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रविवार, 25 अप्रैल 2021

मत्ती 17:1 के छः दिन, या, लूका 9:28 के आठ दिन – कौन सा सही है?

 

  प्रश्न: 

    मत्ती 17:1 और लूका 9:28 में दिनों की संख्या में असंगति क्यों है? कौन सा वर्णन सही है?


  उत्तर:

    प्रश्न चुनौतीपूर्ण अवश्य लगता है, और सामान्य अवलोकन में एक ही घटना के वर्णन में परमेश्वर के वचन में असंगति, विरोधाभास प्रतीत होती है। इसका उत्तर भी बाइबल की व्याख्या के मूल सिद्धांतों पर आधारित है, जिनकी अनदेखी करने के कारण इस प्रकार के अनुचित विरोधाभास उत्पन्न हो जाते हैं, यद्यपि ऐसा कोई भी विरोधाभास परमेश्वर के वचन में नहीं है। बाइबल व्याख्या के ये अनिवार्य एवं मूल सिद्धांत हैं – बाइबल के प्रत्येक शब्द, वाक्यांश, पद या खण्ड को हमेशा ही उसके सन्दर्भ में देखें, सन्दर्भ से बाहर निकाल कर के नहीं; और लिखे हुए प्रत्येक शब्द पर ध्यान दें क्योंकि परमेश्वर के वचन का कोई भी शब्द व्यर्थ नहीं है। साथ ही हमेशा इस बात का ध्यान रखें कि मूल लेख और भाषा में अध्यायों अथवा पदों का कोई विभाजन नहीं था। हमारी वर्तमान बाइबलों में पाए जाने वाले ये सभी विभाजन कृत्रिम हैं, बाइबल की पुस्तकों के संकलित किए जाने के सैकड़ों वर्ष बाद में बाइबल का अध्ययन सहज करने, और उसके किसी भाग का सरलता से हवाला दे पाने के उद्देश्य से डाले गए हैं। इसलिए हमें सदा ज़ारी विषय और विचार के अनुसार बाइबल की बातों को देखना और समझना चाहिए, न कि उन विषयों और विचारों के किए गए इस कृत्रिम विभाजन के अनुसार। अब इन सिद्धांतों के आधार पर इन दोनों पदों को देखते हैं: 


  मत्ती 17:1 में लिखा है “छ: दिन के बाद यीशु ने पतरस और याकूब और उसके भाई यूहन्ना को साथ लिया, और उन्हें एकान्‍त में किसी ऊंचे पहाड़ पर ले गया।”


  और, लूका 9:28 में लिखा है इन बातों के कोई आठ दिन बाद वह पतरस और यूहन्ना और याकूब को साथ ले कर प्रार्थना करने के लिये पहाड़ पर गया।”


