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सोमवार, 19 अगस्त 2019

सच्चा सुसमाचार, बनाम झूठे विश्वास और सिद्धान्त


प्रश्नक्या हम प्रभु यीशु मसीह और उसके सुसमाचार के सत्य के बारे में गलत विश्वास या झूठे सिद्धांतों को मानने वालों या पालन करने वालों से भी सीख सकते हैं? हम सच्चे सुसमाचार को कैसे पहचान सकते हैं?

यह जाना-पहचाना तथ्य है और आम देखा जाता है कि, किसी जाने-माने उत्पाद की नकल बेचने के लिए, धोखा देने वाले उस नकल का बाहरी स्वरूप असली के समान जितना अधिक बना सकें बनाते हैं, जिससे लोग उस नकली को असली समझ कर उसे स्वीकार कर लें और ले लें, इस विश्वास में कि यह असली ही है। लेकिन जब लोग उस नकली का प्रयोग करना आरंभ करते हैं, तब ही पहचान होती है कि जो दावा किया गया था वह वो नहीं है उसके गुण वास्तविक असली उत्पाद के समान नहीं हैं, और न ही वह उतना कारगर है जितना उसे होना चाहिए।

यही बात बाइबल में दिए सच्चे सुसमाचार और परमेश्वर की शिक्षाओं के लिए भी सही है। शैतान ने, लोगों को धोखा देने के लिए, सँसार में अनेकों प्रकार के नकली सुसमाचार और परमेश्वर के वचन की गलत शिक्षाएँ फैला दी हैं। ये झूठे सुसमाचार असली के समान ही प्रतीत होते हैं, परन्तु उनमें सदा ही कुछ-न-कुछ गलतियाँ या सच्चे सुसमाचार से कुछ भिन्नता होती है, जो चाहे तुरंत ही प्रगट न हो, परन्तु देर-सवेर प्रगट हो ही जाती हैं। साथ ही, इस तर्क को स्वीकार कर लेना कि झूठे धार्मिक विश्वास एवँ सिद्धांतों के द्वारा भी परमेश्वर हमें सचेत करता और सिखाता है,  यह कहना है कि परमेश्वर गलत और असत्य के द्वारा भी “…मार्ग, सत्य, और जीवन…” (यूहन्ना 14:6) के बारे में हमें सिखाता है जो कि बिलकुल गलत तथा कदापि स्वीकार न हो सकने वाली धारणा है, जो परमेश्वर के चरित्र और गुणों के विपरीत जाती है, और बाइबल की शिक्षाओं के बिलकुल उलट है। 

इस कथन के समर्थन में, बाइबल से लिए गए कुछ खण्ड देखिए:
हम प्रेरितों 16:16-18 में देखते हैं कि पौलुस एक लड़की में से दुष्टात्मा को निकालता है, जबकि वह लड़की यही कह रही थी कि " ...ये मनुष्य परमप्रधान परमेश्वर के दास हैं, जो हमें उद्धार के मार्ग की कथा सुनाते हैं" (प्रेरितों 16:17) – यह सत्य तो था, किन्तु किसी ऐसे से आ रहा था जो परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं है।
याकूब कहता है, “जब किसी की परीक्षा हो, तो वह यह न कहे, कि मेरी परीक्षा परमेश्वर की ओर से होती है; क्योंकि न तो बुरी बातों से परमेश्वर की परीक्षा हो सकती है, और न वह किसी की परीक्षा आप करता है।” (याकूब 1:13); और क्योंकि हर एक अच्छा वरदान और हर एक उत्तम दान ऊपर ही से है, और ज्योतियों के पिता की ओर से मिलता है, जिस में न तो कोई परिवर्तन हो सकता है, ओर न अदल बदल के कारण उस पर छाया पड़ती है” (याकूब 1:17).
प्रेरित यूहन्ना अपनी पहली पत्री में कहता है, “जो समाचार हम ने उस से सुना, और तुम्हें सुनाते हैं, वह यह है; कि परमेश्वर ज्योति है: और उस में कुछ भी अन्धकार नहीं” (1 यूहन्ना 1:5).

बाइबल में बारंबार, परमेश्वर की पूर्ण सत्यता, कभी न बदलने वाली ईमानदारी, किसी भी संदेह की संभावना से भी से परे सत्यनिष्ठा, पर बल दिया गया है; अर्थात इसपर कि परमेश्वर का चरित्र और व्यवहार किसी भी संदेह या दोषारोपण की संभावना से बिलकुल बाहर हैं। न तो परमेश्वर ने कभी किया है, और न ही वह कभी यह करेगा कि अपने वचन के प्रचार और प्रसार के लिए गलत धार्मिक सिद्धांतों और शिक्षाओं का सहारा ले, जबकि उसने मानव-जाति को अपना सत्य एवँ जीवित वचन दे दिया है, और अपने इस वचन को सिखाने के लिए अपने लोगों को अपना पवित्र-आत्मा भी प्रदान किया है (यूहन्ना 14:26; 16:13-15; 1 कुरिन्थियों 2:11-14)। प्रभु यीशु ने पुनरुत्थान के पश्चात अपने स्वर्गारोहण से पहले अपनी महान आज्ञा में अपने शिष्यों से कहा था कि वे जाकर सँसार के लोगों को उसका वचन सिखाएँ न कि मनुष्य की बुद्धि से उपजी कोई गढ़ी हुई शिक्षाएँ और बातें सिखाएँ (मत्ती 28:18-20)

परन्तु शैतान, अपने असत्य, झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धांतों आदि को स्वीकार्य बनाने के लिए, अपने धोखे और आडंबर को परमेश्वर के वचन के समान दिखाता है, बड़ी चतुराई से गलत बातों को धार्मिकता और ग्रहण योग्य होने के आवरण के पीछे छुपाता है (2 कुरिन्थियों 11:13-15; कुलुस्सियों 2:4-8; 16-23)। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम अपने आप को परमेश्वर के वचन की सच्चाइयों में स्थापित कर लें तथा और कुछ को नहीं, परन्तु केवल बाइबल को ही सभी शिक्षाओं, धार्मिकता, और सिद्धांतों को परखने और उनकी वास्तवकिता जाँचने के मानक के रूप में प्रयोग करें,  (प्रेरितों 17:11; 2 तिमुथियुस 3:16-17; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। जो कुछ भी परमेश्वर के वचन के अनुसार नहीं है, या किसी भी रीति से वचन का खंडन करता है या उससे असंगत है; या ऐसी कोई भी शिक्षा जो उस विषय पर बाइबल में कही गई सभी बातों के साथ पूर्णतः मेल नहीं खाती है या उनके मापदंडों पर पूर्णतः खरी नहीं उतरती है; या ऐसी कोई भी बात जो सँसार के रीति-रिवाज़ों अथवा बातों, या मनुष्यों की बुद्धि और व्यवहार से उत्पन्न होकर बाइबल की मसीही शिक्षाओं में लाई गई और मिलाई गई हैं (मत्ती 15:3-9), वह गलत सिद्धान्त है, गढ़ी हुई झूठी धार्मिकता है, जो परमेश्वर को अप्रसन्न करती है तथा उसे अस्वीकार्य है, और उसकी पूर्णतः अवहेलना करनी चाहिए, उसका संपूर्ण तिरिस्कार किया जाना चाहिए।

सच्चा सुसमाचार, 1 कुरिन्थियों 15:1-4 में लिखा है – “हे भाइयों, मैं तुम्हें वही सुसमाचार बताता हूं जो पहिले सुना चुका हूं, जिसे तुम ने अंगीकार भी किया था और जिस में तुम स्थिर भी हो। उसी के द्वारा तुम्हारा उद्धार भी होता है, यदि उस सुसमाचार को जो मैं ने तुम्हें सुनाया था स्मरण रखते हो; नहीं तो तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ हुआ। इसी कारण मैं ने सब से पहिले तुम्हें वही बात पहुंचा दी, जो मुझे पहुंची थी, कि पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया। और गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा” (1 कुरिन्थियों 15 बाइबल का ‘सुसमाचार अध्याय’ है सुसमाचार से संबंधित विभिन्न सत्यों को सीखने और समझने के लिए इसका अध्ययन अवश्य कीजिए)। कृपया ध्यान दें, सच्चा सुसमाचार, जैसा कि पवित्र-शास्त्र में कहा गया है, परमेश्वर के वचन के अनुसार है न कि मनुष्यों की चतुराई से आया है; दूसरे शब्दों में, सच्चे सुसमाचार में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले से पवित्र-शास्त्र में लिखा नहीं गया है।

इसे बाइबल ही से समझिए:
इब्रानियों 10:5-9 में प्रभु यीशु द्वारा कहे गए वचन हैं जो उन्होंने स्वर्ग छोड़कर पृथ्वी पर आने से ठीक पहले कहे थे; वहाँ लिखा है: “इसी कारण वह जगत में आते समय कहता है, कि बलिदान और भेंट तू ने न चाही, पर मेरे लिये एक देह तैयार किया। होम-बलियों और पाप-बलियों से तू प्रसन्न नहीं हुआ। तब मैं ने कहा, देख, मैं आ गया हूं, (पवित्र शास्त्र में मेरे विषय में लिखा हुआ है) ताकि हे परमेश्वर तेरी इच्छा पूरी करूं। ऊपर तो वह कहता है, कि न तू ने बलिदान और भेंट और होम-बलियों और पाप-बलियों को चाहा, और न उन से प्रसन्न हुआ; यद्यपि ये बलिदान तो व्यवस्था के अनुसार चढ़ाए जाते हैं। फिर यह भी कहता है, कि देख, मैं आ गया हूं, ताकि तेरी इच्छा पूरी करूं; निदान वह पहिले को उठा देता है, ताकि दूसरे को नियुक्त करे।प्रभु यीशु ने विशेषतः यह कहा कि उनका कार्य पहले से ही लिखा गया है पवित्र शास्त्र में मेरे विषय में लिखा हुआ है और वे वही करेंगे जो उनके विषय लिखा गया है, वे परमेश्वर की इच्छा को पूरी करेंगे; अर्थात, उसे पूरा करेंगे जो पहले से लिखा जा चुका है; मसीह यीशु ने कोई नई बात नहीं निकाली या की।
अपने पुनरुत्थान के पश्चात जब प्रभु यीशु यरूशलेम से इम्माउस को लौटने वाले दो शिष्यों से मिले, और उनके साथ चर्चा की, तब उसने मूसा से और सब भविष्यद्वक्ताओं से आरम्भ कर के सारे पवित्र शास्‍त्रों में से, अपने विषय में की बातों का अर्थ, उन्हें समझा दिया।” (लूका 24:27) – जो कि एक और पुष्टि है कि प्रभु यीशु ने केवल वही किया, जो उस समय उपलब्ध पवित्र-शास्त्र में पहले से लिखा जा चुका था, उनके पृथ्वी पर जन्म लेने तथा अपनी सेवकाई को आरंभ करने से पहले ही।
प्रेरित पौलुस ने भी, यीशु को अपना उद्धारकर्ता और प्रभु स्वीकार करने के पश्चात पवित्र-शास्त्र का उपयोग किया पुराने नियम के लेखों का प्रयोग प्रभु की सेवकाई के विषय बताने और उसे प्रमाणित करने के लिए: “वह पवित्र शास्त्र से प्रमाण दे देकर, कि यीशु ही मसीह है; बड़ी प्रबलता से यहूदियों को सब के साम्हने निरूत्तर करता रहाऔर वह परमेश्वर के राज्य की गवाही देता हुआ, और मूसा की व्यवस्था और भाविष्यद्वक्ताओं की पुस्तकों से यीशु के विषय में समझा समझाकर भोर से सांझ तक वर्णन करता रहा” (प्रेरितों 18:28; 28:23)। क्योंकि सच्चे सुसमाचार में ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले से ही परमेश्वर के वचन लिखा नहीं जा चुका है, इसलिए जो कोई भी सुसमाचार के नाम में कुछ भी ऐसा प्रचार करता या सिखाता है जो पवित्र-शास्त्र में पहले से विद्यमान नहीं है, या कुछ नई बातें अथवा ‘नए दर्शन या प्रकाशन’ के द्वारा सुसमाचार में कुछ नया जोड़ने का प्रयास करता है, वह वास्तव में सुसमाचार को भ्रष्ट कर रहा है और उसपर कदापि विश्वास नहीं करना चाहिए और न ही उसकी बात को स्वीकार करना चाहिए।

