इस सदी का मशहूर नास्तिक बर्टरैंड रस्सल अपने शब्द जाल कुछ इस तरह से बुनता है। एक बच्चा अपाहिज पैदा हुआ और वह अपना सारा जीवन दूसरों के सहारे बिस्तर पर बिताएगा। वह कहता है, परमेश्वर ऐसे बच्चों के साथ कैसे-कैसे खेल खेलता है। परमेश्वर इतना कठोर तो नहीं हो सकता। वह तो कोई जल्लाद ही होगा। न मानना ही परमेश्वर को मानने से भला है। दुखों ने ही तो परमेश्वर की उत्पत्ति की है। यदि दुख न रहें तो फिर परमेश्वर को कौन पूछेगा? दुख मिटा दो परमेश्वर खुद मिट जाएगा। उसने कहा कि सारे धर्मस्थलों को तुड़वाकर अस्पताल और स्कूल बनवा दो। इस संसार की दयनीय दशा देखकर लगता है कि यदि इसका बनाने वाला है तो वह हिटलर और मुसलोनी से भी ज़्यादा क्रूर है। जब तक परमेश्वर इन्सानी दिमाग़ में जीवित रहेगा, तब तक हत्याएं, उग्रवाद और हर तरह के कुकर्म होते रहेंगे।
अब सवाल यह है कि ये सब दुष्कर्म परमेश्वर करवाता है या हमारे धर्म?
धर्म के मानने और न मानने वालों का अगर बीता इतिहास देखा जाए तो एक सा ही है, जिन्होंने इन्सान और इन्सानियत को पूरी तरह तबाह करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। इसलिये संसार में हर रोज़ इन्सानियत का कत्ल हो रहा है। हमारे धर्मों ने इन्सान को इन्सान नहीं रहने दिया। उन्होंने उसे एक ऐसी मशीन बना दिया है जो न सोच सकती है और न सही गलत का एहसास कर सकती है। अक्सर हमारे आज के धर्म हमारी सही सोचने की सामर्थ को समाप्त कर देते हैं। धर्म को मानने वालों ने धर्म के नाम पर निर्दोष लोगों का खून बहाकर बड़ा दर्दनाक इतिहास लिखा है।
धर्म के लिये मरो या मार डालो। लोगों को अपना धर्म ही परमेश्वर दिखता है। अंधकार की शक्तियां लोगों को ऐसा अन्धा कर देती हैं कि भले ही इन्सान और इन्सानियत नाश क्यों न जाए, भले ही उन्हें धर्म के लिये कितना ही अधर्म क्यों न करना पड़े। क्या हमारे धर्मों की यही धारणा है? धर्मों की आपसी कड़वाहट अगर खत्म नहीं हुई तो यह इन्सानियत को ही खत्म कर डालेगी। या तो यह कड़वाहट ही रहेगी या फिर इन्सानियत ही।
लोग मर रहे हैं, मारे जा रहे हैं। बच्चे पैदा होते ही मार दिये जाते हैं या फिर उन्हें मां की कोख में ही मार दिया जाता है। हमारा सारा समाज ही सड़ा हुआ समाज बनता जा रहा है। हमने संसार को उसके आखिरी विनाश पर ला खड़ा किया है। हमने उसका पानी, बर्फ, हवा, पेड़-पौधे सब का सब दूषित कर दिया है। हम सब यह जानते हैं, पर फिर भी हम सब अपने में मस्त हैं।
आदमी ने न जाने क्या-क्या खो दिया है। उसने प्यार खो दिया, चैन खो दिया और इसना इतना खोया कि वह खुद खो गया है। उसने विश्वास खो दिया और अब किसी को किसी पर विश्वास ही नहीं रहा।
एक राजनेता के बेटे ने अपने बाप से कहा, "डैडी मुझे भी राजनीति सिखाओ।" बाप ने कहा, "चल राजनीति का पहिला सबक सीख ले। यहाँ आकर खड़ा हो और यहाँ से नीचे कूद।" बेटे ने कहा, "नहीं डैडी, चोट लग जाएगी।" बाप ने कहा, "अबे कूद, मैं हूँ न।" बेटे ने कहा, "नहीं डैडी"; बाप ने फिर कहा, "अबे कूद जा, मैं संभल लूंगा।" जैसे ही बेटा कुछ हिम्मत बांधकर कूदा, बाप झट से हट गया। बेटा बड़ी मुशकिल से उठा और झुंझलाकर बोला, "ये आपने क्या किया?" बाप बोला, "यही तो राजनीति का पहिला सबक है - कि राजनीति में अपने बाप पर भी विश्वास न करो।" ऐसे राजनेता हम पर राज करते हैं।
