सूचना: ई-मेल के द्वारा ब्लोग्स के लेख प्राप्त करने की सुविधा ब्लोगर द्वारा जुलाई महीने से समाप्त कर दी जाएगी. इसलिए यदि आप ने इस ब्लॉग के लेखों को स्वचालित रीति से ई-मेल द्वारा प्राप्त करने की सुविधा में अपना ई-मेल पता डाला हुआ है, तो आप इन लेखों अब सीधे इस वेब-साईट के द्वारा ही देखने और पढ़ने पाएँगे.
आशीष लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आशीष लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 3 सितंबर 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 9 – आराधना द्वारा विजय


आराधना द्वारा विजय


हमने परमेश्वर की आराधना और महिमा विषय से आरंभ किया था, और यह देखा कि प्रार्थना परमेश्वर से पाने से संबंधित है जब कि आराधना परमेश्वर को देने से। परमेश्वर की आराधना तथा उसे देने की आशीष को सीखने तथा समझने के लिए हमने परमेश्वर के वचन में से परमेश्वर को देने और परमेश्वर से पाने से संबंधित कुछ उदाहरणों को देखा; ये उदाहरण मुख्यतः पार्थिव और भौतिक वस्तुओं से संबंधित हैं, परन्तु इनमें एक आत्मिक पक्ष भी विद्यमान है।

हम उदाहरणों की इस श्रंखला का अन्त एक ऐसे उदाहरण से करेंगे जो दिखाता है कि कैसे आराधना के द्वारा विजय और बहुतायत की आशीषें प्राप्त हुईं। कृपया 2 इतिहास 20 को पढ़ें; स्थान के अभाव के कारण इस अध्याय पर पूरी व्याख्या करना यहाँ संभव नहीं होगा। बहुत संक्षिप्त में, परमेश्वर के भय में चलने वाले राजा यहोशापात को पता चलता है कि उस पर तीन जातियाँ, अम्मोनी, मोआबी और एदोमी, मिलकर आक्रमण करने वाली हैं। अपनी इस विकट परिस्थिति का एहसास होने पर, वह सारी परिस्थिती परमेश्वर के हाथों में समर्पित कर देता है, और अपनी सारी प्रजा के साथ परमेश्वर द्वारा छुटकारा पाने के लिए उससे प्रार्थना में लग जाता है। परमेश्वर उसे आश्वासन देता है कि परमेश्वर यहोशापात के लिए लड़ेगा और यहोशापात को कोई हानि उठानी नहीं पड़ेगी; उसे केवल अपनी सेना को तैयार करके युद्ध भूमि पर ले जाना होगा, युद्ध की सी पांति बान्ध कर उन्हें खड़ा करना होगा और फिर शान्त होकर खड़े रहें और परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य को देखें (2 इतिहास 20:14-17)। यहोशापात और उसकी प्रजा ने परमेश्वर के इस सन्देश पर विश्वास किया, उसको स्वीकार किया और इसके लिए परमेश्वर की आराधना करी (पद 18-19)। अगले दिन राजा यहोशापात अपने सेना को लेकर युद्ध भूमि पर गया, और उसने सेना के आगे परमेश्वर की आराधना और स्तुति करते हुए चलने वाले लोगों को रखा (पद 21); फिर, "जिस समय वे गाकर स्तुति करने लगे, उसी समय यहोवा ने अम्मोनियों, मोआबियों और सेईर के पहाड़ी देश के लोगों पर जो यहूदा के विरुद्ध आ रहे थे, घातकों को बैठा दिया और वे मारे गए" (2 इतिहास 20:22)। उन आक्रमणकारियों का अन्त हो जाने के पश्चात, यहोशापात और उसके लोगों को मृत आक्रमणकारियों पर से लूट का माल एकत्रित करने के लिए तीन दिन का समय लग गया (पद 24-25); जिसके पश्चात वे सब लोग बराका नाम तराई में परमेश्वर की आराधना के लिए एकत्रित हुए (पद 26-27)

ध्यान कीजिए, इस पूरी घटना में यहोशापात और उसके लोगों द्वारा प्रार्थना करने का उल्लेख एक बार हुआ है, परन्तु आराधना करने का उल्लेख तीन बार हुआ है; और इन तीन में से पहले दो अवसर ऐसे थे जिनमें परिस्थितियाँ बड़ी विकट और भयावह थीं, विनाश और मृत्यु उनके सामने मूँह बाए खड़े थे। साथ ही अब एक बार और यहजीएल में होकर उन लोगों को पहुँचाए गए परमेश्वर के सन्देश को ध्यान से पढ़ें (2 इतिहास 20:14-17); आप कहीं नहीं पाएंगे कि परमेश्वर ने उन लोगों को आराधना करने का कोई आदेश दिया - परमेश्वर ने केवल यह कहा कि वे युद्ध-भूमि पर जाएं, अपने आप को वहाँ खड़ा करें, और शान्त होकर उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य को देखें। किंतु परमेश्वर में तथा उसके द्वारा उन्हें जिस परिणाम का वायदा मिला था, उसमें उन लोगों के विश्वास ने उन्हें परमेश्वर के द्वारा कुछ भी किए जाने से पहले ही उस कार्य के लिए परमेश्वर की आराधना करने को प्रेरित किया; और युद्ध के बाद मिली विजय के लिए आराधना करी गई तो समझ में आती है। युद्ध भूमि यह उनकी आराधना ही थी जिसके आरंभ होने के साथ ही परमेश्वर का कार्य भी आरंभ हो गया (पद 22) और शत्रु का नाश हो गया। उन लोगों द्वारा परमेश्वर को आराधना के दिए जाने के कारण ना केवल उन्हें एक अप्रत्याशित विजय मिली, परन्तु साथ ही ईनाम के रूप में बहुतायत से संपदा भी मिल गई।