शैतान द्वारा सांसारिकता की बातों द्वारा सुसमाचार को भ्रष्ट करना तो तुरंत ही, प्रथम ईसवीं में ही आरंभ हो गया था, और इन भ्रष्ट शिक्षाओं में इतना आकर्षण था कि, प्रेरितों के समय और सेवकाई के दौरान ही, मसीही विश्वासी धोखा खाने लगे थे और गलत शिक्षाओं में पड़ने लगे थे। इसीलिए हम देखते हैं कि नए नियम के सभी लेखक अपने-अपने लेखों में गलत शिक्षाओं और धोखे तथा शैतान के झूठ एवँ चालाकियों के बारे में बारंबार लिखते हैं। नए नियम की सभी पत्रियां, मसीह यीशु की शिक्षाओं से संबंधित गलत धारणाओं और असंगतियों को सही करने के उद्देश्य से लिखी गई हैं, जिससे मसीही विश्वासी शैतान द्वारा फैलाई जा रही गलत शिक्षाओं का सामना करके उनका प्रतिरोध कर सकें, उन्हें निष्क्रीय कर सकें।

जब एक बार हम सच्चे सुसमाचार के गुण पहचान जाते हैं, तब फिर हम उनका प्रयोग प्रत्येक अन्य शिक्षा एवँ सिद्धान्त की वास्तविकता और सत्यता को जाँचने के लिए कर सकते हैं। पवित्र-आत्मा ने, पौलुस प्रेरित में होकर गलत सुसमाचार को पहचानने के कुछ चिन्ह गलातियों 1:3-9 में दिए हैं, और साथ ही चेतावनी भी दी है कि जो सुसमाचार पहले-पहल दे दिया गया है, उसे यदि पौलुस या कोई स्वर्गदूत भी आकर बदलना या भिन्न प्रकार से व्यक्त करना चाहे, तो उसे कदापि स्वीकार नहीं किया जाए।

गलातियों 1:3-9 का लेख इस प्रकार से है:
गलातियों 1:3 परमेश्वर पिता, और हमारे प्रभु यीशु मसीह की ओर से तुम्हें अनुग्रह और शान्‍ति मिलती रहे
गलातियों 1:4 उसी ने अपने आप को हमारे पापों के लिये दे दिया, ताकि हमारे परमेश्वर और पिता की इच्छा के अनुसार हमें इस वर्तमान बुरे संसार से छुड़ाए
गलातियों 1:5 उस की स्‍तुति और बड़ाई युगानुयुग होती रहे। आमीन
गलातियों 1:6 मुझे आश्चर्य होता है, कि जिसने तुम्हें मसीह के अनुग्रह से बुलाया उस से तुम इतनी जल्दी फिर कर और ही प्रकार के सुसमाचार की ओर झुकने लगे
गलातियों 1:7 परन्तु वह दूसरा सुसमाचार है ही नहीं: पर बात यह है, कि कितने ऐसे हैं, जो तुम्हें घबरा देते, और मसीह के सुसमाचार को बिगाड़ना चाहते हैं
गलातियों 1:8 परन्तु यदि हम या स्वर्ग से कोई दूत भी उस सुसमाचार को छोड़ जो हम ने तुम को सुनाया है, कोई और सुसमाचार तुम्हें सुनाए, तो श्रापित हो
गलातियों 1:9 जैसा हम पहिले कह चुके हैं, वैसा ही मैं अब फिर कहता हूं, कि उस सुसमाचार को छोड़ जिसे तुम ने ग्रहण किया है, यदि कोई और सुसमाचार सुनाता है, तो श्रापित हो। अब मैं क्या मनुष्यों को मनाता हूं या परमेश्वर को? क्या मैं मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता हूं?

इस खण्ड से सच्चे सुसमाचार के बारे में हम निम्न तथ्य और विशेषताएं सीख सकते हैं:
आयत 3. सच्चे सुसमाचार के साथ परमेश्वर का अनुग्रह और शान्ति आते हैं; वह मतभेदों, विवादों और संघर्षो का कारण अथवा स्त्रोत नहीं होता है। ऐसी कोई भी शिक्षा जो परमेश्वर तथा प्रभु यीशु को हमारे जीवनों में समस्त अनुग्रह और शान्ति का स्वाभाविक स्त्रोत नहीं बनाती है, वरन परमेश्वर के अनुग्रह और शान्ति को प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार के मानवीय प्रयासों और कर्मों को आधार बनाती है, या उसे साधारण विश्वास के द्वारा ग्रहण करने के स्थान पर कुछ कर्म या धार्मिकता के निर्वाह के द्वारा उस अनुग्रह और शान्ति को ‘कमाने’ का प्रयास करती है, वह सच्चा सुसमाचार नहीं है। जब प्रभु यीशु की शान्ति तो प्रभु के प्रत्येक अनुयायी के लिए प्रभु द्वारा पहले से ही प्रदान कर दी गई है (यूहन्ना 14:27; 16:33) तो फिर उसे प्राप्त करने के लिए किसी को अपना और कोई प्रयास क्यों करना पड़ेगा?

आयत 4. ऐसी कोई भी शिक्षा या सिद्धान्त या धर्म और धार्मिकता जो हमें पापों से बचाने तथा परमेश्वर के सम्मुख धर्मी ठहराने के लिए कलवरी के क्रूस पर प्रभु यीशु द्वारा सिद्ध किए गए बलिदान के कार्य के अतिरिक्त और कुछ भी करने या निभाने को कहती है, वह झूठा सुसमाचार, गलत शिक्षा है; और उसका तुरंत ही पूर्णतः तिरिस्कार किया जाना चाहिए। हमारे उद्धार और पापों से छुटकारे के लिए जो कुछ प्रभु यीशु ने कर के दे दिया है वही पूर्ण है और सिद्ध है, उसे और अधिक कारगर करने के लिए उसमें और कुछ भी नहीं, बिलकुल कुछ नहीं, जोड़ा जा सकता है; और न ही कुछ और प्रभु के उस बलिदान का स्थान ले सकता है – न बपतिस्मा, न प्रभु-भोज में सम्मिलित होना, न दृढ़ीकरण, न कोई अन्य रीति-रिवाज़ अथवा प्रथा या त्यौहार का निर्वाह।

आयत 5. सच्चे सुसमाचार से संलग्न रहना तथा उसका पालन करना सदा ही परमेश्वर और प्रभु यीशु मसीह को महिमा देता है। सच्चा सुसमाचार कभी भी किसी भी मनुष्य को आदर और महिमा नहीं देता है; वरन वह मनुष्य के पाप और पापी स्वभाव को उजागर करता है, परमेश्वर के अनुग्रह को पाप के समाधान के लिए प्रदान करता है, और जो परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा बचाए और छुड़ाए गए हैं उन से उनके उद्धार, परमेश्वर के राज्य में प्रवेश, और परमेश्वर के साथ संगति में बहाल किए जाने के लिए, किसी मनुष्य की बड़ाई करवाने या उसे आदरणीय बनाने के स्थान पर परमेश्वर की महिमा और स्तुति करवाता है। वह जो मनुष्यों की महिमा और आदर करता है या किसी भी रीति से परमेश्वर की महिमा में से चुराता है, वह सच्चा सुसमाचार नहीं है।

आयतें 6, 7. वह ‘दूसरा सुसमाचार’ इसलिए ‘और ही प्रकार’ का है क्योंकि ‘मसीह के अनुग्रह’ को सबसे प्रथम और सबसे उत्तम महत्व का प्रस्तुत करने की बजाए, वह लोगों को उद्धार की इस प्राथमिक आवश्यकता एवँ अनिवार्यता – अनुग्रह, से दूर ले जाता है। वह ‘दूसरा सुसमाचार’ और ही बातों जैसे कि ‘भले कार्य’, ‘धार्मिकता या पवित्रता का जीवन’, या ‘आश्चर्यकर्म करने’ आदि पर बल देता है, उनकी ओर ध्यान आकर्षित करता है; वह स्वर्गीय धन एकत्रित करने की बजाए सांसारिक संपत्ति और बढ़ोतरी की ओर ध्यान केंद्रित करता है (कुलुस्सियों 3:1-2)। वह दान करने, तप-तपस्या करने, तीर्थ-यात्राएं करने, ‘संतों’ तथा अन्य मनुष्यों को आदरणीय या पूजनीय समझने; दार्शनिक विचारों, बाइबल का किताबी ज्ञान रखने, चर्च में पदवी या महत्वपूर्ण स्थान पाने और बनाए रखने, आदि पर बल देता है परन्तु उस ‘दूसरे सुसमाचार’ या ‘और ही प्रकार’ के सुसमाचार में जो सबसे महत्वपूर्ण बात अनुपस्थित होती है वह है परमेश्वर के सम्मुख ग्रहण योग्य होने के लिए केवल मसीह के अनुग्रह की एकमात्र अनिवार्यता को स्वीकार करना (कुलुस्सियों 2)। झूठे या गलत सुसमाचार से अन्ततः कलीसिया में समस्याएँ, संघर्ष, विवाद, दुखदायी एवँ बाधित और बिगड़े हुए संबंध, अपने आप को बड़ा दिखाने की प्रवृत्ति, अहम और उससे संबंधित समस्याएँ, नाश्मान और सांसारिक वस्तुएँ एवँ ओहदे पाने की लालसाएं तथा प्रयास, आदि दिखाई देंगे न कि परमेश्वर का अनुग्रह और शान्ति, जैसा कि ऊपर आयत 3 में कहा गया है।

