जबकि बहुधा भोजन वस्तुएं खेतों में उगाई, खलिहानों में रखी, और फिर दुकानों में बेची जाती हैं गैर-मसीही देवी-देवताओं को अर्पित करने, और धार्मिक अनुष्ठानों को करने के पश्चात, तो क्या मसीही विश्वासियों का उन्हें उपयोग करना उचित है?
चाहे लोग हमारे सच्चे और जीवते परमेश्वर
को जानते या मानते नहीं भी हों, और अपने
जीवनों में उसके महत्व और स्थान को स्वीकार नहीं भी करते हों, फिर भी परमेश्वर उनसे प्रेम करता है और उनके लिए उपलब्ध करवाता
है (भजन
145:9; मत्ती 5:45)। भजनकार
कहता है कि प्रभु परमेश्वर ही है जो धरती से वनस्पति को उगवाता है जिससे मनुष्यों और
पशुओं को भोजन वस्तु प्राप्त होती है (भजन 104:14)। इसी विचार के अनुरूप, पौलुस बीज बोने और उगने के उदाहरण के द्वारा कहता है कि बीज चाहे कोई भी बोए, किन्तु बीज का उगना, बढ़ना और फल लाना परमेश्वर ही के द्वारा होता है (1 कुरिन्थियों 3:6-8)। इसलिए चाहे किसान खेती करते समय कोई
धार्मिक अनुष्ठान अथवा मूर्तिपूजा करे भी, तो भी खेत में वही, उतना, और उसी गुणवत्ता का उगेगा, जितना परमेश्वर उस बीज और धरती से करवाएगा। इसलिए हम मसीही विश्वासी इस बात
के लिए निश्चिंत और सुनिश्चित रह सकते हैं कि हमारी प्रत्येक भोजन वस्तु में परमेश्वर
का हाथ और आशीष है, चाहे उसे उगाने या बेचने वाला कोई भी
हो, और यह कैसे भी किया गया हो।
मूर्तियों को अर्पित वस्तुओं को खाने
के निषेध के विषय में, 1 कुरिन्थियों 8 और 10 पढ़ें, जहां पर पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस इस विषय पर चर्चा
करता है। यद्यपि मूर्ति कुछ भी नहीं है (1 कुरिन्थियों 8:4), इसलिए इस दृष्टिकोण से किसी मूर्ति को अर्पित की हुई वस्तु
खाने या न खाने का कोई महत्व अथवा प्रभाव भी नहीं है(1 कुरिन्थियों 8:8); परन्तु मूलतः, मूर्तियों को अर्पित वस्तु को खाना वर्जित करने के पीछे का
उद्देश्य, मूर्तियों की उपासना या अराध्य होने का
संकेत भी देने से बचना है (1 कुरिन्थियों 8:7) – क्योंकि वेदी की वस्तुओं के प्रयोग के द्वारा, व्यक्ति उस वेदी का भी संभागी हो जाता है (1 कुरिन्थियों 10:18)। अधिक
परिपक्व मसीही विश्वासियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विश्वास में दुर्बल मसीही
भाई इस बात के कारण किसी भ्रम में पड़कर भटक न जाएं (1 कुरिन्थियों 8:7, 10-13); और अविश्वासियों पर भी यह प्रगट रहना
चाहिए कि मसीही विश्वासी प्रभु की मेज़ और उनकी मेज़ – अर्थात, दुष्टात्माओं की मेज़, दोनों
में सम्मिलित नहीं हो सकते हैं (1 कुरिन्थियों 10:20-21)। पौलुस यह भी कहता है कि यदि कोई मूर्तियों को अर्पित वस्तु
को भोजन वस्तु के रूप में उनके सामने परोसता है, और यह बता देता है, तो एक
मसीही विश्वासी को उस व्यक्ति के विवेक के कारण उस भोजन वस्तु को स्वीकार नहीं करना
चाहिए (1 कुरिन्थियों
10:25-30); दूसरे शब्दों में, यद्यपि उस भोजन वस्तु को खाना, किसी भी अन्य भोजन वस्तु को खाने से ज़रा भी भिन्न
नहीं होगा, फिर भी मूर्ति को अर्पित उस वस्तु का
उस व्यक्ति के मन और विवेक में एक विशेष स्थान होने के कारण, और यह दिखाने के लिए की एक मसीही विश्वासी इन बातों से पृथक
रहता है, किसी मसीही विश्वासी को वह भोजन वस्तु
नहीं खानी चाहिए।
इसलिए, यद्यपि यह बाइबल के अनुसार बिल्कुल सही औए वांछनीय है कि मूर्तियों को चढ़ाई
गई वस्तुओं को न तो स्वीकार किया जाए और न ही खाया जाए, और इस सिद्धांत का यथासंभव पालन भी होना चाहिए; परन्तु हमारे शीर्षक-प्रश्न जैसी विशेष परिस्थितियों के संदर्भ में, इसे एक
हठधर्मिता का सिद्धांत भी नहीं बना लेना चाहिए, मानो इसी के पालन के द्वारा हम परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और स्वीकार योग्य
बनते हैं – क्योंकि यह तो केवल कलवरी के क्रूस पर किए गए प्रभु यीशु के कार्य के द्वारा
परमेश्वर के अनुग्रह से ही संभव हो सकता है, और परमेश्वर हमारे हृदय की दशा भली-भांति जानता है (1 कुरिन्थियों 8:3).
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