परमेश्वर के वचन बाइबल में हमारे लिए परमेश्वर,
उसके राज्य, उसके साथ हमारे संबंध, उसके कार्य, गुण, कार्यविधि, नियम, आज्ञाओं
इत्यादि के विषय बहुत कुछ दिया गया है, किन्तु परमेश्वर और उसके बारे में सब कुछ
नहीं दिया गया है; क्योंकि परमेश्वर ने अपने वचन में हमारे लिए वही सब लिखवाया है
जो वह चाहता है कि हम जानें और मानें और जिससे हम उसकी निकटता में आएँ, उद्धार
पाएँ और उसके परिवार का भाग बन जाएँ।
यद्यपि बाइबल में प्रभु यीशु के लड़कपन, 12 वर्ष से लेकर उनके सेवकाई आरंभ करने,30 वर्ष की आयु
तक का विवरण नहीं दिया गया है, किन्तु बाइबल इसके विषय में बिलकुल शान्त भी नहीं
है। यह परमेश्वर और प्रभु यीशु के विरोधियों द्वारा फैलाया गया भ्रम है कि बाइबल
उनके 12 से 30 वर्ष की आयु के बारे में
कुछ नहीं बताती है; और अपने द्वारा फैलाए गए इस भ्रम के आधार पर वे यह एक और झूठ
फैलाते हैं कि प्रभु यीशु भारत आए थे यहाँ से सीख कर वापस इस्राएल आए और उन
शिक्षाओं के अनुसार प्रचार किया। सच तो यह है कि बाइबल स्पष्ट बताती है कि प्रभु
यीशु वहीं इस्राएल में अपने परिवार के साथ ही रहे थे। इस संदर्भ में बाइबल में,
सुसमाचारों में, दिए गए कुछ पदों को देखिए:
मत्ती 13:54 “और अपने देश में आकर उन की सभा
में उन्हें ऐसा उपदेश देने लगा; कि वे चकित हो कर
कहने लगे; कि इस को यह ज्ञान और सामर्थ के काम कहां से मिले?”
मरकुस 6:2-3 “सब्त के दिन वह आराधनालय में
उपदेश करने लगा; और बहुत लोग सुनकर चकित हुए और कहने
लगे, इस को ये बातें कहां से आ गईं? और
यह कौन सा ज्ञान है जो उसको दिया गया है? और कैसे सामर्थ के
काम इसके हाथों से प्रगट होते हैं? क्या यह वही बढ़ई नहीं,
जो मरियम का पुत्र, और याकूब और योसेस और
यहूदा और शमौन का भाई है? और क्या उस की बहिनें यहां हमारे
बीच में नहीं रहतीं? इसलिये उन्होंने उसके विषय में ठोकर खाई।”
लूका 2:39-40 “और जब वे प्रभु की व्यवस्था के
अनुसार सब कुछ निपटा चुके तो गलील में अपने नगर नासरत को फिर चले गए। और बालक
बढ़ता, और बलवन्त होता, और बुद्धि से परिपूर्ण होता गया; और
परमेश्वर का अनुग्रह उस पर था।”
लूका 2:51-52 “तब वह उन के साथ गया,
और नासरत में आया, और उन के वश में रहा;
और उस की माता ने ये सब बातें अपने मन में रखीं। और यीशु बुद्धि और
डील-डौल में और परमेश्वर और मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ता गया।”
लूका 4:16 “और वह नासरत में आया;
जहां पाला पोसा गया था; और अपनी रीति
के अनुसार सब्त के दिन आराधनालय में जा कर पढ़ने के लिये खड़ा हुआ।”
यूहन्ना 7:15 “तब यहूदियों ने अचम्भा कर के
कहा, कि इसे बिन पढ़े विद्या कैसे आ गई?”
ध्यान कीजिए, मत्ती, मरकुस और यूहन्ना के हवाले
यह स्पष्ट दिखा रहे हैं कि प्रभु यीशु की शिक्षाओं को सुनकर सब को अचम्भा होता था
कि उन्होंने ‘बिना पढ़े’ वह सब कैसे जान लिया जो वे प्रचार करते थे। अर्थात, वे लोग
जानते थे कि प्रभु यीशु कभी कहीं शिक्षा पाने नहीं गए थे, उन्हीं के मध्य रहे थे,
परन्तु फिर भी इतना कुछ सीख गए थे, अद्भुत प्रचार कर सकते थे। यदि प्रभु यीशु कहीं
गए होते, तो लोग फिर यह कहते कि “उन्होंने समझ लिया कि वह यह सब उस परदेश से सीख
कर आया था जहाँ वह गया हुआ था” – किन्तु किसी ने भी कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा।
दूसरी बात, प्रभु यीशु ने जो भी प्रचार किया वह परमेश्वर के वचन के उस भाग, जिसे
हम आज बाइबल के पुराने नियम के नाम से जानते है, से था। यदि प्रभु कहीं बाहर से
कुछ सीखकर आए होते तो पुराने नियम से नहीं सिखाते वरन उस “ज्ञान” के अनुसार सिखाते
जिसे वे सीख कर आए थे – किन्तु ऐसा कदापि नहीं था। उनकी सारी शिक्षाएँ परमेश्वर के
वचन के पुराने नियम पर आधारित थीं।
लूका के हवालों पर ध्यान कीजिए – ये तीनों हवाले
स्पष्ट दिखाते हैं कि प्रभु यीशु की परवरिश वहीं गलील के नासरत में, जो उनका
निवास-स्थान था, हुई थी।
इसलिए चाहे बाइबल में उनकी 12 से 30 वर्ष की आयु के बारे में कोई विवरण नहीं है,
किन्तु इतना अवश्य प्रगट है कि प्रभु वहीं नासरत में अपने परिवार के साथ ही रहे थे
और लोगों ने उन्हें बड़े होते हुए देखा और जाना था।