आयतें 8, 9. सुसमाचार जो सदाकाल के लिए एक ही बार दे दिया गया है वह अपरिवर्तनीय है, उसमें न तो कुछ जोड़ा जा सकता है और न ही कुछ उसमें से घटाया जा सकता है, वरन शैतान की धूर्तता के हमलों से उसकी यत्न के साथ रक्षा करने की आवश्यकता है (यहूदा 1:3). कोई भी नहीं, न पौलुस, न कोई स्वर्गदूत, न कोई और वह चाहे कितना भी कीर्ति प्राप्त या आदरणीय क्यों न हो, प्रथम कलीसिया को सदा काल के लिए एक ही बार दिए गए उस सुसमाचार में वह कोई भी, कैसा भी परिवर्तन या ‘सुधार’ नहीं कर सकता है (प्रेरितों 2:37-40; 1 कुरिन्थियों 15:1-4)। इस प्राथमिक और आधारभूत सुसमाचार में जो कुछ भी विद्यमान नहीं है, जो कुछ भी उससे भिन्न है, वह ‘और ही सुसमाचार’ है शैतान से आया हुआ सच्चे सुसमाचार का भ्रष्ट रूप है, और उसे न तो कोई महत्व दिया जाना चाहिए और न ही स्वीकार किया जाना चाहिए, उसका अनुसरण या पालन करना तो बहुत दूर की बात है। परमेश्वर का वचन इस ‘दूसरे सुसमाचार’ को धोखे से सिखाने वालों को ‘श्रापित’ कहता है; और जिसे परमेश्वर ने श्रापित कहा हो उससे कुछ भी आशीषित अथवा महिमायोग्य प्राप्त होने की आशा रखना मूर्खतापूर्ण और बिलकुल गलत है।

पौलुस द्वारा दिए गए निर्देश तुम मेरी सी चाल चलो जैसा मैं मसीह की सी चाल चलता हूं” (1 कुरिन्थियों 11:1), तथा पवित्र-आत्मा की सहायता और मार्गदर्शन में परमेश्वर, मसीह यीशु, उद्धार आदि से संबंधित सभी शिक्षाओं को उपरोक्त गुणों तथा विशेषताओं के अनुसार जांचने (और साथ ही 1 कुरिन्थियों 15; कुलुस्सियों 2 & 3 की शिक्षाओं के आधार पर भी आँकलन करने) के द्वारा सही को गलत से अलग किया जा सकता है, वास्तविकता को पहचाना जा सकता है।

मंगलवार, 13 अगस्त 2019

क्या विश्वास से भटकने अथवा पीछे हटने वाले स्वर्ग जाएँगे?



प्रश्न:
एक बार जो व्यक्ति उद्धार पा गया तो क्या वह विश्वास से भटक जाने के बाद स्वर्ग जाएगा?

उत्तर:
जिसने भी उद्धार पाया है, अर्थात, स्वेच्छा तथा सच्चे मन से, अपने पापों से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु मसीह को अपना निज उद्धारकर्ता स्वीकार किया है, उससे अपने पापों की क्षमा माँगी है, और अपना जीवन उसे समर्पित किया है, परमेश्वर के अनुग्रह से केवल वही व्यक्ति स्वर्ग जाएगा – लेकिन मनुष्य की वास्तवक आत्मिक दशा केवल परमेश्वर ही जानता है, इसलिए कौन स्वर्ग जाएगा और कौन नहीं, इसका निर्धारण केवल परमेश्वर ही कर सकता है, और कोई नहीं।

परमेश्वर के वचन, बाइबल के अनुसार, यह बिलकुल स्पष्ट और स्थापित है कि उद्धार सदा काल के लिए है अर्थात ‘eternal’ है। इब्रानियों की पत्री का लेखक, प्रभु यीशु मसीह के द्वारा मनुष्यों को उद्धार प्रदान करने के लिए किए गए कार्यों के विषय लिखता है, “और पुत्र होने पर भी, उसने दुख उठा उठा कर आज्ञा माननी सीखी। और सिद्ध बन कर, अपने सब आज्ञा मानने वालों के लिये सदा काल के उद्धार (eternal salvation) का कारण हो गया” (इब्रानियों 5:8-9)। प्रभु यीशु मसीह ने भी कहा कि उस पर विश्वास लाए हुए उसके लोगों को वह अनन्त जीवन (अर्थात कभी समाप्त न होने वाला अक्षय जीवन, eternal life) प्रदान करता है, तथा साथ ही यह आश्वासन भी दिया कि कोई भी प्रभु या परमेश्वर के हाथों से उन अनन्त जीवन पाए हुओं को नहीं छीन सकता है (यूहन्ना 10:27-29) – प्रभु का यह वायदा बहुत ही गंभीर एवं बहुत महत्वपूर्ण तात्पर्य रखने वाला कथन है। प्रभु के इस वायदे के आधार पर, उद्धार खो देने का अभिप्राय होता है कि, शैतान ने किसी विधि से उन उद्धार पाए हुए व्यक्तियों को प्रभु या परमेश्वर के हाथ से छीन कर फिर से अपनी आधीनता में ले लिया है। यदि किसी भी प्रकार यह संभव होता, तो फिर तीन असंभव बातें संभव हो जाती हैं – पहली यह कि शैतान परमेश्वर से अधिक शक्तिशाली है; दूसरी यह प्रभु यीशु ने झूठ बोला, उसने झूठा आश्वासन दिया कि कोई भी उद्धार पाए हुओं को उसके या परमेश्वर पिता के हाथों से छीन नहीं सकता है; और तीसरी यह कि प्रभु को न शैतान की, न अपनी और न परमेश्वर की शक्ति की वास्तविकताओं का पता है, और वह यूं ही कुछ भी कहे जा रहा है! क्योंकि यह हो पाना पूर्णतः असंभव है, इसलिए प्रगट है कि कोई भी व्यक्ति, जिसने वास्तव में उद्धार पाया है, वह यूहन्ना 10:27-29 के आधार पर अपना उद्धार कभी भी नहीं खो सकता है। और क्योंकि उद्धार पाए हुओं पर दण्ड की कोई आज्ञा नहीं है (रोमियों 8:1), इसलिए जो वास्तव में उद्धार पाए हुए हैं, वे स्वर्ग में अवश्य ही प्रवेश करेंगे, चाहे विश्वास में उनकी परिपक्वता एवं स्थिति का स्तर कुछ भी क्यों न हो।

किन्तु यह बात केवल परमेश्वर ही जानता है कि कौन वास्तविक मसीही विश्वासी है और कौन नहीं। उदाहरण के लिए युहूदा इस्करियोती को ही लीजिए; वह प्रभु द्वारा बुलाया गया, प्रभु के साथ रहा, प्रभु से शिक्षा पाई, प्रभु की सामर्थ्य और निर्देशन द्वारा, अन्य शिष्यों के साथ सुसमाचार प्रचार पर भी गया और उनके साथ मिलकर प्रचार किया, आश्चर्यकर्म भी किए, किन्तु अन्त में वह प्रभु के द्वारा विनाश का पुत्रऔर नाश होने वालाकहा गया (यूहन्ना 17:12), और अनन्त विनाश में चला गया। प्रभु यीशु मसीह ने भी अपने पहाड़ी प्रचार के अन्त में कहा है कि हर कोई जो उन्हें हे प्रभुकहता है, वह स्वर्ग में प्रवेश नहीं करेगा, चाहे उन्होंने प्रभु के नाम में कई प्रकार के प्रचार, आश्चर्यकर्म, तथा अद्भुत एवँ उल्लेखनीय कार्य ही क्यों न किए हों – प्रभु ने उन लोगों के इन कामों को ‘कुकर्म’ कहा ; स्वर्ग में केवल वे ही प्रवेश करेंगे जो परमेश्वर पिता के आज्ञाकारी रहते हैं और परमेश्वर की इच्छे के अनुसार कार्य करते हैं (मत्ती 7:21-23)। इसलिए लोगों के प्रगट व्यवहार, प्रचार, और कार्यों के आधार पर हम किसी भी मनुष्य के विषय यह निश्चित नहीं कह सकते हैं कि प्रभु में विश्वास रखने का दावा करने और उसके नाम से प्रचार और कार्य करने वाला प्रत्येक व्यक्ति वास्तव में उद्धार पाया हुआ है भी कि नहीं! पौलुस ने भी इस बात के विषय सचेत किया और समझाया कि शैतान और उसके दूत भी ज्योतिर्मय स्वर्गदूतों और मसीह के प्रेरितों का स्वरूप धारण कर के लोगों को बहकाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15)। इसलिए व्यक्ति के उद्धार पाया हुआ होने की वास्तविकता तो केवल परमेश्वर ही जानता है, और वही इसका निर्णय कर सकता है, तथा करता है।

साथ ही, बाइबल यह भी कहती है कि ऐसे भी मसीही विश्वासी पाए जाएँगे जो सच्चे मन से पश्चाताप करके प्रभु के पास तो आए, वे वास्तव में उद्धार पाए हुए भी थे, किन्तु उन्होंने प्रभु के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जो जांचे जाने पर प्रतिफल दिए जाने के योग्य स्वीकार किया जाता। जब न्याय के समय उनके काम जांचे जाएँगे, तो वे उद्धार पाया हुआ होने के कारण स्वर्ग में तो प्रवेश करेंगे, परन्तु छूछे हाथ, बिना कुछ भी प्रतिफल लिए, और अनन्त-काल तक फिर ऐसे ही छूछे हाथ ही रहेंगे (1 कुरिन्थियों 3:9-15)। सँसार के सभी लोगों के समान, किए गए कर्मों के अनुसार, न्याय तो मसीही विश्वासियों का भी होगा, वरन न्याय आरंभ ही मसीही विश्वासियों से होगा (1 पतरस 4:17-18), परन्तु मसीही विश्वासियों का यह न्याय उनके उद्धार पाने के लिए नहीं, वरन अनन्तकाल के लिए उनके कर्मों के आधार पर उन्हें प्रतिफल दिए जाने के लिए होगा – उद्धार कर्मों के आधार पर नहीं है, परन्तु प्रतिफल कर्मों के आधार पर हैं। उद्धार तो केवल पापों से पश्चाताप और प्रभु यीशु पर लाए विश्वास के आधार पर परमेश्वर के अनुग्रह ही से है; किसी भी या कैसे भी कामों, अथवा प्रथाओं, या रीति-रिवाजों, या अनुष्ठानों/विधि-विधानों आदि के पालन के द्वारा कदापि नहीं है (इफिसियों 2:1-9)।

