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रविवार, 28 अप्रैल 2019

चतुर भण्डारी (लूका 16:1-13)



यह दृष्टांत प्रभु यीशु द्वारा दिए गए दृष्टांतों और शिक्षाओं में से, समझने और समझाने में, सबसे कठिन में से एक है। कठिनाई मुख्यतः इस कारण है क्योंकि जो हम पढ़ते और देखते हैं उससे यह स्पष्ट है कि उस भण्डारी ने गलत किया है, वह बेईमान रहा है, परन्तु फिर भी ऐसा लगता है मानो प्रभु उसकी सराहना कर रहे हैं, और उसे अनुसरण के योग्य उदाहरण के समान प्रस्तुत कर रहे हैं। यह कुछ सीमा तक सत्य भी है, परन्तु पूर्णतया नहीं।

इस दृष्टांत में प्रभु के अभिप्राय को समझने के लिए हमें उस भण्डारी द्वारा प्रयुक्त बातों पर ध्यान देना होगायोजना बनना, चतुराई, बुद्धिमत्ता, उद्देश्य या लक्ष्य साधना, और उचित कार्यविधि अपनाना, जिससे वह अपनी परिस्थिति का सर्वोत्तम उपयोग कर सके। अन्त के पदों से, अर्थात 10 से 13 पदों से, यह बिलकुल स्पष्ट है कि प्रभु बेईमानी के विरुद्ध तथा गलत तरीकों से कमाए गए धन के विरुद्ध है; अतः इसमें कोई संदेह नहीं है कि, यहाँ प्रभु अपने शिष्यों से न तो यह कह रहे थे और न ही अभिप्राय दे रहे थे कि उस भण्डारी की बेईमानी अनुसरणीय है। किन्तु, निःसंदेह भण्डारी ने जो किया प्रभु ने उसमें कुछ योग्य भी पाया, और इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों से उससे कुछ सीखने और उन शिक्षाप्रद बातों को अपने जीवनों में लागू करने के लिए कहा। जो प्रशंसनीय बातें प्रभु को उस भण्डारी में दिखाई दीं वे थीं, जोखिम भरे समय में भी अपनी बुद्धिमता को बनाए रखना, चतुर और बुद्धिमान होना, और योजनाबद्ध तरीके से अपने लक्ष्य को पूरा करना (लूका 16:3-4).

वह भण्डारी समझ गया था कि उसके हिसाब देने का समय आ गया है (लूका 16:2); और वह अपने आते अन्त से भी अवगत था। किन्तु उसने न तो हिम्मत हारी और न ही हार मानी; वरन जो भी समय और संसाधन उसे उपलब्ध थे उसने उनका प्रयोग किया, और जो कुछ भी वह कर सकता था उसने किया, यह सुनिश्चित करने के लिए कि उसका भविष्य अंधकारमय न रहे, परन्तु अच्छा हो जाए (लूका 16:5-7)। प्रभु अपने शिष्यों को यही बात सिखा रहे थे (लूका 16:8), कि जैसे सँसार के लोग चतुर होते हैं शिष्यों को भी चतुर होना चाहिए, और जो कुछ भी उनके पास है उसका, अपने संसाधनों का उपयोग, उचित रीति से भली-भांति करना चाहिए। प्रभु ने हमें मूर्ख या सरलता से धोखा खा जाने वाले होने के लिए नहीं बुलाया है, वरन चतुर और समझदार होने के लिए बुलाया है (मत्ती 10:16) ऐसा नहीं है कि प्रभु हमें कुटिल या चालाक (बुरे अभिप्राय में) बनाना चाहता है, परन्तु वह चाहता है कि हम अपनी परिस्थितियों का आंकलन करना सीखें, और फिर उसके अनुसार बुद्धिमत्ता से व्यवहार करें (लूका 12:56-58; लूका 14:25-33; मत्ती 10:23).

यह केवल प्रभु यीशु ही की, या केवल नए नियम की शिक्षा नहीं है। पुराने नियम में, नीतिवचन की पुस्तक चतुर, बुद्धिमान, और समझदार होने की शिक्षा के साथ आरंभ होती है (नीतिवचन 1:1-7); और तुरंत ही चतुर, बुद्धिमान, और समझदार नहीं होने के दुष्परिणामों के विषय सचेत करती है (नीतिवचन 1:20-33)। दाऊद, जो परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति था, ने अपने दायित्वों के निर्वाह और अपने प्राणों की रक्षा के लिए बुद्धिमानी से कार्य किया (1 शमूएल 18:5, 14, 30)। भजन 119:98-100 हमें दिखाता है कि कैसे परमेश्वर अपने अनुयायियों को सँसार के लोगों से अधिक चतुर और सूझ-बूझ वाला बनाता है, और अपने वचनों के द्वारा अपने लोगों को चतुराई और बुद्धिमत्ता सिखाता है जिससे, वे इन सदगुणों का उपयोग अपने दैनिक जीवनों में, सँसार के लोगों और परिस्थितियों का सामना करते समय करें, जिससे प्रभु के लिए जीने और उसके गवाह होने के अपने उद्देश्यों को पूरा कर सकें।

प्रभु के शिष्यों का सदैव यही प्रयास रहना चाहिए कि वे परमेश्वर के राज्य में अपना अनन्तकाल बिताने के लिए आदर के साथ प्रवेश करें; अर्थात, दूसरे शब्दों में, भले प्रतिफलों के साथ प्रवेश करें, जिन्हें वे अनन्तकाल में उपयोग करेंगे। अपने पृथ्वी के समय में, अन्हें अच्छी योजनाएं बनाकर, चतुराई और बुद्धिमता के साथ प्रभु के लिए जीवन जीने और गवाही देने के उद्देश्य की पूर्ति करते रहना चाहिए, तथा इस कार्य के लिए जो अवसर परमेश्वर उन्हें प्रदान करता है उनका भली-भांति उपयोग करना चाहिए। प्रभु यीशु के समान ही, प्रभु के शिष्यों को भी परमेश्वर की ओर से उन्हें सौंपे गए उद्देश्यों को पूरा करने में दृढ़ बने रहना चाहिए (लूका 9:51-52); और पौलुस के समान, सभी शिष्यों को अपने कार्यों को योजनाबद्ध तरीके से करना चाहिए (2 कुरिन्थियों 1:17) तथा किसी न किसी प्रकार से प्रभु के लिए उपयोगी होने के लिए प्रयासरत तथा सक्रीय रहना चाहिए, बजाए इसके कि निष्क्रीय रहकर बातों के होने की प्रतीक्षा करें (प्रेरितों 16:6-10).

