प्रश्न:
एक बार जो व्यक्ति
उद्धार पा गया तो क्या वह विश्वास से भटक जाने के बाद स्वर्ग जाएगा?
उत्तर:
जिसने भी
उद्धार पाया है, अर्थात, स्वेच्छा तथा सच्चे मन से, अपने पापों से पश्चाताप करके,
प्रभु यीशु मसीह को अपना निज उद्धारकर्ता स्वीकार किया है, उससे अपने पापों की
क्षमा माँगी है, और अपना जीवन उसे समर्पित किया है, परमेश्वर के अनुग्रह से केवल
वही व्यक्ति स्वर्ग जाएगा – लेकिन मनुष्य की वास्तवक आत्मिक दशा केवल परमेश्वर ही
जानता है, इसलिए कौन स्वर्ग जाएगा और कौन नहीं, इसका निर्धारण केवल परमेश्वर ही कर
सकता है, और कोई नहीं।
परमेश्वर के
वचन, बाइबल के अनुसार,
यह बिलकुल स्पष्ट और स्थापित है कि उद्धार सदा काल के लिए है अर्थात
‘eternal’ है। इब्रानियों की पत्री का लेखक, प्रभु यीशु मसीह के द्वारा मनुष्यों को उद्धार प्रदान करने के लिए किए गए
कार्यों के विषय लिखता है, “और पुत्र होने पर भी, उसने दुख उठा उठा कर आज्ञा माननी सीखी। और सिद्ध बन कर, अपने सब आज्ञा मानने वालों के लिये सदा काल के उद्धार (eternal salvation) का
कारण हो गया” (इब्रानियों 5:8-9)। प्रभु यीशु मसीह ने भी
कहा कि उस पर विश्वास लाए हुए उसके लोगों को वह अनन्त जीवन (अर्थात कभी
समाप्त न होने वाला अक्षय जीवन, eternal life) प्रदान करता
है, तथा साथ ही यह आश्वासन भी दिया कि कोई भी प्रभु या
परमेश्वर के हाथों से उन अनन्त जीवन पाए हुओं को नहीं छीन सकता है (यूहन्ना
10:27-29) – प्रभु का यह वायदा बहुत ही गंभीर एवं बहुत महत्वपूर्ण तात्पर्य रखने
वाला कथन है। प्रभु के इस वायदे के आधार पर, उद्धार खो देने का अभिप्राय होता है
कि, शैतान ने किसी विधि से उन उद्धार पाए हुए व्यक्तियों को प्रभु या परमेश्वर के
हाथ से छीन कर फिर से अपनी आधीनता में ले लिया है। यदि किसी भी प्रकार यह संभव होता,
तो फिर तीन असंभव बातें संभव हो जाती हैं – पहली यह कि शैतान परमेश्वर से अधिक
शक्तिशाली है; दूसरी यह प्रभु यीशु ने झूठ बोला, उसने झूठा आश्वासन दिया कि कोई भी
उद्धार पाए हुओं को उसके या परमेश्वर पिता के हाथों से छीन नहीं सकता है; और तीसरी
यह कि प्रभु को न शैतान की, न अपनी और न परमेश्वर की शक्ति की वास्तविकताओं का पता
है, और वह यूं ही कुछ भी कहे जा रहा है! क्योंकि यह हो पाना पूर्णतः असंभव है,
इसलिए प्रगट है कि कोई भी व्यक्ति, जिसने वास्तव में उद्धार
पाया है, वह यूहन्ना 10:27-29 के आधार पर अपना उद्धार कभी भी नहीं खो सकता है। और
क्योंकि उद्धार पाए हुओं पर दण्ड की कोई आज्ञा नहीं है (रोमियों 8:1), इसलिए जो
वास्तव में उद्धार पाए हुए हैं, वे स्वर्ग में अवश्य ही
प्रवेश करेंगे, चाहे विश्वास में उनकी परिपक्वता एवं स्थिति का स्तर कुछ भी क्यों
न हो।
किन्तु यह बात
केवल परमेश्वर ही जानता है कि कौन वास्तविक मसीही विश्वासी है और कौन नहीं। उदाहरण
के लिए युहूदा इस्करियोती को ही लीजिए; वह प्रभु द्वारा बुलाया गया, प्रभु के साथ रहा,
प्रभु से शिक्षा पाई, प्रभु की सामर्थ्य और
निर्देशन द्वारा, अन्य शिष्यों के साथ सुसमाचार प्रचार पर भी
गया और उनके साथ मिलकर प्रचार किया, आश्चर्यकर्म भी किए,
किन्तु अन्त में वह प्रभु के द्वारा ‘विनाश का
पुत्र’ और ‘नाश होने वाला’ कहा गया (यूहन्ना 17:12), और अनन्त विनाश में चला गया। प्रभु यीशु मसीह ने
भी अपने पहाड़ी प्रचार के अन्त में कहा है कि हर कोई जो उन्हें ‘हे प्रभु’ कहता है, वह स्वर्ग
