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रविवार, 29 मार्च 2009

सम्पर्क अप्रेल २००८: बहुत भटकने के बाद

बहुत भटकने के बाद  

(यह लेख, आई० आई० टी० - रूड़की में सीनियर रिसर्च स्कालर, एम० जी० पुथूरन, की गवाही, अर्थात उनके व्यक्तिगत अनुभव की अभिव्यक्ति, है।)  

“...क्योंकि तुमने मुझे देखा, इसलिए विश्वास किया। परन्तु धन्य हैं वे जिन्होंने बिन देखे विश्वास किया।” - यहून्ना २०:२९ 

मैं बहुत भटकने के बाद प्रभु के पास आया, जिससे मैं शर्मिन्दा हूँ। क्योंकि मेरा कठोर हृदय प्रभु पर विश्वास नहीं करता था। ऊपर लिखा हुआ वचन केवल प्रेरित थोमा के लिये ही नहीं था जिसने विश्वास करने के लिये ठोस सबूत मांगा बल्कि यह बात मेरे लिये भी सच है।  

मेरा नाम एम० जी० पूथरन है और मेरा जन्म केरला के एक पुराने रीति-रिवाज़ों को मानने वाले इसाई परिवार में हुआ। हमारे वंशजॊं ने २००० हज़ार साल पहले ही, उसी प्रेरित थोमा के द्वारा प्रभु यीशु मसीह को ग्रहण कर लिया था। जब थोमा, जो प्रभु यीशु मसीह का विशेष शिष्य था, भारत आया, तब मेरे पूर्वजों ने प्रेरित थोमा के द्वारा प्रभु यीशु मसीह के सुसमाचार को सुना।  

बहुत छोटी उम्र से ही मैं एक अलगाव का जीवन जीता था। क्योंकि मेरी माँ मुझे सिखाती थी कि ‘बुरी संगति में नहीं पड़ना’ तथा ‘बुरे लोगों के से काम नहीं करना’। मेरे माता-पिता मुझसे और मेरी बहन से बहुत ही प्यार करते थे और हमारी बहुत चिंता करते थे। इसलिए मेरे लिए भी यह मुश्किल था कि मैं उनकी बात ना मानूँ। मैं इस बात का भी यत्न करता था कि मेरे किसी बुरे काम के द्वारा उनका अनादर ना हो। मुझे यह भी डर रहता था कि अगर मेरे माता-पिता को मेरे बुरे कामों के बारे में पता चल गया तो मैं उनका सामना कैसे करूँगा? मैं जानता था कि वे मुझे बुरी तरह दण्ड तो नहीं देंगे, परन्तु मेरा संबन्ध उनसे टूट जाएगा। 

मेरे माता-पिता बहुत धार्मिक तो नहीं थे, परन्तु वे कोई भी भला काम करने से पहले और मुशकिलों में भी प्रार्थना करते थे। मैं यह भी विश्वास करता था कि कोई अदृश्य शक्ति है जिसका नाम परमेश्वर है, जो सब कुछ देखता है और जो सब कुछ करने की सामर्थ रखता है। 

मैं अपने माँ-बाप, अध्यापकों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों की राय में एक अच्छा लड़का था। मेरे दोस्त मुझ पर भरोसा करते थे कि मैं हमेशा सच बोलता हूँ, और यदि किसी बात के बारे में सच जानना होता था तो वे केवल मुझसे ही पूछते थे। मैं अपनी दृष्टि में भला था और अपने दोस्तॊं से अपने आपको बेह्तर समझता था। मैं काफी ढीट था और यदि मैं कोई निर्णय लेता तो यह चाह्ता था कि मेरे माता-पिता भी उससे सहमत हों। 

जैसे-जैसे समय बीतता गया मुझे विज्ञान में बहुत रुचि होने लगी। मैं समझता था कि परमेश्वर ने मुझे इस क्षेत्र में ज्ञान दिया है और यह उसका वरदान है मेरा नहीं। मैं सोचता था कि विज्ञान सारी मानव जाति को और हमारे देश को उनके सारे दुखों से छुड़ाकर समृद्धि और खुशी दे सकता है। मैं इस विशाल सृष्टि के भेदों और मानवीय दिमाग़ के भेदों को जानने के लिए भी रुचि रखता था। मैं ने तो यहां तक सोचा था कि मैं विज्ञान के द्वारा परमेश्वर को भी खोज लूँगा। इस तरह मेरा उद्देश्य था कि मैं सत्य को खोजूँ और आईन्स्टीन की तरह एक बड़ा वैज्ञानिक बनूँ।  

१२वीं कक्षा के बाद मेरा दख़िला इंजिनियरिंग में हो गया और वहां छात्रों के लिये ये रिवाज़ होता था कि वे गन्दे शब्दों का इस्तेमाल करें, गन्दे काम करें, सिगरेट और शराब पीयें। सीनियर छात्र जूनियर छात्रों को निर्देश देते थे कि एक अच्छा इंजीनियर बनने के लिए ये सब करना बहुत ज़रूरी होता है। जबकि मैं इन चीज़ों से अलग रहता और अपने दोस्तों की दृष्टि में और अपनी दृष्टि में भला दिखता था। फिर भी चार सालों में मेरा मन बुरा हो चुका था। मैंने पाया कि मेरे हृदय के विचार बुरे और स्वार्थी हैं। मैं ने अपने अंदर यहाँ तक पाया कि भला बनने की जो मेरे अंदर अभिलाषा है वह भी अन्ततः मेरे अपने लिए ही है। 