  लूका 9:28 अपनी बात के सन्दर्भ को स्पष्ट व्यक्त कर देता है - इन बातों के कोई आठ दिन बाद” – इसलिए यह अब पाठक पर है कि वह इस सन्दर्भ “इन बातों” को देखे और समझे, और तब इस पद की शेष बातों के साथ उसे मिलाकर, फिर उसकी वास्तविकता को समझे। कृपया इस बात का भी ध्यान कीजिए कि “बातों” (बहु वचन) लिखा गया है, न कि “बात” (एक वचन) – अर्थात लूका 9:28 के इस कथन से पहले जो कुछ बातें हुई हैं, उन बातों के आठ दिन के बाद फिर यह घटना हुई है। लूका 9:28 से पहले के पदों पर ध्यान करें तो तुरंत पहले, 9:18-27 में, शिष्यों के साथ प्रभु की एक महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा हो रही है, जो मत्ती 16:20-28 के समानान्तर है, और “इन बातों” में से ‘एक’, तथा अंतिम बात है। किन्तु इस चर्चा के होने से पहले भी कुछ और ‘बातें’ होकर चुकी हैं। इस चर्चा से पहले, 9:11-17 में, पाँच रोटी और दो मछलियों से प्रभु के द्वारा पाँच हजार से भी अधिक की भीड़ के खिलाए जाने का आश्चर्यकर्म है; और उससे भी पहले प्रभु द्वारा शिष्यों के प्रचार के लिए भेजे जाने (9:1-6) और हेरोदेस के घबराने और प्रभु यीशु को लेकर असमंजस में पड़ने (9:7-8), और चेलों के प्रचार से लौट कर आने और अपने किए हुए कार्यों को प्रभु को बताने (9:10) की बातें हैं। ये सभी ‘बातें’ (बहु वचन) मिलकर लूका 9:28 का सन्दर्भ बनाती हैं। अर्थात, सन्दर्भ के अनुसार, लूका 9:28 को इस प्रकार से समझना चाहिए – शिष्यों के प्रचार पर जाने और लौटने, फिर उनके एकांत स्थान पर जाने, वहाँ पर भीड़ के एकत्रित होने तथा प्रभु द्वारा उन्हें आश्चर्यकर्म के द्वारा भोजन करवाने, आदि “बातों के आठ दिन के बाद” प्रभु तीन शिष्यों को लेकर पहाड़ पर गया।


  जब कि मत्ती 17:1 का संदर्भ, इस से पहले के अध्याय का अंतिम भाग – मत्ती 16:21-28 है, जो लूका 9:18-27 की प्रभु की शिष्यों की चर्चा के साथ सामान्य है, और लूका 9:28 की “इन बातों”” के सन्दर्भ की अंतिम घटना है। प्रभु यीशु और शिष्यों के मध्य हुई इस चर्चा, जिसमें पतरस को प्रभु का सलाहकार और मैनेजर बनने के प्रयास के कारण अच्छे से डांट भी पड़ी (मत्ती 16:22-23), के “छः दिन के बाद” प्रभु यीशु तीन शिष्यों को लेकर पहाड़ पर गया।


  दोनों वृतांतों के संदर्भ का ध्यान रखते हुए इन पदों को देखने और समझने से स्वाभाविक निष्कर्ष सामने आता है कि लूका 9:1-17 की “बातों” के होने के “आठ दिन के बाद, और शिष्यों के साथ हुई प्रभु की चर्चा (मत्ती 16:21-28; लूका 9:18-27), के “छः दिन के बाद” प्रभु अपने उन तीन शिष्यों के साथ पहाड़ पर गया।


  इसलिए इन दोनों वृतांतों में कोई विरोधाभास नहीं है; लूका 9:1-27 की सभी बातों को होने में दो दिन लगे, और उन में से अंतिम बात, शिष्यों के साथ प्रभु की वह चर्चा जो मत्ती 16:28 और लूका 9:27 में समाप्त हुई, और इस के छः दिन के पश्चात प्रभु यीशु अपने शिष्यों को साथ लेकर पहाड़ पर गया।


परमेश्वर का वचन निर्विवाद, अटल, खरा और विश्वासयोग्य है; यदि कोई गलती प्रतीत भी होती है, तो यह हम मनुष्यों के उसे ठीक से देखने और समझने की कमी के कारण है, न कि वचन में कोई कमी होने के कारण। सभी पाठकों से निवेदन है, कृपया जब भी परमेश्वर के वचन में कुछ असंगत अथवा विरोधाभास प्रतीत हो, तो कृपया सन्दर्भ और अन्य बातों के साथ उस भाग का बारंबार अध्ययन करें, और विचार करें; परमेश्वर से उसके विषय प्रार्थना करें। साथ ही अध्याय और पदों के विभाजन की अनदेखी करते हुए, ज़ारी विषय या विचार के अनुसार संपूर्ण वृतांत या घटना अथवा चर्चा को देखने और विश्लेषण करने का प्रयास करें।

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