में प्रवेश नहीं करेगा, चाहे उन्होंने प्रभु के नाम में कई
प्रकार के प्रचार, आश्चर्यकर्म, तथा अद्भुत एवँ उल्लेखनीय कार्य ही क्यों न किए
हों – प्रभु ने उन लोगों के इन कामों को ‘कुकर्म’ कहा ;
स्वर्ग में केवल वे ही प्रवेश करेंगे जो परमेश्वर पिता के आज्ञाकारी रहते हैं और
परमेश्वर की इच्छे के अनुसार कार्य करते हैं (मत्ती 7:21-23)। इसलिए लोगों के
प्रगट व्यवहार, प्रचार, और कार्यों के आधार पर हम किसी भी मनुष्य
के विषय यह निश्चित नहीं कह सकते हैं कि प्रभु में विश्वास रखने का दावा करने और
उसके नाम से प्रचार और कार्य करने वाला प्रत्येक व्यक्ति वास्तव में उद्धार पाया
हुआ है भी कि नहीं! पौलुस ने भी इस बात के विषय सचेत किया और समझाया कि शैतान और
उसके दूत भी ज्योतिर्मय स्वर्गदूतों और मसीह के प्रेरितों का स्वरूप धारण कर के
लोगों को बहकाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15)। इसलिए व्यक्ति के उद्धार पाया
हुआ होने की वास्तविकता तो केवल परमेश्वर ही जानता है, और
वही इसका निर्णय कर सकता है, तथा करता है।
साथ ही, बाइबल यह भी कहती है कि ऐसे भी मसीही
विश्वासी पाए जाएँगे जो सच्चे मन से पश्चाताप करके प्रभु के पास तो आए, वे वास्तव में उद्धार पाए हुए भी थे, किन्तु
उन्होंने प्रभु के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जो जांचे जाने पर प्रतिफल दिए जाने के
योग्य स्वीकार किया जाता। जब न्याय के समय उनके काम जांचे जाएँगे, तो वे उद्धार पाया हुआ होने के कारण स्वर्ग में तो प्रवेश करेंगे, परन्तु छूछे हाथ, बिना कुछ भी प्रतिफल लिए, और अनन्त-काल तक फिर ऐसे ही छूछे हाथ ही रहेंगे (1 कुरिन्थियों 3:9-15)।
सँसार के सभी लोगों के समान, किए गए कर्मों के अनुसार,
न्याय तो मसीही विश्वासियों का भी होगा, वरन
न्याय आरंभ ही मसीही विश्वासियों से होगा (1 पतरस 4:17-18), परन्तु
मसीही विश्वासियों का यह न्याय उनके उद्धार पाने के लिए नहीं, वरन अनन्तकाल के लिए उनके कर्मों के आधार पर उन्हें प्रतिफल दिए जाने के
लिए होगा – उद्धार कर्मों के आधार पर नहीं है, परन्तु प्रतिफल कर्मों के आधार पर
हैं। उद्धार तो केवल पापों से पश्चाताप और प्रभु यीशु पर लाए विश्वास के आधार पर
परमेश्वर के अनुग्रह ही से है; किसी भी या कैसे भी कामों, अथवा प्रथाओं, या
रीति-रिवाजों, या अनुष्ठानों/विधि-विधानों आदि के पालन के
द्वारा कदापि नहीं है (इफिसियों 2:1-9)।
ऐसे भी अनेकों
लोग हैं जो मसीही विश्वास में आने के पश्चात,
किसी कारणवश विश्वास से भटक गए, परन्तु प्रभु
ने अपने वायदे (इब्रानियों 13:5) के अनुसार, उन्हें कभी छोड़ा नहीं। देर-सवेर, किसी न किसी रीति से, प्रभु उन्हें फिर विश्वास में लौटा कर ले आया,
और फिर वे बहुत सामर्थी होकर प्रभु के लिए इस्तेमाल हुए, विश्वास में अपने लौट कर आने की गवाही के द्वारा वे अनेकों अन्य भटके हुए
या कमज़ोर विश्वासियों के लिए प्रोत्साहन और हिम्मत का कारण बने। यदि आज के संदर्भ
से देखें, तो जब प्रभु यीशु ने कलवारी के क्रूस पर समस्त सँसार के पापों का दण्ड
अपने ऊपर लिया, उस समय तो हमारा कोई भौतिक अस्तित्व था ही नहीं। साथ ही बाइबल में
कहीं यह नहीं लिखा है कि प्रभु ने लोगों के केवल उन ही पापों को अपने ऊपर लेकर
उनके दण्ड को सहा जो लोगों ने प्रभु के पास आने – अर्थात, उद्धार पाने से पहले किए