स्वर्ग में प्रवेश, अर्थात हमारा उद्धार, प्रभु में विश्वास लाने तथा अपने पापों से पश्चाताप करने और प्रभु से उनकी क्षमा प्राप्त करने के द्वारा, केवल परमेश्वर के अनुग्रह ही से है। परन्तु हमारे अनन्तकाल के लिए प्रतिफल हमें परमेश्वर द्वारा हमारे कर्मों के आधार पर प्रदान किए जाते हैं; मसीही विश्वासियों, अर्थात नया जन्म पाए हुए परमेश्वर की संतानों का न्याय, उनके उद्धार पाने के लिए नहीं वरन उन्हें प्रतिफल प्रदान करने के लिए है, और कुछ ऐसे भी होंगे जो अनन्तकाल के लिए स्वर्ग में छूछे हाथ प्रवेश करेंगे (1 कुरिन्थियों 3:12-15).

चतुर भण्डारी के दृष्टांत के द्वारा प्रभु अपने शिष्यों को सिखा रहे हैं कि वे परिस्थितयों से कभी न घबराएं, चतुर और बुद्धिमान बनें, अपने उद्देश्य पर दृष्टि गड़ाए रखें और उस उद्देश्य को पूरा करने में प्रयासरत रहें। परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी कठिन या निराशाजनक क्यों न हों, शिष्यों को चतुराई और बुद्धिमता के साथ उपयुक्त कार्यविधि को अपनाना चाहिए, जैसा कि उस भण्डारी ने किया, और विकट परिस्तिथियों को भी अपने पक्ष में मोड़ लिया। प्रभु के शिष्यों को अपनी सांसारिक धन-संपदा का उपयोग ऐसी रीति से करना चाहिए कि 'जब वह जाता रहे,’ या चला जाए, अर्थात पृथ्वी के उनके समय के पूरे होने पर, वे लोग जिन्हें शिष्यों के धन और संसाधनों के द्वारा पृथ्वी पर लाभ पहुँचा, वे उन शिष्यों के आदर के साथ अनन्तकाल में प्रवेश का कारण बन जाएँ (लूका 16:9)

इस दृष्टांत के द्वारा प्रभु हमें बेईमान होना नहीं सिखा रहा है, वरन बिना निराश हुए, बिना हार माने, चतुर और बुद्धिमान होना, अपने उद्देश्य की पूर्ति की कार्यविधि पर अपना ध्यान केंद्रित रखना, और बुद्धिमता के साथ अपनी परिस्थितियों का प्रयोग करना सिखा रहा है, जिससे हम अपने अनन्तकाल के लिए प्रतिफल बनाए रखें और उन्हें अधिक बढ़ा सकें।


बुधवार, 17 अप्रैल 2019

अनापेक्षित फंदा


न्यायियो 8:27 – "उनका गिदोन ने एक एपोद बनवाकर अपने ओप्रा नाम नगर में रखा; और सब इस्राएल वहां व्यभिचारिणी के समान उसके पीछे हो लिया, और वह गिदोन और उसके घराने के लिये फन्दा ठहरा।" परमेश्वर ने इस्राएलियों को उनके सताने वालों पर गिदोन के नेतृत्व में एक अद्भुत और अप्रत्याशित विजय दिलवाई थी। इस अद्भुत विजय के स्मारक के रूप में गिदोन ने वह एपोद 'अपने नगर' ओपरा में स्थापित किया। परन्तु परमेश्वर का वचन यह भी बताता है कि वह एपोद गिदोन और उसके घराने के लिए फंदा बन गया।

इस पद से ऊपर के पदों (पद 22-26) से हम देखते हैं कि गिदोन का इस्राएलियों पर प्रभुत्व अथवा नेतृत्व का कोई इरादा नहीं था। वह इस अद्भुत विजय के लिए सारा आदर और महिमा परमेश्वर यहोवा ही को देना चाहता था। उस विजय से मिली लूट में से लेकर उसने स्मारक बनवाना चाहा, वह भी लोगों द्वारा स्वेच्छा से दिए गए लूट के भाग के प्रयोग के द्वारा। गिदोन ने कोई मूर्ति या अन्यजातियों के किसी देवी-देवताओं की मूर्ति अथवा चिन्ह के द्वारा नहीं, वरन एक एपोद के द्वारा यह करना चाहा। एपोद परमेश्वर के तम्बू में सेवकाई करते समय याजकों द्वारा पहने जाने वाले विशेष वस्त्र का एक भाग होता था (निर्गमन 28:4-8), और इसे परमेश्वर की इच्छा जानने के लिए भी प्रयोग किया जाता था (1 शमूएल 30:7-8)। अतः हम देखते हैं कि किसी भी प्रकार से परमेश्वर के विमुख जाने का गिदोन का कोई इरादा नहीं था। उसकी गलती बस इतनी थी कि उसने यह कार्य, चाहे परमेश्वर को आदर और महिमा देने ही के लिए, किन्तु परमेश्वर से पूछे बिना या परमेश्वर से निर्देश पाए बिना, अपनी बुद्धि और समझ के आधार पर, जैसा उसे सही और अच्छा लगा, उसने कर दिया।

फिर हम नीचे, पद 33, 34 में देखते हैं कि कुछ समय पश्चात, गिदोन के देहांत के बाद, इस्राएलियों ने परमेश्वर को छोड़ कर अन्य देवी-देवताओं के पीछे चलना आरंभ कर दिया। पद 27 का अभिप्राय संकेत करता है कि इस्राएलियों की इस मूर्तिपूजा और परमेश्वर के स्थान पर अन्य देवी-देवताओं के पीछे हो लेने के समय में उन्होंने गिदोन के जीवित रहते हुए भी, गिदोन द्वारा बनवाए गए उस स्मारक को भी देवता समान उपासना के लिए प्रयोग करना आरंभ कर दिया, जिससे "वह गिदोन और उसके घराने के लिये फन्दा ठहरा।"

यह उदाहरण दिखता है कि शैतान, हमारे द्वारा बात को जाने-पहचाने बिना, हमारे अच्छे और परमेश्वर को आदर देने के अभिप्राय से रखे गए उद्देश्यों को भी लोगों को बहकाने और परमेश्वर के विमुख कर देने के लिए प्रयोग कर सकता है, जो फिर हमारे तथा औरों लिए आशीष का नहीं वरन ठोकर का और पाप में गिरने कारण बन सकता है। परमेश्वर की आराधना, उपासना और आदर के लिए जो कुछ आवश्यक है, परमेश्वर ने वह अपने वचन में पहले से, उससे संबंधित विवरण तथा निर्देशों के साथ लिखवा रखा है। परमेश्वर द्वारा उस लिखवाए गए के अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह परमेश्वर से नहीं है; परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं है, और उसे चाहे जितनी श्रद्धा से माना या मनाया जाए वह, स्वयं प्रभु यीशु के शब्दों में, “व्यर्थ उपासना” (मत्ती 15:9), अर्थात निरुद्देश्य एवँ निष्फल उपासना है, या “कुकर्म” है (मत्ती 7:21-23)। इसीलिए, मसीही विश्वासियों के लिए यह अनिवार्य है कि किसी भी बात में अपनी बुद्धि और समझ का सहारा कभी न लें, विशेषकर आराधना तथा उपासना से संबंधित बातों में तो कतई नहीं, परंतु हर बात के लिए परमेश्वर की इच्छा जानकर उसके अनुसार ही कार्य करें (1 थिस्सलुनीकियों 5:21); कहीं आज की हमारी कोई बात, कल हमारी ही संतानों के लिए परेशानियाँ न खड़ी कर दे। परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए हमें केवल परमेश्वर के वचन को सीखकर उसका पालन करना है (1 शमूएल 15:22), न कि परमेश्वर को आदर और आराधना के लिए अपने ही मनगढ़ंत तरीके बना कर उन्हें मानना या मनवाना है, जो फिर हमारे अपने तथा औरों के लिए फंदा बन जाएँ जैसा गिदोन के एपोद के द्वारा हुआ।

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

यीशु के 12 से 30 साल तक के जीवन के विषय में क्या बाईबल शान्त है?