ऐसे भी अनेकों लोग हैं जो मसीही विश्वास में आने के पश्चात, किसी कारणवश विश्वास से भटक गए, परन्तु प्रभु ने अपने वायदे (इब्रानियों 13:5) के अनुसार, उन्हें कभी छोड़ा नहीं। देर-सवेर, किसी न किसी रीति से, प्रभु उन्हें फिर विश्वास में लौटा कर ले आया, और फिर वे बहुत सामर्थी होकर प्रभु के लिए इस्तेमाल हुए, विश्वास में अपने लौट कर आने की गवाही के द्वारा वे अनेकों अन्य भटके हुए या कमज़ोर विश्वासियों के लिए प्रोत्साहन और हिम्मत का कारण बने। यदि आज के संदर्भ से देखें, तो जब प्रभु यीशु ने कलवारी के क्रूस पर समस्त सँसार के पापों का दण्ड अपने ऊपर लिया, उस समय तो हमारा कोई भौतिक अस्तित्व था ही नहीं। साथ ही बाइबल में कहीं यह नहीं लिखा है कि प्रभु ने लोगों के केवल उन ही पापों को अपने ऊपर लेकर उनके दण्ड को सहा जो लोगों ने प्रभु के पास आने – अर्थात, उद्धार पाने से पहले किए थे; और उन लोगों के उद्धार पाने के बाद के पापों का निवारण प्रभु ने उन लोगों के हाथों में, उनके द्वारा किए गए कर्मों पर छोड़ दिया – यह तो असंभव है – उद्धार का एक भाग परमेश्वर के अनुग्रह पर, और दूसरा भाग मनुष्यों के कर्मों के आधार पर कैसे हो सकता है? प्रभु ने तो प्रत्येक व्यक्ति के समस्त जीवन में किए गए समस्त पापों की पूरी-पूरी कीमत क्रूस पर पहले ही चुका दी है, चाहे इतिहास में उसका अस्तित्व कभी भी हो। प्रभु ने उसके पापों के दुष्परिणाम से उस व्यक्ति के अधूरे नहीं परन्तु संपूर्ण निवारण का मार्ग बना कर दे दिया है; अब किसी भी मनुष्य के लिए उद्धार का जीवन जीने के लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहा है। जब व्यक्ति के जन्म से लेकर उसके मरण के समय तक के सभी पापों को प्रभु ने अपने ऊपर ले लिया, उनकी पूरी कीमत चुका दी, तो फिर उस व्यक्ति को स्वर्ग जाने से रोकने वाला कौन सा पाप बच गया? क्या उसके विश्वास से भटक जाने का पाप भी उसके जीवन के अन्य पापों में सम्मिलित नहीं है, जिसकी कीमत प्रभु द्वारा कलवारी के क्रूस पर चुकाई जा चुकी है? 

और यदि यह मान लिया जाए कि व्यक्ति उद्धार पाने के बाद अपने जीवन की शुद्धता और पवित्रता, तथा निष्पाप रहने को अपने ही प्रयासों, कार्यों, और सामर्थ्य से बनाए रख सकता है, तो फिर वह यही कार्य उद्धार पाने से पहले भी कर सकता था – फिर तो प्रभु का आना न केवल व्यर्थ हो गया, वरन पापी, मरणहर मनुष्य, प्रभु परमेश्वर से भी बढ़कर हो गया! क्योंकि फिर तो मनुष्य मात्र अपने कर्मों से ही वह कर सकने की क्षमता रखता है जिसके लिए प्रभु को स्वर्ग छोड़कर धरती पर मनुष्य रूप में आना पड़ा, दुःख और अपमान सहना पड़ा, और अपनी जान देनी पड़ी – यह तो पूर्णतः असंगत और असंभव विचार है! फिर, ऐसा कौन सा उद्धार पाया हुआ व्यक्ति है जो सच्चे मन से कहा सकता है कि उद्धार पाने के बाद उससे कभी भी – शरीर, मन, ध्यान, विचार में, कोई भी पाप नहीं हुआ? प्रेरित यूहन्ना कहता है: “यदि हम कहें, कि हम में कुछ भी पाप नहीं, तो अपने आप को धोखा देते हैं: और हम में सत्य नहीं। यदि कहें कि हम ने पाप नहीं किया, तो उसे झूठा ठहराते हैं, और उसका वचन हम में नहीं है” (1 यूहन्ना 1:8, 10) – ध्यान कीजिए कि वह प्रेरित और उद्धार पाया हुआ होने के बावजूद, “हम” शब्द के प्रयोग द्वारा, अपने आप को भी पाप करने वालों में सम्मिलित कर रहा है। तो फिर अब विश्वास से भटके और न भटके हुए में क्या अन्तर रह गया? पाप विश्वास से भटकने वाले ने भी किया, और पाप उन्होंने भी किया है और करते हैं जो अभी भी विश्वास में बने हुए हैं – और क्योंकि पाप की मजदूरी मृत्यु है (रोमियों 6:23), इसलिए दोनों ही समान स्थिति में हैं, और दोनों ही अपने कैसे भी कार्यों या कर्मों के द्वारा अथवा उनके आधार पर नहीं वरन प्रभु के अनुग्रह, क्षमा, और प्रेम द्वारा ही परमेश्वर के सम्मुख धर्मी ठहरते हैं, और दोनों ही फिर स्वर्ग जाने के लिए प्रभु के अनुग्रह और क्षमा द्वारा ही स्वीकार्य माने जाते हैं।

इसलिए ऐसे लोगों के लिए जो विश्वास से भटक गए हैं प्रार्थना करते रहना चाहिए, न कि उनकी भर्त्सना करनी चाहिए; और उनका विश्वास में लौट कर आना तथा प्रभु के लिए उपयोगी होना प्रभु के हाथों में, उसके समय और योजना के अनुसार, पूरा होने के लिए छोड़ देना चाहिए।

बुधवार, 24 जुलाई 2019

प्रभु यीशु के कोड़े खाने और लहू द्वारा चंगाई



प्रश्न: बाइबल के वाक्याँश “...उसके कोड़े खाने से हम चंगे हो जाएं” का क्या अभिप्राय है? क्या हम प्रभु यीशु मसीह के लहू के द्वारा दोनों, आत्मिक तथा शारीरिक, चंगाई पाते हैं?

        पवित्र-शास्त्र की व्याख्या और स्पष्टिकरण करते समय सबसे आम गलती होती है किसी भी खण्ड या पद को, या पद के भाग (जैसे कि यह वाक्याँश) को उसके संदर्भ के बाहर लेना, फिर उसे अपनी इच्छा और उद्देश्य के अनुसार अर्थ एवँ स्पष्टिकरण देना, और इसके बाद उन व्याख्याओं को “तथ्य” या “सत्य” कहकर न केवल स्वीकार कर लेना, वरन दूसरों को भी बताना और सिखाना; चाहे वे अर्थ और व्याख्याएं संदर्भ तथा अन्य संबंधित बातों के अनुसार सही न होने के कारण अवास्तविक, असत्य एवँ अस्वीकार्य ही क्यों न हों। परमेश्वर का वचन, बाइबल हमें बल देकर समझाती है कि अपने आप को परमेश्वर को (किसी मनुष्य को नहीं) ग्रहणयोग्य और ऐसा काम करने वाला ठहराने का प्रयत्न कर, जो लज्ज़ित होने न पाए, और जो सत्य के वचन को ठीक रीति से काम में लाता हो” (2 तिमुथियुस 2:15); और उन उपदेशकों के फंदे में न पड़ें जो सही बाइबल के अनुसार सही सिद्धान्त एवँ शिक्षा की बजाए लोगों को पसन्द आने वाली बातें बताने तथा सिखाने में रुचि रखते हैं (2 तिमुथियुस 4:2-4)। परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग के शैतान के छलावों में फंसने से बचने के लिए (शैतान तो इतना धूर्त है कि उसने प्रभु यीशु मसीह को भी इस दुरुपयोग के छलावे में फंसाने का प्रयास किया था मत्ती 4:1-11), हम सभी को 1 थिस्सलुनीकियों 5:21 “सब बातों को परखो: जो अच्छी है उसे पकड़े रहो का पालन करना चाहिए, तथा बेरिया के मसीही विश्वासियों के समान बनना चाहिए, जिनकी बाइबल में इसलिए प्रशंसा हुई है क्योंकि बताई तथा सिखाई गई बातों पर विश्वास करने से पहले उन्होंने पहले स्वयँ उन बातों की सत्यता को पवित्र-शास्त्र से जाँचा और तब ही विश्वास किया (प्रेरितों 17:11-12) – यद्यपि उन्हें बताने और सिखाने वाला पौलुस था।

        बाइबल के जिस पद से यह वाक्याँश लिया गया है वह है यशायाह 53:5 “परन्तु वह हमारे ही अपराधों के कारण घायल किया गया, वह हमारे अधर्म के कामों के हेतु कुचला गया; हमारी ही शान्ति के लिये उस पर ताड़ना पड़ी कि उसके कोड़े खाने से हम चंगे हो जाएं।पतरस ने भी अपनी पहली पत्री में इस पद का प्रयोग किया – “वह आप ही हमारे पापों को अपनी देह पर लिये हुए क्रूस पर चढ़ गया जिस से हम पापों के लिये मर कर के धामिर्कता के लिये जीवन बिताएं: उसी के मार खाने से तुम चंगे हुए” (1 पतरस 2:24)। रोचक है कि, इन दो पदों के अतिरिक्त, बाइबल में कोई अन्य पद है ही नहीं जहाँ ये दोनों शब्द “कोड़े/मार” और चंगे/चंगाई एक साथ आए हों। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि इन दोनों ही पदों में जिस चंगाई की बात हो रही है वह हमारी आत्मा पर आए पाप के दुष्प्रभावों से चंगाई है; न कि किसी बीमारी, अस्वस्थता, शारीरिक विकार, या अन्य किसी भी शारीरिक रोग से प्राप्त हुई किसी शारीरिक चंगाई की।

        क्योंकि सामान्य प्रयोग में, शब्द “चंगे/चंगाई” अधिकांशतः शारीरिक समस्याओं से स्वस्थ होने के लिए उपयोग किए जाते हैं, इसलिए इस पर ध्यान दिए बिना ही, यह मान लिया गया जाता है कि यहाँ भी “चंगे” होने का अभिप्राय शारीरिक चंगाई से ही है। दुर्भाग्यवश, वे उपदेशक और शिक्षक जो यही चाहते हैं कि हम इसी अर्थ को स्वीकार करें, हमें यही गलत व्याख्या सिखाते और उस पर बल देते रहते हैं, और इसी अर्थ को बनाए रखने के लिए वे बाइबल के पद को उसके संदर्भ तथा लेख की निरंतरता से बाहर निकाल कर ही दिखाते हैं, उसके संदर्भ में नहीं। बाइबल के पदों या भागों की व्याख्या करके उसका उचित निष्कर्ष निकालने तथा उसे स्वीकार योग्य बनाने के लिए, न तो वे स्वयँ संदर्भ एवँ संबंधित बातों पर ध्यान देते हैं, और न ही अपने सुनने वालों को ऐसा करने देते हैं, और न ही कभी यह सिखाते हैं कि ऐसा किया जाए।

