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गुरुवार, 17 जनवरी 2019

गैर-मसीही वैवाहिक रीति-रिवाजों का मसीही विश्वास में स्थान


एक गैर-मसीही पृष्ठभूमि से मसीही विश्वासी हो जाने के पश्चात, क्या मसीही विश्वास उस भूत-पूर्व गैर-मसीही धर्म के रीति-रिवाजों के अनुसार एक अन्य मसीही विश्वासी से विवाह करने की अनुमति देती है?


जैसा आपको भली-भांति पता होगा, गैर-मसीही धर्मों के रीति-रिवाजों में उन देवी-देवताओं या अलौकिक सामर्थों का आह्वान किया जाता है जिन्हें उस धर्म में पूजनीय एवँ ईश्वरीय समझा जाता है। विवाह के वचन उन्हीं देवी-देवताओं तथा अलौकिक सामर्थों के नाम से लिए जाते हैं, इस विश्वास के साथ कि वे वहाँ उस विवाह के साक्षी बनकर उपस्थित हैं तथा भविष्य में वे ही विवाह की रक्षा और निश्चितता प्रदान करेंगे। इसका यह तात्पर्य हुआ कि उन रीति-रिवाजों में भाग लेने के द्वारा आप एक प्रकार से यह मान रहे हो कि प्रभु यीशु मसीह के अतिरिक्त भी ईश्वरीय शक्तियाँ हैं, और आप उन्हें सम्मानित करने तथा पूजने के लिए तैयार हैं, अपने जीवन में उनकी सामर्थ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, और भविष्य में भी अपने जीवन में ऐसे ही किसी भी अन्य अवसर पर उनके योगदान और स्थान को स्वीकार करते हैं। एक बार आप इस प्रकार के समझौते के लिए सहमत हो जाएँगे तो फिर इस आधार पर आपको बारंबार ऐसे ही समझौते करने के लिए बाध्य किया जा सकता है।

यह न केवल आपके अपने आत्मिक जीवन तथा प्रभु यीशु में विश्वास के लिए हानिकारक होगा, परन्तु अन्य अनेकों मसीही विश्वासियों के लिए भी ठोकर का कारण हो सकता है, जिससे आपके जीवन में प्रभु की ताड़ना को अवसर होगा (मरकुस 9:42)। किन्तु एक बार जब आप इस विषय पर एक दृढ़ निर्णय लेकर स्थिर खड़े हो जाएँगे, समझौता करने से इन्कार कर देंगे, तो प्रभु यीशु के प्रति आपके समर्पण की दृढ़ता तथा उसमें आपके विश्वास की स्थिरता सब पर प्रगट हो जाएगी, और वे अन्य अवसरों पर भी समझौता करने के लिए आपको उकसाने में संकोच करेंगे, तथा आप आत्मिक जीवन में और उन्नत तथा परिपक्व हो जाएँगे।

परन्तु मसीही विश्वास में दृढ़ होने में, औरों के प्रति नम्र और आदरपूर्ण भी बने रहें। मसीही विश्वास में दृढ़ होने का यह कदापि अर्थ नहीं है कि आप औरों की मान्यताओं, रीति-रिवाजों, और पूजनीय वस्तुओं के प्रति बुरा या उन्हें नीचा दिखाने या कटु शब्द कहने वाला व्यवहार रखें – ऐसा करने से बात केवल बिगड़ेगी, और आपकी कोई सहायता नहीं होगी, और इससे प्रभु यीशु के बारे में सुनने में उनकी रुचि उत्पन्न होने में बाधा आएगी। प्रभु यीशु के प्रति अपनी दृढ़ता दिखाने और अपने मसीही विश्वास के साथ समझौता न करने में उनकी मान्यताओं और पूजनीय वस्तुओं के प्रति हीनता की कोई टिप्पणी न करें।

यद्यपि सर्वोत्तम तो मसीही विश्वास के अनुसार मसीही रीति से विवाह करना है, किन्तु यदि इस बात की संभावना नहीं रहती है और कोई अन्य मार्ग नहीं बचता है तो ऐसे में, समझौते का एक संभव मार्ग है “कानूनी विवाह” या “न्यायालय में विवाह” कर लिया जाए, क्योंकि ऐसे विवाह में कोई धार्मिक अनुष्ठान या रीति-रिवाज़ नहीं होते हैं, इसलिए दोनों ही पक्ष दूसरे के धार्मिक अनुष्ठानों के निर्वाह करने या उन्हें चुनौती देने से बचे रह सकते हैं। ऐसे विवाह के पश्चात आप विवाह के प्रीति-भोज या समारोह में चर्च के अगुवों द्वारा नव-विवाहितों को आशीष देने का आयोजन कर सकते हैं; तथा उस समारोह में किसी प्रचारक या मसीही अगुवे के द्वारा वहाँ उपस्थित सभी परिवार जनों को सुसमाचार सन्देश देने का यह एक अच्छा अवसर भी हो सकता है। इस प्रकार से विवाह भी वैध तथा स्वीकार्य रहेगा, किसी के भी परिवार को धार्मिक आधार पर कोई ठेस नहीं पहुंचेगी, और समारोह में उपस्थित लोगों को उद्धार का सुसमाचार देने का अवसर भी मिल जाएगा।

गुरुवार, 3 जनवरी 2019

पवित्र आत्मा की निन्दा को कभी न क्षमा होने वाला पाप क्यों कहा गया है?


        कभी न क्षमा होने वाला पाप “पवित्र आत्मा की निन्दा या निरादर को लेकर बहुत सी ग़लतफ़हमियाँ हैं, जिसके कारण इस अभिव्यक्ति का दुरुपयोग भी किया जाता है। यह निंदनीय है कि बहुत से प्रचारक तथा शिक्षक, मसीही विश्वासियों के मनों में अनुचित भय जागृत करने के लिए इस धारणा का दुरुपयोग करते हैं, जिससे कोई उनसे, उनके कार्यों और शिक्षाओं के लिए प्रश्न न कर सके। ऐसा करके ये लोग, प्रश्न करने वालों पर “पवित्र आत्मा का निरादर” करने का भय एवं आरोप लगाने के द्वारा, उनकी बहुत सी गलत सैद्धांतिक एवं विश्वास संबंधी शिक्षाओं, तथा उनके जीवन में पाए जाने वाले अनुचित व्यवहार के प्रति लोगों के मुंह बंद करते हैं। यह समझने के लिए कि यह “निरादर” वास्तव में है क्या, और यह क्यों केवल पवित्र आत्मा के विरुद्ध ही क्षमा नहीं हो सकता है, हमें परमेश्वर के वचन में से कुछ तथ्यों एवं शिक्षाओं को देखना होगा।

           सर्वप्रथम, यह केवल पवित्र आत्मा के विरुद्ध ही क्यों कहा गया है?
           परमेश्वर का वचन बाइबल हमारे प्रभु परमेश्वर को त्रिएक परमेश्वर दिखाती है, परमेश्वर पिता, परमेश्वर पुत्र प्रभु यीशु मसीह, और परमेश्वर पवित्र आत्मा। ये तीनों हर प्रकार से और हर बात में पूर्णतः एक और सामान हैं, इन तीनों में कोई भी, किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं है पवित्र त्रिएक परमेश्वर एक परमेश्वर तीन व्यक्तित्वों में। तो फिर ऐसा क्यों है की केवल “पवित्र आत्मा के निरादर” के लिए ही इतने कठोर परिणाम दिए गए हैं, और इन ही परिणामों का न तो कोई संकेत और न ही कोई दावा परमेश्वर पिता, या परमेश्वर पुत्र – प्रभु यीशु के विरुद्ध किए गए निरादर के लिए कहा गया है?

