सूचना: ई-मेल के द्वारा ब्लोग्स के लेख प्राप्त करने की सुविधा ब्लोगर द्वारा जुलाई महीने से समाप्त कर दी जाएगी. इसलिए यदि आप ने इस ब्लॉग के लेखों को स्वचालित रीति से ई-मेल द्वारा प्राप्त करने की सुविधा में अपना ई-मेल पता डाला हुआ है, तो आप इन लेखों अब सीधे इस वेब-साईट के द्वारा ही देखने और पढ़ने पाएँगे.

गुरुवार, 13 मई 2021

1 तीमुथियुस 2:15, बच्चे जनने से उद्धार पाने को समझना


प्रश्न:

   1 तीमुथियुस 2:15 में जो लिखा है कि स्त्री बच्चे जनने से उद्धार पाएगी; इस वचन का सही अर्थ क्या है?

 

उत्तर:

    इस पद की बात ने बहुत से लोगों को असमंजस में रखा हुआ है, और बाइबल की अनेकों व्याख्याओं तथा टिप्पणियों में इसके विभिन्न उत्तर हैं, इसे कई प्रकार से समझाने का प्रयत्न किया गया है। प्रार्थनाओं के द्वारा परमेश्वर ने जो मुझे अपने वचन तथा अपने कुछ सेवकों की व्याख्याओं के माध्यम से समझ प्रदान की है, उसे आपके सामने रख रहा हूँ; आशा है यह उत्तर आपको स्वीकार्य होगा। इसे समझने के लिए पहले कुछ अन्य संबंधित बातों को देखना और समझना होगा, तभी, सभी के तालमेल के साथ इसे ठीक से समझा जा सकेगा।


    पहली बात, बच्चा जनने के द्वारा ‘उद्धार’ वह आत्मिक उद्धार नहीं है जो रोमियों 10:9-13 में तथा परमेश्वर के वचन में अन्य स्थानों लिखा है। यह सामान्य जानकारी है कि प्रत्येक बच्चा जनने वाली स्त्री आत्मिक उद्धार पाई हुई नहीं होती है; और प्रत्येक आत्मिक उद्धार पाई हुई स्त्री ने बच्चा भी जना हो, यह भी अनिवार्य नहीं है। हिन्दी में ‘उद्धार और अंग्रजी में अधिकांश अनुवादों में ‘saved’ के प्रयोग के कारण ही इस पद का यह असमंजस और समझने में कठिनाई है। मूल यूनानी भाषा में जो शब्द यहाँ पर प्रयोग किया गया है वह है “सोद्जो” जिसका सामान्यतः अर्थ होता है ‘बचना’ या ‘उद्धार’; किन्तु परमेश्वर के वचन बाइबल में केवल यही इस शब्द का अर्थ नहीं है। परमेश्वर के वचन में इसके अन्य अर्थ और प्रयोग भी किए गए हैं, उदाहरण के लिए:

·        मत्ती 9:21, लूका 8:50 और प्रेरितों 4:9 में इसी शब्द का अनुवाद और प्रयोग ठीक या बहाल होना या चंगा होने के अभिप्राय से किया गया है।

·        मत्ती 27:40 में इसे सुरक्षा या विकट परिस्थिति से छुड़ा लेने के अभिप्राय से अनुवाद और प्रयोग किया गया है।

·        मरकुस 5:23 में इसे चंगाई मिलने के अभिप्राय से अनुवाद और प्रयोग किया गया है।

·        2 तिमुथियुस 4:18 में इसे सुरक्षित रखे जाने के अभिप्राय से अनुवाद और प्रयोग किया गया है।

   (उपरोक्त उदाहरण हिन्दी अनुवाद में उतने स्पष्ट नहीं हैं जितने अंग्रजी में; इसलिए यदि आप इन्हें किसी अंग्रेज़ी अनुवाद – जैसे कि KJV या NKJV आदि के साथ देखें तो अधिक अच्छे से समझ में आएगा।)