फिर मुझे एह्सास हुआ कि कोई ज़्यादा फर्क नहीं मुझ जैसे एक ‘भले आदमी’ में और एक ‘बुरे आदमी’ में। अगर मैं इस को इस तरह कहूँ, तो यह एक सड़े हुए अन्डे की तरह है जो अन्दर से पूरी तरह गंदगी से भरा हुआ है परन्तु बाहर से बिल्कुल साफ और सफ़ेद है। परन्तु जहां तक एक ‘बुरे व्यक्ती’ का सवाल है वह उस सड़े हुए अन्डे की तरह है जिसका छिल्का टूटा हुआ है और जिसकी बदबू बाहर आकर दूसरों को परेशान करती है। लेकिन दूसरी तरफ़ जहां तक एक ‘अच्छे व्यक्ती’ का सवाल है, वह भी उसी सड़े हुए अन्डे की तरह ही है, बस उसमें फर्क इतना है कि उसके उपर का छिल्का अभी तक टूटा नहीं है पर उसकी सड़ाह्ट और बदबू उसके अन्दर लगातार बनी हुई है। यहाँ दोनों ही व्यक्तियों की मूलभूत स्थिती एक जैसी ही है और आखिर में दोनों ही कूड़ेदान में पाए जाएंगे। 

जब मैं आठवीं कक्षा में था तो उस दौरान मैंने कई बार बाईबिल के नए नियम को भी पढ़ा था। परन्तु उसमें मुझे बहुत कुछ समझ में नहीं आता था। मेरे अन्दर बहुत से सवाल और उलझने थीं कि क्या परमेश्वर वास्तव में व्यक्ति है या फिर वह कोई हमारी दिमाग़ी कल्पना है? परमेश्वर ने मनुष्य को इस तरह से क्यों बनाया? परन्तु उस नए नियम को पढ़ने के बाद मुझे एक बात का एह्सास हो गया था कि इस सांसारिक दुनिया से परे भी कोई है जिसको मैं अभी देख नहीं पा रहा हूँ। और जो कुछ मुझे सँसार में दिखाई देता है वह वास्तव में वह ही सब कुछ नहीं है। इस तरह विज्ञान की महिमा मेरी आँखों में घटती चली गयी। जिसके परिणाम स्वरूप मैं आत्मिक बातों तथा दार्शनिकता में बहुत रुची लेने लगा जिसमें उद्धार के मार्गों और मरने के बाद क्या होगा बताया गया था।  

जब मैं एक इंजीनियर के रूप में काम कर रहा था, तो मेरा एक सहयोगी मेरे कमरे में आता था और वह मेरे साथ परमेश्वर के वचन की बातें बांटता था। यह मेरे लिए लाभदायक था और मैं उसके ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ। परन्तु मुझे एह्सास हुआ कि वह जो कुछ बोलता था वह सब सच नहीं था। तो मैंने शुरु से आख़िर तक बड़े ध्यान से बाईबिल अध्ययन करने का निर्णय किया। मैं बहुत सी बातों से कायल हुआ, परन्तु विशेषकर दो बातें मेरे मन में बैठ गयीं - (१) क्योंकि पुराने नियम में परमेश्वर के लोग कोई भी निर्णय लेने से पहले परमेश्वर से पूछ्ते थे, तो मुझे भी कोई भी काम करने से पहले परमेश्वर की इच्छा को जानना चाहिए। (२) मैं अपने भले कामों के द्वारा से जो मैंने इस जीवन में किए हैं परमेश्वर के सामने खड़ा नहीं हो सकता।  

तब मुझे एह्सास हुआ कि मुझे एक निर्णय लेना है और मैं अपनी बहुत सारी योजनाओं के सहारे बहुत देर तक नहीं चल पाउँगा। जब मैंने इन बातों को प्रभु के सामने मान लिया तो मैंने यीशु मसीह को पूरे मानव इतहास में बिल्कुल अलग पाया। जो मेरे लिए मरा और जिस पर मैं भरोसा रख सकता हूँ और पूरे हियाव के साथ जिसको मैं अपने आप को सौंप सकता हूँ। परन्तु एक पद मुझे प्रभु के पास आने से रोकता था, “जो कोई अपना क्रूस उठाकर मेरे पीछे न हो ले, वह मेरा चेला नहीं।” इसी के साथ प्रभु यीशु ने नए नियम में एक व्यक्ति का उदाहरण दिया जिसने एक गुम्मट बनाना शुरू किया था और जिसको वह ख़त्म नहीं कर सका। क्योंकि मैं प्रभु यीशु पर विश्वास करता था और उसके महान प्रेम से आकर्षित था इसलिए सन् २००२ में, एक दिन घुटनॊं पर आकर मैंने अपने जीवन को प्रभु के हाथों में सौंप दिया। मैं जैसा भी अयोग्य था वैसा ही प्रभु के पास आ गया। अब मेरी सारी उलझने चली गयीं और मुझे एक बड़ी सन्तुष्टि मिली कि मेरी सत्य की खोज पूरी हुई और मेरे जीवन का अर्थ जो स्वयं प्रभु यीशु है, मैं ने पा लिया है। अब प्रभु यीशु ही मेरे लिये हर एक बात का उत्तर है। इसके बाद मैं प्रभु की इच्छा में निर्णय लेने की कोशिश करने लगा और प्रभु मेरी अगुवाई करता और अपने वचनों से मुझे सांत्वना देता और मुश्किल समयों में उसकी उपस्थिती मेरे साथ-साथ रहती थी। अब मैं जान गया कि प्रभु यीशु ही एक सच्चा परमेश्वर है। 

