इसे ठीक से समझने के लिए, याकूब
5:16 को उसके संदर्भ में देखा जाना चाहिए – याकूब
5:13-18 के एक भाग के समान। जब हम ऐसा करते हैं, तो यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि इन पदों में दो प्रक्रियाओं के विषय में
कहा गया है – शारीरिक चंगाई तथा पाप। जबकि याकूब 5:16
में कही गई शारीरिक चंगाई 5:14-15aमें दी गई
चंगाई के विचार के साथ संबंधित है; याकूब 5:16 में कही गई पापों को मान लेने की बात उन पापों के क्षमा से संबंधित या
क्षमा के लिए नहीं है – क्योंकि, उसके
लिए तो पहले ही 5:15 में ही कह दिया गया है कि वे क्षमा हो
चुके हैं, 5:16 में एक दूसरे के सामने उन्हें मान लेने के
लिए कहने से भी से पूर्व। यहाँ पर हिन्दी में “मान लेने” अनुवाद किए गए के लिए जो मूल
यूनानी भाषा में शब्द आया है वह है, ‘exomologeo (एक्सो-मोलो-जियो)’, जिसका अर्थ होता है स्वीकार कर लेना या (स्वीकृति
के अभिप्राय से) पूर्णतः सहमत होना, (Strong’s Bible
Dictionary).
इसे और बेहतर समझने के लिए, हमें इस विचार से
संबंधित दो अन्य हवालों को ध्यान में रखना चाहिए। इन दो हवालों में पहला है,
1 यूहन्ना 1:8-10, जहाँ प्रेरित यूहन्ना, ‘हम’,
तथा वर्तमान काल के ‘है’ (‘था’ की बजाए) के प्रयोग के द्वारा कह रहा है कि सभी – स्वयँ उसके सहित, पाप करते हैं, अब
भी; और दूसरा हवाला है, गलातियों
6:1-2, जहाँ पौलुस प्रेरित अन्य मसीही विश्वासियों को उभार रहा है कि वे उन अन्य
मसीही विश्वासियों को उठाने और बहाल करने में सहायक बनें जो किसी प्रकार से किसी ‘अपराध’
या परीक्षा’ में गिर गए हैं, अर्थात जिन्होंने कुछ गलत कर दिया है; और साथ ही सहायता करने वालों को स्वयँ भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे भी
किसी भी समय ऐसी ही किसी परिक्षा में गिर सकते हैं। ये हवाले हमें इस तथ्य को
सीखने और समझने में सहायता करते हैं कि बाइबिल के अनुसार, परिपक्व और स्थापित
मसीही विश्वासियों की भी पाप में गिर जाने की संभावना बनी रहती है, वे अपराध कर
सकते हैं, तथा उनसे अपेक्षित नैतिकता के स्तरों से गिर सकते
हैं। दूसरे शब्दों में, कोई भी ऐसा नहीं है जो सिद्ध हो या
ठोकर खाने से ऊपर हो, प्रत्येक को सदा ही परमेश्वर के अनुग्रह की आवश्यकता बनी
रहती है, प्रभु के प्रति सत्यनिष्ठ और खरा बने रहने के लिए
प्रभु से क्षमा और सामर्थ्य की आवश्यकता रहती है, और ऐसे भी
समय हो सकते हैं जब उन्हें प्रभु द्वारा किसी गलत बात से निकाले जाने की आवश्यकता
पड़ जाए।
उपरोक्त को ध्यान में रखते हुए, हम वापस याकूब 5:16
पर आते हैं, और अब हम यह तात्पर्य समझ सकते हैं कि यह पद सिखा रहा है कि “अपनी
दृष्टि में बहुत धर्मी मत बनो, और न ही ढोंगी बनो; अपने आप
को ‘औरों से अधिक धर्मी’ मत समझो, यह धारणा मत रखो कि तुम अपने
आस-पास के और सभी लोगों से बढ़कर या उत्तम हो। वरन, नम्र रहो
तथा यही मानने या स्वीकार करने का रवैया रखो कि तुम भी ठोकर खा सकते हो, गिर सकते
हो, इसलिए ‘आपस में एक दूसरे के साम्हने अपने अपने पापों को
मान लो ’ अर्थात औरों के सामने यह मानने और स्वीकार करने का रवैया रखो कि तुम
भी औरों के समान ही गलती करने तथा पाप में पड़ने की प्रवृत्ति रखते हो, और जब भी
तुम ऐसे गिर जाओ तो अपनी बहाली के लिए तुम्हें भी औरों की सहायता तथा प्रार्थनाओं
की आवश्यकता होगी।”
यह पद यह नहीं सिखा रहा है कि हम जब भी पाप में
पड़ें तो अपने आस-पास के लोगों के सामने जाकर उन पापों का वर्णन करें, और हमारे ऐसा करने से उन पापों की क्षमा में सहायता होगी। वरन, इस पद का अभिप्राय है कि घमण्डी या हठधर्मी होने के स्थान पर, हमें नम्र तथा औरों द्वारा सुधारे जाने के प्रति खुले रहना चाहिए; जब भी कोई अन्य हम में कोई कमी या अनुचित बात देखे और उसे हमारे सामने लाए।
जब भी हमारे पाप या अपराध हमारे सामने लाए जाते हैं, हमें
दीन और नम्र होकर उन्हें स्वीकार (‘मान’) कर लेना वाला होना चाहिए। हमें
अन्य मसीही विश्वासियों की प्रार्थनाओं की सहायता लेनी चाहिए कि हम ऐसे नम्र बने
रहें, या यदि गलत परिस्थिति में आ गए हैं तो उससे निकाले
जाएँ, क्योंकि परमेश्वर के लोगों की प्रार्थनाएं किसी भी
परिस्थिति में बचाव और छुटकारे के लिए एक बहुत प्रभावी और कारगार उपाय हैं।