हम सोचते हैं कि हम अपनी परेशानियों को सुलझा लेंगे और अपनी समस्याओं को खुद ही ठीक कर लेंगे। हर एक देश सोचता है कि हम मिलकर सारे संसार की समस्याओं को सुलझा लेंगे, पर ऐसा होता नहीं। यू.एन.ओ. के बड़े-बड़े नेता शान्ति का सन्देश देते हैं, तरीके सुझाते हैं और शान्ति वार्ताएं करते हैं। पर उनके घर और उनके जीवनों में ही शन्ति नहीं है पर वे शान्ति बांटते फिरते हैं।
ज़्यादातर ज़िन्दगियां इसी सोच में बीतती हैं कि क्या खाएंगे? क्या पहिनेंगे? क्या कमाएंगे? बच्चों को कैसा बनाएंगे? क्या यही ज़िन्दगी है? यह जिस्म आदमी को सिर्फ भूख मिटाने के लिये नहीं दिया गया, अब वह भूख चाहे पेट की हो या अभिलाषाओं की। आदमी के पास एक अनजानी प्यास है। उसे पैसे की प्यास है जिसे पाकर भी वह अपने आप को प्यासा पाता है। ऊंचा पद पाने की प्यास है पर उसे पाकर भी वह वैसा ही प्यासा है। लगातार सोचता है कि ऐसा क्या पाऊं जिसे पाकर मेरी प्यास बुझे? आदमी इतना अधूरा सा क्यों है? आदमी इतना मजबूर सा क्यों है? वह जैसा जीना चाहता है वैसा जी नहीं पाता। आदमी ने बहुत कुछ पाया और बहुत कुछ कमाया पर फिर भी उसे लगता है कि अभी कुछ और बाकी है जो नहीं पाया है। हर आदमी जानता है कि आदमी मिट्टी है और वह मिट्टी में ही मिल जाएगा। उसे मिट्टी देने के लिये कुछ गज़ ज़मीन से ज़्यादा और क्या चाहिये? वह जानता है कि सब कुछ छोड़कर जाएगा, पर फिर भी वह जोड़ने की जुगाड़ में ही लग रहता है कि और क्या पा लूं?
इस सदी की सबसे बड़ि त्रासदी है, या यूँ कहीये इस सदी पर सबसे बड़ी लानत यह है कि आदमी खुशी और प्यार के लिये तरसता है। संसार में, घर और परिवार में शान्ति नहीं है। हर ज़िन्दगी की अजीब सी कहानी है। आदमी कितना अधूरा है, कितना मजबूर है। वह करे तो क्या करे? पाप उसके सीने पर चढ़कर एक भारीपन बनाए रखता है। आदमी का दिल इतना उलझा रहता है कि वह अपनी आखिरी सांस तक बेचैनी को झेलता है। गरीब की परेशानी है कि जब भूख लगे तो क्या खाऊँ? अमीर की परेशानी है - क्या खाऊँ कि भूख लगे? समस्या दोनो के पास है। एक जीवन रोटी के लिये तरसता है और दूसरा भूख के लिये।
मौत का डर तो आदमी में है पर परमेश्वर का डर नहीं रहा। कब्र, कफन, शमशान और लाश जैसे शब्द सुनते ही सिहरन उठती है और उन्हें सुनकर एक डर सताता है।
कब्र के आगे आपके साथ कोई नहीं जाएगा। कब्र के पार तो आप के पाप ही आपका साथ निभाएंगे। जो कुछ आप बोओगे वही तो काटोगे। कैक्टस बोओगे तो गुलाब नहीं काटोगे, धतूरा बोओगे तो उससे आप सेब नहीं काटोगे। आप पाप बोकर उससे हमेशा की मौत काटोगे। पर कौन है जिसने पाप को बोया और उसकी सज़ा किसी और ने काटी हो? वह कौन है जो आपकी शर्मनाक हालत पर आपको अपनाने से न शर्माता हो?