प्रभु के अनुग्रह से मुझे केन्द्रिय सरकार अनुसंधान संस्थान (सी०-डाक०) में अस्थाई रूप से एक रिसर्च का काम मिल गया। जब मैं वहाँ पर काम कर रहा था, तो मेरे एक साथी ने मुझे मजबूर किया कि मैं एम० टैक० (गेट) की परिक्षा दूँ - क्योंकि मेरी नौकरी पककी नहीं थी और मैं ऊँची पढ़ाई के बारे में भी सोचता था। उस समय मैं सरकारी काम से एक दौरे पर था तो इसलिए मैं उस परिक्षा के लिए बहुत तैयारी नहीं कर सका। परिक्षा से पहली रात मैं बहुत ही दुखी हृदय से अपने भविष्य और परिक्षा के बारे में सोच रहा था। इसलिए मैं हिम्मत पाने के लिए प्रभु के पास आया और परिक्षा के परिणाम को प्रभु के हाथ में सौंप दिया कि चाहे अच्छा हो या बुरा जो भी हो, मैं उसे स्वीकार कर लूँगा। तब एक अजीब सी शान्ति मेरे हृदय में भर गयी और मैं परिक्षा की अपनी तैयारी बन्द करके बिना किसी भविष्य की चिन्ता किए शान्ति से सो गया।  

अगले दिन सुबह मैंने बड़ी शान्ति से उस पेपर को लिखा। लेकिन फिर भी सोचा कि मुझे अच्छे अंक तो मिलंगे नहीं, क्योंकि मैंने इसके लिए बहुत ही कम तैयारी की थी और यह परिक्षा भी मैंने बी० टैक० करने के ४ साल बाद लिखी थी। परन्तु जब परिणाम आया, जो मैं इन्टरनैट पर देख रहा था, तो मैं अचम्भित रह गया और दस मिनिट तक अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर सका। पुरे भारत में मेरी रैंक ३६ थी। प्रभु ने उस रात के रोने को सुन लिया था। उसके बाद मुझे आई० आई० टी० रूड़की से बुलावा आया। मैं कभी भी उत्तर भारत में नहीं जाना चाह्ता था परन्तु प्रभु ने मुझे अपने वचन के कुछ पदों के द्वारा अगुवाई की।  

इसके बाद मैं रूड़की आ गया। अन्जान जगह थी, ना कोई दोस्त था न कोई रिश्तेदार। लेकिन क्योंकि मैं प्रभु की आवाज़ सुनकर आया था तो प्रभु ने मुझे अकेला नहीं छोड़ा और अपने लोगों की संगति भी दी। उनके उस दृढ़ निर्णय के द्वारा, जो उन्होंने प्रभु यीशु के लिये लिया था, मैं बहुत ही प्रोत्साहित हुआ, और उनके द्वारा परमेश्वर के वचन में से दिये हुए संदेशों से मैं आशीशित भी हुआ और प्रभु में म़ज़बूत भी हुआ। उनकी मेरे लिये चिन्ता और प्रेम ने मुझे उनके बीच में अपने घर का सा एह्सास दिया है।  

प्रभु ने मेरे जीवन में कई अद्भुत काम किए हैं जिनको मैं कई बार भूल गया, लेकिन मैं प्रभु यीशु का धन्यवाद देता हुँ कि इन सारे पिछ्ले सालॊं में वह फिर भी मेरा प्रभु रहा है। मेरी यह इच्छा है कि जब कभी मेरी प्रार्थनाऒं का उत्तर न भी मिले तब भी मैं मुश्किलों में प्रभु पर भरोसा करता रहूँ। मैं आपको उभारता हूँ कि आप उसके करीब आएं और उसके महान प्रेम पर भरोसा करें और उसकी इच्छा के आधीन आ जाएं। इस प्रकार वह आपका व्यकतिगत उधारकर्ता बन जाएगा और आपको पापॊं की क्षमा प्राप्त होगी तथा आप उसके साथ अनन्त जीवन बिताएंगे। चाहे आप किसी भी देश, धर्म, वर्ग और किसी भी संस्कृति के हों, परमेश्वर की दृष्टि में एक समान हैं और परमेश्वर किसी का पक्षपात नहीं करता। प्रभु आपको अपने प्रेम के असीम खज़ाने से आशीश दे।

शनिवार, 14 मार्च 2009

बिन शब्दों का संदेश!!

“न तो कोई शब्द है और न कोई भाषा” (भजन १९:३)
फिर है क्या? बिन शब्दों का संदेश!!
“हे आलसी चीटियों के पास जा” ( नीतिवचन ६:६)


चीटियों के जीवन की कहनी में एक सिरे से प्रवेश करके पहाड़ सी सच्चाई को खोजेंगे... चीटियाँ शब्दों से तो प्रचार नहीं करतीं क्योंकि शब्द तो उनके पास हैं ही नहीं। पर एक जीवन है जो प्रचार करता है। हाँ उनके जीवन की जड़ें कुछ सच्चाईयों से जुड़ी हैं।

चीटियों के पास काम तो बड़ा है पर समस्याएं भी कुछ कम नहीं। शरीर और सामर्थ भी बहुत छोटी है। पर अपनी हिम्मत और एकमनता के बल पर यह छोटा सा जीव बड़े काम कर जाता है। वे इस तरह जुड़कर जीती हैं कि उनका जीवन एक उदाहरण बन जाता है। हार तो वे मानती ही नहीं। लक्ष्य पर नज़र रखती हैं और इस तरह मुसीबत को पार कर जाती हैं।

गार्मियों में ही सर्दियों की तैयारी कर लेती हैं। इस बात का उन्हें हमेशा ध्यान रहता है कि... “वे दिन आने वाले हैं कि जिसमें कोई काम नहीं कर पाएगा” (यूहन्ना ९:४)। इसी बात को सामने रखकर वे जीती हैं। मुश्किलों के दिनों में वे मुश्किलों से भागती नहीं पर उनका पूरा सामना करतीं हैं। मामूली काम को भी पूरे मन और यत्न से करती हैं। अच्छे से अच्छे परिणाम देने के लिए जी जान लगा देती हैं। वे अपनी ताकत को व्यर्थ में खर्च नहीं करतीं। वह मैदान छोड़कर भागने वाला जीव नहीं है। इसीलिए विजय हमेशा उनका स्वागत करती है और परमेश्वर का वचन उनकॊ आदर देता है।

यह जीव तो छोटा सा है और उसके पास जीवन भी बहुत छोटा है। जीवन का महत्व इस बात से नहीं है कि जीवन बड़ा है या छोटा। पर महत्व तो इस बात का होता है कि हमने कैसा जीवन जिया?