        एक और अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य जिस पर हमें ध्यान देने की आवश्यकता है वह यह है कि संपूर्ण बाइबल में कहीं पर भी, दोनों ही वाक्यांशों उसके कोड़े खाने से हम चंगे हो जाएंऔर उसी के मार खाने से तुम चंगे हुएमें से किसी का भी न तो कभी प्रयोग और न ही कभी संकेतात्मक उपयोग, किसी भी भविष्यद्वक्ता, प्रेरित, या परमेश्वर के जन द्वारा, किसी भी चमत्कारिक चंगाई के किए जाने के साथ हुआ है और पुराने तथा नए नियम में चम्ताकारिक शारीरिक चंगाइयों के कार्यों की कोई कमी नहीं है। नए नियम से शारीरिक चंगाई से संबंधित कुछ उदाहरणों को देखिए: पौलुस ने तिमुथियुस को निर्देश दिया, “भविष्य में केवल जल ही का पीने वाला न रह, पर अपने पेट के और अपने बार बार बीमार होने के कारण थोड़ा थोड़ा दाखरस भी काम में लाया कर” (1 तिमुथियुस 5:23)। स्पष्ट है कि, तिमुथियुस किसी बार बार होने वाली शारीरिक व्याधि से परेशान था, और पौलुस उसे इसके लिए थोड़ा दाखरसऔषधि के रूप में लेने की सलाह दे रहा है क्यों उसने यह सलाह नहीं दी कि तिमुथियुस प्रभु यीशु के कोड़े/मार खाने का प्रयोग अपनी चंगाई के लिए करे, और उसके आधार पर प्रभु से अपनी चंगाई को प्राप्त करने का दावा करे? स्वयं पौलुस के ही शरीर में चुभाए गए कांटे पर विचार करें पौलुस कहता है और इसलिये कि मैं प्रकाशनों की बहुतायत से फूल न जाऊं, मेरे शरीर में एक कांटा चुभाया गया अर्थात शैतान का एक दूत कि मुझे घूँसे मारे ताकि मैं फूल न जाऊं। इस के विषय में मैं ने प्रभु से तीन बार बिनती की, कि मुझ से यह दूर हो जाए” (2 कुरिन्थियों 12: 7, 8)। पौलुस को अपने शरीर की इस व्यथा के लिए प्रभु के सामने क्यों विनती करनी पड़ी? इसके स्थान पर, उसने प्रभु के कोड़े/मार खाने से मिलने वाली चंगाई को प्राप्त करने का दावा क्यों नहीं कर लिया? और पौलुस तथा तिमुथियुस में, प्रभु से चंगाई प्राप्त करने के लिए “विश्वास” होने के विषय कोई संदेह नहीं किया जा सकता है! हम प्रेरितों के कार्य पुस्तक में भी देखते हैं कि जब, प्रेरितों 3 अध्याय में, पतरस ने मंदिर के प्रवेश-स्थान पर बैठे जन्म के लंगड़े को चँगा किया, तो उसने उस लंगड़े व्यक्ति से यह नहीं कहा कि प्रभु यीशु के कोड़े/मार खाने से तुझे चंगाई दी जाती है और तू पूर्णतः स्वस्थ किया जाता है;” वरन, तब पतरस ने कहा, चान्दी और सोना तो मेरे पास है नहीं; परन्तु जो मेरे पास है, वह तुझे देता हूं: यीशु मसीह नासरी के नाम से चल फिर” (प्रेरितों 3:6)। क्या बाइबल में कहीं पर भी ऐसा कोई भी उदाहरण है जब वाक्याँश “प्रभु के कोड़े/मार खाने से तुम/हम चंगे किए जाते हैं” कहने के द्वारा किसी को भी चँगा किया गया है? यदि नहीं है तो, फिर यह तात्पर्य और व्याख्या क्यों इतने उत्साह के साथ प्रचार की जाती है, सिखाई जाती है और स्वीकार की जाती है? इससे भी महत्वपूर्ण बात, क्यों लोग इतने भोले और मूर्ख बनकर इसे स्वीकार कर रहे हैं, बजाए इसके कि इस असत्य को बताने, सिखाने तथा फैलाने वालों से उनके प्रचार के आधार का बाइबल से स्पष्टिकरण एवँ उदाहरण माँगें, उनके असत्य को प्रगट करें, और झूठी शिक्षाओं को बन्द करवाएँ?

        बात सीधी सी और स्पष्ट है कि इन पदों में प्रभु यीशु द्वारा हमारे स्थान पर सही गई क्रूस की यातना की पीड़ा का उल्लेख है, जो उसने संसार के पापों के लिए सही, उन पापों के लिए जिसे उसने अपने ऊपर ले लिया था (1 पतरस 2:24; 1 यूहन्ना 2:2; 1 यूहन्ना 3:5)। हमारे पापों के दण्ड को अपने ऊपर ले लेने के द्वारा, उसे वह कोड़े/मार, तथा क्रूस की यातना सहन करनी पड़ी, और प्रभु के द्वारा वह सब सहने से हमें पापों से छुटकारा मिला, तथा पाप के द्वारा टूटे हुए हमारे मनों को जिस चंगाई की आवश्यकता थी वह मिली, जिसकी भविष्यवाणी यशायाह ने की थी और उसकी पूर्ति का दावा प्रभु यीशु ने किया था (यशायाह 61:1; लूका 4:18)। वाक्याँश उसके कोड़े खाने से हम चंगे हो जाएंबीमारियों और व्याधियों से शारीरिक चंगाई मिलने के विषय या संदर्भ में नहीं है, वरन पाप के दुष्प्रभावों से हमारे मनों को मिलने वाली चंगाई के विषय में है।

        इसी प्रकार से, बाइबल में कहीं पर भी यह नहीं लिखा गया है कि प्रभु यीशु का लहू हमें शारीरिक बीमारियों और व्याधियों से चंगा करता है। प्रभु यीशु का लहू अन्य अनेकों बातों के लिए कारगर है, उनके लिए एकमात्र उपाय है और वे सभी बातें आत्मिक हैं, प्रभु परमेश्वर के साथ हमारे संबंध से जुड़ी हुई हैं, उदाहरण के लिए हमारे पापों का प्रायश्चित (रोमियों 3:25); हमारा धर्मी ठहराया जाना (रोमियों 5:9); हमें परमेश्वर के निकट लाना, अर्थात परमेश्वर से हमारा मेल-मिलाप करवाना (इफिसियों 2:13); हमारे विवेक को मरे हुए कार्यों से शुद्ध करना (इब्रानियों 9:14) तथा हमें पवित्र स्थान में प्रवेश करने का हियाव देना (इब्रानियों 10:19); हमारा छुटकारा (1 पतरस 1:19); हमें पापों से शुद्ध करना (1 यूहन्ना 1:7); हमारा पापों से छुड़ाया जाना (प्रकाशितवाक्य 1:5)। लेकिन कहीं पर भी प्रभु यीशु के लहू के द्वारा शारीरिक चंगाई मिलने का कोई उल्लेख या उदाहरण नहीं है, और न ही कभी भी कहीं प्रेरितों या नए नियमों के पात्रों ने, किसी भी या कैसी भी शारीरिक चंगाई के लिए “यीशु मसीह के लहू” वाक्याँश का प्रयोग किया अथवा सिखाया है।

        इसलिए लोगों को यह सिखाना कि हम बाइबल के किसी अंश को किसी ऐसे स्वरूप या कार्य के लिए माँगें या उसका दावा करें, जिसके लिए न तो परमेश्वर का वचन बताता है और न ही हमें माँगने/करने के लिए कहता/सिखाता है, निश्चय ही परमेश्वर के वचन के अनुसार बिलकुल भी नहीं है, ऐसा करना वचन से पूर्णतः असंगत है, और 2 तिमुथियुस 2: 15 के विरुद्ध है; इसलिए इन बातों को करना कदापि स्वीकार करने योग्य नहीं है, और इसका पूर्णतः तिरिस्कार किया जाना चाहिए।

मंगलवार, 16 जुलाई 2019

प्रभु भोज और बपतिस्मा


प्रश्न: क्या प्रभु भोज में सम्मिलित होने के लिए बपतिस्मा लेना अनिवार्य है?

उत्तर:
        प्रभु भोज और उससे संबंधित बातें एक बहुत बड़ा विषय है, जिसकी संपूर्ण चर्चा यहाँ कर पाना संभव नहीं है। यह बहुत संक्षेप में, बाइबल के कुछ हवालों और उदाहरणों द्वारा इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयत्न है।

        ध्यान कीजिए कि प्रभु भोज की स्थापना, प्रभु यीशु ने फसह के पर्व को मनाते हुए की थी। फसह के पर्व का विवरण निर्गमन 12 अध्याय में मिलता है, और प्रभु यीशु का वह फसह का मेमना होने के विषय 1 कुरिन्थियों 5:7 बताया गया है। निर्गमन 12:3-4 में परमेश्वर का निर्देश था कि एक घराने/परिवार  के लिए एक मेमना बलिदान किया जाए, और यदि घराना छोटा हो तो वह अपने पड़ौसी के साथ मिलकर इसे कर ले। तात्पर्य यह, कि एक मेमने को खाने के लिए जो लोग एकत्रित होते थे, वे एक परिवार या घराना होते थे – अर्थात उन्हें साथ देखकर देखने वाला यह समझता था कि ये सभी एक ही परिवार/घराने के सदस्य हैं, और इसके लिए शारीरिक रीति से एक परिवार होना अनिवार्य नहीं था – दो भिन्न परिवार मिलकर एक होकर भी इस कार्य को कर सकते थे। प्रभु यीशु ने जब फसह खाने की तैयारी के लिए कहा, तो अपने ‘व्यक्तिगत या निज’ परिवार, जिनके साथ उनका खून का रिश्ता था, उनके साथ तैयारी करने को नहीं कहा और न ही उन्हें आमंन्त्रित किया, वरन प्रभु ने यह भोज उन शिष्यों के साथ खाया जो उसके साथ दिन-रात रहा करते थे। उन शिष्यों के परिवार जन भी इस भोज में आमंत्रित नहीं थे। प्रभु यीशु वह ‘बलिदान का एक मेमना’ बने और उस एक मेमने में से खाने वाले सभी उसके ‘परिवार’ अर्थात उसकी कलीसिया के सदस्य हैं; वे चाहे परस्पर सांसारिक रीति से संबंधित न भी हों, परन्तु प्रभु में लाए गए  विश्वास द्वारा अब एक परिवार हैं – परमेश्वर का परिवार (इफिसियों 2:17-19)।

        प्रभु भोज कोई औपचारिक रीति या परंपरा नहीं है जिसका निर्वाह अपने आप को “ईसाई” या “मसीही” कहने वाला कोई भी जन कर ले। प्रभु के उन बारह शिष्यों के अतिरिक्त प्रभु के अन्य शिष्य भी थे; लूका 10:1 में हम 70 अन्य शिष्यों का उल्लेख पाते हैं, और प्रेरितों 1:15 में 120 शिष्य साथ एकत्रित होकर प्रार्थना किया करते थे; किन्तु प्रभु ने उन सब को उस अंतिम प्रभु भोज के लिए नहीं बुलाया, और न ही शिष्यों को यह कहा कि “बाद में अन्य शिष्यों में भी बाँट देना”। फिर, प्रभु ने उस भोज को स्थापित करते समय केवल वहाँ उपस्थित शिष्यों से ही यह कहा: “...मुझे बड़ी लालसा थी, कि दुख-भोगने से पहिले यह फसह तुम्हारे साथ खाऊं” (लूका 22:14-15)। यह हमें दिखाता है कि प्रभु की दृष्टि में वे ही प्रभु भोज के योग्य हैं जो व्यावहारिक जीवन में प्रभु के साथ सदा बने रहते हैं, उसमें लाए गए विश्वास द्वारा प्रभु का परिवार/घराना हैं।