   कहने का अर्थ यह है कि जिस “उद्धार” की यहाँ पर, 1 तीमुथियुस 2:15, में बात की गई है, वह आत्मिक उद्धार नहीं, वरन किसी अन्य स्थिति से बचाया जाना, या सुरक्षित किया जाना, या उससे निकालकर बहाल करना, या उभारना है। इसलिए अब यह देखना होगा कि यह क्या स्थिति है जिसके बारे में यहाँ बात की जा रही है। इसे दो बातों से देखा तथा समझा जा सकता है – एक, उत्पत्ति में स्त्री के सृजे जाने के समय से आरंभ करके, परमेश्वर द्वारा निर्धारित स्त्रियों की भूमिका के सन्दर्भ में होकर; तथा, दूसरे, इस पद के तात्कालिक सन्दर्भ के साथ।

   पहले, उनके रचे जाने के समय के विवरण और उससे संबंधित बातों को देखकर, परमेश्वर द्वारा स्त्रियों के लिए निर्धारित भूमिका को समझते हैं। आदम के लिए स्त्री की आवश्यकता का पहला उल्लेख उत्पत्ति 2:18 में आया है, और वहाँ पर परमेश्वर ने कहा, “मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊंगा जो उस से मेल खाए।” परमेश्वर का उद्देश्य स्पष्ट है – स्त्री को परमेश्वर द्वारा आदम के समान बनाई गई, उससे मेल खाने वाली, उसकी सहायक होना था। यहाँ, हमारी चर्चा के लिए महत्वपूर्ण बात है कि स्त्री की रचना से भी पहले, जब परमेश्वर ने उसके बारे में विचार किया, तभी से उसकी भूमिका आदम का “सहायक” होने की थी, न कि आदम पर प्रभुता या वर्चस्व रखने वाली होने की। जो व्यक्ति सहायक नियुक्त होता है, वह निर्णायक अथवा नियंत्रण करने वाला नहीं होता है, वरन जिसकी सहायता के लिए उसे रखा जाता है, उसकी अधीनता और आज्ञाकारिता में होकर कार्य करता है। सहायक का अधिकारी हो जाना या अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने वाला हो जाना, उसके लिए निर्धारित कार्य और भूमिका के विरुद्ध जाना है, अनाज्ञाकारी होना है।

    इसका यह कदापि तात्पर्य नहीं है कि स्त्री को आदम से गौण और उसकी “दासी” होने के लिए बनाया गया था – बिना स्त्री के आदम अधूरा था, स्त्री को उसका पूरक, उसकी सहायता करने वाला होना था (1 कुरिन्थियों 11:11)। दोनों, आदम और हव्वा के लिए परमेश्वर ने कार्य और भूमिकाएँ निर्धारित की थीं; उन्हें एक-दूसरे के साथ मिलकर, परस्पर सहयोग के साथ उन दायित्वों का निर्वाह करना था। बड़े या छोटे होने या एक-दूसरे पर प्रभुता रखने की भावना अथवा होड़ तो तब थी ही नहीं। यह भिन्नता, होड़, और एक का दूसरे से ऊँचा होने का प्रयास करने की भावना का प्रचलन उस पाप के कारण आया जो उन दोनों ने किया (उत्पत्ति 3:16); यह भिन्नता और प्रवृत्ति परमेश्वर की आरंभिक योजना का भाग नहीं थी।

