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बुधवार, 17 अप्रैल 2019

अनापेक्षित फंदा


न्यायियो 8:27 – "उनका गिदोन ने एक एपोद बनवाकर अपने ओप्रा नाम नगर में रखा; और सब इस्राएल वहां व्यभिचारिणी के समान उसके पीछे हो लिया, और वह गिदोन और उसके घराने के लिये फन्दा ठहरा।" परमेश्वर ने इस्राएलियों को उनके सताने वालों पर गिदोन के नेतृत्व में एक अद्भुत और अप्रत्याशित विजय दिलवाई थी। इस अद्भुत विजय के स्मारक के रूप में गिदोन ने वह एपोद 'अपने नगर' ओपरा में स्थापित किया। परन्तु परमेश्वर का वचन यह भी बताता है कि वह एपोद गिदोन और उसके घराने के लिए फंदा बन गया।

इस पद से ऊपर के पदों (पद 22-26) से हम देखते हैं कि गिदोन का इस्राएलियों पर प्रभुत्व अथवा नेतृत्व का कोई इरादा नहीं था। वह इस अद्भुत विजय के लिए सारा आदर और महिमा परमेश्वर यहोवा ही को देना चाहता था। उस विजय से मिली लूट में से लेकर उसने स्मारक बनवाना चाहा, वह भी लोगों द्वारा स्वेच्छा से दिए गए लूट के भाग के प्रयोग के द्वारा। गिदोन ने कोई मूर्ति या अन्यजातियों के किसी देवी-देवताओं की मूर्ति अथवा चिन्ह के द्वारा नहीं, वरन एक एपोद के द्वारा यह करना चाहा। एपोद परमेश्वर के तम्बू में सेवकाई करते समय याजकों द्वारा पहने जाने वाले विशेष वस्त्र का एक भाग होता था (निर्गमन 28:4-8), और इसे परमेश्वर की इच्छा जानने के लिए भी प्रयोग किया जाता था (1 शमूएल 30:7-8)। अतः हम देखते हैं कि किसी भी प्रकार से परमेश्वर के विमुख जाने का गिदोन का कोई इरादा नहीं था। उसकी गलती बस इतनी थी कि उसने यह कार्य, चाहे परमेश्वर को आदर और महिमा देने ही के लिए, किन्तु परमेश्वर से पूछे बिना या परमेश्वर से निर्देश पाए बिना, अपनी बुद्धि और समझ के आधार पर, जैसा उसे सही और अच्छा लगा, उसने कर दिया।

फिर हम नीचे, पद 33, 34 में देखते हैं कि कुछ समय पश्चात, गिदोन के देहांत के बाद, इस्राएलियों ने परमेश्वर को छोड़ कर अन्य देवी-देवताओं के पीछे चलना आरंभ कर दिया। पद 27 का अभिप्राय संकेत करता है कि इस्राएलियों की इस मूर्तिपूजा और परमेश्वर के स्थान पर अन्य देवी-देवताओं के पीछे हो लेने के समय में उन्होंने गिदोन के जीवित रहते हुए भी, गिदोन द्वारा बनवाए गए उस स्मारक को भी देवता समान उपासना के लिए प्रयोग करना आरंभ कर दिया, जिससे "वह गिदोन और उसके घराने के लिये फन्दा ठहरा।"

यह उदाहरण दिखता है कि शैतान, हमारे द्वारा बात को जाने-पहचाने बिना, हमारे अच्छे और परमेश्वर को आदर देने के अभिप्राय से रखे गए उद्देश्यों को भी लोगों को बहकाने और परमेश्वर के विमुख कर देने के लिए प्रयोग कर सकता है, जो फिर हमारे तथा औरों लिए आशीष का नहीं वरन ठोकर का और पाप में गिरने कारण बन सकता है। परमेश्वर की आराधना, उपासना और आदर के लिए जो कुछ आवश्यक है, परमेश्वर ने वह अपने वचन में पहले से, उससे संबंधित विवरण तथा निर्देशों के साथ लिखवा रखा है। परमेश्वर द्वारा उस लिखवाए गए के अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह परमेश्वर से नहीं है; परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं है, और उसे चाहे जितनी श्रद्धा से माना या मनाया जाए वह, स्वयं प्रभु यीशु के शब्दों में, “व्यर्थ उपासना” (मत्ती 15:9), अर्थात निरुद्देश्य एवँ निष्फल उपासना है, या “कुकर्म” है (मत्ती 7:21-23)। इसीलिए, मसीही विश्वासियों के लिए यह अनिवार्य है कि किसी भी बात में अपनी बुद्धि और समझ का सहारा कभी न लें, विशेषकर आराधना तथा उपासना से संबंधित बातों में तो कतई नहीं, परंतु हर बात के लिए परमेश्वर की इच्छा जानकर उसके अनुसार ही कार्य करें (1 थिस्सलुनीकियों 5:21); कहीं आज की हमारी कोई बात, कल हमारी ही संतानों के लिए परेशानियाँ न खड़ी कर दे। परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए हमें केवल परमेश्वर के वचन को सीखकर उसका पालन करना है (1 शमूएल 15:22), न कि परमेश्वर को आदर और आराधना के लिए अपने ही मनगढ़ंत तरीके बना कर उन्हें मानना या मनवाना है, जो फिर हमारे अपने तथा औरों के लिए फंदा बन जाएँ जैसा गिदोन के एपोद के द्वारा हुआ।