परमेश्वर के वचन बाइबल में हमारे लिए परमेश्वर, उसके राज्य, उसके साथ हमारे संबंध, उसके कार्य, गुण, कार्यविधि, नियम, आज्ञाओं इत्यादि के विषय बहुत कुछ दिया गया है, किन्तु परमेश्वर और उसके बारे में सब कुछ नहीं दिया गया है; क्योंकि परमेश्वर ने अपने वचन में हमारे लिए वही सब लिखवाया है जो वह चाहता है कि हम जानें और मानें और जिससे हम उसकी निकटता में आएँ, उद्धार पाएँ और उसके परिवार का भाग बन जाएँ।

यद्यपि बाइबल में प्रभु यीशु के लड़कपन, 12 वर्ष से लेकर उनके सेवकाई आरंभ करने,30 वर्ष की आयु तक का विवरण नहीं दिया गया है, किन्तु बाइबल इसके विषय में बिलकुल शान्त भी नहीं है। यह परमेश्वर और प्रभु यीशु के विरोधियों द्वारा फैलाया गया भ्रम है कि बाइबल उनके 12 से 30 वर्ष की आयु के बारे में कुछ नहीं बताती है; और अपने द्वारा फैलाए गए इस भ्रम के आधार पर वे यह एक और झूठ फैलाते हैं कि प्रभु यीशु भारत आए थे यहाँ से सीख कर वापस इस्राएल आए और उन शिक्षाओं के अनुसार प्रचार किया। सच तो यह है कि बाइबल स्पष्ट बताती है कि प्रभु यीशु वहीं इस्राएल में अपने परिवार के साथ ही रहे थे। इस संदर्भ में बाइबल में, सुसमाचारों में, दिए गए कुछ पदों को देखिए:

मत्ती 13:54 “और अपने देश में आकर उन की सभा में उन्हें ऐसा उपदेश देने लगा; कि वे चकित हो कर कहने लगे; कि इस को यह ज्ञान और सामर्थ के काम कहां से मिले?

मरकुस 6:2-3 “सब्त के दिन वह आराधनालय में उपदेश करने लगा; और बहुत लोग सुनकर चकित हुए और कहने लगे, इस को ये बातें कहां से आ गईं? और यह कौन सा ज्ञान है जो उसको दिया गया है? और कैसे सामर्थ के काम इसके हाथों से प्रगट होते हैं? क्या यह वही बढ़ई नहीं, जो मरियम का पुत्र, और याकूब और योसेस और यहूदा और शमौन का भाई है? और क्या उस की बहिनें यहां हमारे बीच में नहीं रहतीं? इसलिये उन्होंने उसके विषय में ठोकर खाई।”

लूका 2:39-40 “और जब वे प्रभु की व्यवस्था के अनुसार सब कुछ निपटा चुके तो गलील में अपने नगर नासरत को फिर चले गए। और बालक बढ़ता, और बलवन्‍त होता, और बुद्धि से परिपूर्ण होता गया; और परमेश्वर का अनुग्रह उस पर था।”

लूका 2:51-52 “तब वह उन के साथ गया, और नासरत में आया, और उन के वश में रहा; और उस की माता ने ये सब बातें अपने मन में रखीं। और यीशु बुद्धि और डील-डौल में और परमेश्वर और मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ता गया।”

लूका 4:16 “और वह नासरत में आया; जहां पाला पोसा गया था; और अपनी रीति के अनुसार सब्त के दिन आराधनालय में जा कर पढ़ने के लिये खड़ा हुआ।”

यूहन्ना 7:15 “तब यहूदियों ने अचम्भा कर के कहा, कि इसे बिन पढ़े विद्या कैसे आ गई?

ध्यान कीजिए, मत्ती, मरकुस और यूहन्ना के हवाले यह स्पष्ट दिखा रहे हैं कि प्रभु यीशु की शिक्षाओं को सुनकर सब को अचम्भा होता था कि उन्होंने ‘बिना पढ़े’ वह सब कैसे जान लिया जो वे प्रचार करते थे। अर्थात, वे लोग जानते थे कि प्रभु यीशु कभी कहीं शिक्षा पाने नहीं गए थे, उन्हीं के मध्य रहे थे, परन्तु फिर भी इतना कुछ सीख गए थे, अद्भुत प्रचार कर सकते थे। यदि प्रभु यीशु कहीं गए होते, तो लोग फिर यह कहते कि “उन्होंने समझ लिया कि वह यह सब उस परदेश से सीख कर आया था जहाँ वह गया हुआ था” – किन्तु किसी ने भी कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा। दूसरी बात, प्रभु यीशु ने जो भी प्रचार किया वह परमेश्वर के वचन के उस भाग, जिसे हम आज बाइबल के पुराने नियम के नाम से जानते है, से था। यदि प्रभु कहीं बाहर से कुछ सीखकर आए होते तो पुराने नियम से नहीं सिखाते वरन उस “ज्ञान” के अनुसार सिखाते जिसे वे सीख कर आए थे – किन्तु ऐसा कदापि नहीं था। उनकी सारी शिक्षाएँ परमेश्वर के वचन के पुराने नियम पर आधारित थीं।

लूका के हवालों पर ध्यान कीजिए – ये तीनों हवाले स्पष्ट दिखाते हैं कि प्रभु यीशु की परवरिश वहीं गलील के नासरत में, जो उनका निवास-स्थान था, हुई थी।

इसलिए चाहे बाइबल में उनकी 12 से 30 वर्ष की आयु के बारे में कोई विवरण नहीं है, किन्तु इतना अवश्य प्रगट है कि प्रभु वहीं नासरत में अपने परिवार के साथ ही रहे थे और लोगों ने उन्हें बड़े होते हुए देखा और जाना था।

मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

याकूब 5:16 में हमें " एक दूसरे के साम्हने अपने अपने पापों को मान" लेने की सलाह क्यों दी गई है?



