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गुरुवार, 13 मई 2021

1 तीमुथियुस 2:15, बच्चे जनने से उद्धार पाने को समझना


प्रश्न:

   1 तीमुथियुस 2:15 में जो लिखा है कि स्त्री बच्चे जनने से उद्धार पाएगी; इस वचन का सही अर्थ क्या है?

 

उत्तर:

    इस पद की बात ने बहुत से लोगों को असमंजस में रखा हुआ है, और बाइबल की अनेकों व्याख्याओं तथा टिप्पणियों में इसके विभिन्न उत्तर हैं, इसे कई प्रकार से समझाने का प्रयत्न किया गया है। प्रार्थनाओं के द्वारा परमेश्वर ने जो मुझे अपने वचन तथा अपने कुछ सेवकों की व्याख्याओं के माध्यम से समझ प्रदान की है, उसे आपके सामने रख रहा हूँ; आशा है यह उत्तर आपको स्वीकार्य होगा। इसे समझने के लिए पहले कुछ अन्य संबंधित बातों को देखना और समझना होगा, तभी, सभी के तालमेल के साथ इसे ठीक से समझा जा सकेगा।


    पहली बात, बच्चा जनने के द्वारा ‘उद्धार’ वह आत्मिक उद्धार नहीं है जो रोमियों 10:9-13 में तथा परमेश्वर के वचन में अन्य स्थानों लिखा है। यह सामान्य जानकारी है कि प्रत्येक बच्चा जनने वाली स्त्री आत्मिक उद्धार पाई हुई नहीं होती है; और प्रत्येक आत्मिक उद्धार पाई हुई स्त्री ने बच्चा भी जना हो, यह भी अनिवार्य नहीं है। हिन्दी में ‘उद्धार और अंग्रजी में अधिकांश अनुवादों में ‘saved’ के प्रयोग के कारण ही इस पद का यह असमंजस और समझने में कठिनाई है। मूल यूनानी भाषा में जो शब्द यहाँ पर प्रयोग किया गया है वह है “सोद्जो” जिसका सामान्यतः अर्थ होता है ‘बचना’ या ‘उद्धार’; किन्तु परमेश्वर के वचन बाइबल में केवल यही इस शब्द का अर्थ नहीं है। परमेश्वर के वचन में इसके अन्य अर्थ और प्रयोग भी किए गए हैं, उदाहरण के लिए:

·        मत्ती 9:21, लूका 8:50 और प्रेरितों 4:9 में इसी शब्द का अनुवाद और प्रयोग ठीक या बहाल होना या चंगा होने के अभिप्राय से किया गया है।

·        मत्ती 27:40 में इसे सुरक्षा या विकट परिस्थिति से छुड़ा लेने के अभिप्राय से अनुवाद और प्रयोग किया गया है।

·        मरकुस 5:23 में इसे चंगाई मिलने के अभिप्राय से अनुवाद और प्रयोग किया गया है।

·        2 तिमुथियुस 4:18 में इसे सुरक्षित रखे जाने के अभिप्राय से अनुवाद और प्रयोग किया गया है।

   (उपरोक्त उदाहरण हिन्दी अनुवाद में उतने स्पष्ट नहीं हैं जितने अंग्रजी में; इसलिए यदि आप इन्हें किसी अंग्रेज़ी अनुवाद – जैसे कि KJV या NKJV आदि के साथ देखें तो अधिक अच्छे से समझ में आएगा।)

   कहने का अर्थ यह है कि जिस “उद्धार” की यहाँ पर, 1 तीमुथियुस 2:15, में बात की गई है, वह आत्मिक उद्धार नहीं, वरन किसी अन्य स्थिति से बचाया जाना, या सुरक्षित किया जाना, या उससे निकालकर बहाल करना, या उभारना है। इसलिए अब यह देखना होगा कि यह क्या स्थिति है जिसके बारे में यहाँ बात की जा रही है। इसे दो बातों से देखा तथा समझा जा सकता है – एक, उत्पत्ति में स्त्री के सृजे जाने के समय से आरंभ करके, परमेश्वर द्वारा निर्धारित स्त्रियों की भूमिका के सन्दर्भ में होकर; तथा, दूसरे, इस पद के तात्कालिक सन्दर्भ के साथ।

   पहले, उनके रचे जाने के समय के विवरण और उससे संबंधित बातों को देखकर, परमेश्वर द्वारा स्त्रियों के लिए निर्धारित भूमिका को समझते हैं। आदम के लिए स्त्री की आवश्यकता का पहला उल्लेख उत्पत्ति 2:18 में आया है, और वहाँ पर परमेश्वर ने कहा, “मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊंगा जो उस से मेल खाए।” परमेश्वर का उद्देश्य स्पष्ट है – स्त्री को परमेश्वर द्वारा आदम के समान बनाई गई, उससे मेल खाने वाली, उसकी सहायक होना था। यहाँ, हमारी चर्चा के लिए महत्वपूर्ण बात है कि स्त्री की रचना से भी पहले, जब परमेश्वर ने उसके बारे में विचार किया, तभी से उसकी भूमिका आदम का “सहायक” होने की थी, न कि आदम पर प्रभुता या वर्चस्व रखने वाली होने की। जो व्यक्ति सहायक नियुक्त होता है, वह निर्णायक अथवा नियंत्रण करने वाला नहीं होता है, वरन जिसकी सहायता के लिए उसे रखा जाता है, उसकी अधीनता और आज्ञाकारिता में होकर कार्य करता है। सहायक का अधिकारी हो जाना या अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने वाला हो जाना, उसके लिए निर्धारित कार्य और भूमिका के विरुद्ध जाना है, अनाज्ञाकारी होना है।

    इसका यह कदापि तात्पर्य नहीं है कि स्त्री को आदम से गौण और उसकी “दासी” होने के लिए बनाया गया था – बिना स्त्री के आदम अधूरा था, स्त्री को उसका पूरक, उसकी सहायता करने वाला होना था (1 कुरिन्थियों 11:11)। दोनों, आदम और हव्वा के लिए परमेश्वर ने कार्य और भूमिकाएँ निर्धारित की थीं; उन्हें एक-दूसरे के साथ मिलकर, परस्पर सहयोग के साथ उन दायित्वों का निर्वाह करना था। बड़े या छोटे होने या एक-दूसरे पर प्रभुता रखने की भावना अथवा होड़ तो तब थी ही नहीं। यह भिन्नता, होड़, और एक का दूसरे से ऊँचा होने का प्रयास करने की भावना का प्रचलन उस पाप के कारण आया जो उन दोनों ने किया (उत्पत्ति 3:16); यह भिन्नता और प्रवृत्ति परमेश्वर की आरंभिक योजना का भाग नहीं थी।