   इसे इस प्रकार समझिए, किसी बड़ी कंपनी और कारखाने में एक मालिक होता है, और उसके नीचे अलग-अलग जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए अलग-अलग विभागों के अलग-अलग डायरेक्टर होते हैं – कोई आर्थिक मामले संभालता है, कोई कर्मचारियों की नियुक्ति और उनसे संबंधित समस्याओं को देखता है, कोई कच्चे माल की आपूर्ति का दायित्व निभाता है, तो कोई तैयार माल को बाहर बेचने और मुनाफा कमाने के कार्य को पूरा करता है, आदि। सभी “डायरेक्टर” हैं, सभी उसी एक मालिक के लिए कार्य कर रहे हैं, सभी के मिल-जुल कर कार्य करने से ही कंपनी और कारखाना तरक्की कर सकते हैं; कोई बड़ा या छोटा नहीं है, सभी एक दूसरे के सहायक और पूरक हैं। किन्तु जैसे ही कोई एक भी “डायरेक्टर” किसी दूसरे के विभाग में दखलंदाजी करने लगता है, अपने आप को औरों से बड़ा या अधिक महत्वपूर्ण जताने के प्रयास करने लगता है, वह सभी के लिए परेशानी उत्पन्न करता है और अन्ततः न केवल अपना, वरन औरों का था कंपनी एवं कारखाने का, और उसके मालिक का भी नुकसान कर डालता है। इसी प्रकार, परमेश्वर की मूल योजना में, संसार में पाप के प्रवेश से पहले, आदम और हव्वा के अपने-अपने कार्य और भूमिकाएँ थीं, जो परस्पर एक दूसरे की पूरक थीं, जिन्हें एक दूसरे के सहयोग से निभाया जाना था; उन्हें बड़ा-छोटा होने के लिए नहीं, साथ मिलकर काम करने के लिए रखा गया था – प्राथमिक भूमिका पहले सृजे गए आदम की थी, और हव्वा को उसका सहायक होना था, उसे आदम के साथ मिलकर परिवार बनाना था, और उस परिवार की देखभाल और परवरिश करनी थी। उनके इस साथ मिलकर कार्य करने से वे समस्त पृथ्वी और उसकी सभी प्राणियों को वश में रखने वाले बन सकते थे (उत्पत्ति 1:27-28)। अदन की वाटिका में कार्य करने, उसकी रक्षा करने, और उसके फलों में से लेकर खाने, तथा किस फल को नहीं खाना है, इसका निर्णय रखने का दायित्व परमेश्वर ने, हव्वा की सृष्टि से भी पहले, आदम को दिया था (उत्पत्ति 2:15-17), जिसे फिर हव्वा की सृष्टि के पश्चात उसके साथ बाँटा नहीं गया; यह आदम का दायित्व था, हव्वा का नहीं।

   अदन की वाटिका में हुए उस पहले पाप, जिसका परिणाम हम आज तक झेल रहे हैं, के कार्यान्वित हो जाने में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हव्वा द्वारा उसके लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित भूमिका और कार्य से हटकर, आदम को सौंपे गए कार्य में हाथ डालना था – वह “सहायक” से “निर्णायक” और नियंत्रण करने वाली बन गई। शैतान की बातों और बहकावे में आकर (2 कुरिन्थियों 11:3), न केवल उसने वाटिका से संबंधित कार्य और वहाँ के फलों में से किसे खाना है और किसे नहीं का निर्णय करने का अधिकार अपने हाथों में ले लिया, तथा बिना आदम से पूछे अपने उस निर्णय को प्रभावी किया, वरन उसने आदम को भी अपने इस गलत निर्णय के पालन में सम्मिलित कर लिया (उत्पत्ति 3:6, 12)। यह आदम की गलती थी कि उसने हव्वा को मना करने के स्थान पर, उसके कहे को माना, और इस प्रकार वह भी परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता में आ गया। परमेश्वर द्वारा निर्धारित कार्य और भूमिका के निर्वाह के स्थान पर, दूसरे के कार्य और भूमिका में हाथ डालने के कारण पाप का यह श्राप सारे संसार और सृष्टि पर आ गया (रोमियों 8:19-23), जिसके निवारण के लिए परमेश्वर को स्वर्ग की महिमा छोड़कर पृथ्वी पर अपमानित होने तथा निकृष्ट मृत्यु को सहन करने के लिए आना पड़ा। इस पाप के कारण ही स्त्री को पुरुष की अधीनता में आना पड़ा (उत्पत्ति 3:16) – किन्तु अधीनता में आने का यह अर्थ नहीं है कि उसे पुरुष से हीन अथवा गौण कर दिया गया, उसे निकृष्ट या दासी होकर रहने के लिए कहा गया। परमेश्वर द्वारा यह कहना कि “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा”, कोई नई बात लाना नहीं था, केवल स्त्री के “निर्णायक” होने की बजाए, उसके “सहायक” होने को, जो कि परमेश्वर की मूल योजना थी, उसी बात को फिर से दृढ़ता से व्यक्त और प्रभावी करना था।

