प्रश्न: बाईबल में 1 यूहन्ना 5 :16-17
में वह कौन सा पाप है जिसका फल मृत्यु नहीं है ?
उत्तर:
इन पदों ने बहुतेरों को असमंजस में रखा हुआ है, और इनकी अनेकों व्याख्याएं
की गई हैं। इसलिए कोई पूर्णतः स्पष्ट और सभी को स्वीकार्य उत्तर शायद संभव न हो। सामान्यतः
1 यूहन्ना 5:16-17 को समझने का प्रयास करते समय या व्याख्या करते समय, बाइबल में
पाप और उसके दुष्परिणाम से संबंधित पदों, जैसे कि रोमियों 3:23 और रोमियों 6:23, तथा
ऐसे ही अन्य पदों का ध्यान करते हुए व्याख्या दी जाती है या समझने का प्रयास किया
जाता है।
परन्तु हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यूहन्ना ने जब यह पत्री लिखी
थी तो अन्य पत्रियों और लेखों को संकलित करके तैयार हुआ नया नियम तब उसके पाठकों
को उपलब्ध नहीं था, जैसा कि अब हमारे हाथों में है। इसलिए जिन लोगों को यह पत्री
लिखी गई थी, उनके पास वे सब पद और शिक्षाएँ नहीं थे जो अब नए नियम में संकलित होकर
हमारे पास हैं, और जिनके आधार पर अब हम इन पदों को समझने के प्रयास करते हैं।
इसलिए वे लोग तब यूहन्ना द्वारा लिखी इस बात को उस प्रकार से नहीं देख और समझ सकते
थे जैसा कि हम आज बहुधा देखते और समझते हैं; और न ही तब वे लोग इनमें कोई ऐसे अर्थ
डाल सकते थे जो नए नियम में अन्य स्थानों पर लिखी बातों के आधार पर हैं, जिस
प्रकार के अर्थों को इनमें डालकर इन्हें समझने के प्रयास आज हम करते हैं। इसलिए इन
पदों का अर्थ उसी संदर्भ में देखा तथा समझा जाना चाहिए, जिस संदर्भ में उन लोगों
ने तब पढ़ा और समझा होगा जब यूहन्ना ने यह पत्री उन्हें लिखी थी; क्योंकि वही अर्थ
इन पदों का मूल या प्राथमिक अर्थ है, शेष सभी अर्थ और अभिप्राय उस मूल अर्थ के
सहायक हैं, उनसे वह मूल अर्थ बदल नहीं सकता है।
यूहन्ना की इस पत्री के आरंभिक अध्यायों को पढ़ने से प्रतीत होता है कि यूहन्ना
ने यह पत्री ऐसे लोगों की मण्डली को लिखी थी जिनमें से कुछ तो मसीही विश्वास में
‘बालक’ थे, किन्तु अधिकांश मसीही विश्वास में दृढ़ और स्थापित थे, परिपक्व थे, और
धार्मिकता से संबंधित बातों को जानते थे (1 यूहन्ना 2:7, 13, 14, 20, 21, 24, 27)।
इसलिए बहुत संभव है कि वे पुराने नियम और मूसा में होकर इस्राएलियों को मिली
व्यवस्था का कुछ ज्ञान और समझ रखते थे। परमेश्वर यहोवा को मानने वालों के लिए क्या
पाप है और क्या नहीं है, इसकी समझ परमेश्वर के उस वचन के आधार पर थी जिसे हम आज
पुराना नियम कहते हैं; और उसमें भी मुख्यतः “व्यवस्था” के आधार पर। जब हम पुराने
नियम की धार्मिकता और व्यवस्था के आधार पर देखते हैं, तो व्यवस्था में कुछ पाप ऐसे
थे जिनका कोई प्रायश्चित नहीं था, उनके लिए मृत्यु-दण्ड की आज्ञा थी; उदाहरण के
लिए देखिए: निर्गमन 28:43; लैव्यवस्था 22:9; गिनती 1:51; गिनती 3:10; गिनती
3:38; गिनती 18:7; गिनती 18:22; गिनती 18:32;
आदि। लैव्यवस्था 10:1-2 में हम देखते हैं कि नादाब और अबीहू को पश्चाताप करने का,
या उनके लिए किसी को कोई विनती अथवा प्रायश्चित अर्पित करने का अवसर ही नहीं दिया
गया, वे तुरंत ही मर गए। जो लोग पुराने नियम की धार्मिकता और परमेश्वर की व्यवस्था