एक प्रचारक ने कहा, "इस संसार में ऐसा कोई जन है जिस ने कभी झूठ न बोला हो" भीड़ में से एक आदमी ने अपना हाथ ऊँचा किया, "हाँ ऐसे एक नहीं अनेक लोग हैं।" प्रचारक ने पूछा, "कौन हैं?" उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, "जन्म के गूँगे; जिन्होंने कभी बोला ही नहीं, तो वे झूठ क्या बोलेंगे?" तब प्रचारक ने कहा कि एक जन्मे के गूँगे की माँ ने उससे पूछा, "यहाँ तीन लड्डू रखे थे, एक कहाँ गया? किसने खाया?" गूँगे ने इशारे से कहा, "मैंने नहीं खाया।" वह शब्दों से नहीं पर इशारों से ही झूठ बोल गया। क्या आप सोचते हैं कि जो जज झूठ बोलने पर अपराधी को सज़ा सुना देता है, उस जज ने सव्यं कभी झूठ नहीं बोला होगा? इसलिये परमेश्वर का वचन कहता है एक भी धर्मी नहीं, एक भी नहीं (रोमियों ३:१०); मैं भी नहीं, आप भी नहीं।
मैं अपने आप से और अपने परिवार से बहुत नाउम्मीद आदमी था। ऐसा नहीं था कि पैसा नहीं था; पर प्यार नहीं था खुशी और चैन नहीं था। आपको मालूम है मेरा सब कुछ बदल गया। धर्म बदलने की तो ज़रूरत नही पड़ी, पर एक दुआ मेरे लिये वो दवा बन गई जिसने सब कुछ बदल डाला। मेरी नफरत को प्यार में, हार को जीत में और निराशा को आशा में बदल डाला। देखा तो सब कुछ नया हो गया। यह मेरा नया जन्म था। सिर्फ एक दुआ से यह हुआ और यह दुआ थी, "हे यीशु मुझ पापी पर दया करें और मेरे पापों को क्षमा करें।" यही दुआ आपके लिये भी ऐसे ही दवा का काम कर सकती है।
मैं अपने प्रचार को रंग देने के लिये यह बातें नहीं कह रहा हूँ; पर सच कह रहा हूँ, मन की सच्चाई से कह रहा हूँ। आप माने या न माने इस बेचैनी को निकालने का बस यही एक रास्ता है - अपनाएं या न अपनाएं, यह आप पर है। आप माने या न माने, फैसला आपके हाथ में ही है; आप अपना फैसला ले सकते हैं।
मैं मानता हूँ कि किसी का धर्म परिवर्तन करना या कराना एक भयानक पाप है। हाँ, जीवन बदल जाए, आप अपने पापों से छुटकारा पाकर पार उतर जाएं और आनन्द और शान्ति से भर जाएं, एक ऐसा परिवर्तन ज़रूर आना चाहिये।
कहीं ऐसा न हो जो नहीं होना चाहिये, वह अचानक हो जाए। आप कह सकते हैं कि यह तो प्रचार मात्र है। मैं आपको नहीं जानता, पर सच जानिये इस सन्देश पर आपका नाम लिखा है। यह पत्रिका परमेश्वर के पत्र के रूप में आपके लिये है। मैं आप से बात कर रहा हूँ, आपसे जो परमेश्वर की दया से इन लाईनों को पढ़ रहे हैं। यदी आप ठीक हैं, भले-चंगे हैं और चैन से हैं तो आपको परमेश्वर की क्या ज़रूरत है और आपको उससे क्या लेना देना? हाँ, अगर आप परेशान हैं, हारे हुए हैं और अपनी लतों से लदे हुए हैं, तो आपके लिये परमेश्वर तैयार खड़ा है।