   इसे इस प्रकार समझिए, किसी बड़ी कंपनी और कारखाने में एक मालिक होता है, और उसके नीचे अलग-अलग जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए अलग-अलग विभागों के अलग-अलग डायरेक्टर होते हैं – कोई आर्थिक मामले संभालता है, कोई कर्मचारियों की नियुक्ति और उनसे संबंधित समस्याओं को देखता है, कोई कच्चे माल की आपूर्ति का दायित्व निभाता है, तो कोई तैयार माल को बाहर बेचने और मुनाफा कमाने के कार्य को पूरा करता है, आदि। सभी “डायरेक्टर” हैं, सभी उसी एक मालिक के लिए कार्य कर रहे हैं, सभी के मिल-जुल कर कार्य करने से ही कंपनी और कारखाना तरक्की कर सकते हैं; कोई बड़ा या छोटा नहीं है, सभी एक दूसरे के सहायक और पूरक हैं। किन्तु जैसे ही कोई एक भी “डायरेक्टर” किसी दूसरे के विभाग में दखलंदाजी करने लगता है, अपने आप को औरों से बड़ा या अधिक महत्वपूर्ण जताने के प्रयास करने लगता है, वह सभी के लिए परेशानी उत्पन्न करता है और अन्ततः न केवल अपना, वरन औरों का था कंपनी एवं कारखाने का, और उसके मालिक का भी नुकसान कर डालता है। इसी प्रकार, परमेश्वर की मूल योजना में, संसार में पाप के प्रवेश से पहले, आदम और हव्वा के अपने-अपने कार्य और भूमिकाएँ थीं, जो परस्पर एक दूसरे की पूरक थीं, जिन्हें एक दूसरे के सहयोग से निभाया जाना था; उन्हें बड़ा-छोटा होने के लिए नहीं, साथ मिलकर काम करने के लिए रखा गया था – प्राथमिक भूमिका पहले सृजे गए आदम की थी, और हव्वा को उसका सहायक होना था, उसे आदम के साथ मिलकर परिवार बनाना था, और उस परिवार की देखभाल और परवरिश करनी थी। उनके इस साथ मिलकर कार्य करने से वे समस्त पृथ्वी और उसकी सभी प्राणियों को वश में रखने वाले बन सकते थे (उत्पत्ति 1:27-28)। अदन की वाटिका में कार्य करने, उसकी रक्षा करने, और उसके फलों में से लेकर खाने, तथा किस फल को नहीं खाना है, इसका निर्णय रखने का दायित्व परमेश्वर ने, हव्वा की सृष्टि से भी पहले, आदम को दिया था (उत्पत्ति 2:15-17), जिसे फिर हव्वा की सृष्टि के पश्चात उसके साथ बाँटा नहीं गया; यह आदम का दायित्व था, हव्वा का नहीं।

   अदन की वाटिका में हुए उस पहले पाप, जिसका परिणाम हम आज तक झेल रहे हैं, के कार्यान्वित हो जाने में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हव्वा द्वारा उसके लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित भूमिका और कार्य से हटकर, आदम को सौंपे गए कार्य में हाथ डालना था – वह “सहायक” से “निर्णायक” और नियंत्रण करने वाली बन गई। शैतान की बातों और बहकावे में आकर (2 कुरिन्थियों 11:3), न केवल उसने वाटिका से संबंधित कार्य और वहाँ के फलों में से किसे खाना है और किसे नहीं का निर्णय करने का अधिकार अपने हाथों में ले लिया, तथा बिना आदम से पूछे अपने उस निर्णय को प्रभावी किया, वरन उसने आदम को भी अपने इस गलत निर्णय के पालन में सम्मिलित कर लिया (उत्पत्ति 3:6, 12)। यह आदम की गलती थी कि उसने हव्वा को मना करने के स्थान पर, उसके कहे को माना, और इस प्रकार वह भी परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता में आ गया। परमेश्वर द्वारा निर्धारित कार्य और भूमिका के निर्वाह के स्थान पर, दूसरे के कार्य और भूमिका में हाथ डालने के कारण पाप का यह श्राप सारे संसार और सृष्टि पर आ गया (रोमियों 8:19-23), जिसके निवारण के लिए परमेश्वर को स्वर्ग की महिमा छोड़कर पृथ्वी पर अपमानित होने तथा निकृष्ट मृत्यु को सहन करने के लिए आना पड़ा। इस पाप के कारण ही स्त्री को पुरुष की अधीनता में आना पड़ा (उत्पत्ति 3:16) – किन्तु अधीनता में आने का यह अर्थ नहीं है कि उसे पुरुष से हीन अथवा गौण कर दिया गया, उसे निकृष्ट या दासी होकर रहने के लिए कहा गया। परमेश्वर द्वारा यह कहना कि “तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा”, कोई नई बात लाना नहीं था, केवल स्त्री के “निर्णायक” होने की बजाए, उसके “सहायक” होने को, जो कि परमेश्वर की मूल योजना थी, उसी बात को फिर से दृढ़ता से व्यक्त और प्रभावी करना था।