सोमवार, 5 सितंबर 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 10: आराधना में अवरोध - परमेश्वर को ना जानना (i)

आराधना में अवरोध - परमेश्वर को ना जानना (i):

हम देख चुकें हैं कि परमेश्वर की आराधना का तात्पर्य है परमेश्वर को वह महिमा, आदर, श्रद्धा, समर्पण, बड़ाई, स्तुति, धन्यवाद आदि देना जिसके वह सर्वथा योग्य है (भजन 96:8), और जो उसका हक है। जैसे कि यदि किसी व्यक्ति के बारे में हमारी जानकारी ना हो तो हम उसके गुणों के बारे में ना तो बता सकते हैं, और ना ही औरों के सामने उसकी महिमा या बड़ाई कर सकते हैं; वैसे ही यदि हमें परमेश्वर के गुणों, विशेषताओं, कार्यों, योग्यताओं, हैसियत, सामर्थ, बुद्धिमता आदि के बारे जानकारी ना हो तो हम उसकी महिमा तथा आराधना नहीं कर सकते हैं। जैसे जितना हम किसी व्यक्ति को नज़दीकी से और व्यक्तिगत रीति से जानते हैं, उतना ही बेहतर हम उसका वर्णन करने पाते हैं, वैसे ही जितना नज़दीकी से और व्यक्तिगत रीति से हम परमेश्वर को अनुभव द्वारा जानने पाते हैं, उतना ही बेहतर हम उसकी महिमा और आराधना करने पाते हैं। किसी के बारे में जानना और वास्तव में उसे जानना भिन्न हैं, यद्यपि दोनों ही स्थितियों में हम उसके बारे में कुछ सीमा तक तो बोल और बता सकते हैं। लेकिन सच्चाई से परमेश्वर की आराधना कर पाना तब ही संभव है जब हम उसे वास्तव में व्यक्तिगत रीति से जानने लगें।

बहुत समय पहले मेरे साथ हुई एक घटना मुझे स्मरण आ रही है: मैं अपने एक निकट मित्र के साथ कुछ वार्तालाप कर रहा था, और उस वार्तालाप में उस समय के एक बहुत जाने-माने उच्च-श्रेणी के राष्ट्रीय नेता का ज़िक्र आया। वार्तालाप के प्रवाह को बिना बदले या बाधित किए, बड़ी ही हल्की रीति से उस नेता का नाम लेते हुए मेरा मित्र बोला, "अरे वो! उसे तो मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ"; फिर, उसी साँस में, आंखों में एक नटखट चमक तथा चेहरे पर एक मज़ाकिया मुस्कान लाकर मेरा मित्र आगे बोला, "लेकिन वो मुझे कितना जानता है, यह एक बिलकुल अलग बात है!"