           इसे समझने के लिए त्रिएक परमेश्वर के तीन व्यक्तित्वों के संबंध में कुछ बारीकियों को देखना होगा।
           परमेश्वर पुत्र – प्रभु यीशु मसीह, जब पृथ्वी पर हमारे उद्धारकर्ता बन कर आए, तो वे अपनी स्वर्गीय महिमा, वैभव, स्वरूप, और स्थान को छोड़कर आए थे। बाइबल बताती है कि मानव स्वरूप में उन्होंने अपने आप को स्वर्गीय महिमा से शून्य कर लिया और वे स्वर्गदूतों से थोड़ा कम किए गए थे (फिलिप्पियों 2:5-8; इब्रानियों 2:9)। इस मानवीय स्वरूप में, वे संसार के पाप उठाने और संसार के छुटकारे के लिए बलिदान होने के लिए आए थे। इसके लिए उनका, तुच्छ समझा जाना, उनके विरुद्ध बोला जाना, उनका दुःख और ताड़ना सहना, और संसार के लोगों से तिरिस्कृत एवं निरादर होना, पूर्वनिर्धारित था (यशायाह 53)। उन्हें भी वही सब अनुभव करना और सहना था जिसमें होकर संसार के लोग निकलते हैं; उन्हें किसी भी अन्य मनुष्य के सामान जीवन जीना था (इब्रानियों 4:15; 5:7-8), और अंततः क्रूस की श्रापित मृत्यु सहन करनी थी। उनके इस मानवीय स्वरूप और अस्तित्व के सन्दर्भ में, मृत्यु सहने के लिए स्वर्गदूतों से कुछ कम किए जाने से, उनका यह मानवीय स्वरूप उनके त्रिएक परमेश्वरीय स्वरूप से कुछ “कम” था। इसलिए उनके मानवीय स्वरूप की निंदा या निरादर का दोष, जिसे उन्हें सहना ही था, परमेश्वर पवित्र आत्मा के निरादर से कुछ कम और भिन्न होता। क्योंकि हमारे प्रभु को हमारे उद्धार का मार्ग प्रदान करने की अपनी सेवकाई के दौरान अपमान और तिरिस्कार सहना निर्धारित किया गया था, इसलिए उनके (अर्थात उनके मानव स्वरूप के) विरुद्ध कही गई, या कही जाने वाली निंदनीय बातों को क्षमा न हो सकने वाल पाप कहना उनके पृथ्वी पर आने के उद्देश्य को ही विफल कर देता, और संसार को छुटकारे के स्थान पर नाश में भेज देता। इसलिए परमेश्वर पुत्र की निंदा को क्षमा न हो सकने वाला पाप नहीं कहा जा सकता था।

           परमेश्वर पिता के संदर्भ में, शब्द “परमेश्वर” और “पिता” सभी संस्कृतियों और धर्मों में सामान्यतः प्रयोग किए जाने वाले शब्द हैं, जिन्हें नास्तिक और धर्म को न मानने वाले भी प्रयोग करते रहते हैं; बहुधा सौगंध खाने और अपशब्दों के साथ भी, जैसे कि, “अरे मेरे परमेश्वर/या ख़ुदा” “परमेश्वर नाश करे,” “परमेश्वर के श्रापित,” “परमेश्वर की सौगंधआदि। किसी व्यक्ति द्वारा इन शब्दों का प्रयोग करने का यह अर्थ नहीं है कि वह इन्हें पवित्र त्रिएक परमेश्वरत्व में से पिता परमेश्वर के लिए प्रयोग कर रहा है। इसी प्रकार से शब्द “पिता” भी संसार भर में अनेकों अभिप्रायों के साथ प्रयोग किया जाता है, और इसे भी बहुधा अपशब्दों और सौगंध लेने में भी प्रयोग किया जाता है। इसलिए शब्द “पिता” तथा शब्द “परमेश्वर”, जो कि किसी भी मत अथवा धर्म में किसी आराध्य के लिए प्रयोग हो सकता है, का किसी भी प्रकार से दुरुपयोग, यदि उसे परमेश्वर के निरादर की परिभाषा से पृथक नहीं रखा जाता, तो स्वतः ही शब्दों का इस प्रकार से प्रयोग करने वाला व्यक्ति, तुरंत ही सदा काल के लिए दोषी ठहराया जाता, और उसके पास फिर कभी उद्धार पाने का कोई अवसर नहीं रहता। इसलिए ये दोनों शब्द “पिता” एवं “परमेश्वर” का दुरुपयोग कभी क्षमा न हो सकने वाले पापों में सम्मिलित नहीं किए जा सकता था।

           अब पवित्र त्रिएक परमेश्वरत्व में केवल परमेश्वर पवित्र आत्मा ही शेष रहा। यहां पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण ध्यान देने योग्य बात यह है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा का विचार केवल मसीही और यहूदी धर्म-विचारधारा में ही पाया जाता है; संसार के अन्य किसी भी धर्म या विश्वास में यह विद्यमान नहीं है। क्योंकि पवित्र आत्मा के बारे में पुराने नियम के समय में भी लोगों को भली-भांति पता था (उदाहरण के लिए, उत्पत्ति 1:2; भजन 104:30; 139:7 आदि) – जो कि वह पवित्र शास्त्र है जिसे फरीसी, सदूकी, और शास्त्री पढ़ा करते थे, इसलिए वे किसी भी प्रकार से उनके विषय अनभिज्ञ होने का दावा नहीं कर सकते थे, और न ही उनके त्रिएक परमेश्वर का भाग होने से अनजान होने का कह सकते थे। इसलिए, परमेश्वर पिता तथा परमेश्वर पुत्र के विषय में उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए, मूलतः, पवित्र आत्मा के विरुद्ध कही गई निरादर की कोई बात ही एकमात्र सच्चे परमेश्वर की निंदा मानी जा सकती है। पवित्र परमेश्वर के विरुद्ध बात करना वही पाप है जिसके कारण लूसिफर गिराया गया (यशायाह 14:12-14; यहेजकेल 28:12-15), और शैतान बन गया सदा काल के लिए परमेश्वर और उससे संबंधित किसी बात का विरोधी। लूसिफर ने परमेश्वर की महिमा और महानता के विरुद्ध बलवा किया और बातें करीं, परमेश्वर को उसके समस्त महिमा, वैभव, महानता, अधिकार और सामर्थ्य में भली-भाँति जानने के बावजूद; जानकारी रखते हुए भी जानबूझकर किया गया यह विद्रोह लूसिफर के लिए क्षमा न होने वाला पाप बन गया, और उसे शैतान बना दिया, तथा उसे स्वर्ग से निष्कासित कर दिया गया।