इसे ठीक से समझने के लिए, याकूब 5:16 को उसके संदर्भ में देखा जाना चाहिए याकूब 5:13-18 के एक भाग के समान। जब हम ऐसा करते हैं, तो यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि इन पदों में दो प्रक्रियाओं के विषय में कहा गया है शारीरिक चंगाई तथा पाप। जबकि याकूब 5:16 में कही गई शारीरिक चंगाई 5:14-15aमें दी गई चंगाई के विचार के साथ संबंधित है; याकूब 5:16 में कही गई पापों को मान लेने की बात उन पापों के क्षमा से संबंधित या क्षमा के लिए नहीं है क्योंकि, उसके लिए तो पहले ही 5:15 में ही कह दिया गया है कि वे क्षमा हो चुके हैं, 5:16 में एक दूसरे के सामने उन्हें मान लेने के लिए कहने से भी से पूर्व। यहाँ पर हिन्दी में “मान लेने” अनुवाद किए गए के लिए जो मूल यूनानी भाषा में शब्द आया है वह है, ‘exomologeo (एक्सो-मोलो-जियो)’, जिसका अर्थ होता है स्वीकार कर लेना या (स्वीकृति के अभिप्राय से) पूर्णतः सहमत होना, (Strong’s Bible Dictionary).

इसे और बेहतर समझने के लिए, हमें इस विचार से संबंधित दो अन्य हवालों को ध्यान में रखना चाहिए। इन दो हवालों में पहला है, 1 यूहन्ना 1:8-10, जहाँ प्रेरित यूहन्ना, ‘हम’, तथा वर्तमान काल के ‘है’ (‘था’ की बजाए) के प्रयोग के द्वारा कह रहा है कि सभी – स्वयँ उसके सहित, पाप करते हैं, अब भी; और दूसरा हवाला है, गलातियों 6:1-2, जहाँ पौलुस प्रेरित अन्य मसीही विश्वासियों को उभार रहा है कि वे उन अन्य मसीही विश्वासियों को उठाने और बहाल करने में सहायक बनें जो किसी प्रकार से किसी ‘अपराध’ या परीक्षा’ में गिर गए हैं, अर्थात जिन्होंने कुछ गलत कर दिया है; और साथ ही सहायता करने वालों को स्वयँ भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे भी किसी भी समय ऐसी ही किसी परिक्षा में गिर सकते हैं। ये हवाले हमें इस तथ्य को सीखने और समझने में सहायता करते हैं कि बाइबिल के अनुसार, परिपक्व और स्थापित मसीही विश्वासियों की भी पाप में गिर जाने की संभावना बनी रहती है, वे अपराध कर सकते हैं, तथा उनसे अपेक्षित नैतिकता के स्तरों से गिर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, कोई भी ऐसा नहीं है जो सिद्ध हो या ठोकर खाने से ऊपर हो, प्रत्येक को सदा ही परमेश्वर के अनुग्रह की आवश्यकता बनी रहती है, प्रभु के प्रति सत्यनिष्ठ और खरा बने रहने के लिए प्रभु से क्षमा और सामर्थ्य की आवश्यकता रहती है, और ऐसे भी समय हो सकते हैं जब उन्हें प्रभु द्वारा किसी गलत बात से निकाले जाने की आवश्यकता पड़ जाए।

उपरोक्त को ध्यान में रखते हुए, हम वापस याकूब 5:16 पर आते हैं, और अब हम यह तात्पर्य समझ सकते हैं कि यह पद सिखा रहा है कि “अपनी दृष्टि में बहुत धर्मी मत बनो, और न ही ढोंगी बनो; अपने आप को ‘औरों से अधिक धर्मी’ मत समझो, यह धारणा मत रखो कि तुम अपने आस-पास के और सभी लोगों से बढ़कर या उत्तम हो। वरन, नम्र रहो तथा यही मानने या स्वीकार करने का रवैया रखो कि तुम भी ठोकर खा सकते हो, गिर सकते हो, इसलिए ‘आपस में एक दूसरे के साम्हने अपने अपने पापों को मान लो ’ अर्थात औरों के सामने यह मानने और स्वीकार करने का रवैया रखो कि तुम भी औरों के समान ही गलती करने तथा पाप में पड़ने की प्रवृत्ति रखते हो, और जब भी तुम ऐसे गिर जाओ तो अपनी बहाली के लिए तुम्हें भी औरों की सहायता तथा प्रार्थनाओं की आवश्यकता होगी।”

यह पद यह नहीं सिखा रहा है कि हम जब भी पाप में पड़ें तो अपने आस-पास के लोगों के सामने जाकर उन पापों का वर्णन करें, और हमारे ऐसा करने से उन पापों की क्षमा में सहायता होगी। वरन, इस पद का अभिप्राय है कि घमण्डी या हठधर्मी होने के स्थान पर, हमें नम्र तथा औरों द्वारा सुधारे जाने के प्रति खुले रहना चाहिए; जब भी कोई अन्य हम में कोई कमी या अनुचित बात देखे और उसे हमारे सामने लाए। जब भी हमारे पाप या अपराध हमारे सामने लाए जाते हैं, हमें दीन और नम्र होकर उन्हें स्वीकार (‘मान’) कर लेना वाला होना चाहिए। हमें अन्य मसीही विश्वासियों की प्रार्थनाओं की सहायता लेनी चाहिए कि हम ऐसे नम्र बने रहें, या यदि गलत परिस्थिति में आ गए हैं तो उससे निकाले जाएँ, क्योंकि परमेश्वर के लोगों की प्रार्थनाएं किसी भी परिस्थिति में बचाव और छुटकारे के लिए एक बहुत प्रभावी और कारगार उपाय हैं।



रविवार, 24 मार्च 2019

बाइबल शिक्षा कैसे पाएँ


प्रश्न:
 क्योंकि मैं नौकरी करता हूँ, इसलिए किसी सेमिनरी में जाने में समर्थ हूँ। क्या किसी रीति से में घर से ही बाइबल अध्ययन सीख सकता हूँ, जिससे मैं प्रभु के विषय और जानकारी प्राप्त कर सकूँ?