   क्योंकि परमेश्वर ने स्त्री से “सहायक” रहने के लिए कहा है, इसीलिए वचन में बारंबार स्त्रियों को शांत रहने, पुरुषों को और कलीसिया में प्रचार न करने, और अपने पति से सीखने और उसके अधीन रहने के लिए निर्देश दिए गए हैं (1 कुरिन्थियों 11:3-10; 1 कुरिन्थियों 14:34-35; इफिसियों 5:22-24; कुलुस्सियों 3:18; 1 तिमुथियुस 2:11-12; तीतुस 2:15; 1 पतरस 3:1-6)। यह उन्हें नीचा या गौण दिखाने के लिए नहीं है – क्योंकि परमेश्वर की दृष्टि में वे पुरुषों से किसी भी रीति से कमतर नहीं हैं, दोनों ही समान हैं (प्रेरितों 2:18; 5:14; 8:12; गलातियों 3:28)। वरन यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित उनकी तथा पुरुषों की भूमिका का सही रीति से निर्वाह करने के लिए है; उनके परमेश्वर की आज्ञाकारिता में बने रहने के लिए है। क्योंकि परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के परिणाम भयानक होते हैं, इसलिए यदि वे उसकी आज्ञाकारिता में नहीं आएँगी तो फिर अपने लिए विनाश ले लाएँगी। जो कार्य और भूमिका, विशेषकर परिवार बनाने और संचालित करने से संबंधित बातें, ममता, सहनशीलता, धैर्य आदि के निर्वाह को जैसा स्त्रियाँ कर सकती हैं, वह पुरुषों के लिए करना असंभव है। सामान्यतः, केवल स्त्री ही परिवार और बच्चों को परमेश्वर का भय और आदर करना सिखा सकती है; पुरुष के लिए यह करना बहुत कठिन है। पुरुष परिवार के लिए परमेश्वर की भक्ति का आदर्श और उदाहरण बन सकता है, किन्तु उस आदर्श और उदाहरण का अनुसरण करना, बच्चों को स्त्री ही सिखा सकती है। ऐसा भी नहीं है कि वचन के प्रचार और मसीही सेवकाई में स्त्रियों के किसी भी प्रकार से संलग्न होने के लिए मना किया गया है; वचन की शिक्षा तथा सेवकाई में भी उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है – अन्य महिलाओं और बच्चों के मध्य में (नीतिवचन 31:26-30; 1 तिमुथियुस 5:5-10; तीतुस 2:3-5); बस उन्हें यह प्रचार और शिक्षा, परमेश्वर की बुद्धिमानी और योजना में, पुरुषों और कलीसिया में करने से मना किया गया है। ध्यान कीजिए, मूसा की परवरिश राज-महल में, इस्राएलियों को सताने वाले मिस्रियों की रीति के अनुसार हुई थी, किन्तु उन इस्राएलियों के विपरीत व्यवहार की परिस्थितियों में, मूसा को वह परवरिश देने वाली उसकी अपनी माँ ही थी। परिणामस्वरूप, वयस्क होने पर वह मिस्र की रीति पर नहीं चला, वरन, इस्राएलियों को ही “अपने लोग” और यहोवा को अपना परमेश्वर मानने पाया, जिनके लिए वह मिस्र के राज-सिंहासन और ऐश्वर्य को त्यागने के लिए तैयार हो गया (प्रेरितों 7:22-36; इब्रानियों 11:24-26)। परिवार में स्त्रियों की इस अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका और आवश्यकता का पुरुषों के पास कोई विकल्प अथवा समाधान नहीं है। बात पुरुष और स्त्री को बड़े-छोटे के दृष्टिकोण से देखने के कारण बिगड़ती है, परमेश्वर के दृष्टिकोण से देखने और समझने के कारण संभलती है, आशीष लाती है।

   अब 1 तिमुथियुस 2:15 के संदर्भ पर आते हैं। बाइबल की कोई भी बात देखने, समझने के लिए उसे उसके तात्कालिक सन्दर्भ, अर्थात उसके आगे-पीछे के पदों के साथ देखना अनिवार्य है, साथ ही उसे बाइबल में  लिखी अन्य संबंधित बातों के साथ भी देखना आवश्यक है। इस अध्याय का आरंभ मसीही सेवकाई से संबंधित विवरण के साथ होता है (पद 1-8), और फिर मसीही समाज में स्त्रियों के व्यवहार से संबंधित निर्देश दिए गए हैं (पद 9-12), तथा स्त्रियों को दिए गए इन निर्देशों का कारण समझाया गया है (पद 13-14)। क्योंकि पौलुस को, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में, तिमुथियुस को ये निर्देश देने पड़े, इसलिए यह एक स्वाभाविक निष्कर्ष है कि तिमुथियुस जिस कलीसिया का अगुवा था, जिसकी देखभाल का दायित्व उसे सौंपा गया था, उसमें ऐसा नहीं हो रहा था। प्रत्यक्षतः, वहाँ पर स्त्रियाँ वह कर रही थीं जो परमेश्वर के वचन और मसीही विश्वास की शिक्षाओं के अनुसार सही नहीं था। स्त्रियाँ, परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपे गए दायित्व और भूमिका को छोड़ कर पुरुषों की भूमिका और कार्य में हाथ डाल रही थीं – वही पाप कर रही थीं जो हव्वा ने अदन की वाटिका में किया। इस कारण वे परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता की दोषी थीं, उस अनाज्ञाकारिता के दुष्परिणाम उन पर आने थे। उनके द्वारा स्वयं पर लाई गई इस विकट स्थिति से “उद्धार” अर्थात छुटकारा लेने और बहाल होने के लिए ही उन्हें यह कहा गया कि वे “बच्चा जनने” के द्वारा यह करने पाएँगी; अर्थात अपने पति के साथ मिलकर उसके “सहायक” की भूमिका के निर्वाह के द्वारा, परिवार में अपनी भूमिका के सही निर्वाह, परिवार और बच्चों की अच्छी देखभाल और सही परवरिश के द्वारा, वे अनाज्ञाकारिता का पाप करने की अपनी इस प्रवृत्ति से निकलने पाएंगी – उस से “उद्धार” पाएँगी – न कि वह आत्मिक उद्धार पाएंगी जिसका उल्लेख रोमियों 10:9-13 में किया गया है। इसीलिए इस 15 पद का दूसरा भाग कहता है,यदि वे संयम सहित विश्वास, प्रेम, और पवित्रता में स्थिर रहें।” क्योंकि जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम रखता है, वह परमेश्वर के वचन और निर्देशों पर विश्वास भी रखेगा, और चाहे स्वाभाविक प्रवृत्ति अथवा संसार के लोगों के द्वारा उकसाया जाना कैसा भी हो, वह संयम के साथ परमेश्वर के वचन का आज्ञाकारी रहेगा, और अनाज्ञाकारिता के पाप से दूषित नहीं वरन वचन की आज्ञाकारिता की पवित्रता में स्थिर बना रहेगा। बच्चा जनने का अभिप्राय पारिवारिक दायित्व का ठीक से निर्वाह करना है; और इस पद का तात्पर्य स्त्रियाँ पुरुषों के कार्यों में हाथ डालने के स्थान पर, अपने दायित्वों के निर्वाह में लौट आने और उन्हें ठीक से निभाने के द्वारा अनाज्ञाकारिता के दण्ड से बचाई जाएँगी, है।

रविवार, 9 मई 2021

यीशु हमारा सहायक 1 यूहन्ना 2:1-2

 यह ऑडियो सन्देश यू ट्यूब पर संगति का घर रुड़की के 9 मई 2021 की आराधना सभा के वीडियो लिंक में से लिया गया है : 

भाई आदित्या मकरियस: यीशु हमारा सहायक 1 यूहन्ना 2:1-2

मसीह का होना 2 कुरिन्थियों 5:15

यह ऑडियो सन्देश यू ट्यूब पर संगति का घर रुड़की के 9 मई 2021 की आराधना सभा के वीडियो लिंक में से लिया गया है 


  भाई राज कुमार: मसीह का होना 2 कुरिन्थियों 5:15

गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

दाऊद द्वारा जनगणना


   प्रश्न: दाऊद द्वारा जनगणना के लिए कौन ज़िम्मेदार – परमेश्वर (2 शमूएल 24:1) या शैतान (1 इतिहास 21:1)?