           परमेश्वर की पवित्रता, वैभव, और महानता के विरुद्ध किए गए निरादर के इस पाप को यदि हमारे लिए क्षमा योग्य बना दिया जाता, तो फिर परमेश्वर के उच्च तथा निष्पक्ष न्याय की मांग होगी की लूसिफर को भी क्षमा मिलनी चाहिए और यह परमेश्वर की पवित्रता, वैभव, महानता, और पूर्ण सार्वभौमिकता का उपहास हो जाएगा। लूसिफर का पाप न केवल अत्यंत जघन्य था, वरन क्योंकि उसके पतन के समय, किसी ने भी किसी के पाप की कोई कीमत नहीं चुकाई थी, जैसे कि मसीह यीशु ने हमारे लिए चुका दी है, इसलिए पाप के लिए कोई प्रायश्चित का समाधान उपलब्ध भी नहीं था; इसका निवारण दंड के द्वारा ही संभव था। ऐसी परिस्थिति में, मात्र क्षमा की प्रार्थना का स्वीकार किए जाने का अर्थ होता स्वर्गीय स्थानों में अनियंत्रित अव्यवस्था एवं अराजकता को निमंत्रण देना। कोई भी सृजा गया प्राणी अपनी इच्छानुसार कुछ भी कर लेता और, बस क्षमा मांग कर उसके परिणामों से बच निकालता और यह कदापि स्वीकार नहीं की जा सकने वाली स्थिति हो जाती। इसलिए यह अनिवार्य था कि लूसिफर से उसके द्वारा किए गए इस निरादर के पाप का हिसाब लिया जाए और उसे पाप का दण्ड भोगने का उदाहरण बना कर प्रस्तुत किया जाए। लूसिफर को उचित दण्ड दिया ही जाना था; ऐसा दण्ड जो उसके पाप के घोर और जघन्य होने के अनुपात में हो। यदि परमेश्वर के निरादर का पाप एक के लिए क्षमा होने योग्य नहीं है, तो फिर परमेश्वर के निष्पक्ष न्याय के अनुसार, यह औरों के लिए भी क्षमा नहीं किया जा सकता है। इसीलिए, पवित्र आत्मा के विरूद्ध निरादर के पाप को भी कभी क्षमा नहीं किया जा सकता है।

           दूसरा, अब हम देखते हैं की शब्द ‘निंदा या निरादर’ का, उसके क्षमा न हो सकने वाले पाप के सन्दर्भ में, परमेश्वर के वचन में अभिप्राय क्या है। हम मिकल्संस एन्हांस्ड डिक्शनरी ऑफ़ द ग्रीक एंड हीब्र्यु टेस्टामेंट्स से देखते हैं कि यह शब्द यूनानी शब्द ब्लास्फेमियो” (स्ट्रौंग्स G987) से आया है, जिसका अर्थ है:
1. धिक्कारना, अपशब्द के साथ विरोध में बोलना, हानि पहुंचाना।
2. कलंकित करना, किसी की प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाना, बदनाम करना।
3. (विशेषतः) किसी के प्रति निरादर पूर्वक बोलना।

           इस शब्द की उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि, यह निरादर का पाप एक ऐच्छिक, जानबूझकर योजनानुसार किया गया कार्य है; जो तथ्यों पर आधारित हो सकता है अथवा नहीं भी हो सकता है, वरन जो तथ्यों का दुरुपयोग करके उन तथ्यों के यथार्थ से बिलकुल भिन्न अभिप्राय देने के द्वारा किया गया भी हो सकता है। और यह केवल व्यक्ति को नीचा दिखाने और बदनाम करने के उद्देश्य से किया गया हो जो चाहे सही हो या गलत। सीधे शब्दों में, निरादर व्यक्ति को दुष्ट कहना और इसका प्रचार करना है यह भली-भांति जानते हुए भी कि वह व्यक्ति बुरा नहीं है; और उसके बुरा न होने के प्रमाण होते हुए भी, उसे बदनाम करने के उद्देश्य से, जानबूझकर ऐसा करना।

           पवित्र आत्मा के विरुद्ध निरादर का पाप पवित्र आत्मा या उसकी सामर्थ्य अथवा कार्यों के प्रति असमंजस में या अनिश्चित होना, या उस पर संदेह करना, या उसके विषय कोई स्पष्टीकरण की अपेक्षा करना, या कुछ और अधिक खुलासा अथवा विवरण माँगना नहीं है, यह इस बात से भली-भांति प्रकट होता है की यद्यपि प्रभु के कार्य पवित्र आत्मा के अभिषेक और सामर्थ्य के साथ किए गए थे (प्रेरितों 10:38), किन्तु फिर भी अनेकों को, जिन में नए नियम के कुछ बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति भी सम्मिलित हैं, प्रभु तथा उसकी सेवकाई के प्रति संदेह था, यहाँ तक कि अविश्वास भी थायूहन्ना बप्तिस्मा देने वाले को संदेह हुआ की क्या प्रभु वह प्रतिज्ञा किया हुआ मसीहा था भी की नहीं (मत्ती 11:2-3); प्रभु के शिष्यों को ही उस पर संदेह था की वह वास्तव में है कौन (मरकुस 4:38-41); प्रभु यीशु के अपने भाई भी उस पर विश्वास नहीं रखते थे (यूहन्ना 7:5); दुष्टात्मा के वश में लड़के के पिता को संदेह था कि वह उसके पुत्र को ठीक कर सकता है कि नहीं (मरकुस 9:24); मृतक लाज़रस की बहिन मार्था को संदेह था, कि प्रभु लाज़रस को मृतकों में से जिलाने पाएगा (यूहन्ना 11:21-28); थोमा को प्रभु के पुनरुत्थान पर संदेह था (यूहन्ना 20:25) इत्यादि। किन्तु इन में से किसी को भी प्रभु ने उनके प्रश्नों, संदेहों, और अविश्वास के कारण कभी क्षमा न हो पाने वाले पाप का दोषी न तो कहा और न इसके लिए उन्हें दण्डित किया। पवित्र आत्मा का प्रतिरोध करने और उसके अनाज्ञाकारी होने की निंदा अवश्य की गई है (प्रेरितों 7:51-53), परन्तु इस “कभी क्षमा न होने वाला पाप” नहीं कहा गया है।

           यहाँ तक कि प्रभु के विरोध में भद्दी या अपमानजनक भाषा के उपयोग को (पतरस द्वारा प्रभु का तीन बार असभ्य भाषा के प्रयोग के साथ किया गया इनकार – मत्ती 26:69-74), भी बाइबल में अनादर या क्षमा न होने वाला पाप नहीं कहा गया है। हमें यह स्मरण करना और ध्यान करना आवश्यक है कि केवल फरीसी, सदूकी, और शास्त्री ही नहीं थे जिन्होंने प्रभु यीशु में दुष्टात्मा होने का दोषारोपण किया था, आम लोगों में से भी कई लोगों ने यही कहा था (मत्ती 10:25; मरकुस 3:21; यूहन्ना 7:20; 8:48, 52; 10:20); परन्तु इन में से किसी भी अवसर पर प्रभु यीशु ने न तो उन्हें क्षमा न होने वाले पाप का दोषी कहा और न ही उन्हें इसके विषय सचेत किया। ऐसे निरादर को कभी न क्षमा होने वाला पाप है, प्रभु ने केवल फरीसीयों से ही मरकुस 3:28-30 और लूका 12:10 में ही कहा है; क्यों?