 उत्तर:
परमेश्वर के वचन के प्रति हमारा प्रेम, बाइबल को जो स्थान हम अपने जीवनों में प्रदान करते हैं, वही परमेश्वर के प्रति हमारे प्रेम का माप और सूचक है (यूहन्ना 14:21, 23)। परमेश्वर के वचन को हम जितना अधिक जानेंगे, उसे अपने दैनिक जीवन में जितना अधिक महत्व देंगे, वह हमारी दैनिक गतिविधियों और आवश्यकताओं के लिए उतना ही अधिक उपयोगी तथा लाभदायक होगा (भजन 119:97-105)।

परमेश्वर के वचन को सीखने का सबसे उत्तम, सरल, और कारगर तरीका है स्वयँ उसे पढ़ना, उस पर नियमित मनन तथा विचार करना, और प्रतिदिन उसे अपने व्यवाहरिक जीवन में लागू करना। यदि आप पापों से पश्चाताप करने तथा प्रभु यीशु को जीवन समर्पण के द्वारा नया जन्म पाए हुए मसीही विशवासी हैं, तो परमेश्वर का पवित्र आत्मा आपके अन्दर निवास करता है (1 कुरिन्थियों 6:19; इफिसियों 1:13), और पवित्र आत्मा स्वयँ हम मसीही विशावासियों – प्रभु यीशु के शिष्यों, को न केवल उसकी बातें सिखाता है, परन्तु उन्हें समझाता है तथा उन्हें उपयोग में लाना बताता है (यूहन्ना 14:26; 16:13-15)। बुनियादी और अपरिवर्तनीय वास्तविकता तो यह है कि बिना पवित्र-आत्मा की सहायता एवँ मार्गदर्शन के कोई परमेश्वर और उसके निर्देशों के बारे में सीख ही नहीं सकता है (1 कुरिन्थियों 2:11-14), कहीं से भी नहीं, किसी से भी नहीं। इसलिए बाइबल को जानने और समझने का बुनयादी आधार है नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी होना, जिससे परमेश्वर पवित्र-आत्मा आपकी सहायता कर सके और आपको परमेश्वर का वचन सिखा सके। अकसर लोगों में एक बेबुनियाद संकोच होता है कि वे परमेश्वर के वचन के सीख सकने योग्य भले नहीं हैं, वे परमेश्वर की धार्मिकता के मापदण्ड पर वचन सीखने के योग्य नहीं है। ये भय निराधार हैं और शैतान के द्वारा हैं; भजन 25:8-14 से देखिए कि परमेश्वर किन लोगों को सिखाता है; और आप पाएँगे कि परमेश्वर हमारी किसी भी कमज़ोरी या अयोग्यता के कारण अपना वचन हमें सिखाने से पीछे नहीं हटता है – वह तो तैयार है और प्रतीक्षा कर रहा है, यदि आप नया जन्म पाने की उस बुनियादी आवश्यकता को पूरा करके विश्वास के साथ उसके पास आने और उससे सीखने के लिए तैयार हैं।

मैं भी आपके समान नौकरी करने वाला व्यक्ति हूँ, और कभी किसी बाइबल स्कूल या ट्रेनिंग के लिए नहीं गया। बस परमेश्वर पर विश्वास करके उससे ही उसका वचन माँगता हूँ और जो वह देता है, उसे बाँट देता हूँ, तथा अपने जीवन में लागू करते रहने में प्रयासरत रहता हूँ। मैं नियमित योजनाबद्ध विधि से बाइबल पढ़ता हूँ, और परमेश्वर के अनुग्रह तथा मार्गदर्शन से प्रति वर्ष में एक बार बाइबल को आरंभ से अन्त तक पढ़ लेता हूँ, और यह लगभग पिछले तीस वर्ष से होता आया है, अर्थात जब से मैंने नया जन्म पाया; यद्यपि मैं जन्म और परवरिश से एक ईसाई परिवार से हूँ, और पारंपरिक ईसाई रीति-रिवाजों के पालन के साथ मेरी परवरिश हुई थी। प्रश्नों का उत्तर देने या वचन की सेवकाई के लिए जो तैयारी करनी होती है वह इस दैनिक बाइबल के पढ़ने के अतिरिक्त होती है। जो परमेश्वर मुझे सिखाता है उसे औरों तक पहुँचाने की लालसा के फलस्वरूप परमेश्वर ने मुझे उसके वचन को सिखाने और बाँटने की इस सेवा का अवसर प्रदान किया है – स्वयं-सेवी होकर, किसी पारिश्रमिक, या धन, अथवा किसी चर्च या संस्था में किसी स्तर, पदवी आदि के लिए नहीं, बस इसलिए कि प्रभु के बारे में लोगों को सिखा सकूँ और समझा सकूँ, जिससे मैं स्वयँ भी और अधिक सीख सकूँ। मैंने देखा है कि जितना अधिक मैं इस वचन को औरों के साथ बाँटता हूँ, उतना अधिक यह मेरे जीवन में विभिन्न रीतियों से लाभप्रद होता है।

मेरे अपने जीवन के अनुभव के आधार पर मेरी यही सलाह है कि आप नियमित और क्रमवार बाइबल पढ़ना आरंभ करें – चाहे समझ में आए या न आए। मैंने बाइबल को पूरा पहली बार, अपमानित होने के बाद ज़िद में होकर पढ़ा था, कि कम से कम एक बार तो बाइबल को पूरा पढूंगा ही, क्योंकि मेरे एक हिंदू मित्र ने मुझे ताना मारा था कि तूने अपने ही धर्म-ग्रन्थ को न तो पूरा पढ़ा है और न ही उसे जानता है फिर भी मुझे उसके बारे में बताना चाहता है – और तब से इस वचन का चस्का ही लग गया। बस प्रार्थना के साथ, एक सच्चे, खोजी और समर्पित मन के साथ पढ़िए; परमेश्वर से मांगिए कि वह आपको सिखाए और बताए (याकूब 1:5); और फिर जो भी वह आपको सिखाता या बताता है, उसे अपने जीवन में लागू करें तथा उसे किसी और के साथ बाँट दें, और आप पाएँगे कि ऐसा करने से आपके जीवन में परिवर्तन आ रहा है, आपके अन्दर वचन की समझ उत्पन्न हो रही है, और जैसे जैसे आप परमेश्वर द्वारा आपको सिखाए गए वचन को सही रीति से उपयोग करेंगे, वह आपको अपने वचन में से और अधिक सिखाता चला जाएगा।

इतना ध्यान रखें कि मनुष्य का भय खाकर परमेश्वर अपने वचन की जो भी शिक्षा आपको देता है उसके निर्वाह में संकोच या समझौता न करें – ऐसा करना हानिकारक होगा (नीतिवचन 29:25; यिर्मयाह 1:9-10, 17-19; गलातियों 1:10)। आरंभ में थोड़ा समय लगेगा, परमेश्वर अपने तरीके से आपको आरंभिक बातों के सिखाने के साथ आरंभ करेगा, जैसे एक आत्मिक बच्चे से (1 पतरस 2:1-2)। उसके ऐसा करने के समय हो सकता है कि आपको मनुष्यों द्वारा सिखाई गई कई बातों को छोड़ना या भूलना भी पड़े, जिससे आप परमेश्वर से सीख सकें। वह आपको आपके जीवन में जिन बातों की आवश्यकता है उनके बारे में, और जो सेवकाई वह आप से लेना चाहता है उसके अनुसार ही सिखाना आरंभ करेगा तथा सिखाता जाएगा। जब आप उसके प्रति समर्पित और विश्वासयोग्य बने रहेंगे, उसके वचन का सही उपयोग करते रहेंगे (2 कुरिन्थियों 4:1-2; 2 तिमुथियुस 2:15-16; 2 तिमुथियुस 3:14-16), तो धीरे-धीरे वह आपको और गूढ़ बातें भी सिखाने लगेगा। इसलिए थोड़ा धैर्य रखें और प्रभु तथा उसके वचन के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने के प्रयास में कभी ढीले नहीं हों, कोई कमी नहीं आने दें। उसके मार्गों में दृढ़ता से डटे रहें और जीवन में आपको इसके लिए कभी पछतावा नहीं होगा  (यशायाह 40:31)।