आप सोचते हैं कि आप कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं हैं; शायद संसार भी आपको कोई खास महत्व न देता हो, पर आप परमेश्वर के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण हो। इतने कि उसने आपके लिये क्रूस पर अपनी जान दे दी, आपके लिये अपना लहू बहा दिया। वह आपके लिये वो कर सकता है जो आप अपने लिये सोच भी नहीं सकते। वह आपके माँगने और सोचने से कहीं बढ़कर आपके लिये कर सकता है (इफिसियों ३:२०)।
परमेश्वर मनुष्यों को बचाने में लगा है, चाहे वे किसी जाति का, किसी भी धर्म का और कोई भी क्यों न हो - वह सब को प्यार करता है। हम तो उसी से प्यार करते हैं जो हमें प्यार करता है, पर वह तो उन्हें भी प्यार करता है जो उससे नफरत करते हैं। उसके इसी प्यार ने वो वार किया है जो आज तक कोई नहीं कर पाया। यह जो आप पढ़ रहें हैं, मात्र उपदेश नहीं है।
अगर आप अपने आप को पापी नहीं मानते, तो आप किसी को कोई धोखा नहीं देते। सच तो यह है कि आप अपने आप को ही धोखा दे रहे हैं।
यह वक्त अगर फिसल गया तो फिर आपके हाथ की पकड़ में कभी नहीं आएगा। शायद फिर आपको पाप से पश्चाताप करने का मौका ही न मिल पाए। मैं आपसे फरियाद करता हूँ कि अभी ही एक प्रार्थना करें, "हे यीशु मुझ पापी पर दया करो, मेरे पाप क्षमा करो।"
क्षमा पाने की शर्त तो बस यही है कि आप क्षमा मांग लें। परमेश्वर हमें कैसे माफ कर सकता है? एक दिल से निकली दुआ कभी खाली नहीं जाती। सिर्फ इतनी दुआ माफी के लिये काफी है, "हे यीशु मुझ पापी पर दया करें, मेरे पाप क्षमा करें।"
अब सवाल यह है कि ये सब दुष्कर्म परमेश्वर करवाता है या हमारे धर्म?
धर्म के मानने और न मानने वालों का अगर बीता इतिहास देखा जाए तो एक सा ही है, जिन्होंने इन्सान और इन्सानियत को पूरी तरह तबाह करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। इसलिये संसार में हर रोज़ इन्सानियत का कत्ल हो रहा है। हमारे धर्मों ने इन्सान को इन्सान नहीं रहने दिया। उन्होंने उसे एक ऐसी मशीन बना दिया है जो न सोच सकती है और न सही गलत का एहसास कर सकती है। अक्सर हमारे आज के धर्म हमारी सही सोचने की सामर्थ को समाप्त कर देते हैं। धर्म को मानने वालों ने धर्म के नाम पर निर्दोष लोगों का खून बहाकर बड़ा दर्दनाक इतिहास लिखा है।
धर्म के लिये मरो या मार डालो। लोगों को अपना धर्म ही परमेश्वर दिखता है। अंधकार की शक्तियां लोगों को ऐसा अन्धा कर देती हैं कि भले ही इन्सान और इन्सानियत नाश क्यों न जाए, भले ही उन्हें धर्म के लिये कितना ही अधर्म क्यों न करना पड़े। क्या हमारे धर्मों की यही धारणा है? धर्मों की आपसी कड़वाहट अगर खत्म नहीं हुई तो यह इन्सानियत को ही खत्म कर डालेगी। या तो यह कड़वाहट ही रहेगी या फिर इन्सानियत ही।
आदमी में अपने आप को बरबाद करने की पूरी काबलियत है
