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गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

सम्पर्क दिसंबर २००६: अंधकार से ज्योति की ओर

(यह लेख, सहारनपुर के श्री अनंग  केसरी राय की गवाही, अर्थात प्रभु यीशु में उनके व्यक्तिगत अनुभव की अभिव्यक्ति है।)


मेरा नाम अनंग केसरी राय है और मेरा जन्म अगस्त ११, १९६२ को जमशेदपुर (झारखंड) में एक उड़िया परिवार में हुआ। मैं बचपन से ही बहुत धार्मिक प्रवति का व्यक्ति था। यह नहीं कि मुझे शांति की खोज थी; क्योंकि मैं तो शान्ति-अशान्ति के बारे में सोचता ही नहीं था। बस अपनी माँ को पूजा पाठ करते देख मेरे हृदय में भी धार्मिक भावना जाग उठी। सुबह उठकर सबसे पहले स्नान करना, उसके बाद किसी के घर से फूल चोरी कर के लाना और चीनी या गुड़ का प्रसाद चढ़ाकर पूजा पाठ करना मेरी आदत बन गई थी और मैं निस्वार्थ भाव से करता था।

जब मैं दस साल का हुआ और कक्षा पाँच में पढ़ता था तो उस दौरान स्कूल में ही हमें हैज़े का टीका दिया गया, जिसके ग़लत असर से मेरी आंखों की रोशनी चली गयी। वैसे बच्पन से ही मेरी आँखों कि रोशनी कम थी और डॉक्टर का कहना था कि बारह साल का होने पर मुझे चश्मा लगेगा, लेकिन यह घटना दसवें साल में ही घट गयी। मेरे माता-पिता ने, जो मुझे बेहद प्यार करते थे, मेरे इलाज के लिए भरसक प्रयत्न किया। जो जहां भी बताता, वे वहाँ मुझे लेकर जाते, लेकिन कुछ भी ठीक नहीं हुआ। उनके बहुत प्रयास के बावजूद भी मेरी आँखें ठीक नहीं हुईं। मेरे इलाज की भागदौड़ में करीब पाँच साल बीत गये, और यह मेरे लिए बहुत दुखः का समय था। उस समय तो मैं प्रभु यीशु को नहीं जानता था, परन्तु प्रभु में आने के बाद समझ पाया कि यह मेरे लिए, यूहन्ना ९:१-३ के अनुसार, परमेश्वर की नियत योजना थी; जहाँ प्रभु ने अपने चेलों से, मुझ जैसे ही एक व्यक्ति के समबंध में कहा, “यह इसलिए अन्धा हुआ कि उसमें परमेश्वर के काम प्रकट हों।”

उस समय हमारे पड़ौस में एक इसाई परिवार रहता था। उन्होंने मेरे पिताजी को सलाह दी कि मुझे घर में बैठा कर रखने से अच्छा तो राँची स्थित एक नेत्रहीनों के स्कूल में भर्ती करना होगा। उनके दबाव में आकर, पिताजी ने मेरा दाखिला उस स्कूल में करवा दिया। यह स्कूल एक इसाई संस्था का था और उस समय इस स्कूल में हड़ताल चल रही थी। मेरा मन उस स्कूल में नहीं लगा अतः किसी तरह रो-धोकर एक महीने बाद ही मैं अपने घर आ गया। दोबारा मैं उस स्कूल में वापस जाना नहीं चाहता था और ना ही मेरी माँ मुझे भेजना चहती थी। लेकिन उस परिवार का दबाव फिर से मेरे पिताजी पर पड़ा और वे मुझे दोबारा उसी स्कूल में छोड़ आए। वहाँ हड़ताल खुल चुकी थी और पढाई भी शुरू हो चुकी थी। लेकिन मुझे नेत्रहीनों की पढ़ाई के अक्षरों (Braille Script) से बड़ी घबराहट होने लगी कि मैं इन्हें कैसे पढ़ूँगा? क्योंकि उस स्कूल में अलग अलग काम भी सिखाए जाते थे, सो मैं ने फैसला किया कि मैं पढ़ूँगा नहीं वरन कोई काम सीखूँगा। वहाँ एक क्लर्क, जिनके माध्यम से मेरा दाखिला हुआ था, ने कहा कि नहीं तुझे पढ़ना है। अतः मैंने पढ़ाई फिर शुरू कर दी।

मिशन स्कूल होने के नाते शुरू में आधे घंटे का समय होता था जिसमें बाईबल की बातें सिखाई जाती थीं। उसमें छोटी छोटी कहानियाँ जैसे उड़ाऊ पुत्र, धन्वान व्यक्ति और कंगाल लाज़र इत्यादि की कहनियाँ, सब मुझे बहुत अच्छी लगती थीं। इस तरह मेरा मन वहाँ लग गया और मैं अन्य नेत्रहीन छात्र-छात्राओं के साथ घुल-मिल गया। सुबह-शाम प्रार्थना होती थी, मैं उस प्रार्थना को भी सीख गया और बाईबल परीक्षा में ५० में से ४८ अंक भी प्राप्त किये। लेकिन मेरा मन इस बात को मानने को तैयार नहीं था कि यीशु ही परमेश्वर है, जैसे कि वहाँ के कुछ लोग बोलते थे। इसी बात पर वहाँ के लड़कों से मेरी बहस भी हो जाती थी। मेरी सोच थी कि सब ईश्वर एक हैं। मेरे मन में यह सवाल पहाड़ की तरह था कि अगर यीशु ही परमेश्वर है तो उसने मुझे हिन्दू परिवार में जन्म क्यों दिया? सीधे इसाई परिवार में देता जिससे धर्म बदलने की आवश्यक्ता ही नहीं होती। मैंने फैसला किया कि मैं कभी इसाई नहीं बनूँगा। आज जो मेरी पत्नि है वह भी इसी नेत्रहीन स्कूल में पढ़ती थी और प्रभु यीशु पर विश्वास करती थी, लेकिन उद्धार के बारे में उसे भी पता नहीं था। हम दोनो विवाह से पहले एक दूसरे को जानते थे। फिर भी मैंने फैसला लिया कि यदि हमारी शादी हुई तो मैं उसे गिरजे जाने से नहीं रोकूँगा, लेकिन खुद नहीं जाऊँगा।

उसके बाद बहुत शीघ्र मैंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली। उसी समय इन्दिरा गाँधी ने नेत्रहीन लोगों के लिए नौकरियों का प्रस्ताव पास करा रखा था और काफी नेत्रहीन सरकारी नौकरियों पर रखे जा रहे थे। मुझे भी नौकरी करने की इच्छा हुई, लेकिन इसके लिए मेरे पास कोई ट्रेनिंग होना बहुत ज़रूरी था। इसीलिए मैं १९८३ में दिल्ली आ गया। वहाँ एक इन्स्टीटयूट में ६ महीने की ट्रेनिंग के बाद मेरी नौकरी अमृतसर (पंजाब) की एक फैकट्री में लग गयी। वहाँ मुझे बहुत अकेलापन महसूस होने लगा। उस समय पंजाब में उग्रवादियों का दौर था; इसी के चलते यह फैकट्री सहरनपुर (यू०पी०) में आ गयी। सहारनपुर आ जाने के बाद तो मैं और भी बिगड़ता चला गया। मैं जो भी पैसा कमाता, उसे शराब और सिनेमा में उड़ा देता। यह मेरी आदत बन चुकी थी। जब भी मैं अकेला होता था तो अपने अन्दर एक खालीपन का एहसास करता था। उस समय तो उस खालीपन को मैं दोस्तों की संगति से या शराब से भर लेता था, लेकिन जब कोई मेरे साथ नहीं होता था तो उस खालीपन को भरना बहुत मुश्किल होता था। उन दिनों मेरे पास बाईबल के एक भाग - लूका रचित सूसमाचार की एक प्रति थी, जिसे मैं अपना डर दूर करने के लिए पढ़ता था, या फिर मेरे पास रेडियो था जिसमें मैं सुबह साढ़े चार बजे एक मसीही प्रोग्राम ‘विश्ववाणी’ को सुनता था, जिसमें पाँच मिनिट का एक सँदेश आता था ‘परमेश्वर का वचन’। क्योंकि उस समय कोइ सिनेमा के गीत तो आते नहीं थे, इसलिए मजबूरी थी, उसी को सुनता था। इस तरह से मेरा जीवन चल रहा था।

उसी दौरान एक लड़का, जो प्रभु यीशु पर विश्वास करता था, इसी फैकट्री में जिसमें मैं काम करता था, काम करने आया। उसने मुझ से मिलकर पूछा, ‘क्या आप प्रभु यीशु को जानते हैं?’ मैंने घमन्ड से भरा जवाब दिया, ‘हाँ मैं जानता हूँ, और मिशन स्कूल में भी पढ़ा हूँ।’ यद्यपि मैं प्रभु यीशु को पापों से क्षमा देने वाले परमेश्वर के रूप में नहीं जानता था। फिर उसने मुझ से कहा कि ‘हम आपके घर आना चाहते हैं।’ मैंने कहा कि ‘हाँ-हाँ आओ’ लेकिन मैं दिल से नहीं चाहता था कि वह मेरे घर आए। इसीलिए मैंने उसे अपने घर का सही पता नहीं दिया। लेकिन फिर भी न जाने कैसे वह और उसके साथ दो जन, रविवार मई २८, १९८९ को हमारे घर आ गये। उन्होंने एक मसीही गीत गाया ‘नीले गगन में चमकें तारे’। यह गीत सुनकर मुझे लगा कि जैसे यह हमारी तरफ के लोग हैं। फिर उन्होंने बाईबल में से एक पद पढ़ा जिसकी व्याख्या तो मुझे याद नहीं, पर पद आज भी याद है, “तू मेरी दृष्टि में अनमोल और प्रतिष्ठित ठहरा है और मैं तुझ से प्रेम करता हूँ” (यशायाह ४३:४)। फिर उन्होंने कहा कि हम आपको शाम कि एक मसीही संगति में ले जाना चाहते हैं, क्या आप चलोगे? मैंने कहा हाँ, और मैं उनके साथ चलने को तैयार हो गया। शाम को जब हम उनके साथ सभा में गये तो वहाँ पर भले ही मैं शब्दों का सन्देश न समझ सका, लेकिन उनके प्यार ने मेरा मन मोह लिया। उनके ऐसे मन-मोहक प्यार को अनुभव कर मैं सोचने लगा कि अगर इन लोगों में ऐसा प्यार है तो इनका प्रभु कितना प्यारा होगा। उसके बाद वही लड़का जो मुझे फैकट्री में मिला था, जहाँ भी ऐसी प्रभु की सभाएं होतीं, वह मुझे अपने साथ लेकर जाता था। ना चहते हुए भी मैं उसके साथ उसका दिल रखने को चल देता था कि कहीं उसे बुरा न लगे। वे लोग आते रहे, समझाते रहे; पर मन कहाँ फिरा था, वह तो उन्हीं पुराने यारों से जुड़ा था। मेरे मन में कभी यह चाह थी ही नहीं कि मैं यारों की मौज और शराब की मस्ती से अलग होऊँ। यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा।

उसके बाद मेरी पत्नि का पहली बार माँ बनने का समय नज़दीक आ गया। लोगों ने मुझे डरा रखा था कि स्त्री के पहले प्रसव में ज़िन्दगी और मौत का सवाल होता है। मुझे अस्पताल के खर्चे के लिए २५०० रूपये की ज़रूरत थी और मेरे पास थे लगभग २५० रूपये। उस समय वेतन भी तन को पूरा न पड़ता था। कोई करीबी रिश्तेदार भी उस समय करीब नहीं था। न तो आँखें थीं न पैसा, और न ही कोई इन्सानी सहारा। हम सहमे से सोच रहे थे कि क्या करें? आदतन, मैं ऐसी परिस्थित्यों में यीशु से प्रार्थना कर लेता था और वैसा तब भी कर रहा था।

किसी ने हमारे पास इस घटना से कुछ दिन पहले पवित्रशास्त्र की एक प्रति-यूहन्ना रचित सूसमाचार, ब्रेल लिपि में भेजी। जब हम उसे पढ़ रहे थे तो उसमें एक पद आया “परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम किया कि उसने अपना इकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो पर अनन्त जीवन पाए” (यूहन्ना ३:१६)। वैसे तो मैंने यह पद कई बार पढ़ा और सुना था, लेकिन उस समय यह पद मुझ से बातें करने लगा, और परमेश्वर मेरे अन्सुलझे सवालों का जवाब देने लगा। इलाज ऐसे हुआ, जैसे किसी बड़े अधिकारी की पत्नि का।

उस समय, जब मैं अपनी पत्नि के प्रसव के बारे में काफी चिंतित था, प्रभु ने हमारी फैकट्री के मालिक को जो काँग्रेस पार्टी का एम० एल० ए० था, के दिल को तैयार किया कि इस विषय में वो हमारी मदद करे। यद्यपि मालिक और नौकर का क्या सम्बन्ध होता है? तौभी उसने मुझे मुख्य चिकित्सा अधिकारी के नाम एक पत्र लिख कर दिया। जब मैं १ अगस्त १९८९ को अपनी पत्नि के साथ अस्पताल पहुँचा, मैं बहुत परेशान था और मन ही मन यह प्रार्थना कर रहा था कि प्रभु मेरी सहायता कर। शाम के समय संगति के कुछ भाई-बहन हमसे मिलने आए और उन्होंने प्रार्थना की। उसके बाद अस्पताल के अधिकारियों और कर्मचारियों का मेरे प्रति व्यवहार ही बदल गया और मेरी पत्नि का इलाज ऐसे हुआ, जैसे किसी बड़े अधिकारी की पत्नि का।

