प्रभु के प्यार और हमारे प्यार में बड़ा फर्क है। हम उस से ही प्यार करते हैं कम से कम जो प्यार करने लायक तो हो। प्रभु ऐसों को प्यार करता है जो ज़रा भी प्यार करने के लायक हैं ही नहीं। प्रभु किसी भले आदमी पर अपनी भलाई दिखाए तो यह एक भली बात है; पर उसने मुझ जैसे बुरे आदमी पर इतनी भलाई दिखाई, यह तो बस एक गज़ब का प्यार है। प्रभु की दया रही तो उसकी इस दया को जो उसने मुझ पर की छोटे छोटे टुकड़ों में आने वाले सम्पर्क सम्पादकीयों में आपके साथ बाँटता रहूँगा।
मैं काले बोर्ड पर सफेद चौक घिसकर अपना पेट पालता हूँ। उम्र ५६ साल है बालों पर खिज़ाब नहीं लगाता। खिज़ाब लगाऊं भी तो कहाँ, बाल तो नाम मात्र को खोपड़ी के किनारों पर झालर की तरह ही शेष बचे हैं और वो भी एक के बाद एक तेज़ी से त्याग-पत्र देते जा रहे हैं। मैंने अपना पुशतैनी मज़हब और माँ-बाप, दोनों ही अपनी मर्ज़ी से नहीं चुने थे और न ही यह कर पाना मुम्किन था। न कोई बहन न भाई, घर पर मौत का साया इतना भयानक था कि कोई बचता ही नहीं था। फिर भी हमारा परिवार पूरी तरह शैतान को समर्पित था। अक्सर हमारे परिवार में छोटी छोटी बातों पर बड़ी बड़ी मार पीट बजती रहती थी। यही पुशतैनी स्वभाव मेरी ज़िन्दगी में भी तेज़ी से जमने लगा। मेरे माँ-बाप दोनो ही नौकरी करते थे, मेरे लिए उनके पास वक्त ही कहाँ बच पाता था। जैसे ही नेकर में पाँव डालने की उम्र तक पहुँचा, ज़िन्दगी की गन्दगी से खेलना भी शुरू कर दिया।
मेरे पिताजी को हुक्केबाज़ी का बड़ा शौक था। कभी कभी वो मूँह से धुएं के छल्ले निकालते थे, एक छल्ला फिर दूसरा छल्ला फिर तीसरा छल्ला और फिर एक फूँक से तीनों एक दूसरे में से निकालकर बिखेरते जाते। यह सब कुछ देखकर मुझे बड़ा मज़ा आता था, फिर मुझे भी तो यह सब कुछ करके दिखाना था। अधकचरी उम्र में ही मुझे बुरी लतों ने घेर लिया। मेरे घर पर जमे मौत के साए के कारण मेरे पिताजी को टी०बी० की लम्बी बिमारी मौत के मूँह में ले गई। अब मैं और मेरी माँ ही बचे थे। माँ भी बचते बचते ही बची थी। बाप की मौत के बाद मेरे लिए एक आज़ादी थी - जो करो, जैसे भी करो। अब मैं तहज़ीब को तहमद की तरह खूंटे पर टांग कर पूरी बदतमीज़ी पहन कर खड़ा हो गया। मुझे समझ पाना अपने में एक टेढ़ी खीर थी। स्कूल में मिले नम्बरों से पता नहीं चलता था कि वास्तव में मैं क्या हूँ। मैं देखने में बड़ा भोला और भला दिखता था पर अन्दर की कहानी तो कुछ और ही थी। (प्रभु की दया रही तो बीच की बची कहानी फिर अगले अंकों में कहूँगा।)
उस समय ज़िन्दगी की पूरी मस्ती छन रही थी, पर जब जब मैं अकेला होता था तो एक खालीपन की बेचैनी मुझे हमेशा बेचैन करती थी, और यह बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। अनेक धर्मों के द्वार पर इस खालीपन को भरने के लिए गया, पर प्यासा ही लौटा। मुझे जल की तस्वीर नहीं पर वह वास्तविक जल चाहिए था जो अन्दर तृप्ती दे। धर्मों में बड़ा उल्झाव था। इतना सिर मारकर भी धर्मों में वह सिरा नहीं मिला जहाँ से मैं शुरू करता। आखिर सब ही मक्कारी से लगने लगे। बाईबल भी मुझे रूखी, बेमज़ा और उबाऊ किताब लगी और उसकी बातें मुझे बेवकूफी से भरी लगीं। अब मैंने एक बगावत शुरू कर दी, साम्यवादी विचारों को