           आईए देखते हैं की किस प्रकार से फरीसियों के लिए प्रभु यीशु का निरादर करना क्षमा न हो सकने वाले पाप ठहरा:
           यूहन्ना 3:1-3 को देखिए: “फरीसियों में से नीकुदेमुस नाम एक मनुष्य था, जो यहूदियों का सरदार था। उसने रात को यीशु के पास आकर उस से कहा, हे रब्बी, हम जानते हैं, कि तू परमेश्वर की आरे से गुरू हो कर आया है; क्योंकि कोई इन चिन्हों को जो तू दिखाता है, यदि परमेश्वर उसके साथ न हो, तो नहीं दिखा सकता। यीशु ने उसको उत्तर दिया; कि मैं तुझ से सच सच कहता हूं, यदि कोई नये सिरे से न जन्मे तो परमेश्वर का राज्य देख नहीं सकता। यहाँ, यह बिलकुल स्पष्ट है की निकुदेमुस प्रभु से जो कह रहा था, उसके अनुसार फरीसी भली-भांति जानते थे कि प्रभु यीशु परमेश्वर की ओर से गुरु होकर आए हैं, तथा उनके कार्य यह प्रमाणित करते थे कि परमेश्वर उनके साथ है, और उन में होकर काम कर रहा है। धर्म के अगुवे प्रभु यीशु के इससे पहले के जीवन के बारे में न तो अनभिज्ञ थे और न किसी संदेह में थे; वरन, वे इन सब बातों के बारे में अच्छे से जानते थे! और न ही प्रभु ने अपने बारे में उन्हें किसी संदेह में छोड़ा था। न केवल यहाँ पर, वरन अन्य अनेकों अवसरों पर, यहाँ तक कि उस समय तक भी जब उन्हें झूठे मुकद्दमों में दोषी ठहराने के प्रयास किए जा रहे थे, प्रभु ने यह बारम्बार स्पष्ट बता दिया था की वे कौन हैं (यूहन्ना 5:17-43; 8:25; 10:24; 14:11; लूका 22:67-70), परन्तु उन्होंने कभी भी प्रभु पर विश्वास नहीं किया (यूहन्ना 12:37), वरन यह सब जानते हुए भी, बुरे उद्देश्यों एवं स्वार्थी भावनाओं के अंतर्गत, उन्होंने प्रभु को मार डालने का षड्यंत्र रचा (यूहन्ना 11:47-50).

           दूसरे शब्दों में, यद्यपि यहूदियों के धार्मिक अगुवे यह भली-भांति जानते थे कि प्रभु यीशु वास्तव में कौन हैं, और यह भी कि परमेश्वर उनके साथ है, तथा उन में होकर कार्य कर रहा है, फिर भी जानबूझकर, स्वार्थी लाभ के लिए, उन्होंने प्रभु की अवहेलना की, उन पर अविश्वास किया, और सबसे बुरा यह कि जानबूझकर उनके बारे में लोगों का गलत मार्गदर्शन किया, उन सभी के समक्ष प्रभु के कार्यों और शिक्षाओं में होकर दिखाए जा रहे परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य को शैतानों के सरदार के सामर्थ्य कहने के द्वारा। उनका यह, प्रभु के विरोध में स्वार्थ के अंतर्गत जानबूझकर कही गई बात, प्रभु के बारे में जानकारी रखते हुए भी और यह जानते हुए भी कि प्रभु पर उनके द्वारा लगाए जाने वाले आरोप झूठे हैं, प्रभु का निरादर करना, उन्हें अपमानित करना, केवल इसे ही प्रभु ने पवित्र आत्मा के विरुद्ध किया गया कभी क्षमा न हो सकने वाला पाप कहा है।

           इसलिए, पवित्र आत्मा के विरुद्ध कभी क्षमा न हो सकने वाले पाप वह नहीं हैं जो बहुधा वर्तमान के अनेकों धार्मिक अगुवों के द्वारा कहे और बताए जाते हैं। बाइबल में यह वाक्यांश एक बहुत ही विशिष्ट अपराध के लिए प्रयोग किया गया है, और केवल उस अपराध को ही यह कहा जाना चाहिए।

सोमवार, 5 सितंबर 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 10: आराधना में अवरोध - परमेश्वर को ना जानना (i)

आराधना में अवरोध - परमेश्वर को ना जानना (i):

हम देख चुकें हैं कि परमेश्वर की आराधना का तात्पर्य है परमेश्वर को वह महिमा, आदर, श्रद्धा, समर्पण, बड़ाई, स्तुति, धन्यवाद आदि देना जिसके वह सर्वथा योग्य है (भजन 96:8), और जो उसका हक है। जैसे कि यदि किसी व्यक्ति के बारे में हमारी जानकारी ना हो तो हम उसके गुणों के बारे में ना तो बता सकते हैं, और ना ही औरों के सामने उसकी महिमा या बड़ाई कर सकते हैं; वैसे ही यदि हमें परमेश्वर के गुणों, विशेषताओं, कार्यों, योग्यताओं, हैसियत, सामर्थ, बुद्धिमता आदि के बारे जानकारी ना हो तो हम उसकी महिमा तथा आराधना नहीं कर सकते हैं। जैसे जितना हम किसी व्यक्ति को नज़दीकी से और व्यक्तिगत रीति से जानते हैं, उतना ही बेहतर हम उसका वर्णन करने पाते हैं, वैसे ही जितना नज़दीकी से और व्यक्तिगत रीति से हम परमेश्वर को अनुभव द्वारा जानने पाते हैं, उतना ही बेहतर हम उसकी महिमा और आराधना करने पाते हैं। किसी के बारे में जानना और वास्तव में उसे जानना भिन्न हैं, यद्यपि दोनों ही स्थितियों में हम उसके बारे में कुछ सीमा तक तो बोल और बता सकते हैं। लेकिन सच्चाई से परमेश्वर की आराधना कर पाना तब ही संभव है जब हम उसे वास्तव में व्यक्तिगत रीति से जानने लगें।

बहुत समय पहले मेरे साथ हुई एक घटना मुझे स्मरण आ रही है: मैं अपने एक निकट मित्र के साथ कुछ वार्तालाप कर रहा था, और उस वार्तालाप में उस समय के एक बहुत जाने-माने उच्च-श्रेणी के राष्ट्रीय नेता का ज़िक्र आया। वार्तालाप के प्रवाह को बिना बदले या बाधित किए, बड़ी ही हल्की रीति से उस नेता का नाम लेते हुए मेरा मित्र बोला, "अरे वो! उसे तो मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ"; फिर, उसी साँस में, आंखों में एक नटखट चमक तथा चेहरे पर एक मज़ाकिया मुस्कान लाकर मेरा मित्र आगे बोला, "लेकिन वो मुझे कितना जानता है, यह एक बिलकुल अलग बात है!"

