधित विवरण के साथ होता है (पद 1-8), और फिर मसीही समाज में स्त्रियों के व्यवहार से संबंधित निर्देश दिए गए हैं (पद 9-12), तथा स्त्रियों को दिए गए इन निर्देशों का कारण समझाया गया है (पद 13-14)। क्योंकि पौलुस को, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में, तिमुथियुस को ये निर्देश देने पड़े, इसलिए यह एक स्वाभाविक निष्कर्ष है कि तिमुथियुस जिस कलीसिया का अगुवा था, जिसकी देखभाल का दायित्व उसे सौंपा गया था, उसमें ऐसा नहीं हो रहा था। प्रत्यक्षतः, वहाँ पर स्त्रियाँ वह कर रही थीं जो परमेश्वर के वचन और मसीही विश्वास की शिक्षाओं के अनुसार सही नहीं था। स्त्रियाँ, परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गए दायित्व और भूमिका को छोड़ कर पुरुषों की भूमिका और कार्य में हाथ डाल रही थीं – वही पाप कर रही थीं जो हव्वा ने अदन की वाटिका में किया। इस कारण वे परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता की दोषी थीं, उस अनाज्ञाकारिता के दुष्परिणाम उन पर आने थे। उनके द्वारा स्वयं पर लाई गई इस विकट स्थिति से “उद्धार” अर्थात छुटकारा लेने और बहाल होने के लिए ही उन्हें यह कहा गया कि वे “बच्चा जनने” के द्वारा यह करने पाएँगी; अर्थात अपने पति के साथ मिलकर उसके “सहायक” की भूमिका के निर्वाह के द्वारा, परिवार में अपनी भूमिका के सही निर्वाह, परिवार और बच्चों की अच्छी देखभाल और सही परवरिश के द्वारा, वे अनाज्ञाकारिता का पाप करने की अपनी इस प्रवृत्ति से निकलने पाएंगी – उस से “उद्धार” पाएँगी – न कि वह आत्मिक उद्धार पाएंगी जिसका उल्लेख रोमियों 10:9-13 में किया गया है। इसीलिए इस 15 पद का दूसरा भाग कहता है,यदि वे संयम सहित विश्वास, प्रेम, और पवित्रता में स्थिर रहें।” क्योंकि जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम रखता है, वह परमेश्वर के वचन और निर्देशों पर विश्वास भी रखेगा, और चाहे स्वाभाविक प्रवृत्ति अथवा संसार के लोगों के द्वारा उकसाया जाना कैसा भी हो, वह संयम के साथ परमेश्वर के वचन का आज्ञाकारी रहेगा, और अनाज्ञाकारिता के पाप से दूषित नहीं वरन वचन की आज्ञाकारिता की पवित्रता में स्थिर बना रहेगा। बच्चा जनने का अभिप्राय पारिवारिक दायित्व का ठीक से निर्वाह करना है; और इस पद का तात्पर्य स्त्रियाँ पुरुषों के कार्यों में हाथ डालने के स्थान पर, अपने दायित्वों के निर्वाह में लौट आने और उन्हें ठीक से निभाने के द्वारा अनाज्ञाकारिता के दण्ड से बचाई जाएँगी, है।