उस रात बारिश बहुत थी और मैं उस अस्पताल के आँगन में डरा सा अपने आप को अकेला महसूस कर रहा था। सब साथी जा चुके थे। पर प्रभु अब भी पास खड़ा बातें कर रहा था, और कह रहा था, देख मैं जीवित हूँ और तू मत डर। वह मेरे सामने साक्षात तो नहीं खड़ा था, लेकिन उसकी धीमी आवाज़ मेरे कानों में गूँज रही थी। और साथ ही मुझे बीते दिनों में सुने हुए सारे वो वचन याद आ रहे थे कि जब मूसा इस्राईलियों को मिस्र से छुड़ाकर लाया तो प्रभु ने उसे तीन चिन्ह दिये; जो उनके लिए इस बात का प्रमाण था कि परमेश्वर ने ही उस्र भेजा है। वे सारे चिन्ह अब मेरे सामने घट रहे थे, जो इस बात का सबूत था कि मेरा प्रभु जीवित है। मैंने १९७९ से १९८९ तक बाईबल को पढ़ा था और प्रार्थना भी करता था, लेकिन कभी यह एहसास नहीं किया था कि प्रभु यीशु जीवित है। लेकिन उस दिन मैं जान गया कि प्रभु जीवित है। यूहन्ना १७:३ में लिखा है कि प्रभु यीशु को जानना ही अनन्त जीवन है। उस दिन मैंने रो-रो कर प्रभु यीशु से अपने पापों की माफी माँगी और उसी समय से अपने आप को बहुत हलका महसूस किया। उसके बाद फिर कभी मुझे अकेलापन महसूस नहीं हुआ। उसी दिन प्रार्थना के बाद मुझे अपने आप में निश्चय मिला कि प्रभु ने मेरे पापों को माफ कर दिया है। मैं यह तो नहीं कह सकता कि प्रभु ने मुझे कोई वचन दिया, क्योंकि उस समय मेरे पास कोई बाईबल तो थी नहीं; लेकिन एक आवाज़ आई जिसने मुझे आश्वासन दिया कि, “जा पुत्र तेरे पाप क्षमा हुए।” उसके बाद रात १०:३५ पर परमेश्वर ने हमें एक बेटी का दान दिया। प्रभु का धन्यावाद हो कि मेरी बेटी का जन्म और मेरा नया जन्म एक ही दिन हुआ।

अगले दिन संगति के भाई-बहिनों को पता चला और वे लोग हमसे मिलने आए। उसी दिन अस्पताल के स्टाफ क्वार्टर्स में एक नर्स के यहाँ सुसामाचार की सभा रखी गयी। सभा में भाइयों ने मुझे कहा कि आप अपनी गवाही दो कि कैसे प्रभु यीशु ने आपके जीवन में काम किया। प्रभु का धन्यवाद हो कि उद्धार के अगले दिन ही प्रभु ने मुझे वहाँ पर गवाही का मौका दिया। मार्च २५, १९९० को मेरा बपतिस्मा हुआ जिसमें प्रभु ने मुझे जीवन भर की प्रतिज्ञा दी, “मैं तेरे कलश को माणिकों से और तेरे सब सिवानों को सुन्दर और मनोहर रत्नों से बनाऊँगा” (यशायाह ५४:१२)। उसके बाद प्रभु ने मेरी सेवकाई को अपने वचन के द्वारा मुझ पर प्रकट किया। अब मैं सहारनपुर में उसी फैकट्री में काम करता हूँ और जिस संगति में प्रभु मुझे उस दिन लाया था, उसी संगति के साथ रहकर प्रभु की सेवा करता हूँ।

एक बात और है जो मैं आपके साथ बाँटना चाहता हूँ। ऐसा नहीं है कि प्रभु यीशु में आने के बाद मेरी आँखें ठीक हो गईं या मुझे और बहुत सी संसारिक चीज़ें मिल गयीं। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। समस्याएं तो आज भी मेरे साथ हैं, लेकिन उन समस्याओं में तसल्ली देने और मार्गदर्शन करने वाला मेरा प्रभु यीशु भी मेरे साथ है, जिसने वायदा किया है “मैं तुझे कभी न छोड़ूँगा, और न कभी त्यागूँगा” (इब्रानियों १३:५)।

आज मेरे पास एक आशा है कि यदि आज मौत आए या प्रभु यीशु आए तो मैं उसके साथ स्वर्ग में होऊँगा। अब मेरी पत्नि और दोनों बच्चे भी प्रभु में हैं। यह सब उसकी दया और अनुग्रह से सम्भव हुआ, न कि मेरे किसी अच्छे कामों के कारण। क्योंकि प्रभु यीशु ने मेरे पापों से मुझे छुटकारा दिया है। इसके लिए उसने मेरे और आपके पापों के लिए क्रूस पर अपनी जान दी और फिर मर कर तीसरे दिन जीवित हुआ। इसी जीवित परमेश्वर ने मुझे एक जीवित आशा और एक अद्भुत शांति दी है।

प्रिय पाठक, क्या आज आपके पास कोई आशा है कि मौत के बाद आपका क्या होगा? क्योंकि परमेश्वर का जीवित वचन कहता है, “क्योंकि पाप की मज़दूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान प्रभु यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों ६:२३)। आज ही प्रभु यीशु के पास आकर प्रार्थना करें कि हे प्रभु यीशु मैं आप पर विश्वास करता हूँ, इसलिए मुझ पापी पर दया करें और मेरे पापों को कलवरी क्रूस पर बहे हुए अपने लहु से धोकर क्षमा कर दें।

सम्पर्क दिसंबर २००६: उसकी बात

सारे संसार में एक इक्लौती और बड़ी अजीब पुस्तक है जिसको लिखने में सोलह सौ साल लगे। पच्पन से ज़्यादा समर्पित संत, परमेश्वर के शब्दों को सुनते, और मेरे और आपके लिए उनको इस पुस्तक में लिख देते थे। एक संत ने लिखा, कि यह बात मैं सुनता तो था, परन्तु कुछ न समझा। तब मैंने कहा, हे मेरे प्रभु, इन बातों का अन्त फल क्या होगा? उसने कहा, “हे दान्नियेल, चला जा (दान्नियेल ८:१२)।” “क्योंकि मैं तुमसे कहता हूँ, कि बहुत से भविश्यद्वक्ताओं और राजाओं ने चाहा, कि जो बातें तुम देखते हो देखें, पर न देखीं; और जो बातें तुम सुनते हो सुनें, पर न सुनीं (लूका १०:२४)।” पर मैं और आप इतने धन्य हैं कि इस पुस्तक ने हमें आदि से अन्त तक की बातें समझा दीं।

अजीब बात
परमेश्वर का वचन आज, कल और युगानुयुग एक सा है - सत्य तो ऐसा ही होता है। आज से पाँच हज़ार वर्ष पूर्व जब गणित का जन्म हुआ होगा, तब दो और दो चार होते थे। ज्ञान ने, विज्ञान ने लगभग सब कुछ ही बदल डाला, मनुष्य चाँद को भी पार कर सितारों तक जा पहुँचा, पर आज भी दो और दो को सवा चार नहीं कर पाया, और न कभी कर पाएगा। क्योंकि यह गणित का सत्य है। परमेश्वर का वचन अनन्त सत्य है, इसलिए यह आज, कल और युगानुयुग एक सा है। जो यह वचन कह रहा है, बस वैसा ही था, वैसा ही है और वैसा ही होगा।

जीवित बात
ज़रा और सुनिए, यह वचन सत्य ही नहीं, जीवित भी है। कहीं किसी भाई ने युँ कहा, “आदम मिट्टी का प्राणी था, और वह मिट्टी ही रहता, पर प्रभु ने उसमें जीवन की आत्मा फूँककर उसे जीवित बना दिया।” यह ऐसी जीवित पुस्तक ऐसी अदभुत है, कि जब भी मैं इसे पढ़ता हूँ, तो यह भी मेरे छिपे हुए जीवन को पढ़ना शुरू कर देती है। सच मानिए, यह आईने की तरह किसी का कोई लिहाज़ नहीं करती; जो जैसा है, उसे वैसा ही दिखाती है और वैसा ही उसके सामने रख भी देती है। आईने की तो अपनी कुछ सीमाएं हैं - वह केवल बाहरी स्वरूप दिखा पाता है, भीतरी नहीं। अगर आईने के सामने नारियल रख दिया जाए, तो वह उसकी बाहरी कठोरता को ही दिखा पाएगा, पर उस नारियल के अन्दर की मुलायम परत और मीठे जल को कभी नहीं दिखा पाएगा। पर परमेश्वर का वचन तो अन्दर की गहरी छिपी बातों को, भूले बिसरे कामों को, पाप के विचारों को, हर एक छिपी हालत को भी सामने लाकर रख देता है।

मन की बात
यह वचन न केवल अन्दर की बात प्रकट करता है, परन्तु उसके अनुसार व्यवहार भी करता है। बुराई के लिए मुझे डाँटता है, जब निराश और हारा हुआ होता हूँ तो प्यार से पुचकार कर हियाव देता है; कहता है, “मत डर, मैं हूँ, मैं तुझे कभी नहीं त्यागुँगा, कभी नहीं छोड़ूँगा।” मेरे प्रतिदिन के जीवन में मेरा मार्ग दर्शक बनता है, “तेरा वचन मेरे पाँव के लिए दीपक और मेरे पथ के लिए उजियाला है (भजन ११९:१०५)।” जब मैं भटक कर दूर निकाल जाता हूँ, तब यह मुझे लौटा कर राह पर भी ले आता है। ये जीवन से भरा वचन, मुझमें जीवन की भरपूरी ले आता है “तुम जीवन पाओ और बहुतायत का जीवन पाओ (यूहन्ना १०:१०)।”

कुशल की बात
ये वचन ऐसा ज़बर्दस्त है, फिर भी किसी से ज़बर्दस्ती नहीं करता। ये ना मौका देने में कभी कमी करता है और ना कभी दया करने में कोई कमी रखता है। “और नहीं चाहता कि कोई नाश हो, वरन यह कि सब को मन फिराने का अवसर मिले (२ पतरस ३:९)।” “...क्या ही भला होता कि तू ही, हाँ तू ही इस दिन कुशल की बात जानता...”। “...क्योंकि तूने वह अवसर जब तुझ पर कृपादृष्टि की गयी न पहचाना” (लूका १९:४४)। इसे कितने विश्वासी पढ़ते और सुनते तो हैं, पर लापरवाही से। अपनी शक्ल आईने में देखी और बिना संवरे, जैसे आए थे, वैसे ही चले गये (याकूब ३:२३)।

ध्यान की बात
“जो वचन पर मन लगाता है, वह कलयाण पाता है... (नीतिवचन १६:२०)।” एक पुरानी घटना को नये शब्दों के साथ सुनिए। एक पुराने विश्वासी, सभा के बाद मिले; बड़े उत्साहित थे। कहने लगे, “अरे भाई, आप तो देहरादून में भी रहे हैं। देहरादून का नाम लेते ही बासमती चावल याद आ जाता है, क्या बात है, घर पर बनाईये और मोहल्ला महकाईये। भाई वहाँ बासमती का क्या भाव चल रहा है?” मैंने कहा, “यहाँ का भाव तो मालुम नहीं, वहाँ का क्या बताऊँ।” मैं अपना वाक्य पूरा कर भी नहीं पाया था कि वह बोले, “क्या ज़माना था, क्या लीची होती थी। साहब देहरादून की काग़ज़ी लीची की क्या बात थी, मूँह में डालो, और गुठली ढूँढते रह जाओ। सन ७० में दो रुपए किलो मिलती थी। क्या बताएं साहब, वो दिन हवा हो गये, पाँच रुपए देहरादून का किराया था। दस का नोट सुबह तुड़वाओ, शाम तक खर्च होने में नहीं आता था।” मैंने पीछा छुड़ाने के लिए बात बदलते हुए पूछा, “भाई, पिछले हफ्ते मंडली में क्या वचन दिया गया था?” वो जनाब कुछ झेंपते हुए मुस्करा कर बोले, “भाई बूढ़ा हो गया हूँ, याद्दाश्त भी बूढ़ी और कमज़ोर हो गयी है; ध्यान नहीं आ रहा भाई।” मुझे ताज्जुब हुआ, छत्तीस साल पहले की चीज़ों के भाव तो याद रहे, पर छत्तीस घंटे पहले का वचन याद नहीं! याद रहता भी कैसे, ध्यान तो कहीं और लगा था। सच तो यह है कि हम प्रभु के वचन पर ध्यान नहीं धरते; ध्यान तो सँसार में ही धरा रहता है। ध्यान लगाने से ही ध्यान रहता है। इसे ही कहते हैं परमेश्वर के वचन की जुगाली करना, मनन करना। जब मनन करते हैं तो परमेश्वर की सामर्थ मेरे और आपके आत्मिक जीवन को बलवन्त करती है। तभी हम परिस्थित्यों का सामना कर पाते हैं।