इस समुदाय का हर अंग अपना काम पूरा करता है। वे व्यक्तिगत स्वार्थ से नहीं जुड़ी रहतीं। अगर वे आपस में एकमनता से जुड़ी ना हों तो अलग-अलग होकर कुछ भी नहीं कर सकतीं। जो विश्वासी अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ही जुड़ा रहता है और सिर्फ अपने ही बारे में सोचता है और अपने ही लिए जीता है, वह एक ओछा विश्वासी है। चाहे उसके पास सँसार कि हर खुशी भी हो तो भी वह कभी खुश नहीं रह पाएगा।

वे जन्दगी को इस तरह जीती हैं कि जीतना ही है। वे हर दिन जीत के लिए जीती हैं और हर हार को जीत में बदल देतीं हैं। इसलिए जन्दगी को ऐसे ही नहीं जीना है... जो जय पाए वो ही जीवन का मुकुट पाएगा।

चीटियाँ आपस में बेहतर सम्बंध बनाए रखतीं हैं। विनम्रता उनकी कमज़ोरी नहीं है। इसी विनम्रता ही से वे समूह में काम कर पाती हैं। विनम्रता, संगति और अनुशासन उनके विकास का मूल मंत्र है। अकाल के दिनों में भरपूरी के साथ विजय के जीवन को जी लेतीं हैं। सच तो यह है कि सृष्टि में इनकी कोई औकात नहीं फिर भी औकात वालों को सही समझ देने के लिए बहुत बड़ी सौगात हैं। ऐसी ही संगति की सौगात प्रभु ने हमें भी दी है।

क्या इस कहानी ने आपके अन्दर झांका है?... कोई विश्वासी इतना अंधा तो नहीं कि वह अपने अन्दर ना झांक सके और इतना कमज़ोर भी नहीं कि अपनी कमज़ोरी के लिए प्रभु से सामर्थ न मांग सके।


इस बात के बाद आप क्या करेंगे?... इस छोटे जीव ने कुछ बड़े सवाल आपके जीवन पर ला खड़े किये हैं। अब इन बातों पर आप सोचेंगे या उन्हें ऐसे ही छोड़ देंगे?... यह बात हम आप पर ही छोड़ देते हैं।

हर डर जब हार गया

हर डर जब हार गया

एक विश्वासी पति-पत्नि नाव से पार जा रहे थे। तेज़ नदी के बहुत तेज़ बहाव ने नाव के मल्लाहों की हिम्मत ही तोड़ डाली थी। नाव में बैठे लोगों के मुँह से हर हिचकोले के साथ डर के मारे चीखें निकलने लगती थीं। पर वहाँ एक अजीब सा आदमी था जिसके मुँह से गीत निकल रहे थे। घबराई हुई पत्नी ने उससे पूछा, “अरे तुम्हें डर नहीं लग रहा है?” पति ने पास पड़ी कुल्हाड़ी ली और कुछ इस तरह उठाई जैसे पत्नी को काट ही डालेगा। पत्नि ने बड़ी लापरवाही से पति के हाथ को एक तरफ़ करके कहा, “यह क्या बेवकूफी का मज़ाक है? हर वक्त मज़ाक अच्छा नहीं लगता।” पति बोला, “कुल्हाड़ी से डर नहीं लगा?” पत्नि बोली, “कुल्हाड़ी से तो डर लगता है और डरावनी भी है पर जिसके हाथ में कुल्हाड़ी है उस पर मुझे पूरा विश्वास है कि वह मुझे प्यार करता है और मेरा बुरा नहीं कर सकता।” पति बोला, “तूफान डरावना है पर जिसके हाथ में सृष्टि है वह मेरा बाप है। मुझे पूरा विश्वास है कि वह मुझे प्यार करता है और वह मेरा बुरा कर ही नहीं सकता।”

आप सोचते हैं कि आप का बुरा हो रहा है। आप्के साथ बुरा हो ज़रूर रहा है पर आपका बुरा हो नहीं सकता। वह आपका बुरा कर ही नहीं सकता। वह आपका बुरा सोचता तक भी नहीं है। जो आपकॊ बुरा लग रहा है उसमें भी आपकी भलाई छिपी हुई है। आज नहीं तो कल आप उसे देख लेंगे। हर बार समस्याएं सज़ा नहीं होतीं पर कई बार समस्याएं हमारे जीवन को सही रूप से संवारती और सजाती हैं। यह हमें मज़बूत बनाती हैं। क्या हमारी समस्याएं धन्यावाद का विषय नहीं हैं?

पर कुछ नकारात्माक सोच के लोग जीवन में कभी धन्यावादी नहीं हो सकते। वे तो हर समस्या को तिल का ताड़ बनाकर देखते हैं। वे अपना नुकसान नहीं सह सकते और अपने विरोध में कुछ सुन नहीं सकते। पर प्रभु हमें हर हाल में ख़ुश रहना सिखाता है।

एक व्यापारी अपने सारे मित्रों में बार-बार अपनी किस्मत को कोसता हुआ मित्रों से कहता, “यार क्या बताऊँ किस्मत फूट गयी एक लाख रुपए का नुक्सान हो गया।” झुंझालाई हुई बीवी ने उसके मित्रॊं से कहा, “सुबह से यही रोना रो रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि एक सौदे में दो लाख के फायदे का हिसाब लगाए हुए बैठे थे और फायदा एक लाख का हुआ।” ऐसे स्वाभाव के व्यक्ति कहाँ आराधाना कर पाएंगे।