बात की सच्चाई यह है कि मेरा वह मित्र उस नेता के बारे में तो जानता था, लेकिन उस नेता को नज़दीकी तथा व्यक्तिगत रीति से कदापि नहीं जानता था। यद्यपि वह उस नेता के बारे में बहुत कुछ बता सकता था, उसके बारे में वार्तालाप कर सकता था, लेकिन यह इस बात का प्रमाण नहीं था कि मेरा वह मित्र उस नेता को व्यक्तिगत रीति से भली भांति जानता है, उसके साथ निकट संबंध रखता है। ऐसी ही स्थिति हम में से अनेकों के साथ परमेश्वर के साथ हमारे संबंध को लेकर भी है। हम परमेश्वर के बारे में जानते हैं, अपने ज्ञान तथा सामान्य जानकारी के आधार पर हम उसके बारे में बहुत कुछ बता भी सकते हैं, परन्तु केवल एक ही बात है जो महत्वपूर्ण है, वह है कि क्या परमेश्वर के साथ हमारा एक निकट और व्यक्तिगत संबंध है; क्या हमने स्वयं निजी तौर पर उसे अनुभव कर के जाना है? क्या यह सच नहीं है कि सामान्यतः हम केवल उसके बारे में ही जानते हैं, परन्तु अपने निजी अनुभव तथा निकट एवं व्यक्तिगत संबंध द्वारा नहीं? क्या यह सच नहीं है कि सामन्यतः लोगों के लिए परमेश्वर के साथ संबंध रखना एक उत्साह-विहीन रस्म, यन्त्रवत कार्य, बेपरवाही का और ऊपरी, बाहरी दिखावे के लिए पूरी करी जाने वाली ज़िम्मेदारी है जिस के द्वारा कुछ धार्मिक अनुष्ठानों, रीति-रिवाज़ों और प्रथाओं का पालन हो सके?

नया जन्म पाने से परमेश्वर की सन्तान बन जाने वाले लोगों के बारे में भी यदि देखें तो - वे अपने स्वर्गीय परमेश्वर पिता को व्यक्तिगत अनुभव द्वारा और वस्तविकता में कितना जानते हैं तथा जानने का प्रयास करते हैं? उनके लिए उसकी योजनाओं और उन उम्मीदों को जो परमेश्वर उन से रखता है वे कितना जानते हैं तथा जानने का प्रयास करते हैं? उनके लिए परमेश्वर की इच्छाएं को तथा जो कार्य वह चाहता है कि उसके बच्चे करें उन कार्यों को वे कितना जानते हैं तथा जानने का प्रयास करते हैं? उसके वचन को जिसे उसने हमें दिया है कि वह हमारा मार्गदर्शक बने और परमेश्वर पिता के बारे में हमें सिखाए उस वचन को वे कितना जानते हैं तथा जानने का प्रयास करते हैं?


तो फिर इसमें कौन सी असमंजस की बात है कि नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी भी सार्वजनिक तौर पर अपना मुंह खोलकर परमेश्वर की आराधना के लिए कुछ शब्द बोलने में इतना अधिक हिचकिचाते हैं, अपने आप को असमर्थ पाते हैं
(...क्रमश:)

रविवार, 28 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 4: आराधना की अनिवार्यता


आराधना की अनिवार्यता

सामरी स्त्री के साथ हुए अपने वार्तालाप में प्रभु यीशु ने एक अति-महत्वपूर्ण बात कही - बात जिसका अकसर हवाला दिया जाता है, उध्दरण किया जाता है, परन्तु जैसे उसे लिया जाना चाहिए और समझा जाना चाहिए वैसा अकसर किया नहीं जाता है। वह बात है: "परन्तु वह समय आता है, वरन अब भी है जिस में सच्चे भक्त पिता का भजन [आराधना] आत्मा और सच्चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिये ऐसे ही भजन [आराधना] करने वालों को ढूंढ़ता है" (यूहन्ना 4:23)

यद्यपि अकसर इस पद के द्वारा यह दिखाने और सिखाने का प्रयास किया जाता है कि परमेश्वर प्रार्थना करने वालों का खोजी है, वास्तविकता ऐसी नहीं है; वास्तविकता में प्रभु यीशु ने जो कहा वह है कि परमेश्वर अपने आराधकों को ढूँढ़ता है, ना कि यह कि परमेश्वर प्रार्थना करने वालों को ढूँढ़ता है।

मूल युनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद भजन [आराधना] किया गया है वह है प्रोसकूनियो जिसका अर्थ होता है आदर देने के लिए मुँह के बल हो जाना या साष्टांग प्रणाम करना, नम्र होकर आराधना करना। इसी प्रकार जिस यूनानी शब्द का अनुवाद भजन [आराधना] करने वाला हुआ है वह है प्रोस्कुनीटीस अर्थात आराधना करने वाला। लेकिन जिस यूनानी शब्द का अनुवाद प्रार्थना, या प्रार्थना करना, या प्रार्थना करने वाला किया गया है वह है प्रोसिव्कुमाई जिसका अर्थ है परमेश्वर से प्रार्थना करना या गिड़गिड़ाना।