स्वीकार कर मैं नास्तिक बन गया। परमेश्वर के विरोध में बोलने लगा, बाईबल को झूठा कहने लग जब कि मैंने पूरी बाईबल पढ़ी भी नहीं थी, मात्र कुछ अंश ही कहीं कहीं से पढ़े थे। अब मेरे लिए परमेश्वर शून्य और सन्नाटा ही था। लोगों को तो मैं एक जुनून के साथ ज़िन्दगी जीता और ज़बरदस्त मस्ती छानता दिखता था। लोगों के सामने बहुत हंसता और चहकता हुआ दिखता था पर अकेले में मेरा मन बहुत उचाट रहता था। मैं मन मसोस कर जी रहा था और अपने-आप से पूरी तरह हताश हो चुका था।
एक दिन एक व्यक्ति मेरे घर आकर मेरी बीमार चाची को बाईबल पढ़कर सुना रहे थे। मेरी तरफ उनकी पीठ थी। जो कुछ उन्होंने पढ़ा उसे सुनकर मुझे एक बिजली का झटका सा लगा और मैं एकदम भौंचक्का सा रह गया। ऐसा लगा कि यहाँ सब कुछ मेरे बारे में ही लिखा है और उन्होंने मुझे उघाड़कर मेरी छिपी हुई ज़िन्दगी को खोलकर सबके सामने पढ़ डाला है। पहले मैं सकपकाया लेकिन फिर अपने आप को संभाला। मैंने ज़िन्दगी में पहली बार ऐसी दस्तक अपने दिल के द्वार पर सुनी। वह बुज़ुर्ग व्यक्ति जाते जाते एक सभा में आने का प्यार भरा निमंत्रण दे गए। मैंने उन्हें वायदा दिया कि चलूँगा, इसलिए मुझे लेने वह कई बार मेरे घर आए पर मैं किसी तरह बहाने देकर उन्हें रफा दफा करता रहा। मेरे लिए यह निहायत ही बेवकूफी की बात थी कि शाम को ‘बरबाद’ किया जाए और वह भी किसी धर्म के नाम पर। पर वह बुज़ुर्ग व्यक्ति अक्सर घर आते रहे और मुझे बुलाते रहे।
एक दिन मैं मजबूरी में चला ही गया। कोई अदृष्य शक्ति ही मुझे खीच कर ले गई। मैं वहाँ मन मारकर बैठा रहा, वहाँ से निकल भागना चाहता था पर कोई था जो मुझे रोके रहा। वहाँ जो व्यक्ति प्रवचन दे रहे थे वह कुछ इस तरह कह रहे थे कि पापों से माफी मांगनी चाहिए; प्रभु यीशु पापों को क्षमा करता है और जीवन बदल जाता है। मेरा मन कहता कि ऐसा कैसे हो सकता है कि एक प्रार्थना करने से जीवन ही बदल जाए। मुझे इस बात पर कतई विश्वास नहीं हुआ। लेकिन एक बात ज़रूर हुई कि मैंने अच्छा आदमी बनने की पूरी कोशिश शुरू कर दी, कि सिग्रेट, शराब नहीं पीऊँगा और फिल्म आदि नहीं देखूंगा। यह सिलसिला ज़्यादा दिन नहीं चल सका और पुरानी आदतें वैसी ही बनी रहीं, फर्क सिर्फ इतना हुआ कि मैं अब और ज़्यादा बेचैन रहने लगा। बीच बीच में आत्म हत्या के प्रयास भी किए। ऐसा लग रहा था कि ज़िन्दगी रुक सी गई है और दम घुट रहा है। मौत मिल नहीं रही थी और ज़िन्दगी जी नहीं पा रहा था। मैं बहुत थक चुका था। मैंने अच्छा बनने के लिए बहुत मेहनत की थी पर हर बार हार ही हाथ लगी। मरता क्या न करता; मैं अपनी ज़िन्दगी की सबसे यादगार उस अंधेरी रात पर आ गया था जिसने मुझे हमेशा के उजाले में लाकर खड़ा कर दिया। मैंने एक आखिरी उम्मीद से प्रभु का द्वार खटखटा ही दिया। एक शक मेरे सीने में तब भी था कि क्या यीशु मेरा जीवन बदल सकता है? मैंने प्रभु यीशु से जो प्रार्थना उस समय की उसके सही शब्द तो मुझे अब याद नहीं, पर उस प्रार्थना का भाव याद है। सच्चाई यह थी कि मैं प्रार्थना से प्रभु यीशु को परखना चाहता था। मुझमें न तो नरक का डर था न ही स्वर्ग का प्रलोभन। मैं अपनी इस बड़ी अजीब बेचैनी से बाहर आना चहता था। मैं बहुत अकेला था और मुझे कोई चाहिए था