लोग मर रहे हैं, मारे जा रहे हैं। बच्चे पैदा होते ही मार दिये जाते हैं या फिर उन्हें मां की कोख में ही मार दिया जाता है। हमारा सारा समाज ही सड़ा हुआ समाज बनता जा रहा है। हमने संसार को उसके आखिरी विनाश पर ला खड़ा किया है। हमने उसका पानी, बर्फ, हवा, पेड़-पौधे सब का सब दूषित कर दिया है। हम सब यह जानते हैं, पर फिर भी हम सब अपने में मस्त हैं।
आदमी ने न जाने क्या-क्या खो दिया है। उसने प्यार खो दिया, चैन खो दिया और इसना इतना खोया कि वह खुद खो गया है। उसने विश्वास खो दिया और अब किसी को किसी पर विश्वास ही नहीं रहा।
एक राजनेता के बेटे ने अपने बाप से कहा, "डैडी मुझे भी राजनीति सिखाओ।" बाप ने कहा, "चल राजनीति का पहिला सबक सीख ले। यहाँ आकर खड़ा हो और यहाँ से नीचे कूद।" बेटे ने कहा, "नहीं डैडी, चोट लग जाएगी।" बाप ने कहा, "अबे कूद, मैं हूँ न।" बेटे ने कहा, "नहीं डैडी"; बाप ने फिर कहा, "अबे कूद जा, मैं संभल लूंगा।" जैसे ही बेटा कुछ हिम्मत बांधकर कूदा, बाप झट से हट गया। बेटा बड़ी मुशकिल से उठा और झुंझलाकर बोला, "ये आपने क्या किया?" बाप बोला, "यही तो राजनीति का पहिला सबक है - कि राजनीति में अपने बाप पर भी विश्वास न करो।" ऐसे राजनेता हम पर राज करते हैं।
हम सोचते हैं कि हम अपनी परेशानियों को सुलझा लेंगे और अपनी समस्याओं को खुद ही ठीक कर लेंगे। हर एक देश सोचता है कि हम मिलकर सारे संसार की समस्याओं को सुलझा लेंगे, पर ऐसा होता नहीं। यू.एन.ओ. के बड़े-बड़े नेता शान्ति का सन्देश देते हैं, तरीके सुझाते हैं और शान्ति वार्ताएं करते हैं। पर उनके घर और उनके जीवनों में ही शन्ति नहीं है पर वे शान्ति बांटते फिरते हैं।
आदमी मिट्टी का है और मिट्टी देने के लिये उसे कुछ गज़ ज़मीन ही तो चाहिये
ज़्यादातर ज़िन्दगियां इसी सोच में बीतती हैं कि क्या खाएंगे? क्या पहिनेंगे? क्या कमाएंगे? बच्चों को कैसा बनाएंगे? क्या यही ज़िन्दगी है? यह जिस्म आदमी को सिर्फ भूख मिटाने के लिये नहीं दिया गया, अब वह भूख चाहे पेट की हो या अभिलाषाओं की। आदमी के पास एक अनजानी प्यास है। उसे पैसे की प्यास है जिसे पाकर भी वह अपने आप को प्यासा पाता है। ऊंचा पद पाने की प्यास है पर उसे पाकर भी वह वैसा ही प्यासा है। लगातार सोचता है कि ऐसा क्या पाऊं जिसे पाकर मेरी प्यास बुझे? आदमी इतना अधूरा सा क्यों है? आदमी इतना मजबूर सा क्यों है? वह जैसा जीना चाहता है वैसा जी नहीं पाता। आदमी ने बहुत कुछ पाया और बहुत कुछ कमाया पर फिर भी उसे लगता है कि अभी कुछ और बाकी है जो नहीं पाया है। हर आदमी जानता है कि आदमी मिट्टी है और वह मिट्टी में ही मिल जाएगा। उसे मिट्टी देने के लिये कुछ गज़ ज़मीन से ज़्यादा और क्या चाहिये? वह जानता है कि सब कुछ छोड़कर जाएगा, पर फिर भी वह जोड़ने की जुगाड़ में ही लग रहता है कि और क्या पा लूं?