घर बैठे बाइबल सीखने का इससे उत्तम और सहज तरीका और कोई नहीं है।

गुरुवार, 21 मार्च 2019

लेंट और उपवास


प्रश्न:
क्या लेंट में उपवास करना चाहिए?
 उत्तर:
   ईस्टर, लेंट, लेंट का उपवास, क्रिसमस आदि किसी त्यौहार या परम्परा का बाइबल में कोई उल्लेख नहीं है, और न ही उन्हें मानने - मनाने से संबंधित कोई शिक्षा अथवा निर्देश दिए गए हैं। न ही कहीं यह कहा या जताया गया है की इनके मानने अथवा मनाने से कोई भी परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरा; या फिर नहीं मानने अथवा नहीं मनाने से अधर्मी ठहरा, या उसकी किसी आशीष में बढ़ती अथवा घटती हुई।

   परमेश्वर ने अपनी बुद्धिमत्ता में न तो प्रभु यीशु के जन्म की, और न ही उनके क्रूस पर चढ़ाए जाने की कोई तिथि बाइबल में दर्ज करवाई – जबकि समय का नाप और लेखा उत्पत्ति की पुस्तक से मिलता आया है – उत्पत्ति 7:4, 11; 8:4-5, 13-14; इसलिए यदि आवश्यक अथवा उपयोगी होता तो अपने एकलौते पुत्र से संबंधित ये इतनी महत्वपूर्ण क्रिसमस और ईस्टर की तारीखें भी परमेश्वर दर्ज करवा सकता था। किन्तु उसने ऐसा नहीं किया, और न ही कभी चाहा कि मनुष्य अपनी ओर से कोई तिथि निर्धारित करें या मनाएं; और न ही उन्हें मानने-मनाने से संबंधित कोई विधि अथवा निर्देश दिए। क्रिसमस और ईस्टर आदि, सभी गैर-मसीही त्यौहार हुआ करते थे जिन्हें मसीह यीशु में अपूर्ण विश्वास और समर्पण किए हुए लोगों ने मसीहियत में आने के बाद भी मनाना नहीं छोड़ा और उन्हें अपने पूर्व धर्मों के देवी-देवताओं के नाम से मनाने के स्थान पर ‘मसीही’ हो जाने के पश्चात मसीह यीशु के नाम से मनाना आरंभ कर दिया। ये सभी पर्व और परम्पराएं मनुष्यों द्वारा बनाए और स्थापित किए गए रीति-रिवाज़ हैं, जो कर्मों के द्वारा धर्मी प्रतीत होने का आडंबर करने के लिए प्रेरित करते हैं। किन्तु बाइबल के अनुसार इनका मनाया जाना व्यर्थ है (मत्ती 15:8-9), क्योंकि हमारे सभी धार्मिकता के कार्य परमेश्वर की दृष्टि में मैले चीथड़ों के समान हैं (यशायाह 64:6), और कर्मों के द्वारा कोई परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी नहीं ठहरता है (रोमियों 3:20, 28; रोमियों 4:2; रोमियों 11:6; इफिसियों 2:8-9; तीतूस 3:5)। परमेश्वर केवल अपने वचन की आज्ञाकारिता से प्रसन्न होता है (1 शमूएल 15:22)। उसे व्यर्थ के पर्व और बलिदानों आदि से घृणा है "तुम्हारे नये चांदों और नियत पर्वों के मानने से मैं जी से बैर रखता हूं; वे सब मुझे बोझ से जान पड़ते हैं, मैं उन को सहते सहते उकता गया हूं" (यशायाह 1:14; देखें यशायाह 1:11-18) परमेश्वर हम से चरित्र की उत्तमता तथा नम्रता, और उसके प्रति सच्चा समर्पण एवं आज्ञाकारिता चाहता है, मनुष्यों के अपने मन की इच्छानुसार गढ़े हुए पर्व मानना-मनाना नहीं (होशे 6:6; मीका 6:8)

   यदि प्रभु यीशु मसीह के चालीस दिन के उपवास के अनुसरण में लेंट का उपवास रखा जाता है तो प्रभु यीशु मसीह के इस उपवास के संबंध में बाइबल में लिखी कुछ बातों का भी अनुसरण होना चाहिए। प्रभु के इस उपवास का वर्णन मत्ती 4:1-11 तथा लूका 4:1-13 में हमें मिलता है। परमेश्वर के वचन के इन खण्डों के अध्ययन से हम सीखते हैं कि:
·         प्रभु यीशु मसीह ने 40 दिन का यह उपवास केवल एक बार, अपनी सेवकाई के आरंभ में रखा था, सेवकाई के अन्त में पकड़वाए और क्रूस पर चढ़ाए जाने के समय नहीं। और न ही वे इसे प्रतिवर्ष किसी नियत समयानुसार दोहराते रहे थे, जबकि फसह का पर्व इस्राएलियों द्वारा प्रतिवर्ष मनाया जाता था।
·         जैसे मत्ती 4:1 में आया है, उस उपवास के समय में प्रभु अकेले जंगल में थे, और उनके जंगल में जाने का उद्देश्य था कि प्रभु की इबलीस द्वारा परीक्षा की जाए । वे इस परिक्षा के लिए पवित्र आत्मा की अगुवाई से जंगल में गए थे (मत्ती 4:1), किसी परंपरा के निर्वाह के लिए नहीं।
·         उस समय वह 40 दिन तक पूर्णतः निराहार रहे थे (लूका 4:2)।
·         उन चालीस दिनों के उपवास के दौरान प्रभु उन सभी चालीस दिनों तक शैतान द्वारा परखे भी गए थे  (लूका 4: 1)। और फिर अन्त में उनकी वे तीन परीक्षाएं हुईं जिनका विवरण हम मत्ती 4:3-11 और लूका 4:3-13 में पाते हैं।
   क्या आज मनाए जाने वाले लेंट और उस दौरान रखे जाने वाले चालीस दिन के उपवास में इनमें से एक भी बात पाई जाती है? यदि नहीं, तो फिर यह प्रभु यीशु के उपवास का अनुसरण कैसे कहा जा सकता है? तो क्या यह प्रभु के नाम पर लोगों से झूठ बोलना, झूठी शिक्षा देना, और उन्हें निष्फल धोखे में रखना नहीं है?