        एक और बहुत महत्वपूर्ण बात का ध्यान करना आवश्यक है – यहूदा इस्करियोती को प्रभु भोज नहीं दिया गया था; जब प्रभु ने रोटी और दाखरस को अपना बदन और लहू कहकर शिष्यों में बाँटा, उस समय तक यहूदा वहाँ से जा चुका था। यूहन्ना 13 में हम देखते हैं कि फसह मनाने के लिए एकत्रित होने पर प्रभु ने सबसे पहले शिष्यों के पाँव धोए, और फिर वे लोग भोजन करने के लिए बैठे, और तब प्रभु ने सबसे पहला टुकड़ा डुबोकर यहूदा को दिया, टुकड़ा लेते ही शैतान उसमें समा गया और वह उन्हें छोड़कर बाहर चला गया (13:26, 27, 30)। यह प्रभु भोज की स्थापना नहीं थी; वरन भोजन का आरंभ था। प्रभु ने प्रभु भोज की स्थापना, उस समय चल रहे भोजन के दौरान की, अर्थात जब वे लोग भोजन कर रहे थे: “...जब वे खा रहे थे, तो यीशु ने रोटी ली, और आशीष मांग कर तोड़ी, और चेलों को देकर कहा, लो, खाओ; यह मेरी देह है” (मत्ती 26:26), और यहूदा इससे पहले उन्हें छोड़कर जा चुका था।

        इन सभी तथ्यों की आधार पर हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि प्रभु भोज प्रभु ने केवल अपने अंतरंग शिष्यों के लिए, उन्हें अपने घराने/परिवार का स्वीकार करते हुए, स्थापित किया था; उनके लिए जो पूर्णतः उसे समर्पित थे, उसके साथ सदा बने रहते थे (चाहे वे सिद्ध नहीं भी थे)। आज हम प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास और उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करने के द्वारा प्रभु के परिवार के सदस्य बनते हैं (यूहन्ना 1:12-13; रोमियों 8:14-17), और प्रभु भोज में सम्मिलित होने में लौलीन रहना प्रभु के साथ निकट संबंध बनाए रखने की एक विधि है; अन्य विधियाँ हैं उसके वचन का अध्ययन करने, प्रार्थना करने तथा उसकी अन्य संतानों के साथ संगति रखने में लौलीन रहना (प्रेरितों 2:42)।

        अब ध्यान कीजिए, न तो जब प्रभु भोज पहली बार स्थापित किया गया, तब, किसी भी शिष्य के बपतिस्मा लिए हुए होने अथवा न लिए हुए होने की कोई बात न तो उठी और न ही प्रभु द्वारा कही गई। बाइबल के अनुसार यह भी स्पष्ट है कि बपतिस्मे के द्वारा न तो कोई प्रभु की सन्तान, और न ही उसके परिवार का सदस्य बनता है। जो प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास लाते हैं, वे बपतिस्मा लेते हैं (मत्ती 28:19; प्रेरितों 2:41), न कि बपतिस्मा लेने से वे विश्वास लाते हैं। बपतिस्मा लेना मसीही विश्वास में आने की सार्वजनिक गवाही है; बपतिस्मे से कोई ‘मसीही विश्वासी’ नहीं बनाता है, वरन जो मसीही विश्वासी बन जाते हैं, वे अपने विश्वास में आने की सार्वजनिक गवाही के रूप में प्रभु की आज्ञा के अनुसार, डूब का बपतिस्मा लेते हैं। इसलिए बपतिस्मा लेना प्रभु भोज में सम्मिलित होने की कोई शर्त या अनिवार्यता नहीं है।

        जब प्रेरित पौलुस में होकर पवित्र आत्मा ने 1 कुरिन्थियों 11 में प्रभु भोज से संबंधित गलत धारणाओं और व्यवहार के विषय शिक्षा दी, तो उन गलतियों और सुधारों में कहीं यह नहीं लिखवाया कि ‘लोग जाँच लें कि उन्होंने बपतिस्मा लिया है अथवा नहीं, और केवल वे ही भाग लें जिन्होंने बपतिस्मा ले लिया हो।’ ऐसा कोई निषेध बाइबल में कहीं नहीं आया है। न तो बपतिस्मे से उद्धार है और न ही परमेश्वर के परिवार की सदस्यता; वरन जिन्होंने पश्चाताप और विश्वास में आने के द्वारा प्रभु के अनुग्रह से उद्धार पाया है, वैध बपतिस्मा उन ही का है और वे अपने मसीही विश्वास में आने के द्वारा परमेश्वर के परिवार के सदस्य उसी क्षण हो गए जैसे ही उन्होंने प्रभु यीशु से अपने पापों से क्षमा माँगकर अपना जीवन प्रभु को समर्पित किया।

        इसलिए स्वेच्छा से सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप करने तथा अपना प्रभु यीशु मसीह को अपना निज उद्धारकर्ता ग्रहण करके अपना जीवन प्रभु को समर्पित करने वाला प्रत्येक उद्धार पाया हुआ व्यक्ति प्रभु भोज में सम्मिलित हो सकता है; बाइबल के अनुसार उसे प्रभु भोज में सम्मिलित होने के लिए बपतिस्मा लेने की कोई अनिवार्यता नहीं है; परन्तु प्रभु की आज्ञा का पालन करने के लिए उसे शीघ्रातिशीघ्र, अवसर मिलते ही, डूब का बपतिस्मा अवश्य लेना चाहिए, यह करने में कोई विलम्ब नहीं करना चाहिए। बपतिस्मा लेना और प्रभु भोज में भाग लेना, दोनों ही प्रभु यीशु की आज्ञाएँ हैं, जिनका पालन अवश्य होना चाहिए, और दोनों ही मसीही विश्वास में होने को दिखाती हैं। किन्तु बाइबल में बपतिस्मा लिया हुआ होना प्रभु भोज में सम्मिलित होने के लिए अनिवार्य होना कहीं नहीं बताया गया है।

मंगलवार, 9 जुलाई 2019

बाईबल में कहाँ लिखा है कि चर्च जाना चाहिए?



प्रश्न: कुछ लोग चर्च ना जाकर कहते हैं ज़रूरी नहीं चर्च जाए हम घर में YouTube से वचन सुन लेते हैं और प्रार्थना कर लेते हैं। क्या यह सही है?

उत्तर:
        इस प्रश्न का उत्तर समझने के लिए यह समझना अत्यावश्यक है कि बाइबल के अनुसार “चर्च” क्या है। मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद चर्च हुआ है वह है एक्क्लेसीया, जिसे हिन्दी में कलीसिया भी कहा जाता है। बाइबल के अनुसार चर्च या कलीसिया कोई भवन अथवा ईंट-पत्थर का बना भौतिक स्थान नहीं है, वरन परमेश्वर के परिवार के लोगों का समूह है (1 तिमुथियुस 3:15), परमेश्वर के निवास के लिए उसका घर है (इफिसियों 2:22)। बाइबल के अनुसार कलीसिया की परिभाषा है: “परमेश्वर की उस कलीसिया के नाम जो कुरिन्थुस में है, अर्थात उन के नाम जो मसीह यीशु में पवित्र किए गए, और पवित्र होने के लिये बुलाए गए हैं; और उन सब के नाम भी जो हर जगह हमारे और अपने प्रभु यीशु मसीह के नाम की प्रार्थना करते हैं” (1 कुरिन्थियों 1:2)।

        प्रारंभिक कलीसिया की स्थापना के समय में मसीही विश्वासी एक साथ नियमित रीति से एकत्रित हुआ करते थे, और उनके एकत्रित होने के उद्देश्य थे: “और वे प्रेरितों से शिक्षा पाने, और संगति रखने में और रोटी तोड़ने में और प्रार्थना करने में लौलीन रहे” (प्रेरितों 2:42)। तब वे ऐसा मंदिर में या घर-घर प्रतिदिन किया करते थे, और उद्धार पाए हुओं को प्रभु स्वयँ अपनी कलीसिया में मिला देता था “और वे प्रति दिन एक मन हो कर मन्दिर में इकट्ठे होते थे, और घर घर रोटी तोड़ते हुए आनन्द और मन की सीधाई से भोजन किया करते थे। और परमेश्वर की स्‍तुति करते थे, और सब लोग उन से प्रसन्न थे: और जो उद्धार पाते थे, उन को प्रभु प्रति दिन उन में मिला देता था” (प्रेरितों 2:46-47)। अर्थात कलीसिया के लोगों का एक साथ एकत्रित होना एक दैनिक क्रिया थी, जिसका उद्देश्य वचन की शिक्षा पाना, परस्पर संगति रखना, साथ मिलकर प्रार्थना करना, प्रभु भोज में सम्मिलित होना, और प्रभु की स्तुति और आराधना करना होता था – वे लोग इन बातों में “लौलीन रहते थे” अर्थात उनके द्वारा ऐसे एकत्रित होना और यह सब करना बड़ी गंभीरता से लिया और किया जाता था, इसका उनके जीवनों में बहुत महत्व था।

        जहाँ-जहाँ प्रभु यीशु मसीह में विश्वास द्वारा पापों की क्षमा और उद्धार का सुसमाचार गया, और लोगों ने इस सुसमाचार को स्वीकार किया, प्रभु के वचन और जीवन को अपने जीवन में अपनाया, वहाँ यही बात भी अपनाई गई, और लोगों के घरों में कलीसियाएं एकत्रित होने लगीं (रोमियों 16:5; 1 कुरिन्थियों 16:19; कुलुस्सियों 4:15; फिल्मोन 1:2)। अर्थात, मसीही विश्वासी के लिए इस प्रकार संगति में एकत्रित होना प्रभु की ओर से निर्धारित और आवश्यक है, प्रभु की इच्छा के अनुसार है। इब्रानियों की पत्री में हम प्रभु की ओर से निर्देश पाते हैं कि प्रभु के आने का समय जैसे-जैसे निकट आता जाए, मसीही विश्वासियों का एकत्रित होना कम न हो वरन और भी अधिक बढ़ता जाए: “और एक दूसरे के साथ इकट्ठा होना ने छोड़ें, जैसे कि कितनों की रीति है, पर एक दूसरे को समझाते रहें; और ज्यों ज्यों उस दिन को निकट आते देखो, त्यों त्यों और भी अधिक यह किया करो” (इब्रानियों 10:25)।

        इसलिए चर्च जाना कोई रस्म या परंपरा या औपचारिकता नहीं है जिसका निर्वाह ऐसे नहीं तो वैसे कर के समझ लें कि हो गया। वरन यह प्रभु के निवासस्थान में, प्रभु की उपस्थिति में आना है जिससे कि उसकी निकटता में बढ़ने, उसके वचन को सीखने, उसके परिवार का सदस्य होने के नाते उस आत्मिक परिवार के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह किया जा सके; यह इस आत्मिक परिवार के अन्य सदस्यों की सुधि रखने तथा उनके साथ मिलकर रहने-बढ़ने का माध्यम है, तथा मसीही विश्वासी की आत्मिक उन्नति और बढ़ोतरी के लिए आवश्यक और अनिवार्य है।