ज़रा सोचें तो सही कि सृष्टि की सबसे बड़ी बुराई यह थी कि जिसने कभी बुरा किया ही नहीं उसके साथ सबसे अधिक बुरा करके उसे क्रूस पर चढ़ा दिया गया। यही सबसे बड़ी बुराई, मेरे लिए, परमेश्वर ने सबसे बड़ी भलाई बना डाली। जिन्होंने प्रभु के सिर पर काटों का ताज रखा उनके लिये भी प्रभु के पास स्वर्गिय ताज था जिसमें एक भी कांटा नहीं।

कभी-कभी जन्दगी में उस वक्त से भी गुज़रना पड़ता है जब हमारा विश्वास हिल जाता है। तब कितने ही सवाल हमें बहुत बेचैन करते हैं, ऐसा क्यों हुआ? पर प्रभु हमारी हर हार को भी जीत में बदलने की सामर्थ रखता है। प्रभु आपको प्यार करता है इसलिए आपको इन परिस्थित्यों से निकाल रहा है।

वह रात इतनी ठन्डी थी कि महायाजक के आंगन में सिपाही आग ताप कर रात काट रहे थे। उसी रात सुनसान गतसमनी बाग़ में प्रभु का पसीना बह रहा था। क्योंकि परमेश्वर के सामने सृष्टि का सबसे कठिन काम आ गया था। जो यीशु पाप को देख नहीं सकता था, उसे मेरे लिये पाप बनना पड़ रहा था। यह उसके लिए सबसे कठिन काम था पर वह उसे भी मेरे लिए कर गया। वह अपने पिता से कह रहा था, “ऎ बाप यदि हो सके तो यह प्याला मुझ से टल जाए, फिर भी मेरी नहीं तेरी इच्छा पूरी हो।” अन्ततः उसने परमेश्वर की इच्छा के आगे अपने आप को समर्पित कर दिया।

ऐसा महान परमेश्वर मुझ और आप जैसे इन्सान को ऐसा प्यार करता है। यही प्यार का एह्सास सच्ची आरधना का जन्मदाता है।

गुरुवार, 12 मार्च 2009

संपर्क अप्रैल-२००८ लेख: कहीं खो न जाएं

कहीं खो न जाएं
एक पागल ने मोहल्ले में काफी उत्पात मचा रखा था। इसीलिए उसे शहर के अधिकारियों ने पाँच साल के लिए पागलखाने भेज दिया। जब उसके पागलखाने से छूटने के लगभग पाँच महीने रह गए थे, अचानक एक दिन उसने अपने काम में व्यस्त एक सफाई कर्मचारी के पीछे से आकर फिनाएल के रखे हुए डिब्बे को पूरा पी लिया। इस घटना के बाद वह बहुत ही बुरी दशा से होकर निकला। बस यूँ कहिए कि वह मरते-मरते ही बचा। जैसे ही वह ठीक हुआ तो उसके साथ एक अजीब घटना घटी जिसके साथ उसका दिमाग़ भी ठीक हो गया।
तब वह पागल पगालखाने के अधिकारी के पास गया और कहने लगा कि “मैं अब ठीक हो गया हूँ। कृप्या मुझे इस पागलखाने से जाने की इजाज़त दे दीजिए।” अधिकारी मुस्कराते हुए कहने लगा, “अभी जाओ, फिर देखेंगे।” क्योंकि अकसर कई पागल उसके पास आते और ठीक होने का दावा करते थे। अतः इसके निवेदन को किसी ने कोई महत्व नहीं दिया। अब उसे पाँच महीने काटने बड़े मुश्किल हो गए। यूँ कहिये कि एक-एक दिन काटना भारी हो गया। रात-रात पागल चिल्लाते और ऊट-पटांग हरकतें करते। इस व्यक्ति ने साड़े चार साल से अधिक उनके साथ बिताए। अब जब केवल पाँच महीने ही काटने थे तो यह उसके लिए असंभव हो रहा था। सोचिए साड़े चार साल कैसे काट दिए परन्तू पाँच महीने क्यों नहीं काट पाया? सालों सँसार के साथ जीने के बाद जब किसी व्यक्ति का जीवन बदल जाता है और अपनी सही समझ में आ जाता है तब उसके लिए सँसार के लोगों के साथ जीना बहुत मुश्किल हो जाता है। इसलिए प्रभु ने आपको अपनी संगति में बुलाया है (१ कुरिन्थियों १:९)|
भजन ८४:३,४ में प्रभु यह नहीं कहता कि वह धन्य है पर यह कहता है कि क्या ही धन्य हैं वे जो प्रभु के भवन में रहते हैं। प्रभु का भवन ही स्वर्ग का द्वार है और यहीं से स्वर्गिय आशिषें आती हैं। अक्सर विश्वासी अपने बच्चों को प्रभु की आशिषों से वंचित रखते हैं, ऐसे कितने ही कारण हैं, जैसे - आज बहुत गर्मी है, कल सर्दी थी, परसों बरसात थी, आज स्कूल का होमवर्क बहुत है, और इस हफ्ते परीक्षाएं हैं। इस तरह से हम अपने बच्चों को प्रभु के घर से अर्थात आशिष के घर से अलग कर जाते हैं फिर सोचते हैं कि प्रभु हमारे बच्चों को आशिष दे। मैं सोचता हूँ कि ९० प्रतिशत विश्वासियों ने अपने बच्चों को इन्हीं कारणों से सँसार में ढकेल दिया है। शायद वे सँसार में बहुत धन कामा लें पर आत्मिक रूप से वे सँसार में सिर्फ गवांएंगे ही। उड़ाऊ पुत्र ने बाप के घर से अलग होकर खोया ही। पर जैसे ही बाप के घर से जुड़ा वह सब का सब लौटा लाया।