से अवगत थे, वे समझते थे कि व्यवस्था में ऐसे पाप उल्लेखित हैं जिनका परिणाम मृत्यु
है, उनके लिए कोई प्रायश्चित या क्षमा का प्रावधान किया ही नहीं गया है, इसलिए
उनकी क्षमा की कोई गुंजाइश ही नहीं है, उनके लिए क्षमा मिल ही नहीं सकती है।
दूसरी बात, 1 यूहन्ना 5:16 में दो बार “विनती” शब्द का प्रयोग किया गया
है। “विनती” के लिए जिन शब्दों का मूल यूनानी भाषा में प्रयोग किया गया है वे
दोनों स्थानों पर अलग-अलग शब्द हैं। पहली बार प्रयुक्त शब्द है ‘aiteo’ जिसका अर्थ होता है ‘to ask (पूछना)’, या, ‘to
request (निवेदन करना)’; और दूसरी बार प्रयुक्त शब्द है ‘erotao’ जिसका अर्थ होता है ‘to interrogate (पूछताछ करना,
या जानकारी लेना)’। बाइबिल के अंग्रेज़ी के भिन्न अनुवादों में देखने से भी यही बात
सामने आती है कि सभी अनुवादक इन्हें “प्रार्थना” का अर्थ रखने वाली “विनती” नहीं
लिखते हैं। इन मूल शब्दों के अर्थों के आधार पर 1 यूहन्ना 5:16 को इस अभिप्राय से
देख सकते हैं, “यदि कोई अपने भाई को ऐसा पाप करते देखे, जिस का फल मृत्यु न हो, तो विनती (‘aiteo’ - निवेदन) करे, और परमेश्वर, उसे, उन के लिये,
जिन्हों ने ऐसा पाप किया है जिस का फल मृत्यु न हो, जीवन देगा। पाप ऐसा भी होता है जिसका फल मृत्यु है: इस के विषय में मैं विनती
(‘erotao’ - पूछताछ करने या
जानकारी एकत्रित करने) के लिये नहीं कहता।” यहाँ दूसरी बार प्रयुक्त
“विनती” शब्द का अभिप्राय उस प्रकार से “प्रार्थना” करना नहीं है, जैसा कि हम
सामान्यतः समझते हैं और जिसके अन्तर्गत परमेश्वर से कुछ माँगते हैं।
यहाँ दो बहुत महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देना अत्यावश्यक है, जिनका इस पद
की व्याख्या एवँ समझ पर सीधा-सीधा प्रभाव पड़ता है। पहली, जैसा कि इस पद के आरंभ
में आया है, यूहन्ना द्वारा यह बात “अपने भाई” अर्थात किसी मसीही विश्वासी
जन के लिए कही जा रही है; अर्थात ऐसे व्यक्ति के लिए जिसके मसीह यीशु में विश्वास
लाने के द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह से पाप क्षमा हो गए हैं और वह प्रभु की सन्तान
बनकर अनन्त जीवन में प्रवेश कर चुका है (यूहन्ना 1:12-13)। मसीही विश्वासी होने के
नाते, वह अब व्यवस्था की बातों और अनिवार्यताओं से बाहर है, व्यवस्था की
आवश्यकताओं की उस पर कोई पकड़ शेष नहीं है (रोमियों 7:6; कुलुस्सियों 2:14); अब न
तो व्यवस्था के आधार पर उसका आँकलन किया जा सकता है, और न ही वह व्यवस्था के
अनुसार दोषी ठहराया जा सकता है या उसे कोई दण्ड दिया जा सकता है।
दूसरी यह, कि इस पद के अन्त में लिखा है “...पाप ऐसा भी होता है जिसका फल
मृत्यु है: इस के विषय में मैं बिनती करने के लिये नहीं
कहता” और इसी वाक्य को लेकर सारा असमंजस, अनिश्चितता,
दुविधा होती है। ध्यान देने तथा समझने योग्य बात यह है कि यहाँ पर यूहन्ना ने यह
नहीं कहा है कि “क्योंकि उस व्यक्ति के वे पाप क्षमा ही नहीं किए जाएँगे, इसलिए
मैं उनके लिए प्रार्थना करने के लिए नहीं कह रहा हूँ” – किन्तु सामान्यतः हम इस पद