 

उत्तर:

 2 शमूएल 24:1 “और यहोवा का कोप इस्राएलियों पर फिर भड़का, और उसने दाऊद को इनकी हानि के लिये यह कहकर उभारा, कि इस्राएल और यहूदा की गिनती ले।

1 इतिहास 21:1 “और शैतान ने इस्राएल के विरुद्ध उठ कर, दाऊद को उकसाया कि इस्राएलियों की गिनती ले।

    यह दोनों खण्ड परस्पर विरोधाभास प्रतीत में होते हैं, क्योंकि पढ़ते ही लगता है कि 2 शमूएल 24:1 में यह कार्य यहोवा ने करवाया, और 1 इतिहास 21:1 से लगता है कि वही कार्य शैतान ने करवाया – इसलिए असमंजस होता है।


    बात को समझने से पहले यह ध्यान रखना आवश्यक है कि परमेश्वर शैतान को भी अपनी योजनाओं की पूर्ति में प्रयोग कर सकता है, किन्तु साथ ही वह पहले से ही शैतान द्वारा अपने लोगों के विरुद्ध कुछ कर पाने की सीमाएं भी निर्धारित और स्थापित कर देता है, जैसा कि हम अय्यूब के जीवन से तथा प्रभु यीशु के द्वारा शिष्यों से अपने पकड़वाए जाने से पहले के वार्तालाप में देखते हैं (अय्यूब 1:12; 2:6; लूका 22:31-32)। साथ ही परमेश्वर पहले ही इस्राएलियों को यह चेतावनी दे चुका था कि यदि उसके लोग, उसके साथ बाँधी गई वाचा को तोड़ेंगे, तो वह भी उनसे अपना मुँह छुपा लेगा (व्यवस्थाविवरण 31:16-17), यदि वे उसे अपनी मूर्खता या व्यर्थ बातों से रिस दिलाएंगे, तो वह भी उन्हें मूर्खता के लिए रिस दिलाएगा (व्यवस्थाविवरण 32:21)। एक अन्य तथ्य जिसे ध्यान में रखना आवश्यक है, वह है कि जनगणना के दोनों ही वृतांतों से यह प्रकट है कि प्राथमिक दोष इस्राएली प्रजा का था, और दाऊद फिर इसमें खिंच गया, तथा मूर्खता करने के लिए उकसाया गया।


    अब हम 2 शमूएल 24:1 पर आते हैं – हम इसके सन्दर्भ, इससे पिछले अध्याय, अध्याय 23, से समझने पाते हैं कि यह घटना दाऊद के राज्य के बाद के समय के उन वर्षों की है, जब वह उस पूरे क्षेत्र में, अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भी, और अपनी प्रजा में भी, एक महान, प्रबल, और शक्तिशाली राजा स्थापित हो चुका था। अध्याय 23 उसके शूरवीर सेनापतियों और सैनिकों, सेना-नायकों और उनके पराक्रम के कार्यों आदि का भी वर्णन करता है। इस पृष्ठभूमि के साथ हम आगे देखते हैं कि इस अध्याय (2 शमूएल 24) का आरंभ “और यहोवा का कोप इस्राएलियों पर फिर भड़का” शब्दों के साथ होता है। अर्थात इस्राएल तथा दाऊद के जीवनों में कुछ ऐसा आ गया था जिस से परमेश्वर उनसे क्रुद्ध हुआ, और उसे इस्राएल तथा उसके राजा को कुछ पाठ सिखाने की आवश्यकता हुई। इन तथ्यों के आधार पर जो विचार सामने आता है वह यह है कि यद्यपि समस्त इस्राएल में सुरक्षा, निश्चिंतता, और समृद्धि का माहौल था, किन्तु अब उन्हें अपनी इस सुरक्षा, निश्चिंतता, और समृद्धि का कारण उनपर बनी रहने वाली परमेश्वर की कृपा और अनुग्रह नहीं, वरन उनके महान राजा तथा उसके शूरवीर, पराक्रमी सेनापतियों और विशाल सेना के कार्य और प्रताप दिखने लग गए थे। संभवतः यही भावना, अर्थात, प्रजा के लोगों और सेना की संख्या एवं सामर्थ्य में घमण्ड, या तो राजा दाऊद में भी आ गई थी, अन्यथा आने लगी थी। तभी, एक तो, उसके सेनापति योआब ने उसे समझाने और जनगणना न करने की सलाह दी परंतु दाऊद नहीं माना, और योआब को जनगणना के लिए जाना पड़ा (2 शमूएल 24:2-4; 1 इतिहास 21:2-4); और दूसरे, यह जनगणना करवाने के लिए दाऊद बाद में अपने आप को दोषी बता कर पश्चाताप भी करता है (2 शमूएल 24:10; 1 इतिहास 21:8)।


    इस्राएलियों के द्वारा परमेश्वर के स्थान पर पराक्रमी दाऊद और उसकी शूरवीर सेना को अपनी सुरक्षा, निश्चिंतता, और समृद्धि का आधार समझ लेना, और दाऊद का भी, जो परमेश्वर को इतनी निकटता से जानता था, शैतान की बात पर ध्यान लगाना, चिताए जाने पर भी नहीं सुधारना, शैतान के बहकावे में आ जाना और इस संबंध में परमेश्वर की इच्छा आ पता न करना, परमेश्वर को बुरा लगा (1 इतिहास 21:7)। दाऊद जब तक शाऊल से जान बचा कर भाग रहा था, वह अपनी हर बात के लिए परमेश्वर से पूछा करता था। जब राजा बनकर सुरक्षित तथा आदरणीय हो गया तो निश्चिन्त होकर अपने आप पर भरोसा करने लग गया – वाचा के संदूक को यरूशलेम लाने का निर्णय लेना (2 शमूएल 6:1-8), मंदिर बनवाने का निर्णय लेना (1 इतिहास 17:1-4), इस जनगणना का आदेश देना, बतशेबा के साथ व्यभिचार और उसके पति ऊरिय्याह की हत्या करवाना (2 शमूएल 23:7-10), आदि उसकी इस प्रवृत्ति के उदाहरण हैं। परमेश्वर को हलके में लेने और उसके आदर तथा महिमा को चुराने के दोषी दाऊद और उसकी प्रजा दोनों ही थे, और परमेश्वर अपने आदर और महिमा के विषय बहुत विशिष्ट रहता है तथा जलन रखता है (यशायाह 42:8; 48:11; भजन 50:21-22); इसलिए परमेश्वर को दाऊद और उसकी प्रजा के लोगों, दोनों ही को यह पाठ पढ़ाना पड़ा (मलाकी 2:2)। शैतान हमेशा अवसर की तलाश में रहता है कि परमेश्वर के लोगों में कोई अनुचित अभिलाषा उत्पन्न हो, और वह उनकी उस अनुचित अभिलाषा की चिंगारी को भड़का कर उन्हें ही भस्म कर देने वाली आग बना दे (याकूब 1:12-15)। दाऊद और उसकी प्रजा ने परमेश्वर के बाड़े की मर्यादा को तोड़ा, उसकी सुरक्षा के बाहर आए, और सर्प ने उन्हें डस लिया (सभोपदेशक 10:8)। 