इस सदी की सबसे बड़ि त्रासदी है, या यूँ कहीये इस सदी पर सबसे बड़ी लानत यह है कि आदमी खुशी और प्यार के लिये तरसता है। संसार में, घर और परिवार में शान्ति नहीं है। हर ज़िन्दगी की अजीब सी कहानी है। आदमी कितना अधूरा है, कितना मजबूर है। वह करे तो क्या करे? पाप उसके सीने पर चढ़कर एक भारीपन बनाए रखता है। आदमी का दिल इतना उलझा रहता है कि वह अपनी आखिरी सांस तक बेचैनी को झेलता है। गरीब की परेशानी है कि जब भूख लगे तो क्या खाऊँ? अमीर की परेशानी है - क्या खाऊँ कि भूख लगे? समस्या दोनो के पास है। एक जीवन रोटी के लिये तरसता है और दूसरा भूख के लिये।
मौत का डर तो आदमी में है पर परमेश्वर का डर नहीं रहा। कब्र, कफन, शमशान और लाश जैसे शब्द सुनते ही सिहरन उठती है और उन्हें सुनकर एक डर सताता है।
कब्र के आगे आपके साथ कोई नहीं जाएगा। कब्र के पार तो आप के पाप ही आपका साथ निभाएंगे। जो कुछ आप बोओगे वही तो काटोगे। कैक्टस बोओगे तो गुलाब नहीं काटोगे, धतूरा बोओगे तो उससे आप सेब नहीं काटोगे। आप पाप बोकर उससे हमेशा की मौत काटोगे। पर कौन है जिसने पाप को बोया और उसकी सज़ा किसी और ने काटी हो? वह कौन है जो आपकी शर्मनाक हालत पर आपको अपनाने से न शर्माता हो?
एक प्रचारक ने कहा, "इस संसार में ऐसा कोई जन है जिस ने कभी झूठ न बोला हो" भीड़ में से एक आदमी ने अपना हाथ ऊँचा किया, "हाँ ऐसे एक नहीं अनेक लोग हैं।" प्रचारक ने पूछा, "कौन हैं?" उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, "जन्म के गूँगे; जिन्होंने कभी बोला ही नहीं, तो वे झूठ क्या बोलेंगे?" तब प्रचारक ने कहा कि एक जन्मे के गूँगे की माँ ने उससे पूछा, "यहाँ तीन लड्डू रखे थे, एक कहाँ गया? किसने खाया?" गूँगे ने इशारे से कहा, "मैंने नहीं खाया।" वह शब्दों से नहीं पर इशारों से ही झूठ बोल गया। क्या आप सोचते हैं कि जो जज झूठ बोलने पर अपराधी को सज़ा सुना देता है, उस जज ने सव्यं कभी झूठ नहीं बोला होगा? इसलिये परमेश्वर का वचन कहता है एक भी धर्मी नहीं, एक भी नहीं (रोमियों ३:१०); मैं भी नहीं, आप भी नहीं।
एक हारा हुआ इन्सान जीत के जीवन में आ खड़ा हुआ
मैं अपने आप से और अपने परिवार से बहुत नाउम्मीद आदमी था। ऐसा नहीं था कि पैसा नहीं था; पर प्यार नहीं था खुशी और चैन नहीं था। आपको मालूम है मेरा सब कुछ बदल गया। धर्म बदलने की तो ज़रूरत नही पड़ी, पर एक दुआ मेरे लिये वो दवा बन गई जिसने सब कुछ बदल डाला। मेरी नफरत को प्यार में, हार को जीत में और निराशा को आशा में बदल डाला। देखा तो सब कुछ नया हो गया। यह मेरा नया जन्म था। सिर्फ एक दुआ से यह हुआ और यह दुआ थी, "हे यीशु मुझ पापी पर दया करें और मेरे पापों को क्षमा करें।" यही दुआ आपके लिये भी ऐसे ही दवा का काम कर सकती है।