   क्योंकि परमेश्वर ने स्त्री से “सहायक” रहने के लिए कहा है, इसीलिए वचन में बारंबार स्त्रियों को शांत रहने, पुरुषों को और कलीसिया में प्रचार न करने, और अपने पति से सीखने और उसके अधीन रहने के लिए निर्देश दिए गए हैं (1 कुरिन्थियों 11:3-10; 1 कुरिन्थियों 14:34-35; इफिसियों 5:22-24; कुलुस्सियों 3:18; 1 तिमुथियुस 2:11-12; तीतुस 2:15; 1 पतरस 3:1-6)। यह उन्हें नीचा या गौण दिखाने के लिए नहीं है – क्योंकि परमेश्वर की दृष्टि में वे पुरुषों से किसी भी रीति से कमतर नहीं हैं, दोनों ही समान हैं (प्रेरितों 2:18; 5:14; 8:12; गलातियों 3:28)। वरन यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित उनकी तथा पुरुषों की भूमिका का सही रीति से निर्वाह करने के लिए है; उनके परमेश्वर की आज्ञाकारिता में बने रहने के लिए है। क्योंकि परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के परिणाम भयानक होते हैं, इसलिए यदि वे उसकी आज्ञाकारिता में नहीं आएँगी तो फिर अपने लिए विनाश ले लाएँगी। जो कार्य और भूमिका, विशेषकर परिवार बनाने और संचालित करने से संबंधित बातें, ममता, सहनशीलता, धैर्य आदि के निर्वाह को जैसा स्त्रियाँ कर सकती हैं, वह पुरुषों के लिए करना असंभव है। सामान्यतः, केवल स्त्री ही परिवार और बच्चों को परमेश्वर का भय और आदर करना सिखा सकती है; पुरुष के लिए यह करना बहुत कठिन है। पुरुष परिवार के लिए परमेश्वर की भक्ति का आदर्श और उदाहरण बन सकता है, किन्तु उस आदर्श और उदाहरण का अनुसरण करना, बच्चों को स्त्री ही सिखा सकती है। ऐसा भी नहीं है कि वचन के प्रचार और मसीही सेवकाई में स्त्रियों के किसी भी प्रकार से संलग्न होने के लिए मना किया गया है; वचन की शिक्षा तथा सेवकाई में भी उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है – अन्य महिलाओं और बच्चों के मध्य में (नीतिवचन 31:26-30; 1 तिमुथियुस 5:5-10; तीतुस 2:3-5); बस उन्हें यह प्रचार और शिक्षा, परमेश्वर की बुद्धिमानी और योजना में, पुरुषों और कलीसिया में करने से मना किया गया है। ध्यान कीजिए, मूसा की परवरिश राज-महल में, इस्राएलियों को सताने वाले मिस्रियों की रीति के अनुसार हुई थी, किन्तु उन इस्राएलियों के विपरीत व्यवहार की परिस्थितियों में, मूसा को वह परवरिश देने वाली उसकी अपनी माँ ही थी। परिणामस्वरूप, वयस्क होने पर वह मिस्र की रीति पर नहीं चला, वरन, इस्राएलियों को ही “अपने लोग” और यहोवा को अपना परमेश्वर मानने पाया, जिनके लिए वह मिस्र के राज-सिंहासन और ऐश्वर्य को त्यागने के लिए तैयार हो गया (प्रेरितों 7:22-36; इब्रानियों 11:24-26)। परिवार में स्त्रियों की इस अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका और आवश्यकता का पुरुषों के पास कोई विकल्प अथवा समाधान नहीं है। बात पुरुष और स्त्री को बड़े-छोटे के दृष्टिकोण से देखने के कारण बिगड़ती है, परमेश्वर के दृष्टिकोण से देखने और समझने के कारण संभलती है, आशीष लाती है।