क्या बात
विश्वासी के उस विश्वास पर जो उसका परमेश्वर के वचन पर होता है, शैतान सीधा वार करता है, ताकि हम परमेश्वर के वचन पर शक करने लगें। एक साधरण सा विश्वासी किसी पार्क में बैठा परमेश्वर का वचन पढ़ रहा था। वह इतना मस्त और मग्न था कि वचन पढ़ते पढ़ते चिल्लाकर बोल उठा “हाल्लेलुयाह! वाह परमेश्वर आपकी क्या बात है।” पास बैठे एक नास्तिक ने पूछा, “क्यों मियाँ, क्या बात हो गयी?” विश्वासी बोला, “देखो परमेश्वर की क्या बात है, न नाव थी न जहाज़; लेकिन सारे इस्राइलियों को पैदल ही लाल समुद्र पार करा दिया।” नास्तिक ने बड़े प्यार से विश्वासी के कंधे पर हाथ रखा और मुस्कुराकर कहा, “ मैं तुम्हारे विश्वास पर चोट नहीं पहुँचाना चाहता। पर सच तो यह है कि उस समय लाल समुद्र में आठ इन्च ही पानी था, इसिलिए न तो जहाज़ चलते थे न नाव, पैदल ही पार करना था।” विश्वासी बहुत भोला था, उसकी तरफ देखकर कहा, ‘अच्छा!’ और फिर परमेश्वर का वचन पढ़ने लग गया। अभी चंद पल ही बीते थे कि विश्वासी फिर चिल्लाया, ‘हल्लेलुयाह, क्या बात है परमेश्वर की।’ नास्तिक फिर चौंका, और विश्वासी से पूछा, ‘अबे अब क्या हो गया?’ विश्वासी ने कहा, ‘देखो, परमेश्वर की क्या बात है। आठ इंच पानी में उसने मिस्रियों की सारी सेना को डूबा मारा।’ अब नास्तिक निरुत्तर था।

परमेश्वर के वचन पर शक पैदा करने के लिए कई नास्तिक कई तर्क देते हैं, जैसे:- वचन बताता है कि दानिय्येल जब शेरों की मांद में डाला गया, तो परमेश्वर ने शेरों के मूँह बन्द कर दिये और वे उसे नहीं खा सके। नास्तिक तर्क देते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शेरों के पेट भरे थे। पर कोई इन नास्तिकों से पूछे, कि जब दान्निय्येल के शत्रुओं को उन्ही शेरों की उसी मांद में डाला गया तो शेर उन्हें क्यों चट कर गये? ये सब तर्क, मात्र परमेश्वर के वचन पर शक पैदा करने के लिए ही दिये जाते हैं।

परमेश्वर ने सब नामों से बढ़कर यीशु के नाम को किया है (फिल्लिप्यों २:९), लेकिन एक और है जिसे उसने अपने इस नाम से भी ज़्यादा महत्त्व दिया है - “क्योंकि उसने अपने वचन को अपने बड़े नाम से अधिक महत्त्व दिया है” (भजन १३८:२)। अधिकांश विश्वासी पस्रमेश्वर के उस वचन को महत्त्व नहीं देते जिसे परमेश्वर अपने बड़े नाम से भी अधिक महत्त्व देता है। इसलिए बाईबल अध्ययन सभाओं में कुछ ही विश्वासी दिखाई देते हैं।

मेरी बात
ध्यान रहे, अच्छे स्कूल आपके बच्चों को कभी अच्छा नहीं बना पाएंगे। अच्छी संगति ही इन्सान को अच्छा बनाती है। हम अक्सर कुछ बहानों के चलते अपने बच्चों को बाईबल अध्ययन सभाओं में नहीं लाते - जैसे: ठंड लग जाएगी, गर्मी बहुत है, होम्वर्क बहुत है और मुशकिलें बहुत हैं। विश्वासी नहीं समझता कि वह कितनी नासमझी का काम कर रहा है। जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और वचन का नहीं पर दुनिया का अनुसरण करने लगते हैं, बात उनके हाथ से निकल चुकी होती है। तब बच्चों के लिए रोना और पछताना ही रह जाता है। परमेश्वर का वचन कहता है, जो बोया था, वही अब काटोगे (गलतियों ५:७)। जो प्रभु के वचन को आदर देता है, परमेश्वर उसको और उसके परिवार को आदर देता है। आज के थोड़े से दुख: और थोड़ी सी परेशानी कल के लिए बड़ी आशीशें बटोरने का एक मौका है।

आख़िरी बात
अब यह बात आप पर है, कि इस सत्य को स्वीकारें या ठुकराएं। पर सच्चाई तो यही है, इसे झुठलाया नहीं जा सकता। अब परमेश्वर के जीवित वचन को अपने जीवन में उसका उचित स्थान देने का फैसला आपके हाथ है - इन्हीं हाथों को उठाकर, एक प्रार्थना एक निर्णय के साथ अभी यहीं कर लें।

रविवार, 26 अप्रैल 2009

सम्पर्क दिसंबर २००६: ऐसा प्यार, जिसने ऐसे-ऐसे पापों को ढाँप दिया


बेटा अपना सब कुछ लुटाकर, हर एक बुराई से और हर पाप की गन्दगी से भरा हुआ बाप के घर लौटा। वह जितना कुछ बुरा कर सकता था, उसने सब किया। लेकिन लौटते में उसने उन सब बुराइयों के लिए पश्चाताप भी किया। बाप के सन्मुख आने पर, पश्चाताप की प्रार्थना, उसके मन से होंठों तक भी नहीं पहुँच पायी थी कि बाप ने उसे सीने से लगाकर उन होंठों को चूम लिया। यह वही होंठ थे जो वैश्याओं को चूमते थे। अगर इस कहानी में, सीने से लगाने की बजाए, वह बाप उस बेटे को दो लात लगाता, और कहता कि, ‘अब यहाँ क्या लेने आया है, जा उन्हीं वैश्याओं के पास’ तो मुझे ज़रा भी आश्चर्य नहीं होता; बल्कि मेरा मत होता कि बाप ने बिलकुल ठीक किया। ऐसों के साथ ऐसा ही होना चाहिए, वह इसी लायक है। उसे बचपन से ही यह बताया-सिखाया गया था कि यह सब बातें पाप हैं, परन्तु आदमी का स्वभाव है कि जिस काम को मना करो, वही करने को वह उतावला हो जाता है।

एक कहानी है जो जीवन की एक छिपी हुई सच्चाई हमारे सामने लाती है। एक छोटा गलियारा था, हज़ारों लोग एक सड़क से दूसरी सड़क तक पहुँचने के लिए उस गलियारे का उपयोग करते थे। गलियारे के दोनों तरफ सालों से बन्द पड़े पुराने घरों के पिछवाड़े की कई खिड़कियां खुलती थीं। एक दिन किसी मसख़रे ने, मज़ा लेने के लिए, कुछ खिड़कियों पर कागज़ चिपकाए, जिन पर लिखा था, “कृपया इधर मत झांकें।” फिर क्या था, पहले कभी कोई जिन घरों की तरफ मुड़ कर भी नहीं देखता था, अब उन्ही घरों में झांकने का प्रयास किए बिना शायद ही कोई वह गलियारा पार करता था। आदमी को जो कुछ मना करो, वही करने में उसे मज़ा आता है। हव्वा को मना किया कि इस फल को मत खाना; बस वहीं से बेचैनी शुरू हो गयी कि उसे वह फल क्यों खाने नहीं दिया गया?

उस उड़ाऊ बेटे को जो कुछ मना किया गया, वही करने में उसने मज़ा लिया। वह अपने सीने में कितने ही गन्दे और शर्मनाक अरमान छुपाए रखता था। वासना ने उसे ऐसा अंधा कर दिया था कि उसे भले और बुरे का फर्क भी नहीं दिखता था। किंतु जब वह पाप कर रहा था, तब भी बाप का प्यार उसका पीछा कर रहा था। यह कहानी मुझे अपने बारे में सोचने पर मजबूर करती है। यह मेरे और आपके जीवन के छिपे हुए काले कारनामों की याद दिलाती है, जो दुनिया से छिपे हो सकते हैं, परमेश्वर से नहीं।

मैंने एक कहानी पढ़ी थी। कहानी तो कुछ खास नहीं थी पर जो बात उस कहानी ने सिखाई, वह बहुत खास थी। एक गुरू के चार चेले थे। गुरू को उन चेलों की आखिरी परीक्षा लेनी थी। गुरू ने चारों चेलों के हाथों में एक-एक कबूतर थमाया, और कहा, “इनको वहाँ मारना जहाँ कोई देख न रहा हो।” वे चेले कबूतरों को लेकर चले गये और शाम ढलने तक तीन चेले मरे हुए कबूतरों के साथ लौट भी आये। लेकिन चौथा चेला कई दिन के बाद थका-हारा और निराश, अपने हाथ में ज़िन्दा कबूतर लिये हुए लौटा, और अपने गुरू से कहा “मैं हार गया। जब मैं इसे एकाँत में मारने को तैयार हुआ, तो देखा कि यह स्वयं मुझे देख रहा है। आपने कहा था कि इसे वहाँ मारना जहाँ कोई न देख रहा हो। तब सोचा कि इस कबूतर की आँखें किसी कपड़े से ढाँप कर इसकी गर्दन मरोड़ दूँ। जैसे ही ऐसा करने लगा, तो ध्यान आया कि अभी मैं स्वयं इसे देख रहा हूँ। फिर सोचा कि अपनी भी आँखें बन्द करके इसकी गर्दन मरोड़ दूँ, तो ध्यान आया कि परमेश्वर मुझे देख रहा है। बस, तब से मैं ऐसी जगह ढूंढ रहा हूँ जहाँ परमेश्वर न देख रहा हो, पर मैं हार गया। मुझे ऐसी कोई जगह नहीं मिली जहाँ कोई देख न रहा हो; हर जगह यदि और कोई नहीं तो परमेश्वर तो देख ही रहा होता है!” सच मानिए आपके जीवन में कोई ऐसी जगह नहीं है जिसे परमेश्वर ने न देखा हो। शायद हम सोचते भी नहीं कि मेरी और आपकी हर एक बात उसके सामने खुली है “...उसकी आँखों के सामने सब वस्तुएं खुली और बेपरदा हैं” (इब्रानियों ४:१३)।

हम बहुत दबाव में जीते हैं। शाम को वही कर जाते हैं जिसके लिए सुबह पश्चाताप किया था। शैतान बहुत सामर्थी है और संसार बहुत आकर्शक है। कमज़ोर शरीर, संसार और शैतान का सामना नहीं कर पाता। संसार को ‘माया’ अर्थात धोखा देने वाला कहा गया है। लगता है जैसे सब कुछ इसी में है, अगर इसे पा लिया, तो सब कुछ पा लिया। पर सच्चाई तो यह है कि इसे पाकर सब कुछ खो जाता है, चैन चला जाता है, खुशियाँ धुंधला जाती हैं।

शैतान हमें यह एहसास दिलाने के प्रयास में रहता है कि तू परमेश्वर के लायक नहीं है, तू क्षमा के लायक नहीं है। वह हमेशा हमारे अन्दर प्रभु की क्षमा पर शक पैदा करता है। पर प्रभु की क्षमा हमारे सोचने और समझने से कहीं बढ़कर है। यह बात सच है कि मुझे अपने उपर कतई भरोसा नहीं है। अगर भरोसा है तो प्रभु की क्षमा पर, उसके प्यार पर; जिसने मुझ से कहा “मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूँगा और कभी नहीं त्यागूँगा” (ईब्रानियों १३:५)। आपको मालूम है प्रभु मुझ जैसे आदमी को क्यूँ माफ कर देता है? क्योंकि वह मुझ से प्रेम करता है “...परन्तु प्रेम से सब अपराध ढंप जाते हैं” (नीतिवचन १०:१२)। उसने मुझ से ऐसा प्रेम किया, इसलिए उसने क्षमा की मेरी एक प्रार्थना के उत्तर में, मेरे ऐसे-ऐसे पापों को भी ढांप दिया।

प्रभु की क्षमा जो इन्सान की सारी समझ से बाहर है, वह आज भी मेरे और आपके लिए वैसी ही है। बस इतना हो कि मैं और आप फिर क्षमा मांगने को तैयार हों। प्रभु ने नीतिवचन २४:१६ में हमारे लिए एक बड़ी धन्य आशा रखी है - “धर्मी चाहे सात बार गिरे तौभी उठ खड़ा होता है।” इस बात को कहीं किसी ने यूँ भी कहा है, और लगता है जैसे मेरे बारे में ही कहा है - ‘गिर पड़े, गिर कर उठे, उठकर चले; कुछ इस तरह तय की हैं मंज़िलें हमने’|

जब से यह सम्पर्क आपके हाथ में है, तब से परमेश्वर की आँख आप पर लगी है। कहीं परमेश्वर आपको आपके जीवन की छिपी हुई काली कहानी तो नहीं सुना रहा? परमेश्वर यह सब आपको दोष देने के लिए नहीं, पर क्षमा करने के लिए समझा रहा है। वह एक नया मौका इस नये साल के साथ आपके पास ला रहा है। अब उसकी क्षमा और उसके प्रेम पर विश्वास कर, पश्चाताप और समर्पण के साथ उसके पास आना, और उससे पापों कि क्षमा तथा नये जीवन का अनुभव लेना आपके हाथ में है।

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

सम्पर्क दिसंबर २००६: सम्पादकीय



सम्पर्क के माध्यम से आपसे सम्पर्क हो पाना सालों से संभव नहीं हो पा रहा था। पर संतों की प्रार्थनाओं के उत्तर में आज फिर आपसे यह सम्पर्क संभव हो पाया है। प्रभु की दया से सम्पर्क तो प्रभु की सेवा में समर्पित है, पर आप इसे अपनी प्रार्थनों से विस्तार दे सकते हैं।