परमेश्वर से प्रार्थना करने वाले लोगों की कोई कमी नहीं है; गैर-मसीही और अविश्वासी या फिर वे लोग जो परमेश्वर से केवल कुछ पाना भर चाहते हैं या अपने आप को किसी विकट परिस्थिति से निकलवाना चाहते हैं, वे भी अपनी आवश्यकतानुसार परमेश्वर से प्रार्थना कर लेते हैं, और परमेश्वर सब की बात को सुनता है। लेकिन परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं खोज रहा है जो केवल प्रार्थना भर करते हैं, अर्थात उससे केवल माँगते ही रहते हैं; वह अराधकों को खोज रहा है; अर्थात उन्हें जो दीन और नम्र होकर अपने आप को उसे समर्पित कर दें, उसके प्रति आदर और आराधना का रवैया बनाए रखें तथा उसकी महिमा करें।

इस पद के द्वारा हम यह भी देखते हैं कि सच्ची आराधना "आत्मा और सच्चाई" से होती है, अर्थात वह ना तो ऊपरी या बाहरी होती है, ना ही बनावटी या दिखावे के लिए होती है, वरन सच्ची आराधना हृदय की गहराईयों से प्रवाहित तथा परमेश्वर पिता की ओर निर्देशित होती है - प्रभु यीशु द्वारा कही गई प्रथम और सबसे महान आज्ञा: "उसने उस से कहा, तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है" (मत्ती 22:37-38) के व्यावाहरिक प्रगटिकरण के रूप में।


हमारे प्रेमी और ध्यान रखने वाले परमेश्वर पिता के पास उससे प्रार्थना करने वाले, अपनी आवश्यकताओं को माँगने वाले तो बहुत हैं, लेकिन उसका हृदय अपने आराधकों तथा उनके द्वारा आत्मा और सच्चाई से करी गई उसकी आराधना के लिए लालायित रहता है - और इसका बहुत महत्वपुर्ण कारण भी है जिसे हम आगे देखेंगे। परमेश्वर की सन्तान होने के नाते हमारे लिए यह अनिवार्य है कि हमारे लिए हमारे स्वर्गीय पिता द्वारा रखी गई आशाओं के अनुरूप हम बढ़ें और उससे केवल प्रार्थना ही करते रहने वाले नहीं वरन उसकी आराधना करने वाले बनें।

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 3: आराधना के तरीके


आराधना के तरीके

हमने यह देखा है कि हर बात और हर परिस्थिति में परमेश्वर का धन्यवाद करना उसकी आराधना और महिमा करने का एक तरीका है; यह परमेश्वर की सन्तान के रूप में हमारे विकास के लिए केवल प्रार्थना ही करने की अपेक्षा कहीं अधिक लाभदायक है। हमने क्रिस्टी बाउर के अनुभव और पुस्तक से देखा कि परमेश्वर के धन्यवादी होने की आदत को बनाने के लिए जान-बूझकर किए गए प्रयासों ने ना केवल उनकी पुरानी हताशा को चंगा किया वरन परमेश्वर के प्रति उनके रवैये को बदल डाला और उसके प्रेम को उन्हें एक बिलकुल नए प्रकार से अनुभव करवाया। अब परमेश्वर की आराधना और महिमा के बारे में और आगे देखें - हर बात के लिए और हर परिस्थिति में परमेश्वर के धन्यवादी होने के अलावा, हम उसकी आराधना तथा महिमा और कैसे कर सकते हैं?

प्रभु यीशु के पहाड़ी उपदेश में उनके द्वारा अपने चेलों को दी गई आरंभिक शिक्षाओं में एक है: "उसी प्रकार तुम्हारा उजियाला मनुष्यों के साम्हने चमके कि वे तुम्हारे भले कामों को देखकर तुम्हारे पिता की, जो स्वर्ग में हैं, बड़ाई करें" (मत्ती 5:16)। यह हमें परमेश्वर की आराधना और महिमा करने का एक और तरीका देता है - हमारे कार्यों के द्वारा। जब हम अपने जीवनों को परमेश्वर के लिए एक सजीव उदाहरण बनाते हैं, जब हमारे कार्यों, व्यवहार और रवैये के कारण संसार के लोग परमेश्वर की महिमा करते हैं; हम परमेश्वर की आराधना करते हैं। प्रेरित पतरस के द्वारा परमेश्वर का पवित्र आत्मा इस आराधना का एक और पक्ष हमारे सामने लाता है: "अन्यजातियों में तुम्हारा चालचलन भला हो; इसलिये कि जिन जिन बातों में वे तुम्हें कुकर्मी जान कर बदनाम करते हैं, वे तुम्हारे भले कामों को देख कर; उन्‍हीं के कारण कृपा दृष्टि के दिन परमेश्वर की महिमा करें" (1 पतरस 2:12); अर्थात, संसार के लोगों की प्रतिक्रिया तथा रवैया चाहे जैसा हो, हमें आदरपूर्ण व्यवहार और भले कार्यों को कठिन परिस्थितियों के बावजूद बनाए रखना है, जिससे जो वर्तमान में हमारी आलोचना तथा बुराई करते हैं, अन्ततः परमेश्वर की महिमा करने वाले हों।