बात की सच्चाई यह है कि मेरा वह मित्र उस नेता के बारे में तो जानता था, लेकिन उस नेता को नज़दीकी तथा व्यक्तिगत रीति से कदापि नहीं जानता था। यद्यपि वह उस नेता के बारे में बहुत कुछ बता सकता था, उसके बारे में वार्तालाप कर सकता था, लेकिन यह इस बात का प्रमाण नहीं था कि मेरा वह मित्र उस नेता को व्यक्तिगत रीति से भली भांति जानता है, उसके साथ निकट संबंध रखता है। ऐसी ही स्थिति हम में से अनेकों के साथ परमेश्वर के साथ हमारे संबंध को लेकर भी है। हम परमेश्वर के बारे में जानते हैं, अपने ज्ञान तथा सामान्य जानकारी के आधार पर हम उसके बारे में बहुत कुछ बता भी सकते हैं, परन्तु केवल एक ही बात है जो महत्वपूर्ण है, वह है कि क्या परमेश्वर के साथ हमारा एक निकट और व्यक्तिगत संबंध है; क्या हमने स्वयं निजी तौर पर उसे अनुभव कर के जाना है? क्या यह सच नहीं है कि सामान्यतः हम केवल उसके बारे में ही जानते हैं, परन्तु अपने निजी अनुभव तथा निकट एवं व्यक्तिगत संबंध द्वारा नहीं? क्या यह सच नहीं है कि सामन्यतः लोगों के लिए परमेश्वर के साथ संबंध रखना एक उत्साह-विहीन रस्म, यन्त्रवत कार्य, बेपरवाही का और ऊपरी, बाहरी दिखावे के लिए पूरी करी जाने वाली ज़िम्मेदारी है जिस के द्वारा कुछ धार्मिक अनुष्ठानों, रीति-रिवाज़ों और प्रथाओं का पालन हो सके?

नया जन्म पाने से परमेश्वर की सन्तान बन जाने वाले लोगों के बारे में भी यदि देखें तो - वे अपने स्वर्गीय परमेश्वर पिता को व्यक्तिगत अनुभव द्वारा और वस्तविकता में कितना जानते हैं तथा जानने का प्रयास करते हैं? उनके लिए उसकी योजनाओं और उन उम्मीदों को जो परमेश्वर उन से रखता है वे कितना जानते हैं तथा जानने का प्रयास करते हैं? उनके लिए परमेश्वर की इच्छाएं को तथा जो कार्य वह चाहता है कि उसके बच्चे करें उन कार्यों को वे कितना जानते हैं तथा जानने का प्रयास करते हैं? उसके वचन को जिसे उसने हमें दिया है कि वह हमारा मार्गदर्शक बने और परमेश्वर पिता के बारे में हमें सिखाए उस वचन को वे कितना जानते हैं तथा जानने का प्रयास करते हैं?


तो फिर इसमें कौन सी असमंजस की बात है कि नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी भी सार्वजनिक तौर पर अपना मुंह खोलकर परमेश्वर की आराधना के लिए कुछ शब्द बोलने में इतना अधिक हिचकिचाते हैं, अपने आप को असमर्थ पाते हैं
(...क्रमश:)

शनिवार, 3 सितंबर 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 9 – आराधना द्वारा विजय


आराधना द्वारा विजय


हमने परमेश्वर की आराधना और महिमा विषय से आरंभ किया था, और यह देखा कि प्रार्थना परमेश्वर से पाने से संबंधित है जब कि आराधना परमेश्वर को देने से। परमेश्वर की आराधना तथा उसे देने की आशीष को सीखने तथा समझने के लिए हमने परमेश्वर के वचन में से परमेश्वर को देने और परमेश्वर से पाने से संबंधित कुछ उदाहरणों को देखा; ये उदाहरण मुख्यतः पार्थिव और भौतिक वस्तुओं से संबंधित हैं, परन्तु इनमें एक आत्मिक पक्ष भी विद्यमान है।

हम उदाहरणों की इस श्रंखला का अन्त एक ऐसे उदाहरण से करेंगे जो दिखाता है कि कैसे आराधना के द्वारा विजय और बहुतायत की आशीषें प्राप्त हुईं। कृपया 2 इतिहास 20 को पढ़ें; स्थान के अभाव के कारण इस अध्याय पर पूरी व्याख्या करना यहाँ संभव नहीं होगा। बहुत संक्षिप्त में, परमेश्वर के भय में चलने वाले राजा यहोशापात को पता चलता है कि उस पर तीन जातियाँ, अम्मोनी, मोआबी और एदोमी, मिलकर आक्रमण करने वाली हैं। अपनी इस विकट परिस्थिति का एहसास होने पर, वह सारी परिस्थिती परमेश्वर के हाथों में समर्पित कर देता है, और अपनी सारी प्रजा के साथ परमेश्वर द्वारा छुटकारा पाने के लिए उससे प्रार्थना में लग जाता है। परमेश्वर उसे आश्वासन देता है कि परमेश्वर यहोशापात के लिए लड़ेगा और यहोशापात को कोई हानि उठानी नहीं पड़ेगी; उसे केवल अपनी सेना को तैयार करके युद्ध भूमि पर ले जाना होगा, युद्ध की सी पांति बान्ध कर उन्हें खड़ा करना होगा और फिर शान्त होकर खड़े रहें और परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य को देखें (2 इतिहास 20:14-17)। यहोशापात और उसकी प्रजा ने परमेश्वर के इस सन्देश पर विश्वास किया, उसको स्वीकार किया और इसके लिए परमेश्वर की आराधना करी (पद 18-19)। अगले दिन राजा यहोशापात अपने सेना को लेकर युद्ध भूमि पर गया, और उसने सेना के आगे परमेश्वर की आराधना और स्तुति करते हुए चलने वाले लोगों को रखा (पद 21); फिर, "जिस समय वे गाकर स्तुति करने लगे, उसी समय यहोवा ने अम्मोनियों, मोआबियों और सेईर के पहाड़ी देश के लोगों पर जो यहूदा के विरुद्ध आ रहे थे, घातकों को बैठा दिया और वे मारे गए" (2 इतिहास 20:22)। उन आक्रमणकारियों का अन्त हो जाने के पश्चात, यहोशापात और उसके लोगों को मृत आक्रमणकारियों पर से लूट का माल एकत्रित करने के लिए तीन दिन का समय लग गया (पद 24-25); जिसके पश्चात वे सब लोग बराका नाम तराई में परमेश्वर की आराधना के लिए एकत्रित हुए (पद 26-27)