“... हम अपने वर्ष शब्दों की नाई बिताते हैं।” (भजन ९०:९) साल शब्दों की तरह मूँह से निकले और चले गये। यह साल, लगभग १२ महीने पहिले, नया साल था; बाकी बचे और कुछ दिनों के बाद यह साल फिर पुराना हो जाएगा। फिर इस पुराने साल को भी हम हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में दफन कर देंगे। क्योंकि लिखा है कि “... जो वस्तु पुरानी और जीर्ण हो जाती है उसका मिट जाना अनिवार्य है” (इब्रानियों ८:१३)। बाईबल कहती है कि नये का पुराने से क्या मेल। संसार भी अब पुराना हो गया है, इसका मिटना अनिवार्य है। पर “... प्रभु के वर्षों का कोई अन्त नहीं” (भजन १०२:२७ )। जिनमें नया जीवन, अर्थात प्रभु का जीवन है, उनके जीवन का भी कोई अन्त नहीं।

यदि हमारे जीवन के उद्देश्य नहीं बदले तो वास्तव में हम में पूरी तरह बदलाव नहीं आया। बहुत सारे विश्वासी, मसीह के लिए शहीद होकर मरना तो चाहते हैं, पर मसीह के लिए जीना उनको कहीं मुश्किल लगता है। सन्तों को दो श्रेणी में रखा जा सकता है - सांसारिक स्वभाव के सन्त और स्वर्गिय स्वभाव के सन्त। स्वर्गिय स्वभाव के सन्तों में यह इच्छा रहती है कि वे अपने परमेश्वर की इच्छा को कैसे पूरा करें। सांसारिक स्वभाव के सन्त इस प्रयास में रहते हैं कि कैसे परमेश्वर उनकी इच्छा पूरी करे! वे परमेश्वर से चाहते हैं, परमेश्वर को नहीं। कितनों ने मसीह को अपने मन में एक ऐसे देवता के रूप में ढाल लिया है जो उनकी स्वाथर्मय और शारिरिक अभिलाशाओं को पूरा करता रहे।

ज़बान से कहीं ज़्यादा जीवन बोलता है। उद्धाहरण्स्वरूप - मेरे सिर का अस्सी प्रतिशत भूभाग बंजर है और बीस प्रतिशत बाल ही सिर की सीमाओं पर बचे हैं। अगर मैं बहुत से ऊँचे वैज्ञानिक तर्कों और प्रभावशाली शब्दों के साथ आपको एक तेल बेचने का प्रयास करूँ और कहूँ कि मात्र पैंतालिस दिनों में यह तेल किसी भी टकले के सिर पर बालों की बहार लौटा सकता है, तो आप मुझे बताईये, कितने ऐसे लोग होंगे जो मुझसे यह तेल ख़रीदने को तैयार होंगे? क्या यह सच नहीं कि ज़ुबान से ज़्यादा जीवन प्रभाव डालता है।  

जब प्रभु यीशु मसीह इस पृथ्वी पर आया तो उसने दावा किया कि वह परमेश्वर का इकलौता पुत्र है। इस दावे को साबित करने के लिए क्या प्रभु यीशु के पास परमेश्वर का दिया हुआ कोई प्रमाण्पत्र था, जिसे देखकर लोग विश्वास करते? उसके पास ऐसा कोई प्रमाण्पत्र तो नहीं था परन्तु उसका प्रेम, दया, क्षमा और उसकी जीवन शैली ही उसके प्रमाण्पत्र थे (यूहन्ना ५:३६)। जब रोमी गवर्नर पिलातुस ने यीशु और बरअब्बा को आमने सामने खड़ा किया और लोगों से पूछा, “तुम किसे चाहते हो?” तो उस समय प्रभु यीशु को एक भी वोट नहीं मिला। पर आज एक अरब से ज़्यादा लोग (भले ही कैसे क्यों न हों) उसके अनुयायी हैं। उसका जीवन ही लोगों में परिवर्तन लाता है। बहुत से लोग धर्मों से उकता गये हैं। अब वे किसी नये परमेश्वर की खोज में लगे हैं। इसीलिए नये नये संप्रदाय और नये नये गुरू जन्म ले रहे हैं। पर सच्चा गुरू अपनी सेवा नहीं करवाता, दूसरों की सेवा करता है (मरकुस १०:४५)। सच्चा गुरू अपने शिष्यों से पैर नहीं धुलवाता, बल्कि उनके पैर धो देता है (यूहन्ना १३:५)। इसीलिए आज के अधिकांश आधुनिक गुरूओं में से गुरू कम और गुरूघंटाल ज़्यादा हैं।

मेरा और आपका प्रचार लोगों को प्रभावित कर सकता है, परिवर्तित नहीं। लोगों का जीवन तभी परिवर्तित होगा, जब मेरे और आपके पास एक बदला हुआ जीवन होगा। श्ब्दों से कहीं ज़्यादा एक इमान्दार जीवन प्रभाव डालता है। एक सुसमाचार सभा में प्रभु यीशु को ग्रहण करने के बाद एक व्यक्ति अपने पड़ोसी के पास पहुँचा। जेब से एक घड़ी निकाल कर अपने पड़ोसी से पूछा, “क्या इस घड़ी को पहिचानते हो?” पड़ोसी बोला, “अरे यार ये तो मेरी वही घड़ी है जो तीन साल पहिले कहीं खो गयी थी।” व्यक्ति ने जवाब दिया, “मियां यह घड़ी खोयी-वोयी नहीं थी; यह घड़ी चोरी की गयी थी। तुम्हें मालुम है वह चोर कौन था?” वह चोर मैं था।” शब्दों से बढ़कर बदला हुआ जीवन बोलता है। यही प्रमाण्पत्र है मेरे और आपके बदले हुए जीवन का।

कहाँ गिरा, कैसे गिरा

वह आदमी जैसे तैसे अपने दुश्मन के हाथ से तो बच निकला, लेकिन तब तक अंधेरा काफी गहरा चुका था। सर्द हवाओं ने सर्दी को सहने के बाहर कर दिया था। वह आदमी सोच रहा था - बस, अब और आगे चल नहीं पाऊँगा; यदि यहीं ठहर गया तो जीवित नहीं बच पाऊँगा! गहराए हुए अंधेरे में एक बार फिर आखिरी उम्मीद से चारों तरफ देखा... अचानक दूर एक छोटे से दिये की रौशनी दिखाई दी, और उसकी उम्मीद फिर जाग उठी। उसने फिर हिम्मत बांधी और थके हुए पैरों के साथ उस ओर चल पड़ा। वहाँ तक पहुँचते पहुँचते वह इतना थक चुका था कि अब उसमें खड़े रहने की भी ताकत नहीं रह गयी थी। दीये की धीमी रौशनी झोंपड़ी की टूटी दीवार की दरार से बाहर आ रही थी। दीवार का सहारा लेकर उसने उसी दरार से अंदर झांका तो देखा कि एक व्यक्ति पुरानी सी रज़ाई में लिपटा बेसुध सा सो रहा था। उसने काफी आवाज़ दी, चिल्लाया उस व्यक्ति को उठाने के लिए, लेकिन वह नहीं जागा। मरता क्या न करता, वह झोंपड़ी में घुस गया। वहां एक ही चारपाई थी और एक ही रज़ाई; और यह व्यक्ति भी उस बेसुध सो रहे व्यक्ति के साथ उसी रज़ाई में घुस कर सो गया। सुबह जब उसकी आँख खुली और उसने उसकी ओर देखा जिसके साथ वह रात भर सोया था, तो उसकी आँख खुली कि खुली रह गयी; काटो तो खून नहीं... ओ हो, ये क्या हो गया! जिसके साथ वह सारी रात सोया रहा, वह चेचक के दानों से भरी एक लाश थी। वह आदमी शत्रु के हाथ से तो बच निकला पर अन्तत: खुद ही कहाँ जा गिरा! कितने ही ऐसे हैं जो शत्रु-शैतान के हाथ से तो बच निकले, पर अब इस अन्त समय में कहाँ आ गिरे हैं। “इस कारण वह कहता है, हे सोने वाले जाग और मुर्दों में से जी उठ तो मसीह की ज्योति तुझ पर चमकेगी (इफिसियों ५:१४)।”

किसने हमें रोक दिया, कौन सी ऐसी बात है जिसने हमारे बढ़ते और फलते जीवन को रोक दिया “तुम तो भली-भांति दौड़ रहे थे...” (गलतियों ५:७)। प्रकाशितवाक्य में पवित्रआत्मा अपने अंतिम सन्देश में उन विशवासियों से कहता है जो मन फिराने का सन्देश देते हैं कि अब तुम्हें पहले खुद मन फिराने की आवश्यकता है। 

कहीं ऐसा तो नहीं कि नया जीवन पाए लोग किसी पुराने पाप से बंधे खड़े हों? रोमन लोग बड़ी भयानक सज़ाओं का उपयोग करते थे। उनमें से एक सज़ा थी कि वह किसी ज़िन्दा अपराधी के साथ एक लाश ऐसे बांध देते थे कि उसके हाथ के साथ हाथ, पैर के साथ पैर, पेट के साथ पेट और गर्दन के साथ गर्दन। इस तरह लाश के साथ बंधी दशा में वह अपराधी छोड़ दिया जाता था। धीरे-धीरे जब लाश सड़ना शुरू होती थी तो वह ज़िंदा अपराधी भी उसके साथ सड़ना शुरू हो जाता था। यह एक दहशत्नाक और भयानक मौत होती थी। अगर किसी जीवित विश्वासी के साथ ऐसे मरे हुए काम बंधे हैं तो उसके जीवन की क्या दुर्दशा होगी? कुछ लोग ऐसे तो नहीं जिन्हें आप मन से माफ न कर पा रहे हों? जीवित जीवन के साथ कोई और छिपा हुआ पाप, व्यभिचार या कोई और मरा हुआ काम, बंधा तो नहीं है? सारी सृष्टि का सबसे बुरा वक्त चल रहा है। परन्तु परमेश्वर ने इस बुरे वक्त में मुझे और आप को सबसे अच्छा मौका दिया है कि हम ऐसे मरे हुए कामों से मन फिरा लें। “... हे मेरे लोगों उसमें से निकाल आओ कि तुम उसके पाप में भागी ना हो, और उसकी विपत्तियों में से कोई तुम पर ना आ पड़े” (प्रकाशितवाक्य १८:४)।

रोमी गवर्नर पीलतुस ने पूरी कोशिश की, कि प्रभु यीशु मसीह को छोड़ दिया जाए, क्योंकि वह उसको छोड़ देना चाहता था। उसने उसको छुड़ाने की एक युक्ति की। पर महयाजकों ने प्रभु यीशु को क्रूस पर चढ़ाने के लिए लोगों को उकसाया। उन्हें मालूम था कि गवर्नर पीलतुस भीड़ का दबाव नहीं झेल पाएगा। पीलतुस जानता था कि प्रभु यीशु को इन धर्म्गुरूओं ने जलन और बदला लेने के भाव से पकड़वाया है (मर्कुस १५:१०)। इस समय पीलतुस ने बड़ी समझदारी से इस समस्या का समाधान खोजा। यह उसके राजनैतिक अनुभव और तेज़ बुद्धी का कौशल था। उसने इस मौके पर यीशु मसीह और एक हत्यारे - बरअब्बा, दोनों को लोगों के सामने खड़ा किया और इस्रालियों से कहा कि इन में से एक को चुन लो। वह जानता था कि बरअब्बा जैसे अपराधी को इस्राएल में फिर से खुला छोड़ देना, न केवल इस्राएलियों के लिये खतरनाक था, बल्कि उनके लिए शर्मनाक बात थी। उसने उन से कहा, तुम्हारे इस राष्ट्रीय पर्व पर तुम्हारी प्रथा है कि किसी एक अपराधी को जिसे तुम चाहते हो, छोड़ दिया जाए। तो अब इन दोनो में से एक को चुन लो। पर वहाँ एक भी इस्राएली में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वे उन धर्मगुरूओं की इच्छा के विरुद्ध प्रभु यीशु के पक्ष में बोलते। लोगों ने बरअब्बा को ही चुना (आदमी की अचूक से अचूक योजनाएं भी परमेश्वर की योजनाओं के सामने चूक जातीं हैं)। बरअब्बा का अर्थ है अपने बाप का बेटा ( बर=बेटा, अब्बा=पिता)। अजीब नाम है - अपने बाप का बेटा; हर कोई अपने बाप का बेट होता है! प्रभु यीशु ने यूहन्ना ८:४४ में कहा, “तुम अपने पिता शैतान से हो, तुम्हारा पिता शैतान है।” दूसरे अर्थों में, बरअब्बा का अर्थ हुआ शैतान का बेटा। एक तरफ परमेश्वर का बेटा था और दूसरी तरफ शैतान का, दोनों में से उन्हें एक को चुनना था, अन्ततः उन्होंने शैतान के बेटे को ही चुन लिया। आज भी हमारे सामने दोनों खड़े हो जाते हैं। परमेश्वर का पुत्र, परमेश्वर की इच्छा को लेकर खड़ा हो जाता है; शैतान का पुत्र, शैतान की इच्छा को लेकर खड़ा हो जाता है। अब फैसला हमारे हाथ है कि हम किसे चुनें और किसे ठुकराएं!