हम परमेश्वर की आराधना और महिमा अपने मसीही विश्वास की ज्योति को छुपाने या दबाने की बजाए उसे संसार के सामने चमकने देने के द्वारा करते हैं; तथा परमेश्वर को महिमा देने वाले अपने मसीही विश्वास के कार्यों के प्रगटिकरण के द्वारा भी।

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 2: आराधना द्वारा परिवर्तन



आराधना द्वारा परिवर्तन

आराधना की सामर्थ के बारे में लिखकर जो कल प्रकाशित किया गया था, उसे स्पष्ट करने के लिए एक पुस्तक से लिया गया उध्दरण है। इसके साथ ही एक चुनौती भी है; पढ़िए और देखिए कि क्या आप उस चुनौती को लेने के लिए तैयार हैं? उध्दरण है:

मैंने जैसे परमेश्वर के साथ चलना आरंभ किया, मैं उसके साथ अपने संबंध में बढ़ने भी लगा; किंतु साथ ही मुझे अपनी लंबे समय से चली आ रही हताशा से भी लड़ना पड़ रहा था। एक समझदार मसीही महिला ने मुझ से आग्रह किया कि मैं अपने बिस्तर के पास ही एक दैनिक धन्यवादी पुस्तिकारखना आरंभ कर दूँ। उसने कहा कि प्रति-रात्रि सोने से पहले मैं उस पुस्तिका में उस दिन की तीन ऐसी बातें लिखूँ जिनके लिए मैं परमेश्वर का धन्यवादी हूँ। उसका कहना था कि सोने से पहले सकारात्मक बातों पर ध्यान लगाने से मैं बेहतर सोने पाऊँगा। उस महिला ने मुझे चुनौती दी कि मैं ऐसा 90 दिन तक करूँ क्योंकि उसका विश्वास था कि ऐसा करने से मैं जीवन के प्रति अधिक सकारात्मक रवैया विकसित कर सकूँगा।

मैंने उस महिला की यह चुनौती स्वीकार कर ली। आरंभिक दिनों में तो मैंने प्रत्यक्ष और सैद्धांतिक बातें ही लिखीं जैसे कि अपने परिवार तथा मित्र जनों के लिए धन्यवादी होना। फिर स्वतः ही मैं दैनिक जीवन की बातों पर और बारीकी से ध्यान देने लग गया, और मेरे सामने ऐसी अनेक बातें आने लगीं जिनके लिए मैं परमेश्वर का धन्यवादी हो सकता था: किसी के द्वारा करी गई मेरी प्रशंसा जिससे मुझे प्रोत्साहन मिला या फिर तेज़ तूफान जिसके द्वारा मैं परमेश्वर की अद्भुत सामर्थ को स्मरण करने पाया। लिखने के इस अभ्यास ने मुझे अधिक ध्यान देने वाला बना दिया। इसके द्वारा मैं उन छोटी छोटी बातों के प्रति जागरूक और संवेदनशील हो गया जिनके द्वारा परमेश्वर प्रतिदिन हमारे प्रति अपने प्रेम को प्रगट करता रहता है।

मैंने वह पुस्तिका केवल 3 महीने ही लिखी, लेकिन उसने मेरे दृष्टिकोण को सदा के लिए बदल डाला। मेरे प्रति परमेश्वर के प्रेम के चिन्हों को मैं कई रूपों में तथा अनेकों स्थानों पर ढूढ़ने और पाने लग गया। मैं उसका कृतज्ञ हो गया क्योंकि उसने मुझे मेरी उस पुरानी हताशा से भी चंगा कर दिया, और मैं अचंभा करने लगा कि कैसे उसने उसके प्रति मेरे, एक घायल जानवर के दुस्साहसिक और अवज्ञाकारी होने जैसे रवैये को बदल कर शांत स्वीकृति तथा उसकी प्रतीक्षा करने वाला बना दिया। या, अगर मैं इसे कुछ भिन्न शब्दों में कहूँ तो, मैं परमेश्वर के प्रेम की एक बूँद को पाने की घोर तड़पन से निकलकर उसके प्रेम के सागर में तैरते रहने वाला हो गया। अन्ततः मैं एक डूबते हुए व्यक्ति के समान हाथ-पैर मारते हुए परमेश्वर के प्रेम से लड़ने वाला होने की बजाए, उसमें पूर्ण विश्वास के साथ उसके प्रेम के सागर में तैरते रहने वाला हो गया।
- यह Our Daily Bread 2016 के सालाना संसकरण में दिए गए क्रिस्टी बाउर की पुस्तक “Best Friends With God” से लिए उध्दरण से लिया गया है।