    दाऊद और उसकी प्रजा के लोगों को यह पाठ पढ़ाने के लिए परमेश्वर ने शैतान को दाऊद को उकसा लेने दिया कि वह दाऊद से जनगणना करवाए (1 इतिहास 21:1) – जनगणना करवाने के पश्चात दाऊद को अपनी गलती का एहसास हुआ, और उसे बहुत पछतावा भी हुआ, किन्तु उसे तथा प्रजा को ताड़ना भी सहनी पड़ी। उस जनगणना के परिणामों के द्वारा परमेश्वर इस्राएलियों और दाऊद को यह दृढ़ता से सिखाने पाया कि उनकी सुरक्षा उनके सैनिकों की संख्या और पराक्रम, राजा के महान होने में नहीं है, वरन परमेश्वर स्वयं उनकी सुरक्षा और सहायता, उनकी निश्चिंतता का आधार है; उसके अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति या बात में इस सुरक्षा का भरोसा रखना न केवल खतरनाक है, वरन हानिकारक भी है – और यही शिक्षा आज हमारे लिए भी है।

रविवार, 25 अप्रैल 2021

मत्ती 17:1 के छः दिन, या, लूका 9:28 के आठ दिन – कौन सा सही है?

 

  प्रश्न: 

    मत्ती 17:1 और लूका 9:28 में दिनों की संख्या में असंगति क्यों है? कौन सा वर्णन सही है?


  उत्तर:

    प्रश्न चुनौतीपूर्ण अवश्य लगता है, और सामान्य अवलोकन में एक ही घटना के वर्णन में परमेश्वर के वचन में असंगति, विरोधाभास प्रतीत होती है। इसका उत्तर भी बाइबल की व्याख्या के मूल सिद्धांतों पर आधारित है, जिनकी अनदेखी करने के कारण इस प्रकार के अनुचित विरोधाभास उत्पन्न हो जाते हैं, यद्यपि ऐसा कोई भी विरोधाभास परमेश्वर के वचन में नहीं है। बाइबल व्याख्या के ये अनिवार्य एवं मूल सिद्धांत हैं – बाइबल के प्रत्येक शब्द, वाक्यांश, पद या खण्ड को हमेशा ही उसके सन्दर्भ में देखें, सन्दर्भ से बाहर निकाल कर के नहीं; और लिखे हुए प्रत्येक शब्द पर ध्यान दें क्योंकि परमेश्वर के वचन का कोई भी शब्द व्यर्थ नहीं है। साथ ही हमेशा इस बात का ध्यान रखें कि मूल लेख और भाषा में अध्यायों अथवा पदों का कोई विभाजन नहीं था। हमारी वर्तमान बाइबलों में पाए जाने वाले ये सभी विभाजन कृत्रिम हैं, बाइबल की पुस्तकों के संकलित किए जाने के सैकड़ों वर्ष बाद में बाइबल का अध्ययन सहज करने, और उसके किसी भाग का सरलता से हवाला दे पाने के उद्देश्य से डाले गए हैं। इसलिए हमें सदा ज़ारी विषय और विचार के अनुसार बाइबल की बातों को देखना और समझना चाहिए, न कि उन विषयों और विचारों के किए गए इस कृत्रिम विभाजन के अनुसार। अब इन सिद्धांतों के आधार पर इन दोनों पदों को देखते हैं: 


  मत्ती 17:1 में लिखा है “छ: दिन के बाद यीशु ने पतरस और याकूब और उसके भाई यूहन्ना को साथ लिया, और उन्हें एकान्‍त में किसी ऊंचे पहाड़ पर ले गया।”


  और, लूका 9:28 में लिखा है इन बातों के कोई आठ दिन बाद वह पतरस और यूहन्ना और याकूब को साथ ले कर प्रार्थना करने के लिये पहाड़ पर गया।”


  लूका 9:28 अपनी बात के सन्दर्भ को स्पष्ट व्यक्त कर देता है - इन बातों के कोई आठ दिन बाद” – इसलिए यह अब पाठक पर है कि वह इस सन्दर्भ “इन बातों” को देखे और समझे, और तब इस पद की शेष बातों के साथ उसे मिलाकर, फिर उसकी वास्तविकता को समझे। कृपया इस बात का भी ध्यान कीजिए कि “बातों” (बहु वचन) लिखा गया है, न कि “बात” (एक वचन) – अर्थात लूका 9:28 के इस कथन से पहले जो कुछ बातें हुई हैं, उन बातों के आठ दिन के बाद फिर यह घटना हुई है। लूका 9:28 से पहले के पदों पर ध्यान करें तो तुरंत पहले, 9:18-27 में, शिष्यों के साथ प्रभु की एक महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा हो रही है, जो मत्ती 16:20-28 के समानान्तर है, और “इन बातों” में से ‘एक’, तथा अंतिम बात है। किन्तु इस चर्चा के होने से पहले भी कुछ और ‘बातें’ होकर चुकी हैं। इस चर्चा से पहले, 9:11-17 में, पाँच रोटी और दो मछलियों से प्रभु के द्वारा पाँच हजार से भी अधिक की भीड़ के खिलाए जाने का आश्चर्यकर्म है; और उससे भी पहले प्रभु द्वारा शिष्यों के प्रचार के लिए भेजे जाने (9:1-6) और हेरोदेस के घबराने और प्रभु यीशु को लेकर असमंजस में पड़ने (9:7-8), और चेलों के प्रचार से लौट कर आने और अपने किए हुए कार्यों को प्रभु को बताने (9:10) की बातें हैं। ये सभी ‘बातें’ (बहु वचन) मिलकर लूका 9:28 का सन्दर्भ बनाती हैं। अर्थात, सन्दर्भ के अनुसार, लूका 9:28 को इस प्रकार से समझना चाहिए – शिष्यों के प्रचार पर जाने और लौटने, फिर उनके एकांत स्थान पर जाने, वहाँ पर भीड़ के एकत्रित होने तथा प्रभु द्वारा उन्हें आश्चर्यकर्म के द्वारा भोजन करवाने, आदि “बातों के आठ दिन के बाद” प्रभु तीन शिष्यों को लेकर पहाड़ पर गया।