आज आप जो अपने बच्चों के जीवन में बोएंगे कल वही तो काटेंगे। सँसार में कहीं हमारे बच्चे खो न जाएं।

बुधवार, 11 मार्च 2009

संपर्क अप्रैल-२००८ लेख: मेरे बाप की बात

हज़ार बातों की एक बात,
मेरे बाप की बात!
दो लड़कों में बहस हो रही थी। बड़ा लड़का छोटे को समझा रहा था कि सूरज पूरब से निकलता है। छोटा बोला, “मेरे डैडी तो कहते हैं कि सूरज नहीं निकलता, पृथ्वी घूमती है। तो सूरज कैसे निकेलेगा?” बड़ा बोला, “मैं तो सालों से सूरज को पूरब से निकलता देख रहा हूँ।” छोटा बोला भई, मैं तो अपने डैडी की बात पर विश्वास करता हूँ।” सही कौन है? वह जो अनुभव पर विश्वास करता है या वह जो अपने बाप पर विश्वास करता है? हम अपने स्वर्गीय बाप की बात (उसके वचन) पर विश्वास करते हैं। दूसरे वे हैं जो संसार और अपने अनुभवों पर विश्वास करते हैं।
यह भी जान लो कि हमारा विश्वास किसी आश्चर्यकर्म का मोहताज नहीं। हमारा विश्वास तो परमेश्वर के जीवित वचन के सहारे ही जीवित है (यूहन्ना ४:४१,४२)।
 वचन की सचाई हमें प्रभावशाली बनाती है। पर शैतान कभी नहीं चाहता कि हम प्रभावशाली बनें। इसलिए वह पूरी कोशिश करता है कि प्रभु की मेज़, आराधना और प्रार्थना की प्रभावशाली सच्चाईयों को हम रस्मों में बदल दें। यह रस्में वचन की सच्चाई की जान निकाल देती हैं। फिर सिर्फ एक ख़ाली शरीर रह जाता है और सच्चाई उसे छोड़ चुकी होती है। हमारे लिये मेज़ में सम्मिलित होना, आराधना करना और प्रार्थना करना, सब मरे हुए काम बन जाते हैं। हम सोचने लगते हैं कि यह सब सही है - हम आराधना, प्रार्थना और उपवास, सब वचन के अनूसार ही तो करते हैं। फरीसी भी अपने बारे में यही सोचते थे। इसलिए उनकी प्रार्थनाएं, उपवास और दान सब मरे हुए काम थे।
आज बहुत से मसीही, मसीही तो कहलाते हैं पर मसीह उनके जीवन में नहीं है। बहुत से विश्वासी तो हैं पर उनमें विश्वास नहीं है। उनके बीच में प्रभु की मेज़ तो है पर प्रभु नहीं है। इसलिए कितने विश्वासी आत्मिक बेसुधी में आ गये हैं। वे अब जीवित तो कहलाते हैं पर हैं मरे हुए (प्रकाशितवाक्य ३:१)।
एक प्यारी सी बात

उम्मीद एक बड़ी अजीब सी चीज़ है। हार में भी जीत की राह देखती रहती है। अंधेरे में भी प्रकाश की आस लगाये रहती है। विश्वासी की निराशा में भी आशा जन्दा रहती है। क्योंकि उसकी आशा जीवित वचन पर होती है, जो कहता है, "मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूँगा और ना कभी त्यागूँगा। (इब्रानियों १३:५)।”

यहोशू ने इतनी लड़ाईयाँ लड़ीं और जीतीं। प्रभु ने उसे कहीं नहीं बताया या सिखाया कि युद्ध का नियंत्रण कैसे करना है। लेकिन उसे ये ज़रूर बताया कि वचन को रात-दिन मनन कैसे करना है (यहोशू १:८)| प्रभु का वचन कहता है, “मसीह के वचन को अपने हृदय में अधिकाई से बसने दो;... ” (कुलुस्सियों ३:१६)।

जो आदमी पवित्र आत्मा से भरा होता है वह परमेश्वर के वचन से भरा होता है और वचन परमेश्वर है। परन्तु जो आदमी सँसार के ज्ञान और विचारों से भरा होता है उसे आप शीघ्र ही विनाश में देखोगे। सँसार ज्ञान से और अपनी योजनाओं से हर दिन भरता ही जा रहा है अब उसको हम उसके विनाश में ही देखेंगे।
आज ही, कल की बात

प्रभु भविश्यवाणी इस लिये नहीं करता कि हमारी आने वाली बातों को जानने की जिज्ञासा को संतुष्ट करे, पर इसलीए कि हम आने वाली घटनाओं के लिए तैयार हो जाएं। परमेश्वर ने हमारे भविष्य का इतिहास लिखकर अपने वचन में दिया है। इतिहास तो हमेशा बीते हुए समय का ही लिखा जाता है, पर भविष्य का तो मात्र अनुमान ही लगाया जाता है। परमेश्वर का वचन ही एक ऐसी इकलौती किताब है जिसमें उसने भविष्य का इतिहास लिखा है ताकि परमेश्वर का जन जीवित वचनों से सचेत किया जा सके।

बहस काफी गरमा चुकी थी। खिसियाए हुए लड़के ने बोला, “इतनी सारी किताबों में लिखा है कि दुनिया गोल है।” दूसरा लड़का कमर पर हाथ रखकर बोला, “अबे अकल से पैदल तुझे ये दुनिया गोल दिखाई देती है... कहां है गोल?... चपटी है ये तो।” तीसरा छोटा लड़का भी बीच में हाथ मटकाते हुए बोला, “अरे यार सुनो तो सही, क्यों लड़ते हो? दुनियां ना तो गोल है और ना ही चपटी... सीताराम जी बोलते हैं दुनियां तो ४२० है।” हम सँसार को सँसार के ज्ञान से, अपनी समझ से या फिर अनुभव से समझने की कोशिश करते हैं।