        चर्च समझे जाने वाले ईंट-पत्थर के भवन में किसी भी व्यक्ति के आने और अपने उपस्थिति दर्ज करवाने की औपचारिकता निभाने से परमेश्वर को कोई सरोकार नहीं है, क्योंकि वह औपचारिकता के कर्मों तथा परंपराओं के निर्वाह से नहीं वरन अपनी आज्ञाकारिता से प्रसन्न होता है (1 शमूएल 15:22-23; अय्यूब 35:7; यशायाह 1:11-20; मलाकी 1:10), और जैसा ऊपर इब्रानियों 10:25 द्वारा दिखाया गया है, मसीही विश्वासियों का परस्पर अधिकाधिक संगति रखना प्रभु की आज्ञा है। घर में यू ट्यूब पर वचन सुन लेना और प्रार्थना कर लेना औपचारिकता का निर्वाह करना तो हो सकता है, किन्तु परस्पर संगति रखने की आज्ञा का निर्वाह कदापि नहीं हो सकता है। साथ ही जैसा प्रेरितों 2:42 में कहा गया है, मसीही विश्वासियों के लिए साथ मिलकर “रोटी तोड़ना” अर्थात पाक-अशा या प्रभु भोज में सम्मिलित होना भी घर बैठकर इंटरनेट या यू ट्यूब के माध्यम से संभव नहीं है।

        इसलिए चर्च जाना कोई रस्म या परंपरा या औपचारिकता नहीं है, वरन प्रभु की निकटता में बढ़ने, उसके वचन को सीखने, उसके परिवार का सदस्य होने के नाते उस परिवार के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करने, और अपने इस आत्मिक परिवार के अन्य सदस्यों की सुधि रखने तथा उनके साथ मिलकर रहने-बढ़ने का माध्यम है, मसीही विश्वासी की आत्मिक उन्नति और बढ़ोतरी के लिए आवश्यक और अनिवार्य है। इसलिए चर्च या प्रभु के घर में आना प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए और उसे उन अवसरों के लिए लालायित रहना चाहिए जब वह प्रभु के घर में जाकर प्रभु और उसकी अन्य संतानों के साथ संगति कर सके (भजन 84:1-2, 10; 122:1)। किन्तु जो केवल ‘ईसाई धर्म’ के निर्वाह की सोचते हैं, वे प्रभु की आज्ञाओं के प्रति गंभीर और संवेदनशील नहीं होते हैं, वे तो बस ‘धर्म’ की परंपराओं और औपचारिकताओं का निर्वाह मात्र करने में रुचि रखते हैं, और उसके लिए अपनी धारणाएँ बना लेते हैं और उन्हीं में फंसे रहते हैं – जो कि गलत है, बाइबल के अनुसार स्वीकार्य नहीं है।

शनिवार, 29 जून 2019

गैर-मसीही वैवाहिक रीति-रिवाजों, अनुष्ठानों एवं परम्पराओं का पालन करना।



क्या गैर-मसीही लोगों को प्रभु में आने के बाद पहले की गैर-मसीही वैवाहिक परंपराओं का निर्वाह करते रहना चाहिए या फिर छोड़ देना चाहिए? क्या हमें इंतिजार करना चाहिए कि प्रभु उन्हें बदलेंगे?
                  
उत्तर:
        परमेश्वर के वचन बाइबल में विवाह और वैवाहिक संबंधों के विषय तो बहुत कुछ सिखाया और बताया गया है, किन्तु विवाह की रीति, अनुष्ठानों और वैवाहिक प्रथाओं या परंपराओं के विषय कोई विशिष्ट निर्देश नहीं दिए गए हैं – न पुराने नियम में मूसा द्वारा दी गई व्यवस्था में, और न ही नए नियम में प्रभु यीशु की शिक्षाओं या पवित्र-आत्मा की प्रेरणा से लिखी गई पत्रियों में। एक बार को यह कुछ अटपटा और अस्वीकार्य सा प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में यह परमेश्वर की बुद्धिमता और दूरदर्शिता का प्रमाण है। यदि बाइबल में कहीं भी यह लिख दिया जाता कि विवाह और वैवाहिक संबंधों के रीति-रिवाज़ तथा अनुष्ठान क्या होने चाहिएँ, तो फिर उन अनुष्ठानों के निर्वाह के अतिरिक्त किए गए अन्य सभी विवाह बाइबल के अनुसार अनुचित और अवैध हो जाते। ऐसे में अन्यजातियों द्वारा सुसमाचार स्वीकार करके प्रभु में आने पर उनके सभी वैवाहिक संबंध (उन अनुष्ठानों और रीतियों के अनुसार न होने के कारण) अनुचित तथा अवैध हो जाते, परिवार बिखर जाते, जिससे फिर सामाजिक अव्यवस्था व्याप्त हो जाती, तथा प्रभु में आना लोगों के लिए फिर और भी अधिक कठिन तथा अस्वीकार्य हो जाता। किन्तु वर्तमान स्थिति के अन्तर्गत, सुसमाचार स्वीकार करने और प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता ग्रहण करने पर भी वैवाहिक संबंधों में विच्छेद की कोई आवश्यकता नहीं है (1 कुरिन्थियों 7:10-14)।

        आज हम जो विवाह से संबंधित रीति-रिवाज़ और अनुष्ठान आदि के निर्वाह को देखते हैं, वे बाइबल में दी गई प्रथाएँ नहीं परन्तु यूरोपीय देशों से आए हुए लोगों की प्रथाएँ और रिवाज़ हैं। वे लोग सँसार में जहाँ कहीं भी गए और प्रभु यीशु का सुसमाचार जहाँ कहीं भी उनके द्वारा पहुंचाया गया, साथ ही उन्होंने अपने रीति-रिवाज़ और अनुष्ठान भी पहुँचाए; और प्रभु में आने वाले स्थानीय लोग भी उनके द्वारा बताई गई “ईसाई” रीतियों और अनुष्ठानों को मानने लगे। किन्तु साथ ही में, उन “ईसाई” रीतियों में, स्थानीय रीति-रिवाजों का मिश्रण भी कुछ सीमा तक होता रहा। बाइबल में इस प्रक्रिया को कहीं अनुचित नहीं ठहराया गया है। बाइबल बस इतना कहती है कि जब वैवाहिक संबंध में बंधो तो उसे वफादारी से वैसे ही निभाओ, जैसे कि प्रभु यीशु मसीह अपनी दुलहन – विश्व-व्यापी कलीसिया के साथ निभाता है, और जैसा कलीसिया का प्रभु के प्रति निर्वाह करने का दायित्व है (इफिसियों 5:22-32)। इसलिए बाइबल के आधार पर मसीही विश्वासियों में वैवाहिक संबंध के लिए, इस बात के अतिरिक्त और कोई अनिवार्य रीति या अनुष्ठान नहीं है। सामान्यतः समाज और सँसार के लोग जिन्हें “ईसाई रिवाज़ या प्रथाएँ” कहते हैं, वे बाइबल से नहीं वरन उन यूरोपीय लोगों द्वारा आई हैं जिनके द्वारा प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करने के द्वारा उद्धार का सुसमाचार और मसीही विश्वास आया और फैलाया गया।

        विवाह संबंधित विभिन्न प्रथाएँ – सिंदूर, मंगल सूत्र, कंगन, आदि, भी क्षेत्र या स्थान की स्थानीय प्रथाएँ हैं। किन्तु उन सभी के साथ कुछ धार्मिक अभिप्राय भी जुड़े हुए हैं। जब उन बातों का पालन किया जाता है, तो साथ ही समाज के सभी लोगों के सामने यह अभिप्राय भी जाता है कि उन प्रथाओं से संबंधित धार्मिक अभिप्रायों को भी मान्यता दी जा रही है, उन धार्मिक अभिप्रायों का भी आदर तथा निर्वाह किया जा रहा है – चाहे मसीही विश्वासी व्यक्ति का यह अभिप्राय कदापि न हो, किन्तु उन चिन्हों की उपस्थिति एवँ निर्वाह स्वतः ही देखने वालों के मन यह भावना पहुँचा देते है।

        क्योंकि मसीही विश्वासी के जीवन का उद्देश्य प्रभु यीशु मसीह को आदर एवँ महिमा देना, और उसके उद्धार के जीवन का प्रचार और प्रसार करना है, इसलिए इन चिन्हों की उपस्थिति अनकहे रूप और अनजाने में मसीही विश्वासी के जीवन के इस अति-महत्वपूर्ण और प्राथमिक उद्देश्य को नकार देती है, उसकी मसीही गवाही के विपरीत हो जाती है। साथ ही कोई गैर-मसीही यह प्रश्न भी उठा सकता है कि जब आप इन वैवाहिक रीतियों के धार्मिक अभिप्राय को स्वीकार कर सकते हैं तो अन्य धार्मिक अनुष्ठानों और रीतियों को क्यों स्वीकार नहीं कर सकते हैं? ऐसे में मसीही विश्वासी का यह कहना कि वह उन्हें केवल विवाह के चिन्ह मानता है, किन्तु उनके धार्मिक संदर्भ को नहीं मानता है, उस दूसरे व्यक्ति के लिए ठेस का कारण हो सकता है, उसे प्रतिकूल प्रतिक्रया देने के लिए उकसा सकता है, उसकी समझ में यह उसके धर्म का अपमान हो सकता है, जिसके अनेकों प्रकार के दुष्परिणाम हो सकते हैं। इसलिए बेहतर यही है कि समाज और सँसार जिन्हें “ईसाई वैवाहिक रीतियाँ” मानता और स्वीकार करता है, उन्हीं के अनुसार रहा और चला जाए; और प्रभु में आने के पश्चात अन्य सभी बातों को छोड़ कर केवल मसीही बातों का निर्वाह किया जाए (1 कुरिन्थियों 10:31; 2 कुरिन्थियों 5:15)।

        प्रभु ने लोगों तक अपनी शिक्षाओं को पहुँचाने और लोगों को उन्हें मानना सिखाने का दायित्व हम मसीही विश्वासियों को दिया है (मत्ती 28:19-20)। इसलिए उन लोगों तक इन बातों के अभिप्राय और सत्य को पहुँचाने की जिम्मेदारी भी हमारी है। हम किसी को बलपूर्वक किसी बात को मानने या स्वीकार करने के लिए बाध्य, या उन्हें परिवर्तित नहीं कर सकते हैं – यह काम परमेश्वर का है। परन्तु उस परिवर्तन के लिए परमेश्वर की शिक्षाओं का आधार लोगों तक पहुँचाना हमारा काम है। इसलिए प्रार्थना-पूर्वक परिस्थिति और उसके अभिप्रायों को समझाएं, और हमारे द्वारा डाले गए वचन के बीज को प्रभु अपने समय में अपनी रीति से फलवन्त करेगा (1 कुरिन्थियों 3:6-7)।

शनिवार, 15 जून 2019

बाइबिल के अनुसार मोक्ष क्या है तथा मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकते हैं?