  जब कि मत्ती 17:1 का संदर्भ, इस से पहले के अध्याय का अंतिम भाग – मत्ती 16:21-28 है, जो लूका 9:18-27 की प्रभु की शिष्यों की चर्चा के साथ सामान्य है, और लूका 9:28 की “इन बातों”” के सन्दर्भ की अंतिम घटना है। प्रभु यीशु और शिष्यों के मध्य हुई इस चर्चा, जिसमें पतरस को प्रभु का सलाहकार और मैनेजर बनने के प्रयास के कारण अच्छे से डांट भी पड़ी (मत्ती 16:22-23), के “छः दिन के बाद” प्रभु यीशु तीन शिष्यों को लेकर पहाड़ पर गया।


  दोनों वृतांतों के संदर्भ का ध्यान रखते हुए इन पदों को देखने और समझने से स्वाभाविक निष्कर्ष सामने आता है कि लूका 9:1-17 की “बातों” के होने के “आठ दिन के बाद, और शिष्यों के साथ हुई प्रभु की चर्चा (मत्ती 16:21-28; लूका 9:18-27), के “छः दिन के बाद” प्रभु अपने उन तीन शिष्यों के साथ पहाड़ पर गया।


  इसलिए इन दोनों वृतांतों में कोई विरोधाभास नहीं है; लूका 9:1-27 की सभी बातों को होने में दो दिन लगे, और उन में से अंतिम बात, शिष्यों के साथ प्रभु की वह चर्चा जो मत्ती 16:28 और लूका 9:27 में समाप्त हुई, और इस के छः दिन के पश्चात प्रभु यीशु अपने शिष्यों को साथ लेकर पहाड़ पर गया।


परमेश्वर का वचन निर्विवाद, अटल, खरा और विश्वासयोग्य है; यदि कोई गलती प्रतीत भी होती है, तो यह हम मनुष्यों के उसे ठीक से देखने और समझने की कमी के कारण है, न कि वचन में कोई कमी होने के कारण। सभी पाठकों से निवेदन है, कृपया जब भी परमेश्वर के वचन में कुछ असंगत अथवा विरोधाभास प्रतीत हो, तो कृपया सन्दर्भ और अन्य बातों के साथ उस भाग का बारंबार अध्ययन करें, और विचार करें; परमेश्वर से उसके विषय प्रार्थना करें। साथ ही अध्याय और पदों के विभाजन की अनदेखी करते हुए, ज़ारी विषय या विचार के अनुसार संपूर्ण वृतांत या घटना अथवा चर्चा को देखने और विश्लेषण करने का प्रयास करें।

सोमवार, 19 अप्रैल 2021

मत्ती 16:28 को समझना

 

प्रश्न: मत्ती 16:28 में प्रभु यीशु द्वारा कही गई बात  "जो यहाँ खड़े हैं, उनमें से कुछ ऐसे हैं कि वे जब तक मनुष्य के पुत्र को उसके राज्य में आते हुए ना देख लेंगे, तब तक मृत्यु का स्वाद नहीं चखेंगे" को हम कैसे समझ सकते हैं?

 

उत्तर:

 प्रभु के राज्य, या स्वर्ग के राज्य से संबंधित प्रश्न में प्रभु के द्वारा कही बात को समझने के लिए कुछ अन्य पदों को भी ध्यान में रखकर चलना पड़ेगा। हमारी सामान्यतः यही स्वाभाविक धारणा होती है कि जैसे ही वाक्यांश “स्वर्ग का राज्य” या “परमेश्वर का राज्य” सामने आए, तो हम उसे भविष्य में, इस जगत के अंत तथा न्याय के साथ स्थापित होने वाले परमेश्वर के राज्य के रूप में देखें और समझें। इसमें कुछ गलत नहीं है, यह समझना ठीक तो है, किन्तु यहाँ पर प्रभु द्वारा कही गई बात की यही एकमात्र समझ भी नहीं है; क्योंकि यदि यही अर्थ लिया जाए तो यह इसे प्रभु यीशु के दूसरे आगमन के साथ जोड़ देता है, जिसकी तिथि अनिश्चित है, और आज लगभग 2000 वर्षों से जिसकी प्रतीक्षा चल रही है। इसीलिए मत्ती 16:28 की यह बात अव्यावहारिक और स्वीकार करने में कठिन प्रतीत होती है। साथ ही यदि मत्ती 21:31 में प्रभु यीशु द्वारा अपने विरोधियों और आलोचकों से कहे गई बात को देखें, जहाँ लिखा है “...यीशु ने उन से कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि महसूल लेने वाले और वेश्या तुम से पहिले परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करते हैं।” यहाँ पर हम देखते हैं कि प्रभु यीशु यहाँ परमेश्वर/स्वर्ग के राज्य में महसूल लेने वालों और वेश्याओं के प्रवेश के लिए निरंतर ज़ारी वर्तमान काल (Present Continuous Tense) का प्रयोग कर रहा है, न कि भविष्य काल (Future Tense) – ‘वे प्रवेश करेंगे का, अथवा अनिश्चितता का – ‘वे कर सकते हैं, का। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस समय प्रभु यीशु यह बात कह रहे थी, उस समय भी यह कार्य – लोगों का परमेश्वर/स्वर्ग के राज्य में प्रवेश होना ज़ारी था, हो रहा था; इसलिए परमेश्वर/स्वर्ग के राज्य में प्रवेश होने को केवल भविष्य की बात समझना ही एकमात्र तात्पर्य नहीं है।


प्रभु द्वारा मत्ती 16:28 में कही गई इस बात को समझने के लिए, उनकी पृथ्वी की सेवकाई के समय में प्रभु द्वारा कही गई कुछ बातों को देखिए:


यूहन्ना के पकड़वाए जाने के बाद यीशु ने गलील में आकर परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार प्रचार किया। और कहा, समय पूरा हुआ है, और परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है; मन फिराओ और सुसमाचार पर विश्वास करो” (मरकुस 1:14-15)। प्रभु ने अपनी सेवकाई का आरंभ पश्चाताप करने के आह्वान के साथ किया क्योंकि “परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है” – प्रभु के शब्दों पर ध्यान कीजिए, वह राज्य दूर भविष्य में नहीं है, वरन निकट है – आ ही गया है; राज्य निकट आने वाला है नहीं कहा, वरन निकट आ गया है कहा।