मेरी नाक के उपर एक चश्मा रखा है। अगर मैं उसे अलग कर दुँ तो सब धुंधला जाएगा। ऐसे ही वचन के सहारे ही हम सँसार को सही रूप में देख पाते हैं। वरना सारा आत्मिक दर्शन धुंधला जाएगा, और फिर हम वचन के साहारे नहीं, समझ के साहारे ही जीने लगेंगे।

साफ सी बात

जब हमें सत्य को कहने के मौके मिलते हैं तो हम उन मौकों को खो देते हैं और ऐसे खोये हुए मौके हमारा बहुत कुछ खो देते हैं। हम डरते हैं कि सत्य को कहने से कहीं बवाल ना खड़ा हो जाये। इसलिए कई बार कई विश्वासी बड़े ही सुरक्षित तरीके अपनाते हैं। सत्य को साफ कहने से झिझकते हैं और समझौतेवादी नीति अपना लेते हैं - “इतना तो चलता है... इतना तो करना ही पड़ता है... क्या करें... ।” हम सोचते हैं इस तरह दो नाव पर पैर रखकर कुछ पल तो पार हो ही जाएंगे। पर सच मानिये पल ही पार होंगे, कभी भी पूरे पार नहीं हो पाएंगे। यह एक दुख की बात है। सालों इतना दुख सहा और सही शिक्षा पायी। पर अन्त आते-आते ग़लत को ग़लत जानकर भी ग़लत से समझौता कर जाते हैं। पतरस को परमेश्वर की बात पर कम अपने ऊपर ज़्यादा विश्वास था। यदि वह प्रभु के वचन को गम्भीरता से लेता और उस पर सोचता तो तीन बार क्या एक भी बार इन्कार नहीं करता। जब बार-बार प्रार्थना के लिये प्रभु जगाने के लिये आया तब भी वह नहीं जागा। इसीलिए वह बुरी तरह से हारा। उसकी शर्मनाक हार का एक यही कारण था।

जाने के बाद, उसके आने की बात

जब प्रभु के आने में देर होने लगी और रात गहराने लगी, तब दसों कुँवारियों का जीवन उंघने लगा। पर प्रभु ने कुछ जगाने वालों को रखा है, जो कहते हैं “देखो दूल्हा आ रहा है...”(मत्ती २५:६)| “हे सोने वाले जाग, मुर्दों में से जी उठ...”(इफिसियों ५:१४)। वे इस तरह सोते हुए जीवनों को परमेश्वर के वचन के द्वारा जगा देते हैं, ताकि सब कुछ ठीक-ठाक करके हम दूल्हे के स्वागत के लिए तैयार हो जाएं।

सम्पर्क भी इसी बड़ी सच्चाई को अपनी छोटी सी सेवाकाई के द्वारा आपको सतर्क करने का एक प्रयास मात्र है।

शनिवार, 7 मार्च 2009

संपर्क अप्रैल-२००८ लेख - सिर्फ़ अपने लिए

सिर्फ़ अपने लिए

एक बच्चों की कहानी है, जो आदमी के मन की असली कहानी को कहती है। एक कुत्ते ने बिल्ली से कहा, “मैंने रात को एक स्वपन देखा, कि बहुत बारिश हो रही है, पर पानी नहीं बरस रहा। तुझे मालूम है क्या बरस रहा था? हड्डियां और मीट की बोटीयाँ बरस रहीं थीं।बिल्ली बोली, “बेवकूफ! बकवास क्यों करता है, क्या कभी ऐसा हो सकता है? मैं ने तो शास्त्रों से सुना है, कि कभी कभी चूहे ज़रूर बरस जाते हैं।तो हम देखते हैं कि कुत्ते और बिल्लीयों का संसार यही है।

हर आदमी अपने अपने स्वार्थ की खोज में रहता है। क्योंकि मेरे पास ऐसे स्वभाव का कोई नहीं... क्योंकि सब अपने स्वार्थ की खोज में रहते हैं...” (फिलिप्पियों :२०, २१) अपने स्वार्थ से आगे वे सोच नहीं सकते।

कुत्ते से घास की बात करो तो उसे उलटी आने लगती है (कुत्ता घास तब खाता है जब उसे उल्टी करनी होती है) गधे से घास की बात करो तो उसकी बाछें खिल जाती हैं। कुत्ता कहेगा, “क्या घास-फूंस की बात करते हो? कुछ हड्डी-बोटी की बात करो। कुछ स्वप्न जगें, कुछ मौज मिले, कुछ स्वाद खिले।सब अपने स्वर्थ की ही बातें सुनना चाहते हैं। अपने स्वार्थ के आगे उन्हें सुनना अच्छा लगता है और ना सोचना।

एक पत्नी कई दिन से परेशान थी। रात-रात भर खांसती। आदमी की नींद काफी खराब होती। परेशान आदमी ने सुबह होते ही अपनी पत्नी से कहा, “आज तो मैं ज़रूर तुम्हारे गले के लिये कुछ लाऊँगा।पत्नी मुस्करा कर बोली, “सच! आज तुम मेरे गले के लिये कुछ लाऒगे... वही बड़े से लाकेट वाला हार जो हमने बी०टी० ज्वेलर्स के पास देखा था।पती को पत्नी का ख़्याल नहीं था। बल्कि उसे तो सिर्फ अपनी नींद का ख़्याल था और पत्नी की सोच भी कुछ और ही थी।

ऐसे ही स्वार्थी लोगों का सँसार भी उनके स्वार्थ और उनके परिवार तक ही सीमित रहता है। आदमी भी जानवरों की सीमाओं में जीता है। ऐसे लोग जीवन भर बेचैनी ढोते हैं।