   क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले प्रभु और उसके चेले किसी उपवास की दशा में नहीं थे, और उन्होंने फसह का पर्व मनाया, फसह का मेमना बलिदान किया और खाया (मत्ती 26:17-21)। इसलिए प्रभु यीशु के क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले 'उपवास' रखना और मांस न खाना, किसी रीति से बाइबल के अनुसार संगत नहीं है।

   साथ ही हम यह भी देखते हैं कि प्रभु यीशु ने कभी अपने किसी भी शिष्य से उसके सेवकाई आरंभ करने से पहले ऐसा कुछ भी करने के लिए नहीं कहा। और बाद में प्रेरितों के कार्य अथवा पत्रियों में, जहाँ मसीही विश्वासियों की शिक्षा और सुधार के विषय पवित्र आत्मा की अगुवाई और निर्देशानुसार बहुत सी बातें लिखी गई हैं, कभी इस प्रकार के किसी उपवास का कोई उल्लेख अथवा निर्देश नहीं आया है।

   ऐसे 'उपवास' का न तो कोई आधार है, न ही कोई आवश्यकता है, और न ही परमेश्वर की ओर से उसका कोई संज्ञान या प्रतिफल है – क्योंकि यह 'उपवास' परमेश्वर की ओर से स्थापित अथवा वाँछित कदापि नहीं है। आज लोग परंपरा के अन्तर्गत यशायाह 1:14-15 की अवहेलना करते हैं और मनगढ़ंत उपवास तथा उस उपवास के उद्देश्य निर्धारित कर लेते हैं। किन्तु वे फिर भी अपेक्षा करते हैं, तथा औरों को सिखाते हैं, कि यह करने और मनाने से परमेश्वर उनकी अपनी मनगढ़ंत धारणाओं को स्वीकार करने और उन्हें आशीष देने के लिए बाध्य है, और बाध्य होकर ऐसा करेगा भी!

   क्यों लोग व्यर्थ मनगढ़ंत परंपराओं का इतने उत्साह से पालन करने के स्थान पर, पहले परमेश्वर के वचन का अध्ययन करके उन बातों का पालन करना नहीं सीखते जिन्हें परमेश्वर चाहता है कि हम करें (1 थिस्सलुनीकियों 5:21)? क्यों वे परमेश्वर की आज्ञाकारिता के स्थान पर अंधी बुद्धि के साथ मनुष्यों की व्यर्थ विधियों को अधिक महत्व देते हैं जिनका बाइबल के अनुसार कोई आधार या औचित्य है ही नहीं; किन्तु परमेश्वर के आज्ञाकारी होने के प्रति इतना संकोच करते हैं; उसे सच्चा समर्पण नहीं करते हैं? क्यों?

इसलिये जब हम पर ऐसी दया हुई, कि हमें यह सेवा मिली, तो हम हियाव नहीं छोड़ते। परन्तु हम ने लज्ज़ा के गुप्‍त कामों को त्याग दिया, और न चतुराई से चलते, और न परमेश्वर के वचन में मिलावट करते हैं, परन्तु सत्य को प्रगट कर के, परमेश्वर के साम्हने हर एक मनुष्य के विवेक में अपनी भलाई बैठाते हैं। परन्तु यदि हमारे सुसमाचार पर परदा पड़ा है, तो यह नाश होने वालों ही के लिये पड़ा है। और उन अविश्वासियों के लिये, जिन की बुद्धि को इस संसार के ईश्वर ने अन्‍धी कर दी है, ताकि मसीह जो परमेश्वर का प्रतिरूप है, उसके तेजोमय सुसमाचार का प्रकाश उन पर न चमके। क्योंकि हम अपने को नहीं, परन्तु मसीह यीशु को प्रचार करते हैं, कि वह प्रभु है; और अपने विषय में यह कहते हैं, कि हम यीशु के कारण तुम्हारे सेवक हैं। इसलिये कि परमेश्वर ही है, जिसने कहा, कि अन्धकार में से ज्योति चमके; और वही हमारे हृदयों में चमका, कि परमेश्वर की महिमा की पहिचान की ज्योति यीशु मसीह के चेहरे से प्रकाशमान हो” (2 कुरिन्थियों 4:1-6)।

गुरुवार, 7 मार्च 2019

हम मसीही विश्वासी क्रोध, ईर्ष्या, घृणा आदि भावनाओं और अनुभूतियों से संघर्ष में जयवंत कैसे हो सकते हैं?



जिन भावनाओं का उल्लेख किया गया है वे सभी "शरीर के काम" (गलातियों 5:19-20)हैं, और गलातियों 5:16 में लिखा है "पर मैं कहता हूं, आत्मा के अनुसार चलो, तो तुम शरीर की लालसा किसी रीति से पूरी न करोगे" प्रभु यीशु ने, व्यक्ति को अशुद्ध करने वाली बातों की एक सूची देने के पश्चात, मरकुस 7:20-21 में कहा: "ये सब बुरी बातें भीतर ही से निकलती हैं और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं " (vs.23)। इसलिए यदि हमारे मन और विचार शरीर के कार्यों, गलत तथा पापमय विचारों से जिनसे अशुद्धता होती है, उन से भरे होंगे, तो उपयुक्त समय पर, शैतान हमसे वैसा ही करवा कर, हमें पाप में फँसा देगा। हम इन सब पर परमेश्वर के पवित्र-आत्मा के द्वारा विजयी हो सकते हैंजो प्रत्येक नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को मसीही जीवन में सहायता और मार्गदर्शन के लिए दिया गया है (यूहन्ना 16:13)। इसलिए सबसे पहला कार्य जो हमें करना है वह है, यह सुनिश्चित करना, कि हम अपने पापों के लिए पश्चाताप करने, प्रभु के सामने उन्हें स्वीकार करके उनके लिए उससे क्षमा माँगकर, अपना जीवन उसे समर्पित करने के द्वारा नया जन्म पाए हुए परमेश्वर की संतान, एक मसीही विश्वासी हैं।

जब तक कि कोई परमेश्वर की क्षमा का अनुभव नहीं करेगा, वह स्वयँ भी क्षमा करने वाला नहीं बन सकेगा, और ऐसी भावनाओं पर जयवंत होने का मार्ग केवल क्षमा में होकर ही हैपरमेश्वर से औरों को क्षमा न करने के लिए भी क्षमा माँगें, और उस व्यक्ति ने हमारे विरुद्ध जो भी गलत अथवा अनुचित किया हो उसके लिए उसे क्षमा कर दें, जैसे कि प्रभु ने हमारे सारे पापों को जो हमने उसके विरुद्ध किए है क्षमा कर दिया है (मत्ती 6:11, 14-15; 18:21-35; मरकुस 11:25-26; कुलुस्सियों 3:13).