जिससे मैं कुछ कह सकूँ - शायद यीशु ही मेरी सुन ले। प्रभु से प्रार्थना करने के बाद मैं एक बड़े ही गज़ब के अनुभव से गुज़रा। बाहर से तो मेरा कुछ नहीं बदला पर अन्दर एक अजीब सी खुशी मुझे मिल गई। इस खुशी को शब्दों में बयान करने लायक शब्द आज तक मुझे नहीं मिले। अब मुझे मालूम हुआ कि मेरे प्रभु के पास मेरे जीवन के लिए एक योजना है और यह योजना आत्म हत्या तो कतई नहीं है। खैर अभी यहीं तक, शेष फिर अगले अंक में, प्रभु की उस दया को जो मुझ पर हुई, प्रभु की दया से कहता रहूँगा।
आपके बहुत सारे पत्र हमें मिलते हैं और लगभग हर पत्र का जवाब हम डाक द्वारा देने का प्रयास करते हैं। अभी आए एक पत्र का जवाब मैं आप को सब के साथ देना चाहूँगा। पत्र लिखने वाले ने, अपने ढंग से सवाल पूछा है कि हम किस मिशन के हैं? सालों से इस सवाल के साथ लोग अक्सर मुझे घेरे रहते हैं।
कुछ खतरनाक विचार हमारे दिमाग से गुज़रते हैं जो बड़ा बिगाड़ पैदा करते हैं और हमारे दिलों में बे सिर पैर की दहशत पैदा कर डालते हैं। एक पुरानी आप-बीती आपके साथ बाँटना चाहुँगा। मैं नया-नया प्रभु में आया था, एक दिन कई लोगों के साथ एक घर में बैठा था। वहाँ एक बड़े सड़ियल स्वभाव के एक इसाई साहब भी बैठे थे और खामख्वाह काज़ी बन रहे थे, अपनी ही हाँके जा रहे थे। शायद उनके इतने बड़े शरीर में परमेश्वर के प्यार का एहसास करने वाला दिल फिट ही नहीं था। इतने में पीने के लिए सबको पानी दिया गया। मैंने पानी का गिलास हाथ में लिया और आँखें बन्द करके परमेश्वर को मन में ही धन्यवाद करके पीना शुरू किया ही था कि वह साहब बोले “ क्यों भई तुम क्या फलां मिशन के हो?” यह सुनते ही मेरा कलेजा कबाब हो गया, पानी तो मैं जैसे तैसे पी गया पर अपना गुस्सा न पी सका। इस तरह गुस्से से बड़ों को जवाब देना परी तरह गलत था, मुझे अपनी बात प्यार से कहनी चाहिए थी। पर उस समय इतनी परिपक्वता नहीं थी, झुंझलाकर जवाब दिया “साहब जो हमें एक गिलास पानी देता है उसे हम मुस्कुराकर प्यार से ‘थैंक यू’ (यानि धन्यवाद) बोलते हैं, पर जिसने पानी बनाया है उसे ‘थैंक यू’ बोलते ही क्या हम ‘फलां’ मिशन के बन जाते हैं? हमारे दिमाग का पूरा अकीदा यह है कि मसीह को मानने वाला किसी न किसी मिशन का ज़रूर होगा। वैसे ही जैसे परमेश्वर को मानने वाला किसी न किसी धर्म का ज़रूर होगा। मैं आपसे सवाल पूछता हूँ, कृपया मुझे बाईबल से बताएं कि प्रभु यीशु किस मिशन का था, मैं उस मिशन को स्वीकार कर लूँगा। जब प्रभु ही किसी मिशन का नहीं था तो आप हमें किसी विशेष मिशन में क्यों धकेलना चाहते हैं?”
मेरे प्यारे पाठकों आप परमेश्वर और हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो। परमेश्वर की दया और आपकी प्रार्थनों के सहारे ही हम सम्भले रहते हैं। आप से विनम्र निवेदन है कि कम से कम एक जन को ‘सम्पर्क’ पत्रिका का अपनी तरफ से सदस्य ज़रूर बनाएं - हम ‘सम्पर्क’ के साथ दुगने लोगों तक पहुँच पाएंगे। बस हमें स्वर्गीय सामर्थ की आवश्यक्ता है जो हमें आपकी प्रार्थनाओं से प्राप्त होती है। प्रभु ने चाहा तो फिर और आगे अगले अंक में आपसे सम्पर्क करेंगे।
प्रभु में आपका,
“सम्पर्क परिवार”
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