अब आपके लिए चुनौती: क्या आप भी 3 महीने तक ऐसे ही अपनी व्यक्तिगत धन्यवादी पुस्तिका लिखकर उससे आप में आए परिवर्तन के बारे में बताएंगे?

बुधवार, 24 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 1: आराधना की आवश्यकता


 आराधना की आवश्यकता

भजन 107:8 "लोग यहोवा की करूणा के कारण, और उन आश्चर्यकर्मों के कारण, जो वह मनुष्यों के लिये करता है, उसका धन्यवाद करें!"

हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं; हम उससे अपने तथा औरों के लिए अनेक बातों को माँगते हैं; हो सकता है कि हम यह भी प्रार्थना करते हों कि परमेश्वर मुझे अपने लिए उपयोगी, या फिर और भी अधिक उपयोगी बना - लेकिन यह प्रार्थना कितने और/या कितनी ईमानदारी से माँगते हैं, यह हम सब के लिए गहन व्यक्तिगत आत्मपरीक्षण का विषय है।

लेकिन परमेश्वर से प्रार्थना करने से कहीं अधिक लाभकारी है उसकी आराधना करना; और आराधना का एक तरीका है परमेश्वर का धन्यवाद करना - सब बातों के लिए, जैसा पौलुस फिलिप्पियों 4:6-7 में कहता है: "किसी भी बात की चिन्‍ता मत करो: परन्तु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और बिनती के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्वर के सम्मुख अपस्थित किए जाएं। तब परमेश्वर की शान्‍ति, जो समझ से बिलकुल परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरिक्षत रखेगी।"

हर बात में परमेश्वर का धन्यवादी होना, विपरीत या समझ से बाहर या कठिन परिस्थितियों और अनुभवों के लिए भी, परमेश्वर में दृढ़ विश्वास का चिन्ह है; इस विश्वास का कि परमेश्वर हमारे, अर्थात अपने बच्चों के जीवनों में, केवल वही आने या होने देगा जो हमारे लिए अच्छा या हमारी भलाई के लिए है। इसलिए यदि हम उस पर और उसके द्वारा हमारे लिए निर्धारित मार्गों पर भरोसा रखते हैं, तो हम हर बात के लिए, वो चाहे कुछ भी क्यों ना हो, सदा उसका धन्यवाद करेंगे।

जो परमेश्वर का धन्यवाद और उसकी महिमा अर्थात आराधना नहीं करते वे शैतान का शिकार बन जाने के घोर खतरे में रहते हैं: रोमियों 1:21 "इस कारण कि परमेश्वर को जानने पर भी उन्होंने परमेश्वर के योग्य बड़ाई और धन्यवाद न किया, परन्तु व्यर्थ विचार करने लगे, यहां तक कि उन का निर्बुद्धि मन अन्धेरा हो गया।" रोमियों 1 का शेष भाग उन व्यर्थ विचारों और अन्धेरे मन के दुषपरिणामों का वर्णन करता है।

प्रीयों, परमेश्वर की आराधना करने और हर बात के लिए उसका धन्यवादी होने को अपने जीवन की नियमित आदत, अपने दैनिक आचरण तथा कार्य का अभिन्न भाग बना लें; जब भी कर सकते हैं - काम करते हुए, चलते हुए, बैठे हुए, यात्रा करते हुए, आदि, ऐसा करते रहें। अपने जीवनों में लगातार परमेश्वर का धन्यवाद और उसकी महिमा करते रहने का रवैया बना लें। ऐसा करने से परमेश्वर की शांति, परमेश्वर की आशीषें और परमेश्वर की सुरक्षा आपके जीवनों में आएगी; यह करना आपके लिए परमेश्वर की सन्तान होने के जीवन में बढ़ोतरी और तरक्की देने में बहुत सहायक होगा, केवल प्रार्थना करने से कहीं अधिक बढ़कर सहायक।