इसके बाद, क्योंकि जो कुछ हमारे हृदय और मन में है वही हमारे विचारों और कार्यों को नियंत्रित करता है, इसलिए हमें अपने हृदय और मन को परमेश्वरीय विचारों और परमेश्वर के वचन से भर लेना है। परमेश्वर के वचन बाइबल को पढ़ने और उसका अध्ययन करने तथा मसीही गानों और आराधना संगीत, एवँ संदेशों को सुनने में समय बिताएं। साथ ही अपने समय का सदुपयोग परमेश्वर के नए जन्म पाई हुई संतानों के साथ संगति रखने में बिताएं, बाइबल अध्ययन, प्रार्थना सभाओं, घरों में आयोजित होने वाली मसीही सभाओं आदि में यथासंभव भाग लेने के द्वारा। परमेश्वर से प्रार्थना करें कि वह हमारे विचारों और लालसाओं को अपने वचन की शिक्षाओं तथा उसकी इच्छा के अनुरूप कर दे। यह करने के लिए, फिलिप्पियों 4:4-9 हमारा मार्गदर्शन करता है:

4 प्रभु में सदा आनन्‍दित रहो; मैं फिर कहता हूं, आनन्‍दित रहो। सदा प्रभु में मगन और आनन्दित रहेंजो कार्य उसने किए हैं, जो कर रहा है, जो सहायता और सुरक्षा वह प्रदान करता है, हमारे साथ बनी रहने वाली उसकी लगातार उपस्थिति, हमारे लिए उसकी प्रतिज्ञाएँ, जो अनंतकालीन आशीषें उसने हमें प्रदान की हैं और देगा, इत्यादि के लिए।

 5 तुम्हारी कोमलता सब मनुष्यों पर प्रगट हो: प्रभु निकट है।प्रभु यीशु के विचार और गुण जब हमारे मन को नियंत्रण में ले लेंगे, तो उसके समान व्यवहार करने के प्रति भी प्रयासरत रहेंकेवल कुछ विशेष लोगों के प्रति ही नहीं, वरन सबके प्रति कोमल और नम्र रहें, और यह हमारे व्यवहार से प्रगट रहना चाहिए।

 6 किसी भी बात की चिन्‍ता मत करो: परन्तु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और बिनती के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्वर के सम्मुख अपस्थित किए जाएं।प्रत्येक बात के लिए परमेश्वर के धन्यवादी रहें, वह चाहे अच्छी हो या बुरी, हमारे जीवन की समझ न आने वाली और अस्पष्ट बातों के लिए भी, क्योंकि मसीही विश्वासी के जीवन में ऐसा कुछ नहीं होता है जिससे, परमेश्वर के अनुग्रह और इच्छा में होकर, अन्ततः उसका भला नहीं होगा (रोमियों 8:28)। धन्यवादी होना परमेश्वर के प्रति विश्वासी और भरोसेमंद होना है। इसलिए अपनी विनतियों को परमेश्वर के समक्ष धन्यवाद के साथ प्रस्तुत करें। पद कहता है – "परमेश्वर के सम्मुख अपस्थित किए जाएं" अर्थात, न तो उनके विषय अधीर हों और न ही उनके लिए ज़ोर दें, बस अपने निवेदन से उसे अवगत करवा दें और शेष उस पर छोड़ दें। प्रत्येक बात के लिए परमेश्वर का एक समय और तरीका है, और वही सर्वोत्तम होता है (1 पतरस 5:6-7).

 7 तब परमेश्वर की शान्‍ति, जो समझ से बिलकुल परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरिक्षत रखेगी।।हमारा चिन्तित या अधीर न होना, वरन हर बात के लिए धन्यवादी होना, यह सुनिश्चित करेगा कि हमारे हृदय और मन परमेश्वर की शान्ति द्वारा नियंत्रित तथा सुरक्षित रखे जाएँगे, जिससे शैतान हम में अपने विचार डालने नहीं पाएगा, और हमें कुछ भी गलत करने के लिए बहकाने नहीं पाएगा।

 8  निदान, हे भाइयों, जो जो बातें सत्य हैं, और जो जो बातें आदरणीय हैं, और जो जो बातें उचित हैं, और जो जो बातें पवित्र हैं, और जो जो बातें सुहावनी हैं, और जो जो बातें मनभावनी हैं, निदान, जो जो सदगुण और प्रशंसा की बातें हैं, उन्‍हीं पर ध्यान लगाया करो। किसी बात पर मनन करने के लिए, उसे हमारे हृदयों और मनों में विद्यमान होना आवश्यक है; इसलिए, परमेश्वर की बातों से, तथा इस पद में कहे गए अन्य सदगुणों से अपने मनों को भर लें, और उन्हीं में मगन रहें। ऐसे में फिर यदि वह बुरा लगने वाला व्यक्ति हमारी ओर आता भी है, और हम अच्छी बातों के विषय विचार और मनन कर रहे होंगे, तो गलत या बुरी बातों को हमारे हृदयों में कोई स्थान नहीं मिलेगा।

 9 जो बातें तुम ने मुझ से सीखीं, और ग्रहण की, और सुनी, और मुझ में देखीं, उन्‍हीं का पालन किया करो, तब परमेश्वर जो शान्‍ति का सोता है तुम्हारे साथ रहेगा। परमेश्वर के भक्त लोगों के जीवनों का अनुसरण करें, परमेश्वर के लोगों के जीवनों के समान तथा परमेश्वर के वचन के निर्देशों के अनुसार व्यावाहारिक मसीही जीवन जीएं, और अपने जीवन के द्वारा अपने मसीही विश्वास की गवाही देंइससे हम शैतान की योजनाओं पर विजयी रहने में सहायता मिलेगी (प्रकाशितवाक्य 12:11).

फिलिप्पियों 4:4-9 के अनुसार जीवन जीने से हमारे विचारों और लालसाओं में भारी परिवर्तन आ जाएगा, जो हमें नकारात्मक और बुरे विचारों पर जयवंत रखेगा। ऐसा कर पाने के पश्चात इसे एक कदम और आगे ले जाकर रोमियों  12:17-21 का भी पालन करें, परमेश्वर से मांगें कि वह हमें ऐसे अवसर प्रदान करे जिनमें हम उस व्यक्ति के प्रति जिससे हमें समस्या है, भला बर्ताव या उसकी सहायता कर सकें, और ऐसा अनुग्रह और सामर्थ्य भी दे कि जब अवसर आए तो हम वास्तव में उसकी सहायता भी कर सकें।

परमेश्वर की सन्तान होने के नाते, हमारे अन्दर परमेश्वर का पवित्र-आत्मा निवास करता है (1 कुरिन्थियों  6:19) जो हमें जयवंत होने में सहायक है, “क्योंकि परमेश्वर ने हमें भय की नहीं पर सामर्थ, और प्रेम, और संयम की आत्मा दी है” (2 तिमुथियुस 1:7), इसलिए निर्भय होकर परमेश्वर द्वारा उपलब्ध करवाए गए इस सामर्थ्य, प्रेम और संयम के आत्मा के सहारे एक विजयी मसीही जीवन जीएं।