जो गया, सो गया; फिर न लौटा

यहूदा इस्किरोती ने सोचा, यह पैसा कमाने का मौका है। फरीसियों ने सोचा, यह बदला लेने का मौका है। चेलों ने सोचा, दांए-बांए बैठकर मन्त्री बनने का मौका है। एक डाकु ने सोचा, ये ही नरक से बच निकलने का मौका है। मौका हमेशा नहीं रहता, मौका हमेशा नहीं मिलता। मेरे और आपके लिए कुछ कर लेने का यही एक मौका है। हम अपनी लापरवाही से बहुत से मौके पहले गवाँ चुके हैं, कहीं यह हमारा आखिरी मौका न हो। कहीं यह साल भी हमारा आखिरी साल न हो।

शेष फिर

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

संपर्क दिसम्बर २००८: अजीब सी बात


आपको बड़ी अजीब सी बात बताता हूँ। एक बुढ़िया थी जो बचपन में ही मर गई। दिमाग़ इस बात को स्वीकारता नहीं। जी हाँ, बुढ़िया मरी हुई दशा में पैदा हुई, मरी हुई दशा में जीवन जीया और मरी हुई दशा में मरकर हमेशा की मौत में चली गयी। जो पाप की दशा में हैं वो मृत्यु की दशा में हैं। वे जीवित कहलाते तो हैं पर वास्तव में हैं मरे हुए। दाऊद कहता है, “मैंने पाप की दशा में स्वरूप धारण किया”(भजन ५१:५)। वास्तविक जीवन तो नये जीवन से ही शुरू होता है। जैसे ही पाप क्षमा होते हैं हम वास्तविक जीवन पाते हैं।

अजीब सी बात है, मुँह से पेट में डालते समय सोचते हैं - साफ है? सही है? कहीं सड़न तो नही? पर मन में गन्दे विचार, विरोध बिना सोचे समझे डालते रहते हैं जैसे कि मन नहीं कोई कचरे का डिब्बा हो! “सबसे अधिक अपने मन की रक्षा कर” (नीतिवचन ४:२३)।

अजीब सी बात है, सूप (छाज) और छलनी में अन्तर है। सूप व्यर्थ(थोथी) वस्तुओं को बाहर कर देता है और अच्छी वस्तुओं को रख लेता है। छलनी व्यर्थ वस्तुओं को अपने अन्दर रख लेती है और अच्छी वस्तुओं को बाहर कर देती है। मेरे पास छलनी जैसा मन है जो हर अच्छी वस्तु को बाहर निकाल देता है और बुराईयों को सालों तक अन्दर रखे रहता है; और प्रभु के हाथ में सूप है, “उसका सूप उसके हाथ में है” (मत्ती ३:१२)। जो प्रभु के सूप (संगति) में बने रहते हैं वे पल-पल पवित्र होते रहते है। संगति का एक नाम संजीवनी है जो हम में जीवन का संचार बनाए रखती है।

अजीब सी बात है, आदम और हव्वा को परमेश्वर ने सब कुछ दिया, बस एक लंगोट नहीं दिया! लंगोट की ज़रूरत तब होती है जब जीवन में खोट होता हैं। खोट होता है तब ही हम छिपते और छिपाते हैं। प्रभु न तो आपसे नोट मांगता है और न ही वोट। वह तो आपके मन का खोट मांगता है - “... भीतर वाली वस्तुओं को दान कर दो, तो देखो, सब कुछ तुम्हारे लिए शुद्ध हो जाएगा” (लूका ११:४१)।

अजीब सी बात है, पर बात सजीव है। प्रभु न तो स्वर्ग का लालच देता है न ही नर्क में डालने की धमकी। न ही वह किसी नए धर्म का बोझ आप पर लादना चाहता है। वह तो आपको पाप के बोझ से आज़ादी देना चाहता है। “हे बोझ से दबे लोगों मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूँगा” (मत्ती ११:२८)।

अजीब सी बात है, एक बहुत धनवान व्यापारी ने सिर्फ एक मोती के लिए अपना सब कुछ बेच डाला। वही मोती उसका सारा धन हो गया। उस मोती के लिए सच मानो वह कंगाल हो गया। यही मोती उसके आज, कल और अनन्त्काल के आनंद का कारण है। जहाँ उसका धन है वहाँ उसका मन है (मत्ती ६:२१)। जी हाँ, ‘आप’ ही उसका धन हैं।

अजीब सी बात है मन मानता ही नहीं। हमेशा संसार की तरफ ही बहकता और बहता है, जैसे पानी जो हमेशा नीचे की तरफ ही बहता है। पानी को पात्र ही संभाल कर रख पाता है। मन को परमेश्वर के वचन का मनन ही संभाल कर रख पाता है। इसलिए वचन को मन में अधिकाई से बसने दो (कुलुस्सियों ३:१६)।

अजीब सी बात है, आपके पास एक आग है जो जीवन भर बहुतों को झुलसाती है। उसकी जलन बहुत से लोग जीवन भर सहते रहते हैं। जीभ छोटी है पर उसके थोड़े शब्द में बड़ी आग लगाने की सामर्थ है। ज़रा शब्द गड़बड़ाए नहीं कि घर में और मंडली में आग लग जाती है। छोटी सी आग भरे पूरे जंगल में आग लगा देती है (याकूब ३:१६)। कहते हैं वाणी, वीणा का काम करे तो भला है। लेकिन हमारी वाणी कई बार अग्निबाण का काम करती जाती है। इसलिए जो शब्द नुक्सान करें उनसे ज़रा चौकस रहिए।

अजीब सी बात है नफरत का पाप ज़िन्दा पाप है जो ज़िन्दगी को मुर्दा बना डालता है। इसलिए दूसरों को माफ करके हम अपने ऊपर ही दया करते हैं। “बुराई को भलाई से जीत लो” (रोमियो १२:२१)। दुश्मनों को दोस्त बना लेना ही वास्तविक विजय है।

अजीब सी बात है कुछ कहते हैं कि तुमने धर्म की ग़ुलामी छोड़ दी पर अब इस किताब की ग़ुलामी करते हो। शायद उन्हें मालूम नहीं कि इस किताब ने ही उन पापों के ग़ुलामों को पाप से आज़ादी दी है।

अजीब सी बात है एक स्त्री ने प्रभु के पाँव पर ३०० दिनार का इत्र उन्डेल दिया। उसने ऐसा क्यों किया? उसके सामने प्रभु के लिए ३०० दिनार की कोई कीमत नहीं थी। पर यहूदा इस्किरोती के लिए ३० सिक्कों के सामने प्रभु की कोई कीमत नहीं थी; उसकी तो सोच थी - ऐसा हो या फिर वैसा हो, जैसा भी हो बस पैसा हो!

अजीब सी बात है यह बात आपके हाथ में नहीं है कि आप मौत को टाल सकें। पर आप मौत को सुधार सकते हैं। मौत के मातम को अनन्त आनंद में बदल सकते हैं, शोक को अनन्त शांति में बदल सकते हैं - यह आपके हाथ में है। बस आप अपना हाथ परमेश्वर की ओर फैलाएं और कहें, “हे यीशु, मुझ पर दया करें।”

रविवार, 19 अप्रैल 2009

संपर्क दिसम्बर २००८: ये दुआ, अब दवा बन जाए



बीरबल के अनुसार चौपाए जानवरों में बिल्ली को कभी सिखाया नहीं जा सकता। अकबर के कुशल साथियों ने कुछ महीनों में ही १० बिल्लियों को प्रशिक्षित कर डाला। अब अकबर ने बीरबल को एक शाम के खाने पर बुला कर दिखाया कि दसों बिल्लियाँ कैसे एक पंक्ति में खड़ी रहती हैं, उनके सिरों पर प्लेटों में मोमबत्ती जलाकर रख दी जाती है और राजा उन मोमबत्तीयों की रौशनी में शाम का खाना खाता है। बीरबल ने आश्चर्यचकित होकर राजा से पूछा, “महाराज, क्या ये रोज़ ऐसा ही करती हैं?” राजा ने कहा, “कल फिर आकर देख लेना।” अगले दिन बीरबल आया और राजा के साथ खाने पर बैठा। बिल्लियाँ बड़े अनुशासन से अपने सिरों पर प्लेटों में मोमबत्तियों को लिये खड़ी थीं। तभी बीरबल ने चुपके से अपनी शेरवानी में रुमाल में लिपटा हुआ एक छोटा चूहा नीचे गिरा दिया। चूहा गिरकर जैसे ही भागा, सारी बिल्लियों ने अपना अनुशासन एक तरफ रखा और उस चूहे के पीछे भागीं। बीरबल ने एक व्यंग भरी मुसकान से राजा की तरफ देखा; राजा का मुँह खुला का खुला रह गया, उसके पास कहने को कोई शब्द नहीं थे।

इन्सान के पास भी एक ऐसा ही मन है जो सालों सीखता रहता है। परन्तु जैसे ही परिक्षा सामने आती है, सालों से सीखी सारी शिक्षा को एक तरफ रखकर वही कर डालता है जो नहीं करना चाहिए, और वही बोल जाता है जो नहीं बोलना चाहिए।

प्रभु का वचन कहता है वे सीखते तो रहते हैं पर सच्चाई की पहिचान तक कभी नहीं पहुँचते (२ तिमुथियुस ३:७)। वे सीखकर बाहरी बदलाव तो ले आते हैं पर स्वभाव का बदलाव नहीं। ऐसे लोग धीरे धीरे परमेश्वर की बात सुनना बंद कर देते हैं और तब परमेश्वर भी उनसे बात करना बंद कर देता है। जो अपने पाप देखना बंद कर देता है, वह दूसरों के पाप देखना शुरू कर देता है।

फरीसी हमेशा इस सोच के सहारे जीते थे कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं। पर उन्होंने यह कभी नहीं सोचा कि प्रभु हमारे बारे में क्या सोचता है? वे हमेशा ही अपनी कमज़ोरियाँ छिपाते थे। उनका अहंकार उन्हें उनके पापों को मानने नहीं देता था।

ईसप की कहानीयों को, जिनमें आदमी के स्वभाव की सच्चाई छिपी है, आपने कितनी ही बार सुना होगा। लोमड़ी ने अँगूरों पर छलांग लगाई, लेकिन छ्लांग छोटी पड़ गई; गुच्छा कुछ ज़्यादा ही ऊंचा था। कई बार कोशिश करने ने पसीने पसीने कर डाला। आखिर उसने ध्यान से इधर-उधर देखा कि कहीं किसी ने देखा तो नहीं, फिर उसने अपने उपर की धूल झाड़ी और लंगड़ाती हुई जैसे ही आगे बढ़ी, झाड़ियों में छिपे खरगोश ने चुटकी ली, “चाची क्या हुआ?” लोमड़ी बोली, “मैं तो छलांग लगा लगाकर सिर्फ देख ही रही थी। अँगूर तो अभी कच्चे हैं, जब पक जाएंगे तोड़ने तो तब आउँगी।” आदमी का स्वभाव इस कहानी में दिखाई देता है - वह अपनी कमज़ोरी मानता नहीं वरन ढाँपता है। लोमड़ी आदमी के अन्दर की चालाकी और पाखंढ को दिखाती है, और खरगोश हमारे विवेक को जो बार बार हमारी कमज़ोरियों और मक्कारियों पर ऊंगली रखता है। अहंकार मरता नहीं है, सिर्फ छिप जाता है। हम उसे अपने शब्दों से छिपाए रखते हैं और यह दिखाते हैं कि हम में अहंकार नहीं है।

यहुदियों का मन्दिर पैसे के लिए, पैसे के द्वारा, पैसे के लालची लोगों के द्वारा चलाया जा रहा था। ऐसे मन्दिर को वे परमेश्वर का मन्दिर कहते थे। परन्तु जब प्रभु वहाँ गया तो उसने देख कि वहाँ परमेश्वर का मन्दिर नहीं, डाकुओं की खोह है। मनुष्य के देखने और परमेश्वर के देखने में कितना अन्तर है। आज जब परमेश्वर यानि परमेश्वर का वचन आपके मन में झाँकता है तो क्या पाता है? क्या आप भी वचन के प्रकाश में अपने मन में कुछ देख पा रहे हैं?