को पढ़ते समय यही अर्थ निकालते तथा मानते हैं, जबकि ऐसा लिखा ही नहीं गया है।
किन्तु यदि हम यहाँ “विनती” के स्थान पर मूल यूनानी भाषा में प्रयुक्त शब्द ‘erotao’ के शब्दार्थ ‘to interrogate’ (पूछताछ करना, या
जानकारी लेना) का उपयोग करें, तो फिर वाक्य बन जाता है “...पाप ऐसा भी होता है जिसका
फल मृत्यु है: इस के विषय में मैं ‘पूछताछ’ करने के लिये
नहीं कहता।” अब यूहन्ना के कहे इस वाक्य का अभिप्राय हो
जाता है, “...पाप ऐसा भी होता है जिसका व्यवस्था के अनुसार फल मृत्यु है: परन्तु
तुम्हें इसके विषय कोई पूछताछ करने की आवश्यकता नहीं है।” अब जब इसे ऊपर कही गई
पहली “भाई” वाली बात के साथ जोड़ कर देखा जाए तो यहाँ यूहन्ना द्वारा कही गई बात हो
जाती है, “...व्यवस्था के अनुसार ऐसा पाप तो है जिसके लिए
मृत्यु है: परन्तु इसके लिए तुम्हें जानकारी लेने या पूछताछ
करने की आवश्यकता नहीं है।” तात्पर्य यह कि, जब प्रभु ही ने उस व्यक्ति को क्षमा
कर दिया है जो व्यवस्था के अनुसार क्षमा नहीं किया जा सकता था, उसे अपने मण्डली का
सदस्य और अपनी सन्तान बनाकर अपने परिवार में सम्मिलित कर लिया है, तो फिर अब
तुम्हें उसके पापों का लेखा-जोखा लेने, उसके विषय पूछताछ करने या जानकारी एकत्रित
करने की क्या आवश्यकता है? उससे चाहे ऐसा भी पाप हो जाए जो व्यवस्था के अनुसार
क्षमा योग्य नहीं है, परन्तु तुम्हारा उसके पाप के क्षमा-योग्य होने या न होने की
बात से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए तुम उसकी पूछताछ मत करो।
यदि इस पद, 1 यूहन्ना 5:16, को उससे पहले के पदों के संदर्भ में देखें, तो
भी उन पदों में व्यक्त बात के साथ यह अभिप्राय सही बैठता है। 1 यूहन्ना 5:13-15
में यूहन्ना अपने पाठकों को समझा रहा है कि प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करने से
जो अनन्त जीवन मिला है, उसके कारण हमें यह हियाव भी दिया गया है कि हम परमेश्वर से
माँग सकें, और हमें यह आश्वासन है कि परमेश्वर हमारे निवेदन सुनकर, यदि वे उसकी
इच्छा के अनुसार हैं, तो उन्हें पूरा करेगा। क्योंकि यूहन्ना 3:16 के अनुसार
परमेश्वर की इच्छा मसीह यीशु पर विश्वास करने वालों को जीवन प्रदान करने की है, और
अब प्रभु यीशु मसीह में होकर व्यवस्था की बातें और दण्ड हम पर लागू नहीं हैं,
इसलिए हम निःसंकोच परमेश्वर से उन लोगों को जीवन दान देने के लिए प्रार्थना कर
सकते हैं, जो व्यवस्था के अनुसार इस जीवन दान के योग्य नहीं थे, और परमेश्वर उन
लोगों को भी जीवन दान देगा।
संभव है कि व्यवस्था के आधार पर कुछ लोगों को यह संकोच रहा हो कि जिस पाप
के लिए परमेश्वर ने पहले ही किसी क्षमा का प्रावधान नहीं किया है और अपनी दी हुई
व्यवस्था में मृत्यु निर्धारित कर दी है, उसी के लिए अब हम परमेश्वर से अपनी बात
से पलटने और बदलने के लिए कैसे निवेदन कर सकते हैं? यूहन्ना यहाँ उन्हें हिम्मत दे
रहा है कि यदि कोई ऐसा पाप कर भी दे, जिसका दण्ड व्यवस्था के अनुसार मृत्यु है, तो
भी अब प्रभु यीशु मसीह में होकर उसकी क्षमा और जीवन दान के लिए अवसर उपलब्ध है,
मार्ग खुला है।
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