प्रभु स्वयं लूका 11:20 में कहता है, "परन्तु यदि मैं परमेश्वर की सामर्थ से दुष्टात्माओं को निकालता हूं, तो परमेश्वर का राज्य तुम्हारे पास आ पहुंचा"; अर्थात प्रभु यीशु की उपस्थिति और कार्य परमेश्वर के राज्य के विद्यमान होने के को दिखाते हैं। इसके कुछ समय पश्चात, “जब फरीसियों ने उस से पूछा, कि परमेश्वर का राज्य कब आएगा? तो उसने उन को उत्तर दिया, कि परमेश्वर का राज्य प्रगट रूप से नहीं आता। और लोग यह न कहेंगे, कि देखो, यहां है, या वहां है, क्योंकि देखो, परमेश्वर का राज्य तुम्हारे बीच में है” (लूका 17:20-21)। सेवकाई का आरम्भ करते हुए प्रभु कहता है कि परमेश्वर का राज्य निकट है; सेवकाई के दौरान, प्रभु, परमेश्वर के वचन के ज्ञानी फरीसियों को सिखाता है कि परमेश्वर का राज्य किसी वस्तु या घटना के समान प्रगट होने के द्वारा नहीं आता है, वरन वह तो अभी उनके मध्य में ही है, अर्थात उस समय प्रभु की उनके मध्य उपस्थिति में है, यदि वे प्रभु पर विश्वास कर लेते, प्रभु को स्वीकार कर लेते, तो परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर जाते।


मरकुस 12:28-34 को देखिए; शास्त्री प्रभु को परमेश्वर की आज्ञाओं के विषय फँसाना चाहते हैं; उस वार्तालाप के अंत में प्रभु उस प्रश्न करने वाले शास्त्री से कहता है, जिसने प्रभु के उत्तरों को बिना कोई अन्य प्रश्न उठाए स्वीकार कर लिया था, जब यीशु ने देखा कि उसने समझ से उत्तर दिया, तो उस से कहा; तू परमेश्वर के राज्य से दूर नहीं: और किसी को फिर उस से कुछ पूछने का साहस न हुआ” (मरकुस 12:34)। अर्थात, प्रभु उस शास्त्री से कह रहा था कि परमेश्वर की आज्ञाओं की सही समझ को स्वीकार करने के कारण तू परमेश्वर के राज्य से दूर नहीं है, अब अपने इस किताबी ज्ञान को व्यावहारिक भी बना ले, इसे अपने जीवन में लागू कर ले, परमेश्वर की आज्ञाओं को मान ले, और तू परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर लेगा।


उपरोक्त बातों से हम समझ सकते हैं कि परमेश्वर का राज्य या स्वर्ग का राज्य, प्रभु यीशु जिसकी बात करता और सिखाता था, वह प्रभु को स्वीकार करना, उसकी आज्ञाकारिता में हो जाना, उसे समर्पित हो जाना है, जो कि यूहन्ना 1:12-13 के भी अनुरूप है – प्रभु पर लाए गए विश्वास के द्वारा परमेश्वर की संतान बनना, उसके राज्य में उसके साथ रहने के हकदार हो जाना।


प्रभु यीशु ने अपने पकड़वाए जाने से कुछ ही पहले अपने शिष्यों से यूहन्ना 14:18-20 में यह भी कहा: “मैं तुम्हें अनाथ न छोडूंगा, मैं तुम्हारे पास आता हूं। और थोड़ी देर रह गई है कि फिर संसार मुझे न देखेगा, परन्तु तुम मुझे देखोगे, इसलिये कि मैं जीवित हूं, तुम भी जीवित रहोगे। उस दिन तुम जानोगे, कि मैं अपने पिता में हूं, और तुम मुझ में, और मैं तुम में।” अर्थात अदृश्य रूप में प्रभु अपने शिष्यों के साथ अपने बलिदान और पुनरुत्थान के बाद से ही सदा बना रहने का वायदा करता है, और तब से लेकर आज तक बना हुआ भी है।


प्रभु यीशु के क्रूस पर दिए गए बलिदान, और उसके मृतकों में से पुनरुत्थान के साथ ही समस्त मानव जाति के लिए उद्धार का, स्वर्ग में प्रवेश का, मार्ग खुल गया और उपलब्ध हो गया, और वे प्रभु में लाए गए विश्वास और पापों से पश्चाताप के द्वारा उसमें प्रवेश पा सकते थे; स्वर्ग का राज्य या परमेश्वर का राज्य अब उन्हें उपलब्ध था।


इन बातों को ध्यान में रखते हुए, जब आप मत्ती 16:19 में प्रभु द्वारा पतरस से कही बात को तथा इस पद से पूर्व के पदों में कलीसिया अर्थात मसीही विश्वासियों के समूह के बनाए जाने की बात के सन्दर्भ में देखते हैं, तो प्रभु द्वारा पतरस से कही गई बात को इस प्रकार समझा जा सकता है: “मैं तुझे स्वर्ग के राज्य में लोगों को प्रवेश करवाने की कुंजियाँ, यानि कि उद्धार का सुसमाचार, दूँगा, और जो वह सुसमाचार ग्रहण कर लेगा, अर्थात वह कुंजी ले लेगा, उसके लिए स्वर्ग में प्रवेश का द्वार खुल जाएगा; जो वह कुंजी, वह सुसमाचार अस्वीकार करेगा, उसके लिए स्वर्ग में प्रवेश का द्वार बंद रह जाएगा” – और हम देखते हैं कि प्रेरितों 2 अध्याय में पतरस द्वारा पहली बार इस कुंजी के प्रयोग के द्वारा, पतरस द्वारा पहला सुसमाचार प्रचार किए जाने के परिणामस्वरूप तीन हज़ार लोगों ने पश्चाताप किया प्रभु को ग्रहण किया, प्रभु यीशु के शिष्य बन गए (प्रेरितों 2:41) और पतरस द्वारा उन्हें दी गई उस सुसमाचार की कुंजी के उनके स्वीकार कर लेने से उनके लिए स्वर्ग के राज्य में प्रवेश का द्वार खुल गया।


यही सन्दर्भ मत्ती 16:28 पर भी लागू होता है। प्रभु यीशु ने जिस समय यह बात कही थी, उस समय वहां उपस्थित लोगों में से बहुतेरे लोग पतरस के इस पहले प्रचार किए जाने, और कलीसिया की स्थापना होने के समय तक जीवित रहे होंगे, और संभव है उन में से अनेकों प्रेरितों 2 अध्याय की इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी भी रहे होंगे। उन्होंने मृत्यु का स्वाद चखने के पहले ही स्थापित होते देख लिया; परमेश्वर के पुत्र, प्रभु यीशु के राज्य के आगमन को, लोगों द्वारा प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास के द्वारा प्रभु को उन लोगों के जीवनों में प्रवेश करते और उनके जीवनों को परिवर्तित करते हुए देख लिया। और साथ ही, जैसा प्रभु यीशु ने शिष्यों से प्रतिज्ञा की, वह अपने चेलों के साथ तब भी था और आज भी है। इस प्रकार मत्ती 16:28 की सभी बातें पतरस के पहले प्रचार के समय बनी पहली कलीसिया में पूरी हो जाती हैं। इसकी पूर्ति के लिए केवल प्रभु यीशु के दूसरे आगमन को ही लेने की आवश्यकता नहीं है – जो इसे स्वीकार करने में आने वाली कठिनाई का कारण होता है।