क्या आपने अपने बारे में कभी कुछ सोचा? या फिर आप सोचना ही नहीं चाहते? जो आदमी सोचने के दरवाज़े बन्द कर देता है वह वास्तव में बड़ी बेवकूफी करता है। पर हम आपको मजबूर कर रहे हैं कि आप अपने बारे में कुछ सोचें। क्योंकि हम अपनी पहिचान भूल चुके हैं, कि वास्तव में मैं क्या हूँ। जो सिर्फ दूसरों में दोष देखता है, वह अपने दोष कभी नहीं देख पाता।

काश! दाउद की दुआ आज मेरे और आपके दिल की दुआ बन जाए - ‘... देख कि मुझ में कोई बुरी चाल है कि नहीं, और अनन्त के मार्ग में मेरी अगुवाई कर! (भजन १३९:२४)।

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

संपर्क दिसम्बर २००८: तब क्या होगा


(यह लेख २६ नवंबर २००८ को मुम्बई में हुए आतंकी हमले के बाद लिखा गया है)

यह लेख मैं उस समय लिख रहा हूँ जब सारा संसार सोच रहा है ‘अब क्या होगा?’ आतंकवाद ने हमें हिला कर रख दिया है। परमेश्वर के वचन की भविश्यद्वाणी कहती है, “आने वाली घटनाओं को देखते देखते लोगों के जी में जी न रहेगा” (लूका २१:२६)। मैं देख रहा था कि लोग मौत से बचने के लिये भाग रहे थे। पर अब वह दिन भी आने वाले हैं जब वे “मरने की लालसा करेंगे और मौत उनसे भागेगी” (प्रकाशितवाक्य ९:६)। उग्रवाद का कारण, बदला लेने की भावना तथा जलन और द्वेश रखना ही है। बदले की इस भावना ने इन्सान के भीतर इन्सानियत को ही खत्म कर डाला है। ज़िंदा जिस्म में एक मुर्दा लाश जी रही है। आदमी के अन्दर एक शमशानी सन्नाटा और दहशत बसती जा रही है और यह उग्रवाद हमारे समाज पर सबसे शर्मनाक कलंक है।


काफी दिन हुए मैंने किसी पत्रिका में एक घटना के बारे में पढ़ा था। लोगों के नाम आदि मुझे याद नहीं रहे, लेकिन जो भी याद है वही आज आपके साथ अपने शब्दों के सहारे बाँट रहा हूँ। मध्य एशिया में किसी पर्यटक स्थल पर एक पति, पत्नि और उनके तीन बच्चे किसी होटल में ठहरे हुए थे। उनका बड़ा बेटा लगभग ७ वर्ष, छोटी बेटी ६ वर्ष और सबसे छोटा बेटा एक वर्ष के लगभग था।

अचानक एक गोली चलने की आवाज़ ने ६ साल की बच्ची को चौंका दिया। उसने दौड़ कर कमरे की खिड़की से झांका तो क्या देखा कि पास बहती हुई नदी के किनारे उसके पापा खून से लथपथ ज़मीन पर पड़े हुए हैं। तीन-चार आदमी बन्दूक लिए खड़े हुए हैं जिनमें से एक उसके भाई को पैरों से पकड़ कर पत्थर पर पटक पटक कर मार रहा था। इतने में उसकी माँ ने उसके पीछे से आकर देखा तो उसे यह समझने में देर नहीं लगी कि उग्रवादियों ने उन्हें घेर लिया है और वे उनके कॉटेज की तरफ आ रहे हैं। माँ ने तेज़ी से अपने सबसे छोटे बेटे को गोद में उठाया और बेटी का हाथ पकड़ कर छिपने के लिए एक छोटे गोदाम की तरफ भागी। लड़की को उसने वहाँ रखी अनाज की बोरियों के पीछे छिपा दिया और खुद कुछ दूरी पर बेटे के साथ छिप गई। तभी उग्रवादी भी वहाँ आ पहुँचे। वे सामान इधर उधर फेंकते हुए उन्हे ढूंढने लगे। तभी माँ की गोद में बैठा बेटा डर से रोने को हुआ तो माँ ने उसका मुँह अपने हाथ से दबा लिया। जब उग्रवादी काफी ढूंढने के बाद लौटने लगे तब माँ ने अपना हाथ बेटे के मुँह से हटाया तो देखा कि बेटे की गर्दन लटकी हुई है। माँ ने डर और घबराहट में उसके मुँह के साथ उसकी नाक भी दबा दी थी और बेटा साँस रुकने के कारण मर चुका था। वह माँ यह देख अपने को रोक न सकी और उसकी चीख़ निकल पड़ी। उसकी चीख़ जाते हुए उग्रवादीओं को फिर लौटा लाई और उन्होंने माँ को भी गोलियों से भून दिया।

बोरियों में छिपी बैठी सहमी सी उस बच्ची ने यह सब देखा था। अगले लगभग ६ साल तक वह सदमे के कारण बोल न सकी। १२ साल की यह लड़की १८ साल तक बदले की भावना से भरी यही सोचती थी कि मैं उन लोगों से बदला कैसे लूँ? अब केवल यही उसके जीने का उद्देश्य बचा था। वह हँसना भूल चुकी थी। तभी उसकी मुलाकात प्रभु यीशु के एक दास से हुई जिससे उसने पापों की क्षमा, शान्ति, चैन और छुटकारे के बारे में सुना। जब इस अशान्त लड़की ने शान्ति के परमेश्वर से प्रार्थना कर दया की भीख माँगी, तब वह उस बदले के भाव से बाहर निकल पाई। तब उसने प्रभु से पूछा, “प्रभु अब आप बताईए, मैं क्या करूँ?” प्रभु ने उसको अपने वचन के द्वारा बताया, “अगर बुराई को जीतना है तो भलाई से जीतो।” आज यही लड़की उन्हीं उग्रवादियों के अनाथ और बेसहारा बच्चों की सेवा में लगी है।

उस उग्रवादी घटना ने तो इस लड़की को उग्रवादी बना ही दिया था, पर प्यारे प्रभु ने उसे क्या से क्या बना दिया। आज वह अपना बाकी जीवन द्वेश से नहीं पर प्यार से, बुराई से नहीं पर भलाई से बिता रही है। “बुराई से न हारो, परन्तु बुराई को भलाई से जीत लो” (रोमियों १२:२१)।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

संपर्क दिसम्बर २००८: एहमियत का एहसास


(यह लेख, आई० आई० टी० - रूड़की के स्नातक श्री शशि शेखर की गवाही, अर्थात उनके व्यक्तिगत अनुभव की अभिव्यक्ति, है।)

मेरा नाम शशि शेखर है। मेरा जन्म पटना बिहार में हुआ। मैं बच्पन से ही अपने सब भाई-बहिनों में सबसे अधिक धार्मिक था और कभी त्यौहार के मौके पर उपवास भी रख लिया करता था। मैं ही अकेला था जो धार्मिक था। मैंने कभी भी अपने परिवार और अपने माता-पिता से ज़्यादा किसी और चीज़ के बारे में नहीं सोचा।

जब मैं दो-तीन साल का था तो उस समय मैं एक बड़ी ही विकट स्थिती से गुज़रा और मरते-मरते बचा। उस समय ऐसा हुआ कि मैं एक टूटी हुई चूड़ी को अपने मूँह से तोड़ने की कोशिश कर रहा था जबकि मेरे मुँह में दाँत नहीं थे। लेकिन मैंने उसको अपने मुँह से तोड़ने की पूरी कोशिश की। परिणामस्वरूप मेरा गला कट गया और बहुत ख़ून बहने लगा। तुरंत मेरे माता-पिता मुझे पटना लेकर भागे। उन दिनों गंगा नदी में बहुत बाढ़ आई हुई थी और स्टीमर बोट (स्वचालित नाव) को छोड़ और कोई आने-जाने का साधन नहीं था। ऐसे में कोई भी बोट मालिक स्टीमर से नदी पार करने के लिए तैयार नहीं था और मेरे माता-पिता ने मेरे जीवन कि बची संभावना की सारी आशा भी छोड़ दी थी। उसी समय बहुत कोशिश करने के बाद परमेश्वर के अनुग्रह से बाढ़ से भरी नदी को पार करने के लिए एक आदमी तैयार हुआ और बहुत ही कठिनाई से नदी को पार किया।

वह समय मेरे माता-पिता के लिए बहुत ही दुख़दायी था। मेरे इलाज में बहुत बड़ी रकम खर्च हुई, जिसके चलते मुझे बचाने के लिए मेरे माता-पिता ने बहुत ही दुख़ उठाया। इलाज के बाद धीरे-धीरे मैं ठीक होने लगा।

मेरी प्राथमिक शिक्षा पहली से पाँच कक्षा तक एक हॉस्टल में हुई जहाँ मेरे अन्दर एक अलग तरह का व्यवाहर विकसित हुआ। मैं दूसरों को पसंद नहीं करता था और अपने हृदय में बुरा सोचता था और भला करने की सोचता भी नहीं था। इस तरह मैं पूरी तरह पाप में था।

मैंने कभी ऐसा पाप तो नहीं किया जो यदि मेरे माता-पिता, भाई-बहिन या किसी और को पता चलता तो वे मेरे बारे में बुरा सोचते। मैं हमेशा यही चाहता था कि लोग मेरे बारे में अच्छा सोचें। मैं चाहता था कि मैं कोई ऐसा बुरा काम ना करूँ जिसका किसी को पता चले तो मेरी एक आज्ञाकारी बालक की छवि धूमिल हो जाए। बचपन से ही मैं अपनी छवि के बारे में बड़ा ध्यान रखता था। इस तरह, अपनी सोच के अनुसार, मैं अपने माता-पिता और शिक्षकों की राय में एक ‘अच्छा लड़का’ था।

मैं अपने ही तरीके से पाप का मज़ा ले रहा था। मैं एक बहुत ही घमंडी, स्वार्थी और क्रूर लड़का था और अपने माँ-बाप के सामने हमेशा साफ-सुथरा दिखना चाहता था। अर्थात आप कह सकते हैं कि मैं केवल एक पाखंडी था। यह इस तरह से है जैसे ‘एक कब्र, जिसके अन्दर हड्डियाँ और मलिन्ता और सड़न है, परन्तु बाहर से देखने में साफ़ और संवरी हुई है।’ वैसे ही, मेरे हृदय के अन्दर तो बुरी सोच थी लेकिन मैं बाहर से एक आज्ञाकारी और सभ्य बालक के रूप में संवरना चाहता था।

बच्पन से ही विज्ञान में मेरी रुची नहीं थी। मैंने कभी पढ़ाई की एहमियत का एहसास नहीं किया। क्योंकि सब पढ़ते हैं इसलिए मुझे पढ़ना है और यह मुझे अच्छा लगता था। मुझमें एक देश्प्रेम की भावना थी सो मैं एक सेना का अधिकारी बन्कर देश की सेवा करना चाहता था। मुझे बच्पने से ही एक अच्छा दिमाग़ नहीं मिला, मैं केवल एक सामन्य बुद्धि का लड़का था। परन्तु फिर भी मैं बचपन से ही अपनी पढ़ाई में हमेशा अच्छा था। जिस स्कूल में मैं पढ़ा वहाँ हमें आम तौर से खाना खाने से पहले और सोने से पहले प्रार्थना कराई जाती थी।

जब मैं १२ साल का था तब मेरे जीवन में एक बुरा मोड़ आया। १९९४ में मुझे ‘एनसैफलाईटिस’ नामक बीमारी हो गयी - एक ऐसा बुखार जिसने रांची में रहने वाले बहुत से लोगों को मार दिया था। जब मुझे अस्पताल में भर्ती कराया गया तो मेरी माँ बहुत घबरा गयी थी और उसने मेरे जीवन की आशा छोड़ दी थी। क्येंकि लोग रोज़ सुबह भर्ती होते और दोपहर या शाम तक उन्हें मरा घोषित कर दिया जाता था। एक समय तो मुझे भी मरा घोषित कर दिया गया परन्तु आश्चर्यजनक रीती से जीवन मुझमें दोबारा आ गया। बहुत इलाज के बाद मैं कुछ हद तक ठीक हो गया। और एक महीने के बाद मेरे माता-पिता को डाक्टर ने सलाह दी कि ‘इसको घर ले जा कर सायकोथेरापी (मान्सिक चिकित्सा) के द्वारा इलाज करो’। इसके तीन साल के बाद मैं अपनी पढ़ाई दोबारा ज़ारी कर सका। बहुत मेहनत के बाद मैंने १९९९ में अपना इंटरमीडीयट सी०बी०एस०सी० बोर्ड से पूरा किया।

उसके बाद परमेश्वर के अनुग्रह से मैंने प्रतियोगी इंजिनियरिंग की परीक्षाएं दीं और मुझे रूड़की आई०आई०टी० इंजिनियरिंग परीक्षा के लिये चुन लिया गया और मैं रूड़की आ गया। यहाँ आकर अपने साथ के पढ़ने वालों को देखकर बहुत उलझन में था कि उनके लिये गाली देना, गन्दे काम करना और सिगरेट और शराब पीना एक रिवाज़ है। मेरे सीनियर और मेरे मित्र मुझ से कहते कि एक इंजिनियर के लिये यह सब करना बहुत ज़रूरी होता है। क्योंकि मैं किसी को गाली नहीं देता था, अपशब्द भी नहीं बोलता था और मुझ में कोई बुरी आदत भी नहीं थी इसलिए मैं केवल अपने आप में संतुष्ट रहता था और मुझे अपने अंदर कोई बुराई नहीं दिखती थी। मैंने बहुत कोशिश की अपने आप को इन चीज़ों से दूर रखने और अपने आप में और अपने मित्रों की दृष्टि में ठीक दिखने की परन्तु मेरा मन उन दिनों बहुत ही भ्रष्ट हो गया था।

मैं अपने पहले साल के आखिरी सैमस्टर में एक धर्मी जन से मिला। वह मुझे प्रभु के पास लाया। पहले तो मैं उसकी कोई बात सुनने के लिये तैयार नहीं था। परन्तु धीरे-धीरे मैंने उसकी बात सुनना शुरु किया और उसके बारे में जाना। मैं प्रभु के लोगों की संगति में बना रहा और लम्बे समय बाद, यह जान्कर कि वह मुझ जैसे को भी, जो इतना बुरा है, ग्रहण कर सकता है, और केवल वही है जो मुझे मेरे पापों से क्षमा और मुझे एक नया मन दे सकता है, मैंने व्यक्तिगत रीति से, पश्चाताप के साथ, प्रभु यीशु को ग्रहण किया ।

पहले मैं उनके पीछे चलता था जो मुझे धर्म के पास ले जाता था लेकिन जिसके अंत मेम कुछ भी नहीं है। परन्तु जब मैंने प्रभु यीशु पर विश्वास किया तो जाना कि केवल वही पापों की क्षमा और उद्धार का मार्ग है जो कलवरी के क्रूस पर उसके बलिदान पर विश्वास के द्वारा मिलता है। अब मैं कह सकता हूँ कि जब मैं प्रभु को नहीं जनता था, तब भी प्रभु मुझे जानता था और जो भी मेरे जीवन में हुआ परिणामस्वरूप भला ही हुआ।

कुछ बातों को मैं आज सोचता हूँ। अगर मैं धर्मी था तो क्यों बुरी बातें और बुरे विचार मेरे मन में बने रहते थे? क्या वे मुझे अच्छा बना सकते थे? तब मैं एक व्यक्तिगत निर्णय पर आया कि मुझे अच्छे और बुरे के बीच एक फैसला करना है। प्रभु ने मुझे उत्तर दिया और मैं पूरी तरह इस बात से सहमत हो गया कि मैं यीशु पर पूरे हियाव के साथ भरोसा रख सकता हूँ और मेरा हृदय जिसकी खोज कर रहा था उसकी खोज अब पूरी हो गयी।