   अब 1 तिमुथियुस 2:15 के संदर्भ पर आते हैं। बाइबल की कोई भी बात देखने, समझने के लिए उसे उसके तात्कालिक सन्दर्भ, अर्थात उसके आगे-पीछे के पदों के साथ देखना अनिवार्य है, साथ ही उसे बाइबल में  लिखी अन्य संबंधित बातों के साथ भी देखना आवश्यक है। इस अध्याय का आरंभ मसीही सेवकाई से संबंधित विवरण के साथ होता है (पद 1-8), और फिर मसीही समाज में स्त्रियों के व्यवहार से संबंधित निर्देश दिए गए हैं (पद 9-12), तथा स्त्रियों को दिए गए इन निर्देशों का कारण समझाया गया है (पद 13-14)। क्योंकि पौलुस को, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में, तिमुथियुस को ये निर्देश देने पड़े, इसलिए यह एक स्वाभाविक निष्कर्ष है कि तिमुथियुस जिस कलीसिया का अगुवा था, जिसकी देखभाल का दायित्व उसे सौंपा गया था, उसमें ऐसा नहीं हो रहा था। प्रत्यक्षतः, वहाँ पर स्त्रियाँ वह कर रही थीं जो परमेश्वर के वचन और मसीही विश्वास की शिक्षाओं के अनुसार सही नहीं था। स्त्रियाँ, परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गए दायित्व और भूमिका को छोड़ कर पुरुषों की भूमिका और कार्य में हाथ डाल रही थीं – वही पाप कर रही थीं जो हव्वा ने अदन की वाटिका में किया। इस कारण वे परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता की दोषी थीं, उस अनाज्ञाकारिता के दुष्परिणाम उन पर आने थे। उनके द्वारा स्वयं पर लाई गई इस विकट स्थिति से “उद्धार” अर्थात छुटकारा लेने और बहाल होने के लिए ही उन्हें यह कहा गया कि वे “बच्चा जनने” के द्वारा यह करने पाएँगी; अर्थात अपने पति के साथ मिलकर उसके “सहायक” की भूमिका के निर्वाह के द्वारा, परिवार में अपनी भूमिका के सही निर्वाह, परिवार और बच्चों की अच्छी देखभाल और सही परवरिश के द्वारा, वे अनाज्ञाकारिता का पाप करने की अपनी इस प्रवृत्ति से निकलने पाएंगी – उस से “उद्धार” पाएँगी – न कि वह आत्मिक उद्धार पाएंगी जिसका उल्लेख रोमियों 10:9-13 में किया गया है। इसीलिए इस 15 पद का दूसरा भाग कहता है,यदि वे संयम सहित विश्वास, प्रेम, और पवित्रता में स्थिर रहें।” क्योंकि जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम रखता है, वह परमेश्वर के वचन और निर्देशों पर विश्वास भी रखेगा, और चाहे स्वाभाविक प्रवृत्ति अथवा संसार के लोगों के द्वारा उकसाया जाना कैसा भी हो, वह संयम के साथ परमेश्वर के वचन का आज्ञाकारी रहेगा, और अनाज्ञाकारिता के पाप से दूषित नहीं वरन वचन की आज्ञाकारिता की पवित्रता में स्थिर बना रहेगा। बच्चा जनने का अभिप्राय पारिवारिक दायित्व का ठीक से निर्वाह करना है; और इस पद का तात्पर्य स्त्रियाँ पुरुषों के कार्यों में हाथ डालने के स्थान पर, अपने दायित्वों के निर्वाह में लौट आने और उन्हें ठीक से निभाने के द्वारा अनाज्ञाकारिता के दण्ड से बचाई जाएँगी, है।

रविवार, 9 मई 2021

यीशु हमारा सहायक 1 यूहन्ना 2:1-2

 यह ऑडियो सन्देश यू ट्यूब पर संगति का घर रुड़की के 9 मई 2021 की आराधना सभा के वीडियो लिंक में से लिया गया है : 

भाई आदित्या मकरियस: यीशु हमारा सहायक 1 यूहन्ना 2:1-2

मसीह का होना 2 कुरिन्थियों 5:15

यह ऑडियो सन्देश यू ट्यूब पर संगति का घर रुड़की के 9 मई 2021 की आराधना सभा के वीडियो लिंक में से लिया गया है 


  भाई राज कुमार: मसीह का होना 2 कुरिन्थियों 5:15

गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

दाऊद द्वारा जनगणना


   प्रश्न: दाऊद द्वारा जनगणना के लिए कौन ज़िम्मेदार – परमेश्वर (2 शमूएल 24:1) या शैतान (1 इतिहास 21:1)?