यह एक बार फिर से इस तथ्य की पुष्टि है कि परमेश्वर के वचन को समझने में त्रुटियों से बचने के लिए प्रभु के वचन को सदा ही उसके सन्दर्भ में तथा अन्य संबंधित पदों और शिक्षाओं के साथ ही देखना और समझाना चाहिए।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

मत्ती 11:12 को समझना


 मत्ती 11:12 बाइबल के पेचीदा खण्डों में से एक है, और विभिन्न व्याख्या कर्ताओं ने इसे विभिन्न अर्थ दिए हैं।

ऐसे खण्डों को समझने के लिए, इस बात को ध्यान में रखना होता है कि भाषा और शब्दों के प्रयोग तथा उनके अर्थों में, समय के साथ परिवर्तन आते रहते हैं, और बीते समय में शब्द का जो अर्थ हुआ करता था (मूल एवं अनुवादित भाषा, दोनों में), आवश्यक नहीं कि आज भी वही अर्थ या वैसा ही प्रयोग उतना ही उचित माना जाए।

इस पद को समझने में आने वाली कठिनाई का एक कारण है यहाँ प्रयुक्त हुए शब्द ‘बलपूर्वक तथा ‘बलवान; और सामान्यतः हमारे द्वारा इन शब्दों को एक नकारात्मक अर्थ के साथ देखना। मूल यूनानी भाषा के जिन शब्दों का अनुवाद ‘बलपूर्वक और ‘बलवान हुआ है, उनके अन्य अर्थ ‘सशक्त’ और ‘दृढ़ता पूर्वक’ भी हो सकते हैं।

अब यदि इन अन्य अर्थों के प्रयोग के साथ इस पद के वाक्य को बनाया जाए, तो वह कुछ इस प्रकार का होगा: “और यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के दिनों से लेकर अब तक प्रतिबद्ध लोग स्वर्ग के राज्य में सशक्त प्रयासों के द्वारा दृढ़ता पूर्वक के साथ प्रवेश करते जा रहे हैं” (मत्ती 11:12 भावानुवाद); और यह इस पद को एक अन्य इसी से संबंधित पद “व्यवस्था और भविष्यद्वक्ता यूहन्ना तक रहे, उस समय से परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाया जा रहा है, और हर कोई उस में प्रबलता से प्रवेश करता है” (लूका 16:16) के अधिक समरूप बना देता है।


इस पृष्ठभूमि के साथ, इस पद की एक संभव व्याख्या तथा समझ इस प्रकार व्यक्त की जा सकती है: “जब से यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने पश्चाताप करने और पश्चाताप के बपतिस्मे को लेने का आह्वान किया है, तब से लेकर अब तक, जितनों ने भी इस आह्वान को स्वीकार किया है, उन्होंने ऐसा मन में पक्का ठान कर तथा दृढ़ संकल्प के साथ किया है, इस निश्चित प्रयास के साथ कि समस्त प्रतिरोध का सामना करेंगे और इस बुलाहट में दृढ़ निश्चय के साथ बने रहेंगे।


किन्तु यहाँ पर साथ ही एक अन्य बात का भी ध्यान रखना चाहिए, जब प्रभु यीशु मसीह ने ये शब्द कहे थे, उस समय तक अनुग्रह के द्वारा उद्धार के युग का आरंभ नहीं हुआ था और लोग उस समय परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए व्यवस्था पर आधारित कर्मों की धार्मिकता पर ही विश्वास रखते तथा पालन करते थे, और इस लिए उनका मानना था कि परमेश्वर को ग्रहण योग्य होने के लिए उन्हें व्यवस्था के अनुरूप, प्रबल और सशक्त प्रयास करना आवश्यक है। साथ ही, प्रभु यीशु ने यहाँ पर बहुत विशिष्ट वाक्य प्रयोग किया हैऔर यूहन्ना बप्तिस्मा देने वाले के दिनों से लेकर अब तक ”, जो उनकी बात को एक निश्चित समय सीमा के साथ जोड़ देता है; और इस के पश्चात न तो किसी सुसमाचार लेख में और न ही किसी भी पत्री में इस अभिव्यक्ति (‘बल पूर्वक या ‘सशक्त या ‘दृढ़ता पूर्वक’ होना) को परमेश्वर के राज्य में प्रवेश पाने के लिए पूर्व-आग्रह या शर्त के समान फिर कहीं नहीं कहा गया है। इसलिए इस पद के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना कि परमेश्वर के राज्य में प्रवेश प्राप्त करने के लिए स्वयं के द्वारा किए गए प्रबल प्रयास आवश्यक हैं अनुचित है, पद की गलत व्याख्या है।


किन्तु परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा उसकी नया जन्म प्राप्त की हुई संतान के लिए, जिन्होंने अपने पापों से पश्चाताप कर के प्रभु यीशु मसीह को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार किया है, उनके लिए मसीही विश्वास में उन्नत होते जाने तथा अपनी मसीही बुलाहट की पवित्रता को बनाए रखने के लिए, सशक्त और दृढ़ प्रयास करते रहना सदा ही अनिवार्य रहे हैं, जैसा कि हम पौलुस की सेवकाई से देखते हैं जिसने अपने आप को सब कुछ सहते हुए भी दृढ़ता के साथ अनुशासन में बनाए रखा, और यही शिक्षा अपने युवा सहकर्मी तिमुथियुस को भी दी (1 कुरिन्थियों 9:24-27, 2 तिमुथियुस 2:3-5 & 4:7)


दूसरे शब्दों में, हमारे लिए जो इस अनुग्रह के युग में रहते हैं, उद्धार पाना और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के हकदार होना हमारे अपने किसी प्रयास से नहीं है वरन पूर्णतः परमेश्वर के अनुग्रह और प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास लाने से है। परन्तु मसीही विश्वास में आ जाने के पश्चात, उस में उन्नत एवं परिपक्व होते जाना तथा प्रभु के लिए सक्रिय एवं प्रभावी होना हमारे सशक्त एवं दृढ़ बने रहकर प्रतिरोध का सामना करने के निश्चय बनाए रखने तथा अपने विश्वास को सतत प्रयास के साथ निभाते रहने की माँग करता है।