मेरे जीवन में प्रभु ने बहुत काम किये हैं। मैं प्रभु का बहुत आभारी हूँ और अब मैं चाहता हूँ कि वह मुझ जैसे कमज़ोर आदमी को अपने सेवक के रूप में चुन ले।

संपर्क दिसम्बर २००८: ज़रा सुन तो लो

मिलावट और बनावटीपन इस युग की सबसे ज़रूरी बात बन गई है। जल, वायु, भोजन सब मिलावटी है। जीवन रक्षक दवाईयों में भी मौत मिलकर बेची जाती है। अगर आप मरना चाहें तो असली ज़हर भी मिलना मुशकिल है। क्या आपने कभी सुना है कि कीड़े मारने वाली दवाई में भी कीड़े पड़ गए? इस बनावटी और मिलावटी युग में परमेश्वार के वच्न में भी मिलावट होने लगी है। बनावटी प्राचारकों की भी भरमार है। दानियेल भविष्यद्वक्ता की भविश्यवणी में अन्तिम युग लोहे और मिट्टी के मिलावटी पैरों पर खड़ा है (दानियेल २:३३,४१,४२)।

आज पाप सिर्फ कोई मजबूरी मात्र ही नहीं, पर पाप एक मनोरंजन का साधन भी बन गया है। किसी को बेवकूफ बनाकर और धोखा देकर बड़ा मज़ा आता है। हम अपनी पेहचान भूल गये हैं। वास्तव में हम क्या हैं? हम दूसरों को तो कहते हैं कि लोग बैर हैं, झूठ बोलते हैं, लालची हैं; पर मैं क्या हूँ? अगर कभी कोई कमी दिखती भी है तो हम उसे सही ठहराने की कोशिश करते हैं या फिर मजबूरी गिनाते हैं।

बीवी कह रही थी, “दुनिया में इमान्दारी नहीं बची। लोग धोखा दे रहे हैं और धोखा खा रहे हैं। बड़े से बड़ा आदमी क्या, छोटा भी दे रह है। बस संसार का अन्त आ गया है। देखो सुबह क्या हुआ, सबज़ीवाला मुझे एक खोटा सिक्का थमा गया; एक रुपये के लिये भी ईमान बेच दिया! वैसे तो खुदा खुदा कर रहा था।” पती बोला, “ज़रा वह खोटा सिक्का तो दिखाओ।” बीवी बोली, “वह तो मैंने दूधवाले को भेड़ दिया!” जब कोई हमें कुछ नोटों के बीच में एक फटा हुआ नोट चला देता है तो हमें उसके धोखे पर बहुत दुख, गुस्सा और झुँझलाहट आती है। पर अगर वही नोट हम उसी तरह से दूसरों को थमा देते हैं तो हमें बड़ी खुशी मिलती है और हम राहत महसूस करते हैं कि नोट चल गया।

शैतान एक ऐसा सेल्समैन है जो बड़े वायदे करता है और बड़े-बड़े लालच सामने रखता है; पर असल बात तो बाद में खुलती है और तब तक आदमी लुट चुका होता है। वह ऐसे आश्वासनों की भरमाई मन में भर देता है, जो कभी पूरे नहीं होते। शैतान, अपने झांसे में लाकर, हज़ारों सालों से, हव्वा से लेकर अब तक, न जाने कितनों को परमेश्वर के तुल्य हो जाने का ख़्वाब दिखाता रहा है। शैतान ने आदमी को अंश-अंश करके अपने स्वरूप में ढाल दिया है।

अगर झूठ सच सा न लगे तो झूठ कभी चल नहीं पायेगा। नकली नोट अगर असली सा ना दिखे तो चलेगा नहीं। काँटे पर आटा लगाया जाता है। काँटे पर यदि आटा न हो तो मछ्ली फंसेगी कैसे? काँटे को छिपाने के लिये आटा लगाना ही पड़ता है। लोभ के आटे की सच्चाई, बिना सटके, सहजता से समझ में नहीं आती। पर बाद में जब समझ में आती है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। हव्वा ने शैतान के एक ही झूठ को सच समझ कर उसका विश्वास किया था। एक बार आप फंस गये तो फिर बस छटपटाते रहेंगे।

लोग आश्चर्यकर्म देखना चाहते हैं, चँगाई देखना चाहते हैं। ज़्यादतर लोग परमेश्वर की खोज में नहीं. परन्तु वे किसी मदारी की खोज में हैं। अधिकतर तो अपने स्वार्थ की ही खोज में जुटे हैं। यह बात सच है कि प्रभु यीशु पाप से छुटकारा देने आया। पर ऐसे प्रचारकों की भर्मार है जो उछ्ल-कूद दिखाते हैं और बड़े-बड़े लालच देते हैं, और एक बड़ी भीड़ उनके पीछे है - “ ... और कितनों के विश्वास को उलट-पुलट कर देते हैं (२ तिमुथियस २:१८)।” “ ... हे सोने वाले जाग और मुर्दों में से जी उठ; तो मसीह की ज्योति तुझ पर चमकेगी (इफ़सियों ५:१४)।”

रविवार, 5 अप्रैल 2009

संपर्क दिसम्बर २००८: आदमी भी क्या है


एक बाज़ीगर बाबा रेल से बिना टिकिट यात्रा कर रहा थे। टिकिट कलैक्टर ने उनसे टिकिट माँगा। बाबा बोले, “बाबा लोग कहाँ टिकिट लेते हैं?” टिकिट कलैक्टर बोला, “यह तेरे बाप की गाड़ी नहीं है, नीचे उतर।” बात बिगड़ गई। बाबा को अगले स्टेशन पर उतार दिया गया। बड़ा शोर-शराबा मचा और भीड़ इकट्ठी हो गयी। बाज़ीगर बाबा बोले, “देखता हूँ यह गाड़ी कैसे चलती है?” थोड़ी देर में गार्ड ने सीटी बजाई और हरी झंडी दिखाई। ड्राईवर ने गाड़ी चलानी शुरू की - गाड़ी थी कि आगे खिसकने का नाम ही ना ले। ड्राईवर की सारी कोशिशों के बावजूद भी गाड़ी हिल नहीं पाई। अब धीरे-धीरे लोगों में घबराहट बढ़ने लगी और सवारियॊं में गुस्सा भड़कने लगा। स्टेशन मास्टर परेशान होकर टिकिट कलैक्टर से कहने लगा, “क्यों पचड़ंगा खड़ा कर लिया। इससे पहिले कि लोग तोड़-फोड़ माचाएं, बाबा से माफी माँग लो।” टिकिट कलैक्टर अड़ा रहा और बात बढ़ती गई। आखिर मजबूरी में उसने माफी मांग ही ली। पर तब तक बाबा के तेवर बहुत बढ़ चुके थे। बाबा बोला, “फूल लाओ, मिष्ठान लाओ और पैरों में प़ड़कर माफी माँगो।” खैर मामला निपट गया। बाबा ने बड़े नाटकीय ढंग से आदेश दिया और गाड़ी चल पड़ी। गाड़ी क्या चली, बाबा का धंधा चल पड़ा। ख़बर फैलती गयी और बाबा की किस्मत फलती गयी।

बाबा की मौत के समय उनके एक पुराने ख़ास करीबी चेले ने उनसे पूछा, “रेल का चक्का जाम करके आपने अपना सिक्का कैसे जमाया?” बाबा बोले, “बेटा मरते वक्त क्या झूट बोलूँ। मैंने रेल के ड्राईवर को बड़ी मोटी रिशवत दे रखी थी!”

ऐसे ही कई धोखेबाज़ लोगों ने आम लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ किया है। इसीलिए कई लोगों को तो परमेश्वर के अस्तितव पर विश्वास ही नहीं रहा। ऐसे लोगों से अगर परमेश्वर के बारे में बात करो तो वे कैसे बात करते हैं - “अपने परमेश्वर को अपने पास रखो। परमेश्वर कहाँ है? किसने देखा है? क्या सबूत है? तुम लोगों को स्वर्ग का लालच और नर्क का डर दिखाकर डराते फिरते हो कि न्याय आएगा, नर्क जाओगे। यह पट्टी डरपोकों को ही पढ़ाना। देखो ध्यान रहे, दुबारा मूँह मत लगना, नहीं तो तुमको भी तुमहारे परमेश्वर के पास पहुँचा दूँगा।” वे ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि उन्हे यह विश्वास हो गया है कि परमेश्वर है ही नहीं।

कुछ लोग इससे हलके मिजाज़ के होते हैं। वे अक्सर यह कहते हैं “परमेश्वर की क्या ज़रूरत है? जब उसके बिना कम चल रहा है तो क्यों ज़बरदस्ती परमेश्वर को गले लपेटना?” वे भी पर्मेश्वर की सत्यता को स्वीकार नहीं करना चाहते। या ऐसे भी कुछ लोग हैं जो किसी रस्म के तौर पर या स्वार्थ से, दिखावे या डर के कारण या उनके साथ कुछ बुरा ना हो इस कारण परमेश्वर को मानते हैं। पर कुछ लोग होते हैं जो सच्चे दिल और ईमानदारी से परमेश्वर को खोजते हैं। तरिका सही या ग़लत हो सकता है, पर वे दिल से परमेश्वर का आदर करते हैं, मतलब या दिखावे से कतई नहीं।

बहुत ही साधारण समझ की ज़रूरत है। क्या बिना बनाए कुछ बनता है? “ इसलिए जिसने सब कुछ बनाया वह परमेश्वर है।”

मर्दानगी रफूचककर हो जाती है

ज़िन्दगी के सफर में हमें रास्तों की ज़रूरत होती है। इस बात को इस तरह समझिएगा - आदमी शरीर से तो बुरे हालातों का सामना नहीं कर पाता। जंगली जानवरों का भी वह सीधा सामना नहीं कर सकता। और शेर, उसको तो देखकर ही उसकी सारी मर्दानगी रफूचककर हो जाती है। शेर की तो बात ही छोड़ो, अगर कोई कुत्ता भी पीछे दौड़ पड़े तो वह चौकड़ी भूल जाता है। आदमी के पास न तो जानवरों की सी आँखें हैं, न ही तेज़ी, न ही ताकत। न नाखून हैं न पंजे और न ही उन जैसे दाँत और न ही वह पक्षियों की तरह उड़ सकता है। इसलिए उसने तीर, तलवार, चाकू, बन्दूक, तोप, हवाई जहाज़ और नाव बनाए हैं। यह आदमी की मजबूरी थी कि उसने ऐसे हथियारों की खोज की। हर बात के लिए उसने अपने रास्ते बनाए हैं। उसने तो मौत के बाद स्वर्ग जाने के भी रास्ते बनाए हैं! जी हाँ, धर्म के रास्ते, जो उसे यहाँ से वहाँ पहुँचा सकें।

हर चीज़ के दो पहलू होते हैं, एक बाहरी और दूसरा भीतरी। बाहर से सब सामन्य से दिखते हैं पर भीतर बहुत फर्क होता है। इसी तरह धर्म का भी बाहरी रूप बहुत अच्छा लगता है पर भीतरी रूप बहुत भयानक है। क्या उग्रवाद, जातिवाद, प्रदेशवाद सब धर्म की ही देन नहीं हैं? हमारे इन्हीं धर्मों ने आम आदमी के अहँकार को उसकी ऊँचाई पर पहुँचा दिया है - गर्व से कहो मैं फलाँ धर्म का हूँ। यह वास्तव में दूसरे को नीचा दिखाना ही तो है! कौन कहता है - “गर्व से कहो कि मैं इन्सान हूँ?” वह यह कभी नहीं कह सकता क्योंकि उसमें इन्सानियत बची ही नहीं है। आज महत्तव धर्म का है, परमेश्वर का नहीं। धर्म तो आज दहशत का एक नया नाम है।

राजनेताओं के लिए धर्म समस्या नहीं है। कोई भी साफ समझ सकता है कि धर्म उनके लिए स्वार्थसिद्धी का साधन मात्र है। आर्थिक जगत में भी इन्सान को सबसे सस्ती और अच्छी मशीन माना जाता है। इन्सानियत के लिए वहाँ कोई जगह नहीं है, सिर्फ मुनाफा ही सब कुछ है। हमारे देश में किसी भी वस्तु की कोई कमी नहीं है, फिर भी इन्सान यहाँ परेशान है। कमी है तो सिर्फ ईमान्दारी की।

कोई गुलाब नहीं है इस दुनिया में जो बिन काटों का हो। ये काँटे हमारे पाप के कारण हैं जो आदमी ने खुद अपने जीवन में बोए हैं। कोई घर नहीं बचा जहाँ कँ तों की सी चुभन ना हो। ज़रा अपने घर को टटोल के देखिए कितने ही काँटे बिखरे हैं। अहँकार, क्रोध, लालच के कारण सब परेशानियाँ हैं इस लिए सब परेशान हैं। परेशानियाँ हमेशा इन्सान के साथ बनी रहती हैं। जब तक इन्सान इस पृथवी पर जीएगा, परेशानियाँ उसके साथ बनी रहेंगी। सारी परेशानियों का कारण पाप ही तो है।