मनुष्य की आत्मिक दशा, उसके निवारण तथा समाधान के विषय परमेश्वर के वचन बाइबल के कुछ पद देखिए, जो पौलुस प्रेरित द्वारा रोम के मसीही विश्वासियों को लिखी गए पत्र में से लिए गए हैं:

रोमियों 2:20-30 :-

Romans 3:20 क्योंकि व्यवस्था के कामों से कोई प्राणी उसके साम्हने धर्मी नहीं ठहरेगा, इसलिये कि व्यवस्था के द्वारा पाप की पहिचान होती है।
Romans 3:21 पर अब बिना व्यवस्था परमेश्वर की वह धामिर्कता प्रगट हुई है, जिस की गवाही व्यवस्था और भविष्यद्वक्ता देते हैं।
Romans 3:22 अर्थात परमेश्वर की वह धामिर्कता, जो यीशु मसीह पर विश्वास करने से सब विश्वास करने वालों के लिये है; क्योंकि कुछ भेद नहीं।
Romans 3:23 इसलिये कि सब ने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं।
Romans 3:24 परन्तु उसके अनुग्रह से उस छुटकारे के द्वारा जो मसीह यीशु में है, सेंत मेंत धर्मी ठहराए जाते हैं।
Romans 3:25 उसे परमेश्वर ने उसके लोहू के कारण एक ऐसा प्रायश्चित्त ठहराया, जो विश्वास करने से कार्यकारी होता है, कि जो पाप पहिले किए गए, और जिन की परमेश्वर ने अपनी सहनशीलता से आनाकानी की; उन के विषय में वह अपनी धामिर्कता प्रगट करे।
Romans 3:26 वरन इसी समय उस की धामिर्कता प्रगट हो; कि जिस से वह आप ही धर्मी ठहरे, और जो यीशु पर विश्वास करे, उसका भी धर्मी ठहराने वाला हो।
Romans 3:27 तो घमण्ड करना कहां रहा उस की तो जगह ही नहीं: कौन सी व्यवस्था के कारण से? क्या कर्मों की व्यवस्था से? नहीं, वरन विश्वास की व्यवस्था के कारण।
Romans 3:28 इसलिये हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं, कि मनुष्य व्यवस्था के कामों के बिना विश्वास के द्वारा धर्मी ठहरता है।
Romans 3:29 क्या परमेश्वर केवल यहूदियों ही का है? क्या अन्यजातियों का नहीं? हां, अन्यजातियों का भी है।
Romans 3:30 क्योंकि एक ही परमेश्वर है, जो खतना वालों को विश्वास से और खतना रहितों को भी विश्वास के द्वारा धर्मी ठहराएगा।

बाइबल के अनुसार मनुष्य स्वभाव से ही पापी है और अपने अन्दर विद्यमान पाप करने के स्वभाव के कारण पाप करता है, न कि पाप करने के द्वारा पापी होता है। अर्थात पाप करने की प्रवृत्ति के आधीन है, जिस कारण वह परमेश्वर की संगति और जीवन से दूर है – क्योंकि पाप मनुष्य को परमेश्वर से दूर करता है: “परन्तु तुम्हारे अधर्म के कामों ने तुम को तुम्हारे परमेश्वर से अलग कर दिया है, और तुम्हारे पापों के कारण उस का मुँह तुम से ऐसा छिपा है कि वह नहीं सुनता” (यशायाह 59:2)। परमेश्वर से यह दूरी ही मृत्यु, अर्थात नरक में परमेश्वर से अनन्तकाल की दूरी की दशा है। जिस प्रकार पानी में डूबता हुआ मनुष्य अपने ही सिर या बालों को पकड़ कर अपने आप को पानी से बाहर नहीं खींच सकता है, उसे किसी अन्य की सहायता की आवश्यकता होती है; उसी प्रकार पाप में पड़ा हुआ मनुष्य अपने कर्मों से न तो अपने पापों के दुष्परिणामों से बच सकता है और न ही परमेश्वर की धार्मिकता तथा पवित्रता के स्तर तक पहुँच सकता है। मनुष्य की सारी धार्मिकता परमेश्वर की दृष्टि में मैले चिथड़ों के समान है “हम तो सब के सब अशुद्ध मनुष्य के से हैं, और हमारे धर्म के काम सब के सब मैले चिथड़ों के समान हैं। हम सब के सब पत्ते की नाईं मुर्झा जाते हैं, और हमारे अधर्म के कामों ने हमें वायु की नाईं उड़ा दिया है” (यशायाह 64:6), और अपनी आत्मिक अशुद्धता की दशा के कारण कोई भी स्वयँ से कुछ भी शुद्ध उत्पन्न करने में असमर्थ है “अशुद्ध वस्तु से शुद्ध वस्तु को कौन निकाल सकता है? कोई नहीं” (अय्यूब 14:4); “कौन कह सकता है कि मैं ने अपने हृदय को पवित्र किया; अथवा मैं पाप से शुद्ध हुआ हूं?” (नीतिवचन 20:9)। इसलिए, “फिर मनुष्य ईश्वर की दृष्टि में धमीं क्योंकर ठहर सकता है? और जो स्त्री से उत्पन्न हुआ है वह क्योंकर निर्मल हो सकता है?” (अय्यूब 25:4)।

अपने पापों के निवारण का जो कार्य मनुष्य अपने लिए नहीं कर सकता है, परमेश्वर ने मानवजाति के लिए कर के दे दिया। परमेश्वर ने मानव स्वरूप में जन्म लिया - प्रभु यीशु मसीह। प्रभु यीशु मसीह ने सँसार में मानव स्वरूप और परिस्थितियों में रहते हुए भी निष्पाप तथा निष्कलंक जीवन बिताया “क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहीं, जो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दुखी न हो सके; वरन वह सब बातों में हमारी नाईं परखा तो गया, तौभी निष्‍पाप निकला” (इब्रानियों 4:15)। प्रभु ने सँसार के सभी मनुष्यों के सभी पापों को अपने ऊपर ले लिया, और वह जो पाप से अनजान था अब सँसार के सभी मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर लेकर उनके लिए पाप बन गया “जो पाप से अज्ञात था, उसी को उसने हमारे लिये पाप ठहराया, कि हम उस में हो कर परमेश्वर की धामिर्कता बन जाएं” (2 कुरिन्थियों 5:21), “मसीह ने जो हमारे लिये श्रापित बना, हमें मोल ले कर व्यवस्था के श्राप से छुड़ाया क्योंकि लिखा है, जो कोई काठ पर लटकाया जाता है वह श्रापित है” (गलातियों 3:13), “वह आप ही हमारे पापों को अपनी देह पर लिये हुए क्रूस पर चढ़ गया जिस से हम पापों के लिये मर कर के धामिर्कता के लिये जीवन बिताएं: उसी के मार खाने से तुम चंगे हुए” (1 पतरस 2:24)। और तब उस पाप की दशा में वह मृत्यु जो मनुष्यों को सहनी थी, प्रभु ने उनके स्थान पर सह ली – अर्थात संसार के सभी मनुष्यों के सभी पापों का दण्ड सह लिया या अपने ऊपर ले लिया। प्रभु ने अपना बलिदान दिया और वह क्रूस पर मारा गया, गाड़ा गया, और अपने परमेश्वरत्व तथा मृत्यु पर विजयी होने को प्रमाणित करने के लिए, सदेह तीसरे दिन फिर जी भी उठा – “इसी कारण मैं ने सब से पहिले तुम्हें वही बात पहुंचा दी, जो मुझे पहुंची थी, कि पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया। और गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा” (1 कुरिन्थियों 15:3-4)। प्रभु यीशु मसीह का जीवन, मृत्यु और मृतकों में से पुनरुत्थान महज़ धारणाएँ अथवा किंवदंतियां नहीं हैं, वरन अकाट्य और स्थापित ऐतिहासिक तथ्य हैं जिन्हें आज तक अनेकों प्रयासों के बावजूद भी कभी कोई गलत प्रामाणित नहीं कर सका है, और इनके पर्याप्त प्रमाण परमेश्वर के वचन बाइबल के बाहर भी उस समय के लेखों में उपलब्ध हैं।

क्योंकि प्रभु यीशु ने सँसार के प्रत्येक मनुष्य के लिए, वह चाहे किसी भी समय, स्थान, धर्म, जाति आदि का क्यों न हो, उसके पापों का दण्ड चुका दिया है, इसलिए अब किसी भी मनुष्य को अपने किसी भी प्रयास द्वारा अपने पापों के निवारण को खोजने की आवश्यकता नहीं है। अब जो कोई प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास कर के, उन से अपने पापों की क्षमा माँगता है, और प्रभु के क्रूस पर मारे जाने, गाड़े जाने और तीसरे दिन जी उठने को स्वेच्छा तथा सच्चे मन से स्वीकार करता है, अपना जीवन प्रभु यीशु मसीह को समर्पित करता है, उसे प्रभु द्वारा पापों के क्षमा मिलती है, परमेश्वर के साथ उनका मेल-मिलाप हो जाता है “सो जब हम विश्वास से धर्मी ठहरे, तो अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर के साथ मेल रखें। जिस के द्वारा विश्वास के कारण उस अनुग्रह तक, जिस में हम बने हैं, हमारी पहुंच भी हुई, और परमेश्वर की महिमा की आशा पर घमण्ड करें” (रोमियों 5:1-2); और ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की सन्तान, उसके घराने का सदस्य हो जाता है – “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लोहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना 1:12-13)।

यही मोक्ष या उद्धार या नया जन्म पाना है – नश्वर सांसारिक दशा और अनन्त काल के नर्क की ‘मृत्यु’ से छूटकर, परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास के द्वारा परमेश्वर की सन्तान होने और अनन्तकाल की आशीष तथा परमेश्वर की संगति एवं सुरक्षा का जीवन प्राप्त कर लेना – मृत्यु की दशा से निकलकर चिरस्थाई जीवन और आशीष की दशा में आ जाना; किन्ही कर्मों से नहीं वरन परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा, प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने से।

इफिसियों 2:1-9 :-
Ephesians 2:1 और उसने तुम्हें भी जिलाया, जो अपने अपराधों और पापों के कारण मरे हुए थे।
Ephesians 2:2 जिन में तुम पहिले इस संसार की रीति पर, और आकाश के अधिकार के हाकिम अर्थात उस आत्मा के अनुसार चलते थे, जो अब भी आज्ञा न मानने वालों में कार्य करता है।
Ephesians 2:3 इन में हम भी सब के सब पहिले अपने शरीर की लालसाओं में दिन बिताते थे, और शरीर, और मन की मनसाएं पूरी करते थे, और और लोगों के समान स्‍वभाव ही से क्रोध की सन्तान थे।
Ephesians 2:4 परन्तु परमेश्वर ने जो दया का धनी है; अपने उस बड़े प्रेम के कारण, जिस से उसने हम से प्रेम किया।
Ephesians 2:5 जब हम अपराधों के कारण मरे हुए थे, तो हमें मसीह के साथ जिलाया; (अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है।)
Ephesians 2:6 और मसीह यीशु में उसके साथ उठाया, और स्‍वर्गीय स्थानों में उसके साथ बैठाया।
Ephesians 2:7 कि वह अपनी उस कृपा से जो मसीह यीशु में हम पर है, आने वाले समयों में अपने अनुग्रह का असीम धन दिखाए।
Ephesians 2:8 क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है।
Ephesians 2:9 और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्‍ड करे।