 

उत्तर:

 2 शमूएल 24:1 “और यहोवा का कोप इस्राएलियों पर फिर भड़का, और उसने दाऊद को इनकी हानि के लिये यह कहकर उभारा, कि इस्राएल और यहूदा की गिनती ले।

1 इतिहास 21:1 “और शैतान ने इस्राएल के विरुद्ध उठ कर, दाऊद को उकसाया कि इस्राएलियों की गिनती ले।

    यह दोनों खण्ड परस्पर विरोधाभास प्रतीत में होते हैं, क्योंकि पढ़ते ही लगता है कि 2 शमूएल 24:1 में यह कार्य यहोवा ने करवाया, और 1 इतिहास 21:1 से लगता है कि वही कार्य शैतान ने करवाया – इसलिए असमंजस होता है।


    बात को समझने से पहले यह ध्यान रखना आवश्यक है कि परमेश्वर शैतान को भी अपनी योजनाओं की पूर्ति में प्रयोग कर सकता है, किन्तु साथ ही वह पहले से ही शैतान द्वारा अपने लोगों के विरुद्ध कुछ कर पाने की सीमाएं भी निर्धारित और स्थापित कर देता है, जैसा कि हम अय्यूब के जीवन से तथा प्रभु यीशु के द्वारा शिष्यों से अपने पकड़वाए जाने से पहले के वार्तालाप में देखते हैं (अय्यूब 1:12; 2:6; लूका 22:31-32)। साथ ही परमेश्वर पहले ही इस्राएलियों को यह चेतावनी दे चुका था कि यदि उसके लोग, उसके साथ बाँधी गई वाचा को तोड़ेंगे, तो वह भी उनसे अपना मुँह छुपा लेगा (व्यवस्थाविवरण 31:16-17), यदि वे उसे अपनी मूर्खता या व्यर्थ बातों से रिस दिलाएंगे, तो वह भी उन्हें मूर्खता के लिए रिस दिलाएगा (व्यवस्थाविवरण 32:21)। एक अन्य तथ्य जिसे ध्यान में रखना आवश्यक है, वह है कि जनगणना के दोनों ही वृतांतों से यह प्रकट है कि प्राथमिक दोष इस्राएली प्रजा का था, और दाऊद फिर इसमें खिंच गया, तथा मूर्खता करने के लिए उकसाया गया।


    अब हम 2 शमूएल 24:1 पर आते हैं – हम इसके सन्दर्भ, इससे पिछले अध्याय, अध्याय 23, से समझने पाते हैं कि यह घटना दाऊद के राज्य के बाद के समय के उन वर्षों की है, जब वह उस पूरे क्षेत्र में, अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भी, और अपनी प्रजा में भी, एक महान, प्रबल, और शक्तिशाली राजा स्थापित हो चुका था। अध्याय 23 उसके शूरवीर सेनापतियों और सैनिकों, सेना-नायकों और उनके पराक्रम के कार्यों आदि का भी वर्णन करता है। इस पृष्ठभूमि के साथ हम आगे देखते हैं कि इस अध्याय (2 शमूएल 24) का आरंभ “और यहोवा का कोप इस्राएलियों पर फिर भड़का” शब्दों के साथ होता है। अर्थात इस्राएल तथा दाऊद के जीवनों में कुछ ऐसा आ गया था जिस से परमेश्वर उनसे क्रुद्ध हुआ, और उसे इस्राएल तथा उसके राजा को कुछ पाठ सिखाने की आवश्यकता हुई। इन तथ्यों के आधार पर जो विचार सामने आता है वह यह है कि यद्यपि समस्त इस्राएल में सुरक्षा, निश्चिंतता, और समृद्धि का माहौल था, किन्तु अब उन्हें अपनी इस सुरक्षा, निश्चिंतता, और समृद्धि का कारण उनपर बनी रहने वाली परमेश्वर की कृपा और अनुग्रह नहीं, वरन उनके महान राजा तथा उसके शूरवीर, पराक्रमी सेनापतियों और विशाल सेना के कार्य और प्रताप दिखने लग गए थे। संभवतः यही भावना, अर्थात, प्रजा के लोगों और सेना की संख्या एवं सामर्थ्य में घमण्ड, या तो राजा दाऊद में भी आ गई थी, अन्यथा आने लगी थी। तभी, एक तो, उसके सेनापति योआब ने उसे समझाने और जनगणना न करने की सलाह दी परंतु दाऊद नहीं माना, और योआब को जनगणना के लिए जाना पड़ा (2 शमूएल 24:2-4; 1 इतिहास 21:2-4); और दूसरे, यह जनगणना करवाने के लिए दाऊद बाद में अपने आप को दोषी बता कर पश्चाताप भी करता है (2 शमूएल 24:10; 1 इतिहास 21:8)।