सगा भाई भी सगा नहीं है। अगर कोई सगा है तो सिर्फ स्वार्थ का सगा है। अब हालात दिन-ब-दिन बद् से बद्तर हो रहे हैं। इन्ही के कारण संसार अपने सबसे मुश्किल समय पर आ खड़ा हुआ है। हर जगह एक ही चर्चा है कि क्या होगा? कैसे होगा? आफ़तें और परेशानियाँ ऐसे आती हैं जैसे भूचाल, जो बिना बताए अचानक आ पड़ते हैं। आदमी ने अपनी बेचैनी खुद पैदा की है और उस बेचैनी से निकलने के लिए उसे कोई मार्ग नहीं दिखता। फिर दोष कहाँ है? सच तो यह है कि दोष मेरे और आपके स्वाभाव में है और हममें बसा हुआ है। भूख या प्यास लगानी नहीं पड़ती, अपने आप लगती है, क्योंकि यह शरीर का स्वाभाव है। ऐसे ही हमारे मन का स्वाभाव है - लालच, लगाना नहीं प़ड़ता पर अपने आप आता है; अहँकार उठाना नहीं पड़ता, मन खुद उठाता है।

नाम खरे और दर्शन खोटे

हम अपनी बातों और कमों में बड़े उलट होते हैं, जैसे - “गरीबदास” बहुत बड़े सेठ हैं; “अमीरचँद” को दो वक्त की रोटी नहीं मिलती; “शाँति” ने मुहल्ले में बड़ी अशाँति फैला रखी है; “कामराज” (सुन्दरता के देवता) का रूप शाम को अगर बच्चे को दिखा दिया जए तो मारे डर के रात भर उसे नींद नहीं आएगी। जो हम होते हैं वह हम दिखते नहीं और जो हम नहीं होते वह हम दिखाते हैं।

मुल्ला नसरूद्दीन ने एक शास्त्रिय संगीतज्ञ मित्र को शाम के खाने पर बुलाया और कहा कि साथियों तथा साज़-ओ-सामान के साथ आना, खाने के बाद महिफल सजेगी। संगीतज्ञ दिन भर परेशान रहा कि मुल्ला को शास्त्रिय संगीत का शौक कब से चढ़ा। ख़ैर, संगीतज्ञ साथियों के साथ पहुँच गए, खाने पीने का दौर चलता रहा। आधी रात बीत गई तो मुल्ला बोले, ‘यार अब शुरू करो।” संगीतज्ञ बोला, “मियाँ यह कोई वक्त है? सारा मोहल्ला सो गया है।” मुल्ला बोले, सारि-सारी रात इन्के कुत्ते भोंकते रहते हैं, मैं कभी कुछ नहीं बोलता। पर आज इन्हे मालूम होगा, भले ही मेरे पास कुत्ते नहीं हैं तो क्या हुआ, शास्त्रिय संगीतज्ञ तो है।” इसी तरह बदला लेने का स्वभाव सबमें है और इससे कोई भी बचा नहीं। कुछ लोगों ने बदला लेने के तरीके बदले हैं पर जीवन में कुछ नहीं बदला।

ज़रा एक दूसरे के घर की हालत भी तो देखिए

बीवी कहती है यह मनहूस आदमी जितनी देर घर से बाहर रहता है घर में चैन बना रहता है। इस मनहूस की शक्ल देखते ही गुस्सा आना शुरू हो जाता है। कभी वो दिन थे कि इसी शक्ल को देखने को आँखे तरसती रहती थीं। जो कभी कहती थी कि मैं आपके चरणों की दासी हूँ, आज उसी चरणों की दासी ने इस तरह ऐसी की तैसी फेर रखी है कि मियाँ के चरण काँपने लगते हैं। जिसे वह जान से प्यार करता था वही आज जी का जंजाल बन गयी है।

जो होता है वह दिखता नहीं। हमारी आँखें हमें धोखा देती हैं। आकाश नीला दिखता है। आकाश में जहाँ कुछ नहीं, वहाँ कौन नीला रंग पोत कर आया? वास्तव में वहाँ कुछ नहीं है। यह नीला रंग तो मात्र हमारी आँखों का धोखा है। जहाँ सुख की बू नहीं, वहाँ दूर से सुख का सागर लहराता हुआ दिखाई देता है। ऐसे ही सांसारिक सुख वह सिक्का है जिसे जब तक नहीं पाया तब तक उसमें सुख दिखता है, पाते ही वही सुख फिर दुख बन जाता है।

हमारे समाज से जब तक पाप की समस्या न सुलझे तब तक कुछ भी सुलझने वाला नहीं। हमारा ज्ञान, धर्म, धन हमें और ज़्यादा परेशानियों में उलझाए रखेगा। हमने अपने जल-जन्तु, जीवन, वायु, समाज और सामाजिक सम्बंध और पारिवारिक सम्बंध सब बिगाड़ लिए हैं। अब हम कितने ही धर्म बदल डालें, सरकार बदलें या पड़ोस और परिवार बदल डालें, इससे कुछ भी बदलने वाला नहीं। जब तक मन न बदले तब तक जीवन नहीं बदलेगा।

मौत के इन्तिज़ार में जी रही ज़िन्दगी

एक जवान की जीवन कथा इस तरह की है - जीवन कि कथा न कहकर अगर जीवन व्यथा कहें तो कहीं ज़्यादा ठीक होगा। उससे पूछा, “तुम क्यों जी रहे हो?” तो बोला, “आत्म्हत्या करने की हिम्मत नहीं है, मरने से डरता हूँ। लेकिन जीवित रहना मेरे लिए ज़रूरी नहीं, महज़ एक मजबूरी ज़रूर है। तकदीर के तीर ने ऐसा मारा है कि न ज़िन्दा रहा हूँ और न मुर्दा।”

जीवन का शाश्वत नियम है ‘मृत्यु’ और वह भी बड़ी अजीब चीज़ है। जो उसके इन्तिज़ार में बैठे हों उन्हे छोड़ जाती है और जो जाना नहीं चाहते उन्हें ले जाती है। कौन जाने कब किसकी बारी हो। कुछ तो मौत के पास से भी साफ बचकर निकल आते हैं; कुछ की सोच में भी मौत नहीं होती परन्तु मौत उन्हे दबोच ले जाती है। सच मानिए अब किसकी बारी है मालूम नहीं, पर किसी न किसी की बारी तो ज़रूर है। अगर आप अपने पाप के साथ मरे, तो खुद सोचिए मौत के बाद कहाँ होंगे?

‘बाऊल’ बंगाल की एक सूफी परम्परा है जिसमें वे ‘एक तारा’ बजाकर गीत गाते हैं और अपने में मस्त घूमते हैं। एक बाऊल एक जवान की लाश के सामने एक गीत में परमेश्वर से शिकायत करता है - “अजीब है, मुझे जाना चाहिए था, नहीं गया। जिन्हें नहीं जाना चाहिए था, वे चले गए। जो जाना नहीं चाहते हैं उन्हें ले लिया जाता है।”

जीवन के दिन गिने हुए हैं। एक एक करके हर एक दिन मरर्ता जाता है। कुछ अपने दिन पूरे कर चुके हैं और कुछ पूरा करने ही वाले हैं। कुछ आने वाले दिनों में अपने दिन पूरे कर लेंगे। हर एक मौत के मार्ग पर है। कोई धर्म, पैसा, ज्ञान और विज्ञान मौत से पार नहीं निकाल सकता। आप आने वाले कल से बिलकुल अन्जान हैं।

बेबसी से भरी आँखें

एक डाक्टर ने ८० साल के एक बुज़ुर्ग को सलह दी कि आपकी आँख के एक छोटे से ऑपरेशन से आपका अन्धापन दूर हो जाएगा। बुज़ुर्ग ने डाक्टर को जवाब देते हुए कहा, “३४ आँखें हैं जो रात-दिन मुझे संभालने में लगी रहती हैं। आठ बेटों की १६ आँखें, उनकी बहुओं की १६ आँखें और मेरि बीवी की २ आँखें। और फिर इस उम्र में ऑपरेशन कराने का क्या फायदा?” इस तरह वह डाक्टर की सलह को टाल गया। अभी ह्फता भी नहीं बीता था कि उसके घर में आग लग गई। सब तेज़ी के साथ बाहर भाग गये और यह बुज़ुर्ग अपने उपर के कमरे में फंसा रह गया। वह अपनी अंधी आँखों से दरवाज़ा टटोलता रहा पर बाहर निकलने का रस्ता न पा सका। धुंएं और आग ने उसे बुरी तरह घेर लिया। अब उसे डाक्टर की सलह याद आई, पर काफी देर हो चुकी थी। वे ३४ आँखें, जिनका वह दम भरता था, आँसुओं से भरी और बेबस रह गईं।

अगर हम ज़िद्द छोड़ दें तो पाप से छूटने में देर नहीं लगेगी। पाप मरता नहीं, मार देता है। वह हमारी हर खुशी और चैन को मार देता है। जब हम पाप के विरोध में बोलते हैं तो ध्यान रहे, हम किसी पापी के विरोध में नहीं, पर पाप के विरोध में बोल रहे हैं। हम किसी विशेष इन्सान या धर्म के विरोधी नहीं हैं। हम पाप के विरोध में हैं जो पापी का विनाश कर डालता है; और हम पापी का विनाश नहीं, बचाव देखना चाहते हैं।

अब अगर हम बात यीशु की करें, तो यीशु का नाम सुनते ही दिमाग़ दौड़कर कहता है अच्छा “इसाईयों का यीशु।” अरे वही इसाई जो दूसरों को इसाई बनाते फिरते हैं, विदेशियों का धर्म है और विदेशी पैसे से लोगों को भरमाते फिरते हैं - नौकरी मिल जाएगी, चँगाई हो जाएगी। ऐसे लालच लटकाकर इन्होंने दूआ की दुकाने खोल रखी हैं। कुछ लोग कहते हैं, इनके पास भीड़ की भीड़ आती है। कुछ ये भी कहते हैं कि सारी भीड़ पागल थोड़े ही है। सच मानिए, भीड़ ही पागलपन का व्यावहार करती है। यीशु ने कभी नहीं कहा कि तुम इसाई बन जाओ तो तुमको नौकरी मिल जाएगी और चँगाई मिल जाएगी। मैं दावा करता हूँ कि बाईबिल के सात लाख चोहत्तर हज़ार सात सौ छियालिस शब्दों में एक भी ऐसा शब्द नहीं जो ऐसा कहता हो।

सच्चाई तो यह है कि आपको धर्म परिवर्तन की कतई ज़रूरत नहीं। धर्म परिवर्तन करना और कराना वास्ताव में पाप है। प्रभु यीशु तो आपके मन परिवर्तन करने की बात करता है। वही मन जो परेशान, दुखी और बेचैन है। जो झूठ, जलन, लालच, व्यभिचार और गन्दे विचारों से भरा है। इन्ही से छुटकारा देने के लिए यीशु क्रूस पर मरा और तीसरे दिन जी उठा। उसका लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है। मात्र एक प्रार्थना दिल से करके देखें - “हे यीशु, मुझ पापी पर दया करके मेरे पाप क्षमा करें।”

सुनना तो सहज है पर सुनकर मानने में परेशानी लगती है कि लोग क्या कहेंगे? कितने ही लोग स्वार्थ की प्रार्थना तो करते हैं पर इतना साहस नहीं रखते कि अपने पाप से पश्चाताप की एक प्रर्थना कर लें। शर्म उन्हें रोकती है। कितने लोग अपने आप को समझा रहे होंगे कि प्रार्थना करने से कुछ नहीं होने वाला। पर इसमें ज़रा भी शक नहीं कि जिसने भी प्रभु यीशु के पास आने की हिम्मत जुटाई है, उसने उसे कभी नहीं निकाला (यूहन्ना ६:३७)। अब इस दोराहे पर कोई तीसरा रास्ता नहीं है।

मान लीजिए आपकी कोई भयानक सज़ा को राष्ट्रपति माफ करने के लिए तैयार हों और आप कहें कि मुझे किसी माफी-वाफी की ज़रूरत नहीं है। एक तरह से यह राष्ट्रपति का अपमान करना है। इसी तरह परमेश्वर आपके सारे पापों से माफी देने के लिए तैयार हओ और आप ऐसी क्षमा को ठुकरा कर चले जाएं तो आप परमेश्वर की आत्मा का अपमान करते हैं।

अगर हिम्मत और ईमान्दारी है तो अपना बही खाता देखकर अपने बारे में बताएं। आपके बही खाते में बहुत कुछ आपके नाम के विरोध में लिखा है जिसके बारे में सोचते हुए आपको खुद शर्म आएगी। हर बात का एक वक्त है। अब एक वक्त फिर आपके सामने है इस बात को अपानाने या ठुकराने के लिए। कुछ हैं जो सिर्फ मज़ा लेने के पढ़ रहे हैं। पर यह भी ज़रूर है कि कुछ गंभीरता से इन बातों को ले रहे हैं।

अब वक्त आ गया है कि आप अपने बारे में कोई फैसला लें या फिर उसे टाल दें। अगर न मानने की ज़िद्द पर अड़े हैं तो फिर कुछ कहने को बचता ही नहीं। यह पत्रिका आपके हाथों में परमेश्वर ने अपनी दया से पहुँचाई है। मैं आप से, हाँ प्यारे पाठक आप से पूछता हूँ कि आप अपने बारे में क्या सोचते हैं? अब आपके पास अपनी सारी परेशानी और निराशा से बाहर निकलने का वक्त आ गया है। यह शब्दों की कारीगरी नहीं, परमेश्वर की आवाज़ है। अब वह आप पर अपनी दया बरसाने के लिए तैयार है। बस आप एक बार कह कर तो देखिए, ‘हे यीशु, मुझ पापी पर दया करें।’