अपने जीवन में कठिन तथा समझ से बाहर परिस्थितियों में भी चिंता, शिकायत, कुड़कुड़ाने, निराश होने और ऐसी परिस्थितियों से निकलने के लिए संसार और उसके लोगों का सहारा लेने की बजाए, उन परिस्थितियों में तथा उन परिस्थितियों के लिए परमेश्वर की आराधना करना सीखें; परिणाम आपकी कलपना से भी बढ़कर आशचर्यजनक और लाभप्रद होंगे।


अब आगे हम उन बाधाओं को देखना आरंभ करेंगे जो हमारी आराधना में आड़े आती हैं, उन बातों को जिनके कारण हम परमेश्वर की आराधना करने नहीं पाते हैं।

बुधवार, 24 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 1: आराधना की आवश्यकता


 आराधना की आवश्यकता

भजन 107:8 "लोग यहोवा की करूणा के कारण, और उन आश्चर्यकर्मों के कारण, जो वह मनुष्यों के लिये करता है, उसका धन्यवाद करें!"

हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं; हम उससे अपने तथा औरों के लिए अनेक बातों को माँगते हैं; हो सकता है कि हम यह भी प्रार्थना करते हों कि परमेश्वर मुझे अपने लिए उपयोगी, या फिर और भी अधिक उपयोगी बना - लेकिन यह प्रार्थना कितने और/या कितनी ईमानदारी से माँगते हैं, यह हम सब के लिए गहन व्यक्तिगत आत्मपरीक्षण का विषय है।

लेकिन परमेश्वर से प्रार्थना करने से कहीं अधिक लाभकारी है उसकी आराधना करना; और आराधना का एक तरीका है परमेश्वर का धन्यवाद करना - सब बातों के लिए, जैसा पौलुस फिलिप्पियों 4:6-7 में कहता है: "किसी भी बात की चिन्‍ता मत करो: परन्तु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और बिनती के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्वर के सम्मुख अपस्थित किए जाएं। तब परमेश्वर की शान्‍ति, जो समझ से बिलकुल परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरिक्षत रखेगी।"

हर बात में परमेश्वर का धन्यवादी होना, विपरीत या समझ से बाहर या कठिन परिस्थितियों और अनुभवों के लिए भी, परमेश्वर में दृढ़ विश्वास का चिन्ह है; इस विश्वास का कि परमेश्वर हमारे, अर्थात अपने बच्चों के जीवनों में, केवल वही आने या होने देगा जो हमारे लिए अच्छा या हमारी भलाई के लिए है। इसलिए यदि हम उस पर और उसके द्वारा हमारे लिए निर्धारित मार्गों पर भरोसा रखते हैं, तो हम हर बात के लिए, वो चाहे कुछ भी क्यों ना हो, सदा उसका धन्यवाद करेंगे।

जो परमेश्वर का धन्यवाद और उसकी महिमा अर्थात आराधना नहीं करते वे शैतान का शिकार बन जाने के घोर खतरे में रहते हैं: रोमियों 1:21 "इस कारण कि परमेश्वर को जानने पर भी उन्होंने परमेश्वर के योग्य बड़ाई और धन्यवाद न किया, परन्तु व्यर्थ विचार करने लगे, यहां तक कि उन का निर्बुद्धि मन अन्धेरा हो गया।" रोमियों 1 का शेष भाग उन व्यर्थ विचारों और अन्धेरे मन के दुषपरिणामों का वर्णन करता है।

प्रीयों, परमेश्वर की आराधना करने और हर बात के लिए उसका धन्यवादी होने को अपने जीवन की नियमित आदत, अपने दैनिक आचरण तथा कार्य का अभिन्न भाग बना लें; जब भी कर सकते हैं - काम करते हुए, चलते हुए, बैठे हुए, यात्रा करते हुए, आदि, ऐसा करते रहें। अपने जीवनों में लगातार परमेश्वर का धन्यवाद और उसकी महिमा करते रहने का रवैया बना लें। ऐसा करने से परमेश्वर की शांति, परमेश्वर की आशीषें और परमेश्वर की सुरक्षा आपके जीवनों में आएगी; यह करना आपके लिए परमेश्वर की सन्तान होने के जीवन में बढ़ोतरी और तरक्की देने में बहुत सहायक होगा, केवल प्रार्थना करने से कहीं अधिक बढ़कर सहायक।