ध्यान कीजिए, इस पूरी घटना में यहोशापात और उसके लोगों द्वारा प्रार्थना करने का उल्लेख एक बार हुआ है, परन्तु आराधना करने का उल्लेख तीन बार हुआ है; और इन तीन में से पहले दो अवसर ऐसे थे जिनमें परिस्थितियाँ बड़ी विकट और भयावह थीं, विनाश और मृत्यु उनके सामने मूँह बाए खड़े थे। साथ ही अब एक बार और यहजीएल में होकर उन लोगों को पहुँचाए गए परमेश्वर के सन्देश को ध्यान से पढ़ें (2 इतिहास 20:14-17); आप कहीं नहीं पाएंगे कि परमेश्वर ने उन लोगों को आराधना करने का कोई आदेश दिया - परमेश्वर ने केवल यह कहा कि वे युद्ध-भूमि पर जाएं, अपने आप को वहाँ खड़ा करें, और शान्त होकर उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य को देखें। किंतु परमेश्वर में तथा उसके द्वारा उन्हें जिस परिणाम का वायदा मिला था, उसमें उन लोगों के विश्वास ने उन्हें परमेश्वर के द्वारा कुछ भी किए जाने से पहले ही उस कार्य के लिए परमेश्वर की आराधना करने को प्रेरित किया; और युद्ध के बाद मिली विजय के लिए आराधना करी गई तो समझ में आती है। युद्ध भूमि यह उनकी आराधना ही थी जिसके आरंभ होने के साथ ही परमेश्वर का कार्य भी आरंभ हो गया (पद 22) और शत्रु का नाश हो गया। उन लोगों द्वारा परमेश्वर को आराधना के दिए जाने के कारण ना केवल उन्हें एक अप्रत्याशित विजय मिली, परन्तु साथ ही ईनाम के रूप में बहुतायत से संपदा भी मिल गई।

अपने जीवन में कठिन तथा समझ से बाहर परिस्थितियों में भी चिंता, शिकायत, कुड़कुड़ाने, निराश होने और ऐसी परिस्थितियों से निकलने के लिए संसार और उसके लोगों का सहारा लेने की बजाए, उन परिस्थितियों में तथा उन परिस्थितियों के लिए परमेश्वर की आराधना करना सीखें; परिणाम आपकी कलपना से भी बढ़कर आशचर्यजनक और लाभप्रद होंगे।


अब आगे हम उन बाधाओं को देखना आरंभ करेंगे जो हमारी आराधना में आड़े आती हैं, उन बातों को जिनके कारण हम परमेश्वर की आराधना करने नहीं पाते हैं।

गुरुवार, 1 सितंबर 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 8: स्वर्ग से गारंटीशुदा


स्वर्ग से गारंटीशुदा

यह आत्मिक सिद्धांत कि परमेश्वर की इच्छा में होकर उसके तथा उसके कार्य के लिए जो भी हम निवेष करेंगे वह हमें उसका कई गुणा लौटा कर दे देगा कोई मनगढ़ंत बात नहीं है, वरन यह वह निश्चित बात है जिसे स्वयं प्रभु यीशु ने कहा है, जिसके साथ उसने यह भी कहा है कि परमेश्वर के लिए किए गए निवेष का प्रतिफल सौ गुणा होगा।

पतरस द्वारा पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में "यीशु ने कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि ऐसा कोई नहीं, जिसने मेरे और सुसमाचार के लिये घर या भाइयों या बहिनों या माता या पिता या लड़के-बालों या खेतों को छोड़ दिया हो। और अब इस समय सौ गुणा न पाए, घरों और भाइयों और बहिनों और माताओं और लड़के-बालों और खेतों को पर उपद्रव के साथ और परलोक में अनन्त जीवन" (मरकुस 10:29-30)। प्रभु यीशु द्वारा अपने अटल शब्दों में दिए गए आश्वासन पर ध्यान कीजिए - जो भी प्रभु और उसके सुसमाचार के लिए हम निवेष करते हैं स्वर्ग से उसका सौ गुणा की प्रतिफल निश्चित है।

साथ ही यहाँ प्रभु दोहरे प्रतिफल की भी बात कर रहा है - पृथ्वी पर सौ गुणा, और परलोक में अनन्त जीवन। यहाँ प्रयुक्त शब्द "उपद्रव" से घबराईएगा नहीं, हम संसार में जो कोई भी लौकिक कार्य करते हैं उन प्रत्येक के साथ परेशानियाँ भी जुड़ी होती ही हैं। हम में से कौन है जो यह कह सकता है कि उसके सांसारिक कार्य में कोई परेशानी या कठिनाई कभी नहीं रही है? हम सबके कार्यों में ये रहती हैं; हम सब अपने कार्यों में उनके साथ निभाते भी हैं और उनके होने के बावजूद भी अपने कार्य करते रहते हैं, यह जानते हुए कि हमारे कार्य में परेशानियाँ एवं कठिनाईयाँ हमारे साथ लगी ही रहेंगी। यदि हमें किसी सांसारिक कंपनी का प्रमुख कार्य-अधिकारी यह प्रस्ताव दे कि जो कुछ भी हम उसके प्रस्ताव के अन्तर्गत उसकी कंपनी में निवेष करेंगे, उसका सौ-गुणा प्रतिफल हमें हर कीमत पर, अवश्य ही मिलेगा, परन्तु साथ ही कुछ परेशानियों को भी हमें उठाना पड़ेगा, तो हम में से कितने हैं जो अपनी सांसारिक संपदा की सौ-गुणा बढ़ोतरी के इस अवसर को हाथों से जाने देंगे, वह भी केवल इसलिए क्योंकि कुछ परेशानियाँ साथ जुड़ी हुई हैं? यदि हम सांसारिक लोगों के आश्वासन पर, सांसारिक संपदा के लिए यह जोखिम उठाने को तैयार हैं, तो प्रभु के कहने के निश्चय पर इस लोक में सौ-गुणा एवं परलोक में अनन्तकाल के प्रतिफल के लिए क्यों नहीं?