थे; और उन लोगों के उद्धार पाने के बाद के पापों का निवारण प्रभु ने उन लोगों के
हाथों में, उनके द्वारा किए गए कर्मों पर छोड़ दिया – यह तो असंभव है – उद्धार का
एक भाग परमेश्वर के अनुग्रह पर, और दूसरा भाग मनुष्यों के कर्मों के आधार पर कैसे
हो सकता है? प्रभु ने तो प्रत्येक व्यक्ति के समस्त जीवन में किए गए समस्त पापों
की पूरी-पूरी कीमत क्रूस पर पहले ही चुका दी है, चाहे इतिहास में उसका अस्तित्व
कभी भी हो। प्रभु ने उसके पापों के दुष्परिणाम से उस व्यक्ति के अधूरे नहीं परन्तु
संपूर्ण निवारण का मार्ग बना कर दे दिया है; अब किसी भी मनुष्य के लिए उद्धार का
जीवन जीने के लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहा है। जब व्यक्ति के जन्म से लेकर उसके
मरण के समय तक के सभी पापों को प्रभु ने अपने ऊपर ले लिया, उनकी पूरी कीमत चुका
दी, तो फिर उस व्यक्ति को स्वर्ग जाने से रोकने वाला कौन सा पाप बच गया? क्या उसके
विश्वास से भटक जाने का पाप भी उसके जीवन के अन्य पापों में सम्मिलित नहीं है,
जिसकी कीमत प्रभु द्वारा कलवारी के क्रूस पर चुकाई जा चुकी है?
और यदि यह मान लिया
जाए कि व्यक्ति उद्धार पाने के बाद अपने जीवन की शुद्धता और पवित्रता, तथा निष्पाप
रहने को अपने ही प्रयासों, कार्यों, और सामर्थ्य से बनाए रख सकता है, तो फिर वह
यही कार्य उद्धार पाने से पहले भी कर सकता था – फिर तो प्रभु का आना न केवल व्यर्थ
हो गया, वरन पापी, मरणहर मनुष्य, प्रभु परमेश्वर से भी बढ़कर हो गया! क्योंकि फिर
तो मनुष्य मात्र अपने कर्मों से ही वह कर सकने की क्षमता रखता है जिसके लिए प्रभु
को स्वर्ग छोड़कर धरती पर मनुष्य रूप में आना पड़ा, दुःख और अपमान सहना पड़ा, और अपनी
जान देनी पड़ी – यह तो पूर्णतः असंगत और असंभव विचार है! फिर, ऐसा कौन सा उद्धार
पाया हुआ व्यक्ति है जो सच्चे मन से कहा सकता है कि उद्धार पाने के बाद उससे कभी
भी – शरीर, मन, ध्यान, विचार में, कोई भी पाप नहीं हुआ? प्रेरित यूहन्ना कहता है:
“यदि हम कहें, कि हम में कुछ भी पाप नहीं, तो अपने आप को धोखा देते हैं: और हम में सत्य नहीं। यदि कहें कि हम ने पाप
नहीं किया, तो उसे झूठा ठहराते हैं, और
उसका वचन हम में नहीं है” (1 यूहन्ना 1:8, 10) – ध्यान
कीजिए कि वह प्रेरित और उद्धार पाया हुआ होने के बावजूद, “हम” शब्द के प्रयोग
द्वारा, अपने आप को भी पाप करने वालों में सम्मिलित कर रहा है। तो फिर अब विश्वास
से भटके और न भटके हुए में क्या अन्तर रह गया? पाप विश्वास से भटकने वाले ने भी
किया, और पाप उन्होंने भी किया है और करते हैं जो अभी भी विश्वास में बने हुए हैं –
और क्योंकि पाप की मजदूरी मृत्यु है (रोमियों 6:23), इसलिए दोनों ही समान स्थिति
में हैं, और दोनों ही अपने कैसे भी कार्यों या कर्मों के द्वारा अथवा उनके आधार पर
नहीं वरन प्रभु के अनुग्रह, क्षमा, और प्रेम द्वारा ही परमेश्वर के सम्मुख धर्मी
ठहरते हैं, और दोनों ही फिर स्वर्ग जाने के लिए प्रभु के अनुग्रह और क्षमा द्वारा
ही स्वीकार्य माने जाते हैं।
इसलिए ऐसे
लोगों के लिए जो विश्वास से भटक गए हैं प्रार्थना करते रहना चाहिए, न कि उनकी भर्त्सना करनी चाहिए; और उनका विश्वास में लौट कर आना तथा प्रभु के लिए उपयोगी होना प्रभु के
हाथों में, उसके समय और योजना के अनुसार, पूरा होने के लिए छोड़ देना चाहिए।
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