    इस्राएलियों के द्वारा परमेश्वर के स्थान पर पराक्रमी दाऊद और उसकी शूरवीर सेना को अपनी सुरक्षा, निश्चिंतता, और समृद्धि का आधार समझ लेना, और दाऊद का भी, जो परमेश्वर को इतनी निकटता से जानता था, शैतान की बात पर ध्यान लगाना, चिताए जाने पर भी नहीं सुधारना, शैतान के बहकावे में आ जाना और इस संबंध में परमेश्वर की इच्छा आ पता न करना, परमेश्वर को बुरा लगा (1 इतिहास 21:7)। दाऊद जब तक शाऊल से जान बचा कर भाग रहा था, वह अपनी हर बात के लिए परमेश्वर से पूछा करता था। जब राजा बनकर सुरक्षित तथा आदरणीय हो गया तो निश्चिन्त होकर अपने आप पर भरोसा करने लग गया – वाचा के संदूक को यरूशलेम लाने का निर्णय लेना (2 शमूएल 6:1-8), मंदिर बनवाने का निर्णय लेना (1 इतिहास 17:1-4), इस जनगणना का आदेश देना, बतशेबा के साथ व्यभिचार और उसके पति ऊरिय्याह की हत्या करवाना (2 शमूएल 23:7-10), आदि उसकी इस प्रवृत्ति के उदाहरण हैं। परमेश्वर को हलके में लेने और उसके आदर तथा महिमा को चुराने के दोषी दाऊद और उसकी प्रजा दोनों ही थे, और परमेश्वर अपने आदर और महिमा के विषय बहुत विशिष्ट रहता है तथा जलन रखता है (यशायाह 42:8; 48:11; भजन 50:21-22); इसलिए परमेश्वर को दाऊद और उसकी प्रजा के लोगों, दोनों ही को यह पाठ पढ़ाना पड़ा (मलाकी 2:2)। शैतान हमेशा अवसर की तलाश में रहता है कि परमेश्वर के लोगों में कोई अनुचित अभिलाषा उत्पन्न हो, और वह उनकी उस अनुचित अभिलाषा की चिंगारी को भड़का कर उन्हें ही भस्म कर देने वाली आग बना दे (याकूब 1:12-15)। दाऊद और उसकी प्रजा ने परमेश्वर के बाड़े की मर्यादा को तोड़ा, उसकी सुरक्षा के बाहर आए, और सर्प ने उन्हें डस लिया (सभोपदेशक 10:8)। 


    दाऊद और उसकी प्रजा के लोगों को यह पाठ पढ़ाने के लिए परमेश्वर ने शैतान को दाऊद को उकसा लेने दिया कि वह दाऊद से जनगणना करवाए (1 इतिहास 21:1) – जनगणना करवाने के पश्चात दाऊद को अपनी गलती का एहसास हुआ, और उसे बहुत पछतावा भी हुआ, किन्तु उसे तथा प्रजा को ताड़ना भी सहनी पड़ी। उस जनगणना के परिणामों के द्वारा परमेश्वर इस्राएलियों और दाऊद को यह दृढ़ता से सिखाने पाया कि उनकी सुरक्षा उनके सैनिकों की संख्या और पराक्रम, राजा के महान होने में नहीं है, वरन परमेश्वर स्वयं उनकी सुरक्षा और सहायता, उनकी निश्चिंतता का आधार है; उसके अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति या बात में इस सुरक्षा का भरोसा रखना न केवल खतरनाक है, वरन हानिकारक भी है – और यही शिक्षा आज हमारे लिए भी है।