इस असमंजस का उत्तर उस घटना में छुपा है जो पतरस द्वारा पूछे गए इस प्रश्न से ठीक पहिले घटित हुई - पूरा परिपेक्ष समझने के लिए मरकुस 10:17-18 को पढ़िए। जिस जवान का यहाँ ज़िक्र है, वह अनन्त जीवन चाहता था, वह प्रभु यीशु के प्रति श्रद्धा भी रखता था और उसे यह भी विश्वास था कि प्रभु यीशु ही उसकी परेशानी का हल दे सकते हैं; लेकिन जो उसके पास नहीं था वह था प्रभु यीशु द्वारा दिए गए समाधान पर विश्वास करना और उसे अपने जीवन में कार्यान्वित करना। प्रभु ने उसके प्रश्न का उसे समाधान उपलब्ध करवाया (मरकुस 10:21-22), परन्तु उस जवान के लिए वह समाधान बहुत उग्र तथा अनेपक्षित था, चुकाने के लिए वह एक बहुत बड़ी कीमत थी; और वह जैसा आया था वैसा ही निराश वापस लौट गया। प्रभु यीशु ने जो उस जवान से करने के लिए कहा, वह उस बात से भिन्न नहीं था जो उसने अपने चेलों को सिखाई थी - पाना चाहते हो तो देना सीखो: "दिया करो, तो तुम्हें भी दिया जाएगा: लोग पूरा नाप दबा दबाकर और हिला हिलाकर और उभरता हुआ तुम्हारी गोद में डालेंगे, क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिये भी नापा जाएगा" (लूका 6:38)

यही वह स्थान है जहाँ हम में से बहुतेरे आकर ठोकर खाते हैं, हानि उठाते हैं - प्रभु के प्रति हमारे विश्वास, हमारी श्रद्धा के बावजूद; अनन्त जीवन की बातों के लिए हमारी इच्छा के बावजूद, हम प्रभु के वचनों को स्वीकार करके अपने जीवन में कार्यकारी करना नहीं चाहते हैं; उन्हें सुनना तो चाहते हैं किंतु मानने की हिम्मत नहीं रखते। हम प्रभु की कही बात पर विश्वास करने से घबराते हैं, जो प्रभु ने हमारे हाथों में दिया है, परन्तु अब उसे छोड़ देने के लिए कह रहा है, उसे हम प्रभु के कहने पर छोड़ देना नहीं चाहते। परमेश्वर चाहता है कि हम उस पर विश्वास रखें, उसके कहने पर स्वेच्छा से अपने आप को खाली कर देने की हिम्मत रखें, ताकि वह और अधिक तथा और बेहतर से हमें भर सके। केवल जब हम दे देते हैं, अपने आप को खाली कर देते हैं, तब ही हम परमेश्वर के लिए वह रिक्त स्थान उपलब्ध करवा पाते हैं जिसे वह नई और बेहतर आशीषों की भरपूरी से भरना चाहता है।

कहावत है कि बेहतर ही अकसर सर्वोत्तम का दुश्मन होता है; जो बेहतर आज आपके पास है, उसके कारण उस सर्वोत्तम से जो परमेश्वर आपको देना चाहता है अपने आप को वंचित ना रखें। जो आपके पास है, उसे परमेश्वर के राज्य में निवेष करें, उसकी खेती में की खेती बो दें और भरपूरी की फसल पाने के लिए तैयार रहें।

बुधवार, 31 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 7: पाने के लिए देना


पाने के लिए देना

परमेश्वर की ओर से सदा ही यह स्थापित रहा है कि उसके निर्देषों के अनुसार किए गए किसी भी निवेष का प्रतिफल कलपना से कहीं बढ़कर होगा। जब परमेश्वर ने इस्त्राएलियों को अपनी व्यवस्था और नियम दिए, तो उनका महत्वपूर्ण भाग था दशमांश, भेंटें, संपदा एवं बढ़ोतरी के प्रथम-फल परमेश्वर के घर में लाना और गरीबों की सहायता करना। उसके इन निर्देषों के पालन का उद्देश्य था उसके आज्ञाकारी लोगों को आशीषित तथा फलवंत करना; इस संदर्भ में परमेश्वर ने कहा: "भला होता कि उनका मन सदैव ऐसा ही बना रहे, कि वे मेरा भय मानते हुए मेरी सब आज्ञाओं पर चलते रहें, जिस से उनकी और उनके वंश की सदैव भलाई होती रहे!" (व्यवस्थाविवरण 5:29)

समस्त युगों में इस्त्राएल का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि परमेश्वर के लोगों ने जब भी परमेश्वर की आज्ञाकारिता में उसे तथा उसके कार्य के लिए अपनी संपदा में से दिया है तो प्रत्युत्तर में उन्होंने सदा बढ़ोतरी ही पाई है। परन्तु जब भी उन्होंने ऐसा नहीं किया है, तो सदा दुःख ही पाया है; और जो कुछ उन्होंने बचा कर रखना चाहा या सुरक्षित रखना चाहा वह भी उनके पास नहीं बचा।

हिज़किय्याह राजा के समय में एक बड़ा सुधार आया; परमेश्वर के लोगों ने अपने आप को परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता में समर्पित किया, अपने आप को सही किया, और वे फिर से अपने दशमांश और भेंट परमेश्वर के घर में लाने लग गए जिससे परमेश्वर के पुरोहितों और परमेश्वर के भवन की आवश्यकताएं पूरी हो सकें (2 इतिहास 31:1-11)। जब उन्होंने निष्ठापूर्वक अपने दशमांश और भेंटें लाना आरंभ कर दिया तब परमेश्वर ने भी उन्हें बहुतायत से आशीषित करना आरंभ कर दिया; जिससे अब अपनी बढ़ती में से परमेश्वर को देने के लिए उनके पास और भी अधिक हो गया, और वे इतना अधिक लाने लगे कि पुरोहितों तथा भवन की सारी आवश्यकताएं पूरी हो जाने के बाद भी बहुत बच गया, और उनके दिए हुए के परमेश्वर के भवन में ढेर लग गए क्योंकि उन्हें रखने के लिए भण्डार की कोठरियां शेष नहीं रह गईं थीं; राजा हिज़किय्याह को उन दशमांशों तथा भेटों को रखने के लिए नए कमरे बनवाने का आदेश देना पड़ा: "और अजर्याह महायाजक ने जो सादोक के घराने का था, उस से कहा, जब से लोग यहोवा के भवन में उठाई हुई भेंटें लाने लगे हैं, तब से हम लोग पेट भर खाने को पाते हैं, वरन बहुत बचा भी करता है; क्योंकि यहोवा ने अपनी प्रजा को आशीष दी है, और जो शेष रह गया है, उसी का यह बड़ा ढेर है। तब हिजकिय्याह ने यहोवा के भवन में कोठरियां तैयार करने की आज्ञा दी, और वे तैयार की गई" (2 इतिहास 31:10-11)

बाद में जब इस्त्राएल एक बार फिर परमेश्वर के पीछे चलने से भटक गया और परेशानियों में पड़ गया, तब परमेश्वर ने उन्हें फिर से स्मरण करवाया: "सारे दशमांश भण्डार में ले आओ कि मेरे भवन में भोजनवस्तु रहे; और सेनाओं का यहोवा यह कहता है, कि ऐसा कर के मुझे परखो कि मैं आकाश के झरोखे तुम्हारे लिये खोल कर तुम्हारे ऊपर अपरम्पार आशीष की वर्षा करता हूं कि नहीं" (मलाकी3:10)