परमेश्वर को मानने वले तो बहुत हैं पर परमेश्वर की बात को मानने वाले बहुत ही थोड़े हैं। परमेश्वर से पाना और परमेश्वर को पाना यह दो अलग-अलग बातें हैं। परमेश्वर से सब पाना चाहते हैं पर परमेश्वर को पाना बहुत कम लोग चाह्ते हैं। सत्य की खोज में तो कोई-कोई हैं। अन्यथा भीड़ तो स्वार्थ की खोज में है, जिसे सम्पन्न्ता और सुख सुविधा चाहिये। वास्तव में वे परमेश्वर की खोज में नहीं परन्तु अपने स्वार्थ की खोज में हैं। इसीलिये कई झूठे शिक्षक सुरक्षा और सम्पन्न्ता का प्रलोभन देते हैं।

लालच हमेशा अन्धा कर देता है और बुद्धी को हर लेता है। भीड़ चँगाई और समस्याओं के समाधान के लिये इन झूठे शिक्षकों के पीछे एक अन्धी दौड़ में शामिल हो जाती है। फिर यह भीड़ अपने आप में एक बड़ा आकर्शण बन जाती है और आकर्शण बनकर एक बड़ी भीड़ को इकठ्ठा करती है। पागलों की तरह दौड़ती इस भीड़ को देखकर लोग कहने लगते हैं कि यह सब पागल थोड़े ही हैं। यह बड़ी भीड़ बड़े अहंकार को भी जन्म देती है और यह अहंकार इन झूठे शिक्षकों के सिर च़ढ़कर चीखता है। ये लोग कोयल की तरह बहुत मीठा बोलते हैं पर चालाक भी कोयल की तरह ही होते हैं। कहा जाता है कि कोयल अपने अंडे कौवे के घोंसले में देती है और कौवा जो बहुत चालाक बनता है वही उसके अंडे सेता है। ये शिक्षक बहुत प्यार से बोलते हैं सिर्फ इसलिये कि अपने स्वार्थ को दूसरों के घोंसलों में पाल सकें।

एक बड़ा व्यापारी हवाई जहाज़ से यात्रा कर रहा था। जहाज़ में किसी तक्नीकी ख़राबी के कारण जहाज़ हवा में डगमगाने लगा। उसमें बैठे हर मुसाफिर को सामने मौत नज़र आने लगी। घबराहट और दह्शत के माहौल में लगभग सभी यात्री अपने-अपने परमेश्वर को याद करने लगे और प्रार्थनाओं में सौदबाज़ी करनी शुरू कर दी, “प्रभु बचाओगे तो ऐसा करुँगा, ऐसा नहीं करुँगा, बस एक बार पहुंचा दो उस व्यापारी ने हाल ही में एक नया घर बनवाया था जिसमें वह गृह प्रवेश भी नहीं कर पाया था। उसने भी घबराहट में परमेश्वर से वायदा कर डाला, “परमेश्वर अगर आप बचाओगे तो उस घर को बेचकर ग़रीबों में दान कर दूंगा।अभी प्राथना की ही थी कि जहाज़ अचानक ठीक हो गया और सुरक्षित उतर आया।

अब उस व्यापारी को दूसरी घबराहट शुरू हो गयी जल्दबाज़ी में वह परमेश्वर से क्या वायदा कर गया। अब वह सोचने लगा कि इस समस्या से बाहर कैसे निकला जाये? रातों की नींद उड़ गयी। अगर नया घर बेच कर दान नहीं दिया तो किसी और बड़ी समस्या में फंस जाऊँ, यह डर भी उसे सताने लगा। करोंड़ों का मकान देना भी कोई कम बड़ी समस्या नहीं थी। वायेदे से पीछे हटने से भी डर लगता था। आखिर तीन दिन के बाद उसने घर बेचने का फैसला कर डाला।

शहर के बड़े-बड़े लोग घर को ख़रीदने के लिए जमा हुए। व्यापारी ने कहना शुरू किया कि मेरे मकान की कीमत हज़ार रूपये है। यह बात सुनते ही भीड़ में ख़लबली मच गयी - “क्या सेठ का दिमाग़ तो नहीं फिर गया?” व्यापारी ने अपनी बात ज़ारी रखी और कहा, “पर इसके साथ एक शर्त है। मेरे पास एक कुत्ता भी है, जो भी उसे खरीदेगा उसे ही एक हज़ार रूपये में यह घर खरीदने का मौका मिलेगा।कुत्ते की बोली करोड़ से शुरु हुई और .८० करोड़ पर जाकर रुकी। जिसने कुत्ते को खरीदा व्यापारी ने उसे ही हज़ार में अपना घर भी बेच दिया। तब वह हाथ जो़ड़कर परमेश्वर के सामने हज़ार रुपये लेकर आया और कहने लगा, “प्रभु यह घर का दाम है जिसका मैंने वायदा किया था, ग़रीबों में बाँट रहा हूँ।जब स्वार्थ सामने आकर खड़ा हो जाता है तो हम आदमी को क्या परमेश्वर को भी धोखा दे डालते हैं। परमेश्वर को बेवकूफ बनाने की कोशिश करें।

प्रभु को साफ ऐह्सास है कि आपके मन में क्या है? (यूहन्ना :२४, २५) परन्तु ऐसे स्वार्थी लोगों को भी परमेश्वर बिना किसी स्वर्थ के प्यार करता है।

क्या कभी आपने यह प्यार भरी प्रार्थना की है कि हे! प्रभु आपने मेरे लिये बहुत कुछ किया है और बहुत कुछ दिया है। हे! प्रभु मैं भी आप्के लिये कुछ कर सकूँ।

हम समपर्क के माध्यम से परमेश्वर के दिल की आवाज़ आप तक पहुंचा रहे हैं।