मैं अपने प्रचार को रंग देने के लिये यह बातें नहीं कह रहा हूँ; पर सच कह रहा हूँ, मन की सच्चाई से कह रहा हूँ। आप माने या न माने इस बेचैनी को निकालने का बस यही एक रास्ता है - अपनाएं या न अपनाएं, यह आप पर है। आप माने या न माने, फैसला आपके हाथ में ही है; आप अपना फैसला ले सकते हैं।
वो फैसला जो फासले मिटा दे
मैं मानता हूँ कि किसी का धर्म परिवर्तन करना या कराना एक भयानक पाप है। हाँ, जीवन बदल जाए, आप अपने पापों से छुटकारा पाकर पार उतर जाएं और आनन्द और शान्ति से भर जाएं, एक ऐसा परिवर्तन ज़रूर आना चाहिये।
कहीं ऐसा न हो जो नहीं होना चाहिये, वह अचानक हो जाए। आप कह सकते हैं कि यह तो प्रचार मात्र है। मैं आपको नहीं जानता, पर सच जानिये इस सन्देश पर आपका नाम लिखा है। यह पत्रिका परमेश्वर के पत्र के रूप में आपके लिये है। मैं आप से बात कर रहा हूँ, आपसे जो परमेश्वर की दया से इन लाईनों को पढ़ रहे हैं। यदी आप ठीक हैं, भले-चंगे हैं और चैन से हैं तो आपको परमेश्वर की क्या ज़रूरत है और आपको उससे क्या लेना देना? हाँ, अगर आप परेशान हैं, हारे हुए हैं और अपनी लतों से लदे हुए हैं, तो आपके लिये परमेश्वर तैयार खड़ा है।
आप सोचते हैं कि आप कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं हैं; शायद संसार भी आपको कोई खास महत्व न देता हो, पर आप परमेश्वर के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण हो। इतने कि उसने आपके लिये क्रूस पर अपनी जान दे दी, आपके लिये अपना लहू बहा दिया। वह आपके लिये वो कर सकता है जो आप अपने लिये सोच भी नहीं सकते। वह आपके माँगने और सोचने से कहीं बढ़कर आपके लिये कर सकता है (इफिसियों ३:२०)।
परमेश्वर मनुष्यों को बचाने में लगा है, चाहे वे किसी जाति का, किसी भी धर्म का और कोई भी क्यों न हो - वह सब को प्यार करता है। हम तो उसी से प्यार करते हैं जो हमें प्यार करता है, पर वह तो उन्हें भी प्यार करता है जो उससे नफरत करते हैं। उसके इसी प्यार ने वो वार किया है जो आज तक कोई नहीं कर पाया। यह जो आप पढ़ रहें हैं, मात्र उपदेश नहीं है।
अगर आप अपने आप को पापी नहीं मानते, तो आप किसी को कोई धोखा नहीं देते। सच तो यह है कि आप अपने आप को ही धोखा दे रहे हैं।
यह वक्त अगर फिसल गया तो फिर आपके हाथ की पकड़ में कभी नहीं आएगा। शायद फिर आपको पाप से पश्चाताप करने का मौका ही न मिल पाए। मैं आपसे फरियाद करता हूँ कि अभी ही एक प्रार्थना करें, "हे यीशु मुझ पापी पर दया करो, मेरे पाप क्षमा करो।"
क्षमा पाने की शर्त तो बस यही है कि आप क्षमा मांग लें। परमेश्वर हमें कैसे माफ कर सकता है? एक दिल से निकली दुआ कभी खाली नहीं जाती। सिर्फ इतनी दुआ माफी के लिये काफी है, "हे यीशु मुझ पापी पर दया करें, मेरे पाप क्षमा करें।"
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