बुद्धिमान राजा सुलेमान के द्वारा परमेश्वर के आत्मा ने लिखवा दिया कि: "अपनी संपत्ति के द्वारा और अपनी भूमि की पहिली उपज दे देकर यहोवा की प्रतिष्ठा करना; इस प्रकार तेरे खत्ते भरे और पूरे रहेंगे, और तेरे रसकुण्डों से नया दाखमधु उमण्डता रहेगा" (नीतिवचन 3:9-10)

इन शब्दों पर ध्यान दीजिए - "अपनी संपत्ति के द्वारा और अपनी भूमि की पहिली उपज दे देकर यहोवा की प्रतिष्ठा करना..."; परमेश्वर की सनतान होने के नाते हमें इसका अंगीकार करना और ध्यान रखना है कि हमारे पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर के अनुग्रह से हमें दिया गया है (व्यवस्थाविवरण 8:18)। हमारे पास जो भी है, चाहे पार्थिव संपदा; या कोई कौशल, योग्यता, सामर्थ्य या बुद्धि-ज्ञान की प्रतिभा; या कोई आत्मिक वरदान - चाहे जो भी हो, वह सब कुछ परमेश्वर के अनुग्रह से हमें दिया गया है। ये सभी परमेश्वर द्वारा उसके खेत - अर्थात संसार के लोगों में बोने के लिए दिए गए बीज हैं। अब यह हमारे ऊपर है कि चाहे हम इस बीज को अपने लिए इस्तेमाल कर के समाप्त कर लें, या फिर उसे बोएं और बहुतायत की फसल जो हमें तथा दूसरों को आशीषित करे पाएं। जब तक हम परमेश्वर की खेती में जाना, अपने हाथों को खोल कर उसके दिए बीजों को उसके लिए बोना नहीं सीखेंगे, हम परमेश्वर की आशीषों की फसल की बहुतायत का अनुभव भी नहीं करने पाएंगे (नीत्वचन 10:22)

मंगलवार, 30 अगस्त 2016

परमेश्वर की आराधना और महिमा - भाग 6: ’कारण तथा प्रभाव’ का संबंध:


कारण तथा प्रभावका संबंध

परमेश्वर की प्रत्येक सन्तान के जीवन में समान रूप से तथा लगातार लागू रहने वाले सिद्धांतों में से एक है: "धोखा न खाओ, परमेश्वर ठट्ठों में नहीं उड़ाया जाता, क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता है, वही काटेगा" (गलतियों 6:7); इसी सिद्धांत को कुछ भिन्न शब्दों में यूँ भी कहा गया है: "परन्तु बात तो यह है, कि जो थोड़ा बोता है वह थोड़ा काटेगा भी; और जो बहुत बोता है, वह बहुत काटेगा" (2 कुरिन्थियों 9:6)। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के लिए, मात्रा एवं गुणवत्ता में हमारे द्वारा किया गया निवेष ही यह निर्धारित करता है कि हम परमेश्वर से प्रत्युत्तर में क्या और कितना पाएंगे।

जब हम परमेश्वर से कुछ प्राप्त करते हैं, चाहे वह प्रार्थना के अथवा आराधना के प्रत्युत्तार में हो, तब यदि हम हमारे जीवन में किए गए उसके उपकार और कार्य का अंगीकार करने तथा खुलकर उसकी गवाही देने के लिए तैयार होते हैंअपने उजियाले को मनुष्यों के सामने चमकाने देते हैं (मत्ती 5:15-16), यदि हम सार्वजनिक रीति से, ईमानदारी से तथा आत्मा और सच्चाई से, उससे मिली आशीष के लिए उसे अपना धन्यवाद, आदर और आराधना अर्पित करते हैं, तो जो हम उसे देते हैं परमेश्वर कभी उसका कर्ज़दार नहीं बना रहता। जो हम आराधना में उसे देते हैं, उसके प्रत्युत्तर में वह और भी बढ़कर आशीषें हमें लौटा कर दे देता है। जैसे जैसे हमारी आराधना की मात्रा और गुणवत्ता बढ़ती जाती है, प्रत्युत्तर में परमेश्वर से मिलने वाली आशीषें भी उसी अनुपात में बढ़ती जाती हैं! कारण अर्थात पाना, उसके प्रभाव अर्थात प्रत्युत्तर का जनक हो जाता है, जो फिर से एक नए पाने और देने के सिलसिले का आरंभ बन जाता है, और यह सिलसिला बढ़ता रहता है - ऊँचाईयों को अग्रसर मार्ग, जिससे हम परमेश्वर द्वारा अधिकाधिक परिपूर्ण और आशीषित होते जाते हैं। कारण तथा प्रभाव के संबंध का यह सिद्धांत सभी विश्वासियों के लिए उपलब्ध और कार्यकारी है, परन्तु इसका सही उपयोग करना हमारे अपने हाथ में है।

मैं यह अपने व्यक्तिगत अनुभव से कह रहा हूँ - परमेश्वर को महिमा दें, वह लौटा कर आपको महिमा देगा; उसे आदर दें, उससे आदर पाएं; उसे श्रद्धा दें, उससे श्रद्धा पाएं; उसकी बड़ाई करें, उससे बड़ाई पाएं; अपने समय में से उसे दें, वह आपके जीवन में और समय भर देगा; अपने जीवन में उसे प्राथमिकता दें, वह आपको प्राथमिकता दिलवाएगा; उसके लिए कार्य करें, वह आपके लिए कार्य करेगा; पृथ्वी पर उसकी आवश्यकताओं को पूरा करें, वह आपकी आवश्यकताओं को पूरा करेगा केवल पृथ्वी पर ही नहीं वरन स्वर्ग में भी। यह सब कठिन और समझ के बाहर प्रतीत हो सकता है, परन्तु विश्वास के साथ कदम आगे बढ़ाएं, परमेश्वर आपको निराश कभी नहीं होने देगा।

प्रार्थना के द्वारा आप उतना ही पा सकते हैं जितनी आपकी सोच की सीमा और अपनी आवश्यकताओं के बारे में समझ है; परन्तु आराधना आपको आपकी कलपना से भी कहीं अधिक बढ़कर आशीषित और भरपूर कर सकती है (1 कुरिन्थियों 2:9)

आराधना के लिए उभारना परमेश्वर का तरीका है हमें उस बहुतायत के जीवन को उपलब्ध करवाने का जो परमेश्वर अपने लोगों को देना चाहता है: "... मैं इसलिये आया कि वे जीवन पाएं, और बहुतायत से पाएं" (यूहन्ना 10:10)। आराधना इसलिए नहीं है कि हम परमेश्वर की तूती उसके लिए बजाएं; वरन इसलिए है ताकि जो भी फसल हम उसके लिए बोएं बहुतायात से उसका प्रतिफल पाएं।
आगे हम इस कारण और प्रभाव के संबंध को समझने के लिए कुछ और उदाहरण देखेंगे।